गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

राव कुंपा


राव कुंपा

जल ड्योढी थल माय,कुंपा री कीरत करां।
शीप समंदा मांय, मोती बख्सया मेहराजवत ।।



वीर योद्धा, दानी राव कुंपाजी ने अपने 41 वर्ष के जीवन काल में 52 युद्ध लड़े व सभी में विजयी रहे।
राव कुंपा जी राठौड़ का नाम  दक्ष सेनापति, वीरता, साहस, पराक्रम और देश भक्ति के लिए मारवाड़ के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा है। राव कुंपा जी, जोधपुर के राजा राव जोधा के भाई, राव अखैराज के पौत्र व मेहराज जी के पुत्र थे।
इनका जन्म वि.सं. 1559 शुक्ल द्वादशी मार्गशीर्ष माह को राडावास धनेरी (सोजत) गांव में मेहराज जी की रानी करमेति भटियाणी जी के गर्भ से हुआ था।
राव जेता जी, मेहराज जी के भाई, पंचायण जी के पुत्र थे। अपने पिता के निधन के समय राव कुंपा जी की आयु एक वर्ष थी,बड़े होने पर ये जोधपुर के शासक मालदेव की सेवा में चले गए। मालदेव अपने समय के राजस्थान के शक्तिशाली शासक थे, राव कुंपा व जैता जी जैसे वीर उसके सेनापति थे, राव कुंपाजी व राव जैता जी ने राव मालदेव की ओर से कई युद्धों में भाग लेकर विजय प्राप्त की और अंत में वि.सं. 1600 चेत्र कृष्ण पंचमी को गिरी सुमेल युद्ध में दिल्ली के बादशाह शेरशाह सूरी की सेना के साथ लड़ते हुए वीर गति प्राप्त की। इस युद्ध में बादशाह की अस्सी हजार सेना के सामने राव कुंपा व जेता दस हजार सैनिकों के साथ थे। भयंकर युद्ध में बादशाह की सेना के चालीस हजार सैनिक काट डालकर राव कुंपा व जेता ने अपने दस हजार सैनिकों के साथ वीरगति प्राप्त की। मातृभूमि की रक्षार्थ युद्ध में अपने प्राण न्यौछावर करने वाले मरते नहीं वे तो इतिहास में अमर हो जाते है-

अमर लोक बसियों अडर,रण चढ़ कुंपो राव।
सोले सो बद पक्ष में चेत पंचमी चाव।

उपरोक्त युद्ध में चालीस हजार सैनिक खोने के बाद शेरशाह सूरी आगे जोधपुर पर आक्रमण की हिम्मत नहीं कर सका व विचलित होकर शेरशाह ने कहा :-

बोल्यो सूरी बैन यूँ , गिरी घाट घमसाण।
मुठ्ठी खातर बाजरी,खो देतो हिंदवाण।।

अर्थात -“मुट्ठी भर बाजरे कि खातिर मैं दिल्ली कि सल्तनत खो बैठता।” और इसके बाद शेरशाह सूरी ने कभी राजपूताना में आक्रमण करने कि गलती नहीं की।
राव कुंपा जी राठौड़ के वंशज वर्तमान समय में कुंपावत राठौड़ कहलाते हैं।

ऊँठाळे का युद्ध – 1600 ई



“ऊँठाळे का युद्ध” – 1600 ई. :- उदयपुर जिले की वल्लभनगर तहसील में स्थित इस दुर्ग पर मुगलों का कब्जा था। ये युद्ध 1605 ई. में जहांगीर के समय होना बताया जाता है, लेकिन कविराज श्यामलदास समेत कुछ विद्वानों द्वारा ये युद्ध 1600 ई. में अकबर के समय होना बताया जाता है। 1600 ई. वाली तारीख ज्यादा सही लगती है।मुगल सिपहसालार कायम खां ऊँठाळे दुर्ग में तैनात था। इस युद्ध को मेवाड़ के इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। इसका सबसे अहम कारण था चुण्डावतों व शक्तावतों में हरावल में रहने की होड़। मेवाड़ की हरावल अर्थात सेना की अग्रिम पंक्ति में रहकर लड़ने का अधिकार चुण्डावतों को प्राप्त था।
जब महाराणा अमरसिंह ने ऊँठाळे दुर्ग पर आक्रमण करने की बात दरबार में की, तब वहां मौजूद महाराज शक्तिसिंह के पुत्र बल्लू सिंह शक्तावत ने महाराणा से अर्ज किया कि “हुज़ूर, मेवाड़ की हरावल में रहने का अधिकार केवल चुंडावतों को ही क्यों है, क्या हम शक्तावत किसी मामले में पीछे हैं ?”

तभी दरबार में मौजूद रावत कृष्णदास चुंडावत के पुत्र रावत जैतसिंह चुंडावत ने कहा कि “मेवाड़ की हरावल में रहकर लड़ने का अधिकार चुंडावतों के पास पीढ़ियों से है।” महाराणा अमरसिंह के सामने दुविधा खड़ी हो गई, क्योंकि वे दोनों को ही नाराज नहीं कर सकते थे। सोच विचारकर महाराणा अमरसिंह ने इस समस्या का एक हल निकाला।

महाराणा अमरसिंह ने कहा कि “आप दोनों शक्तावतों और चुंडावतों की एक-एक सैनिक टुकड़ी का नेतृत्व करो और अलग-अलग रास्तों से ऊँठाळे दुर्ग में जाने का प्रयास करो। दोनों में से जो भी ऊँठाळे दुर्ग में सबसे पहले प्रवेश करेगा, वही हरावल में रहने का अधिकारी होगा और उसके बाद इस बात को लेकर कोई तर्क वितर्क ना किया जावे।”

महाराणा अमरसिंह ने खुद इस महायुद्ध का नेतृत्व किया। महाराणा के नेतृत्व में 10,000 मेवाड़ी वीरों ने ऊँठाळे गांव में प्रवेश किया, जहां मुगलों से लड़ाई हुई। इस लड़ाई में सैंकड़ों मुगल मारे गए। मुगल सेना ने भागकर ऊँठाळे दुर्ग में प्रवेश किया। मेवाड़ी सेना ने ऊँठाळे दुर्ग को घेर लिया।

दुर्ग में प्रवेश करने के लिए बल्लू जी शक्तावत दुर्ग के द्वार के सामने आए और अपने हाथी को आदेश दिया कि द्वार को टक्कर मारे पर लोहे की कीलें होने से हाथी ने द्वार को टक्कर नहीं मारी। ऊपर से हाथी मकुना अर्थात बिना दांत वाला था।

बल्लू जी द्वार की कीलों को पकड़ कर खड़े हो गए और महावत से कहा कि हाथी को मेरे शरीर पर हूल दे। हाथी ने बल्लू जी के टक्कर मारी, जिससे बल्लू जी नुकीली कीलों से टकराकर वीरगति को प्राप्त हुए। द्वार टूट गया और द्वार के साथ-साथ बल्लू जी भी किले के भीतर गिर पड़े।

बल्लू जी के इस बलिदान के बावजूद वे हरावल का अधिकार नहीं ले सके। रावत जैतसिंह चुण्डावत सीढियों के सहारे ऊपर चढ रहे थे। ऊपर पहुंचते ही मुगलों की बन्दूक से निकली एक गोली रावत जैतसिंह की छाती में लगी, जिससे वे सीढ़ी से गिरने लगे, तभी उन्होंने अपने साथियों से कहा कि मेरा सिर काटकर दुर्ग के अन्दर फेंक दो। साथियों ने ठीक वैसा ही किया।

इस तरह किले में पहले प्रवेश करने के कारण हरावल का नेतृत्व चुण्डावतों के अधिकार में ही रहा। “हाथी से टक्कर दिलवाकर, दुर्ग द्वार तुड़वाया था। सिर अपना फेंका कटवाकर, हरावल में नाम जुड़वाया था।।”

मुगल सेनानायक कायम खां शतरंज का बड़ा शौकीन था। इस भीषण युद्ध के बीच वह दुर्ग में शतरंज खेल रहा था, कि तभी स्वयं महाराणा अमरसिंह वहां पहुंचे। कायम खां ने महाराणा से विनती की कि मुझे ये खेल पूरा करने दिया जावे। खेल पूरा होते ही महाराणा अमरसिंह ने अपने हाथों से कायम खां को मारा और मेवाड़ी वीरों ने ऊँठाळे दुर्ग पर ऐतिहासिक विजय प्राप्त की। इस युद्ध में कई मुगल मारे गए व महाराणा अमरसिंह ने बचे खुचे मुगलों को कैद किया।

ऊँठाळे के युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने वाले योद्धा :- सलूम्बर के रावत जैतसिंह चुंडावत, बल्लू जी शक्तावत, वाधा जी, वाधा जी के पुत्र अमरा जी, खान देवड़ा, आहीर दामोदर, बैरीशाल, रावत तेजसिंह खंगारोत आदि योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए। सलूम्बर रावत जैतसिंह चुण्डावत के बलिदान के बाद मानसिंह चुण्डावत सलूम्बर के अगले रावत बने।

महाराज शक्तिसिंह जी के पुत्र, जो ऊँठाळे के युद्ध में काम आए :- कुंवर सुल्तान शक्‍तावत, कुंवर मंडन शक्‍तावत, कुंवर जगन्नाथ शक्‍तावत, महाराज भाण शक्‍तावत। महाराज भाण शक्‍तावत को महाराणा प्रताप ने भीण्डर की जागीर प्रदान की थी।

मोहनदास राठौड़ :- ये नीमडी के चन्दन सिंह राठौड़ के पुत्र थे। ऊँठाळे के युद्ध में मोहनदास राठौड़ के वीरगति पाने के बाद उनके पुत्र अमरसिंह राठौड़ को महाराणा अमरसिंह ने भैंसरोडगढ़ की जागीर दी।

ऊँठाळे के युद्ध में जीवित रहने वाले प्रमुख योद्धा :- देवगढ़ के रावत दूदा चुण्डावत, रामसिंह, महाराणा अमरसिंह के मामा राव शुभकर्ण पंवार। इस लड़ाई में महाराज शक्तिसिंह जी के पुत्र रावत अचलदास शक्तावत, कुँवर मालदेव शक्तावत, कुँवर दलपत शक्तावत व कुँवर भूपत शक्तावत ने बड़ी बहादुरी दिखाई। विशेष रूप से महाराज शक्तिसिंह के पुत्र कुँवर दलपत व कुँवर भूपत की बहादुरी के चर्चे तो मुगल दरबार तक होने लगे।

रविवार, 12 दिसंबर 2021

शेखावतों की विभिन्न शाखाए

शेखावतों की विभिन्न शाखाए
राजा रायसल दरबारी खंडेला के 12 पुत्रों को जागीर में अलग अलग ठिकाने मिले| और यही से शेखावतों की विभिन्न शाखाओं का जन्म हुआ|इन्ही के पुत्रों में से एक ठाकुर भोजराज जी को उदयपुरवाटी जागीर के रूप में मिली| इन्ही के वंशज 'भोजराज जी के शेखावत" कहलाते है|

भोजराज जी के पश्चात उनके पुत्र टोडरमल उदयपुर (शेखावाटी)के स्वामी बने,टोडरमल जी दानशीलता के लिए इतिहास विख्यात है,टोडरमलजी के पुत्रों में से एक झुंझार सिंह थे,झुंझार सिंह सबसे वीर प्रतापी निडर कुशल योद्धा थे, तत्कालीन समय "केड" गाँव पर नवाब का शासन था,नवाब की बढती ताकत से टोडरमल जी चिंतित हुए|

परन्तु वो काफी वृद्ध हो चुके थे|इसलिए केड पर अधिकार नहीं कर पाए|कहते है टोडरमल जी मृत्यु शय्या पर थे लेकिन मन्न में एक बैचेनी उन्हें हर समय खटकती थी,इसके चलते उनके पैर सीधे नहीं हो रहे थे| वीर पुत्र झुंझार सिंह ने अपने पिता से इसका कारण पुछा|

टोडरमल जी ने कहा "बेटा पैर सीधे कैसे करू,इनके केड अड़ रही है"(अर्थात केड पर अधिकार किये बिना मुझे शांति नहीं मिलेगी)| पिता की अंतिम इच्छा सुनकर वीर क्षत्रिये पुत्र भला चुप कैसे बैठ सकता था? 

झुंझार सिंह अपने नाम के अनुरूप वीर योद्धा,पित्रभक्त थे !उन्होंने तुरंत केड पर आक्रमण कर दिया| इस युद्ध में उन्होंने केड को बुरी तरह तहस नहस कर दिया| जलते हुए केड की लपटों के उठते धुएं को देखकर टोडरमल जी को परमशांति का अनुभव हुआ,और उन्होंने स्वर्गलोक का रुख किया|

इन्ही झुंझार सिंह ने अपनी प्रिय ठकुरानी गौड़जी के नाम पर "गुढ़ा गौड़जी का" बसाया| तत्कालीन समय में इस क्षेत्र में चोरों का आतंक था, झुंझार सिंह ने चोरों के आतंक से इस क्षेत्र को मुक्त कराया| किसी कवि का ये दोहा आज भी उस वीर पुरुष की यशोगाथा को बखूबी बयां कर रहा है-

डूंगर बांको है गुडहो,रन बांको झुंझार, 
एक अली के कारण, मारया पञ्च हजार!!

शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

बीकानेर राज्य के ताजीमी ठिकाने

बीकानेर राज्य के ताजीमी ठिकाने
ताजीमी ठिकाने
.        (संकलन- घनश्यामसिंह राजवी चंगोई)

बीकानेर रियासत में चार प्रकार के ताजीमी ठिकाने थे, जिनको उनकी श्रेणी के अनुसार सम्मान प्राप्त था …

 १. सिरायत
इन्हें आम बोलचाल की भाषा में (बड़े होने के कारण) अधराजिया भी कहते थे। इन ठिकानों के ठिकानेदार जब महाराजा से भेंट करने जाते तब महाराजा खड़े होकर उनका स्वागत करते व भेंट के उपरांत खड़े होकर विदा करते थे। इनको दोलड़ी ताजीम के अलावा हाथ के कुरब का सम्मान प्राप्त था। इनके पदनाम अलग-2 थे। इनकी संख्या मात्र 4 थी …

1. रावतसर (रावतोत कांधल)- बीकानेर राज्य के संस्थापक राव बीकाजी के चाचा रावत कांधलजी के पुत्र राजसिंह को सन 1500 में यह ठिकाना दिया गया था। इनकी पदवी रावत थी।

2. बीदासर (बीदावत केशोदासोत)- राव बीकाजी के छोटे भाई बीदाजी के प्रपोत्र केशवदास को यह ठिकाना दिया गया था। इनकी पदवी राजा थी।

3.  महाजन (रतनसिंहोत बीका)- बीकानेर के 3रे राजा राव लूणकरण जी के पुत्र रतनसिंह को सन 1505 में यह ठिकाना दिया गया था। इनकी पदवी राजा थी।

4. भूकरका (श्रृंगोत बीका)- बीकानेर के 3रे राजा राव जैतसी के पुत्र श्रृंग के पुत्र भगवानदास को यह ठिकाना दिया गया था। इनकी पदवी राव थी।

२.दोलड़ी ताजीम वाले ठिकाने
इन ठिकानों के ठिकानेदार भी जब महाराजा से भेंट करने जाते तब महाराजा खड़े होकर उनका स्वागत करते व भेंट के उपरांत खड़े होकर विदा करते थे। राज्य में इनकी संख्या 29 थी  …

1.पूगल (केलणोत भाटी : उपाधी राव)- जैसलमेर के रावळ केहर के पुत्र केलण द्वारा बाकानेर की स्थापना से पूर्व स्थापित।

2. चूरू (बणीरोत कांधल)- रावत कांधलजी के पुत्र बाघसिंह के पुत्र  बणीर को तत्कालीन महाराजा द्वारा यह ठिकाना दिया गया था।

3. सांखू (किशनसिंहोत बीका) – बीकानेर के राजा सूरसिंह के छोटे भाई किशनसिंह को सन 1618 में यह ठिकाना दिया गया था।

4. नीमा (किशनसिंहोत बीका) – उपरोक्त किशनसिंह के पुुत्र जगतसिंह को 1630 में यह ठिकाना दिया गया था।

5. सिद्धमुख (श्रृंगोत बीका)- भूकरका के राव श्रृंग के प्रपोत्र  किशनसिंह को 1616 में यह ठिकाना दिया गया था।

6. ददरेवा (पृथ्वीराजोत बीका)- बीकानेर के 6ठे राजा रायसिंह के भाई पृथ्वीराजजी के पुत्र सुंदरसिंह को 1617 में यह ठिकाना दिया गया।

7. बांय (श्रृंगोत बीका)- भूकरका के राव श्रृंग के छठवें वंंशज दौलतसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।

8. राजपुरा (भीमराजोत बीका)- बीकानेर के 4थे राजा राव जैतसी के पुत्र भीमराज के 8वेंं वंशज हिम्मतसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।

9. जसाणा (श्रृंगोत बीका)- भूकरका के राव श्रृंग के पांचवें वंशज अमरसिंह को 1694 में यह ठिकाना दिया गया था।

