गुरुवार, 24 सितंबर 2020

हाईफा रौ युद्ध

हाईफा रौ युद्ध 

-:  हाईफा दिवस :-
हाईफा रौ युद्ध  :-  २३ सितंबर १९१८
म्हारी आ नवीं कविता :- तोपा नै तलवारां सूं जीत्या हा ।
( हाईफा सहर जो इण बगत इजराइल में है उण सहर पर कबजौ तुर्की रौ हो अर अंग्रेजी हकुमत कई बार जीतण री कोसीस करी पण पार पड़ी कोनी क्यूंक हिफाजत में तुर्की सागै जर्मनी अर आस्ट्रेया री फोजा तोपा अर बंदूका सूं लेस तैनात ही पण अंग्रेज हाईफा नै ऐन-केन प्रकारेण कब्जावणौ चावा हा  इणी योजना रे कारण अंग्रेज ऐलकार जोधपुर रियासत आय-परा सर प्रताप सूं मिळया अर आ सलाह दी क आप  सैना रा हथियार बदलो क्यूंक अंग्रेजा री नजर मारवाड़ रा वीरां री वीरता पर ही इण कारण मदद वास्ते सैना में बदलाव री बात पर जोर दियो )

(सर-प्रताप सूं अंग्रेजी अफसर रो सवाल जबाब )

इण बेळयां करो बदलाव थै सैना में,
ऐ भाला तलवारा धिकै नहीं ।
दुस्मण री तोपां अर बंदूका सामीं, 
थांरी आ सैना टिकै नहीं । 

ल्यावौ थांरा सस्त्र पाती, 
अर लाव-लसकर भी ल्यावौ थाकां ।
म्हैं उतारां सैरां ने सामीं, 
तो जीतला ऐ रणबंका म्हाकां ।

म्हे कोनी आया लड़बा ताणी, 
कोई समझोतों करणौ है म्हाने थांसू ।
यूं तो म्हैं मूलक जीत्यो पण, 
अबतक जीतीज्यो कोनी हाईफो म्हां सूं ।

मदद करो थै आ म्हाकी, 
म्हैं थारै रगत रो मोल चुकावालां ।
जोधाणे ने देस्या धन दूणौ, 
थारै आडे बगत काम भी आवालां ।

( १९१८ में दौना पक्षा री हताई हुई अर मारवाड़ री फौज नै भैजण री बात तय हुई )

सर प्रताप राखी सरत ऐक, 
साधन थांका घोड़ा सस्त्र सैनिक म्हांका ।
ले जावण री करो तयारी, 
जबर जोध जीत ल्यावेला हाईफा थांका ।

हर ऐक टाळवां सैनिक हो, 
जिण री गिणती लसकर माहीं ठावां में ।
बै तिलक कढा ले सस्त्र, 
घोड़्या रे सागै जा बैठ्या अंगरेजा री नावां में ।

सात समदर पार करण ने बीर हुया, 
बै काले ताणी खेला हा आं गावां में ।
मरणा ने मंगळ जाणै, 
उण री गिणती हुया करे जग चावां में ।

पुगी फोज अंग्रेज धरा पर, 
सामान धरया निचे अर बांध्या घोड़ा ने खूटे।
मारवाड़ मे गरम्या रा घाण, 
अठै थर-थर धूजणी घोड़ा धणी दोन्या ने छुटे ।

( इंग्लैंड में ठंड रै कारण गूदड़ा में दुबक्योड़ा सैनिका नै अर ठंड सूं भैळा हुयोड़ा घोड़ा ने देख अंग्रेजी आला अफसर निरास हुया क ऐ कांई युद्ध में पार पड़ेला ! क्योंक हाईफा में बड़ण रौ संकडौ दर्रौ सामी तोप तणयोड़ी अर पाछलै पसवाड़ै भाखर ऊभी भींत जयूं खड़ौ अर दूसरो कोई रस्तौ कोनी, तौ भारत सूं गयोड़ा रसाला में मीन-मेख काढण लागा क्यूंक अंग्रेज ऐक बार और आपरी नाक कटण रा डर सूं अंग्रेज तुर्की री सैना सूं हाईफा री लड़ाई नै टाळण री जुगत में लाग्या )

क्यो घाल्या घोड़ा ने फोड़ा, 
घुड़दौड़ तो इंग्लिश घोड़ा री होवै तेज ।
पतळा है आंरा ऐ घोड़ा, 
कांई करस्या आंने हाइफा भेज ?

( उप सैनापति अमान सिह जी सूं सवाल-जबाब में घोड़ा रो बखाण अर अंग्रेजा री बात रो विरोध )
( बै थाकळ घोड़ा री खासयित बताई )

आगे-पाछै, दायां-बायां, 
चालो आ बात, म्हारा घोड़ा नै नहीं है केणा री ।
आ नस्ल मारवाड़ी असल, 
खुद दौड़ै दड़बड़ै जरूरत कोनी ऐडी देणा री ।

ऐ दुस्मण पर खुद लपकै,
ऐ घोड़ा सक्ल पिछाणै, दुस्मण अर सेणा री ।
ऐ असवारां रौ मन पढै,अर आगै बढै,
आं घोड़ा री आदत, मोत नै टापां हेटै देणा री ।

( तलवारां अर भाला पर अंग्रेज अफसर मोसा बोल्या )

बै खळकावे  तोपां सूं गोळा, 
अर थै लाय्या हो खिल्ला पाती ।
थै पाछा बावड़ल्यो,
हाइफो हाथ ना आवै, मोत आवेली थांकै पांती ।

