गढ़वाल की बहादुर महारानी
कर्णावती "नाक काटी रानी"
क्या आपने गढ़वाल क्षेत्र की “नाक काटी रानी”
का नाम सुना है ?
नहीं सुना होगा...
क्योंकि ऐसी बहादुर हिन्दू रानियों के तमाम
कार्यों को चुपके से छिपा देना ही “फेलोशिप-खाऊ” इतिहासकारों का काम था...
गढ़वाल राज्य को मुगलों द्वारा कभी भी जीता
नहीं जा सका....
ये तथ्य उसी राज्य से सम्बन्धित है.
यहाँ एक रानी हुआ करती थी, जिसका नाम
“नाक काटी रानी” पड़ गया था, क्योंकि उसने
अपने राज्य पर हमला करने वाले कई मुगलों
की नाक काट दी थी.
जी हाँ!!! शब्दशः नाक बाकायदा काटी थी.
इस बात की जानकारी कम ही लोगों को है
कि गढ़वाल क्षेत्र में भी एक “श्रीनगर” है,
यहाँ के महाराजा थे महिपाल सिंह, और
इनकी महारानी का नाम था कर्णावती
(Maharani Karnavati).
महाराजा अपने राज्य की राजधानी
सन 1622 में देवालगढ़ से श्रीनगर ले गए.
महाराजा महिपाल सिंह एक कठोर, स्वाभिमानी
और बहादुर शासक के रूप में प्रसिद्ध थे.
उनकी महारानी कर्णावती भी ठीक वैसी ही थीं.
इन्होंने किसी भी बाहरी आक्रांता को अपने राज्य में घुसने नहीं दिया. जब 14 फरवरी 1628 को आगरा में शाहजहाँ ने राजपाट संभाला, तो उत्तर भारत के दूसरे कई छोटे-मोटे राज्यों के राजा शाहजहाँ से सौजन्य भेंट करने पहुँचे थे.
लेकिन गढ़वाल के राजा ने शाहजहाँ की इस
ताजपोशी समारोह का बहिष्कार कर दिया था.
ज़ाहिर है कि शाहजहाँ बहुत नाराज हुआ.
फिर किसी ने शाहजहाँ को बता दिया कि गढ़वाल
के इलाके में सोने की बहुत खदानें हैं और
महिपाल सिंह के पास बहुत धन-संपत्ति है...
बस फिर क्या था, शाहजहाँ ने “लूट परंपरा” का
पालन करते हुए तत्काल गढ़वाल पर हमले की
योजना बना ली.
शाहजहाँ ने गढ़वाल पर कई हमले किए, लेकिन सफल नहीं हो सका. इस बीच कुमाऊँ के एक युद्ध में गंभीर रूप से घायल होने के कारण 1631 में महिपाल सिंह की मृत्यु हो गई. उनके सात वर्षीय पुत्र पृथ्वीपति शाह को राजा के रूप में नियुक्त किया गया, स्वाभाविक
है कि राज्य के समस्त कार्यभार की जिम्मेदारी
महारानी कर्णावती पर आ गई.
लेकिन महारानी का साथ देने के लिए उनके
विश्वस्त गढ़वाली सेनापति लोदी रिखोला,
माधोसिंह, बनवारी दास तंवर और दोस्त
बेग मौजूद थे.
जब शाहजहां को महिपाल सिंह की मृत्यु की
सूचना मिली तो उसने एक बार फिर 1640 में
श्रीनगर पर हमले की योजना बनाई.
शाहजहां का सेनापति नज़ाबत खान,
तीस हजार सैनिक लेकर कुमाऊँ गढवाल रौंदने
के लिए चला.
महारानी कर्णावती ने चाल चलते हुए उन्हें राज्य
के काफी अंदर तक आने दिया और वर्तमान में
जिस स्थान पर लक्ष्मण झूला स्थित है, उस जगह
पर शाहजहां की सेना को महारानी ने दोनों तरफ
से घेर लिया.
पहाड़ी क्षेत्र से अनजान होने और
बुरी तरह घिर जाने के कारण नज़ाबत खान
की सेना भूख से मरने लगी, तब उसने महारानी कर्णावती के सामने शान्ति और समझौते का सन्देश भेजा, जिसे महारानी ने तत्काल ठुकरा दिया.
महारानी ने एक अजीबोगरीब शर्त रख दी कि
शाहजहाँ की सेना से जिसे भी जीवित वापस आगरा जाना है वह अपनी नाक कटवा कर ही जा सकेगा,
मंजूर हो तो बोलो.
महारानी ने आगरा भी यह सन्देश भिजवाया
कि वह चाहें तो सभी के गले भी काट सकती हैं,
लेकिन फिलहाल दरियादिली दिखाते हुए
वे केवल नाक काटना चाहती हैं.
सुलतान बहुत शर्मिंदा हुआ,
अपमानित और क्रोधित भी हुआ,
लेकिन मरता क्या न करता...
चारों तरफ से घिरे होने और भूख की वजह
से सेना में भी विद्रोह होने लगा था ।
तब महारानी ने सबसे पहले नज़ाबत खान की
नाक खुद अपनी तलवार से काटी और उसके
बाद अपमानित करते हुए सैकड़ों सैनिकों की
नाक काटकर वापस आगरा भेजा,
तभी से उनका नाम “नाक काटी रानी” पड़ गया था.
नाक काटने का यही कारनामा उन्होंने दोबारा
एक अन्य मुग़ल आक्रांता अरीज़ खान और
उसकी सेना के साथ भी किया...
उसके बाद मुगलों की हिम्मत नहीं हुई कि
वे कुमाऊँ-गढ़वाल की तरफ आँख उठाकर देखते.
महारानी को कुशल प्रशासिका भी माना जाता था.
देहरादून में महारानी कर्णावती की बहादुरी के किस्से आम हैं (लेकिन पाठ्यक्रमों से गायब हैं).
दून क्षेत्र की नहरों के निर्माण का श्रेय भी
कर्णावती को ही दिया जा सकता है.
उन्होंने ही राजपुर नहर का निर्माण करवाया था जो रिपसना नदी से शुरू होती है और देहरादून शहर तक पानी पहुँचाती है. हालाँकि अब इसमें कई बदलाव और विकास कार्य हो चुके हैं, लेकिन दून घाटी तथा कुमाऊँ-गढ़वाल के इलाके में “नाक काटी रानी” अर्थात महारानी कर्णावती का योगदान अमिट है.
“मेरे मामले में अपनी नाक मत घुसेड़ो, वर्ना कट जाएगी”, वाली कहावत को उन्होंने अक्षरशः पालन करके दिखाया और इस समूचे पहाड़ी इलाके को मुस्लिम आक्रान्ताओं से बचाकर रखा.
उम्मीद है कि आप यह तथ्य और लोगों तक
पहुँचाएंगे...
ताकि लोगों को हिन्दू रानियों की वीरता
के बारे में सही जानकारी मिल सके.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें