मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

किले का विवाह

किले का विवाह

"बधाई ! बधाई ! तुर्क सेना हार कर जा रही है गढ का घेरा उठाया जा रहा है" प्रधान बीकमसी(विक्रमसिह) ने प्रसन्नातापूर्वक जाकर यह सूचना रावल मूलराज को दे दी

"घेरा क्यो उठाया जा रहा है?" रावल ने विस्मयपूर्वक कहा

कल के धावे ने शाही सेना को हताश कर दिया है मलिक, केशर और शिराजुद्दीन जैसे योग्य सेनापति तो कल ही मारे गए अब कपूर मरहठा और कमालदीन मे बनती नही है कल के धावे मे शाही सेना का जितना नाश हुआ उतना शायस पिछले एक वर्ष के सब धावो मे नही हुआ होगा अब उनकी संख्या भी कम हो गई है जिससे उनका भय हो गया है कि कही तलहटी मे पङी फौज पर ही आक्रमण न कर दे 
प्रधान बीकमसी ने कहा

"तलहटी मे कुल शाही फौज कितनी होगी"
"लगभग पच्चीस हजार"
"हमारे पास तो कुल तीन हजार रही है"
"फिर भी उनको भय हो गया है"

रावल मूलराज ने एक गहरी नि:श्वास छोङी और उसका मुँह उतर गया उसने छोटे भाई रतनसी की ओर देखा वह भी उदास हो गया था बीकमसी और दूसरे दरबारी लोग बङे असमंजस मे पङे जहाँ चेहरे पर प्रसन्नाता छा जानी चाहिए थी वहाँ उदासी क्यो? वर्षो के प्रयत्न के उपरान्त विजय मिली थी हजारो राजपूतो ने प्राण गंवाये थे

तब कही जाकर शाही सेना हताश होकर लौट जाने को विवश हुई थी बीकमसी ने समझा शायद मेरे आशय को रावजी ठिक नही समझे है इसलिए उसने फिर कहा-
"कितनी कठिनाई से अपने को जीत मिली है अब तो लौटती हुई फौज पर दिल्ली तक धावे करने का अवसर मिल गया है हारी हुई फौज मे लङऩे का साहस नही होता इसलिए खुब लूट का माल मिल सकता है"
रावल मूलराज ने बीकमसी की बात पर कोई ध्यान नही दिया और वह और भी उदास होकर बैठ गया सारे दरबार मे सन्नाटा छा गया रावलजी के इस व्यवहार को रतनसी के अतिरिक्त और कोई नही समझ रहा था बहुत देर से छा रही नि:स्तब्धता को भंग करते हुए अन्त मे एक और गहरी नि:श्वास छोङ कर रावल मूलराज ने कहा-

"बङे रावलजी(रावल जैतसी) के समय से ही हमने जो प्रयत्न करना शुरु किया था वह आज जाकर विफल हुआ है शेखजादा को मारा और लुटा सुल्तान फिरोज का इतना बिगाङ किया उसके इलाके को तबाह किया और हजारो राजपूतो को मरवाया पर फिरौज की फौज हार कर जा रही है तब दूसरा तो और कौन है जो हमारे उद्देश्य को पुरा कर सके"
इस प्रकार शाही फौज हार कर जाना बहुत बुरा है क्योकि इस आक्रमण मे सुल्ताऩ को जन धन की इतनी हानि उठानि पङी है

वह भविष्य मे यहाँ आक्रमण करने की स्वपन मे भी नही सोचेगा"रतनसी ने रावल मूलराज की बात का समर्थन करते आगे कहा-
"शाही फौज के हताश लौटने का एक कारण अपना किला भी है यह इतना सुदृढ और अजेय है कि शत्रु इसे देखते ही निराश हो जाते है वास्तव मे अति बलवार वीर व दुर्ग दोनो ही कुँआरे(अविवाहित) ही रहते है मेरे तो एक बात ध्यान मे आती है क्यो नही किले की एक दीवार तुङवा दी जाये जिससे हताश होकर जा रही शत्रु सेना धावा करने के लिए ठहर जाए।" रावल मूलराज ने प्रश्नभरी मुद्रा से सबकी और देखते हुए कहा-
"मुझे एक उपाय सूझा है यदि आज्ञा  हो तो कहुँ। " रतनसी ने अपने भाई की ओर देखते हुए कहा।
"हाँ हाँ जरुर कहो।"
कमालदीऩ आपका पगङी बदल भाई है । उसको किसी के साथ कहलाया जाए कि हम गढ के किवाङ खोलने के लिए तैयार है तुम धावा करो वह आपका आग्रह अवश्व मान लेगा । उसको आपकी प्रतिज्ञा भी बतला दी जाए और विश्वास दिलाया जाए कि किसी भी प्रकार का धोखा नही है।"
"वह नही माना तो।"
"जरुर मान जाएगा । एक तो आपका मित्र है इसलिए आप पर विश्वास भी कर लेगा और दूसरा हार कर लौटने मे उसको कौनसी लाज नही आ रही है । वह सुल्तान के पास किस मुँह से जाएगा।

