गुरुवार, 21 मई 2020

बेला और कल्याणी

बेला और कल्याणी

"बेला" पृथ्वीराज चौहान की पुत्री थी और "कल्याणी" जयचंद की पौत्री. जैसा कि हम सभी जानते ही है कि - अजमेर के राजा प्रथ्वीराज चौहान और कन्नौज के राजा जयचन्द आपस में रिश्तेदार (मौसेरे भाई) थे. उनके नाना दिल्ली के राजा अनंगपाल ने दिल्ली का राज प्रथ्वीराज को सौंप दिया था इस बजह से जयचंद प्रथ्वीराज से ईर्ष्या करता था.

इसके अलावा जयचन्द की पत्नी की भतीजी संयोगिता (जिसे जयचन्द अपनी बेटी की तरह स्नेह करता था) का प्रथ्वीराज से प्रेम हो जाने और प्रथ्वीराज द्वारा संयोगिता का हरण कर ले जाने के कारण यह ईर्ष्या दुश्मनी में बदल गई थी. इन कारणों से जयचन्द किसी भी तरह से प्रथ्वीराज चौहान को समाप्त करना चाहता था.

उन दिनों में अफगान लुटेरा मोहम्मद शहाबुद्दीन गौरी ने भारत पर आक्रमण किया था जिसमे प्रथ्वीराज चौहान की सेना के साथ सभी भारतीय हिन्दू राजाओं ने साथ दिया था. इस लड़ाई में मोहम्मद गौरी को बंदी बना लिया गया था तब वह कुरआन की कसम खाकर माफी मांग कर अपनी जान बचाकर वापस गया था.

गौरी का एक आदमी (मोइनुद्दीन चिश्ती) जो तंत्र मन्त्र में माहिर था वह अजमेर में रह कर संत की तरह एक मंदिर के बाहर बैठकर जासूसी का काम करेने लगा. जब उसको प्रथ्वीराज और जयचंद की दुश्मनी का पता चला तो उसने जयचन्द को समझाया कि - अगर तुम गौरी का साथ दो तो तुमको दिल्ली की सत्ता मिल सकती है.

जयचन्द उसकी बातों में आ गया क्योंकि तब तक जितने भी इस्लामी हम्लाबर भारत में आये थे वे केवल लूटमार करके वापस चले गए थे कोई भी भारत में राज करने के लिए नहीं रुका था. गौरी के फिर भारत पर हमले के समय जयचन्द ने न केवल गौरी का साथ दिया बल्कि अपने मित्र राजाओं को भी प्रथ्वीराज का साथ देने से रोका.

उस लड़ाई में प्रथ्वीराज की हार हुई और गौरी प्रथ्वीराज को बंदी बनाकर अपने साथ अफगानिस्तान ले गया. जयचंद को लगता था कि उसे अब दिल्ली का राजा बनाया जाएगा उस जयचंद के मोहम्मद गौरी से जीत का ईनाम मांगने पर उसकी यह कहकर गरदन काट दी गई कि - जो अपनों का नहीं हुआ वह हमारा क्या होगा.

जिस संयोगिता के हरण को जयचन्द ने अपनी इज्ज़त का प्रश्न बनाया था उस संयोगिता को चिश्ती के कहने पर पूर्ण नग्न करके सैनिको के सामने फेंक दिया गया था. गौरी ने भारत की सत्ता अपने गुलाम कुतुबुद्दीन और बख्तियार खिलजी को सौंप दी और प्रथ्वीराज को बंदी बनाकर अफगानिस्तान ले गया. साथ में भरत की हजारों महिलाओं को भी ले गया.

उन स्त्रीयों में प्रथ्वीराज की चचेरी बहन  "बेला" और जयचन्द की पौत्री "कल्याणी" भी थी. मोहम्मद गौरी ने अपनी जीत के तोहफे के रूप में बेला और कल्याणी को गजनी के सर्वोच्च काजी निजामुल्क को देने का ऐलान कर दिया. इस घटना पर बने एक नाटक में बोले गए गौरी और काजी निजामुल्क के संवाद को भी यहाँ लिखना प्रासंगिक समझता हूँ.

गौरी ने काजी निजामुल्क से कहा - ‘‘काजी साहब! मैं हिन्दुस्तान से सत्तर करोड़ दिरहम मूल्य के सोने के सिक्के, पचास लाख चार सौ मन सोना और चांदी, इसके अतिरिक्त मूल्यवान आभूषणों, मोतियों, हीरा, पन्ना, जरीदार वस्त्रा और ढाके की मल-मल की लूट-खसोट कर भारत से गजनी की सेवा में लाया हूं’’

इस पर गौरी की तारीफ करते हुए काजी ने पूछा - ‘‘बहुत अच्छा! लेकिन वहां के लोगों को कुछ दीन-ईमान का पाठ पढ़ाया कि नहीं?’’

गौरी ने कहा - ‘‘बहुत से लोग इस्लाम में दीक्षित हो गए हैं’’ कुतुबुद्दीन, बख्तियार और चिश्ती वहीँ है और वे बुतपरस्ती को ख़त्म करने और इस्लाम का प्रचार करने में लगे हुए हैं

‘‘और वहां से लाये गए दासों और दासियों का क्या किया?’’

दासों को गुलाम बनाकर गजनी लाया गया है. अब तो गजनी में बंदियों की सार्वजनिक बिक्री की जा रही है. रौननाहर, इराक, खुरासान आदि देशों के व्यापारी गजनी से गुलामों को खरीदकर ले जा रहे हैं. एक-एक गुलाम दो-दो या तीन-तीन दिरहम में बिक रहा है.’’

‘‘हिन्दुस्तान के मंदिरों का क्या किया?’’

‘‘मंदिरों को लूटकर 17000 हजार सोने और चांदी की मूर्तियां लायी गयी हैं, दो हजार से अधिक कीमती पत्थरों की मूर्तियां और शिवलिंग भी लाए गये हैं और बहुत से पूजा स्थलों को नेप्था और आग से जलाकर जमीदोज कर दिया गया है।’’

‘‘वाह! अल्हा मेहरबान तो गौरी पहलवान’’ फिर मंद-मंद मुस्कान के साथ बड़बड़ाए, ‘‘गौरे और काले, धनी और निर्धन गुलाम बनने के प्रसंग में सभी भारतीय एक हो गये हैं जो भारत में प्रतिष्ठित समझे जाते थे, आज वे गजनी में मामूली दुकानदारों के गुलाम बने हुए हैं’’ फिर थोड़ा रुककर कहा, ‘‘लेकिन हमारे लिए कोई खास तोहफा लाए हो या नहीं?’’

‘‘लाया हूं ना काजी साहब!’’

‘‘क्या?’’

‘‘जन्नत की हूरों से भी सुंदर जयचंद की पौत्री कल्याणी और पृथ्वीराज चौहान की पुत्री बेला’’

‘‘तो फिर देर किस बात की है।’’

‘‘बस आपके इशारे भर की’’

और काजी की इजाजत पाते ही शाहबुद्दीन गौरी ने कल्याणी और बेला को काजी के हरम में पहुंचा दिया. कल्याणी और बेला की अद्भुत सुंदरता को देखकर काजी अचम्भे में आ गया, उसे लगा कि स्वर्ग से अप्सराएं आ गयी हैं. उसने दोनों राजकुमारियों (बेला और कल्याणी) से इस्लाम कबूलने और उससे निकाह करने का प्रस्ताव रखा.

बेला और कल्याणी भी समझ चुकी थी कि - अब बचना असंभव है इसलिए उन्होंने एक खतरनाक चाल चली. बेला ने काजी से कहा -‘‘काजी साहब! आपकी बेगमें बनना तो हमारी खुशकिस्मती होगी, लेकिन हमारी दो शर्तें हैं’’

‘‘कहो..कहो.. क्या शर्तें हैं तुम्हारी! तुम जैसी हूरों के लिए तो मैं कोई भी शर्त मानने के लिए तैयार हूं।

‘‘पहली शर्त से तो यह है कि शादी होने तक हमें अपवित्र न किया जाए और दुसरी शर्त है कि - हमारी परम्परा के अनुसार दूल्हा और दुल्हन का जोड़ा हमारी पसंद का और भारत से मंगबाया जाए. इस पर काजी ने खुश होकर कहा - ‘‘मुझे तुम्हारी दोनों शर्तें मंजूर हैं’’

फिर बेला और कल्याणी ने कविचंद के नाम एक रहस्यमयी खत लिखकर भारत भूमि से शादी का जोड़ा मंगवा लिया. काजी के साथ उनके निकाह का दिन निश्चित हो गया. रहमत झील के किनारे बनाये गए नए महल में विवाह की तैयारी शुरू हुई कवि चंद द्वारा भेजे गये कपड़े पहनकर काजी साहब विवाह मंडप में आए.

