रविवार, 27 मई 2018

करणाराम भील

29 साल से जैसलमेर के इस शख्स के सिर की हो रही तलाश, हाथ से उठा लेता था ऊंट!
यूं तो राजस्थान के हर इलाके और शहरों में लाखों किस्से कहानियां भरे पड़े हैं, लेकिन यहां जैसलमेर के रेगिस्तान में एक ऐसी कहानी दफन है, जिसे लोग अब भूल चले हैं। इसी खूबसूरत शहर और रेगिस्तान में मौजूद है सोनार किला, जिसे देखने के लिए देश-विदेश से लाखों टूरिस्ट आते हैं।
इसी सोनार किले के आस-पास के रेगिस्तान में मौजूद रेत के टीलों में एक कहानी छिपी हुई है, जिस पर वक्त की गर्त जम चुकी है और उस कहानी का राज़ आज भी एक राज़ ही बना हुआ है। इस कहानी का किरदार 60 साल का करणाराम है, जिसके इर्द-गर्द इस पूरी कहानी का ताना-बना बुना है। करणाराम के नाम दुनिया की दूसरी सबसे लंबी मूंछे रखने का गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड दर्ज है। वही जैसलमेर का मशहूर नड़ वादक था। करणाराम भील 80 के दशक में सोनार किले की शान हुआ करता था।
सोनार किले के पास बंज़र और रेतीली ज़मीन पर करणाराम की कब्र मौजूद है। लेकिन ये क़ब्र किसी आम कब्र की तरह नहीं है। बस कुछ पत्थरों से ढककर करणाराम को उसके बेटों ने इसी जगह दफना दिया था। हिंदू रीति-रिवाज़ के हिसाब से करणाराम का दाह संस्कार होना चाहिए था, लेकिन करणाराम के परिवार ने उसकी मौत के 28 साल गुज़रने के बाद भी आज तक उसका अंतिम संस्कार नहीं किया है। बस यही वो राज़ है जो करणाराम की पूरी कहानी को और उसकी मौत के राज़ को और भी गहरा देता है।
दरअसल करणाराम भील और सोनार किला एक दूसरे से जुड़े हैं। यही सोनार किला 28 साल पहले एक ख़ौफ़नाक, दर्दनाक और एक सनसनीखेज़ बदले का गवाह बना था। 2 जनवरी 1988 को करणाराम भील अपनी ऊंटगाड़ी पर पशुओं के लिए चारा लेने के लिए घर से निकला था। चारा लेने के बाद वो सोनार किले के पास से गुज़र रहा था। तभी अचानक कुछ लोगों ने उस पर हमला कर दिया। चूंकि हमला पीछे से हुआ था, इसलिए करणाराम संभल भी नहीं पाया और मौका देख कर करणाराम के दुश्मनों ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। करणाराम के दुश्मनों ने उसकी हत्या करने के बाद जो किया वो और भी हैरान कर देने वाला है। करणाराम के क़त्ल के बाद उसके क़ातिल उसका कटा सिर अपने साथ ले गए, लेकिन उसके धड़ को उसकी ऊंटगाड़ी पर रखकर उसे घर की तरफ रवाना कर दिया।
सिर कट जाने के बाद करणाराम का बेजान जिस्म ऊंट गाड़ी पर उसके एयरफोर्स कोलोनी वाले घर तक पहुंचा। जब घर के पास ऊंटगाड़ी रुकी तो सभी हैरान रह गए। करणाराम की मौत हो चुकी थी, लिहाज़ा उसके परिवार ने उसके सिर की तलाश शुरू कर दी। जब करणामराम के परिवार ने पता करना शुरू किया तो उन्हें पता चला कि कुछ लोगों ने सोनार किले के पास करणाराम की हत्या कर दी थी। इसके बाद करणाराम के परिवार ने किले की बगल की झाड़ियों में इस उम्मीद के साथ करणाराम के सिर को तलाशना शुरू किया कि सिर मिलने के बाद वो अपने रीति-रिवाज़ों से उसका अंतिम संस्कार कर देंगे, लेकिन आज 29 साल बीतने के बाद भी करणाराम के परिवार को उसके सिर की ही तलाश है, ताकि वो करणाराम का अंतिम संस्कार कर सकें।
करणाराम के बेटे बोदूराम ने बताया कि दुनिया कहती है कि तुम्हारे पिता तो बिना सिर के ही दफन है। पुलिस से कह रहे हैं कि सिर ला दो। करणाराम के परिवार का मानना है कि करणाराम के क़ातिल उसका सिर काट कर सरहद पार ले गए थे, लेकिन 28 साल बीत जाने के बाद भी वो इस आस में करणाराम की क़ब्र के आस-पास मौजूद झाड़ियों में करणाराम के सिर की तलाश करते रहते हैं। करणाराम के एक और बेटे लखूराम ने कहा कि उनकी आत्मा भटकती है। हमें सिर ला दो, पाकिस्तान से दिलवा दो, नहीं तो आत्मा भटकती रहेगी।