इसलिए विजय का लोभ भी उसे लौटने से रोक देगा"
"उसे विश्वास कैसे दिलाया जा कि यहाँ धोखा नही होगा"
"किले पर लगे हुए झाँगर यंत्रो और किंवाङो को पहले से तोङ दिया जाय"
रावल मूलराज के रतनसिह की बताई हुई युक्ति जँच गई उसके मुँह पर प्रसन्नता दौङती हुई दिखाई दी 
उसी क्षण जैसलमेर दुर्ग पर लगे हुए झाँगर यंत्रो के तोङने की ध्वनि लोगो ने सुनी लोगो ने देखा कि किले के किवाङ खोल दिये गए थे और दूसरे ही क्षण उन्होने देखा कि वे तोङ जा रहे थे फिर उन्होने देखा एक घूङसवार जैसलमेर दुर्ग से निकला और तलहटी मे पङाव डाले हुए पङी शाही फौज की ओर जाने लगा वह दूत वेश मे नि:शस्त्र था उसके बाँये हाथ मे घोङे की लगाम और दाये हाथ मे एक पत्र था लोग इन सब घटनाओ को देखकर आश्चर्यचकित हो रहे थे झाँगर यंत्रो का और किवाङो को तोङा जाना और असमय मे दूत का शत्रु सेना की ओर जाना विस्मयोत्पादक घटऩाएँ थी जिनको समझने का प्रयास सब कर रहे थे पर समझ कोई नही रहा था
कमालदीन ने दूत के हाथ से पत्र लिया । वह अपने डेरे मे गया और उसे पढने लगा-
"भाई कमालदीन को भाटी मूलराज की जुहार मालूम हो। अप्रंच यहा के समाचार भले है । राज के सदा भले चाहिए ।

आगे का समाचार मालूम हो-

जैसलमेर का इतना बङा और दृढ किला होने पर भी अभी तक यह किला कुँआरा ही बना हुआ है मेरे पुरखा बङे बलवान और बहादुर थे पर उन्होने भी किल का कौमार्य नही उतारा जब तक किला कुँआरा(अविवाहित) रहेगा तब तक भाटियो की गौरवगाथा अमर नही बनेगी और हमारी सन्तानो को गौरव का ज्ञान नही होगा इसलिए मैं लम्बे समय से सुल्तान फिरोजशाह से शत्रुता करता आ रहा हुँ उसी शत्रुता के कारण उन्होने बङी फौज जैसलमेर भेजी है पर मुझे बङा दु:ख है कि वह फौज आज हार कर जाने लगी है इस फौज के चले जाने के उपरान्त मुझे तो भारत मे और कोई इतना बलवान दिखाई नही पङता जो जैसलमेर दुर्ग पर धावा करके इसमे जौहर और शाका करवाये जब तक पाँच राजपुतानियाँ की जौहर की भस्म और पाँच केसरिया वस्त्रधारी राजपूतो का रक्त इसमे नही लगेगा तब तक यह कुआँरा ही रहेगा तुम मेर पगङी बदल भाई और मित्र हो यह समय है अपने छौटे भाई की प्रतिज्ञा रखने और उसे सहायता पहुँचाने का इसलिए मेरा निवेदन है कि तुम अपनी फौज को लौटाओ मत और कल सवेरे ही किले पर आक्रमण कर दौ ताकि जौहर और शाका करके स्वर्गधाम पहुँचने का अमूल्य अवसर मिलै और किले का भी विवाह हो जाए*किले का विवाह

मै तुम्हे वचन देता हूँ कि यहाँ किसी प्रकार का धोखा नही हो हमने किले के झाँगर यन्त्र और किवाङ तुङवा दिये है सो तुम अपना दूत भेज कर मालूम र सकते हो
कमालदीन ने पत्र को दूसरी बार पढा उसके चेहरे पर प्रसन्नता छा गई धीरे धीरे वह गम्भीरता और उदासी के रुप मे बदल गई एक घङी तक वह अपने स्थान पर बैठा सोचता रहा कई प्रकार के संकल्प विकल्प उसके मस्तिष्क मे उठे। अन्त मे उसने दुत से पूछा-

किले में कुल कितने सैनिक है।

;पच्चीस हजार।

पच्चीस हजार
तब तो रावलजी से जाकर कहना कि मैं मजबूर हूँ । मेरे साथी लङने के लिए तैयार नही है । 
संख्या के विषय मे मुझे मालूम नही । आप अपना दूत मेरे साथ भेज कर मालूम कर सकते है । दूत ने बात बदल कर कहा ।

एक दूत घूङसवार के साथ की ओर चल पङा । थोङी देर पश्चात ऊँटों और बैलगाङियो पर लदा हुआ सामान उतारा जाने लगा । उखङा हुआ पङाव फिर कायम होने लगा । शाही फौज के उखङे हुए पैर फिर जमने लगे ।