कल्याणी, बेला और काजी ने भी भारत से आये हुए कपड़े पहन रखे थे. शादी को देखने के लिए बाहर जनता की भीड़ इकट्ठी हो गयी थी. तभी बेला ने काजी साहब से कहा-‘‘हमारे होने वाले सरताज! हम कलमा और निकाह पढ़ने से पहले जनता को झरोखे से दर्शन देना चाहती हैं, क्योंकि विवाह से पहले जनता को दर्शन देने की हमारे यहां प्रथा है

और फिर गजनी वालों को भी तो पता चले कि आप बुढ़ापे में जन्नत की सबसे सुंदर हूरों से शादी रचा रहे हैं. शादी के बाद तो हमें जीवनभर बुरका पहनना ही है, तब हमारी सुंदरता का होना न के बराबर ही होगा. नकाब में छिपी हुई सुंदरता भला तब किस काम की।’’

‘‘हां..हां..क्यों नहीं’’ काजी ने उत्तर दिया और कल्याणी और बेला के साथ राजमहल के कंगूरे पर गया, लेकिन वहां पहुंचते-पहुंचते ही काजी साहब के दाहिने कंधे से आग की लपटें निकलने लगी, क्योंकि क्योंकि कविचंद ने बेला और कल्याणी का रहस्यमयी पत्र समझकर बड़े तीक्ष्ण विष में सने हुए कपड़े भेजे थे.

काजी साहब विष की ज्वाला से पागलों की तरह इधर-उधर भागने लगा, तब बेला ने उससे कहा-‘‘तुमने ही गौरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए उकसाया था ना, हमने तुझे मारने का षड्यंत्र रचकर अपने देश को लूटने का बदला ले लिया है. हम हिन्दू कुमारियां हैं समझे, किसमें इतना साहस है जो जीते जी हमारे शरीर को हाथ भी लगा दे’’

कल्याणी ने कहा, ‘‘नालायक! बहुत मजहबी बनते हो, अपने धर्म को शांतिप्रिय धर्म बताते हो और करते हो क्या? जेहाद का ढोल पीटने के नाम पर लोगों को लूटते हो और शांति से रहने वाले लोगों पर जुल्म ढाहते हो, थू! धिक्कार है तुम पर.’’

इतना कहकर दोनों राजकुमारियों ने महल की छत के किनारे खड़ी होकर एक-दूसरी की छाती में विष बुझी कटार जोर से भोंक दी और उनके प्राणहीन देह उस उंची छत से नीचे लुढ़क गये. पागलों की तरह इधर-उधर भागता हुआ काजी भी तड़प-तड़प कर मर गया.

भारत की इन दोनों बहादुर बेटियों ने विदेशी धरती पर पराधीन रहते हुए भी बलिदान की जिस गाथा का निर्माण किया, वह सराहने योग्य है आज सारा भारत इन बेटियों के बलिदान को श्रद्धा के साथ याद करता है. यह कहानी स्कूली इतिहास की किताबों में नहीं मिलेगी लेकिन यह बहुत मशहूर लोककथा है जिसपर मेलों में अक्सर नाटक खेला जाता है.

मंगलवार, 19 मई 2020

सपूत कै सो पीढ़ी

सपूत कै सो पीढ़ी  -
एक पैंतालिसा का भोजराजजिका शेखावत ठाकुर अपने ऊंट पर चढ़ा खेतड़ी के पास से गुजर रहा था सो सोचा चलो राजाजी से मिलते हुए निकल जाते हैं। इस समय अजित सिंह जी खेतड़ी के राजा  थे अपने जमाने के वे बहुत ही ख्यातिनामा राजा हुए हैं। खेतड़ी ,नवलगढ़ ,मंडावा ,बिसाऊ ,अलसीसर ,मुकन्दगढ़ ये सभी भी भोजराजजिके शेखावत ही हैं। शार्दुल सिंघजी के झुंझुनू लेने से इनकी जागीर बड़ी हो गयी। किन्तु पग में छोटे  होने से ये सभी पैंतालिसा वाले ठाकुरों को दादाजी कहते थे। 
सो इन ठाकुर साहब  ने गढ़ में जाकर ऊंट तो बाँध दिया व वहां खड़े चोकीदार को कहा की राजा जी को अर्ज कर कि आपके दादाजी मिलने आये हैं। राजा जी शायद दादाजी शब्द से थोड़ी चिड गये थे  सो चोकीदार को बोले की उन से पूछ की "भोजराज जी से कुण सी पीढ़ी में लागो हो " -उस ज़माने के लोग बात बिना लाग लपेट के व सीधी करते थे। सो इन ठाकुर साहेब ने उतर भिजवाया की " सपूत कै तो सो पीढ़ी लागां अर कपूत कै एक ही पीढ़ी कोनी लागां  _ " कहते हैं राजा जी ने उन को उपर बुलाने की जगह खुद ही  मिलने को नीचे आगये।

मदनसिंह शेखावत झांझड की पोस्ट

शुक्रवार, 15 मई 2020

राजवंशों की कुलदेवियाँ

 तँवर / तोमर वंश   

तोमर गोत्र का ही अपभ्रश तंवर है इतिहासकारों ने दिल्ली के तोमर राजाओ के लिए कही पर तोमर तो कही पर तंवर शब्द का उपयोग किया है तोमरो का दिल्ली पर शासन था उनकी शान में यह कहावत प्रचलित थी की जद कद दिल्ली तंवरा तोमरा तोमर जाट गोत्र उत्तर प्रदेश ,हरियाणा , पंजाब , राजस्थान , मध्य प्रदेश दिल्लीमें निवास करते है ।

 ✈️तँवर वंश - कुलदेवी - 

चिलाय माता की तंवर वंश
कुलदेवी के रूप में पूजा आराधना करता है। इतिहास में तंवरों की कुलदेवी के अनेक नाम मिलते हैं जैसे चिलाय माता, जोग माया (योग माया), योगेश्वरी (जोगेश्वरी), सरूण्ड माता, मनसादेवी आदि।

दिल्ली के इतिहास में तंवरो की कुलदेवी का नाम योगमाया मिलता है। तंवरों के पुर्वज पांडवों ने भगवान कृष्ण की बहन को कुलदेवी मानकर इन्द्रप्रस्थ में कुलदेवी का मंदिर बनवाया और उसी स्थान पर दिल्ली के संस्थापक राजा अनंगपाल प्रथम ने पुनः योगमाया के मंदिर का निर्माण करवाया। इसी मंदिर के कारण तंवरों की राजधानी को योगिनीपुर भी कहा गया, जो महरौली के पास स्थित है। यह इतिहास ग्रंथो व भारतीय पुरातत्व विभाग से पुष्ट है। तोमरों की अन्य शाखा और ग्वालियर के इतिहास में तंवरो की कुलदेवी का नाम योगेश्वरी ओर जोगेश्वरी भी मिलता है। ऐसा माना जाता है कि योगमाया (जोग माया) को ही बाद में योगेश्वरी, जोगेश्वरी के नाम से पुकारा जाने लगा।

राजस्थान में तोरावाटी -  (तंवरावाटी) के नाम से नव स्थापित तंवर राज्य के तंवर कुलदेवी के रूप में सरूण्ड माता को पुजते है। पाटन के इतिहास मे पाटन के राजा राव भोपाजी तंवर द्वारा कोटपुतली के पास कुलदेवी का मंदिर बनवाने का विवरण मिलता है। जहाँ पहले अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने योगमाया का मंदिर बनाया था। यह मंदिर अरावली श्रंखला की पहाड़ी पर स्थित है। मंदिर परिसर में उपलब्ध शिलालेख के आधार पर 650 फुट ऊँचा मंदिर एक छत्री (चबूतरा) में स्थित है। इस छत्री के चार दरवाजे हैं उसके अन्दर माता की प्रतिमा विराजमान है। छत्री के बाद का मंदिर 7 भवनों वाला है। मंदिर का मुख्य मार्ग दक्षिण में व माता के निज मंदिर का द्वार पश्चिम में है। इस मंदिर में माता की 8 भुजावाला आदमकद स्वरुप प्रतिमा स्थित है। स्तम्भों व दिवारो पर वाम मार्गियों व तांत्रिकों की मूर्तियाँ की मौजुदगी इनका प्रभाव दर्शाती है। मंदिर में माता को पांडवो द्वारा स्थापित करने के साक्ष्य रूप में छत्री स्थित हैं। मंदिर की परिक्रमा में चामुंडा की मूर्ति है जो आज भी सुरापान करती है। मंदिर की छत्री, जो लाल पत्थर की है का वजन लगभग 5 टन का है। मंदिर पीली मिट्टी से बना हुआ है इसके बावजूद बारिश में इसमें कहीं भी पानी नहीं टपकता। मंदिर तक पहुँचने के लिए 282 सीढियाँ है। इनके मध्य में माता की पवन चरण के निशान हैं! यहाँ 52 भैरव व 64 योग्नियां है ! सरुंड देवी की पहाड़ी से सोता नदी बहती है जिसके पास एशिया प्रसिद्ध बावड़ी है जो बिना सीमेन्ट, चूने आदि के बनी हुई है। इसे द्वापर युग में पाण्डवांे द्वारा 2500 चट्टानों से बनाई गई माना जाता है। योगमाया का मंदिर सरूण्ड गांव में स्थित होने से इसे सरूण्ड माता भी बोलते हैं।