सूत्रों के मुताबिक करणाराम की हत्या के बाद इंटिलेंस एजेंसिय़ों ने भी ये रिपोर्ट दी थी कि करणाराम का सिर काटने के बाद क़ातिल उसके सिर को धोरों के रास्ते पाकिस्तान ले गए थे, लेकिन एक ही रात में रेत के टीलों के एक जगह से दूसरी जगह शिफ्ट होने के चलते करणाराम का परिवार इस उम्मीद में धोरों के बीच खाली जगह पर सिर की खोज करता है कि हो सकता है कि क़ातिलों ने करणाराम के सिर को इन्हीं टीलों के बीच कहीं फेंक दिया हो। लेकिन करणाराम को जानने वाले लोगों का कहना है कि करणाराम जैसे ताकतवर इंसान को अकेले मारना आसान काम नहीं था। उसे साज़िश करके मारा गया था।
उसके बारे में ये कहा जाता था कि वो ऊंट को भी उठाने की ताकत रखता था। इतना ही नहीं जो शख्स अपने नड़ वादक के लिए दुनियाभर में मशहूर था, आखिर कोई क्यूं उस शख्स का क़त्ल करेगा। करणाराम पैदाइशी कलाकार नहीं था, बल्कि वो एक डकैत था। मीलों फैले रेगिस्तान में उसके नाम का खौफ था। क़ातिलों ने करणाराम का क़त्ल करने के बाद उसका सिर सिर्फ इसलिए कलम किया था कि वो उससे बदला ले सकें। करणाराम भील की छवि रेगिस्तान मे गब्बर सिंह जैसी थी। उसका चेहरा ऐसा था कि बच्चे डर जाते थे। गले में जहरीले सांप को लपेट लेता था। उस दौरान पाकिस्तान के ब्लूचिस्तान औऱ अफगानिस्तान की महिलाएं बड़े शौक से नड़ वादन सुना करती थीं। डकैत करणाराम अफगानिस्तान की लाली नाम की लड़की को दिल दे बैठा। लाली को नड़ वादन सुनाने और उसे अपना बनाने के लिए के लिए वो नड़ वादक बन गया।
साल 1965 में करणाराम ने जैसलमेर और बाड़मेर के बीच एक छोटे से भू गांव में एक जमीन खरीदी, लेकिन जमीन के मालिकाना हक को लेकर करणाराम और इलियास के दरमियान विवाद शुरू हो गया। एक दिन गुस्से में करणाराम ने इलियास को उसके बेटे के सामने ही गोली मार दी, इलियास की मौत हो गई थी, लेकिन इलियास के बेटे ने करणाराम से बदला लेने की कसम खा ली। जिसके बाद करणाराम को गिरफ्तार कर लिया गया और उसे उम्रक़ैद की सजा सुनाई गई थी। लोगों के मुताबिक जेल में अपनी सज़ा काटने के दौरान करणाराम ने जैसलमेर की जेल को अपने नाखूनों से फाड़ दिया था और वहां से फरार हो गया था। जेल से भागने के कुछ ही दिनों बाद करणाराम को दोबारा पकड़ लिया गया, लेकिन मूंछ और नड़वादन की कला के चलते उसे तब पैरौल मिल जाता था, जब भी किसी वीआईपी के सम्मान में लोकसंगीत का कार्यक्रम होता था। उसी दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह जैसलमेर आए थे।
पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह जब जैसलमेर आए तो करणाराम पैरोल पर बाहर था। उसे नड़वादन के लिए बुलाया गया। कहते हैं कि उसने नड़वादन से जेलसिंह को मंत्रमुग्ध कर दिया था और उसका सजा कम हो गई। पुलिस 28 साल बाद भी ये पता नहीं लगा सकी है कि करणाराम के हत्यारे पाकिस्तान में हैं या हिंदुस्तान में और उसका कटा सिर उन्होंने कहां छिपाया है। अलबत्ता 28 सालों को दौरान इतना ज़रूर हुआ कि पुलिस ने इस केस की फ़ाइल बंद कर दी। यानि करणाराम के कटे सिर का राज़ 28 साल बीत जाने के बाद आज भी एक राज़ ही बना हुआ है। करणाराम राजस्थान में कितना मशहूर है, इस बात का अंदाज़ आप इसी बात से लगा सकते हैं कि करणाराम की मौत के बाद उसकी याद में जैसलमेर में हर साल एक मूंछ प्रतियोगिता आयोजित करवाई जाती है।