आ बात सूणी, मना गुणी,
तो अमान रै आंख्यां आयौ रगत उतर ।
म्हैं जावां नहीं जींवता, 
म्हानै पाछा भेजण रौ, थैं सूणौ पड़ूतर ।

म्हैं आया बुलायोड़ा लड़बा ताणी, 
कोई जरूत कोनी कूड़ा बैणा री ।
अंग्रेजी अफसर पाछपग्या खिसक्या,
देखी रंगत राठौड़ी नेणा री ।

बिन सोच्या समझ्या म्हानै थै लाया क्यों,
ई आवण में फिटा म्है पड़स्या ।
पग पाछां देणी रातां, ना जण्या म्हानै माता,
लस्कर ने आगे म्हैं खड़स्यां ।

वीरगति हुवै म्हारी भली गति, इण बिद,
बंदूका तोपां आगे म्हैं अड़स्या ।
थानै मरबा को डर लागै, 
थै मना लड़ो, तुर्की सूं लड़ाई म्हैं लड़स्या ।

मात भवानी सिंवर परा, 
तिलक्या सस्त्र पछै, कसूमल किदो धारण ।
पाछा जावण रा दौ ही रस्ता,
मरा क मारा, तीजौ नहीं है कोई कारण ।

म्हे नहीं आया करबा देसाटण, 
म्हे आया हां बैरया नै मारण ।
भूल भरोसै बावड़ देखां, 
तो चुंट्या चुंटै चाम, म्हांका चारण ।

पांख पसार आसिस आप्यो मां,
जद निकल्या हा, केसरिया पेंचो रख माथे ।
पाछो मुड़ देखण रो लागे पाप,
म्हे लड़स्या, है मात भवानी म्हारे साथै ।

म्हैं भी जाणां हां, 
ऐ हाईफा रा रस्ता है बाकां है ।
पण पाछा जावण वाळा, 
ऐ बोल कूड़ा थाकां है ।

मत डरपौ थैं, 
म्हारै हाथां टुटे टैंका रा टांका है ।
सवा हाथ चौड़ी छाती, 
काळजा सवा सेर का म्हांका है ।

थे म्हाकौ इतिहास पढो, 
लिख्योड़ा उजळ आखर उजळ धोरां पर ।
आ सुण अंगरेजा जिद छोडी, 
आ दबक असर करगी अफसर गौरां पर ।

( आखिर में युद्ध रौ निर्णय हुयौ, त्यारां होवण लागी इण युद्ध में मैसूर, जोधपुर और हैदराबाद रा टाळवां सैनिक भी हा पण इण सैना री अगवाणी सेनापति दलपत सिंघ अर स-सेनापति अमान सिंघ जोधपुर रसालों करी अर ऐ दोन्यूं वीर मारवाड़ रै पाली जिला रा हा, फौजां हाईफा कानी रवाना हुई आ संसर में घुडसवारां री आखिरी लड़ाई ही अर आखिरी जीत ही )

घोड़ा संवारियां, 
सूर सज्या है आपै थापै ।
हिणहिणा घोड़ा, 
असवारा ने ऊभा भांपै ।

जोध जवान जीतण जोग, 
जगदम्बै जापै ।
फिरै-गिरै अंग्रेजी अफसर, 
वीरां री छाती नापै ।

घोड़ै चढ चाल्या तो, 
टापां सूं अंबर कांपै ।
बिजळ री गत घोड़ा, 
हाइफा रो रस्तो नापै ।

अंग्रेजां ने होग्यौ सक, 
ऐ चढगी फोजां उल्टे पासा ।
पण दलपत अमान ने, 
भुजबळ पर ही पूरी आसा ।

तोफानी सरणाटो ऊठै, 
दोड़त बोलें घोड़ा री नासां ।
दड़बड़यां घोड़ा री टापां, 
तो धूळ चढी ही आकासा ।

हाईफा रै नैड़ा पूग्या, 
तो अंग्रेज़ी अफसर हंसतौ हौ ।
नैणा रगत उतर आयौ, 
सस्त्रा री मूंठा, मूठ्ठी सूर कस्तौ हौ ।

द्ररा रै सामी तोप खड़ी, 
घूसण रौ संकड़ौ रस्तौ हौ ।
बाकी फौज खड़ी ही पाछै, 
आगै मारवाड़ रौ दस्तौ हौ ।

रण भूमि में रणखेत हुवां, 
म्हानै मोत मिठी आ लागै है ।
माँ री जयकर करी, हूंकार भरी,
ऐ मोत वरण करण में आगै है ।

( सैना री आधी टुकड़ी पाछै सूं भाखर पर चढी )

चढ्या सपाट परबत री पूठा,
दुस्मण अठा सूं गौळा दागै है ।
ऐ पाछा सूं जाय दबोच्या बानै,
क्यूंक दुस्मण रा मून्डा आगै है ।

चकबंगा होग्या देख मोत,
ऐ वीर यमराज ज्यूं लागै है ।
तोपा रा मूण्डा फेर दिया,
अब गोला उल्टा-सुल्टा दागै है ।

दुस्मण गोळ्यां री बौछाड़ करी, 
गोळ्या सामी छाती लागै है ।
मींच आंख्यां दुस्मण री छाती चढग्या, 
देखो, यूं जगदम्बा जागै है ।

भाला तलवारां यूं पळकी, 
मोत दुस्मण नै नैड़ी लागै है । 
पटक पछाड़्या तोपा सूं निचै, 
देखा, अब कुण गोळा दागै है ।

अणचीत री देख मौत नै, 
आ डरती तुर्की सैना भागै है।
मिनखां रै बात नहीं बसकी, 
आरैं तो मात भवानी सागै है ।

तोपा रे सामी भाला तरवारा, 
ताकत सूं खणकी ही ।
जोध जवना रे हिवड़ै, 
हूंस उठ्योड़ी रण की ही ।

तोपा रा तोपची हुया दिसा-हीण, 
क्यूंक चोटा भी मण-मण की ही ।
हथियार फैंक समरपण किदौ, 
मान्यौ, फौज मारवाड़ री टणकी ही ।

छाती पर सूरवीर गोळ्या झैली,
जीत ल्या पटकी अंग्रेजा रै खाता में ।
हाईफा रो हिरो दलपत सहिद हुयो, 
अब कमान अमान रै हाथां में ।

अब दुस्मण तौ हार मानली,
पड़्या जर्मन तुर्की सैनिक लाता में ।
आ लड़ाई ना लड़्ता, धोखौ रहतो,
ओ चक्कर चढगौ अंग्रेजा रै माथा में ।

ऐ रण-बांकुरा नही आता तो,
ना आतौ हाईफो म्हांकै हाथां में
अंग्रेज देख वीरता हुया बावळा,
अर भर लियौ अमान नै बाथां में ।

आज होवै आजाद हाईफा, 
गुलामी रा बरस चार सौ बित्या हा ।
लांठा लांघ्या नदी नाळा, 
अर दळ-दळ ने भी चिंत्या हा ।

पार पायगा परबत बै, 
जो सिधी ऊभी भींतयां हा ।
अणहोणी नै करदी होणी, 
तोंपा नै तलवारां सूं जीत्या हा ।

हाँ तोपा नै, तलवारां सूं जीत्या हा ।
                  .*****
इण युद्ध नै अंग्रेज आज भी ऐक अणहोणी ही माने है क्यूंक हाईफा में कई बार हार रा जख्म अंग्रेजा रै आज-तक दर्द करे है । 
हाईफा में घुसणौ अर तोप गोळा, बंदूका रे आगे तलवारां भाला सूं दौ तीन घड़ी में मात ऐक अजूबे सू कम कोनी ही, इण कारण अंग्रेज सरकार जोधपुर रियासत नै कौल मुजब धन दियो पण सैनिका नै भी ऐक बड़ी रकम बतोर ईनाम सर-प्रताप नै सौंपी । 
पण सर-प्रताप री निजर आगला बदलता बगत में पढाई री महत्ता पर ही, इण कारण व्है ई रकम रौ सद-ऊपयोग करण रौ मानस बणायौ आवण वाळी पिढयां रै सिक्षा खातर ऐक बड़ी स्कूल बणावणौ चावता हा । 
जद ओ प्रस्ताव सर-प्रताप रसाला रै सैनिका सामी रख्यौ क इण रकम सूं ऐक बड़ी स्कूल बणावां तो आप लोगां रो कांई विचार है ? इण बात रौ सैना सर-प्रताप रौ विरोध करयौ सर-प्रताप समझावण री खूब कोसीस करी पण रसाला रा सैनिक ताव में आयगा और सर-प्रताप पर पथराव कर दियो तो रियासत रा बडा-बडेरा बीच-बचाव सूं सांति करवाई पण रसाला री फोरी हरकत सूं नाराज सर-प्रताप चौपासनी में बड़ी स्कूल बणावण पर अड़्योड़ा हा, अर बणाई ।
आज सर-प्रताप री आवण वाळा बगत पर पढाई री जरूरत री नजर आ चौपासनी स्कूल ना जाणै मारवाड़ रा कितरा हीरा तरास परा मां भारती नै सुमप्यां हा अर बै मारवाड़ रा सपूत देस री हर क्षैत्र में सेवा करी अर करे है । 
पछमी राजस्थान अर मारवाड़ री आ संस्था हाईफा में बलिदान दियोड़ा वीरां लोही अर लड़ाई में भाग लियोड़ा वीर सैनिका रै पसेवा री कमाई आ चौपासनी स्कूल री इमारत आज भी सर-प्रताप री मूर्ति रै सागै मस्तक ऊंचौ करयां जोधपुर में आथूणै पसवाड़ै आज भी खड़ी है ।
आवौ आज २३ सितंबर है इण हाईफा दिवस माथै काळजा सूं आज आवौ उण वीर सपूता नै नमन करां ।
महेन्द्र सिंह भेरून्दा

मंगलवार, 15 सितंबर 2020

पाटण की रानी रुदाबाई

पाटण की रानी रुदाबाई 

इतिहास की वीरता की सत्य घटना- 
पाटण की रानी रुदाबाई जिसने सुल्तान बेघारा के सीने को फाड़ कर दिल निकाल लिया था, और कर्णावती शहर के बिच में टांग दिया था, ओर धड से सर अलग करके पाटन राज्य के बीचोबीच टांग दिया था।

गुजरात से कर्णावती के राजा थे, 
राणा वीर सिंह सोलंकी ईस राज्य ने कई तुर्क हमले झेले थे, पर कामयाबी किसी को नहीं मिली, सुल्तान बेघारा ने सन् 1497 पाटण राज्य पर हमला किया राणा वीर सिंह सोलंकी के पराक्रम के सामने सुल्तान बेघारा की 40000 से अधिक संख्या की फ़ौज 
२ घंटे से ज्यादा टिक नहीं पाई, सुल्तान बेघारा जान बचाकर भागा। 

