बुधवार, 22 अगस्त 2018

शेखाजी कछवाहा ओर घाटवा का युद्ध

शेखाजी कछवाहा ओर घाटवा का युद्ध

राव शेखाजी कछवाहा का नाम भारत के उन यौद्धाओ के शुमार है , जिन्होंने एक स्त्री के सम्मान की रक्षा करने के लिए , पापी को दंड देने के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए। राव शेखाजी कुशवाहा ने राजस्थान के एक बंजर प्रदेश को अपने खून तथा पसीने से सींचकर उसे स्वर्ग से सुंदर बना दिया था।

कुश के पुत्रो की इस शेखावत कछवाहा शाखा का राजस्थान के मनोहरपुर , शाहपुरा , खंडेला , सीकर , खेतड़ी , बिसाऊ , महनसर , गांगियासर , सूरजगढ़, नवलगढ़ग मंडावा , मुकुंदगढ़ , दांता , खाचरियावास , डूंडलोद , अलसीसर , मलसीसर तथा रानोली कई क्षेत्रों पर अधिकार था।

शेखाजी कुशवाहा ने राजस्थान के इस भाग को स्वर्ग से सुंदर तब बनाया था , जब पुरे भारत में विदेशी मुसलमान मल्लेछ आतंक तथा हिंसा , लूटमार के नए नए आयाम पेश कर रहे थे। उस मल्लेछ काल में भी राव शेखाजी ने खुली घोषणा की थी " मेरे राज्य में गाय काटने वाले का सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा " यह राव शेखाजी कुशवाहा की ही देंन है की राजस्थान का शेखावाटी अंचल आज कला तथा सौंदर्य में अपना अग्रणी स्थान रखता है , साल भर विदेशी पर्यटकों की भरमार राजस्थान के इस छोटे से प्रदेश में आज तक रहती है।

रावशेखाजी का व्यक्तित्व बहुत सरल था , उनकी वाणी कर्णप्रिय थी , आज भी राजस्थान के उस पुरे प्रदेश को राव शेखाजी के नाम से ही याद रखा गया है। राव शेखाजी ने केवल मनुष्यो का ही विकाश नहीं किया , गौ माता के लिए तो जैसे कुबेर का भंडार ही खोल दिया , बड़ी बड़ी गौशलाओं का निर्माण करवाया गया , जो आज तक है , गौ-शाला के लिए जितनी जमीने राव शेखाजी ने छोड़ी, शायद ही कोई अन्य राजा इतनी जमीने मात्र गौशाला के लिए दान कर पाया हो।

लेकिन राव शेखाजी को मुख्य रूप से याद किया जाता है " घाटवा के युद्ध " के लिए। यह युद्ध एक महिला के मान सम्मान के लिए लड़ा गया था। हुआ यह था की राव शेखाजी के राज्य के राजपूत दम्पति किसी दूसरे राज्य की सीमा से गुजरते हुए अपने परिवारजन से मिलने जा रहे थे, बीच में गोड़ राज्य पड़ता था। गोड़ राज्य में उस समय सड़क निर्माण का काम चल रहा था , और जो भी यात्री वहां से गुजरता , उससे २ धामे मिटटी बालू के गिरवा लिए जाते। उस राजपूत दम्पति को भी वहीँ रोक लिया गया , जहाँ सड़क निर्माण का यह कार्य चल रहा था। उस राजपूत जवान ने भी मिटटी डालने की बात पर कोई शर्म महसूस नहीं की , क्यों की यह तो समाज कल्याण और समाज की सुविधा का ही कार्य था। लेकिन गॉड सरदार ने मर्यादा तोड़ते हुए उस महिला से भी २ परात मिटटी के सड़क पर डालने को कह दिया , राजपूत महिलायें सड़क पर काम नहीं करती , राजपूत होकर इस मर्यादा का ख्याल गोड़ सरदार को करना तरह , इतनी सी बात पर बात बड़कर इतनी बड़ी हो गयी , की दोनों पक्षों में तलवारे चल गयी , और उस क्षत्राणी के पति की वहां हत्या हो गयी , वह स्त्री भी राजपूत थी , गोड़ सरदार को चुनौती दे आयी , की बाकी बची इस लड़ाई का हिसाब अब यूद्धभूमि पर ही पूरी होगी।