जयमल कल्ला पच्चीसी

जयमल कल्ला पच्चीसी
    रणबंका राठौड़
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जयमल जोधो जोरगो, चावो गढ़ चितौड़।
अमर नाम कर आपरौ,रणबंका राठौड़।।1।।

कल्लो भैरव कालियो,हुवै न जिणसूं होड़।
कांधै काको कमधजो, रणबंको राठौड़।।2।।

जुद्ध में कटगी जांघड़ी,करुं मैं किण विद झोड़।
कल्ला सूं जयमल कहै,रणबंको राठौड़।।3।।

बेठो कांधै बापजी,जबरो करस्यां झोड़।
चारभुजा धर चालिया, रणबंका राठौड़।।4।।

काका भतीजा ऐकला, मारया तुर्क मरोड़।
जयमल कल्ला जोरगा,रणबंका राठौड़।।5।।

बैठ भुजा पर भैरवी, करै घनेरा कोड।
खप्पर भरिया कालका,रणबंका राठौड़।।6।।

आय विराजै अम्बिका,ठमकत भाला ठौड़।
बैठ भुजा पै भगवती,रणबंका राठौड़।।7।।

तक तक मारै तुरकड़ा,तड़ तड़ गरदन तोड़।
दड़बड़ रण में दौड़ता, रणबंका राठौड़।।8।।

खड़गां रण में खड़कती, ठमकत ठावी ठौड़।
भुजा विराजी भगवती, रणबंका राठौड़।।9।।

भुजा चार धर भगवती, ठावी बैठी ठौड़।
कल्ला जयमल कमधजा,रणबंका राठौड़।।10।।

डम डम डमरू डमकता, फड़ फड़ घुड़ला पोड़।
कांधे जयमल कमधजो, रणबंका राठौड़।।11।।

खड़ खड़ खांडा खड़कता,दड़बड़ घोड़ा दौड़।
कांधे चढ़ियो कमधजो, रणबंका राठौड़।।12।।

तड़ तड़ पड़ता तुरकड़ा, भड़ भड़ फूटत भोड।
मारै घणाय मुगलिया,रणबंका राठौड़।।13।।

थर थर छूटत धूजणी, फड़ फड़ गोला फोड़।
सर सर सर सरणावतो,रणबंका राठौड़।।14।।

फर फर मूंछां फरकती, जबरो बणियो जोड़।
जयमल कल्ला जोरगा,रणबंका राठौड़।।15।।

भळ भळ भालो भळकतो,तड़कत छाती तोड़।
मुगल घणाई मारिया,रणबंका राठौड़।।16।।

हिण हिण घुड़ला हिणकता,दमकत जाता दौड़।
दळता अरिदल दोवड़ा,रणबंका राठौड़।।17।।

ढम ढम बाजत ढोलड़ा, तुरही ताबड़ तोड़।
कबंध लड़ता ऐकला, रणबंका राठौड़।।18।।

मुगल मारया मोकळा,चढ़ियो रंग चितौड़।
जयमल कल्ला जोरगा,रणबंका राठौड़।।19।।

तोपां तोड़ी ठावकी, कर कर कल्ला कोड।
कांधै जयमल कमधजो,रणबंको राठौड़।।20।।

करियो अचम्भो अकबर,हुवै न इणरी होड़।
चतुर्भुज बणै चोवटा, रणबंका राठौड़।।21।।

चलै कटारी चौगुनी,तड़ तड़ ताबड़तोड़।
धड़ तो लड़ता धाड़वी,रणबंका राठौड़।।22।।

परतख खप्पर पीवती, रणचण्डी रणछोड़।
मुंड माला गल मोहनी,रणबंका राठौड़।।23।।

आन बान अर शान में, हुवै न इणरी होड़।
रणभूमि में लड़ मरिया,रणबंका राठौड़।।24।।

रंग रुड़ा हा राजवी,कहै अजय कर जोड़।
अमर इला पर आपरी,रणबंका राठौड़।।25।।

✍रावला करमावास.........RJ 22......'🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