10. कुंभाणा (रत्नसिंहोत बीका)- बीकानेर के राजा लूणकरण जी के पुत्र रत्नसिंह के वंंशज केेशरीसिंह को यह ठिकाना मिला था।

11. हरदेसर (अमरसिंहोत बीका)- बीकानेर के 5वेे राजा कल्याण मल के पुत्र अमरसिंह को सन 1594 में यह ठिकाना मिला था।

12. मगरासर (नारणोत बीका)- बीकानेर के राजा लूणकरण जी के पोत्र नारण के पुत्र भोपतसिंह को यह ठिकाना मिला था।

13. भादरा (सांईदासोत कांधल)- रावत कांधलजी के पुत्र अरड़कमल पहले साहवा के मालिक हुए। बाद में अरड़कमल के पोत्र सांईदास के वंशज लालसिंह को भादरा का ठिकाना मिला।

14. जैतपुर (रावतोत कांधल)- रावत कांधलजी के पुत्र राजसिंह के वंशज चद्रसेन को सन 1601 में यह ठिकाना मिला था।

15. झारिया (बणीरोत कांधल)- ठाकुर कुशलसिंह चूरू के पुत्र धीरतसिंह को 1764 में यह ठिकाना मिला था।

16. गोपालपुरा (बीदावत तेजसिंहोत)-  बीदाजी के प्रपौत्र द्रोणपुर के राव गोपालदास के पुत्र जसवंतसिंह ने यह ठिकाना कायम किया था।

17. चाड़वास (बीदावत तेजसिंहोत)-  बीदाजी के प्रपौत्र द्रोणपुर के राव गोपालदास ने पुत्र तेजसिंह को यह ठिकाना दिया था।

18. सांडवा (बीदावत मनोहरदासोत)- उपरोक्त द्रोणपुर के राव गोपालदास के पोत्र मनोहरदास के पुत्र रूपसिंह को यह ठिकाना मिला था।

19. मलसीसर (बीदावत तेजसिंहोत)- चाड़वास ठिकाने के  रामचंद्र के वंशज बख्तसिंह को यह ठिकाना मिला था।

20. लोहा (बीदावत खंगारोत)- राव बीदाजी के प्रपौत्र खंगारसिंह के पुत्र लाखणसिंह को 1632 में यह ठिकाना मिला था।

21. खुड़ी (बीदावत खंगारोत)- राव बीदाजी के प्रपौत्र खंगारसिंह के पुत्र किशनसिंह को 1638 में यह ठिकाना मिला था।

22. कनवारी (बीदावत खंगारोत)- राव बीदाजी के प्रपौत्र खंगारसिंह के वंशज बख्तसिंह लोहा के पुत्र दीपसिंह को यह ठिकाना मिला था।

23. सोभासर (बीदावत मदनावत)- राव बीदाजी के पुुत्र संसारचन्द्र के वंशज मदनसिंह के पौत्र उदयभान को यह ठिकाना मिला था।

24. हरासर (बीदावत पृथ्वीराजोत)- द्रोणपुर के राव गोपालदास के पोत्र पृथ्वीराज के पुत्र थानसिंह को यह ठिकाना मिला था।

25. नोखा (करमसोत जोधा)- राव जोधाजी के पुत्र करमसी के वंशज खींवसर ठाकुर जोरावरसिंह के पुत्र चांदसिंह को 1760 में यह ठिकाना मिला था।

26. सारूंडा (मंडलावत जोधा)- राव जोधाजी के भाई मंडलाजी के पुत्र द्वारा सन 1494 में स्थापित।

27. गड़ियाला (रावलोत भाटी- देरावरिया)- देरावर के रावल रघुनाथसिंह के पुत्र जालिमसिंह को 1784 में यह ठिकाना मिला था।

28. जेतसीसर (पंवार)- श्रीनगर (अजमेर) के ठाकुर जेतसिंह पंवार को यह ठिकाना मिला था।

29. राणासर (पंवार)- महाराजा सूरतसिंह के साले के पुत्र भोमसिंह को 1831 में यह ठिकाना मिला था।

 

३.इकोलड़ी ताजीम वाले ठिकाने
इन ठिकानों के ठिकानेदार जब महाराजा से भेंट करने जाते तब महाराजा खड़े होकर उनका स्वागत करते लेकिन भेंट के उपरांत खड़े नहीं होते बल्कि अपने स्थान पर बैठे-2 ही विदा करते थे। राज्य में इनकी संख्या  27 थी  …

चंगोई (तारासिंहोत राजवी)- बीकानेर के 14वें राजा गजसिंह जी द्वारा अपने बड़े भाई तारासिंहजी के पुत्र भवानीसिंह को सन 1787 में चंगोई की जागीर दी गई।
फोगां (अमरसिंहोत राजवी)- बीकानेर के 14वें राजा गजसिंह जी द्वारा अपने बड़े भाई अमरसिंहजी के पुत्र सरदारसिंह को सन 1759 में फोगां की जागीर दी गई।
मेहरी (गूदड़सिंहोत राजवी)- बीकानेर के 14वें राजा गजसिंह जी द्वारा अपने बड़े भाई गूदड़सिंहजी के पुत्र जगतसिंह को मेहरी की जागीर दी गई।
अजीतपुरा (श्रृंगोत बीका)- बीकानेर के 4थे राजा जैतसीजी के पुत्र श्रृंग के पौत्र मनोहरदास को सन 1594 में अजीतपुरा की जागीर दी गई।
बिरकाली (श्रृंगोत बीका)- उपरोक्त श्रृंग के वंशज कुशलसिंह भूकरका के पुत्र सुल्तानसिंह को सन 1750 में बिरकाली की जागीर दी गई।
शिमला (श्रृंगोत बीका)- उपरोक्त श्रृंग के 9वें वंशज मदनसिंह भूकरका के पुत्र ज्ञानसिंह को सन 1790 में शिमला की जागीर दी गई।
थिराणा (श्रृंगोत बीका)- उपरोक्त श्रृंग के 10वें वंशज जैतसिंह भूकरका के पुत्र ज्हठीसिंह को सन 1854 में थिराणा की जागीर दी गई।
रसलाणा (श्रृंगोत बीका)- उपरोक्त श्रृंग के 9वें वंशज रणजीतसिंह बांय के पुत्र हुकमसिंह को सन 1861 में रसलाणा की जागीर दी गई।
घड़सीसर (घड़सियोत बीका)- राव बीकाजी ने अपने पुत्र घडीसीजी को सन 1505 में घड़सीसर की जागीर दी।
गारबदेसर (घड़सियोत बीका)- उपरोक्त घडीसीजी के पुत्र देवीसिंह को गारबदेसर की जागीर दी गई।
मेघाणा (बाघावत बीका)- राव जैतसी के पुत्र बाघसिंह के पुत्र रघुनाथसिंह को 1580 में मेघाणा की जागीर दी गई।
पड़िहारा (मनोहरदासोत बीदावत)- राव गोपालदास के वंशज रघुनाथसिंह को यह जागीर दी गई।
चरला (केशोदासोत बीदावत)- राव गोपालदास के पुत्र केशोदास के सातवें वंशज जालिमसिंह बीदासर को यह जागीर दी गई।
काणुता (तेजसिंहोत बीदावत)- राव गोपालदास के पुत्र तेजसिंह के वंशज बख्तसिंह को 1808 में यहां की जागीर दी गई।
घंटियाल (तेजसिंहोत बीदावत)- राव गोपालदास के पुत्र तेजसिंह के वंशज संग्रामसिंह चाड़वास के पुत्र बख्तावरसिंह को यहां की जागीर दी गई।
सात्यू (बणीरोत कांधल)- राव बीकाजी ने रावत कांधल के पुत्र बाघसिंह (बणीरजी के पिता) को सन 1489 में (बीकानेर की स्थपना के एक वर्ष बाद ही) सात्यू का ठिकानेदार बनाया था। उनके वंशज विजयसिंह को महाराजा गजसिंह द्वारा सन 1755 में ताजीम का सम्मान दिया गया।
ल्होसणा (बणीरोत कांधल)- चूरू के ठाकुर बलभद्रसिंह के वंशज अर्जुनसिंह को 1790 में यहां की जागीर दी गई।
देपालसर (बणीरोत कांधल)- चूरू के ठाकुर भीमसिंह के पुत्र छत्रसाल को 1733 में यहां की जागीर दी गई।
बिसरासर (रावतोत कांधल)- रावतसर के रावत चतरसिंह के पुत्र आनंदसिंह को सन 1759 में यहां की जागीर दी गई।
सूँई (रावतोत कांधल)- रावतसर के रावत नाहरसिंह के पुत्र जैतसिंह को सन 1864 में यहां की जागीर दी गई।
बगसेऊ (करमसोत जोधा)- रोड़ा के ठाकुर अनाड़सिंह के पुत्र शार्दूलसिंह को 1902 में यहां की जागीर दी गई।
सत्तासर (हरावत भाटी)- पूगल के राव अभयसिंह के पुत्र अनूपसिंह को 1810 में यहां की जागीर दी गई।
जयमलसर (खिंया भाटी)- पूगल के राव शेखा के पुत्र खींवा के छठे वंशज चांदसिंह को 1618 में यहां की जागीर दी गई।
कूदसू (भाटी)- महाराजा गंगासिंह के साले बीकमकोर (जोधपुर) के ठाकुर प्रतापसिंह को 1909 में यहां की जागीर दी गई।
लखासर (तंवर)- बीकानेर के 9वें राजा कर्णसिंह द्वारा अपने ससुर (ग्वालियर के तंवर राजा मानसिंह के वंशज) केशोदास को 1713 में यहां की जागीर दी गई।
सांवतसर (तंवर)- महाराजा गंगासिंहजी ने अपने ससुर सुल्तानसिंह (उपरोक्त्त केशोदास के वंशज) को 1899 में यहां की जागीर दी गई। जोधासर (चंद्रावत सिसोदिया)- महाराजा गंगासिंह जी के नाना बख्तावरसिंह को 1852 में यहां की जागीर दी गई।
जोधासर (चंद्रावत सिसोदिया)- महाराजा गंगासिंह जी के नाना बख्तावरसिंह को 1852 में यहां की जागीर दी गई।
 

४.सादी ताजीम वाले ठिकाने
इन ठिकानों के ठिकानेदार जब महाराजा से भेंट करने जाते तब महाराजा अपने स्थान पर बैठे-2 ही उनका स्वागत करते तथा भेंट के उपरांत भी खड़े नहीं होते बल्कि अपने स्थान पर बैठे-2 ही विदा करते थे। राज्य में इनकी संख्या  60 थी  …

आसपालसर (राजवी अमरसिंहोत)- बीकानेर के 14वें राजा गजसिंह जी द्वारा अपने बड़े भाई अमरसिंहजी के पुत्र दल थंभनसिंह को सन 1786 में आसपालसर की जागीर दी गई।
रावतसर कुंजला (किशनसिंहोत बीका)- सांखू के ठाकुर किशनसिंह के वंशज भूरसिंह को सन 1933
कानासर (श्रृंगोत बीका)- भूकरका के राव श्रृंग के वंशज पेमसिंह बांय के पुत्र सालिमसिंह को 1808 में यह ठिकाना दिया गया था।
रणसिसर (श्रृंगोत बीका)- कुशलसिंह भूकरका के पोत्र शेरसिंह को 1813 में यह ठिकाना दिया गया था।
जबरासर (श्रृंगोत बीका)- भूकरका के राव श्रृंग के वंशज लालसिंह जसाणा के पुत्र शिवदानसिंह को 1862 में यह ठिकाना दिया गया था।
तेहनदेसर (नारणोत बीका)- लूणकरण के पोत्र नारण के पांचवें वंशज आइदानसिंह को 1678 में यह ठिकाना दिया गया था।
कातर (नारणोत बीका)- लूणकरण के पोत्र नारण के पांचवें वंशज गोरखदानसिंह को 1668 में यह ठिकाना दिया गया था।
मेणसर (नारणोत बीका)- लूणकरण के पोत्र नारण के पुत्र बलभद्रसिंह को 1678 में यह ठिकाना दिया गया था। 
बीनादेसर (मनोहरदासोत बीदावत)- सांडवा के ठाकुर दानसिंह के वंशज दूल्हसिंह को 1879 में यह ठिकाना दिया गया था। 
कक्कू (मनोहरदासोत बीदावत)- सांडवा के ठाकुर भोमसिंह के पुत्र जवानीसिंह को 1808 में यह ठिकाना दिया गया था।
पातलीसर (मनोहरदासोत बीदावत)- सांडवा के ठाकुर दानसिंह के प्रपोत्र रत्नसिंह को 1848 में यह ठिकाना दिया गया था।
सारोठिया (पृथ्वीराजोत बीदावत)- महाराजा सरदारसिंह ने हरासर के ठाकुर देवीसिंह के छोटे पुत्र हरीसिंह के वंशजों को यह ठिकाना दिया गया था।
हामूसर (खंगारोत बीदावत)- लोहा के ठाकुर बख्तसिंह के वंशज शिवनाथ सिंह को 1902 में यह ठिकाना दिया गया था।
जोगलिया (तेजसिंहोत बीदावत)- चाड़वास के ठाकुर बहादुरसिंह के पुत्र गूदड़सिंह को 1836 में यह ठिकाना दिया गया था।
बड़ाबर (तेजसिंहोत बीदावत)- मलसीसर के ठाकुर बख्तसिंह के पोत्र अगरसिंह को 1829 में यह ठिकाना दिया गया था।
मालासर (तेजसिंहोत बीदावत)- महाराजा गंगासिंहजी द्वारा अपने ADC गोपसिंह को 1902 में यह ठिकाना दिया गया था।
नोसरिया (मानसिंहोत बीदावत)- चाड़वास के ठाकुर संग्रामसिंह के पुत्र पन्नेसिंह को 1861 में यह ठिकाना दिया गया था।
गौरीसर (मानसिंहोत बीदावत)- महाराजा सरदारसिंह द्वारा उपरोक्त पन्नेसिंह के वंशजों को यह ठिकाना दिया गया था।
दूधवा मीठा (बणीरोत कांधल)- ठाकुर बलभद्रसिंह चूरू के वंशज भोजराज को 1733 में यह ठिकाना दिया गया था।
पिरथिसर (बणीरोत कांधल)- झारिया के ठाकुर धीरतसिंह के वंशज बींजराजसिंह को 1877 में यह ठिकाना दिया गया था।
पिथरासर (सांईदासोत कांधल)- महाराजा गंगासिंहजी द्वारा अपने खास ओहदेदार ठाकुर किशोरसिंह को 1910 मे यह ठिकाना दिया गया था।
मेहलिया (रावतोत कांधल)- रावत नाहरसिंह रावतसर के पुत्र शिवदानसिंह को 1864 में यह ठिकाना दिया गया था।
कल्लासर (रावतोत कांधल)- महाराजा गजसिंह द्वारा रावत कांधल के प्रपोत्र जसवंतसिंह के वंशज भोपालसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।
धांधूसर (रावतोत कांधल)- रावत लखधीरसिंह रावतसर के पुत्र जोरावरसिंह को यह ठिकाना दिया गया था। 
रायसर (करमसोत जोधा)- करमसिंह के सातवें वंशज सामंतसिंह को 1835 में यह ठिकाना दिया गया था।
सुरनाणा (करमसोत जोधा)- महाराजा गंगासिंहजी द्वारा अपने खास ओहदेदार भूरसिंह को 1912 में यह ठिकाना दिया गया था।
देसलसर (करमसोत जोधा)- महाराजा गंगासिंहजी द्वारा अपने खास ओहदेदार मोतीसिंह को 1921 में यह ठिकाना दिया गया था।
भादला (रूपावत राठौड़)- राव बीकाजी के चाचा रूपाजी के पुत्र भोजराज को राव जेतसीजी द्वारा सन 1534 में यह ठिकाना दिया गया था।
सिंजगुरु (रूपावत राठौड़)- राव बीकाजी के चाचा रूपाजी के वंशज लक्ष्मणसिंह को 1827 में यह ठिकाना दिया गया था।
परावा (रत्नोत राठौड़)- जोधपुर के राव सूजा के वंशज रतनसिंह के वंशज सुखसिंह को 1784 में यह ठिकाना दिया गया था।
खारी (मेड़तिया राठौड़)- मेड़ता के राव दूदाजी के पौत्र जयमल के वंशज चांदसिंह को 1877 में यह ठिकाना दिया गया था।
रोजड़ी (केलणोत भाटी)- पूगल के राव अमरसिंह के वंशज गुमानसिंह को 1881 में यह ठिकाना दिया गया था।
केलां (केलणोत भाटी)- पूगल के राव शेखा के पुत्र हरा के वंशज केशरीसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।
खियेरां (केलणोत भाटी)- पूगल के राव शेखा के वंशजों को यह ठिकाना दिया गया था।
बीठनोक (खिंया धनराजोत भाटी)- पूगल के राव शेखा के पौत्र धनराज के वंशजों को यह ठिकाना दिया गया था।
खिंदासर (खिंया धनराजोत भाटी)- पूगल के राव शेखा के पौत्र धनराज के वंशज ठाकुर बलवंतसिंह को महाराजा गंगासिंहजी द्वारा 1910 में यह ठिकाना दिया गया था।
जांगलू (खिंया धनराजोत भाटी)- पूगल के राव शेखा के पौत्र धनराज के वंशज ठाकुर हुकमसिंह को महाराजा सरदारसिंहजी द्वारा 1871 में यह ठिकाना दिया गया था।
खारबारा (किशनावत भाटी)- पूगल के राव शेखा के पौत्र किशनदास को सन 1506 में यह ठिकाना दिया गया था।
राणेर (किशनावत भाटी)- पूगल के राव शेखा के पौत्र किशनदास के पुत्र रामसिंह को राव जेतसीजी ने सन 1531 में यह ठिकाना दिया गया था।
हाडलां बडी पांती (रावलोत भाटी- देरावरिया)- देरावल के रावल रघुनाथसिंह के पुत्र गाड़ियाला के रावल जालिमसिंह के पुत्र बाघसिंह को 1814 में यह ठिकाना दिया गया था।
हाडलां छोटी पांती (रावलोत भाटी- देरावरिया)- देरावल के रावल रघुनाथसिंह के पुत्र गाड़ियाला के रावल जालिमसिंह के पुत्र सुरजमालसिंह को 1814 में यह ठिकाना दिया गया था।
टोकलां (रावलोत भाटी- देरावरिया)- देरावल के रावल रघुनाथसिंह के पुत्र गाड़ियाला के रावल जालिमसिंह के पुत्र भोमसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।
छनेरी (रावलोत भाटी- देरावरिया)- उपरोक्त भोमसिंह के पुत्र भभूतसिंह को 1875 में यह ठिकाना दिया गया था।
सिंदू (रावलोत भाटी)- महाराजा सूरतसिंहजी द्वारा ठाकुर हरीसिंह को 1797 में यह ठिकाना दिया गया था।
परेवड़ा (रावलोत भाटी)- महाराजा सूरतसिंहजी द्वारा ठाकुर जसवंतसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।
नांदड़ा (रावलोत भाटी)- ठाकुर लखेसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।
झझू (रावलोत भाटी)- महाराजा गंगासिंहजी द्वारा ठाकुर प्रभुसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।
भीमसरिया (रावलोत भाटी)- महाराजा डूंगरसिंहजी द्वारा 1882 में यह ठिकाना दिया गया था।
राजासर (पंवार)- जेतसीसर के ठाकुर जेतसिंह के पौत्र कान्हसिंह को 1836 में यह ठिकाना दिया गया था।
सोनपालसर (पंवार)- जेतसीसर के ठाकुर जेतसिंह के पौत्र शिवदानसिंह को 1837 में यह ठिकाना दिया गया था।
नाहरसरा (पंवार)- जेतसीसर के ठाकुर जेतसिंह के वंशज सरदारसिंह को 1794 में यह ठिकाना दिया गया था।
लूणासर (पंवार)- उपरोक्त सरदारसिंह नाहरसरा के वंशज शिवसिंह को 1878 में यह ठिकाना दिया गया था।
रामपुरा (पंवार)- महाराजा गंगासिंहजी द्वारा अपने ADC आसूसिंह को 1929 में यह ठिकाना दिया गया था। 
भालेरी (कच्छवाहा राजावत- कुम्भावत)- महाराजा गजसिंह ने शिवजीसिंह के पुत्र मदनसिंह को 1751 में यह ठिकाना दिया गया था।
नैयांसर (कच्छवाहा राजावत- कुम्भावत)- भालेरी के ठाकुर गुलाबसिंह के पुत्र हुकमसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।
गजरूपदेसर (कच्छवाहा राजावत)- महाराजा सूरतसिंह द्वारा ठाकुर सुरजनसिंह को 1809 में यह ठिकाना दिया गया था।
दुलरासर (शेखावत रावजीका)- महाराजा डूंगरसिंह जी द्वारा कच्छवाहा नाथूसिंह को 1876 में यह ठिकाना दिया गया था।
आसलसर (शेखावत गिरधरजीका)- महाराजा सूरतसिंह जी द्वारा 1794 में यह ठिकाना दिया गया था।
पुंदलसर (शेखावत गिरधरजीका)- महाराजा गजसिंह जी द्वारा कच्छवाहा सामंतसिंह को 1778 में यह ठिकाना दिया गया था।
इंद्रपुरा (शेखावत गिरधरजीका)- महाराजा रतनसिंह द्वारा यह ठिकाना दिया गया था।
दाऊदसर (तंवर)- महाराजा गंगासिंहजी द्वारा अपने ADC पृथ्वीसिंह को 1901 में यह ठिकाना दिया गया था।
ऊँचाएडा (तंवर)- महाराजा सरदारसिंह द्वारा देवीसिंह को 1861 में यह ठिकाना दिया गया था।
गजसुखदेसर (सिसोदिया राणावत)- महाराजा सूरतसिंह द्वारा मेवाड़ के बनेड़ा ठिकाने के वंशज आनंदसिंह को 1810 में यह ठिकाना दिया गया था।
पाण्डुसर (सिसोदिया राणावत)- महाराजा सरदारसिंह द्वारा उपरोक्त गजसुखदेसर के वंशज को 1863 में यह ठिकाना दिया गया था।
समंदसर (पड़िहार)- महाराजा गंगासिंहजी द्वारा अपने खास ओहदेदार ठाकुर बख्तावरसिंह को 1902 मे यह ठिकाना दिया गया था। ये बीकाजी के मामा ‘बेला पड़िहार’ वंशज हैं।
धीरासर (हाड़ा चौहान)- महाराजा द्वारा ठाकुर नाथूसिंह चौहान को यह ठिकाना दिया गया था। 
 