तंवरो के बडवा के अनुसार तंवरो
की कुलदेवी चिलाय माता है। जाटू तंवरों ओर बड़वां की बही के अनुसार तंवरो की कुलदेवी ने चिल पक्षी का रूप धारण कर राव धोतजी के पुत्र जयरथ के पुत्र जाटू सिंह की बाल अवस्था में रक्षा की थी जिसके कारण माँ जोगमाया को चिलाय माता कहा जाने लगा और कालांतर में जोगमाया माता को चिलाय माता पुकारा जाने लगा। इतिहासकारांे के अनुसार कुलदेवी का वाहन चिल पक्षी के होने कारण यह चिलाय माता कहलाई। राजस्थान के तंवर चिलाय माता को ही कुलदेवी मानते हैं। लेकिन चिलाय माता के नाम से कोई भी पुराना मंदिर नहीं मिलता। जिससे जाहिर होता है कि जोगमाया का नाम चिलाय माता सिर्फ तंवरावाटी में ही प्रचलित हुआ। चिलाय माता के दो मंदिरों का विवरण मिलता है। जाटू तंवर और पाटन के इतिहास के अनुसार 12 वीं शताब्दी में जाटू तंवरो ने खुडाना में चिलाय माता का मंदिर बनाया था और माता द्वारा मनसा (मनोकामना) पूर्ण करने के कारण उसे मनसादेवी के नाम से पुकारा जाने लगा। एक और चिलाय माता मंदिर का विवरण मिलता है जो पाटन के राजाओं ने गुडगाँव में 14 वीं शताब्दी में बनवाया और ब्राह्मणों को माता की सेवा के लिए नियुक्त किया। लेकिन 17 वीं शताब्दी के बाद पाटन के राजा द्वारा माता के लिए सेवा जानी बन्द हो गयी थी। आज स्थानीय लोग चिलाय माता को शीतला माता समझ कर शीतला माता के रूप में पुजते है।

विभिन्न स्त्रोतों और पांडवो या तंवरो द्वारा बनवाये गये मंदिर से यही प्रतीत होता है कि तोमर (तंवर) की कुलदेवी माँ योगमाया है, जो बाद में योगेश्वरी कहलाई। और योगमाया को ही बाद में विभिन्न कारणों से स्थानीय रूप में योगेश्वरी, जोगमाया, चिलाय माता, सरुंड माता, मनसा माता, शीतला माता आदि के नाम से पुकारा जाने लगा और आराधना की जाने लगी।

तंवर (तोमर) वंश के गोत्र-प्रवरादि - 

वंश                –     चंद्रवंशी
कुल देवी         -        चिल्लाय माता
शाखा             –       मधुनेक,वाजस्नेयी
गोत्र                –        अत्रि, व्यागर, गागर्य
प्रवर                –  गागर्य,कौस्तुभ,माडषय
शिखा              –           दाहिनी
भेरू                –         गौरा
शस्त्र                –         खड़ग
ध्वज                           पंचरगा
पुरोहित                        भिवाल
बारहठ              –        आपत केदार वंशी
ढोली                –      रोहतान जात का
स्थान                –  पाटा मानस सरोवर
कुल वॄक्ष            –         गुल्लर
प्रणाम               –          जयगोपाल
निशान -        कपि(चील),चन्द्रमा
ढोल                 –             भंवर
नगारा             – रणजीत/जय, विजय, अजय
घोड़ा              –                श्वते
निकास          -          हस्तिनापुर
प्रमुख गदी       - इन्द्रप्रस्थ,दिल्ली
रंग                 –          हरा
नाई                –          क़ाला
चमार              –        भारीवाल
शंख                –         पिचारक
नदी               - सरस्वति,तुंगभद्रा
वेद                 –           यजुर्वेद
सवारी             –             रथ
देवता               –            शिव
गुरु                  –             सूर्य
उपाधि             – जावला नरेश.दिल्लीपति

 तंवरों की खांपें

1 जावला तंवर
2 रूणेचा तंवर
3 असिल जी (आसल जी ) के तंवर बत्तीस के आसल जी की खांपें     (3 उपशाखाएँ)
4 परसाराम जी के तंवर
5 किलोड़ जी के तंवर
6 कर्णे जी के तंवर
7 चैबीसी के तंवर जाटू के तंवर ग्वालेरा तंवर      (7 उपशाखाएँ)
8 सोमवाल तंवर
9 सलेरिया या सुणियार तंवर
10 ढमढेरिया या ढढमेर तंवर
11 पन्ना तंवर
12 तुनिहान तंवर
13 राघव तंवर
14 बेवत या भैपा तंवर
15 सापला (सीपल) तंवर
16 सुलेनिया तंवर
17 कलिया तंवर
18 राठौडि़या तंवर
19 जरावता तंवर
20 इन्दोलिया तंवर
21 इन्दा तंवर

चैबीसी के तंवर जाटू के तंवर ग्वालेरा तंवर  7 उपशाखाएँ
1 मोरी तंवर
2 मोटन तंवर
3 जंधारा तंवर
4 सतरावला तंवर
5 कौढ़याणा तंवर
6 बौडाणा तंवर
7 निहाल तंवर

असिल जी (आसल जी ) के तंवर बत्तीस के आसल जी की खांपें  3 उपशाखाएँ -
1 आसल जी के तंवर
2 उदो जी के तंवर
3 किलोर जी के तंवर बाईसा के तंवर

✈️ चन्द्रवंशी तंवर(तोमर)राजपूतो का इतिहास - 

तोमर या तंवर उत्तर-पश्चिम भारत का एक राजपूत वंश है। तोमर राजपूत क्षत्रियो में चन्द्रवंश की एक शाखा है और इन्हें पाण्डु पुत्र अर्जुन का वंशज माना जाता है.इनका गोत्र अत्री एवं व्याघ्रपद अथवा गार्गेय्य होता है। क्षत्रिय वंश भास्कर,पृथ्वीराज
रासो,बीकानेर वंशावली में भी यह वंश चन्द्रवंशी लिखा हुआ है,यही नहीं कर्नल जेम्स टॉड जैसे विदेशी इतिहासकार भी तंवर वंश को पांडव वंश ही मानते हैं. उत्तर मध्य काल में ये वंश बहुत ताकतवर वंश था और उत्तर पश्चिमी भारत के बड़े हिस्से पर इनका शाशन था। देहली जिसका प्राचीन नाम ढिल्लिका था, इस वंश की राजधानी थी और उसकी स्थापना का श्रेय इसी वंश को जाता है।तंवर अथवा तोमर वंश के नामकरण की कई मान्यताएं प्रचलित हैं,कुछ विद्वानों का मानना है कि राजा तुंगपाल के नाम पर तंवर वंश का नाम पड़ा,पर सर्वाधिक उपयुक्त मान्यता ये प्रतीत होती है "पांडव वंशी अर्जुन ने नागवंशी क्षत्रियो को अपना दुश्मन बना लिया था,नागवंशी क्षत्रियो ने पांड्वो को मारने का प्रण ले लिया था,पर पांडवो के राजवैध धन्वन्तरी के होते हुए वे पांड्वो का कुछ न बिगाड़ पाए !अतः उन्होंने धन्वन्तरी को मार डाला !इसके बाद अभिमन्यु पुत्र परीक्षित को मार डाला !परीक्षित के बाद उसका पुत्र जन्मेजय राजा बना !अपने पिता का बदला लेने के लिए जन्मेजय ने नागवंश के नो कुल समाप्त कर दिए !नागवंश को समाप्त होता देख उनके गुरु आस्तिक जो की जत्कारू के पुत्र थे,जन्मेजय के दरबार मैं गए व् सुझाव दिया की किसी वंश को समूल नष्ट नहीं किया जाना चाहिए व सुझाव दिया की इस हेतु आप यज्ञ करे !महाराज जन्मेजय के पुरोहित कवष के पुत्र तुर इस यज्ञ के अध्यक्ष बने !इस यग्य में जन्मेजय के पुत्र,पोत्र अदि दीक्षित हुए !क्योकि इन सभी को तुर ने दीक्षित किया था इस कारण ये पांडव तुर,तोंर या बाद तांवर तंवर या तोमर कहलाने लगे !ऋषि तुर द्वारा इस यज्ञ का वर्णन पुराणों में भी मिलता है.।