शुक्रवार, 25 मई 2018

रणसी गांव की भूत बावड़ी का किस्सा

रणसी गांव की भूत बावड़ी का किस्सा
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चाम्पावत ठाकुर सा ने भूत को वश में कर बनवाई थी बावड़ी और महल
जोधपुर से करीब 105 किलोमीटर दूर बोरूंदा थाना क्षेत्र में एक एेतिहासिक गांव है रणसी गांव... यहीं मौजूद है ये भूत बावड़ी। ये बावड़ी कलात्मकता का एक बेजोड़ नमूना है।जिसे खुद भूत ने बनाया था!
जोधपुर दरबार के यहां रणसी गांव के ठाकुर जयसिंह चाम्पावत ठकुराई का काम देखते थे। एक दिन ठाकुर सा गणगौर मेले में जोधपुर के राजा के किसी काम के लिए जा रहे थे। रास्ते में चिडाणी गांव स्थित लत्याळी नाडी में वे अपने घोड़े को पानी पिलाने के लिए रुके। उस समय रात काफी हो चुकी थी। ठाकुर सा का घोड़ा जब पानी पी रहा था, तभी ठाकुर सा को वहां एक झाड़ी के पीछे कुछ हलचल महसूस हुई। गौर से देखने पर ठाकुर सा को वह कोई भूतहा आकृति मालूम हुई। ठाकुर सा के बड़ी निर्भीकता से बोलने पर भूत उनके सामने प्रकट हुआ और बोला कि मैं एक शाप से बंधा हूं और इस नाडी का पानी नहीं पी सकता, आप मुझे पानी पिला दीजिए। पानी पीने के बाद उस भूत ने ठाकुर जयसिंह से कुछ खाने की सामग्री भी मांगी, जिसे लेने के बाद भूत ने ठाकुर सा से कुश्ती लडऩे की इच्छा जाहिर की।
ठाकुर सा ने उसकी इच्छा सहर्ष स्वीकार कर ली। दोनों में कुश्ती हुई और ठाकुर सा जीत गये। जयसिंह ने भूत को अपने वश में कर लिया। भूत त्राहि-त्राहि करने लगा और उसने कहा कि आप मुझे जानें दें, बदले में जो आप कहेंगे, मैं करूंगा। ठाकुर सा  ने अपने रणसी गांव में भूत को लोगों के लिए बावड़ी और अपने लिए सात खंडों (मंजिलों) का महल बनाने के निर्देश दिए। भूत ने इस काम के लिए हामी भर दी, लेकिन उसने एक शर्त रखी कि ये बात किसी को पता ना चले। साथ ही उसने ये भी कहा कि वो ये काम परोक्ष रूप से करेगा, जिसमें ठाकुर सा जो भी निर्माण कराएंगे, रात में भूत उसे 100 गुना अधिक बढ़ा देगा। ये राज यदि खुलेगा, तो ठाकुर सा का काम भी रुक जाएगा और उसके बाद भूत उसे पूरा नहीं कर पाएगा। ये बात विक्रम संवत् 1600 की है, जब रणसी गांव में अनोखा निर्माण कार्य शुरू हुआ। निर्माण करने वाले मजदूर भी हैरान थे कि दिन में वो जो भी निर्माण कार्य करते, अगले दिन वो कई गुना ज्यादा हो जाता था। गांव के लोग भी इस चमत्कार को देखने आने लगे।
बावड़ी और महल बनाने का कार्य प्रगति पर था। एक दिन ठाकुर जयसिंह की पत्नी ने इस अनोखे कार्य के विस्तार के बारे में पूछा। वचनबद्ध ठाकुर ने बताने से मना कर दिया। इससे नाराज ठकुराइन ने पति से बोलचाल बंद कर दी और खाना-पीना त्याग दिया। ठाकुर सा ने निर्माण बंद होने के डर से ठकुराइन को कुछ नहीं बताया, लेकिन दिन-प्रतिदिन ठकुराइन की तबीयत बिगड़ती गई और वो मृत्यु शैय्या पर पहुंच गई। इसे देखकर ठाकुर सा को अपनी जिद छोडऩी पड़ी और उसने ठकुराइन को सब कुछ बता दिया। जैसे ही ये राज खुला महल और बावड़ी का कार्य बंद हो गया। जो महल सात खंडों का बनना था, वो मात्र दो खंडों का बन कर रह गया। बावड़ी करीब-करीब पूरी बन चुकी थी, लेकिन उसकी एक दीवार अधूरी रह गई। राज खुलने के बाद ये दीवार भी नहीं बन पाई। रणसी गांव में भूत की बनाई बावड़ी और महल आज भी उसी अधूरी हालत में मौजूद हैं।

रावगोपालसिंह खरवा

मृत्यु का पूर्वाभास :

मनुष्य को अपनी मृत्यु के पूर्वाभास होने की कई कहानियां आपने भी अपने आस-पास सुनी होगी | मेरा भी ऐसी कई घटनाओं से वास्ता पड़ा है जिसमे मरने वाले ने अपनी मृत्यु के सही सही समय के बारे में अपने परिजनों व उपस्थित लोगों को बता दिया | पर ऐसी घटनाओं को हम यह सोचकर कि मरने वाले के परिजन अपने पारिवारिक सदस्य को महिमामंडित करने में लगे है भरोसा नहीं करते | मैंने राजस्थान में स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति के अग्रदूत रावगोपालसिंह खरवा के बारे हिंदी विकी पर जानकारी जोड़ने के लिए इतिहास की किताबे खंगाल रहा था कि अचानक मेरी नजर उनकी मृत्यु के समय उपस्थित उनके डाक्टर द्वारा उनकी मृत्यु की अद्भुत घटना के बारे में लिखे एक लेख पर पड़ी तो सोचा क्यों न स्वातंत्र्य-समर के इस सेनानी के महाप्रयाण की इस अद्भुत घटना से आपको भी रूबरू करवा दिया जाये जिसे प्रत्यक्षदर्शी उनके डाक्टर अंबालाल शर्मा ने खुद लिखी –
डा.आम्बालाल शर्मा के अनुसार-

राव गोपालसिंहजी श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे | पिछले आठ वर्ष उन्होंने वीतराग साधू की भांति कभी पुष्कर में तो कभी खरवा के बाहर बने एकांत स्थान में रहकर भगवत स्मरण में बिताये | अपनी जवानी के दिनों में वे उग्र राजनीति को मानने वाले थे | देश की स्वतंत्रता हेतु वे बलशाली ब्रिटिश गवर्नमेंट से भीड़ गए थे | देशहित में बहुत कष्ट उठाये एवं खरवा के राज्य का भी उन्हें त्याग करना पड़ा | अब उनकी मृत्यु की पुण्यमयी कथा सुनाता हूँ-
मृत्यु से लगभग दो मास पूर्व उनके शरीर में उदर विकार के लक्षण प्रकट हुए | मैंने एक्सरे द्वारा परीक्षा कराई एवं निश्चय हुआ कि उनकी आँतों में केंसर रोग है | वेदना इतनी भयंकर थी कि मार्फीन के इंजेक्शन से भी कोई आराम नहीं मिलता था |किन्तु उस भीषण वेदना में भी मन को आश्चर्यजनक रूप से एकाग्र करके श्रीकृष्ण के ध्यान में वे नियमपूर्वक बैठते थे | एवं जितने समय वे ध्यान में रहते थे, वेदना की रेखा उनके ललाट पर जरा भी नहीं रहती थी | इस बुढ़ापे में 66 वर्ष की आयु में दो महीने तक कुछ न खाकर भी उनमे तेज और साहस की कमी नहीं हुई थी |