राजवी
बीकानेर महाराजा के निकटवर्ती भाईबंद राजवी कहलाते थे व अन्य ठिकानेदारों को भी ताजीम का सम्मान प्राप्त होता था। रियासतकाल में पांव में सोने का कड़ा या अन्य गहना पहनने का अधिकार सिर्फ ताजीमी सरदारों को ही होता था, जबकि सभी राजवीयों को यह सम्मान प्राप्त था। बीकानेर के 14वें शासक महाराज गजसिंह व उनके तीनों भाईयों अमरसिंह, गूदड़सिंह, व तारासिंह के वंशज राजवी कहलाते हैं। हालांकि इनमें भी अलग-2 श्रेणियां हैं।

ड्योढी वाले राजवी

1. अनूपगढ़ (पूर्व में छतरगढ़)- बीकानेर के 14वें महाराजा गजसिंह के पुत्र छत्रसिंह के पुत्र दलेलसिंह को 1800 में छतरगढ़ ठिकाना दिया गया व 1914 में उनके वंशज को अनूपगढ़ दिया गया। महाराजा गंगासिंह जी के पिता लालसिंह छतरगढ़ के मालिक थे। बाद में गंगासिंह जी के पुत्र बिजेसिंह जी अनूपगढ़ के मालिक हुए। इनकी उपाधि महाराजा ……… जी बहादुर ऑफ अनूपगढ़ थी।

2. खारड़ा– उपरोक्त दलेलसिंह के पुत्र मदनसिंह के पुत्र खेतसिंह को 1848 में यह ठिकाना दिया गया। इनकी उपाधि महाराजा ……… जी बहादुर थी।

3. रिड़ी– उपरोक्त दलेलसिंह के पुत्र खंगसिंह के पोत्र जगमालसिंह को यह ठिकाना दिया गया। इनकी उपाधि महाराजा …….. जी साहिब थी।

हवेली वाले राजवी ..
बणीसर
नाभासर
आलसर
साईंसर
सलुंडिया
कुरजड़ी
बिलनियासर
धरणोक
ये सभी महाराजा गजसिंह के वंशज थे। इनकी उपाधि ‘राजवी श्री ………. हवेली वाला’ थी।

अन्य राजवी

इनके अलावा महाराज गजसिंह के तीनों भाईयों अमरसिंह, गूदड़सिंह व तारासिंह के वंशज के क्रमशः  फोगां, मेहरी व चंगोई ताजीमी ठिकाने थे। इनकी उपाधि भी राजवी थी।

सोमवार, 22 नवंबर 2021

ऐडो़ हो मजबूत

 महेंद्र सिंह राठौड़ जाखली मधु हाल जयपुर कृत

(मायड़ भाषा राजस्थानी में)

(1)
कट  बढ़  कर  ही  झूजतो,  ऐडो़  हो  मजबूत
पाछे   कोनी   देख   तो,  रण   खेतां   रजपूत

(2)
जद  कद  आई  आफताँ,  बणियौ  नाही   बूत
खड़काँ   सूं   ऐ  बाढ़ताँ,  रण   खेतां   रजपूत

(3)
बेरी    सेना    राँभती,   बाँके    पड़ता     जूत 
क्षत्रियता   ऐ   राखता,  रण    खेतां    रजपूत

(4)
आन    बान   ने   राखियाँ,  रज पूताँ रा  पूत
दोरी   राखी   आबरू,    रण    खेतां   रजपूत

(5)
शमशीर  जबर   चालती,  निकाल   देता  भूत
साफ   करा   हा  सूंपड़ो,  रण   खेतां  रजपूत

(6)
सिर कट कर गिर जावतो,कमधज लडे़  सपूत
लड़  लड़  कर  ही जीतता, रण  खेतां  रजपूत

(7)
राज   पाठ   ने  राखणो,  ही  खांडा  री   धार
क्षत्रिय  तो  मजबूत  हो, जणा  पड़ी   ही  पार

(8)
मरूधरा   रा    राजवी,   उतारता    हा    भार
दुसमण   ऊबो   कांपतो,  बाढ़ह    देता   मार

(9)
एक   नजर   सूं   देखतो,   सेना   लेता    कूंत
खड़गा   जद  खड़गावता, रण  खेतां   रजपूत

(10)
जावो   योद्धा  साहिबा, अरि  ने  काटो   आज
आन  बान  ओ  शान की, राखो  जावो   लाज

(11)
मरूधरा  री   आबरू,  सिर   पर   लागे   ताज
ऊंची   राखो  साहिबा,  मां   धरती  की   लाज

(12)
पेली सब  ने  काट  ज्यों,कर  कर  जोरां  गाज
एक  एक  ने  बाढ़ ज्यों, मोटो  कर  ज्यों काज

(13)
तिलक  है  रंग  लाल सूं, म्हानै  थां   पर   नाज
केसरिया  पग  सोवणी, सिर  पर  सोणो   ताज

शनिवार, 25 सितंबर 2021

राई रा भाव राते बीत ग्या


राई रा भाव राते बीत ग्या

ये बात है सन 1305 ई.की...  आज आधी रात तक मुँह मांग्या दाम है सा...
घुड़सवार नगाड़े पीटते हुए #जालोर के बाजार की गलियों में घूम रहे थे, लोग अचंभित थे लेकिन राई के मुँह मांगे दाम मिल रहे थे, इसलिए किसी ने इस बात पर गौर करना उचित नही समझा कि आखिर एका एक राई के मुँह मांगे दाम मिल क्यों रहे हैं ।

शाम होते होते लगभग शहर के हर घर में पड़ी राई घुड़सवारों ने खरीद ली थी । 

अगली सुबह सूरज की पहली किरण के साथ ही दुर्ग से अग्नि-ज्वाला की लपटें उठती देख लोगों को अंदेशा हो गया था कि आज का दिन जालोर के इतिहास के पन्नों में जरूर सुनहरे अक्षरों में लिखा जाने वाला है या जालोर की प्रजा के लिए काला दिवस साबित होने वाला है ।

प्रातः दासी ने थाली में गेंहू पीसने से पहले साफ करने के लिए थाली में लिए ही थे कि अचानक थाली में पड़े गेँहू में हलचल हुई। फर्श पर पड़ी गेंहू से भरी थाली में कम्पन्न होने लगी, दासी को किसी भारी अनिष्ट की शंका हुई, दासी दौड़ती हुई राजा कान्हड़देव जी के पास गई और थाली में कम्पन्न वाली बात बताई । 

कान्हड़देव जी को अहसास हो गया कि हो न हो किसी भेदी ने दुर्ग की दीवार के कमजोर हिस्से की जानकारी दुश्मन को दे दी हैं, ओर दुश्मन किले में प्रवेश कर चुका है ।

क्योंकि दुर्ग का निर्माण करते समय दीवार का एक कोना शेष रह गया था, तभी संदेश मिल गया था कि अलाउद्दीन की सेना दिल्ली से जालोर पर कब्जा करने कुच कर चुकी है अतः आनन फानन में उस शेष बचे हिस्से को मिट्टी और गोबर से लीप कर बना दिया था, यह जानकारी मात्र गिने चुने विश्वासपात्र लोगों को ही थी । 

आभ फटे,धर उलटे, #कटे बगत रा कोर
शीश कटे धड़ तड़फड़े, #तब छुटे जालोर 

यह लड़ाई थी स्वाभिमान की, यह लड़ाई थी क्षत्रित्व की, अल्लाउद्दीन की बेटी फिरोजा विरमदेव जी से विवाह करना चाहती थी, लेकिन विरमदेव एक तुर्कणी से विवाह करना नही चाहते थे, इसी कारण अल्लाउद्दीन ने जालौर पर सेना भेजी थी, वैसे इसके पहले भी अल्लाउद्दीन जालौर पर दो बार आक्रमण कर चुका था, लेकिन दोनों ही बार कान्हड़देव जी से उसे पराजित होना पड़ा था ।

मामो लाजे भाटिया #कुऴ लाजे चव्हाण
 हुं जद परणु तुरकणी #उल्टो उगे भाण..!

अलाउद्दीन की सेना कई महीनों से जालोर दुर्ग को घेर कर बैठी रही, लेकिन दुर्ग की दीवार को भेदना असंभव था, सेना इसी आस में बैठी थी कि आखिर जब किले में राशन पानी खत्म हो जाएगा तब राजपूत शाका जरूर करेंगे, लेकिन न राशन पानी खत्म हुआ और ना ही सेना किले को भेद सकी आखिर में थक हारकर सेना दिल्ली के लिए कुच करने लगी, तभी विका दहिया नामक व्यक्ति ने जा कर सेनापति को उस दीवार के कच्चे भाग की जानकारी दे दी, ( क्योकि विका दहिया और कान्हड़देव जी मे किसी बात को लेकर मतभेद हो गया था )  विका दहिया को यह तो पता था कि किले की दीवार का एक हिस्सा कच्चा है लेकिन कौनसा यह पता नही था  

उधर वीका दहिया की पत्नी हीरादे को यह बात मालूम पड़ी की उसके पति ने विश्वास घात किया है, विका दहिया के घर जाने पर उनकी पत्नी हीरादे ने कटार से विका दहिया का सिर धड़ से अलग कर दिया था ।

तुर्की सेनापति ने कयास लगाया, क्यों न पूरी दीवार पर पानी छिड़क कर राई डाल दी जाये ताकि सुबह तक जो भाग कच्ची मिट्टी और गोबर से बना होगा वहां #राई अंकुरित हो जाएगी और हमे पता चल जाएगा कि कौनसा हिस्सा कमजोर है । 

उधर कान्हड़देव जी ने दरबार लगाया, क्षत्राणियों को भी संदेश पहुंचाया गया कि आज मर्यादा की बलिवेदी प्राणों की आहुति मांग रही है । 

चेत मानखा दिन आया  #रणभेरी आज बजावाला आया
उठो आज पसवाडो फेरो, #सुता सिंह जगावाला आया..!

रानीमहल में जौहर की तैयारियां शुरू हुई, इधर क्षत्राणियां सोलह श्रृंगार कर सज-धज कर अपनी मर्यादा की बलिवेदी पर अग्निकुंड में स्नान हेतु तैयार थी, उधर रणबांकुरे केसरिया पहन शाके के लिए तैयार खड़े थे । 

दिन चढ़ने तक पूरा दुर्ग जय भवानी के नारों से गूंज रहा था, इधर क्षत्राणियां एक एक कर अग्निस्नान हेतु जौहर कुंड में कूद रही थी उधर रणबांकुरे तुर्को पर टूट पड़े और गाजर मूली की तरह काटने लगे, नरमुंड इस तरह कट कर गिर रहे थे जैसे सब्जियां काटी जा रही हो । 

#जोहर री जागी आग अठै, #रळ मिलग्या राग विराग अठै
#तलवार उगी रण खेतां में, इतिहास मंडयोड़ा रेता में..!