 महाभारत काल के बाद तंवर वंश का वर्णन -  महाभारत काल के बाद पांडव वंश का वर्णन पहले तो 1000 ईसा पूर्व के ग्रंथो में आता है जब हस्तिनापुर राज्य को युधिष्ठर वंश बताया गया,पर इसके बाद से लेकर
बौद्धकाल,मौर्य युग से लेकर गुप्तकाल तक इस वंश के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती । समुद्रगुप्त के शिलालेख से पता चलता है कि उन्होंने मध्य और पश्चिम भारत की यौधेय और अर्जुनायन क्षत्रियों को अपने अधीन किया था। यौधेय वंश युधिष्ठर का वंश माना जा सकता है और इसके वंशज आज भी चन्द्रवंशी जोहिया राजपूत कहलाते हैं जो अब अधिकतर मुसलमान हो गए हैं,इन्ही के आसपास रहने वाले अर्जुनायन को अर्जुन का वंशज माना जा सकता है और ये उसी क्षेत्रो में पाए जाते थे जहाँ आज भी तंवरावाटी और तंवरघार है,यानि पांडव वंश ही उस समय तक अर्जुनायन के नाम से जाना जाता था और कुछ समय बाद वही वंश अपने पुरोहित ऋषि तुर द्वारा यज्ञ में दीक्षित होने पर तुंवर, तंवर,तूर,या तोमर के नाम से जाना गया.(इतिहासकार महेन्द्र सिंह तंवर खेतासर भी अर्जुनायन को ही तंवर वंश मानते हैं) ।

तंवर वंश और दिल्ली की स्थापना -  ईश्वर का चमत्कार देखिये कि हजारो साल बाद पांडव वंश को पुन इन्द्रप्रस्थ को बसाने का मौका मिला,और ये श्रेय मिला अनंगपाल तोमर प्रथम को. दिल्ली के तोमर शासको के अधीन दिल्ली के अलावा पंजाब ,हरियाणा,पश्चिमी उत्तर प्रदेश भी था,इनके छोटे राज्य पिहोवा,सूरजकुंड,हांसी,थानेश्वर में होने के भी अभिलेखों में उल्लेख मिलते हैं।इस वंश ने बड़ी वीरता के साथ तुर्कों का सामना किया और कई सदी तक उन्हें अपने क्षेत्र में अतिक्रमण करने नहीं दिया दिल्ली के तंवर(तोमर) शासक (736-1193 ई) तक हुये ।
 1.अनगपाल तोमर प्रथम (736-754 ई)-दिल्ली के संस्थापक राजा थे जिनके अनेक नाम मिलते हैं जैसे बीलनदेव, जाऊल इत्यादि। 
2.राजा वासुदेव (754-773) 3.राजा गंगदेव (773-794) 4.राजा पृथ्वीमल (794-814)-बंगाल के राजा धर्म पाल के साथ युद्ध 
5.जयदेव (814-834) 
6.राजा नरपाल (834-849) 7.राजा उदयपाल (849-875) 8.राजा आपृच्छदेव (875-897) 9.राजा पीपलराजदेव (897-919) 
10.राज रघुपाल (919-940) 11.राजा तिल्हणपाल (940-961) 
12.राजा गोपाल देव (961-979)-इनके समय साम्भर के राजा सिहराज और लवणखेडा के तोमर सामंत सलवण के मध्य युद्ध हुआ जिसमें सलवण मारा गया तथा उसके पश्चात दिल्ली के राजा गोपाल देव ने सिंहराज पर आक्रमण करके उन्हें युद्ध में मारा 13.सुलक्षणपाल तोमर (979-1005)-महमूद गजनवी के साथ युद्ध किया 
14..जयपालदेव (1005-1021)-महमूद गजनवी के साथ युद्ध किया, महमूद ने थानेश्वसर ओर मथुरा को लूटा 15.कुमारपाल (1021-1051) 1021-1051)-मसूद के साथ युद्ध किया और 1038 में हाँसी के गढ का पतन हुआ, पाच वर्ष बाद कुमारपाल ने हासी, थानेश्वसर के साथ साथ कांगडा भी जीत लिया 
16.अनगपाल द्वितीय (1051-1081)-लालकोट का निर्माण करवाया और लोह स्तंभ की स्थापना की, अनंगपाल द्वितीय ने 27 महल और मन्दिर बनवाये थे।दिल्ली सम्राट अनगपाल द्वितीय ने तुर्क इबराहीम को पराजित किया 17.तेजपाल -प्रथम(1081-1105) 18.महिपाल(1105-1130)-महिलापुर बसाया और शिव मंदिर का निर्माण करवाया 19.विजयपाल (1130-1151)-मथुरा में केशवदेव का मंदिर 20.मदनपाल(1151-1167)- मदनपाल अथवा अनंगपाल तृतीय ,मदनपाल ने बीसलदेव के साथ मिलकर तुर्कों के हमलो के विरुद्ध युद्ध किया और उन्हें मार भगाया,मदलपाल तोमर ने विग्रहराज चौहान उर्फ़ बीसलदेव के शोर्य से प्रभावित होकर उससे अनंगपाल ने अपनी दो पुत्रियों की शादी एक कन्नौज के जयचंद के पिता विजयपाल के साथ और दूसरी कमला देवी का विवाह पृथ्वीराज के पिता सोमेशवर चौहान के साथ की,जिससे पृथ्वीराज चौहान का जन्म हुआ,जबकि सबसे और पृथ्वीराज चौहान तो अनंगपाल तोमर का धेवता था, विजयपाल उसका मौसा 
21.पृथ्वीराज तोमर(1167-1189)-अजमेर के राजा सोमेश्वर और पृथ्वीराज चव्हाण इनके समकालीन थे ।

 22.चाहाडपाल/गोविंदराज (1189-1192)-पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर गोरी के साथ युद्ध किया,तराईन दुसरे युद्ध मे मारा गया।पृथ्वीराज रासो के अनुसार तराईन के पहले युद्ध में मौहम्मद गौरी और गोविन्दराज तोमर का आमना सामना हुआ था,जिसमे दोनों घायल हुए थे और गौरी भाग रहा था। भागते हुए गौरी को धीरसिंह पुंडीर ने पकडकर बंदी बना लिया था। जिसे उदारता दिखाते हुए पृथ्वीराज चौहान ने छोड़ दिया। हालाँकि गौरी के मुस्लिम इतिहासकार इस घटना को छिपाते हैं। 
23.तेजपाल द्वितीय (1192-1193 ई)-दिल्ली का अन्तिम तोमर राजा , जिन्होंने स्वतन्त्र 15 दिन तक शासन किया, और कुतुबुद्दीन ने दिल्ली पर आक्रमण कर हमेशा के लिए दिल्ली पर कब्जा कर लिया।