असल मे कहते है सुलतान बेघारा की नजर रानी रुदाबाई पे थी, रानी बहुत सुंदर थी, वो रानी को युद्ध मे जीतकर अपने हरम में रखना चाहता था। सुलतान ने कुछ वक्त बाद फिर हमला किया। 

राज्य का एक साहूकार इस बार सुलतान बेघारा से जा मिला, और राज्य की सारी गुप्त सूचनाएं सुलतान को दे दी, इस बार युद्ध मे राणा वीर सिंह सोलंकी को सुलतान ने छल से हरा दिया जिससे राणा वीर सिंह उस युद्ध मे वीरगति को प्राप्त हुए। 

सुलतान बेघारा रानी रुदाबाई को अपनी वासना का शिकार बनाने हेतु राणा जी के महल की ओर 10000 से अधिक लश्कर लेकर पंहुचा, रानी रूदा बाई के पास शाह ने अपने दूत के जरिये निकाह प्रस्ताव रखा,

रानी रुदाबाई ने महल के ऊपर छावणी बनाई थी जिसमे 2500 धर्धारी वीरांगनाये थी, जो रानी रूदा बाई का इशारा पाते ही लश्कर पर हमला करने को तैयार थी, सुलतान बेघारा को महल द्वार के अन्दर आने का न्यौता दिया गया। 

सुल्तान बेघारा वासना मे अंधा होकर वैसा ही किया जैसे ही वो दुर्ग के अंदर आया राणी ने समय न गंवाते हुए सुल्तान बेघारा के सीने में खंजर उतार दिया और उधर छावनी से तीरों की वर्षा होने लगी जिससे शाह का लश्कर बचकर वापस नहीं जा पाया। 

सुलतान बेघारा का सीना फाड़ कर रानी रुदाबाई ने कलेजा निकाल कर कर्णावती शहर के बीचोबीच लटकवा दिया।

और..उसके सर को धड से अलग करके पाटण राज्य के बिच टंगवा दिया साथ ही यह चेतावनी भी दी की कोई भी आक्रांता भारतवर्ष पर या हिन्दू नारी पर बुरी नज़र डालेगा तो उसका यही हाल होगा। 

इस युद्ध के बाद रानी रुदाबाई ने राजपाठ सुरक्षित हाथों में सौंपकर कर जल समाधि ले ली, ताकि कोई भी तुर्क आक्रांता उन्हें अपवित्र न कर पाए। 

ये देश नमन करता है रानी रुदाबाई को, गुजरात के लोग तो जानते होंगे इनके बारे में। ऐसे ही कोई क्षत्रिय और क्षत्राणी नहीं होता, हमारे पुर्वज और विरांगानाये ऐसा कर्म कर क्षत्रिय वंश का मान रखा है और धर्म बचाया है। 


सोमवार, 14 सितंबर 2020

मोलासर ( मारवाड़ ) की बाजरी

मोलासर ( मारवाड़ ) की बाजरी 
भारत का सर्वश्रेष्ठ अनाज - मुग़ल शासक !
मुग़ल शासक अकबर ने जब मीना बाज़ार में नोरोज का मेला लगाना शुरू किया तब वह एक दिन भारत के अलग अलग प्रान्त के अनाज को देखकर,  सबसे श्रेष्ठ अनाज के बारे में पुछवाया । तब वज़ीरों हाकिमों बावरचियो व्यापारियों ने मारवाड़ ( राजस्थान ) के गेहूँ को श्रेष्ठ बताया । 
मुग़ल शासक अहमदशाह के समय नागौर के राजा बखतसिंह जी जो मुग़ल मनसबदार थे तथा जब वे आगरा में थे तब एक दिन बादशाह ने उनसे उनके बलिष्ठ बदन का राज पूछा तब राजा बखत सिंह जी ने कहा की मोलासर की बाजरी का राज है । इस पर बादशाह ने मोलासर की बाजरी के भोजन का आदेश दिया तब राजा बखतसिंह जी ने कहाँ की ताज़े आटे की रोटी ( सोगरा ) मोलासर की गाय या भैंस के ताज़े दूध दही ओर मक्खन के साथ तथा नागौर की ज़ाटनी के हाथ का पिसा हुवा , उन्ही का बनाया भोजन होना चाहिये । देसी केर सांगरी कुमट व गवारफली की सब्ज़ी के साथ ये भोजन ग्रहण करे, 
बादशाह के आदेश पर राजा बखतसिंह जी के डेरे से सभी व्यवस्था की गयी बादशाह ने आदेश दिया की मोलासर की बाजरी सरकार में ख़रीद की जाये। इस तरह रातों रात मोलासर की बाजरी के भाव बढ़ गये सदियों तक राजस्थान की बाजरी मोलासर की बाजरी के नाम से बिकती रही । 
कहते है बादशाह भोजन के पश्चात बहुत ख़ुश हुवा । उसने आदेश किया की उसके शाही रसोडे में इसकी व्यवस्था की जाये ।मोलासर के दो होशियार जाट अपनी अौरतौ व गाय - भेंसो समेत बादशाही नोकर हो गये । 
मारवाड़ के प्रसिद्ध इतिहासकार जगदीश सिंह गहलोत ने भी इस घटना का उल्लेख अपनी पुस्तक मारवाड़ राज्य के इतिहास में किया है वे लिखते है की मोलासर के दोनो  जाट परिवार राजा को ख़ुफ़िया जानकारी भी देते थे । 
आज भी मारवाड़ के रेगिस्तान में होने वाली बाजरी सबसे अच्छा अनाज है जिसने किसी प्रकार की मिलावट नहीं होती क्योंकि न तो इसमें किसी दवाई का छिड़काव होता है ओर ना हीं मिलावट । लाखों टन बाजरी की पैदावार होती जो केवल वर्षा पर निर्भर है । ये वे खेत है जहाँ केवल वर्षा काल में ही खेती होती है । सरकार ओर जैविक(ओरगेनिक )अनाज के चाहने वाले यदि इस अनाज को मोलासर की बाजरी की तरह महत्त्व दे तो लाखों किसानो को अनाज के उचित दाम मिल सकते है ।  सब्ज़ियों में केर सांगरी  पूरी तरह जैविक (ओरगेनिक )है ।आज केवल राजा बखतसिंह जी के जैसी सोच वाले जन प्रतिनिधियों किसानो ओर नोकरशाही की ज़रूरत है।
बाजरी पोषक से भरपूर है इसमें विटामिन खनिज आदि सभी पदार्थ है जो शरीर को निरोगी बनाता है । अनेक बीमारियों से बचाता है । 42 डिग्री से अधिक तापमान में भी इसकी खेती की जा सकती है । आज दुनिया के विद्वान ओर वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार कर चुके है । अब देरी किस बात की है भाइयों स्वदेशी अपनाओ ओर स्वस्थ रहो ।
जय मारवाड़ जय राजस्थानी 
जय बाजरी !
किसी ने सच ही कहा है —-