अपने साथ हुई यह अपमानजनक घटना उस महिला ने महाराज राव शेखाजी को कह सुनाई , राज शेखाजी धर्म के पक्के राजा थे , उनका यही मानना था की स्त्री का अपमान करने वालो का तो गला ही कटना चाहिए।

राव शेखाजी ने गोड़ो पर उनके सरदार कलराज गोड़ का सिर धड़ से अलग कर उसे अमरसर के किले पर टांग दिया। राव शेखाजी के इस कृत्य से आसपास के सभी क्षेत्रो में उनका आतंक फ़ैल गया , लेकिन महाराज शेखाजी का उदेश्य आम जनता को भयभीत करना नहीं था , बल्कि वे पापियों और दुस्टो को भयभीत करना चाहते थे , की तुम्हारा अंत भी यही होगा। लगातार ५ वर्ष तक अपने सरदार का सिर ले जाने का साहसिक प्रयास गोड़ सरदार करते रहे । लेकिन हर बार उन्हे असफलता ही हाथ लगती।

लगातार आक्रमणों के बाद भी सफलता नहीं मिलने के बाद गोड़ अब और खूंखार हो गए , और उन्होंने शेखावतो को सीधे युद्ध के मैदान में ही चुनौती दे दी ,
अब युद्ध का आह्वाहन सुन एक राजपूत अपने पग पीछे कैसे रख सकता था ?

गौड़ बुलावे घाटवे,चढ़ आवो शेखा |
लस्कर थारा मारणा,देखण का अभलेखा ||

कुछ इस तरह के शब्दों के साथ राव शेखाजी को युद्ध करने के लिए आह्वाहन दिया गया , राव शेखाजी ने युद्ध की चुनौती मिलने के बाद एक क्षण की भी प्रतीक्षा नहीं की , राव शेखाजी ने अपना खाड़ा उठा लिया , और आर पार के युद्ध के लिए निकल पड़े। राव शेखाजी को युद्ध भूमि पर युद्ध करता देख शत्रु सेना की पिंडली काँप गयी।

इस युद्ध में गोड़ो की सेना का नेतृत्व गोड़राज रिड़मल जी कर रहे थे। उन्होंने राव शेखाजी पर तीरो की भरमार कर दी , राव शेखाजी ने कई तीरो को विफल कर दिया , लेकिन एक तीर आकर सीधा उनकी छाती पर लगा। कुछ समय के लिए शेखाजी स्थिर हुए , की शत्रु सेना ने उन्हें तीरो से छलनी कर दिया , शरीर की एक एक शिराओ से रक्त की धार बह निकली।

इतने घायल होने के बाद भी राव शेखाजी ने अपने अपने शस्त्र नहीं तजे। रिड़मल जी पर ऐसा प्रहार किया , की रिड़मल जी बड़ी मुश्किल से खुद बच पाएं , घोडा बीच से कट गया। घायल अवस्था में भी शत्रुओ को गाजर मूली की तरह काटते शेखाजी कछवाहा आगे बढ़ते ही जा रहे थे।

राव शेखाजी के तेग़े के जोर के आगे , गोड़ सूर्यास्त से पहले ही भाग खड़े हुए। अपनी जान बचाते हुए वे घाटवा के मैदान की और बढे , यह उनकी योजना का ही हिस्सा था , गोड़ो ने घाटवा पर अपनी रिजर्व सेना छोड़ रखी थी , उनकी योजना के अनुसार शेखाजी के थके हारे सेनिको को घाटवा के मैदान पर घेरकर बंदी बना लेना या मार डालना था। लेकिन शेखाजी ने उनकी इस योजना को बड़ी कुशलता से पहचाना भी और , योजना को ध्वस्त भी करवा दिया। युद्ध तो राव शेखाजी जित चुके थे , उनके बड़े पुत्र इस युद्ध में वीरगति प्राप्त कर गए।