मुट्ठीभर रणबांकुरे हजारों की सेना  के आगे कब तक टिक पाते, रणभूमि में लड़ते लड़ते कान्हड़देव जी और उनके बहुत से साथी वीरगति को प्राप्त हो हुए ।

उसी समय विरमदेव जी का राजतिलक किया गया, विरमदेव जी चामुण्डा माता की आराधना करने गए, ओर बोले, हे माँ रणभूमि में मेरा साथ देना, माँ चामुण्डा ने वचन दिया, जा लड़ में तेरे साथ हूँ, पर एक बात का ध्यान रखना, पीछे मुड़कर मत देखना, माता का आशीर्वाद लेकर कूद पड़े रन भूमि में, विरमदेव ऐसे लड़ रहे थे, जैसे साक्षात चामुण्डा रणभूमि में तांडव कर रही हो, दुश्मनों को गाजर मूली की तरह काटने लगे, काटते काटने सेना का अंत ही नही आ रहा था, तभी विरमदेव ने सोचा कि अभी और कितनी सेना बची है, ऐसा सोचकर पीछे देखा, तभी माँ चामुण्डा बोली तेरा मेरा वचन पूरा हुआ, उसके बाद भी वीरमदेव जी लड़ते रहे, तभी अचानक दुश्मन ने पीठ पीछे से वार कर विरमदेव का सिर धड़ से अलग कर दिया । 

युद्ध मे साथ आई मुगल दासी ने विरमदेव का सिर थाली में लिया और ससम्मान दिल्ली के लिए रवाना हो गई ताकि अलाउद्दीन की पुत्री फिरोजा को दिए वचन को पूरा कर सके, सोनगरा का सिर दासी की गोद मे और धड़ रणभूमि में कोहराम मचा रहा था । 

दिन ढलते ढलते सभी क्षत्रिय रणबांकुरे मातृभूमि के काम आ चुके थे, लेकिन विरमदेव का धड़ अभी भी कोहराम मचा रहा था ।

 तभी किसी ने कहा धड़ को अशुद्ध करो, सेनापति ने सोनगरा के धड़ पर अशुद्ध जल के छींटे डाले और धड़ शांत हो गया।

तुर्को ने दुर्ग तो विजय कर लिया था लेकिन चारों तरफ लाशों और नरमुण्डों के ढेर पड़े थे, दुर्ग की नालियों में पानी की जगह खून बह रहा था, वीरान दुर्ग सोनगरा के बलिदान पर आज भी गर्व से सीना तान खड़ा हैं । 

शाम के सन्नाटे में एक लालची सेठ अपनी #राई बेचने निकला "राई ले ल्यो रे राई"

पास से गुजरते सिपाही को पूछा "भाई आज राई नही खरीदोगे"

सिपाही ने जवाब दिया
                           "राई रा भाव राते ई बीत ग्या भाया"

उधर विरमदेव का सिर लिए दासी दिल्ली स्थित फिरोजा के महल पहुँची और शहजादी के समक्ष थाली में सजा सोनगरा का सिर रखा, फिरोजा ने जैसे ही थाल में सजे सोनगरा के सिर से औछार (थाल ढकने का वस्त्र) हटाया, सोनगरा का स्वाभिमानी सिर उल्टा घूम गया, फिरोजा ने अंतिम निवेदन करते हुए कहा
#तज तुरकाणी चाल #हिन्दुआणि हुई हमें,
#भो-भो रा भरतार, #शीश न धुण सोनगरा !

#जग जाणी रे शूरमा  #मुछा तणी आवत,
#रमणी रमता रम रमी #झुकिया नही चौहान

वीर विरमदेव जी सोनगरा का धड़ जहाँ गिरा था, वहाँ पर उनका मन्दिर बना हुआ है, सोनगरा मोमाजी के नाम से पूजे जाते है, तथा जालौर के हर गाँव मे सोनगरा मोमाजी के मन्दिर बने हुए है, हर घर मे उनकी पूजा की जाती है, दीन दुखियों को ठीक करते है, वाजियो को पुत्र देते है, तथा उनसे मांगी हुई हर मनोकामना पूर्ण करते है ।

जय सोनगरा वीर
जालौर दुर्ग का इतिहास 

शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

पन्नाधाय

माता पन्नाधाय

महाबलिदानी माता पन्नाधाय का जन्म चित्तौड़गढ़ के निकट माताजी की पांडोली नामक गांव में हुआ। इनके पिता का नाम हरचंद सांखला था।* पन्नाधाय का विवाह आमेट के निकट स्थित कमेरी गांव में रहने वाले
 सूरजमल चौहान से हुआ।

1527 ई. में खानवा के युद्ध के बाद 1528 ई. में महाराणा सांगा का स्वर्गवास हो गया। 1531 ई. तक महाराणा सांगा के पुत्र महाराणा रतनसिंह मेवाड़ के शासक रहे। फिर महाराणा विक्रमादित्य मेवाड़ की गद्दी पर बैठे, जो कि एक कमजोर शासक थे।

1534 ई. में जब गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण किया, तब राजमाता कर्णावती ने शासन की बागडोर अपने हाथों में ली। पन्नाधाय इन्हीं राजमाता कर्णावती की सेवा में नियुक्त थीं।

राजमाता कर्णावती ने पन्नाधाय को बुलाया और कहा कि “मेरे दोनों पुत्र विक्रमादित्य और उदयसिंह को अब मैं तुम्हें सौंपती हूँ, इनको इनके ननिहाल बूंदी लेकर जाना और जब चित्तौड़ से शत्रु खदेड़ दिए जावे, तभी इनको वापिस लाना”

राजमाता कर्णावती ने हज़ारों राजपूतानियों के साथ जौहर किया। बहादुरशाह ने चित्तौड़गढ़ जीत लिया। फिर मेवाड़ के सामन्तों के जोर-शोर से फिर से चित्तौड़गढ़ पर मेवाड़ का अधिकार हो गया।

महाराणा सांगा के बड़े भाई उड़न पृथ्वीराज की दासी पूतलदे से उनका एक बेटा हुआ, जिसका नाम बनवीर था। महाराणा सांगा ने बनवीर को बदचलनी के सबब से मेवाड़ से निकाल दिया था। मौका देखकर ये फिर मेवाड़ आया।

1535 ई. में बनवीर ने चित्तौड़ के कई खास सर्दारों को अपनी तरफ मिलाया और तलवार से महाराणा विक्रमादित्य की हत्या कर दी। फिर बनवीर ने कुंवर उदयसिंह को मारने के लिए उनके कक्ष में प्रवेश किया।

पन्नाधाय ने कुंवर उदयसिंह के वस्त्र अपने पुत्र चन्दन को पहनाकर उसको कुंवर उदयसिंह के स्थान पर लिटा दिया। राजगद्दी के नशे में चूर बनवीर कुँवर उदयसिंह को ढूंढते हुए महलों में आया और पन्नाधाय से पूछा कि “उदयसिंह कहाँ है पन्ना, आज मेवाड़ की राजगद्दी और मेरे बीच आने वाले उस आख़िरी कांटे को भी निकाल फेंकने आया हूँ”

पन्नाधाय ने जान बूझकर बनवीर को रोकने का प्रयास किया, ताकि बनवीर को शक ना हो। बनवीर ने पन्नाधाय को हटाया और चन्दन को ही कुंवर उदयसिंह समझकर पन्नाधाय की आँखों के सामने तलवार से चन्दन के दो टुकड़े कर दिये।

अपने पुत्र के दो टुकड़े होते देख भी पन्नाधाय उफ़ तक न कर सकीं, उनका हृदय जैसे थम सा गया। बनवीर खुशी के मारे राजगद्दी की तरफ गया। पन्नाधाय कीरत बारी (वाल्मीकि) के सेवक के ज़रिए बड़े टोकरे में पत्तलों से ढंककर कुंवर उदयसिंह को छुपाकर निकलीं।

बहुत से लोग अज्ञानवश इस समय कुँवर उदयसिंह को एक दुधमुंहा बालक बताते हैं, जबकि वास्तविकता में कुँवर की आयु इस समय 13-14 वर्ष थी।

पन्नाधाय नदी किनारे पहुंची और यहीं अपने पुत्र चंदन का अंतिम संस्कार किया। एक माँ को इस समय आत्मग्लानि में डूबकर पश्चाताप करना चाहिए था, परन्तु प्रश्न मातृभूमि का था। पन्नाधाय यहां नहीं रुकीं, क्योंकि अभी कुँवर उदयसिंह के प्राणों का संकट टला नहीं था।

पुत्र की चिता की राख अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि पन्नाधाय अपने पति सूरजमल के साथ कुंवर उदयसिंह को लेकर देवलिया पहुंची। देवलिया के रावत रायसिंह सिसोदिया ने इनकी बड़ी खातिरदारी की, पर जब पन्नाधाय ने कुंवर उदयसिंह को देवलिया में शरण देने की बात कही, तो रावत रायसिंह ने बनवीर के खौफ से ये काम न किया।

रावत रायसिंह ने पन्नाधाय को एक घोड़ा देकर विदा किया। पन्नाधाय कुंवर उदयसिंह को लेकर डूंगरपुर पहुंची। डूंगरपुर के रावल आसकरण ने भी बनवीर के डर से उन्हें शरण नहीं दी। रावल आसकरण ने उन्हें खर्च व सवारी देकर विदा किया।

आखिरकार पन्नाधाय कुम्भलगढ़ पहुंची, जहाँ उन्हें शरण मिली। कुम्भलगढ़ के किलेदार आशा देवपुरा ने अपनी माँ से इजाजत लेने के बाद कुंवर उदयसिंह को अपने यहाँ रखना स्वीकार किया।

भला एक माँ द्वारा दिया गया ऐसा अद्वितीय बलिदान व्यर्थ कैसे जाता। धीरे-धीरे यह ख़बर फैलती गई कि महाराणा उदयसिंह जीवित हैं, सामन्तों ने महाराणा उदयसिंह का राज्याभिषेक कर दिया। 1540 ई. में महाराणा उदयसिंह ने महाराणा विक्रमादित्य व चन्दन के हत्यारे बनवीर को चित्तौड़गढ़ के युद्ध में परास्त करके उसका अस्तित्व ही नष्ट कर दिया।

महाराणा उदयसिंह ने पन्नाधाय को चित्तौड़गढ़ में बुलवाया, लेकिन पन्नाधाय वहां फिर कभी न आई। महाराणा उदयसिंह जानते थे कि पन्नाधाय के बलिदान के सामने उनके लिए कुछ भी कर पाना सूरज को रोशनी दिखाने के बराबर है, लेकिन फिर भी वे पन्नाधाय के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करना चाहते थे।

इसलिए 1564 ई. में चांदरास गाँव में महाराणा उदयसिंह ने साह आसकर्ण देवपुरा (आशा देवपुरा) को धाय माता पन्नाधाय की सुरक्षा के लिए 451 बीघा भूमि का ताम्रपत्र प्रदान किया। मेवाड़ में इतने बड़े भूभाग के अनुदान का यही एक मात्र लेख है। इस ताम्रपत्र पर “संवत् 1621 आसोज सुदी नवमी” अंकित है।

गुरुवार, 9 सितंबर 2021

विरांगना "किरण देवी"

जब गर्दन में रखी कटारी तो अकबर ने विरांगना "किरण देवी" से मांगी क्षमा..

 राजस्थान रेतीले धोरों और राजपूतो की वीरता, त्याग और बलिदान की पहचान है। राजस्थान की धरती पर ऐसे कई वीर – वीरांगनाओ ने जन्म लिया है जिनकी वीरता की प्रशंसा आज भी कि जाती है, और राजस्थान का इतिहास ऐसी कई घटनाओं का संग्रहण किये हुए है।

 यह वीरांगना और कोई नही बल्कि "वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप जी" के छोटे भाई "शक्ति सिंह" की पुत्री किरणदेवी की है।"किरणदेवी" ने अकबर को प्राणों की भीख मांगने पर विवश कर दिया था। इस घटना का संबध दिल्ली में लगने वाले नौरोज मेले से है, यह मेला अकबर द्वारा आयोजित किया जाता था।

 इस मेले में अकबर स्वयं वेशभूषा बदलकर जाता और सुंदर महिलाओं को देखता और जो उसे पसन्द आ जाती उसको महल में बुलवाता और अपनी हवस को शान्त करता। एक दिन मेले में घूमते - घूमते अकबर की नजर "किरण देवी" पर पड़ी। अकबर "किरण देवी" का सुंदर रूप देख कर मोहित हो गया और किरण देवी को किसी भी हालत में पाना चाहता था। तुरंत ही उसने गुप्तचरो को पता लगाने का आदेश दिया, तो पता चलता है की वो "महाराणा प्रताप" के छोटे भाई "शक्ति सिंह जी" की बेटी है और उसका विवाह बीकानेर के "पृथ्वीराज राठौड़" से हुआ है, जो उनके ही दरबार में सेवक है।

अकबर ने "पृथ्वीराज" को युद्ध के बहाने बाहर भेज दिया और एक सेविका के द्वारा संदेश भिजवाया की बादशाह ने आपको बुलवाया है। "किरण देवी" ने शाही आदेश का मान रखते हुए महल में चले गये। वंहा पहुँचने "किरण देवी" को अकबर के मनसूबो का पता चल जाता है। इस बात को लेकर किरण देवी को क्रोध आ जाता है, और अकबर जीस कालीन पर खड़ा होता है, "किरण देवी" उस कालीन को खींचती है और अकबर को धराशाई कर देती है।

 किरण सिहनी - सी चडी, उर पर खीच कटार।
भीख मांगता प्राणकी, अकबर हाथ पसार।।
"किरण देवी" शस्त्र चलाने में तथा "आत्मरक्षा" करने में निपुण थी। "किरण देवी" अपनी "कटारी" निकाल कर अकबर की गर्दन पर रख कर बोलती है बताये अकबर बादशाह आपकी आखरी इच्छा क्या है। इस बाजी का इतना जल्दी तकता पलट जायेगा अकबर ने सोचा भी नही था।

 अकबर क्षमा याचना करता है और बोलता है की अगर मेरी मृत्यु हो गयी तो देश में बहुत सारी समस्या खड़ी हो जायगी, और वचन देता है की कभी भी नोरोज मेला नही लगाऊंगा। "किरण देवी" अकबर को खरी खोटी सुनाकर छोड़ी देती है तथा चेतावनी देकर वापस अपने महल चली जाती है।

 आप स्वयं सोचिये की एक वीरांगना से "प्राणों की भीख" मांगता अकबर महान कैसे हो सकता है, जब भी हमारे वीर योद्धाओ का मुग़लो से युध्द हुआ तब मुग़लों को धूल चटाई, किंतु युद्ध मे विश्वासघात होने पर ही हमारे "वीर योद्धाओ" की पराजय हुई है, बाकी किसी भी मुग़लो की औकात न थी कि हमारे "वीर योद्धाओ" को पराजय कर सके, इस बात का इतिहास साक्षी है।

 नमन है ऐसे "वीर योद्धा ओर वीरांगनाओं" को जिन्हों ने धर्म की रक्षा के हेतु अपने प्राण न्योछावर किये ओर धर्म बचाये रखा।

मंगलवार, 31 अगस्त 2021

गोगाजी

मारवाड़ के प्रसिद्ध वीर गोपाजी

गोगाजी और महमूद गजनवी के बीच 1024 ईसवी में युद्ध हुआ।  उस समय गजनवी सोमनाथ पर आखिरी आक्रमण के लिए जा रहा था।


जब गोगाजी ने छुड़ाए थे गजनवी के छक्के

गोगाजी और महमूद गजनवी के बीच 1024 ईसवी में युद्ध हुआ। उस समय गजनवी सोमनाथ पर आखिरी आक्रमण के लिए जा रहा था।

हनुमानगढ़. लोकदेवता के रूप में प्रतिष्ठित ददरेवा के चौहानवंशी शासक गोगाजी  प्रजा वत्सल, गोरक्षक और सांपों के देवता के रूप में तो प्रतिष्ठित एवं पूजित  हैं ही। इसके अलावा शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक सोमनाथ की रक्षा के लिए उनका महमूद गजनवी जैसे क्रूर और दुर्दांत आक्रांता की विशाल सेना से मुट्ठी भर परिजनों और सैनिकों के साथ लोहा लेकर वीर गति पाना इतिहास की ऐसी घटना है, जिस पर भविष्य में भी गर्व होगा।

लेकिन हरामी सेकुलर लेखकों ने गोगा वीर को गोगा पीर प्रचारित किया ताकि  गजनी से लोहा लेने की हकीकत दबाई जा सके...गोगा जी को सेकुलर साबित करने के लिये उनके पास किसी पीर की कब्र बना दी....

आज भी मारवाड़ में गोगा नवमी को रक्षा बंधन मनाया जाता है इसका मूलकारण है कि मारवाड़ की बहने अपने भाई को गोगा वीर के समान मानती है कि जिस प्रकार गोगा वीर ने सनातन धर्म व बहन बेटियों की रक्षा के लिये अपना पूरा परिवान   न्योछावर कर दिया, वह प्रेरणा भाई को मिलती रहे....

गुरु गोरखनाथ की कृपा से उत्पन्न गोगाजी के इष्ट देव सोमनाथ ही थे। गोगा बाबा ने सोमनाथ से शिव लिंग लाकर गोगा गढ़ में उसकी प्राण प्रतिष्ठा करवाई थी।

 महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर सत्रह बार आक्रमण किया और वहां से अकूत धन संपदा लूटकर गजनी ले गया।

गोगाजी और महमूद गजनवी के बीच 1024 ईसवी में युद्ध हुआ। उस समय गजनवी सोमनाथ पर आखिरी आक्रमण के लिए जा रहा था।  पूर्व में मरुस्थली के मस्तक पर उसका रास्ता गोगाजी ने ही रोका। उस समय गोगाजी ददरेवा के शासक थे। उम्र थी 78 साल। सोमनाथ पर गजनवी के आखिरी आक्रमण के बारे में जिन इतिहासकारों ने लिखा है, उन्होंने गोगाजी और गजनवी के बीच हुए युद्ध का उल्लेख जरूर किया है। गोगाजी और उनकी सेना के लिए यह युद्ध आत्महत्या करने जैसा था। एक तरफ गजनवी की विशाल सेना तो दूसरी तरफ मुट्ठी भर सैनिक। लेकिन सवाल गोगा बाबा के इष्ट देव के मंदिर को लूटने जा रहे लुटेरे को रोकने का था सो संख्या बल गौण हो गया। वर्तमान में जहां गोगामेड़ी है, वहीं पर भीषण युद्ध हुआ। इसमें गोगा बाबा सहित उनके 82 पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र और दौहित्र तथा ग्यारह सौ सैनिक वीर गति को प्राप्त हुए।

जौहर की ज्वाला
गोगाजी के वीर गति पाने के बाद उनके गढ़ की स्थिति का वर्णन भी इतिहासकारों ने किया है। गढ़ का नाम गोगा गढ़ और घोघा गढ़ बताया गया है। गोगा बाबा के परिवार सहित वीर गति पाने का समाचार गढ़ में पहुंचते ही वहां मौजूद स्त्रियां, युवतियां और किशोरियां जौहर की ज्वाला में समा जाती है। इसी दौरान गजनी की सेना लूटमार के लिए गढ़ में प्रवेश करती है। जौहर की ज्वाला में जीवित मूर्तियों को जलते देख गजनी की सेना भयभीत होकर गढ़ से बाहर भाग जाती है।

गोगादेव को विदाई
 
गजनी के साथ युद्ध में गोगा बाबा वीर गति को प्राप्त होते हैं। गजनी की सेना सोमनाथ पर आक्रमण के लिए मरुस्थली में आगे बढ़ जाती है। गोगा गढ़ में जीवित बचे किसान रणभूमि में आते हैं। चारों तरफ शवों के ढेर पड़े हैं। गिद्ध और गीदड़ शवों को नोच रहे होते हैं। शवों के ढेर में से नंदिदत अपने प्रिय गोगा राणा का शव ढूंढ़ निकालते हैं। उसे पीठ पर लादकर शुद्ध स्थान पर ले जाते हैं और वहीं अंतिम संस्कार कर देते हैं। शेष शवों का अंतिम संस्कार मरुस्थली की रेत डाल कर किया जाता है। कई इतिहासकार गोगाजी का अंतिम संस्कार किसानों की ओर से किए जाने का उल्लेख करते हैं।

मरुस्थली के वीर किसानों ने लिया गजनी के लुटेरे से लोहा

ददरेवा से आए किसानों ने गोगाजी का अंतिम संस्कार गोगामेड़ी में उसी जगह किया जहां समाधि बनी हुई है। 

इस जगह पर मंदिर निर्माण की सही तिथि तो ज्ञात नहीं। लोक मान्यता है कि भादरा के पास थेहड़ों से ईंटें लाकर गोगा मेड़ी में मंदिर निर्माण किया गया था। 
विक्रम संवत् 1911 में बीकानेर रियासत के महाराजा गंगासिंह ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया तथा सभी जातियों के जल कुण्डों को निर्माण करवाने के लिए भूमि आवंटित की।

सोमवार, 30 अगस्त 2021

राणा पूंजा सोलंकी

"राणा पूंजा सोलंकी"  पानरवा (भोमट क्षेत्र)

गंभीर मुद्रा में सोच रहा योद्धा एक महान
मैं लड़ा जिस देश ख़ातिर क्या ये है मेरा हिंदुस्तान..

हिंदवा सूरज महाराणा प्रताप को शत-शत नमन...
महान योद्धा राणा पूंजाजी जी को शत शत नमन... 

समरथ जोध सोलंकी  , समहर राणा संग ।
हल्दीघाट हरावल में  ,  रंग "ज" पूंजा रंग ।।

वीर मही मेवाड़ रा ,  सोलंकी "ज" सुचंग ।
हल्दीघाट हरावल में , सोहै प्रताप संग ।।

आज हम हल्दीघाटी के महान योद्धा के इतिहास के ऊपर सत्य जानकारी जानेंगे जो इतिहासकारों ने दंत कथाओं के आधार पर भिल बनाकर इतिहास बिगाड़ दिया..

राणा पूंजा ( 1572 - 1610 ई . ) महाराणा प्रताप द्वारा मुगल  अकबर के विरूद्ध लड़े गये दीर्घकालीन स्वतंत्रता - संग्राम का अदम्य सेनानी , पानरवा का सोलंकी शासक एवं भोमट का गौरव वीर योद्धा राणा पूंजा जिसने 1576 ई . के इतिहास - प्रसिद्ध हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप का साथ दिया । 

1576 ई . से 1586 ई . तक महाराणा प्रताप द्वारा मेवाड़ के विकट पहाड़ों एवं वनों में मुगल बादशाह अकबर के विरुद्ध लड़ी गई दस वर्षीय लड़ाई में राणा पूंजा के नेतृत्व में सोलंकी व आदिवासी भील सैनिकों ने जो अवर्णनीय एवं अविस्मरणीय सहयोग प्रदान किया , उसके कारण प्रताप द्वारा मुगल सेनाओं को परास्त करना संभव हुआ । मुगल - दासता विरोधी मेवाड़ के स्वतंत्रता - संघर्ष के इतिहास में वीर राणा पूंजा का नाम चिरस्मरणीय रहेगा ।  

*"पानरवा के सोलंकी ओर मुगल साम्राज्य के विरुद्ध मेवाड़ का स्वतंत्र संग्राम"

 ।28 फरवरी , 1572 ई . के दिन महाराणा प्रतापसिंह के राज्यारोहण के समय कुम्भलगढ़ में राणा पूंजा सोलंकी अपने सैनिकों व धनुर्धारी भील,  सैनिकों क साथ मौजूद थे। महाराणा प्रतापसिंह के राज्यारोहण - उत्सव में मेवाड़ के सभी बड़े - छोटे सर्दार , जो चित्तौड़ के जौहर से बचे थे , शामिल हुए । उनके अलावा ग्वालियर का राजा रामशाह ( रामसिंह ) और उसके तीन पुत्र , जोधपुर का राव चन्द्रसेन राठोड़ , प्रताप का मामा पाली का राव मानसिंह सोनगरा अपने भ्राताओं सहित , ईडर का राव नारायणदास राठोड़ और  पठान सर हकीमखा सूर आदि मौजूद थे ।

 इस अवसर पर महाराणा प्रताप और उसके सहयोगियों ने मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा की योजना बनाई और मेवाड़ के पहाड़ों में मुगल सेनाओं से लड़ने की छापामार युद्ध - प्रणाली की रूपरेखा तैयार की । इस रणनीति की मुख्य बातें थीं :
 1.   300 मील की परिधि वाले मेवाड़ के पहाडी प्रदेश के भीतर प्रवेश करने वाले सभी मार्गों की नाकेबंदी करना और वहां पर शत्रु के प्रवेश करते समय पहाड़ों के पीछे से निकल कर उस पर अचानक आक्रमण करके उसको जन - धन को हानि पहुँचाना । पहाड़ों में आने पर शत्रु के साथ इसी प्रकार की छापा मार । लड़ाई करना । 

2 . राज्य के कोषागार और शस्त्रागार की सुरक्षा का प्रबन्ध करना ।

3 . पहाड़ों में आवागमन और संचारव्यवस्था तथा तीव्रगामी सूचना की व्यवस्था करना । 

4 . राजपरिवार , सामतों , अधिकारियों आदि की स्त्रियों एवं बचों की सुरक्षित स्थलों पर रक्षा करना । । स्पष्ट है इन सभी उपरोक्त कार्यों में भीलों की प्रधान भूमिका रही । 
पानरवा राणा पूजा के नेतृत्व में पानरवा । और ओगणा के सोलंकी ठिकानेदारों ने इन सब कार्यवाहियों में बढ़ चढ़कर भाग लिया ।

 भोमट के अन्य राजन ठिकानों मादडी . जवास . जड़ा , मेरपर , पहाड़ा आदि के सारों ने भी अपने भील सनिकों के साथ राणा प्रताप को सहयोगा । प्रदान किया । चंकि इन सब ठिकानों की अधिकांश प्रजा भील थी और सिपाही भी भील थे अतएव इन ठिकानेदार को भीलों के सर्दार अथवा कहीं कहीं भील सर्दार लिखा मिलता है । 

इससे यह भ्रम फैला कि ये भोमिया राजपत । ठिकानेदार भोमिया भील है । राणा पूंजा का भील सैनिकों के साथ हल्दीघाटी की लड़ाई में भाग लेना 1572 ई . से 1575 ई . तक महाराणा प्रताप मुगल बादशाह अकबर के साथ आश्वासन देने और बहाना बनाने " की कूटनीति द्वारा लड़ाई को टालता रहा । इस काल के दौरान उसने पहाड़ों में रक्षात्मक युद्ध की पूरी तैयारी कर ली । आखिरकार 1576 ई . के जून माह में 5000 मुगल सेना मेवाड़ पर चढ़ आई

 उस समय महाराणा प्रताप ने मानसिंह की सेना के साथ पहाड़ों से बाहर निकल कर लड़ने का निश्चय किया । चेतक घोड़े पर सवार महाराणा प्रताप ने अपनी 3000 अश्वारोही और पैदल सेना तथा हाथियों को लेकर 18 जून । 1576 ई . के दिन हल्दीघाटी के बाहर निकलकर खमणोर के मैदान में मुगल सेना पर आक्रमण किया और प्रारम्भ में अधिकांश मुगल सेना को छ : कोस तक भगा दिया । भील सैनिक मैदानी लड़ाई के अभ्यस्त नहीं थे , अतएव राणा पूंजा के भील सैनिक मेवाड़ी सेना के चंदावल भाग में पहाड़ों पर ही रहे । 

राणा पूंजा सोलंकी प्रताप की सेना के चंदावल भाग में नियुक्त था जहां उसके साथ पुरोहित गोपीनाथ , पुरोहित जगन्नाथ , बच्छावत जयमल , महता रत्नचन्द खेतावत , महासानी जगन्नाथ , चारण जैसा और केशव आदि भी सेना के पिछले भाग में थे , जो लड़ाई के मैदान में नहीं उतरे । ' वीरविनोद में राणा पूजा को मेरपुर का राणा पूजा और भीलों का सर्दार लिखा है । जिसका आशय यही है कि राणा पूंजा भील सैनिकों का नेता था । आगे वीरविनोद में उसको पानरवा के भीलों का सिरदार लिखा है । 10 सम्भव है उस समय तक पानरवा के सोलंकी ठिकाने का प्रभाव मेरपुर तक रहा हो 

कतिपय लोग जो इतिहास के ज्ञाता नहीं हैं , वे राणा पूजा को इस आधार पर भील होना बताते हैं कि उसको भीलों का सार लिखा गया है । सोलंकी राजपूत राणा पूंजा को भील बताना सर्वथा अनैलिहासिक एवं अप्रामाणिका

 ' महाराणा प्रताप महान ' में भी वीरविनोद पर आधारित बात लिखी गई है । किन्तु महाराणा प्रताप को । हल्दीघाटी की लड़ाई के बाद पानरवा के सोलंकी राणा पूंजा और प्रधानतः उसके भील सैनिकों का जो अटूट सहयोग मिलता रहा , जिसके कारण प्रताप को मुगल विरोधी संघर्ष में अद्वितीय सफलता मिली तथा बाद में महाराणा अमरसिंह को राणा पूंजा के पुत्र राणा राम का जो सहयोग मिला और महाराणा राजसिंह को पानरवा के तत्कालीन राणा चन्द्रभाण ने अपने भील सैनिकों के साथ औरगजेब की मुगल सेना के विरुद्ध लड़ाई में जो मदद की , उसको देखते राणा पूंजा के । 

लिये लडाई के प्रारंभ में भाग जाने वाली बात स्वीकार कर लेना उचित नहीं होगा । वस्तुतः वह हल्दीघाटी की लड़ाई । समाप्त होने से पूर्व पहाड़ों के भीतरी भाग में चला गया था और मुगल सेना द्वारा घाटी में प्रवेश करने पर उसपर । आक्रमण करने हेतु अपने भील सैनिकों के साथ घात लगाकर जम गया था ।

पानरवा का सोलंकी राजवंश ने प्रताप की सेना का पहाड़ी भाग में पीछा करना उचित नहीं समझा । इसलिए यही सही प्रतीत होता है कि जब प्रताप की सेना युद्ध से लौटने लगी तो उससे पहिले ही राणा पूंजा और उसके भील सैनिक यह सोचकर पहाड़ों के भीतरी भाग में चले गये कि मुगल सेना पीछा करती हुई हल्दीघाटी में प्रवेश करेगी और उस स्थिति में वे मुगल सेना पर उस तंग घाटी में दोनों ओर से आक्रमण करके मुगल सैनिकों को मारेंगे

 बडवा ओंकार की नस्लनामा पोथी में पानरवा के राणा पूजा की गद्दीनशीनी का वर्ष वि . स . 1690 गलत लिखा मिलता है । इस आधार पर आजकल कुछ लेखक यह सिद्ध करने पर तुले हुए हैं कि हल्दीघाटी की । लड़ाई में प्रताप के साथ पानरवा का राणा पूजा सोलंकी मौजूद नहीं था । वह राणा पूजा नाम का अन्य कोई भील व्यक्ति था , जो ' भीलों का राजा ' था । किन्तु ऐसी मान्यता बनाना ऐतिहासिक सत्य को झुठलाना होगा । 

संवतों सम्बन्धी गलतियां बड़वों की वंशावली पोथियों में प्रायः देखने को मिलती है । बड़वों की प्रत्येक पीढ़ी अपने पुरुखों द्वारा लिखी वशावलियों की प्रतिलिपि तैयार करके उसमें नवीन नाम जोड़ती रहती थी । प्रतिलिपि तैयार करते समय कई प्रकार की भूलें हो जाती थीं । बड़वा परिवारों में शिक्षित लोग कम होते गये तो इस प्रकार की भूलें भी बढ़ती गई और कई प्रकार की अलौकिक बातों के वर्णन भी उनमें जुड़ते गये ।

 बड़वा ओंकार की पोथी में यद्यपि पूजा राणा की गद्दीनशीनी का वर्ष गलत दिया गया है किन्तु साथ ही उसमें राणा पूंजा और उसके दादा राणा हरपाल का जो सहयोग महाराणा प्रताप के साथ बताया गया है , उससे उसकी संवत सम्बन्धी गलती स्पष्ट हो जाती है । अन्य सभी दस्तावेजों और ग्रंथों में पानरवा के सोलंकी राणा हरपाल के पौत्र राणा पूंजा का ही हल्दीघाटी लड़ाई में मौजूद होना लिखा गया है । 

- गोगुंदा में मुगल सेना का घेराव महाराणा प्रताप हल्दीघाटी से निकल कर गोगंदा होते हए भोमट इलाके में कोल्यारी पहुंचा , जो क्षेत्र उस समय पानरवा ठिकाने के अन्तर्गत था । वहां घायल सैनिकों की सुश्रुषा का प्रबन्ध किया गया । प्रताप ने राणा पूंजा को आदेश देकर सभी भील सैनिकों को हल्दीघाटी से गोगुंदा के पहाड़ी क्षेत्र में बुला लिया । प्रताप ने गोगूदा पर मुगल सेना के संभावित आक्रमण को देखते हुए उसको पूरी तरह खाली करवा दिया ।

 19 जून को जब मंगल सेना हल्दीघाटी होते हुए गोगुंदा पहुँचा तो राणा पूंजा के नेतृत्व में भील एवं राजपूत सैनिकों ने मुगल सेना को चारों ओर से घेराबन्दी कर दी और गोगूदा को जाने वाले सभी पहाड़ी रास्ते बन्द कर दिये । उन्होंने बजारों के काफिलों को रोक कर मुगल सेना की रसद - आपूर्ति बंद कर दी । गोगुंदा से बाहर निकलने वाले मुगल सैनिक मारे जाने लगे । अकबर के खास सेनापति व बड़े-बड़े धुरंधर आतंकित हो गये कि उनको अपनी रक्षार्थ गोगंदा के चारों ओर रक्षक - दीवार बनवानी पड़ी । 

मुगल सेना की इतनी दुर्दशा हुई कि वे भोज्य पदार्थ के बिना भूखों मरने लगे और उनको घोड़ों का मांस एवं आम खाकर काम चलाना पड़ा । ऐसी विपत्ति में फंसने पर सितम्बर माह में मुगल सेना अपने को बचाती हुई गोगूदा छोड़कर हल्दीघाटी से बाहर भाग निकली थी..