आकड़े की झोंपड़ी फोगन की बाड़
बाजरी का सोगरा मोठन की दाल 
देखी राजा मानसिंघ थारी मारवाड़

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

उंटाला का युद्ध - मेवाड़ का इतिहास

सलूंबर चूंडावत राजाओं का शासन रहा । चूंडावत सरदार मेवाड़ महाराणा के हरावल दल की सेना नेतृत्व किया करते थे।

यहां चूंडावत सरदार की वीरता का का अद्भुत शौर्य रहा हैं जैसे. "उंटाला का युद्ध"...... महाराणा अमर सिंह जी इतिहास प्रसिद्ध महाराणा प्रताप के पुत्र थे! महाराणा प्रताप की मृत्यु के बाद महाराणा अमर सिंह जी भी पिता की भांति मेवाड़ को स्वतंत्र कराने के लिए बादशाह अकबर से लड़ते रहे! उन्होंने मेवाड़ के सभी दुर्गों और गांवों को मुगलों के पंजे से मुक्त कराने के लिए अपना प्रयत्न जोर-शोर से जारी रखा! इन दुर्गों में उटाला का प्रसिद्ध किला भी थ!

ऊटाला गढ़,  राजधानी उदयपुर से 39 कि.मी.  पूर्व दिशा में स्थित है!( जो वर्तमान में वल्लभनगर के नाम से जाना जाता है) इसके चारों और मजबूत परकोटा बना हुआ है! इसके ऊपरी भाग में एक-दो  बुर्ज व बाकी चारों और दीवार बनी हुई है!  परकोटे की नींव को स्पर्श करती हुई नदी बहती है!  गढ के मध्य में दुर्ग रक्षक का महल बना हुआ है! जिसके चारों तरफ खाई खुदी हुई है! गढ में प्रवेश के लिए केवल एक द्वार है!
राजस्थान का इतिहासिक देश तथा धर्म पर बलिदान होने की घटनाओं से भरा पड़ा है! युद्ध के लिए इस समय सेना में सबसे आगे रहने और बलिदान का सबसे पहले अवसर पाने की घटनाएं कम ही मिलती है! इसे ‘हरावल’  कहां जाता था! इस तरह की एक घटना 1600 ई. में मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह जी के राज काल में घटी!
ऊटाला को जिस तरह मुगलों से महाराणा अमर सिंह जी ने पुन : जीतकर लिया वह वीरता की एक अनोखी कहानी हो गई थी , महाराणा अमर सिंह जी ने ऊटाला के थानेदार कायम खा पर चढ़ाई की और गांव को घेर लिया! बादशाह और महाराणा अमर सिंह जी की सेना के मध्य जमकर लड़ाई हुई जिसमें दोनों दलों के सैकड़ों योद्धा मारे गये! कायम खा को खुद महाराणा अमर सिंह जी ने मार गिराया, शाही फौज भाग गई और जाकर ऊँटाला के घर में शरण ली और भीतर से गढ़ का किवाड़ बंद कर लिया! गढ जीतना मुश्किल हो गया था! इस पर महाराणा अमर सिंह जी ने अपने साथियों को उत्साहित किया और चुंडावतों तथा शक्तावत सरदारों के बीच चला आ रहा झगड़ा भी सदा के लिए निपटाने का निश्चय किया ! यह झगड़ा यह था, कि हरावल यानि कि युद्ध में सबसे पहले कौन बलिदान देगा!