मृत्यु के चार दिन पूर्व रोग के विष के कारण उन्हें हिचकी और वमन शुरू हो गयी थी | पिछले चार दिनों में तो एक चम्मच पानी भी उनके पेट में न जा सका,किन्तु श्रीकृष्ण का ध्यान तब भी नहीं छुटा | मृत्यु के पहले दिन सांयकाल के समय मैंने उनसे निवेदन किया कि यदि आपको कोई वसीयत करनी हो तो शीघ्र करलें | विष के कारण आप रात्री में मूर्छा की अवस्था में पहुँच जायेंगे | वे कहने लगे -” यह असंभव है कि गोपालसिंह चोदू(कायर) की मौत मर जाये | मौत से भी चार हाथ होंगे | आप देखते जाईये भगवान् कृष्ण क्या क्या करते है |” उसी समय उन्होंने अपने पास रहने वाले भजन गायक बिहारी को कहा कि डाक्टर साहब को भीष्म प्रतिज्ञा वाला वह भजन सुनाओ |
“आज जो हरि ही न शस्त्र गहाऊं, तो लाजौ गंगा जननी को, शांतनु सुत न कहाऊं |”
कैसा दृढ आत्मविश्वास और कैसी गजब की निष्ठा थी उनमे |

मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब दुसरे दिन प्रात:काल पांच बजे मैं उठा | मैंने उन्हें ध्यान में बैठे देखा | ध्यान पूरा होने के पर वे कहने लगे -” डाक्टर साहब ! आज हिचकी बंद है | दस्त भी स्वत: एक महीने बाद आज ही हुई है | मैं बहुत हल्का हूँ |”
मैंने एक डाक्टर की तरह कहा -” ईश्वर करे आप अच्छे हो जाएँ |” वे कहने लगे कि – “नहीं अब शरीर नहीं रहेगा | किन्तु भगवान् के ध्यान में विध्न न हो,इसलिए श्रीकृष्ण ने ये बाधाएं दूर करदी है |”
करीब दस बजे मैंने आकर देखा कि उनकी नाड़ी जा रही है मैंने कहा- ” राव साहब ! अब करीब आधा घंटा शेष है |”
राव साहब कहने लगे- ” नहीं अभी तो पांच घंटा समय शेष है,घबराएं नहीं |”
सवा दो बजे मैं पहुंचा,नमस्ते किया | उनके सेक्रेटरी पास बैठे गीता पढ़ रहे थे | मुझसे से कहा -” आप गीता सुनाईये |” जब वे गीता सुन रहे थे तो उनका मस्तिष्क कितना स्वच्छ था,उस समय भी वे कहीं कहीं किसी पद का वे अर्थ पूछ लेते थे | ठीक मृत्यु से पांच मिनट पहले वे आसन पर बैठ गए -गंगाजल पान किया,तुलसी पत्र लिया,गंगाजी की रेती(मिटटी) का ललाट पर लेप किया एवं वृन्दावन से मंगवाई रज सर पर रखी हाथ जोड़कर ध्यान करने लगे | सहसा बोल उठे –
” डाक्टर साहब ! अब आप लोग नहीं दिखाई दे रहे है | श्रीकृष्ण दिख रहे है | ये श्रीकृष्ण खड़े है मैं इनके चरणों में लीन हो रहा हूँ | हरि ॐ तत्सत -हरि ॐ – बस एक सैकिंड “-महाप्रस्थान हो गया | हम सब विस्फरित नेत्रों से देखते रह गए |
धन्य आधुनिक भीष्म ! धन्य मृत्युंजय ! धन्य तुम्हारी इस मौत पर दुनिया की बादशाहत कुरबान है |

डाक्टर साहब का उपरोक्त लेख कल्याण के गीता तत्वांक में छपा था पर मैंने इसे ठाकुर सुरजनसिंह जी शेखावत द्वारा लिखित पुस्तक “राव गोपालसिंह खरवा” के पृष्ठ स.९४,९५ से लिया है | राव साहब के महाप्रयाण के समय राजस्थान के महान इतिहासकार श्री सुरजनसिंह जी शेखावत भी वहां प्रत्यक्ष तौर पर उपस्थित थे | उन्ही के शब्दों में – “उनकी मृत्यु योगिराजों के लिए ईर्ष्या का विषय थी | उनकी मृत्यु क्या थी ? भगवत भक्ति का सचेतन इन्द्रियों और मन बुद्धि के साथ बैकुंठ प्रयाण था |”