जहा मानसिंह जी से बादशाह  नाराज हो गया  । " मुगल सेना के जाते ही महाराणा प्रताप ने गोगूदा पर वापस अधिकार कर लिया और सुरक्षा हेतु चारों ओर भील टुकड़िया तैनात कर दी । प्रताप की छापामार लड़ाई में सोलंकी राणा पूंजा का सहयोग तीन वर्ष 1576 से 1579 ई . तक महाराणा प्रताप के लिए भीषण विपदा के वर्ष रहे । हल्दीघाटी के तीन माह बाद स्वयं बादशाह मेवाड़ पर चढ़ आया । 

उसके बाद उसने तीन वर्ष तक निरन्तर प्रतिवर्ष अपने सेनापति शाहबाजखा । को बड़ी सेना देकर प्रताप का पीछा करने और मेवाड़ के पहाड़ी भाग को तहस - नहस करने हेतु भेजा । प्रताप की कुशल सैन्ययोजना के कारण ये सभी मुगल आक्रमण असफल रहे । इससे बादशाह अकबर बहुत निराश हुआ । इन तीन वर्षों में प्रताप ने पानरवा एवं भीलों की आबादी वाले भोमट के दक्षिणी पहाड़ों को अपनी सैन्ययोजना का प्रधान ।
 क्षेत्र बनाया और झाड़ोल के निकट स्थित ऊचे आवरपर्वत पर दर्ग बनाकर आवरगढ़ को अपनी राजधानी रखी । वहाँ । पर उस काल की प्राचीरों और भवनों के अवशेष आज भी यत्र - तत्र दष्टिगत होते है । यहां स्त्रिया और बच्चे सरक्षित रहे ।

 राणा पूंजा के नेतृत्व में भीलों ने उनकी सुरक्षा का दायित्व निभाया , साथ ही उन्होंने इन तीन वर्षों के दौरान पहाड़ों में छापामार युद्ध - प्रणाली से मुगल आक्रमणों को विफल करने में बड़ा योगदान दिया । भीलों ने पहाड़ों में मुगल सैनिकों को जिस भाति तंग और आतंकित किया तथा उनको जन - धन की हानि पहुंचाई , उससे मुगल सैनिक पहाडी भाग में घुसने और मगल थानों पर ठहरने से कतराने लगे । 1579 ई . तक प्रताप ने अपनी सफलता का सिका । 

पूरी तरह जमा लिया और उसी वर्ष दिवेर के बड़े मुगल थाने पर कब्जा करके और वहां पर नियुक्त थानेदार अकबर के चाचा सुल्तानखां को मार कर प्रताप ने अपना विजय - अभियान शुरू कर दिया । प्रताप की सफलताओं से मेवाड़ के राजपूतों एवं भील सैनिकों का मनोबल सुदृढ़ हो गया । मुगल सैनिक हतोत्साहित हो गये । प्रताप एवं उसके सेनापतियों ने नवीन परिस्थिति में पहाड़ों के बाहर निकल कर मुगल इलाकों में धावे बोलना और लूटमार करना शुरू कर दिया ।

 1579 ई . में प्रताप ने अपनी राजधानी पानरवा क्षेत्र से हटा कर छप्पन क्षेत्र में चावंड में कायम की । पानरवा क्षेत्र को आगे से प्रधानतः राजपरिवार , सामंतों एवं अधिकारियों की स्त्रियों एवं बच्चों के सुरक्षा - स्थल के रूप में उपयोग किया गया , साथ ही चावंड पर आक्रमण होने पर उसको राजधानी का सुरक्षा क्षेत्र बनाया गया । चावंड राजधानी कायम करने से प्रताप को कई लाभ हुए । गुजरात और मालवा की सीमाएं निकट होने से मेवाड़ क्षेत्र के वाणिज्य और उद्यम को बड़ा प्रोत्साहन मिला ।

 कृषि की उन्नति हुई एक बार फिर मेवाड़ की बहुमुखी प्रगति होने लगी । कला और साहित्य फलने - फूलने लगे । राजकोष में वृद्धि हुई । चावंड से मुगल इलाके में थानों पर हमले बोलने , धन एवं साधन प्राप्त करने का कार्य आसान हो गया । इससे मूगलप्रशासन और सेना की परेशानियां बढ़ गई । निस्संदेह ही प्रताप की सैन्य - योजना और प्रशासनिक व्यवस्था की सफलता में पानरवा के सोलंकी राणा पूजा ने अपने भील सैनिकों को साथ लेकर जो अविस्मरणीय योगदान प्रताप को दिया , वह मेवाड़ के मुगल - दासता - विरोधी स्वातंत्र्य - संग्राम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है।

  मेवाड़ में अपनी निरन्तर असफलताओं से निराश होकर 1585 ई . के बाद मुगल बादशाह अकबर ने मेवाड़ से मुंह मोड़ लिया । महाराणा प्रताप ने मेवाड़ के मैदानी भाग के अधिकांश हिस्से पर पुनः अपना अधिकार कायम कर लिया और उसके बाद 1597 ई में प्रताप के देहावसान होने तक मेवाड़ शान्ति और सम्पन्नता का उपभोग करता । रहा । 1605 ई . में अकबर की मृत्यु हो गई और वह अपने जीवन - काल में मेवाड़ को अधीन करने का अपना स्वप्न साकार नहीं कर सका ।

अकबर के उत्तराधिकारी  जहागिर न मेवाड़ को अधीन करने के अपने पिता का सपना पुरा करने के प्रयास शुरू किये । 1506 ई . में शाहजादा प्रवेज़ को बड़ी सेना देकर मेवार लेकर ऊंठाला और देबारी के बीच आ पहुँचा । महाराणा अमरसिंह ने अपने पिता के पद - चिह्नों पर चलने छापामार यब - प्रणाली का सहारा लिया । उसने पानरवा के राणा पूजा सोलंकी के पुत्र कुंवर राम को हजारों सोलंकी सैनिक और  भील सैनिक को साथ मे बुलाया और पहाड़ों में अपनी सेना का प्रधान मददगार और भीलों का सेनापति बनाकर शाही - फौज की रसद । का आदेश दिया । 

रात्रि के समय महाराणा अमरसिंह ने अपनी सेना लेकर मुगल सेना पर आक्रमण करके शाहजादे को मार भगाया और पानरवा के कुंवर राम के नेतृत्व में भील सैनिकों ने शाही खजाने और रसद को लूटा और भाल हए मगल सैनिकों को मारा । " 1606 ई . तक पानरवा के राणा पूजा काफी वृद्ध हो चुके थे , अतएव उस समय भील सैनिकों का नेतृत्व अपने कुंवर राम को देकर महाराणा अमरसिंह की सहायतार्थ भेजा था ।

राणा पूंजा और पानरवा ठिकाने ने मेवाड़ को विकट परिस्थितियों में अपनी हजारों की भील सेना प्रदान की व छापामार युद्ध प्रणाली के द्वारा आक्रमणकारियों से मेवाड़ की सदा हिफाज़त की, वे जाती से सोलंकी (चालुक्य) राजपूत थे।

पानरवा के शासकों को मेवाड़ में 16 उमरावो  के बराबर बैठने का अधिकार प्राप्त था व स्वतंत्र ठिकाना है..

आप सभी से निवेदन है कि इतिहास में राणा पूंजा को भील लिखकर बदनाम नहीं किया जाए वह भीलों के सेनापति थे सोलंकी क्षत्रीय राजपूत...

#सद्रभ : नस्लनामा बढड़वाजी की वंशावलियां 1 . सोलकियों का कुर्सीनामा 2 . सोलंकियों का नस्लनामा बड़वा देवीदान ( गांव दायक्या राजस्थान अभिलेखागार इलाका टोंक ) की पोथी बीकानेर में उपलब्ध बड़वा ओंकार ( गाव दायक्या पानरवा ठिकाने में उपलब्ध इलाका टोक ) की पोथी बड़वा नंदराम ( गांव सीतामऊ ) पानरवा ठिकाने में उपलब्ध की पोथी बड़वा रामसिंह वल्द ईसकदान पानरवा ठिकाने में उपलब्ध की पोथी 3 . पानरवा के सोलकियों की वंशावली 4 . पानरवा के सोलकियों की वंशावली पत्रावली सं . 10 पत्रावली सं . 171 पत्रावली सं . 315 2 . ख्यात गोगुंदा की ख्यात - स . डॉ . हुकमसिंह भाटी ( 1997 ई . में प्रकाशित ) 3 . अभिलेखागार एवं संग्रहालय 1 . राजस्थान राज्य प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान , उदयपुर भोमट का हाल , ग्रंथ सं 2680 2 . राजस्थान राज्य अभिलेखागार ( श्यामलदास - संग्रह ) , बीकानेर बड़वा देवीदान का सोलकियों का कुर्सीनामा पूजाजी का पीढ़ीनामा Report on the hilly tracts of Mewar 
3 . Akbarnama by Abul Fazl ( translation by H . Beveridge )  Akbar  by A . L . Srivastava , वीरविनोद , ले . कविराज श्यामलदास , राजस्थान राज्य अभिलेखागार , उदयपुर , पत्रावली , भोमट , सं .  राव पंजाजी का पीढीनामा - राजस्थान राज्य अभिलेखागार , बीकानेर , श्यामलदास - संग्रह ,भोमट का हाल , राज प्राच्य विद्याप्रतिष्ठान , उदयपुर ग्रंथ सं  . VII राजपूताने का इतिहास , ले जगदीशसिंह गहलोत , भाग । महाराणा प्रताप महान , ले . डॉ . देवीलाल पालीवाल , 

(राणा पूंजा जी के संदर्भ में कुछ पोस्ट फोटो जानकारी कॉमेंट बॉक्स में अपलोड किये है)
"जय वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप" 
"जय राणा पूंजा सोलंकी "

पोस्ट लेखक:- बलवीर सिंह(नाथावत)सोलंकी 
ठिकाना बासनी खलेल, परगना नागौर (मारवाड़)

 

शनिवार, 28 अगस्त 2021

अमीर अली खान पठान की गद्दारी

जब कंधार के तत्तकालीन शासक अमीर अली खान पठान को  मजबूर हो कर जैसलमेर राज्य में शरण लेनी पड़ी। तब यहां के महारावल लूणकरण थे।वे महारावल जैतसिंह के जेष्ठ पुत्र होने के कारण उनके बाद यहां के शासक बने। वैसे उनकी कंधार के शासक अमीर अली खान पठान से पहले से ही मित्रता थी और विपत्ति के समय मित्र ही के काम आता है ये सोचते हुए उन्होंने सहर्ष अमीर अली खान पठान को जैसलमेर का राजकीय अतिथि स्वीकार कर लिया। 

लम्बें समय से दुर्ग में रहते हुए अमीर अली खान पठान को किले की व्यवस्था और गुप्त मार्ग की सारी जानकारी मिल चुकी थी।उस के मन में किले को जीत कर जैसलमेर राज्य पर अधिकार करने का लालच आने लगा और वह षड्यंत्र रचते हुए सही समय की प्रतीक्षा करने लगा। इधर महारावल लूणकरण भाटी अपने मित्र अमीर अली खान पठान पर आंख मूंद कर पूरा विश्वास करते थे। वो स्वप्न में भी ये सोच नहीं सकते थे कि उनका मित्र कभी ऐसा कुछ करेगा।
इधर राजकुमार मालदेव अपने कुछ मित्रों और सामंतों के साथ शिकार पर निकल पड़े। अमीर अली खान पठान बस इस मौके की ताक में ही था। उसने महारावल लूणकरण भाटी को संदेश भिजवाया कि वो आज्ञा दे तो उनकी पर्दानशी बेगमें रानिवास में जाकर उनकी रानियों और राजपरिवार की महिलाओं से मिलना चाहती है। फिर क्या होना था? 
वही जिसका अनुमान पूर्व से ही अमीर अली खान पठान को था। महारावल ने सहर्ष बेगमों को रानिवास में जाने की आज्ञा दे दी। इधर बहुत सारी पर्दे वाली पालकी दुर्ग के महल में प्रवेश करने लगी किन्तु अचानक महल के प्रहरियों को पालकियों के अंदर से भारी भरकम आवाजें सुनाई दीं तो उन्हें थोड़ा सा शक हुआ। उन्होंने एक पालकी का पर्दा हटा कर देखा तो वहां बेगमों की जगह दो-तीन सैनिक छिपे हुए थे।

जब अचानक  षड्यंत्र का भांडा फूटते ही वही पर आपस में मार-काट शुरू हो गई। दुर्ग में जिसके भी पास जो हथियार था वो लेकर महल की ओर महारावल और उनके परिवार की रक्षा के लिए दौड़ पडा। चारों ओर अफरा -तफरी मच गई किसी को भी अमीर अली खान पठान के इस विश्वासघात की पहले भनक तक नहीं थी। कोलाहल सुनकर दुर्ग के सबसे ऊंचे बुर्ज पर बैठे प्रहरियों ने संकट के ढोल-नगाड़े  बजाने शुरू कर दिए जिसकी घुर्राने की आवाज दस-दस कोश तक सुनाई देने लगी। 
महारावल ने रानिवास की सब महिलाओं को बुला कर अचानक आए हुए संकट के बारे में बताया। अब अमीर अली खान पठान से आमने-सामने युद्ध करने के सिवाय और कोई उपाय नहीं था। राजकुमार मालदेव और सांमत पता नहीं कब तक लौटेंगे। दुर्ग से बाहर निकलने के सारे मार्ग पहले ही बंद किए जा चुके थे। राजपरिवार की स्त्रियों को अपनी इज्जत बचाने के लिए जौहर के सिवाय कुछ और उपाय नहीं दिखाई दे रहा था। अचानक से किया गया आक्रमण बहुत ही भंयकर था और महल में जौहर के लिए लकड़ियां भी बहुत कम थी। इसलिए सब महिलाओं ने महारावल के सामने अपने अपने सिर आगे कर दियें और सदा सदा के लिए बलिदान हो गई। महारावल केसरिया बाना पहन कर युद्ध करते हुए रणभूमि में बलिदान हो गए । 

महारावल लूणकरण भाटी को अपने परिवार सहित चार भाई, तीन पुत्रों के साथ को कई विश्वास पात्र वीरों को खो कर मित्रता की कीमत चुकानी पड़ी। इधर रण दुंन्दुभियों की आवाज सुनकर राजकुमार मालदेव दुर्ग की तरफ दौड़ पड़े।
वे अपने सामंतों और सैनिकों को लेकर महल के गुप्त द्वार से किले में प्रवेश कर गए और अमीर अली खान पठान पर प्रचंड आक्रमण कर दिया। अमीर अली खान पठान को इस आक्रमण की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी। अंत में उसे पकड़ लिया गया और चमड़े के बने कुड़िए में बंद करके दुर्ग के दक्षिणी बुर्ज पर तोप के मुंह पर बांध कर उड़ा दिया गया। 

इतिहास की क ई सैकड़ों ऐसी घटनाएं है जिससे हम वर्तमान में बहुत कुछ सीख सकते है।

शनिवार, 21 अगस्त 2021

महाराणा अमर सिंह और जहांगीर से संघर्ष

महाराणा अमर सिंह और जहांगीर 

ये गौरवगाथा एक ऐसे वीर योद्धा की है, जिसने अनबन के कारण मेवाड़ के शासक के सामने कभी अपना सिर नहीं झुकाया, पर उसी सिर को मेवाड़ की ख़ातिर मातृभूमि के चरणों मे भेंट कर दिया और सिद्ध कर दिया कि जब मातृभूमि पुकारती है, तो एक सच्चा राजपूत अपना सर्वस्व समर्पण करने को तैयार हो जाता है।

देलवाड़ा के जैतसिंह झाला के पुत्र मानसिंह झाला महाराणा प्रताप के बहनोई थे, जो कि हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे। मानसिंह झाला के 3 पुत्र हुए :- शत्रुसाल झाला, कल्याण झाला और आसकरण झाला। शत्रुसाल झाला गरम मिजाज़ के थे।
शत्रुसाल झाला महाराणा प्रताप की बहन के पुत्र थे। एक बार इनकी अपने मामा महाराणा प्रताप से तकरार हो गई थी और इन्होंने कहा था कि “आज से मैं सिसोदियों की नौकरी न करुंगा।”

*महाराणा प्रताप ने जब शत्रुसाल को रोकने के लिए उनके अंगरखे का दामन पकड़ा, तो शत्रुसाल ने अपने अंगरखे का दामन काट दिया। महाराणा प्रताप ने कहा था कि “आज के बाद शत्रुसाल नाम के किसी बन्दे को अपने राज में न रखूँगा”

इस तकरार के बाद शत्रुसाल मारवाड़ चले गए, तब महाराणा प्रताप ने क्रोध में आकर झाला राजपूतों से देलवाड़ा की जागीर ज़ब्त की। महाराणा प्रताप ने वीर जयमल मेड़तिया के पौत्र व मुकुन्ददास मेड़तिया के पुत्र मनमनदास को देलवाड़ा जागीर में दिया और वचन दिया की देलवाड़ा जीवनभर आपकी जागीर रहेगी।

ये जागीर मनमनदास को उनके पिता मुकुन्ददास मेड़तिया के जीवित रहते दी थी। कल्याण झाला और आसकरण झाला मेवाड़ के ही गांव चीरवा में रहे। जब मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह मुगलों से भीषण युद्ध कर रहे थे, उस समय कल्याण झाला ने भी महाराणा का साथ दिया।

महाराणा अमरसिंह ने खुश होकर कल्याण झाला को कोई जागीर देनी चाही, पर कल्याण झाला ने कहा कि हमें हमारे बाप-दादों की देलवाड़ा की जागीर ही दी जावे। महाराणा अमरसिंह ने कहा कि वह जागीर हमारे पूजनीय पिता ने मनमनदास को दी थी और वचन भी दिया था कि मरते दम तक जागीर उन्हीं की रहेगी। कल्याण झाला ने कहा कि आपको जागीर देने की इच्छा, हो तो देलवाड़ा ही जागीर में देवें।