मेवाड़ की सेना में विशेष पराक्रमी होने के कारण चुंडावत वीरो को ही हरावल (युद्ध में लड़ते समय सेना की अग्रिम पंक्ति) में रहने का गौरव प्राप्त था, और वे उसे अपना अधिकार समझते थे! हरावल में रहना उस समय बड़ी इज्जत की बात समझी जाती थी! उस समय तक हरावल में चुंडावत ही रहते आए थे!  किंतु शक्तावत वीर  भी कम परा कर्मी नहीं थे! क्योंकि महाराणा  प्रताप के अनुज महाराज शक्ति सिंह जी के  पुत्र भाणजी,  अचलदास जी, बल्लू जी, दलपत जी , शक्तावत काफी शक्तिशाली होकर उबर गए थे! एवं उनके हृदय में भी यह अरमान जागृत हुआ की युद्ध के क्षेत्र में मृत्यु से  पहला मुकाबला हमारा होना चाहिए! अपनी इस  महत्वाकांक्षा को महाराणा अमर सिंह जी के समक्ष रखते हुए शक्तावत वीरों ने कहा कि चुंडावतों से त्याग बलिदान वह बहादुरी मैं हम किसी भी प्रकार कम नहीं है! अत: शक्तावतो  को भी हरावल मैं रहने का हक जताया है तब चुंडावतों ने महाराणा से निवेदन किया कि जब तक हम जीवित हैं हमारा स्थान कोई दूसरा प्राप्त नहीं कर सकता यदि इसके विपरीत हुआ तो हम कट मरेंगे महाराणा ने फरमाया कि आपस में लड़ाई झगड़ा करने की आवश्यकता नहीं है! महाराणा अमर सिंह जी इस विवाद से दुविधा में पड़ गए! वे शक्तावतो  और चुंडावतों के आपस की लड़ाई से मेवाड़ की शक्ति और मातृभूमि को कमजोर नहीं होने देना चाहते थे दोनों ही पक्षों को महाराणा बड़ी इज्जत की निगाह से देखते थे  अंत हरावल मैं रहने का अधिकार किसे मिलना चाहिए !  मृत्यु से पाणि-ग्रहण  के लिए होने वाली इस अद्भुत प्रतिस्पर्धा को देख कर महाराणा अमर सिंह जी धर्म संकट में पड़ गए! किस पक्ष को अधिक पराक्रमी मानकर हरावल में रहने का अधिकार दिया जाए! इसका निर्णय करने के लिए उन्होंने एक कसौटी तय की जिसके अनुसार यह निश्चय किया गया कि दोनों दल ‘ऊटाला’  दुर्ग ( जो शहजादा  जहांगीर के अधीन था) पर प्रथक दिशा से एक साथ आक्रमण करेंगे वह जिस दल का व्यक्ति पहले दुर्ग में प्रवेश कर जाएगा उसे ही हरावल मैं रहने का अधिकार दिया जाएगा!
महाराणा कि यह राय  दोनों दल के योद्धाओं को पसंद आई वह दोनों ही दल ऊटाले  किले के लिए कुच की तैयारी करने लगे! शक्तावतो  की टोली के मुखिया  बल्लू सिंह थे! शेर जैसी चाल से चलते तो देखने वालों का मन  मोह लेते, हमेशा मरने मारने को तैयार रहते!
ऊटाले के किले मै प्रवेश करने के लिए ‘ शक्तावत सेना अपने सरदार रावत बल्लू जी शक्तावत के नेतृत्व में किले के मुख्य द्वार पर जा पहुंची और चुंडावत सरदार रावत जात सिंह जी अपने साथियों शहित किले की दीवार के नीचे जा डटे! बस! फिर क्या था! प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए मौत को ललकारते हुए दोनों ही दलों के रण-बॉकुरे वीरों ने ऊटाला दुर्ग पर आक्रमण कर दिया! शक्तावत वीर दुर्ग के मुख्य द्वार के पास पहुंच कर उसे तोड़ने का प्रयास करने लगे तो चुंडावत वीरों ने समीप दुर्ग की दीवार पर सीढ़ियां कबंध डालकर उस पर चढ़ने का प्रयास शुरू किया! गढ की दीवार से मुगल सिपाही पत्थर, गोलिया और तीर बरसा रहे थे! बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा रहा था, चारों ओर मौत दिखाई दे रही थी! मुख्य द्वार पर बल्लू जी शक्तावत ने तेज आवाज में अपने हाथी के महावत से कहा-‘ ‘ महावत! हाथी से पोल (दरवाजे) के किवाड़ तुडवा! हाथी को टक्कर देने के लिए आगे बढ़ाया तो किवाड मैं लगे हुए तीक्ष्ण शुलो से सहम कर हाथी पीछे हट गया! हाथी मुकना ( बिना दांत वाला) होने से और गढ के किवाड़ों मैं लोहे के बड़े-बड़े मजबूत और तीक्ष्ण किले होने से हाथी किवाडो पर मोहरा ना कर सका! यह देख शक्तावतो के सरदार बल्लू जी शक्तावत खुद अद्भुत बलिदान का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए किवाड़ के शुलो पर पीठ अडा कर खड़े हो गये, जिससे कि हाथी शुलो के भय से पीछे ना हटे! उनकी आंखें लाल हो गई! आवेश के साथ उन्होंने महावत से फिर कहा-‘ अब क्या देखते हो महावत! हाथी को मेरे बदन पर हुल दो! ‘ ‘