दशमी की रात्री का चन्द्रमा अस्त हुआ । अन्धकार अपने टिम - टिम टिमटिमाते हुए तारा रुपी दाँतो को निकाल कर हँस पङा । उसकी हँसी को चुनौती देते हूए एक गढ के कंगूरे औरउऩमे लगे हुए पत्थर तक दूर से दिखाई पङने लगे । एक प्रचण्ड अग्नि की ज्वाला ऊपर उठी जिसके साथ हजारो ललनाओं का रक्त आकाश मे चढ गया समस्त आकाश रक्त-रंजित शून्याकार मे बदल गया उन ललनाओ का यश भी आकाश की भाँति फैल कर विस्तृत और #चिरस्थायी हो गया ।

सूर्यौदय होते ही तीन हजार #केसरिया वस्त्रधारी राजपूतो ने कमालदीन की पच्चीस हजार सेना पर आक्रमण कर दिया ।
घङी भर घोर घमासान युद्ध हुआ । 
जैसलमेर दुर्ग की भुमि और दीवारे रक्त से सन गई । 
जल की प्यासी भूमि ने #रक्तपान करके अपनी तृष्णा को शान्त किया अब ।

पुरा शाका भी पुरा हुआ ।

आज कोई ऩही कह सकता कि #जैसलमेर का #दुर्ग #कुँआरा है, कोई नही कह सकता कि #भाटियो ने कोई #जौहर #शाका नही किया , कोई नही कह सकता कि वहा की #जलहीन भूमि #बलिदानहीन है और कोई नही कह सकता कि उस #पवित्र भूमि की अति #पावन #रज के स्पर्श से #अपवित्र भी #पवित्र नही हो जाते । #जैसलमेर का #दुर्ग आज भी #स्वाभिमान से अपना #मस्तक ऊपर किए हुए संदेश कह रहा है । यदि किसी #सामर्थ्य में हो सुन लो और समझ लो वहाँ जाकर ।

लेफ्टिनेंट जनरल हनुत सिंह

लेफ्टिनेंट जनरल हनुत सिंह


1986 में भारत और पाकिस्तान के नक़्शे बदल देते?
1971 की लड़ाई में लेफ्टिनेंट जनरल हनुत सिंह को महावीर चक्र मिला था और उनके जूनियर ऑफिसर अरुण खेत्रपाल को परमवीर चक्र
राजस्थान में बाड़मेर जाते वक़्त जोधपुर से लगभग 80 किलोमीटर के फ़ासले पर एक शहर है-बालोतरा. और इससे कुछ मील दूर है जसोल. विशुद्ध राजस्थानी संस्कृति वाले जसोल में आप अगर किसी बच्चे से भी पूछें कि स्वर्गवासी हुकम हनुत सिंह की ड्योढ़ी कहां है तो वह हाथ पकड़ आपको वहां छोड़ आएगा.
कौन हनुत सिंह? यह पूछने वाले यकीनन भारतीय सेना के सबसे गौरवशाली अफ़सरों में से एक लेफ्टिनेंट जनरल ‘हंटी’ उर्फ़ हनुत सिंह से परिचित नहीं हैं. वे भारतीय सेना के उस ‘भीष्म पितामह’ से वाबस्ता नहीं हैं जिसने सेना में अपना सर्वस्व झोंकने के लिए विवाह नहीं किया. वे उस अधिकारी बारे में नहीं जानते जिसे भारतीय सेना का सबसे कुशल रणनीतिकार कहा जाता है, और वे उस हनुत सिंह को नहीं जानते जो गौरवशाली टैंक रेजिमेंट 17 पूना हॉर्स के कमांडिंग ऑफ़िसर (सीओ) थे. जो नहीं जानते वे अब याद रखें कि सन 1971 की लड़ाई के बाद पाकिस्तान की सेना ने 17 पूना हॉर्स को ‘फ़क्र-ए-हिन्द’ का ख़िताब दिया था. हैरत की बात नहीं, जनता ही नहीं सरकारें भी अब हनुत सिंह को भूल चुकी हैं.

भारतीय सेना के 12 सबसे चर्चित अफ़सरों की जीवनी ‘लीडरशिप इन द आर्मी’ के लेखक रिटायर्ड मेजर जनरल वीके सिंह लिखते हैं, ‘अगरचे कोई एक लफ्ज़ है जो हनुत सिंह के बारे में समझा सके तो वह है- सैनिक’. वे आगे लिखते हैं कि हनुत सेनाध्यक्ष तो नहीं बन पाए पर लेफ्टिनेंट कर्नल रहते हुए भी वे एक किंवदंति बन गए थे.

ऐसा 1971 में हुआ था जब हनुत सिंह 17 पूना हॉर्स के सीओ थे. बैटल ऑफ़ बसंतर की उस मशहूर लड़ाई में दुश्मन से घिर जाने के बावजूद अपने हर जूनियर ऑफ़िसर को एक इंच भी पीछे हटने के लिए मना कर दिया था. इसी लड़ाई में सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल को अद्मय साहस का परिचय देने पर मरणोपरांत परमवीर चक्र मिला था. इसी जंग में शानदार नेतृत्व के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल हंटी को महावीर चक्र मिला था.