1614 ई. में जब शहज़ादा खुर्रम (शाहजहाँ) कुल हिंदुस्तान की फौज समेत मेवाड़ आया, तब महाराणा अमरसिंह ने कल्याण झाला की कर्तव्यपरायणता देखकर उनसे कहा कि हम देलवाड़ा की जागीर आपको देने के लिए तैयार हैं, आप जोधपुर जाकर अपने भाई शत्रुसाल को भी यहाँ ले आओ।

इसी दौरान संयोग से जोधपुर के राजा सूरसिंह  के पुत्र कुँवर गजसिंह  से शत्रुसाल झाला की तकरार हो गई। कुँवर गजसिंह ने शत्रुसाल से कहा कि “महाराणा अमरसिंह जी तो आजकल अपनी रानियों के साथ पहाड़ों में मारे-मारे फिरते हैं।”

शत्रुसाल झाला ये सुनते ही उठ खड़े हुए और कहा “हाँ संभव है उनको अपनी बहन-बेटियों का सम्मान अधिक प्रिय हो”। कुँवर गजसिंह ने कहा कि “महाराणा के ऐसे हितैषी को तो बादशाही फौज के हाथों मरना चाहिए”।

तब शत्रुसाल झाला ने कहा कि “आपकी इस नसीहत को याद रखते हुए मैं वचन देता हूँ कि मरूँगा तो सिर्फ महाराणा और मेवाड़ की खातिर और रही बात बादशाही फौज की तो उनको भी आज असल रजपूती तलवार का स्वाद चखा ही देता हूँ। उन्हें भी तो मालूम पड़े कि एक सच्चे राजपूत की तलवार कितना लहू पीती है।”

इतना कहकर मेवाड़ लौटते वक्त शत्रुसाल झाला की अपने भाई कल्याण झाला से मुलाकात हुई और पता चला कि महाराणा अमरसिंह ने उन्हें देलवाड़ा की जागीर लौटा दी है। ये सुनकर शत्रुसाल झाला की आंखें भर आईं, क्योंकि उन्हें अपने पूर्वजों की जागीर पुनः प्राप्त हो गई।

शत्रुसाल झाला ने कल्याण झाला से कहा कि “पिछली बार मैंने अपने मामा महाराणा प्रताप से झगड़ा किया था। अब अगर मैं इस तरह महाराणा अमरसिंह के सामने गया, तो वे कहेंगे कि शत्रुसाल इतने वर्षों बाद मेवाड़ आया है और वो भी खाली हाथ। महाराणा के सामने खाली हाथ जाना ठीक न होगा, क्यों न मैं अपने प्राण ही दे दूँ”

दोनों भाईयों ने अपने कुछ गिने-चुने 100-200 झाला राजपूतों के साथ मुगल फौज पर हमला करने का फैसला किया। मेवाड़-मारवाड़ की सीमा पर आंवड़-सांवड़ की नाल में नवाब अब्दुल्ला खां अपनी फौज के साथ तैनात था। (नाल :- मेवाड़ में तंग पहाड़ी घाटियों को नाल कहा जाता था। यहां देसूरी की नाल, केवड़ा की
 नाल, आंवड़-सांवड़ की नाल प्रसिद्ध थी।)

दोनों भाईयों का मुकाबला अब्दुल्ला खां की फौज से हुआ। कई मुगल मारे गए व मेवाड़ की तरफ से भोपत झाला समेत कई राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए। संख्या में कम होने के कारण दोनों भाई अलग-अलग पहाड़ियों में चले गए पर गम्भीर रुप से घायल हुए।

शत्रुसाल झाला तो मेवाड़ की पहाड़ियों में गए, पर कल्याण झाला के घोड़े ने अपने प्राण त्याग दिए, जिस कारण वे पास के ही एक मन्दिर में रुके।

 अब्दुल्ला खां को कल्याण झाला की ख़बर मिली, तो मुगल फौज ने उनको घेर लिया।

एक अकेला राजपूत तब तक लड़ता रहा, जब तक उसके तीर समाप्त न हो गए। कल्याण झाला के पास जब तक तीर थे, तब तक किसी को अपने पास तक नहीं आने दिया, पर तीर खत्म होने के बाद अब्दुल्ला खां उन्हें कैद कर खुर्रम के पास ले गया।

बादशाहनामे में लिखा है कि “शहज़ादे खुर्रम ने कल्याण झाला की मरहम पट्टी वगैरह की और उसे जीवित छोड़ दिया”। मेवाड़ में अत्याचारों की सभी हदें पार करने वाले ख़ुर्रम ने यहां ऐसी दरियादिली कैसे दिखा दी, ये तो वक्त ही जानता है।

कल्याण झाला को तो जीवनदान मिल गया, पर शत्रुसाल झाला तो जोधपुर से महाराणा के लिए मरना ठान के निकले थे, इस खातिर उन्होंने पहाड़ों में ही अपने घाव ठीक किए और कुछ दिन बाद गोगुन्दा के शाही थाने पर हमला कर दिया।

गोगुन्दा में मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह के काका और जगमाल के छोटे भाई विश्वासघाती सगरसिंह सिसोदिया के नेतृत्व में हज़ारों की फौज तैनात थी। इस लड़ाई में शत्रुसाल झाला के कुल 39 घाव लगे, जिससे गोगुन्दा के पास रावल्या गांव में वे वीरगति को प्राप्त हुए।

इस तरह शत्रुसाल झाला ने अपने जीवन में जितने भी वचन लिए, पूरे किए। अनेक शत्रुओं और विश्वासघातियों को यमलोक भेजकर उन्होंने अपनी लहू की अंतिम बूंद तक युद्ध लड़ा। निश्चित ही यदि इस समय महाराणा प्रताप जीवित होते, तो अपने भांजे की इस वीरता पर अति प्रसन्न होते।

महाराणा अमरसिंह ने ये नियम बना रखा था कि कोई भी जागीर सदा एक ही सामंत या उसके वंशजों के पास रहे, ये जरूरी नहीं। जागीर वंश परंपरा के अनुसार नहीं, बल्कि कर्तव्यपरायणता के अनुसार दी जाएगी। शत्रुसाल झाला की ये वीरता निश्चित ही उनके वंशजों के लिए भी उपयोगी सिद्ध हुई।
महाराणा अमरसिंह ने शत्रुसाल झाला की बहादुरी देखकर गोगुन्दा की जागीर शत्रुसाल झाला के पुत्र कान्ह झाला को दे दी, तब से लेकर आज तक गोगुन्दा झाला राजपूतों का ठिकाना रहा है। इस तरह शत्रुसाल झाला को मरणोपरांत गोगुन्दा के पहले “राजराणा” की उपाधि दी गई व कान्ह झाला दूसरे राजराणा कहलाए।

जारी.............

महाराणा अमर सिंह और जहांगीर

महाराणा अमर सिंह और जहांगीर 

1614 ई. के अंतिम 2-3 माह में ख़ुर्रम के नेतृत्व में समूचे मुगल साम्राज्य की सेनाओं ने मेवाड़ के राजपूतों को चारों ओर से घेर लिया। राजपूतों तक रसद पहुंचनी बन्द हो गई। खेत पहले ही जला दिए गए थे। मेवाड़ के जो राजपूत जिन पहाड़ियों में थे, वे वहीं फंस गए।

इन दिनों महाराणा अमरसिंह ने जिन परिस्थितियों का सामना किया, ऐसी भयंकर परिस्थितियों का सामना तो कभी महाराणा प्रताप को भी नहीं करना पड़ा। पर इन परिस्थितियों से भी महाराणा अमरसिंह के मन में एक पल के लिए भी अपने पूर्वजों की महान परंपरा को तोड़ने का ख्याल नहीं आया।
परन्तु मेवाड़ के सामंत और कुँवर कर्णसिंह आदि के मन वर्षों से रक्तपात और 1614 ई. के भयंकर आक्रमण से टूटने लगे, क्योंकि जिस मातृभूमि की रक्षा की ख़ातिर वे बरसों से अपना सर्वस्व दांव पर लगाने को तत्पर थे, वह मातृभूमि इतने प्रयासों के बाद भी परतंत्रता की ओर बढ़ रही थी।

इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि “लंबे समय से चली आ रही यह अत्यंत पीड़ादायी लड़ाई मेवाड़ के लिए ऐसी आपदा बन चुकी थी, जिससे निस्तार का कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा था। मेवाड़ पर बहुत अत्याचार हो रहे थे। जन साधारण का विनाश, मंदिरों का विध्वंस, मृत शरीरों का छिन्न-भिन्न करके छितराया जाना, आम जनता की औरतों और बच्चों को नीलाम करना, घरों को फूंकना, पकी फसलों को जलाना आदि अत्याचारों से मेवाड़ का सामाजिक व आर्थिक ढांचा हिल गया।”

महाराणा अमरसिंह व रहीम के बीच पत्र व्यवहार :- महाराणा अमरसिंह की सेना दिन-दिन कम होती गई और प्रजा पर अत्याचार होने लगे, तो महाराणा बड़ी दुविधा में फँस गए। एक तरफ उनकी प्रजा सरेआम नीलाम हो रही थी और दूसरी तरफ पिछले 1050 वर्ष पहले गुहिल से चली आ रही मेवाड़ की स्वाधीनता दाँव पर लगी थी।

दुविधा ये की इन दोनों में से महाराणा को किसी एक को चुनना था। महाराणा अमरसिंह ने एक दोहा लिखा और कहा कि इसे अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना के पास भेज दिया जावे।

कृष्णभक्त अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना बैरम खां का बेटा था। ये वही सिपहसालार था, जिसकी बेगमों को महाराणा प्रताप के समय कुँवर अमरसिंह ने बन्दी बनाया था व महाराणा प्रताप ने सभी को मुक्त किया। तब से रहीम मेवाड़ का तरफदार रहा।

महाराणा अमरसिंह ने इस दोहे के ज़रिए रहीम से पूछा कि कब तक मुझे और मेरे साथियों को वन में भटकना चाहिए :- गोड़ कछाहा राठवड़, गोखा जोख करंत। कहजो खानांखान ने, वनचरु हुआ फिरंत।। तँवरां सूं दिल्ली गई, राठौड़ां सूं कन्नौज। अमर पूछे खान ने, सो दिन दीसै अज्ज।।

अर्थात् महाराणा अमरसिंह रहीम से कहते हैं कि तंवर राजपूतों के हाथ से दिल्ली गई थी, राठौड़ राजपूतों के हाथ से कन्नौज गया था। आज फिर वही दिन आया लगता है, हमारे हाथ से मेवाड़ जाने लगा है।

अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना ने महाराणा को जवाब में ये दोहा लिखा :- धर रहसी रहसी धरम, खपजासी खुरसाण। अमर विशंभर ऊपरा, राखो निहचो राण।। अर्थात् हे राणा अमरसिंह ! धरती रहेगी, धर्म भी रहेगा, पर मुगल साम्राज्य एक न एक दिन नष्ट हो जाएगा। गैरत के आराम से इज्जत की तकलीफ अच्छी, इसलिए आपको धैर्य रखना चाहिए।

रहीम के इस संदेश से महाराणा अमरसिंह को कुछ तसल्ली हुई, जिसके बाद वे कुछ और लड़ाइयां लड़े, परन्तु समूचे मुगल साम्राज्य के सामने मेवाड़ की छोटी सी सेना कब तक सामना करती। मेवाड़ के लोगों और अपनों की हालत देखकर मेवाड़ के सामन्तों और कुँवर कर्णसिंह के हौंसले अब पस्त होने लगे।

(रहीम व महाराणा अमरसिंह के बीच हुए इस पत्र व्यवहार को इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा सत्य घटना मानते हैं, परन्तु अन्य बहुत से इतिहासकार इस घटना को इसलिए खारिज करते हैं क्योंकि उस समय मेवाड़ चारों ओर से घिरा हुआ था और वहां से आगरा तक पत्र व्यवहार सम्भव नहीं था। बहरहाल, सत्य जो भी हो, मेवाड़ के महाराणा का हृदय धर्मसंकट में पड़ गया।)

तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि “मेवाड़ में जहां-जहां रहने की जगह खराब थी और बीहड़ जंगल थे, वहां भी ख़ुर्रम ने राणा के पीछे एक के बाद एक फ़ौज भेजकर थाने बिठा दिए। शहज़ादे ने भारी गर्मी और भारी बरसात की भी कोई फिक्र नहीं की। मेरे हुक्म से मेरे बेटे खुर्रम ने राणा अमर के मुल्क के लोगों को कैद कर लिया। राणा को पैगाम भेजा गया कि या तो अपने मुल्क के लोगों की हिफाजत के लिए बादशाही मातहती कुबूल करे या उनकी परवाह किये बगैर अपने मुल्क को छोड़कर चला जावे”

क्या यहां कुँवर कर्णसिंह को दोष दिया जाना उचित है ? जी नहीं, कुँवर कर्णसिंह का तो जन्म ही जंगलों में हुआ था, वनवासी की तरह उन्होंने जीवन के 28 वर्ष इन जंगलों में रहकर बिताए और हर लड़ाई में अपने पिता का साथ दिया।

क्या यहां मेवाड़ के सामन्तों को दोष दिया जाना चाहिए ? जी नहीं, मेवाड़ के इन सामन्तों की कई पीढ़ियों ने मातृभूमि की ख़ातिर अनेक बलिदान दिए और वे स्वयं भी बलिदान देने से पीछे हटने वालों में से नहीं थे। उन दिनों जीवन का बलिदान देना मेवाड़ के बहादुरों के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी।
बात प्राणों की नहीं, मान सम्मान की थी, क्योंकि अब राजपरिवार और सामन्तों की स्त्रियों पर भी संकट आने का भय था। मेवाड़ जिस मान सम्मान के लिए लड़ रहा था, यदि वो मान सम्मान ही संकट में हो तो फिर किसकी रक्षा की जाए। कुँवर कर्णसिंह व मेवाड़ के सामन्त भलीभांति महाराणा अमरसिंह के हृदय को समझ सकते थे।
महाराणा अमरसिंह का हृदय कांपने लगा। परन्तु ये कंपन ना तो अपने प्राणों के लिए थी और ना ही किसी भय के कारण। ये कंपन थी मेवाड़ की महान स्वतंत्र परंपरा को तोड़ने का अपमान सहन करने की। ये कंपन थी प्रजावत्सल महाराणा अमरसिंह की प्रजा के सरेआम नीलाम होने की।

मेवाड़ के सामंतों ने मिलकर सलाह की, जिसमें मुगल शहज़ादे खुर्रम से संधि की बात करना तय रहा, लेकिन सामंतों ने संधि वाली बात महाराणा अमरसिंह को बताना ठीक नहीं समझा, क्योंकि उन्हें पता था कि महाराणा इसके लिए कभी राजी नहीं होंगे।

साथ ही सभी सामंत ये भी जानते थे कि महाराणा अमरसिंह कभी भी दूसरे राजाओं की तरह बादशाही दरबार में जाकर मुगल बादशाह को सलाम नहीं करेंगे, इसलिए सामंत चाहते थे कि संधि कुछ इस तरह से हो कि महाराणा को मुगल दरबार में हाजरी ना देनी पड़े और महाराणा की जगह कुँवर कर्णसिंह को दरबार में भेज दिया जावे।

सभी सामंत एकमत से कुँवर कर्णसिंह के पास गए और उनसे कहा कि “बादशाही फ़ौज इस कदर हावी हो चुकी है, कि हमारी स्त्रियों और बच्चों तक के पकड़े जाने का खतरा मंडराने लगा है, प्रजा पर अत्याचार हो रहे हैं, इस ख़ातिर आप यदि तैयार हों, तो हम सन्धि की बात आगे बढ़ाएं।”

कुँवर कर्णसिंह ने कहा कि “हम स्वयं भी यही कहना चाहते थे, परन्तु दाजीराज के सामने ये कहने का साहस नहीं है मुझमें। पर आप सभी साथ हों, तो इस सन्धि की वार्ता के लिए मैं ख़ुर्रम से बात करने को तैयार हूं।”

जारी.......