खून से लथपथ राव शेखाजी ने उसके बाद अपने सभी अफसरों को बुलाया , उनके सामने अपने कनिष्क पुत्र रायमल कछवाहा शेखावत को अपने ढाल और तलवार सौंप उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया , तथा खुद सदा सदा के लिए आँखे बंद क्र , यह लोक जीत , स्वर्गलोक जीतने प्रस्थान कर गए।
Satveer Singh Shekhawat Barsinghpura

बुधवार, 1 अगस्त 2018

गढ़वाल की बहादुर महारानी कर्णावती - नाक काटी रानी

गढ़वाल की बहादुर महारानी
कर्णावती "नाक काटी रानी"

क्या आपने गढ़वाल क्षेत्र की “नाक काटी रानी”
का नाम सुना है ?

नहीं सुना होगा...

क्योंकि ऐसी बहादुर हिन्दू रानियों के तमाम
कार्यों को चुपके से छिपा देना ही  “फेलोशिप-खाऊ” इतिहासकारों का काम था...

गढ़वाल राज्य को मुगलों द्वारा कभी भी जीता
नहीं जा सका....

ये तथ्य उसी राज्य से सम्बन्धित है.
यहाँ एक रानी हुआ करती थी, जिसका नाम
“नाक काटी रानी” पड़ गया था, क्योंकि उसने
अपने राज्य पर हमला करने वाले कई मुगलों
की नाक काट दी थी.

जी हाँ!!! शब्दशः नाक बाकायदा काटी थी.

इस बात की जानकारी कम ही लोगों को है
कि गढ़वाल क्षेत्र में भी एक “श्रीनगर” है,

यहाँ के महाराजा थे महिपाल सिंह, और
इनकी महारानी का नाम था कर्णावती
(Maharani Karnavati).

महाराजा अपने राज्य की राजधानी
सन 1622 में देवालगढ़ से श्रीनगर ले गए.

महाराजा महिपाल सिंह एक कठोर, स्वाभिमानी
और बहादुर शासक के रूप में प्रसिद्ध थे.

उनकी महारानी कर्णावती भी ठीक वैसी ही थीं.

इन्होंने किसी भी बाहरी आक्रांता को अपने राज्य में घुसने नहीं दिया. जब 14 फरवरी 1628 को आगरा में शाहजहाँ ने राजपाट संभाला, तो उत्तर भारत के दूसरे कई छोटे-मोटे राज्यों के राजा शाहजहाँ से सौजन्य भेंट करने पहुँचे थे.

लेकिन गढ़वाल के राजा ने शाहजहाँ की इस
ताजपोशी समारोह का बहिष्कार कर दिया था.

ज़ाहिर है कि शाहजहाँ बहुत नाराज हुआ.

फिर किसी ने शाहजहाँ को बता दिया कि गढ़वाल
के इलाके में सोने की बहुत खदानें हैं और
महिपाल सिंह के पास बहुत धन-संपत्ति है...

बस फिर क्या था, शाहजहाँ ने “लूट परंपरा” का
पालन करते हुए तत्काल गढ़वाल पर हमले की
योजना बना ली.

शाहजहाँ ने गढ़वाल पर कई हमले किए, लेकिन सफल नहीं हो सका. इस बीच कुमाऊँ के एक युद्ध में गंभीर रूप से घायल होने के कारण 1631 में महिपाल सिंह की मृत्यु हो गई. उनके सात वर्षीय पुत्र पृथ्वीपति शाह को राजा के रूप में नियुक्त किया गया, स्वाभाविक
है कि राज्य के समस्त कार्यभार की जिम्मेदारी
महारानी कर्णावती पर आ गई.