साभार : रतन सिंह जी शेखावत

रविवार, 20 मई 2018

हवलदार मेजर पीरूसिंह

टिथवाल री घाटियां, विकट पहाड़ा जंग।
सेखो कियो अद्भुत समर, रंग पीरूती रंग।।
रणबांकुरों की धरती शेखावाटी का झुंझुंनू जिला राजस्थान में ही नहीं अपितु पूरे देश में शरवीरों, बहादुरों के क्षेत्र में अपना विशिष्ठ स्थान रखता है। पूरे देश में सर्वाधिक सैनिक देने वाले इस जिले की मिट्टी के कण-कण में वीरता टपकाती है। देश के खातिर स्वयं को उत्सर्ग कर देने की परम्परा यहां सदियों पुरानी है। मातृभूमि के लिए हंसते-हंसते मिट जाना यहां गर्व की बात है। 1947-48 में पाक समर्थित कबालियों से युद्ध में हवलदार मेजर पीरूसिंह ने देश हित में स्वयं को कुर्बान कर देश की आजादी की रक्षा की।
राजस्थान में झुंझुंनू जिले के बेरी नामक छोटे से गांव में 20 मई 1918 में ठाकुर लालसिंह के घर जन्मे पीरूसिंह चार भाइयों में सबसे छोटे थे तथा राजपूताना राइफल्स की छठी बटालियन की डी कम्पनी में हवलदार मेजर थे। 1947 के भारत-पाक विभाजन के बाद जब कश्मीर पर कबालियों ने हमला कर हमारी भूमि का कुछ हिस्सा दबा लिया तो कश्मीर नरेश ने अपनी रियासत के भारत में विलय की घोषणा कर दी। इस पर भारत सरकर ने अपनी भूमि की रक्षार्थ वहां फौजें भेजीं। इसी सिलसिले में राजपूताना राइफल्स की छठी बटालियन की डी कम्पनी को भी टिथवाला के दक्षिण में तैनात किया गया था। 5 नवम्बर 1947 को भयंकर सर्दी के मौसम में बटालियन हवाई जहाज से वहां पहुंची। श्रीनगर की रक्षा करने के बाद उरी सेक्टर से पाक कबायली हमलावरों को परे खदेड़ने में इस बटालियन ने बड़ा साहसी कार्य किया था।
मई 1948 में छठी राजपूत बटालियन ने उरी और टिथवाल क्षेत्र में झेलम नदी के दक्षिण में पीरखण्डी और लेडीगली जैसी प्रमुख पहाड़ियों पर कब्जा करने में विशेष योगदान दिया। इन सभी कार्यवाहियों के दौरान पीरूसिंह ने अद्भुत नेतृत्त्व और साहस का परिचय दिया। जुलाई 1948 के दूसरे सप्ताह में जब दुश्मन का दबाव टिथवाल क्षेत्र में बढ़ने लगा तो छठी बटालियन को उरी क्षेत्र से टिथवाल क्षेत्र में भेजा गया। टिथवाल क्षेत्र की सुरक्षा का मुख्य केन्द्र दक्षिण में 9 किलोमीटर पर रिछमार गली था जहां की सुरक्षा को निरन्तर खतरा बढ़ता जा रहा था।
अत: टिथवाल पहुंचते ही राजपूताना राइफल्स को दारापाड़ी पहाड़ी की बन्नेवाल दारारिज पर से दुश्मन को हटाने का आदेश दिया गया था। यह स्थान पूर्णत: सुरक्षित था और ऊंची-ऊंची चट्टानों के कारण यहां तक पहुंचना कठिन था। जगह तंग होने से काफी कम संख्या में जवानों को यह कार्य सौंपा गया। 18 जुलाई को छठी राइफल्स ने सुबह हमला किया जिसका नेतृत्त्व हवलदार मेजर पीरूसिंह कर रहे थे। पीरूसिंह की प्लाटून जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई, उस पर दुश्मन की दोनों तरफ से लगातार गोलियां बरस रही थीं। अपनी प्लाटून के आधे से अधिक साथियों के मारे जाने पर भी पीरूसिंह ने हिम्मत नहीं हारी। वे लगातार अपने साथियों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहे एवं स्वयं अपने प्राणों की परवाह न कर आगे बढ़ते रहे तथा अन्त में उस स्थान पर पहुंच गये जहां मशीन गन से गोले बरसाये जा रहे थे।
उन्होंने अपनी स्टेनगन से दुश्मन के सभी सैनिकों को भून दिया जिससे दुश्मन के गोले बरसने बन्द हो गये। जब पीरूसिंह को यह अहसास हुआ कि उनके सभी साथी मारे गये तो वे अकेले ही आगे बढ़ चले। रक्त से लहू-लुहान पीरूसिंह अपने हथगोलों से दुश्मन का सफाया कर रहे थे। इतने में दुश्मन की एक गोली आकर उनके माथे पर लगी और गिरते-गिरते भी उन्होंने दुश्मन की दो खंदकें नष्ट कर दीं। अपनी जान पर खेलकर पीरूसिंह ने जिस अपूर्व वीरता एवं कर्तव्य परायणता का परिचय दिया वह भारतीय सेना के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। देश हित में पीरूसिंह ने अपनी विलक्षण वीरता का प्रदर्शन करते हुये अपने अन्य साथियों के समक्ष अपनी वीरता, दृढ़ता व मजबूती का उदाहरण प्रस्तुत किया। इस कारनामे को विश्व के अब तक के सबसे साहसिक कारनामों में से एक माना जाता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने उस समय उनकी माता श्रीमती तारावती को लिखे पत्र में लिखा था कि देश कम्पनी हवलदार मेजर पीरू सिंह का मातृभूमि की सेवा में किए गए उनके बलिदान के प्रति कृतज्ञ है।
पीरूसिंह को इस वीरता पूर्ण कार्य पर भारत सरकार ने मरणोपरान्त ’’परमवीर चक्र’’ प्रदान कर उनकी बहादुर का सम्मान किया। अविवाहित पीरूसिंह की ओर से यह सम्मान उनकी मां ने राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के हाथों ग्रहण किया। परमवीर चक्र से सम्मानित होने वाले हवलदार मेजर पीरूसिंह राजस्थान के पहले व भारत के दूसरे बहादुर सैनिक थे। पीरूसिंह के जीवन से प्रेरणा लेकर राजस्थान का हर बहादुर फौजी के दिल में हरदम यही तमन्ना रहती है कि मातृभूमि के लिए शहीद हो जायें। राजस्थानी के कवि उदयराज उज्ज्वल ने ठीक ही कहा है:-
टिथवाल री घाटियां, विकट पहाड़ा जंग।
सेखो कियो अद्भुत समर, रंग पीरूती रंग।।

गुरुवार, 17 मई 2018

राष्ट्रवीर दुरगादास

महाराजा जसवंतसिंह जी की शहादत के बाद मारवाड राजघराने
के एक मात्र जीवित चिराग राजकुंवर अजितसिंह को जब
औरंगजेब ने अपने किले मे बन्दी बनाकर मारने की योजना
बनाई. जिसकी भनक लगते ही वायु से भी तेज वेग और बिजली
से भी अधिक फुर्ती से राष्ट्रवीर दुरगादास राठौड मुगलिया
किले मे प्रवेश कर राजकुंवर अजितसिंह को अपनी पीठ पर
बांधकर किले से बाहर लेकर आये. मेवाड, सिरोही और मारवाड
रिसायत के अलग अलग ठिकानो पर शिशु अजितसिंह को
औरंगजेब की कुदृष्टी से छुपाकर युगपुरुष वीरवर दुर्गादास
राठौड ने उनका लालन पालन कर बडा किया. कभी गोगुन्दा की
पहाडियो के बीच तो कभी सिरोही की चुली, राडबर की
पहाडियो मे तो कभी गोईली गांव मे अजित को छुपाकर रखा.
कभी जालोर जिले के जंगलो मे तो कभी बाडमेर के छप्पन की
पहाडियो मे ओट लेकर लगभग 20 वर्षो तक अजितसिंह को
दुनिया की नज़र नही लगने दी.
महाराजा जसवंतसिंह जी को दिये वचन और महाराजा के भरोसे
(आज मै इस पर छाया कर रहा हु एक दिन ये मारवाड पर छाया
करेगा) पर खरा उतरते हुये वीरवर दुर्गादास राठौड ने प्रतिज्ञा
ली थी कि जब तक अजितसिंह को मारवाड का शासक घोषित
नही करवा दुं तब तक ना खुद चैन से बैठुंगा और ना ही
औरंगजेब को चैन की निन्द सोने दुंगा. साथ ही ये भी शपथ ली
कि औरंगजेब की मुस्लिम राष्ट्र की निति को मारवाड मे कभी
कामयाब नही होने दुंगा. जिसके चलते ही मारवाड मे हिन्दु धर्म
को किसी प्रकार की कोई आंच तक नही आयी. औरंगजेब
मारवाड का एक भी धार्मिक मन्दिर नही तोड सका, एक भी
हिन्दु व्यक्ति को मुस्लिम नही बना सका. औरंगजेब के मिशन
इस्लाम को सफल बनाने मे लगे उसके सिपाहियो और गोळो
(गांगाणी का पट्टा प्राप्त करने वाले) को मारवाड के
प्रतिपालक दुर्गादास राठौड ने कभी कामयाम नही होने दिया.
वीर शिरोमणी दुर्गादास राठौड ने मारवाड की जिर्णशिर्ण
राजपुत शक्ति को पुनः एक बार महाशक्ति मे तब्दिल किया.
छोटे छोटे कुनबो मे बिखर चुके राजपुतो को पुनः पंचरंगा ध्वज
के निचे एकजुट करके औरंगजेब को इतने घाव दिये कि
औरंगजेब का पुरा शरीर छलनी हो गया. औरंगजेब हर मोर्चे और
हर चाल मे विफल होता गया. यहाँ तक कि उसका स्वयं का
पुत्र उसके विरोध मे खडा हो गया.
जिस पर कवि ने लिखा
ढबक ढबक ढोल बाजे दे दे ठोर नगारा की!
आसा घर दुर्गो ना होतो सुन्नत होती सारो की!!
अर्थात आज जिन घरो और मन्दिरो मे ढोल और नगारे बज रहे
है यानी कि हिन्दुत्व कायम है वो सिर्फ और सिर्फ दुर्गादास
की वजह से कायम है. अगर आसकरण जी के घर दुर्गादास ने
जन्म नही लिया होता तो आज मारवाड मे चारो ओर सुन्नत
(मुस्लिम ही मुस्लिम) नज़र आती.
देश सपूत वीरवर दुर्गादास राठौड मात्र मारवाड या राजपुताने
तक ही सिमित नही रहे. उन्होने पुरे हिन्दुस्तान के साथ साथ
एशिया और युरोप मे भी अपनी धाक जमाई. काबूल के पठानो
से लेकर अरब के शेखो तक को अपनी तरफ मिलाकर विदेशी
आक्रमण से औरंगजेब को भयभित किया तो मराठा, सिख और
गुरखो से अलग अलग विद्रोह करवा कर औरंगजेब को हमेशा
मारवाड से कोसो दुर रखा. क्षात्र धर्म के नेमी वीरवर
दुर्गादास की कूटनिति का ही परिणाम था कि इन 20 से 25
वर्षो तक औरंगजेब कभी शांति से मारवाड के बारे मे सोच ही