पर यहां ज़िक्र 1971 का नहीं, बल्कि 1986 का है जब भारतीय सेना इतिहास में सबसे बड़े युद्धाभ्यास ‘ऑपरेशन ब्रासटैक्स’ के चलते पाकिस्तान पर लगभग हमला करने से कुछ कदम ही पीछे रह गई थी और इसमें हंटी की अहम भूमिका थी.
ऑपरेशन ब्रासटैक्स

एक फ़रवरी 1986 को जनरल के सुंदरजी ने भारतीय सेना की कमान संभाली और राजस्थान से लगी हुई पाकिस्तानी सीमा पर तीनों सेनाओं का संयुक्त युद्धाभ्यास कराने की योजना बनाई. सुंदरजी बदलते दौर की युद्ध शैलियों, एयरफोर्स की एयर असाल्ट डिविज़न और रीऑर्गनाइस्ड असाल्ट प्लेन्स इन्फेंट्री डिविज़न को आज़माना चाहते थे. इस संयुक्त युद्धाभ्यास की कमांड लेफ्टिनेंट जनरल हनुत सिंह के हाथों में सौंपी गई. इससे पहले एक उच्च स्तरीय मीटिंग में हनुत सुंदरजी से किसी बात पर दो-दो हाथ कर चुके थे. तब फ़ौज में यह बात उड़ गई कि हनुत अब रिटायरमेंट ले लेंगे पर सुंदरजी नियाहत ही पेशेवर अफ़सर थे, उन्होंने हनुत का सुझाव ही नहीं माना, उन्हें प्रमोट भी किया था.

तयशुदा प्लान के तहत 29 अप्रैल, 1986 को हनुत ने भारतीय सेना की सुप्रतिष्ठित हमलावर 2 कोर की कमान संभाली और इसे लेकर राजस्थान की सीमा पर आ डटे. एक आंकड़े के मुताबिक़ लगभग डेढ़ लाख भारतीय सैनिक सीमा पर जमा हुए थे. हनुत ने अब तक जो भी सीखा था, उसे इस युद्धाभ्यास में इस्तेमाल किया. रोज़ नए अभ्यास कराये जाते, नक़्शे, सैंड-मॉडल बनाकर हमले की प्लानिंग की जाती और जवानों को गहन ट्रेनिंग दी जाती.

ब्रास टैक्स के कई चरण थे. जब यह युद्धाभ्यास चौथे चरण में पहुंचा तो उनकी कोर को उस प्रशिक्षण से गुज़रना पड़ा जो अब तक नहीं हुआ था. भारत के तीखे तेवर देखकर पाकिस्तान में हडकंप मच गया. पाकिस्तानी सेना हनुत सिंह का युद्ध कौशल 1971 में देख चुकी थी जब बसंतर की लड़ाई में हनुत ने उनके 60 टैंक मार गिराए थे. इस युद्धाभ्यास को सीधे तौर पर संभावित भारतीय हमला समझा गया जिसकी वजह से पाकिस्तानी सरकार के पसीने छूट गए थे. कहते हैं कि पाकिस्तानी संसद में विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री रोज़ाना बयान देकर देश को भारतीय सैन्य ऑपरेशन की जानकारी देते थे.

इस ऑपरेशन ने अमेरिका तक की नींद उड़ा दी थी. पश्चिम के डिप्लोमेट्स भारत की पारंपरिक युद्ध की ताक़त से हैरान रह गए थे. उनके मुताबिक़ यह युद्धाभ्यास नाटो फ़ोर्सेस के अभ्यासों से किसी भी प्रकार कमतर नहीं था. बल्कि, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दक्षिण एशिया में यह तब तक का सबसे बड़ा युद्धाभ्यास था. पाकिस्तान ने ट्रैक 2 डिप्लोमेसी का इस्तेमाल किया और बड़ी मुश्किल से इस युद्धाभ्यास को रुकवाया.

सुंदरजी इसे सिर्फ़ एक अभ्यास की संज्ञा दे रहे थे पर जानकारों के मुताबिक़ इस युद्धाभ्यास का असल मकसद कुछ और ही था. इसके रुकने पर हनुत और उनके अफ़सर बड़े मायूस हुए. वीके सिंह लिखते हैं कि हनुत का पिछला रिकॉर्ड देखते हुए यकीन से कहा जा सकता है कि अगर हनुत को इजाज़त मिल जाती तो वे दोनों मुल्कों का नक्शा बदल देते.
सिक्किम में वीआईपी कल्चर बंद कर दिया