ग्वालियर के महाराजधिराज मानसिंह तोमर जी

तोमर राजवंश के महान शासक , ग्वालियर के महाराजधिराज मानसिंह तोमर जी की जयंती पर उन्हें बारम्बार नमन् .
.
तोमर राजवंश में जितने भी राजा महाराजा हुये उन्हें इतिहासकारों ने एकमत से कहा है कि तोमर राजवंश के सारे राजा महाराजा बेहद उच्च कोटि के विद्वान एवं धर्मज्ञ , साहसी, वीर , पराक्रमी और उदार , त्यागी व बलिदानी हुये , विद्धता और उदारता में , रण कौशल, बहादुरी पराक्रम में जहॉं ग्वालियर महाराजा मान सिंह तोमर का नाम सर्वोपरि आता है तो उन्हें अति उच्च कोटि का साहित्यकार, धर्म मर्मज्ञ , संस्कृति रक्षक व सनातन धर्म का सर्वाच्च सेवक भी माना जाता है , राजपूती काल गणनाओं में महाराजा मान सिंह तोमर का नाम ऐसे वीर योद्धा के रूप में शुमार किया जाता है जिसने अपने जीवन काल में अनेक युद्ध किये और सदैव विजयी रहे , हर शत्रु को हर रण में बुरी तरह न केवल मार भगाया बल्कि मध्यभारत की ओर या ग्वालियर चम्बल की ओर जिसने भी ऑंख उठाने की जुर्रत की उसका या तो शीष उतार लिया या कैद कर लिया या भागने पर मजबूर कर दिया , अपनी मृत्युकाल तक अविजित रहे इस विजेता महाराजा की सबसे बड़ी खासियत थी संगीत, नृत्य, साहित्य व प्रभु से लगाव , प्रेम प्यार और प्रीति की साक्षात प्रतिमूर्ति , महाराजा मान सिंह तोमर की राजपूत रानीयों के अलावा एक गूजर प्रेमिका थी जिसका नाम निन्नी था , सुंदरता व बहादुरी की बेजोड़ मिसाल निन्नी , महाराजा मान सिंह तोमर की अतुल्य प्रेमिका थी , जिससे महाराजा मान सिंह तोमर ने विधिवत विवाह कर ग्वालियर किले के निचले हिस्से में एक अलग से महल बनवाया , जिसे गूजरी महल कहा जाता है , मान मंदिर ( महाराजा मान सिंह तोमर के राजमहल) के ऐन नीचे ग्वालियर किले के निचले हिस्से की तराई में गूजरी रानी का राजमहल स्थित है, महाराजा मान सिंह तोमर के राजमहल से एक सीधी सुरंग गूजरी रानी के राजमहल , गूजरी महल तक जाती है, इसी सुरंग के जरिये महाराजा मान सिंह तोमर अपनी प्रियतमा रानी निन्नी से मिलने जाते थे, बेहद खूबसूरत नेत्रों व कमल नयनों वाली इस बहादुर , शूर वीर गूजर रानी को उसकी सुंदरता से , सौंदर्य से अभिभूत होकर महाराजा मान सिंह तोमर ने उसे ''मृगनयनी'' नाम दिया और इतिहास में महाराजा मान सिंह तोमर की यह प्रेमिका रानी मृगनयनी नाम से ही विख्यात हुई.

ग्वालियर महाराजा मान सिंह तोमर बेहद सुप्रसिद्ध वैभवशाली, बहुत प्रतापी और यशस्वी महाराज रहे हैं ... ग्वालियर को जो आज संगीत की राजधानी कहा जाता है यह महाराजा मान सिंह तोमर के कारण ही कहा जाता है .. महाराजा मान सिंह तोमर ने ही ध्रुपद का आविष्कार किया ... महाराजा मान सिंह तोमर के दरबार में ही थे महान गायक और संगीतकार... तानसेन और बैजू बावरा .... महाराजा मान सिंह तोमर ने ही ग्वालियर किले का पुनरूद्धार व जीर्णोद्धार कराया और सिकंदर लोदी और इब्राहीम लोदी को अनेकों बार धूल चटाई ... इतिहास में प्रसिद्ध लड़ाईयों में लोदीयों को महाराजा मान सिंह तोमर ने कई बार बुरी तरह मार भगाया .... जितने यशगान महाराजा मान सिंह तोमर के गाये जाते हैं उसमें सबसे अधिक महाराजा मानसिंह तोमर के साथ संगीत सम्राट तानसेन के भी यशगान प्रसिद्ध है .... महाराजा मान सिंह तोमर के रहते कोई मुगल या लोदी या बाहरी आक्रमणकारी मध्य भारत तक पॉंव नहीं धर पाया ... महाराजा मान सिंह तोमर का ही एक सेनापति कुंवर तेजपाल सिंह तोमर था जिसने दिल्ली के लोधी दरबार में में सिंह गर्जना कर हुंकार भरी थी ... कि मैं वह तोमर हूँ जिसके पुरखे ने इसी दिल्ली में किल्ली गाड़ी थी .... जो शेषनाग के फन को चीरती हुयी धरती में धंसी और पार कर गई .... उसने लोदी के ही दरबारमें लोदी को बुरी तरह गरिया डाला और कहा कि हम तोमर हैं तेरे जैसे दुष्टों को चीर कर धरती को तेरे लहू से स्नान करा देंगें .... इस पर लोदी ने दूत की मर्यादा भूल कर उसका सिर वहीं कलम करवा दिया था ओर दिल्ली के पुराने किले के तोमर महल में उसका कटा हुआ सिर लटकवा दिया था, लेकिन उसने अपना सिर कटने से पहले लोदी के दरबार में काफी प्रलय ढा दी थी और लोदी के कई दरबारी ओर सेना प्रमुखों को मार कर मौत के घाट उतार लोधी का दरबार लहू से लाल कर दिया था ... महाराजा मान सिंह तोमर महान साहित्यकार भी थे ... उन्होंने अनेक दोहों , चौपाईयों , कविताओं एवं अनेक छन्दों की रचना की .. विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ मान कुतूहल की रचना उन्हीं ने की.. महाराजा मान सिंह तोमर के ही एक महा आमात्य खेमशाह ने प्रसिद्ध ग्रंथ''बेताल पच्चीसी''की रचना मानिक कवि से कराई ... मान कौतूहल का फारसी अनुवाद फकीर उल्ला सैफ खॉं ने किया ... इसके अलावा महाराजा मान सिंह तोमर के दरबार में प्रसिद्ध साहित्यकार व संगीतकार बक्शु, महमूद लोहंग, नायक पाण्डेय, देवचंद्र, रतनरंग, मानिक कवि, थेघनाथ, सूरदास (बचपन काल में) , गोविंददास, नाभादास, हरिदास, कर्ण, नायक गोपाल, भगवंत, रामदास वगैरह थे ... भक्तमाल नामक ग्रंथ यहीं महाराजा मान सिंह तोमर के ही दरबार काल में लिखा गया, स्वयं महाराजा मान सिंह तोमर ने सावंती, लीलावती, षाढव, मानशाही, कल्याण आदि रागों के गीत लिखे हैं , ''रास '' नामक नृत्य नाटिका का आविष्कार स्वयं महाराजा मान सिंह तोमर ने ही किया ... जो कि आज रास लीला के नाम से बेहद प्रसिद्ध नृत्य नाटिका कही पुकारी जाती है, महाराजा मानसिंह तोमर ने ग्वालियर के निकट ही बरई में विशाल रास मण्डल का निर्माण कराया , रास नृत्य शैली को बृज क्षेत्र में ले जा कर हरिराम, हरिवंश ओर हरिदास ने चरमोत्कर्षपर पहुँचाया .

शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

वीर दुर्गादास

मारवाड़ के लोह पुरुष वीर दुर्गादास

"आठ पहर चौसठ घड़ी , घुड़ले उपर वास |
सैल अणी स्यूं सैकतो, बाटी दुर्गादास || ""

आज एक ऐसे राष्ट्रनायक की जयंती है जिसने मारवाड़, मेवाड़, जयपुर को ही नहीं बल्कि सुदूर दक्षिण की मराठा शक्ति को राष्ट्र के साझा शत्रु के सामने संयुक्त रूप से खड़ा कर भारत के एक राष्ट्र होने के भाव को पुष्ट किया।

आज ऐसे राष्ट्र नायक की जयंती है जिसका जीवन भारत राष्ट्र की राष्ट्रीयता (भारतीयता) का जीवंत प्रतीक था। उनमें भगवान राम जैसा त्याग और मर्यादाओं के प्रति लगाव था तो भगवान कृष्ण जैसा राजनीतिक चातुर्य था। अपने लक्ष्य के प्रति उनमें ध्रुव और प्रहलाद जैसी एक निष्ठता थी तो हनुमान जी जैसी तेल और सिंदुर में ही प्रसन्न रहने की अकिंचनता थी। प्रताप जैसा तेज था तो शिवाजी जैसा शौर्य था। हमीर जैसी शरणागतवत्सला थी तो पाबूजी और तेजाजी जैसा वचनपालन था। 

यदि हमें देश के सभी राष्ट्रनायकों के एक साथ किसी एक व्यक्तित्व में दर्शन करने हों तो हमें दुर्गादास जी को देखना चाहिए। 

ऐसे महान दुर्गा बाबा को उनकी  जयंती पर सादर नमन।

दुरगादास रौ सुजस

दुरगादास रौ सुजस 

कमधज कुल़ री कीरती,मारवाड़ सिरमोड़।।
अनमी   सेवक  ऊजल़ौ, दुरगदास राठौड़।।(१)

आसकरण सुत ओल़खै,जसवंतें जोधांण।।
सैनिक  राख्यौ सूरमों,दुरगदास  कर तांण।।(२)

अरक ताप अत आकरौ,जसवंत करै छांव।।
मान  राखियौ  मौकल़ौ,दुरगे  तणो  उमाव।।(३)

धवल़ मना सामी धरम,धरणी धरियौ धीर।। 
अवल असूलीआदमी, दुरगो कमधज वीर।।(४)

अंगरकसक  अजीत रौ,छतर बणै की छांव।।
हरपल  सह  रह हेत सूं, दुरगे  खेल्या  दांव।।(५)

लेस न रहियौ लालची, स्याम धरम सूं नेह।।
जोधांणै  रख   जाबतौ,दुरगे   सहियौ   देह।।(६)

काचा  राजा  कान रा,दुरग छुड़ायौ देस।।
भूल करी हद भूपती,तन मन लाए  तेस।।(७)

हड़ूमान ज्यूं हालियौ,रजवट पाल़ै रीत।।
दुरगै साथै देखतां,ओछी करी अजीत।।(८)

सूरज चांद  गगन सदा,धर दुरगे  रौ  नाम।।
वीर सिरोमणी वसुधा,सेवक धरमी स्याम।।(९)

कमधज कीरत कारणै,कुल़भूसण  करणोत।।
दुरगे  री  दरियादिली, जस री जगमग जोत।।(१०)

छिपरा  तट  रै   छेवटै, दुरगे   त्यागी   देह।।
दो गज जमी न दे सकै, छुछकै कीधौ छेह।।(११)

राठौड़ी राखी रिदै,भुजबल़ सूं  भरपूर।।
कीरत दुरगादास री,दसां  दिसावां दूर।।(१२)

अंतस रौ नीत ऊजल़ौ,आसकरण री आस।।
कमधज  कुल़  रौ  केहरी,धरमी  दुरगदास।।(१३)

सामधरम पाल़ै सदा,अनमी राखी  आंण।।
सूरवीर  दुरगो  सही, धरा   प्रीत जोधांण।।(१४)

सफीयतुनिसा  सहज सै,ओल़खती आवाज।।
दुरगदास  नह  देखियौ, सरणागत  सरताज।।(१५)

मुकनदास  खींची  मिलै,दिल्ली  रै  दरबार।।
अवल अजीत उठावियौ,दुरगदास सिरदार।।(१६)

फैली  सुवास  फूठरी, कीरत   हंदा  काज।।
दुरगो छिपरा दागियौ,रल़पट मिनखां राज।।(१७)

ओरंग आंख औजका,दुरगो सिंघ दहाड़।।
दरबारी धूजै दरस,हरवल  खड़ौ  पहाड़।।(१८)

कमधज रण में काटकै,घणो कियौ घमसांण।।
मुंड  काटिया   मौकल़ा, सूरै   दुरग  सुजांण।।(१९)

चरित दुरग रै चांदणै,रजपूती रखवाल़।।
पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़ै,खासौ राख खयाल।।(२०)

दुरगे रिपुदल़ दाटिया,हित स्वामी हरमेस।।
संघर्षरत रयौ सदा, परम    रूप  परमेस।।(२१)

सत सत नमन सिरोमणी,वाल्हो वसुधा वीर।।
दुरगे सम  नह  देखियौ,सटकातौ   समसीर।।(२२)

अमर हुवौ इल़ ऊपरै, जस   फैल्यौ पुरजोर।।
कमधज कीरत कारणै, गरब फिरां चहुँओर।।(२३)

रिदै मरठ हद राखतौ,प्रण पाल़्या प्रयास।।
इल़ होयौ नह ऐहड़ौ,जिसड़ौ  दुरगादास।।(२४)

चउदस  सांवण  चांदणी,दरसण दुरगादास।।
आसकरण रै आंगणै,असल खुसी उल्लास।।(२५)

माँगू सिंह बिशाला

मंगलवार, 12 जनवरी 2021

मारवाड़ के राणा प्रताप वीर चंद्रसेन

मारवाड़ के राणा प्रताप वीर चंद्रसेन
'मारवाड़ के राणा प्रताप' स्वाभिमानी योद्धा राव चंद्रसेन जी राठौड़ की 440वीं पुण्यतिथि पर शत शत नमन.....

राजपूताने का दुर्भाग्य रहा है कि महाराणा सांगा, महाराणा राजसिंह जी, राव चंद्रसेन जी जैसे महावीरों को विश्वासघातियों ने उस समय ज़हर दिया, जब वे मुग़लिय सत्ता से संघर्ष की चरम सीमा पर थे

राव चन्द्रसेन का जन्म 30 जुलाई, 1541 ई. को हुआ था। राव चन्द्रसेन के पिता का नाम राव मालदेव था। राव चन्द्रसेन जोधपुर, राजस्थान के राव मालदेव के छठे पुत्र थे। लेकिन फिर भी उन्हें मारवाड़ राज्य की सिवाना जागीर दे दी गयी थी, पर राव मालदेव ने उन्हें ही अपना उत्तराधिकारी चुना था। राव मालदेव की मृत्यु के बाद राव चन्द्रसेन सिवाना से जोधपुर आये 1619 को जोधपुर की राजगद्दी पर बैठे।

चन्द्रसेन के जोधपुर की गद्दी पर बैठते ही उनके बड़े भाइयों राम और उदयसिंह ने राजगद्दी के लिए विद्रोह कर दिया। राम को चन्द्रसेन ने सैनिक कार्यवाही कर मेवाड़ के पहाड़ों में भगा दिया और उदयसिंह, जो उसके सहोदर थे, को फलौदी की जागीर देकर संतुष्ट कर दिया। राम ने अकबर से सहायता ली। अकबर की सेना मुग़ल सेनापति हुसैन कुली ख़ाँ के नेतृत्व में राम की सहायता के लिए जोधपुर पहुंची और जोधपुर के क़िले मेहरानगढ़ को घेर लिया। आठ महीनों के संघर्ष के बाद राव चन्द्रसेन ने जोधपुर का क़िला ख़ाली कर दिया और अपने सहयोगियों के साथ भाद्राजूण चले गए और यहीं से अपने राज्य मारवाड़ पर नौ वर्ष तक शासन किया। भाद्राजूण के बाद वह सिवाना आ गए।

1627 को बादशाह अकबर जियारत करने अजमेर गए वहां से वह नागौर चले गए , जहाँ सभी राजपूत राजा उससे मिलने पहुंचे। राव चन्द्रसेन भी नागौर पहुंचा, पर वह अकबर की फूट डालो नीति देखकर वापस लौट आया। उस वक्त उसका सहोदर उदयसिंह भी वहां उपस्थित था, जिसे अकबर ने जोधपुर के शासक के तौर पर मान्यता दे दी। कुछ समय बाद मुग़ल सेना ने भाद्राजूण पर आक्रमण कर दिया, पर राव चन्द्रसेन वहां से सिवाना के लिए निकल गए। सिवाना से ही राव चन्द्रसेन ने मुग़ल क्षेत्रों, अजमेर, जैतारण, जोधपुर आदि पर छापामार हमले शुरू कर दिए। राव चन्द्रसेन ने दुर्ग में रहकर रक्षात्मक युद्ध करने के बजाय पहाड़ों में जाकर छापामार युद्ध प्रणाली अपनाई। अपने कुछ विश्वास पात्र साथियों को क़िले में छोड़कर खुद पिपलोद के पहाड़ों में चले गए और वहीं से मुग़ल सेना पर आक्रमण करके उनकी रसद सामग्री आदि को लूट लेते। बादशाह अकबर ने उनके विरुद्ध कई बार बड़ी सेनाएं भेजीं, पर अपनी छापामार युद्ध नीति के बल पर राव चन्द्रसेन अपने थोड़े से सैनिको के दम पर ही मुग़ल सेना पर भारी रहे।

संवत 1632 में सिवाना पर मुग़ल सेना के आधिपत्य के बाद राव चन्द्रसेन मेवाड़, सिरोही, डूंगरपुर और बांसवाड़ा आदि स्थानों पर रहने लगे। कुछ समय  के बाद वे फिर शक्ति संचय कर मारवाड़ आए और संवत 1636 श्रावण में सोजत पर अधिकार कर लिया। उसके बाद अपने जीवन के अंतिम वर्षों में राव चन्द्रसेन ने सिवाना पर भी फिर से अधिकार कर लिया था। अकबर उदयसिंह के पक्ष में था, फिर भी उदयसिंह राव चन्द्रसेन के रहते जोधपुर का राजा बनने के बावजूद भी मारवाड़ का एकछत्र शासक नहीं बन सका। अकबर ने बहुत कोशिश की कि राव चन्द्रसेन उसकी अधीनता स्वीकार कर ले, पर स्वतंत्र प्रवृत्ति वाला राव चन्द्रसेन अकबर के मुकाबले कम साधन होने के बावजूद अपने जीवन में अकबर के आगे झुके नहीं और विद्रोह जारी रखा।

11 जनवरी, 1581 (विक्रम संवत 1637 माघ सुदी सप्तमी) को मारवाड़ के महान् स्वतंत्रता सेनानी का सारण सिचियाई के पहाड़ों में 39 वर्ष की अल्पायु में उनका स्वर्गवास हो गया