नही सका. उपर से वीर दुर्गादास राठौड ने औरंगजेब की नाक
के नीचे से उसके छोटे छोटे पोता पोती को अगवा करके छप्पन
की पहाडियो मे लाकर छुपा दिया. जो औरंगजेब के लिये छुल्लु
भर पानी मे डुब मरने जैसी बात हो गयी. दुर्गादास ने औरंगजेब
के पोता पोती को कई सालो तक अपनी कैद मे रखा. और इस
दरम्यान उनको उर्दु तालिम देने के लिये दुर्गादास ने बकायदा
एक मौलवी को तैनात किया. बाडमेर के गढ सिवाणा के पास
छप्पन की पहाडियो मे एक छोटा सा किलानुमा पोल बनायी.
उसके पास ही उनको रखा गया था. जहाँ स्वयं वीर दुर्गादास
राठौड प्रतिदिन उनकी देखभाल के लिये आते थे. लेकिन इतने
सालो मे एक बार भी इस वीर ने औरंगजेब के पोता पोती को
अपना चेहरा नही दिखाया, पर्दे की ओट मे ही उनसे बातचित
की जाती थी. जिसके कारण दोनो बच्चे दुर्गादास जी को केवल
आवाज़ से ही पहचानते थे शक्ल से नही. जब वीरवर दुर्गादास
राठौड और औरंगजेब के बीच समझौता हुआ, उसने मारवाड के
शासक के रूप मे अजितसिंह को स्वीकार किया तब उसके पोता
पोती को ससम्मान वापस पहुंचाया गया. बच्चो से मिलकर जब
औरंगजेब ने पुछा कि बच्चो आप कहाँ थे? और आपको वहाँ
किसने रखा था? तो बच्चो ने कहा जगह का तो पता नही पर
हम वहाँ दुर्गा बाबा के पास थे. तब औरंगजेब ने कहा आपका
दुर्गाबाबा कौन है हमे भी बताओ तब बच्चो ने कहा हम उनको
शक्ल से तो नही जानते पर अगर वो बोलेंगे तो हम बता देंगे, हम
उन्हे सिर्फ आवाज़ ही पहचानते है. उनको कभी देखा नही.
कहते है वीर दुर्गादास राठौड ने औरंगजेब के सामने जब उन
बच्चो को पुकारा तो दोनो बच्चो ने बाबा को बाहों मे भर लिया
और लिपट गये. कहते है जब औरंगजेब ने ये दृश्य देखा तो
उसके मन से कट्टरता की भावना ही खत्म हो गयी.
ताम्रपत्र को रखा घुटने पर, औरंगजेब को किया जलिल
महाराजा जसवंतसिंह की शहादत के बाद मारवाड को अपने
एकाधिकार मे लेने की सोच के साथ ही औरंगजेब ने एलान
करवा दिया था कि कोई भी व्यक्ति जसवंतसिंह या उसके
परिजनो का नाम लेगा उसकी जुबान काट दी जायेगी. लोग
अजितसिंह और जसवंतसिंह का नाम तक अपनी जुबान पर नही
लाते थे. जब वीरवर दुर्गादास राठौड और औरंगजेब के बीच
समझौता हुआ. उसके पोता पोती के बदले मारवाड का राज्य
देने की बान बन गयी तब दुर्गादास राठौड को मारवाड राज्य का
ताम्रपत्र जारी किया गया. उस काल की परम्पराओ के अनुसार
बादशाह द्वारा बक्शिस किया गया ताम्रपत्र अपने हाथो मे
लेकर सिर पर रखने का रिवाज़ था. एक कहावत कही जाती है
कि “राज का आदेश सिरोधार्य”! लेकिन वीर दुर्गादास ने वो
ताम्रपत्र सिर पर नही रखकर अपने दाहिने पैर के घुटने पर
रखा. जिसे देखते ही औरंगजेब तुरंत समझ गया कि स्व.
महाराजा जसवंतसिंह का पुत्र राजकुंवर अजितसिंह अभी तक
जिन्दा है. और औरंगजेब के मुंह से अनायास ही निकल गया
“क्या जसवंतसिंह की औलाद जिन्दा है?” तब महान
रणनितिकार वीरवर दुर्गादास राठौड ने कहा “मै नही आप कह
रहे है” यानी कि अब जुबान कटवाने की बारी आपकी है. कहा
जाता है कि उस समय औरंगजेब भरी सभा मे बहुत लज्जित
हुआ और फिर इस लज्जा से बचने के लिये आटे से औरंगजेब
का एक पुतला बनाकर उसकी जीभ काटकर औपचारिकता पुरी
की गयी.

“शत शत नमन वीरवर दुर्गादास राठौड”