लेकिन महारानी का साथ देने के लिए उनके
विश्वस्त गढ़वाली सेनापति लोदी रिखोला,
माधोसिंह, बनवारी दास तंवर और दोस्त
बेग मौजूद थे.

जब शाहजहां को महिपाल सिंह की मृत्यु की
सूचना मिली तो उसने एक बार फिर 1640 में
श्रीनगर पर हमले की योजना बनाई.

शाहजहां का सेनापति नज़ाबत खान,
तीस हजार सैनिक लेकर कुमाऊँ गढवाल रौंदने
के लिए चला.

महारानी कर्णावती ने चाल चलते हुए उन्हें राज्य
के काफी अंदर तक आने दिया और वर्तमान में
जिस स्थान पर लक्ष्मण झूला स्थित है, उस जगह
पर शाहजहां की सेना को महारानी ने दोनों तरफ
से घेर लिया.

पहाड़ी क्षेत्र से अनजान होने और
बुरी तरह घिर जाने के कारण नज़ाबत खान
की सेना भूख से मरने लगी, तब उसने महारानी कर्णावती के सामने शान्ति और समझौते का सन्देश भेजा, जिसे महारानी ने तत्काल ठुकरा दिया.

महारानी ने एक अजीबोगरीब शर्त रख दी कि
शाहजहाँ की सेना से जिसे भी जीवित वापस आगरा जाना है वह अपनी नाक कटवा कर ही जा सकेगा,
मंजूर हो तो बोलो.

महारानी ने आगरा भी यह सन्देश भिजवाया
कि वह चाहें तो सभी के गले भी काट सकती हैं,

लेकिन फिलहाल दरियादिली दिखाते हुए
वे केवल नाक काटना चाहती हैं.

सुलतान बहुत शर्मिंदा हुआ,

अपमानित और क्रोधित भी हुआ,

लेकिन मरता क्या न करता...

चारों तरफ से घिरे होने और भूख की वजह
से सेना में भी विद्रोह होने लगा था ।

तब महारानी ने सबसे पहले नज़ाबत खान की
नाक खुद अपनी तलवार से काटी और उसके
बाद अपमानित करते हुए सैकड़ों सैनिकों की
नाक काटकर वापस आगरा भेजा,
तभी से उनका नाम “नाक काटी रानी” पड़ गया था.

नाक काटने का यही कारनामा उन्होंने दोबारा
एक अन्य मुग़ल आक्रांता अरीज़ खान और
उसकी सेना के साथ भी किया...

उसके बाद मुगलों की हिम्मत नहीं हुई कि
वे कुमाऊँ-गढ़वाल की तरफ आँख उठाकर देखते.

महारानी को कुशल प्रशासिका भी माना जाता था.

देहरादून में महारानी कर्णावती की बहादुरी के किस्से आम हैं (लेकिन पाठ्यक्रमों से गायब हैं).

दून क्षेत्र की नहरों के निर्माण का श्रेय भी
कर्णावती को ही दिया जा सकता है.

उन्होंने ही राजपुर नहर का निर्माण करवाया था जो रिपसना नदी से शुरू होती है और देहरादून शहर तक पानी पहुँचाती है. हालाँकि अब इसमें कई बदलाव और विकास कार्य हो चुके हैं, लेकिन दून घाटी तथा कुमाऊँ-गढ़वाल के इलाके में “नाक काटी रानी” अर्थात महारानी कर्णावती का योगदान अमिट है.

“मेरे मामले में अपनी नाक मत घुसेड़ो, वर्ना कट जाएगी”, वाली कहावत को उन्होंने अक्षरशः पालन करके दिखाया और इस समूचे पहाड़ी इलाके को मुस्लिम आक्रान्ताओं से बचाकर रखा.

उम्मीद है कि आप यह तथ्य और लोगों तक
पहुँचाएंगे...

ताकि लोगों को हिन्दू रानियों की वीरता
के बारे में सही जानकारी मिल सके.