इस दृश्य को देखकर सभी सैनिक अचंभित रह गए और कोई कुछ समझ नहीं पा रहा था इतने में बल्लू सिंह जी ने चिल्ला कर कहा आज मैं अपने रक्त के बलिदान से मातृभूमि और मेवाड़ की भूमि का श्रृंगार करूंगा मातृभूमि को अपने रक्त से सीचूगा! आज प्रथम बलिदान से मुझे कोई नहीं रोक सकता है! एक बार तो महावत सहम गया! किंतु फिर वीर बल्लू जी ने मृत्यु से जी भयानक क्रोध  पूर्ण आदेश करते हुए  महावत  को ललकार कर कहा कि हाथी को अब हमारे ऊपर हूल दे! जिससे गढ़ के किवाड़ टूट जाए!
बल्लू जी का आदेश सुनते ही महावत अवाक रह गया एक और उसके स्वामी की मौत थी और दूसरी और मालिक आदेश! वह यह सोच ही रहा था कि उसे  बल्लू जी की रोषपूण  आवाज फिर सुनाई दी! यदि हमारी आज्ञा का पालन नहीं करोगे तो तुझ को अभी जान से मार डालूंगा! महावत कॉप गया!  हाथी टक्कर मारे तो सरदार की मौत निश्चित है! लेकिन बल्लू जी ने महावत को हिचकते देख कहा देखता नहीं चुंडावत दुग  पर चढ़े जा रहे हैं! तुझे  शक्तावतो की आन! हाथी हुल!!
महावत भयभीत होकर उनकी आज्ञा का उल्लंघन ना कर सका और इस बार महावत को आदेश का पालन करने में जरा भी देर ना लगी! उसने हाथी के मस्तक में बलपूर्वक अकुश मारा  जिसके लगते ही हाथी ने भयंकर चिगाडा  मार कर जोर से बल्लू जी की छाती पर अपने सिर से मोहरा  किय!  जिससे गढ के मजबूत किवाड़ टुकड़े टुकड़े होकर तत्काल टूट गए! बल्लू जी का शरीर  तीक्ष्ण किलो  से बिध गये  और वीरता बलिदान के पुजारी बल्लू सिंह जी वीरगति को प्राप्त हो गए किवाड़ के गिरते ही शक्तावतो की फौज किले में घुस गई और मुगलों से भयंकर लड़ाई छिड़ गई!
दूसरी ओर सलूंबर के जैत सिंह जी चुंडावत के नेतृत्व मैं उनका दल निसैनी (सीढिया)  कब बंद डालकर किले पर चढ़ने  का प्रयत्न कर रहा था! मेवाड़ में जब भी महाराणा की गद्दी नशीनी  होती है, तब चुंडावतों के रक्त से सबसे पहले महाराणा का राजतिलक लगाया जाता है फौज की हरावल मैं भी चुंडावत ही रहते आए थे इस दल के नेता रावत जेत सिंह जी अपने युद्ध कौशल के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध थे! वीरता उनमें कूट कूट  के भरी थी उनकी वीरता और साहस के सामने अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छक्के छूट जाते थे! जब उन्हें पता चला कि शक्तावत किले के द्वार से गढ़  मैं प्रवेश का प्रयत्न कर रहे हैं और जब रावत जैत सिंह जी ने बल्लू जी के बदन पर हाथी को हूलते देखा तो वह तुरंत ही सीढी लाकर किले की दीवार पर चढ़ने लगे! जैत सिंह जी  किले की दीवार के कंगूरों तक पहुंच गए थे कि दुश्मन के बंदूक की गोली अचानक उनके सीने में आग लगी लेकिन गिरते-गिरते उन्होंने अपने साथियों से चिल्ला कर कहा की जल्दी से उनका सिर काटकर किले में फेंक दो (उन्होंने पहले दुर्ग में पहुंचने  की शर्त को जीतने के उद्देश्य से) उनके साथी हिचकी लेकिन जैसे ही उन्होंने हुकार भर कर  कहा कि मातृभूमि पर सर्वप्रथम बलिदान होने का स्थान मैं किसी दूसरे को नहीं लेने दूंगा! जल्दी करो मेरा सिर काटकर मातृभूमि के चरणों में समर्पित कर दो उनके आदेश की पालना कोई और उनके एक साथी भरे मन से  उनका सिर काटकर किले के अंदर फेंक दिया (मातृभूमि के चरणों में  समर्पित कर दिया)
फिर सीढियो  से चुंडावत किले पर चढ़ गए! शक्तावत भी किले के किवाड  तोड़कर भीतर चले आए! और बाद में किले के अंदर पहुंच कर दुश्मनों को गाजर मूली की तरह काटने लगे! दुर्ग में घमासान युद्ध हुआ बहुत से शाही सैनिक मारे गए एवं पकड़ लिए गए! उससे पहले ही चुंडावत सरदार का कटा हुआ मस्तक दुर्ग के अंदर मौजूद था! इस प्रकार चुंडावतों ने अपना हरावल मैं रहने का अधिकार अद्भुत बलिदान देकर कायम रखा! चुंडावत सरदार का कटा सिर  किले के भीतर शक्तावतो  से पहले पहुंच गया! महाराणा की सेना में हरावल का अधिकार चुंडावतों के पास वंश  परंपरा से था और सुरक्षित रह गया किंतु कहना किसी के लिए सरल कहां है कि शक्तावत और चुंडावत सरदारों में अधिक वीर कौन था!
इस लड़ाई में रावत जैत सिंह जी   शक्तावत (सलूंबर), बल्लू जी (अचल दास जी के लघु भ्राता), रावत तेज सिंह जी खंगारोत (अठाला) के सिवाय और भी बहुत से बहादुर रणभूमि में काम आये!  मेवाड़ का ध्वज ऊटाले  के किले पर फिर फहरा दिया गया! देश जाति एवं कुल की मर्यादा की रक्षा के लिए हंसते हंसते प्राण देने वाले वे वीर धन्य हैं ऐसे वीरों को उत्पन्न करने वाली भारत भूमि धन्य है!
जब बाकरोल के जागीरदार ऊटाला  की विजय का समाचार लेकर महाराणा के पास हाजिर हुए तो महाराणा अमर सिंह जी शीघ्र ऊटाले आये!  वहां पर रणक्षेत्र मैं अपने वीर क्षत्रियों की लाशें  चहूं और पड़ी हुई देखी!  उन्होंने कहा ” हे वीर योद्धाओं”  मेवाड़ी धरा आपकी हमेशा ऋणी रहेगी!
हरावल में रहने का अधिकार किसका रहा यह विवाद का विषय नहीं हो सकता, क्योंकि किले में प्रवेश का प्रश्न खुद की प्रतिष्ठा का न होकर मातृभूमि के लिए प्रथम बलिदान होने का स्थान हासिल करने का था, और किसने हासिल किया यह भी विचार का विषय नहीं है, प्रश्न तो यह है, किस क्षत्रियों ने मातृभूमि के लिए कैसे कैसे बलिदान दिए, कैसे-कैसे रक्त बहाया, जैत सिंह जी  चुंडावत और बल्लू सिंह जी शक्तावत जैसे वीरयोद्धा की वीरता, उनका साहस, उनका त्याग और बलिदान ही तो वर्तमान पीढ़ी की धरोहर है जो हमें सदा प्रेरणा देती रहेगी!