यह क़िस्सा 1982 का है जब हनुत सिंह मेजर जनरल बने और सिक्किम में तैनात 17 माउंटेन डिविज़न की कमान उनके हाथों में आई. सिक्किम के तत्कालीन गवर्नर होमी तल्यारखान की इंदिरा गांधी के साथ नज़दीकी के चलते सेना के उच्चाधिकारी उनकी हाज़िरी में खड़े रहते. उन दिनों जो भी सरकारी अधिकारी सिक्किम घूमने आते, वे सेना की मेहमाननवाज़ी का लुत्फ़ उठाते. हनुत ने यह सब बंद करवा दिया. बल्कि उन्होंने आने वाले सरकारी सैलानियों से सरकारी शुल्क वसूलना शुरू कर दिया.
सिक्किम में फॉरवर्ड पोस्टों पर सेना का हाल ख़राब था. न रहने के लिए मुकम्मल इंतज़ाम था न बिजली की व्यवस्था थी. हनुत सिंह ने सेना के उच्चाधिकारियों को पत्र लिखकर हालात सुधारने की बात कही तो उनके रिपोर्टिंग ऑफ़िसर ने मना कर दिया. हारकर, जब उन्हें कहीं से भी कोई सहायता नहीं मिली तो उन्होंने लकड़ियों से सैनिकों के लिए बैरक और शौचालय बनवाए. वहां पर जनरेटर लगवाए.
कुछ साल बाद जब उनका तबादला कहीं और हो गया तो विदाई के समय सैनिकों ने उन्हें एक मेमेंटो दिया जिस पर लिखा हुआ था, ‘जितना सैनिकों के लिए बाक़ी अफ़सरों ने 20 साल में किया है, आपने एक साल में कर दिखाया’. उनका मानना था कि एक सैनिक जितना अपने अफ़सर के लिए कुर्बानी देता है, उतना अफ़सर उसके लिए नहीं करते.

जूनियर अफ़सरों के मां-बाप हंटी से परेशान थे

हनुत सिंह का मानना था कि सैनिक अगर शादी कर लेता है तो परिवार सेवा देश सेवा के आड़े आती है. लिहाज़ा, वे आजीवन कुंवारे रहे. वे अपने जूनियर अफ़सरों को भी ऐसी ही सलाह देते. एक समय ऐसा भी आया कि उनकी यूनिट में काफ़ी सारे जवान और अफ़सर उनके इस फ़लसफ़े से प्रभावित होकर कुंवारे ही रहे. इस बात से जूनियर अफ़सरों के मां-बाप हनुत सिंह से परेशान रहते. कइयों ने शिकायत भी की पर उनकी सेहत पर इस तरह की शिकायतों का असर नहीं होता था.
बेबाकी

1971 की लड़ाई के बाद जब उन्होंने अपनी रिपोर्ट पेश की तो उसमें लिख दिया कि सेना के बड़े अफसर जंग ख़त्म होने से कुछ ही घंटे पहले बॉर्डर पर आये थे. इस बात से उनके उनके कई वरिष्ठ अफ़सर उसे नाराज़ हो गए पर हनुत को अपनी काबलियत का बख़ूबी अंदाज़ा था जिसके चलते वे किसी की परवाह नहीं करते. कई बार तो बात यहां तक बढ़ जाती कि उनके अफ़सर अपनी फ़जीहत रुकवाने के लिए बैठकें ख़त्म कर देते थे.
1971 में उनके कमांडिंग ऑफ़िसर अरुण श्रीधर वैद्य (बाद में सेनाध्यक्ष) ने एक बार जंग के दौरान उनसे हालचाल मालूम करने की कोशिश की तो हनुत ने कहलवा दिया कि वे ‘पूजा’ कर रहे हैं और अभी बात नहीं कर सकते!’ दरअसल, जंग के दौरान वे किसी भी प्रकार का दख़ल बर्दाश्त नहीं करते थे. हनुत सिंह की काबिलियत का अंदाज़ा से बात से भी लगाया जा सकता है कि भारत में टैंकों की लड़ाई पर उनके लिखे दस्तावेज़ आज भी इंडियन मिलिट्री अकादमी में पढ़ाये जाते हैं.

इतनी काबिलियत के बावजूद हनुत सिंह सेनाध्यक्ष नहीं बनाए गए. कहते हैं कि जब उन्हें यह बात मालूम हुई तो वे बड़े ही धीर स्वर में बोले, ‘यह मेरा नहीं देश का नुकसान है कि उन्होंने काबिलियत के बजाए किसी और चीज को प्राथमिकता दी है.’ यह तय है कि हर क़ाबिल अफ़सर सेनाध्यक्ष नहीं बनता और हर सेनाध्यक्ष क़ाबिल नहीं होता.

लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह राठौड़

लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह राठौड़ जिन्होंने भरी सभा मे पंडित जवाहरलाल नेहरू की चुटकी ले ली । 

     लेफ्टिनेंट जनरल नाथूसिंह राठौड़ , एक ऐसी शख्सियत जिन्हें हम सभी को अवश्य जानना चाहिए  ।  कौन हैं नाथू सिंह राठौड़ ,
 तो फिर आइये जानते हैं इनके महान व्यक्तित्व को । 

   लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह राठौर सन् 1902 में पैदा हुए थे. वो ठाकुर हामिर सिंह जी के इकलौते बेटे थे और अपने माता-पिता को बचपन में ही खो देने के बाद उन्हें #डुंगरपुर के महारावल विजय सिंह ने पाला था. उन्हें उनके दोस्त बागी कहकर पुकारते थे. एक बेहतर आर्मी अफसर बनने की तैयारी के लिए वे इंग्लैंड के प्रतिष्ठित Sandhurst मिलिट्री कॉलेज भी गए थे. वह एक उत्कृष्ट अफसर तो बने ही, लेकिन उनको इतिहास में एक ईमानदार और बेबाक सैन्‍य अफसर के रूप में याद किया जाता है. जिसने सेना की एक बेहद महत्‍वपूर्ण नीति को दिशा दी। 
  