ग्वालियर,चम्बल,ऐसाह गढ़ी का तोमर वंश - दिल्ली छूटने के बाद वीर सिंह तंवर ने चम्बल घाटी के ऐसाह गढ़ी में अपना राज स्थापित किया जो इससे पहले भी अर्जुनायन तंवर वंश के समय से उनके अधिकार में था,बाद में इस वंश ने ग्वालियर पर भी अधिकार कर मध्य भारत में एक बड़े राज्य की स्थापना की ।यह शाखा ग्वालियर स्थापना के कारण ग्वेलेरा कहलाती है ।माना जाता है कि ग्वालियर का विश्वप्रसिद्ध किला भी तोमर शासको ने बनवाया था.यह क्षेत्र आज भी तंवरघार कहा जाता है और इस क्षेत्र में तोमर राजपूतो के 1400 गाँव कहे जाते हैं। वीर सिंह के बाद उद्दरण,वीरम,गणपति,डूंगर सिंह,कीर्तिसिंह,कल्याणमल,और राजा मानसिंह हुए ।राजा मानसिंह तोमर बड़े प्रतापी शासक हुए,उनके दिल्ली के सुल्तानों से निरंतर युद्ध हुए,उनकी नो रानियाँ राजपूत थी । मानसिंह के बाद विक्रमादित्य राजा हुए ।उन्होंने पानीपत की लड़ाई में अपना बलिदान दिया,उनके बाद रामशाह तोमर राजा हुए,उनका राज्य 1567 ईस्वी में अकबर ने जीत लिया।इसके बाद राजा रामशाह तोमर ने मुगलों से कोई संधि नहीं की और अपने परिवार के साथ महाराणा उदयसिंह मेवाड़ के पास आ गए।हल्दीघाटी के युद्ध में राजा रामशाह तोमर ने अपने पुत्र शालिवाहन तोमर के साथ वीरता का असाधारण प्रदर्शन कर अपने परिवारजनों समेत महान बलिदान दिया।उनके बलिदान को आज भी मेवाड़ राजपरिवार द्वारा आदरपूर्वक याद किया जाता है। मालवा में रायसेन में भी तंवर राजपूतो का शासन था ।यहाँ के शासक सिलहदी उर्फ़ शिलादित्य तंवर राणा सांगा के दामाद थे और खानवा के युद्ध में राणा सांगा की और से लडे थे।कुछ इतिहासकार इन पर राणा सांगा से धोखे का भी आरोप लगाते हैं ,पर इसके प्रमाण पुष्ट नही हैं,सिल्ह्दी पर गुजरात के बादशाह बहादुर शाह ने 1532 इसवी में हमला किया।इस हमले में सिलहदी तंवर की पत्नी जो राणा सांगा की पुत्री थी उन्होंने 700 राजपूतानियो और अपने दो छोटे बच्चों के साथ जौहर किया और सिल्हदी तंवर अपने भाई के साथ वीरगति को प्राप्त हुए ।बाद में रायसेन को पूरनमल को दे दिया गया।कुछ वर्षो बाद 1543 इसवी में रायसेन के मुल्लाओ की शिकायत पर शेरशाह सूरी ने इसके राज्य पर हमला किया और पूरणमल की रानियों ने जौहर कर लिया और पूरणमल मारे गये इस प्रकार इस राज्य की समाप्ति हुई ।
 तंवरावाटी और तंवर ठिकाने -  देहली में तोमरो के पतन के बाद तोमर राजपूत विभिन्न दिशाओ में फ़ैल गए। एक शाखा ने उत्तरी राजस्थान के पाटन में जाकर अपना राज स्थापित किया जो की जयपुर राज्य का एक भाग था। ये अब 'तँवरवाटी'(तोरावाटी) कहलाता है और वहाँ तँवरों के ठिकाने हैं। मुख्य ठिकाना पाटण का ही है।एक ठिकाना खेतासर भी है।इनके अलावा पोखरण में भी तंवर राजपूतो के ठिकाने हैं। ।बाबा रामदेव तंवर वंश से ही थे जो बहुत बड़े संत माने जाते हैं।आज भी वो पीर के रूप में पूजे जाते हैं ।मेवाड़ के सलुम्बर में भी तंवर राजपूतो के कई ठिकाने हैं जिनमे बोरज तंवरान एक ठिकाना है ।इसके अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश में बेजा ठिकाना और कोटि जेलदारी,बीकानेर में दाउदसर ठिकाना, मांधोली जागीर,भी तंवर राजपूतो के ठिकाने हैं ।धौलपुर की स्थापना भी तंवर राजपूत धोलनदेव ने की थी। 18 वी सदी के आसपास अंग्रेजो ने जाटों को धौलपुर दे दिया। ये जाट गोहद से सिंधिया द्वारा विस्थापित किये गए थे और पूर्व में इनके पूर्वज राजा मानसिंह तोमर की सेवा में थे और उनके द्वारा ही इन्हें गोहद में बसाया गया था।अब भी धौलपुर में कायस्थपाड़ा तंवर राजपूतो का ठिकाना है।

 तंवरवंश की शाखाएँ  -  तंवर वंश की प्रमुख शाखाएँ - रुनेचा,ग्वेलेरा,बेरुआर,बिल्दारिया,खाति,इन्दोरिया,जाटू,जंघहारा,सोमवाल हैं,इसके अतिरिक्त पठानिया वंश भी पांडव वंश ही माना जाता है,इसका प्रसिद्ध राज्य नूरपुर है,इसमें वजीर राम सिंह पठानिया बहुत प्रसिद्ध यौद्धा हुए हैं.जिन्होंने अंग्रेजो को नाको चने चबवा दिए थे. इन शाखाओं में रूनेचा राजस्थान में,ग्वेलेरा चम्बल क्षेत्र में,बेरुआर यूपी बिहार सीमा पर,बिलदारिया कानपूर उन्नाव के पास,इन्दोरिया मथुरा, बुलन्दशहर,आगरा में मिलते हैं ।मेरठ मुजफरनगर के सोमाल वंश भी पांडव वंश माना जाता है,जाटू तंवर राजपूतो की भिवानी हरियाणा में 1440 गाँव की रियासत थी।इस शाखा के तंवर राजपूत हरियाणा में मिलते हैं।जंघारा राजपूत यूपी के अलीगढ,बदायूं,बरेली शाहजहांपुर आदि जिलो में मिलते हैं,ये बहुत वीर यौद्धा माने जाते हैं इन्होने रुहेले पठानों को कभी चैन से नहीं बैठने दिया,और अहिरो को भगाकर अपना राज स्थापित किया ।

पूर्वी उत्तर प्रदेश का जनवार राजपूत वंश भी पांडववंशी जन्मेजय का वंशज माना जाता है। इस वंश की बलरामपुर समेत कई बड़ी स्टेट पूर्वी यूपी में हैं।

 इनके अतिरिक्त पाकिस्तान में मुस्लिम जंजुआ राजपूत भी पांडव वंशी कहे जाते हैं जंजुआ वंश ही शाही वंश था जिसमे जयपाल,आनंदपाल,जैसे वीर हुए जिन्होंने तुर्क महमूद गजनवी का मुकाबला बड़ी वीरता से किया था ।जंजुआ राजपूत बड़े वीर होते हैं और पाकिस्तान की सेना में इनकी बडी संख्या में भर्ती होती है.इसके अलावा वहां का जर्राल वंश भी खुद को पांडव वंशी मानता है।

 मराठो में भी एक वंश तंवरवंशी है जो तावरे या तावडे कहलाता है ।महादजी सिंधिया का एक सेनापति फाल्किया खुद को बड़े गर्व से तंवर वंशी मानता था ।

 तोमर/तंवर राजपूतो की वर्तमान आबादी -  तोमर राजपूत वंश और इसकी सभी शाखाएँ न सिर्फ भारत बल्कि पाकिस्तान में भी बड़ी संख्या में मिलती है,चम्बल क्षेत्र में ही तोमर राजपूतो के 1400 गाँव हैं,इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पिलखुआ के पास तोमरो के 84 गाँव हैं,भिवानी में 84 गाँव जिनमे बापोड़ा प्रमुख है ।मेरठ में गढ़ रोड पर 12 गाँव जिनमे सिसोली और बढ्ला बड़े गाँव हैं, कुरुक्षेत्र में 12 गाँव,गढ़मुक्तेश्वर में 42 गाँव हैं जिनमे भदस्याना और भैना प्रसिद्ध हैं. बुलन्दशहर में 24 गाँव,खुर्जा के पास 5 गाँव तोमर राजपूतो के हैं,हरियाणा में मेवात के नूह के पास 24 गाँव हैं जिनमे बिघवाली प्रमुख है. ये सिर्फ वेस्ट यूपी और हरियाणा का थोडा सा ही विवरण दिया गया है,इनकी जनसँख्या का,अगर इनकी सभी प्रदेशो और पाकिस्तान में हर शाखाओ की संख्या जोड़ दी जाये तो इनके कुल गाँव की संख्या कम से कम 6000 होगी,चौहान राजपूतो के अलावा राजपूतो में शायद ही कोई वंश होगा जिसकी इतनी बड़ी संख्या हो ।

 जंजुआ राजपूतों की उत्पत्ति व नाम अर्जुन के वंशज राजा जनमेजय से मानी जाती है जिनके ऊपर इनके वंश का नाम पड़ा। जंजुआ वंश तंवर वंश के भाई के रूप में देखा जाता है। जंजुआ राजपूतों के राज्य पूर्वी पाकिस्तान के इलाके में रहे है।