रविवार, 6 सितंबर 2020

क्षत्राणी की जल समाधि

क्षत्राणी की जल समाधि

वैसे तो हमारे इतिहास राजपूतों के त्याग और दान बलिदा

न से भरे पड़े है.... आपको सन 1971 की एक सत्य घटना से आपको अवगत कराता हुँ... चंबल नदी के किनारे एक गाँव था जो #सिकरवार राजपूतों का गाँव था ..... जिसमे एक ठकुराइन (क्षत्राणी ) रहती थी ... उसके पति दूसरे विश्व युद्ध में शहीद हो गये थे और पुत्र जय वीर सिंह सन 1965 के युद्ध मैं शहीद हो गया था....||

जय वीर सिंह अपने पीछे एक 12 वर्षीय पुत्र व पत्नी शारदा को छोड़ गये थे...जय वीर के शहीद होने के छह महीने बाद उनकी पत्नी स्वर्ग सिधार गई...अब परिवार में केवल जयवीर का पुत्र व माँ बचे थे.... सन 1971 में युद्ध के बादल फ़िर गर्जने लगे तो भारत माता ने राजपूतों को फिर आवाज़ लगाई... तो भारत माता की रक्षा के लिए राजपूतों के खून ने उबाल मारा और सेना में भरती होने के लिए आगरा चल दिए....जय वीर का किशोर पुत्र सूर्य भान भी अपने गाँव के साथियों के साथ आया था...  संयोग देखिए सेना का भर्ती अधिकारी भी वो ही मेजर था ... जिसकी बटालियन मैं जयवीर सिंह था और वो उसकी बहुत इज्जत करता था... उसने सूर्य भान को पहचान लिया और अपने पास बुलाया व घर का हाल चाल पूछा तो सूर्य भान ने सब कुछ बता दिया...||

मेजर ने पूछा अब घर में कौन कौन है....तो सूर्यभान ने बताया मेरे अलावा बूढ़ी दादी है...सारा हाल जानने के बाद मेजर बोला की सूर्य भान हम तुमको भर्ती नही कर पायेंगे तुम घर जाओ और अपनी दादी की सेवा करो... वहा से सूर्य भान वापिस घर आया.. उधर उसकी दादी बड़ी खुश बैठी थी की उसका पोता सेना में भर्ती हो कर देश की सेवा करेगा...सूर्य भान ने घर आकर दादी को सारा हाल बताया तो दादी बोली कोई बात नही है तुझे सेना में भर्ती होने से कोई नही रोक सकता...जा खाना खाकर सो जा..||

दूसरे दिन दादी जगी नहा धोकर मंदिर गई और वहा से गाँव के लोगों को बुलावा भेज दिया...गाँव में दादी की बड़ी इज्जत थी सारा गाँव मंदिर पर इकठ्ठा हो गया...सारा गाँव दादी को ठकुराइन कहकर बुलाता था... ठकुराइन ने सारी बात गाँव वालो को बताई और कहा की जाकर उस मेजर से कहना वो मेरी सेवा की जरूरत परवाह ना करें....इसकी ज़रूरत नही पड़ेगी वो केवल भारत माता की सेवा के बारे में सोचें... मेरी सेवा से बड़ी सेवा भारत माता की सेवा है क्योकि वो मेरी भी माता है हम सब की माता है....||

इतना कह कर ठकुराइन चंबल नदी के गहरे पानी में चली गई और जल समाधि ले ली... गाँव के आठ दस आदमी सूर्यभान को लेकर उस मेजर के पास पहुँचे और सारा हाल सुनाया तो वहा जितने भी लोगों ने ये सारा हाल सुना तो उनकी आँखों से अश्रुओं की धारा बह निकली...मेजर ने खड़े होकर सूर्यभान को अपने गले से लगाया और बोला ऐसी राजपूत माताओं ने राजपूत शेरों को जन्म दिया है और देती रहेंगी... राजपूतों ने हमेसा अपनी तलवार की धार से इतिहास लिखा है और लिखते रहेगे...||

जय हो ऐसी बलिदानी माँ की इतिहास गवाह है हमारे देश में औरतों को जगत जननी इस लिए ही कहा जाता है...आप से निवेदन ये एक सत्य घटना है इसे ज़्यादा से ज़्यादा शेयर करें और इस देश के नौंजवान को अवगत कराये की राजपूत क्या है...|