   #ब्रिटिश अधिकारियों और उनकी मेस का अपमान -  नाथूसिंह राठौड़ जी चुकी शाही परिवार से सम्बंध रखते थे  , इसलिए वो मेस में अंग्रेजों अफसरों  के साथ भोजन ग्रहण करने से मना कर दिए थे 
इस बात पर बहुत बवाल मचा था क्योंकि अंग्रेज भारतीयों को तुच्छ समझते थे और  पहली बार किसी भारतीय ने अंग्रेजों को यह महसूस करवाया की उनकी औकात एक राजपूत रजवाड़े के सामने क्या हैं। 

    नेहरू vs नाथू सिंह राठौड़ :- 

  भारत की स्वतंत्रता के बाद पंडित जवाहर लाल नहरू ने एक मीटिंग बुलाई थी जिसमें डिफेंस फोर्स के उच्च अधिकारी और कांग्रेस पार्टी के सभी बड़े नेता मौजूद थे. उस मीटिंग का मकसद था कि भारतीय #आर्मी #चीफ के पद पर किसी अच्छे सिपाही को रखा जाए। 
  
  नेहरू ने उस मीटिंग में कहा था कि मुझे लगता है कि 'किसी ब्रिटिश ऑफिसर को भारतीय आर्मी का जनरल बना देना चाहिए. हमारे पास संबंधित विषय के लिए ज्यादा अनुभव नहीं है. ऐसे में भारतीय आर्मी को लीड कैसे कर पाएंगे।

     उस मीटिंग में मौजूद अधिकतर लोग इस बात के लिए मान गए, लेकिन लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह राठौर नहीं माने. उन्होंने भरी सभा में नेहरू को जवाब दिया ।

  पर सर, हमारे पास देश को चलाने के लिए भी कोई अनुभव नहीं है. तो क्या हमें किसी ब्रिटिश को भारत का पहला #प्रधानमंत्री नहीं चुन लेना चाहिए?' 

    नेहरू शर्मिंदा हुए और उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ ,  फिर  राठौड़ साहब को आर्मी चीफ के पद पर नियुक्ति के लिए प्रस्ताव रखा गया किन्तु उन्होंने अपने सीनियर   #के. एम. करिअप्पा का नाम आगे बढ़ा दिया । और इसी प्रकार भारत के पहले आर्मी चीफ  के. एम. करिअप्पा हुए । 

     अगर राठौड़ साहब ने दिलेरी न दिखाई होती तो , आजादी की मांग करने वाले हम भारतीयों के मुह पर यह एक करारा तमाचा साबित होता , क्योंकि हम वैश्विक पटल पर यह एक बार फिर साबित कर रहे थे कि हम भारतीय अपने देश को चलाने योग्य नहीं हैं , और हमे ब्रिटेन से  भाड़े पर अंग्रेज अधिकारी चाहिए । 

सोमवार, 6 अप्रैल 2020

मरणो एकण बार

मरणो एकण बार 
राजस्थान री मध्यकालीन वीर मिनखां अर मनस्विनी महिलावां री बातां सुणां तो मन मोद ,श्रद्धा अर संवेदनावां सूं सराबोर हुयां बिनां नीं रैय सकै।
ऐड़ी ई एक कथा  है कोडमदे अर सादै(शार्दूल) भाटी री।
कोडमदे छापर-द्रोणपुर रै राणै माणकराव मोहिल री बेटी ही।

ओ द्रोणपुर उवो इज है जिणनै पांडवां-कौरवां रा गुरु द्रोणाचार्य आपरै नाम सूं बसायो।

मोहिल चहुवांण राजपूतां री चौबीस  शाखावां मांय सूं एक शाखा रो नाम जिका आपरै पूर्वज 'मोहिल' रै नाम माथै हाली।

इणी शाखा में माणकराव मोहिल हुयो।जिणरै घरै कोडमदे रो जलम हुयो।कोडमदे रूप, लावण्य अर शील रो त्रिवेणी संगम ही।मतलब अनद्य सुंदरी।
राजकुमारी ही सो हाथ रै छालै ज्यूं पल़ी अर मोटी हुई।

राजकुमारी कोडमदे मोटी हुई जणै उणरै माईतां नै इणरै जोड़ वर जोवण री चिंता हुई।उण दिनां राजपूतां में फूठरै वर नै इती वरीयता नीं दिरीजती जिती  एक वीर पुरुष नै दिरीजती।इणी कारण उणरी सगाई मंडोवर रै राजकुमार अड़कमल चूंडावत सागै करी दी गई।