✈️ तँवर  वंश - प्रमुख  शासक , संक्षिप्त इतिहास - 

दक्षिण के राष्ट्रकूट और चालुक्य शासको ने भी अरबो के विरुद्ध संघर्ष में सहायता की,कुछ समय पश्चात् सिंध पुन: सुमरा और सम्मा राजपूतो के नेत्रत्व में स्वाधीन हो गया और अरबों का राज बहुत थोड़े से क्षेत्र पर रह गया ।किसी मुस्लिम इतिहासकार ने लिखा भी है कि “इस्लाम की जोशीली धारा जो हिन्द को डुबाने आई थी वो सिंध के छोटे से इलाके में एक नाले के रूप में बहने लगी,अरबों की सिंध विजय के कई सौ वर्ष बाद भी न तो यहाँ किसी भारतीय ने इस्लाम धर्म अपनाया है न ही यहाँ कोई अरबी भाषा जानता है”अरब तो भारत में सफल नहीं हुए पर मध्य एशिया से तुर्क नामक एक नई शक्ति आई जिसने कुछ समय पूर्व ही बौद्ध धर्म छोडकर इस्लाम धर्म ग्रहण किया था,अल्पतगीन नाम के तुर्क सरदार ने गजनी में राज्य स्थापित किया,फिर उसके दामाद सुबुक्तगीन ने काबुल और जाबुल के हिन्दू शाही जंजुआ राजपूत राजा जयपाल पर हमला किया,
जंजुआ राजपूत वंश भी तोमर वंश की शाखा है और अब अधिकतर पाकिस्तान के पंजाब में मिलते हैं और अब मुस्लिम हैं कुछ थोड़े से हिन्दू जंजुआ राजपूत भारतीय पंजाब में भी मिलते हैं ।उस समय अधिकांश अफगानिस्तान(उपगणस्तान),और समूचे पंजाब पर जंजुआ शाही राजपूतो का शासन था सुबुक्तगीन के बाद उसके पुत्र महमूद गजनवी ने इस्लाम के प्रचार और धन लूटने के उद्देश्य से भारत पर सन 1000 ईस्वी से लेकर 1026 ईस्वी तक कुल 17 हमले किये,जिनमे पंजाब का शाही जंजुआ राजपूत राज्य पूरी तरह समाप्त हो गया और उसने सोमनाथ मन्दिर गुजरात, कन्नौज, मथुरा,कालिंजर,नगरकोट(कटोच),थानेश्वर तक हमले किये और लाखो हिन्दुओं की हत्याएं,बलात धर्मपरिवर्तन,लूटपाट हुई,

ऐसे में दिल्ली के तंवर/तोमर राजपूत वंश ने अन्य राजपूतो के साथ मिलकर इसका सामना करने का निश्चय किया,

दिल्लीपति राजा जयपालदेव तोमर(1005-1021) - गज़नवी वंश के आरंभिक आक्रमणों के समय दिल्ली-थानेश्वर का तोमर वंश पर्याप्त समुन्नत अवस्था में था।महमूद गजनवी ने जब सुना कि थानेश्वर में बहुत से हिन्दू मंदिर हैं और उनमे खूब सारा सोना है तो उन्हें लूटने की लालसा लिए उसने थानेश्वर की और कूच किया ।थानेश्वर के मंदिरों की रक्षा के लिए दिल्ली के राजा जयपालदेव तोमर ने उससे कड़ा संघर्ष किया,किन्तु दुश्मन की अधिक संख्या होने के कारण उसकी हार हुई,तोमरराज ने थानेश्वर को महमूद से बचाने का प्रयत्न भी किया, यद्यपि उसे सफलता न मिली।और महमूद ने थानेश्वर में जमकर रक्तपात और लूटपाट की. ।

दिल्लीपति राजा कुमार देव तोमर(1021-1051) - सन् 1038 ईo (संo १०९५) महमूद के भानजे मसूद ने हांसी पर अधिकार कर लिया। और थानेश्वर को हस्तगत किया। दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी होने लगी। ऐसा प्रतीत होता था कि मुसलमान दिल्ली राज्य की समाप्ति किए बिना चैन न लेंगे।किंतु तोमरों ने साहस से काम लिया।गजनी के सुल्तान को मार भगाने वाले कुमारपाल तोमर ने दुसरे राजपूत राजाओं के साथ मिलकर हांसी और आसपास से मुसलमानों को मार भगाया ।
अब भारत के वीरो ने आगे बढकर पहाड़ो में स्थित कांगड़ा का किला जा घेरा जो तुर्कों के कब्जे में चला गया था,चार माह के घेरे के बाद
नगरकोट(कांगड़ा)का किला जिसे भीमनगर भी कहा जाता है को राजपूत वीरो ने तुर्कों से मुक्त करा लिया और वहां पुन:मंदिरों की स्थापना की ।

लाहौर का घेरा - 

इसके बाद कुमारपाल देव तोमर की सेना ने लाहौर का घेरा डाल दिया,वो भारत से तुर्कों को पूरी तरह बाहर निकालने के लिए कटिबद्ध था.इतिहासकार गांगुली का अनुमान है कि इस अभियान में राजा भोज परमार,कर्ण कलचुरी,राजा अनहिल चौहान ने भी कुमारपाल तोमर की सहायता की थी.किन्तु गजनी से अतिरिक्त सेना आ जाने के कारण यह घेरा सफल नहीं रहा।

नगरकोट कांगड़ा का द्वितीय घेरा(1051 ईस्वी) - गजनी के सुल्तान अब्दुलरशीद ने पंजाब के सूबेदार हाजिब को कांगड़ा का किला दोबारा जीतने का निर्देश दिया,मुसलमानों ने दुर्ग का घेरा डाला और छठे दिन दुर्ग की दीवार टूटी,विकट युद्ध हुआ और इतिहासकार हरिहर दिवेदी के अनुसार कुमारपाल देव तोमर बहादुरी से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ.अब रावी नदी गजनी और भारत के मध्य की सीमा बन गई. ।मुस्लिम इतिहासकार बैहाकी के अनुसार “राजपूतो ने इस युद्ध में प्राणप्रण से युद्ध किया,यह युद्ध उनकी वीरता के अनुरूप था,अंत में पांच सुरंग लगाकर किले की दीवारों को गिराया गया,जिसके बाद हुए युद्ध में तुर्कों की जीत हुई और उनका किले पर अधिकार हो गया ।इस प्रकार हम देखते हैं कि दिल्लीपति कुमारपाल देव तोमर एक महान नायक था उसकी सेना ने न केवल हांसी और थानेश्वर के दुर्ग ही हस्तगत न किए; उसकी वीर वाहिनी ने काँगड़े पर भी अपनी विजयध्वजा कुछ समय के लिये फहरा दी। लाहौर भी तँवरों के हाथों से भाग्यवशात् ही बच गया।

दिल्लीपती राजाअनंगपाल-II ( 1051-1081 ) - उनके समय तुर्क इबराहीम ने हमला किया जिसमें अनगपाल द्वितीय खुद युद्ध लड़ने गये,,,, युद्ध में एक समय आया कि तुर्क इबराहीम ओर अनगपाल कि आमना सामना हो गया। अनंगपाल ने अपनी तलवार से इबराहीम की गर्दन ऊडा दि थी। एक राजा द्वारा किसी तुर्क बादशाह की युद्ध में गर्दन उडाना भी एक महान उपलब्धि है तभी तो अनंगपाल की तलवार पर कई कहावत प्रचलित भी है।तुर्क हमलावर मौहम्मद गौरी के विरुद्ध तराइन के युद्ध में तोमर राजपूतो की वीरता हुई ।

दिल्लीपति राजा चाहाडपाल/गोविंदराज तोमर(1189-1192 ) - गोविन्दराज तोमर पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर तराइन के दोनों युद्धों में लड़ें,पृथ्वीराज रासो के अनुसार तराईन के पहले युद्ध में मौहम्मद गौरी और गोविन्दराज तोमर का आमना सामना हुआ था,जिसमे दोनों घायल हुए थे और गौरी हारकर भाग रहा था। भागते हुए गौरी को धीरसिंह पुंडीर ने पकडकर बंदी बना लिया था। जिसे उदारता दिखाते हुए पृथ्वीराज चौहान ने छोड़ दिया। हालाँकि गौरी के मुस्लिम इतिहासकार इस घटना को छिपाते हैं।पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर गोरी के साथ युद्ध किया,तराईन दुसरे युद्ध मे मारे गए।

तेजपाल द्वितीय (1192-1193 ई) - दिल्ली का अन्तिम तोमर राजा,जिन्होंने स्वतन्त्र 15 दिन तक शासन किया,इन्ही के पास पृथ्वीराज चौहान की रानी(पुंडीर राजा चन्द्र पुंडीर की पुत्री) से उत्पन्न पुत्र रैणसी उर्फ़ रणजीत सिंह था,तेजपाल ने बची हुई सेना की मदद से गौरी का सामना करने की गोपनीय रणनीति बनाई,युद्ध से बची हुई कुछ सेना भी उसके पास आ गई थी।मगर तुर्कों को इसका पता चल गया और कुतुबुद्दीन ने दिल्ली पर आक्रमण कर हमेशा के लिए दिल्ली पर कब्जा कर लिया।इस हमले में रैणसी मारे गए।

इसके बाद भी हांसी में और हरियाणा में अचल ब्रह्म के नेत्रत्व में तुर्कों से युद्ध किया गया,इस युद्ध में मुस्लिम इतिहासकार हसन निजामी किसी जाटवान नाम के व्यक्ति का उल्लेख करता है जिसे आजकल हरियाणा के जाट बताते हैं जबकि वो राजपूत थे और संभवत इस क्षेत्र में आज भी पाए जाने वाले तंवर/तोमर राजपूतो की जाटू शाखा से थे,

इस प्रकार हम देखते हैं कि दिल्ली के तोमर राजवंश ने तुर्कों के विरुद्ध बार बार युद्ध करके महान बलिदान दिए किन्तु खेद का विषय है कि संभवत: कोई तोमर राजपूत भी दिल्लीपति कुमारपाल देव तोमर जैसे वीर नायक के बारे में नहीं जानता होगा जिसने राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए अपने राज्य से आगे बढकर
कांगड़ा,लाहौर तक जाकर तुर्कों को मार लगाई और अपना जीवन धर्मरक्षा के लिए न्योछावर कर दिया ।दिल्ली के तोमर राजवंश की वीरता को समग्र राष्ट्र की और से शत शत नमन।

शिव सिह भुरटिया

बुधवार, 13 मई 2020

कर किरपा किनियाण

कर किरपा किनियाण

कर किरपा किनियाण, अबखी टाळण अवस ही।
देवी मढ़ देसाण,बेगी आजै बिसहथी।।

कर किरपा किनियाण, कोरोना सूं करनला।
होवण दयो न हाण, भारत भू पर भगवती।।

कर किरपा किनियाण, अबखी ने सबखी करो।
तुरंत मेटजे ताण, कोरोना रो करनला।।

कर किरपा किनियाण,आफत मेटो ईसरी।
आई थारी आण,बेगी रखजे बिसहथी।।

कर किरपा किनियाण, अजय करत आराधना।
धरजे माजी ध्यान,निज भगतां पर करनला।।

@अजयसिंह राठौड़ सिकरोड़ी कृत।।

सोमवार, 11 मई 2020

ठाकुर साहब vs चारण

ठा.साब ने चारण साब अर्ज़ कियो .........
"  काचो जीमो प्याजियों 
     पीवो ठंडी राब ।
      लूंवा चांले मौकली
         आपै लैसी ढाब ।।

        ठा. साब रो जवाब आयो
----------------------------------------
म्है जीमू खरगोशियो 
   ऊपरां पीवूं जिन्न ।
     आप अरोगो राबड़ी
         दोरां काटो दिन .....
            

बुधवार, 6 मई 2020

ऊभी आई हूं अर आडी निकल़ूंली

ऊभी आई हूं अर आडी निकल़ूंली-

नांणो बैड़ा ठिकांणै रो एक गांम हो। बैड़ा मारवाड़ में राणावत सिसोदियां रो ठिकाणो हो। उठै रा तत्कालीन ठाकुर रो आपरी छोटी ठुकराणी माथै लाड घणो हो। उण ठकुराणी रो ठाकुर थूक ई नीं उलांघता। जोग सूं ठाकुर बीमार पड़्या तो ठकुराणी नै चिंता हुई कै ठाकुर तो पाटवी बेटो बणसी अर उवो मोटोड़ी रो है। जणै उण ठकुराणी ठाकुर रै मांचै री ईस कनै बैठ निसासो न्हाखियो।

ठकुराणी नै निसासो न्हाखतां देख ठाकुरां कह्यो कै-- "आयो है सो तो जावसी। कोई बेगो तो कोई मोड़ो, जावणो ई है। इणमें निसासो न्हाखण री कांई जरूरत?"
जणै ठकुराणी कह्यो कै- "हुकम! आपरै सौ वरस कर्यां, हूं अर म्हारो जायो लोगां रा मातेत हुय जासां। उणां री इच्छा माथै जीवणो दुभर हुय जासी। सो म्हारै छोरै सारू ई, कठै न्यारी पगरखी खोलण री जागा आपरै रैतां-रैतां हुय जावै तो म्हारै नहचो हुवै।"

बात ठाकुरां रै हियै बैठगी। उणां आपरै मोटै कुंवर नै बुलाय कह्यो -
"बेटा! आपांरै कुळ मं अर जात मं ऐड़ा-ऐड़ा नर हुयग्या जिकां बाप री इच्छा रै सनमान सारू राज, देस तक छोड दिया। सो म्हारी इच्छा है, कै तूं म्हारी बात मान।"
बेटो सपूत हो। उण कह्यो आपरी इच्छा है, तो हूं म्हारो हक छोड दूं लो।"
जणै ठाकुरां कह्यो कै--
"नीं, हूं बैड़ा सूं आधो ठिकाणो तनै अर नाणा सूं आधो ठिकाणो लोहड़ियै नै देवूं।तूं इण बात नै मानै तो हूं मर्यो मुखातर पाऊं।" बडै बेटै बात मानली अर बैड़ा ठिकाण रा दो बंट हुयग्या।

पण जिकी बात लिख रह्यो हूं, उण दिनां बैड़ा रो ठाकुर पृथ्वीसिंह अर नाणा रा ठाकुर चिमनसिंह, पदमसिंह रो हा। चिमनसिंह घुड़सवारी रो शौकीन। चिमनसिंह बड़बोलो ई हो। अर जिका मुटबोला हुवै उणां सूं रणांगण में कृपाण रो तेज झलै नीं। आ ई नीं, चिमनसिंह लांग रो काचो ई हो।

इणी चिमनसिंह रै कुंवर रो नाम हो लालसिंह। लालसिंह रो ब्याव निबैड़ै रै उदावत सिमरथसिंह री बेटी अगरां साथै हुयो। अगरां वीर, साहसी, चरित्रवान अर दूरदर्शी महिला ही। आ ई नीं उवा शिकार री पण शौकीन ही, सो उण कनै आबू, अजमेर आद जागा सूं अंग्रेज मीमड़ियां आवती रैवती। अर आ उणां नै आपरै इलाकै में शिकार रमावती, सोरी राखती सो मीमड़ियां इण सूं घणी राजी। 

अठीनै बैड़ा ठाकुर पृथ्वीसिंह रो ब्याव मारवाड़ रै मुसाहिब ए-आला अर ईडर नरेश सर प्रताप री बेटी सागै हुयो। सर प्रताप नै लोगां कह्यो कै "हुकम! आप ईडर रा नरेश अर मारवाड़ धणी रा भाई हो पछै आप एक गांम धणी नै आपरा बाईसा परणाय कोई गीरबैजोग काम नीं कियो! कठै राजा रो रजवाड़ो अर कठै इंदर  रो अखाड़ो?" सर प्रताप नै सलाहकारां सलाह दीन्हीं कै कम सूं कम आप 'नाणा' नै पाछो 'बैड़ा' भेळो रळाय दो।
आ सलाह सर प्रताप रै जचगी अर उणां एक दळ मेल्यो, अर नाणा ठाकुर चिमनसिंह नै आदेश दियो कै "नाणो पाछो बैड़ै में मिला दियो सो ओ गढ छोड दियो जावै, नीतर राज आपरै दल़-बल़ सूं गढ छोडावैला। बेइज्जती कराय'र बैवोला तो इणसूं आछो है कै सदियै-सदियै निकळ जावो।"

चिमनसिंह थोड़ो घणो उजर कियो जणै सर प्रताप रो आदेश आयो कै -"तपड़ बारै फैंक दिया जावै अर हुकम अदूली में ठाकुर अर कुंवर नै पकड़ लियो जावै।"
राज रै किणी संदेशवाहक पाछो जाय  ठाकुर नै सारी हकीकत कैयी तो ठाकुर रै बळ जवाब दे दियो। वो जनाना गाभा पैर आपरै कुंवर सागै लारलै बगैरणै सूं आपरै ठिकाणै रै एक गांम चांमडरी जावतो रुक्यो।
सर प्रताप रै दल़- मुखिया देख्यो कै कोट नै  अजै ई चिमनसिंह खाली नीं कियो तो उण रीस में धमकी दी कै 
-"या तो गढ छोड दियो जावै या जीवित पकड़ीजण सारू संभ जावै।"