कोडमदे जितरी रूप री लंझा ही अडकमल उतरो इज कठरूप।एक'र चौमासै रो बगत हो।बादल़ चहुंवल़ा गैंघूंबियोड़ा हा,बीजल़ी पल़ाका करै ही ,झिरमिर मेह वरसै हो।ऐड़ै में जोग सूं एकदिन अड़कमल सूअर री शिकार रमतो छापर रै गोरवैं पूगग्यो।उठै ई जोग सूं कोडमदे आपरी साथण्यां सागै झूलरै में हींड हींडै ही।हींड लंफणां पूगी कै उणरी नजर सूअर लारै घोड़ै चढिये डारण देहधारी बजरागिये अड़कमल माथै पूगी।नजर रै सागै ई उणरो सास ऊंचो चढग्यो अर उवां थांथल़ीजगी।थांथरणै रै साथै ई धैंकीज'र पड़गी।पड़तां ई उणरो सास ऊंचो चढग्यो।रंग में भंग पड़ग्यो।साथण्यां ई सैतरै-बैतरै हुयगी। उणनै ऊंचाय'र महल में लेयगी अर झड़फा-झड़फी करण  सूं उणरो सास पाछो बावड़्यो।ज्यूं सास बावड़्यो जणै साथण्यां पूछ्यो कै-
"बाईसा! इयां एकएक भंवल़ कियां आयगी?ओ तो आखड़िया जैड़ा पड़िया नीं नीतर आज जुलम हुय जावतो।म्हे मूंडो ई कठै काढती?"

जणै कोडमदे कह्यो कै-
"अरै गैलक्यां भंवल़ नीं आई।म्हैं तो उण ठालैभूलै ठिठकारिये घोड़ै सवार नै देखर धैलीजगी।"

आ सुणतां ई उणां मांय सूं एक बोली -
"अरे बाईसा!उवै घोड़ै सवार नै देख'र ई धैलीजग्या जणै पछै उण सागै रंगरल़ी कीकर करोला?उणरै सागै तो थांरो हथल़ोवो जुड़ण वाल़ो है!"

"हैं!उण सागै म्हारो हथल़ेवो!तूं आ कांई काली बात करै?अर जे आ बात सही है अर ओ इज अड़कमल है तो सुणलो इण सागै हथल़ोवो जोड़ूं तो म्हारै बाप सागै जोड़ूं।"कोडमदे रै कैतां ई आ बात उणरै माईतां तक पूगी।
कोडमदे रै मा-बाप दोनां ई कह्यो -
"बेटी !तूं आ बात जाणै नीं है कै थारो हुवण वाल़ो वींद कितरो जोरावर अर आंटीलो है।उणरै हाथ रो वार एक'र तो भलां-भलां सूं नीं झलै।पछै तूं ई बात नै  जाणै है कै नीं कै सिहां अर सल़खाणियां सूं वैर कुण मोल लेवै?आ सगाई छोड दां ला तो थारो हाथ झालण नै, ई जमराज सूं डरतो कोई त्यार नीं हुवैला।"
आ सुणतां ई कोडमदे कह्यो-
"अंकनकुंवारी रैय सकूं पण अड़कमल सूं गंठजोड़ नीं जोड़ूं।"

माणकराव मोहिल आपरी बेटी रो नारेल़ दे मिनखां नै वल़ोवल़ी मेल्या पण अड़कमल रै डर सूं किणी कान ई ऊंचो नीं कियो।
सेवट आदमी पूगल रै राव राणकदे भाटी रै बेटे सादै(शार्दूल)नै कोडमदे रै जोग वर मान टीको लेयग्या। पण राणकदेव सफा नटग्यो।उण राठौड़ां सूं भल़ै वैर बधावणो ठीक नीं समझ्यो।
मोहिलां रा आदमी मूंडो पलकार'र पाछा टुरग्या।उवै पूगल़़ सूं कोस दो-तीनेक आगीनै आया हुसी कै पूगल़ रो कुंवर सादो उणांनै आपरी घोड़ी चढ्यो मिल्यो।
असैंधा आदमी देख'र सादै पूछ्यो तो उणां पूरी बात धुरामूल़ सूं मांड'र बताई।
जद सादै नै इण बात रो ठाह लागो तो उणरो रजपूतपणो जागग्यो,मूंछां रा बाल़ ऊभा हुयग्या।भंवारा तणग्या।उण मोहिलां रै आदम्यां नै कह्यो-
 "हालो पाछा पूगल़।टीको म्हारै सारू लाया हो तो नारेल़ हूं झालसूं!
सादै आवतां रावजी नै कह्यो कै-
"हुकम!ठंठेरां री मिनड़ी जे खड़कां सूं डरै तो उणरै पार कीकर पड़ै?जूंवां रै खाधां कोई गाभा थोड़ा ई न्हाखीजै?राजपूत अर मोत रै तो चोल़ी-दामण रो साथ है।जे टीको नीं झाल्यो तो निकल़ंक भाटी कुल़ रै.जिको कल़ंक लागसी उवो जुगां तक नीं धुपैलो।आप तो जाणो कै गिरां अर नरां  रो उतर्योड़ो नीर पाछो नीं चढै--
धन गयां फिर आ मिले,
त्रिया ही मिल जाय।
भोम गई फिर से मिले,
गी पत कबुहन आय।।
आ कैय सादै, मोहिलां री कुंवरी कोडमदे रो नारेल़ झाल लियो पण एक शर्त राखी कै -
"म्हारी कांकड़ में बड़ूं जितै म्हनै राठौड़ां रो चड़ी रो ढोल नीं सुणीजणो चाहीजै तो साथै ई उणांरै रै घोड़ां रै पोड़ां री खेह ई नीं दीसणी चाहीजै।
ऐ दोनूं बातां हुयां म्है उठै सूं एक पाऊंडो ई आगै नीं दे सकूं।क्यूंकै--
झालर बाज्यां भगतजन,
बंब बज्यां रजपूत।
ऐतां बाज्यां ना उठै,
(पछै)आठूं गांठ कपूत।।
मोहिलां वचन दियो अर सावो थिर कियो।
आ बात जद अड़कमल नै ठाह लागी तो उणरै रूं-रूं में लाय लागगी।उण आपरै साथ नै कह्यो- कै -
"मांग तो मर्यां नीं जावै। हूं तो जीवतो हूं।सादै अर मोहिलां अजै म्हारी खाग रो पाणी चाख्यो नीं है।हुवो त्यार।मोहिलवाटी सूं निकल़तां ई सादै नै सुरग रो वटाऊ नीं बणा दियो तो म्हनै असल राजपूत मत मानजो।"
अठीनै सादो जान ले चढ्यो अर उठीनै अड़कमल आपरा जोधार लेय खार खाय चढ्यो।
माणकराव आपरी लाडकंवर रो घणै लाडै -कोडै ब्याव कियो अर आपरै सात बेटां नै हुकम दियो कै-
"बाई नै पूगल़ पूगायर आवो।आपां सादै नै वचन दियो है पछै भलांई स्वारथ हुवै कै कुस्वारथ बात सूं पाछो नीं हटणो।
आगै मोहिल अर लारै आपरी परणेतण कोडमदे सागै सादो।
मोहिलवाटी सूं निकल़तां ई अड़कमल रो मोहिलां सूं सामनो हुयो।ठालाभूलां नै मरण मतै देख एक'र तो राठौड़ काचा पड़्या पण पछै सवाल मूंछ रो हो सो राटक बजाई।बारी -बारी सूं मोहिल आपरी बैन री बात सारू कटता रैया पण पाछा नीं हट्या।जसरासर,साधासर,कुचौर,नापासर,आद जागा मोहिल वीर राठौड़ां सूं मुकाबलो करतां कटता रैया।छठो भाई बीकानेर अर नाल़ रै बिचाल़ै कट्यो तो सातमो मेघराज मोहिल आपरी बात सारूं कोडमदेसर में वीरगत वरग्यो।ऐ सातूं भाई आज ई इण भांयखै में भोमियां रै रूप में लोक री श्रद्धा रा पूरसल पात्र है।
हालांकि उण दिनां ओ कोडमदेसर नीं हो पण आ छेहली लड़ाई इणी जागा हुई। अठै इज भाटी सादै अर अड़कमल री आंख्यां च्यार हुई।उठै आदम्यां सादै नै कह्यो -
"हुकम!आप ठंभो मती।आप पूगल़ दिसा आगै बढो।"
जणै सादै कह्यो कै-
"हमैं कांकड़ म्हारी है!म्हैं अठै सूं न्हाठ'र कठै जाऊंलो?मोत तो एक'र ई  आवै ,रोजीनै नीं-
कंथा पराए गोरमे,
नह भाजिये गंवार।
लांछण लागै दोहुं कुल़ां,
मरणो एकण बार।।
 जोरदार संग्राम हुयो सेवट अड़कमल रै हाथां सादो भाटी ई वीरता बताय'र आपरी आन-बान रै सारू स्वर्गारोहण करग्यो पण धरती माथै नाम अमर करग्यो।
आपरै पति नै वीरता सागै लड़'र वीरगत वरण माथै कोडमदे नै ई अंजस हुयो।उण आपरी तरवार काढ आपरो जीवणो हाथ बाढ्यो अर  उठै ऊभै एक आदमी नै झलावतां कह्यो-
"लो !ओ म्हारो  हाथ पूगल ले जाय म्हारी सासू रै पगै लगावजो अर कैजो कै थांरै बेटे थांरो दूध नीं लजायो तो थांरी बहुआरी थांरो नाम नीं लजायो तो ओ दूजै हाथ रो गैणो है इणसूं म्हारै सुसरैजी नै कैजो कै इण तालर में तिसियां खातर एक तल़ाव खणावजो।"
इतो कैय  उण जुग री रीत मुजब कोडमदे रथी बणाय आपरै पति महावीर सादै रै साथै सुरग पूगी-
आ धर खेती ऊजल़ी,
रजपूतां कुल़ राह।
चढणो धव लारै चिता,
बढणो धारां वाह!!
उठै राव राणकदे कोडमदे री स्मृति में कोडमदेसर तल़ाब खोदायो जिको इण बात रो आज ई साखीधर है कै मरतां-मरतां ई आपरी बात री धणियाणी मनस्विनी कोडमदे किणगत लोककल्याणकारी भावनावां रो सुभग संदेश जगत नै देयगी।
गिरधरदान रतनू दासोड़ी