आ बात सुण'र कोट रै मांयां सूं कुंवराणी कैवायो कै-
" गढ में ठाकुर नीं है, सो कोट खाली नीं कर सकां। उवां आयां ई खाली हुसी, म्हैं एकलै जनाना कठै जावा?"
ऐ समाचार जोधपुर पूगाया तो सर प्रताप कैवायो कै कुंवराणी नै कैवाय देवो कै -आप मरदाना डोढी सूं जनाना डोढी में जावो परा ताकि म्हे बैड़ा ठाकुर साहब रै नाम रो अमल गळाय दुहाई फेरावां।"

आ सुण कुंवराणी कह्यो कै--
"अठै कोई मरद है नीं, जणै मरदाना ड्योढी भळे कैड़ी? अठै सगळी जनाना ई इज है, सो आज तो जनाना ड्योढी इज है। अतः कोट खाली नीं कियो जा सकै।"
ऐ समाचार भल़ै जोधपुर पूगा तो सर प्रताप पाछो आदेश दियो, कै लुगायां है, गिदड़-भभक्यां करो। डर जावैला सो एकर कूड़ी बंदूकां ताणो।"

सैन्यदळ भळे पग पटक्या अर बंदूकां ताणी तो मांयां सूं कुंवराणी ई बंदूकां ताणली। उणां समाचार कराया कै -
"म्हांनै नाणो सर प्रताप रै दियोड़ो नीं है, सो इयां डर'र छोड दूं! कोट मं म्हैं मोड़ वडो कियो है। *अठै म्हैं ऊभी आई हूं, अर आडी जावूंला।* हमैं कोट कानी पग उवो इज करैला जिणरै दो माथा हुवै, या जिणरै बटीड़ लाग लोही री जागा दूध निकल़तो हुवै। जैड़ो कुतको थां कनै है, उड़ो खीलो म्हारै कनै ई है।" आ कैय कुंवराणी आपरी बंदूंक ताण भुरज में मोरचो लियो। 

सर प्रताप रै मेल्यै मिनखां हकीकत सूं पाछा सर नै अवगत कराया। आ सुण सर प्रताप गतागम मं फसग्या। आगै कुवो अर लारै खाई वाळी बात हुयगी। उवां दल़ नै समाचार करायो कै चार-पांच दिन उठै जमिया रैवो। आगलै आदेश नै उडीको।

अठीनै जोग ऐड़ो बण्यो कै अंग्रेज मीमड़ियां आबू सूं सिकार रै मिस घूमती-घूमती नाणा ढूकी। कोट मं आई तो आगै कोट में सोपो पड़्योड़ो। मिनख रो बोलाल़ो ई नीं। उवै इचरज में पड़गी। घोड़ां सूं उतर खड़ां-खड़ां कोट में गी। आगै कुंवराणी बंदूक ताण्यां उणांरै स्वागत में मिली।

मीमड़ियां हकीकत पूछी जणै कुंवराणी सारी बात अर नाणा रो इतियास ई बतायो। आपरी गाय रो घी सौ कोसै आडो आवै। इणीगत मीमड़ियां कुंवराणी री आवभगत सूं घणी राजी ही। सो उवै अजेज पाछी चढी, अर आबू जाय अंग्रेज सरकार सूं सर प्रताप रै आदेश माथै स्टे दिरा दियो। तीजै-चौथै दिन मारवाड़ रै राजाजी रै दळ री कार्रवाई माथै स्टे आयग्यो, अर पछै नाणो मुकदमो ई जीत ग्यो। 

 इण पूरी घटना उत्तर मध्यकालीन एक कटु साच नै आपांरै साम्ही अड़ीखंभ ऊभो कर दियो।

राणा रा वंशज जिकै कदै ई आपरी वीरता अर धीरता रै कारण चावा हा, उणी राणा रो एक वंशज चिमनसिंह आपरै विरुद्ध तणती तोपां नै देख'र छूटण सूं पैला ई गढ छोड पड़ छूटो। पण उणरी बहुआरी *अगरां* आपरी कुळ परंपरा रै विरद 'रणबंका राठौड़' नै अखी बणायो राख्यो।

अगरां रै चरित्र नै देखां तो लागै कै महाकवि सूर्यमल्लजी मीसण वीर सतसई में एक कायर पति सारू लिख्यो-
कंत घरै किम आविया,
तेगां रो घण त्रास।
लहंगै मूझ लुकीजिए,
वैरी रो न विसास।।
चिमनसिंह अर लालसिंह उण सूं ई एक पाऊंडो आगला निकल़्या। क्यूंकै दूजा कायर पति दुश्मणां सूं डरता घर आय आपरै धण रै गाघरै में लुकता जदकै ऐ तो घर छोड न्हाठा।

लक्ष्मीदानजी रै ऐ दूहा इण बात रा साखीधर है, कै चारण कायरां रा कटु निंदक अर वीरां नै वंदन वाळा हा। चिमनसिंह नै फटकारतां कवि लिखै--
कर कर केसरियाह,
बातां घणी बणावतो।
फौजां दळ फिरियाह,
छांनै पड़ भागो चिमन।।
(आडै दिन तो केसरिया कर करनै घणी ई बातां बगारतो पण जद फौजां आय फिरी तो कणै गढ छोड न्हाठो पतो ई नीं पड़ण दियो।)

कुल़ री छोडै कांण,
छतै पांण गढ छोडियो.
रजवट रो वट रांण,
छांटो नह रहियो चिमन।।
(चिमनसिंह आपरै घराणै री मरजादा छोड गाढ थकां गढ छोड न्हाठो। इण सूं क्षत्रियत्व में जिको मरट हुवै उणरो छांटो लारै नीं बच्यो)

लूंबै खळ लागाह,
दल़ फिरिया गढ दोल़िया।
भागल पड़ भागाह,
चिड़ियां ढळ पड़िया चिमन।।
(दल़ आय गढ घेरियो तो चिमनसिंह मनभागल हुय न्हाठो जाणै ढूलो चिड़्यां में पड़्यां चिड़्यां उडै)

लखणां हीणा लाल,
ओल़जहीणा आपही।
गढ में सेरी घाल,
चेरी बण भागो चिमन।।
(उणरै कुंवर लालसिंह में ई कीं लखण नीं हा अर ओ तो खुद ओल़झहीण हो ई सो दासी रै रूप में गढ री भींत में बारी घाल पड़ छूटो)

क्यां थे इतो कियोह,
विरथा वाद हिमत बिनां।
गढ छिटकाय गयोह,
चमक झमक करतो चिमन।।
(कवि कैवै कै थैं में गाढ नीं हो तो पैला वाद चढ्यो क्यूं? हमैं पगां में पायल़ बजावतो निकल़्यो नीं!)

वै सो बाल़क,
उणरै हाथ न ऊतरै।
नांणा गढ रो नेह,
चित सूं किम छूटो चिमन।।
(अरे गैला छोटै टाबर रै हाथ में कोई नाणो (रुपिया) झलादे तो सोरै सास बो ई पाछो नीं दे सो तूं अधबूढ नाणै रो नेह त्याग इयां कीकर निकल़ग्यो?)

लाडी हूंता लाल,
कंवरांणी हूती कमंध।
झिलम टोप खग झाल,
नांणो गढ छोडत नहीं।।
(जे थारो कुंवर लाडी हुवतो अर इणरी जागा  जागा इणरी जोड़ायत कुंवर हुवती तो बखतर पैर लड़ती, इयां गढ छोडती नीं।)

अगरां नै कवि दिल खोल कवि दाद देतां लिखै--
कियो चिमन लालै कंवर,
नैड़ो उदियानेर।
अगरां सिंघण एकली,
आंगमियो आसेर।।1
*फौजां नै देख चिमनसिंह अर लालसिंह तो डरतां गढ छोड उदयपुर नेड़ो कियो पण अगरां गढ नै अंगेज हेज साथै मरण संभी)

फौजां झंडा फरहरै,
भभकी तोपां भाळ।
चित ओचकियो चिमन रो,
भैचकियो भुरजाळ।।2
(जद फौजां आय आपरा झंडा तांण्या अर तोपां घुराई तो चिमनसिंह रो चित्त जागा छोड दी।चिमनसिंह नै  चैताचूक दीठो तो विचारो कोट ई डरग्यो कै हमैं म्हारो धणी कुण?)

धणियांणी धीरोपियो,
कंवरांणी क्रोधाळ।
म्हूं लड़सूं सधरै मतै,
भैचक मत भुरजाळ।।3
(ऐड़ै में गढ री धणियाप करतां धणियाणी खार खाय  गढ रो जीव जमावतां कह्यो कै हे गढ! डर मत। थारै कारण हूं गंभीरता सूं लड़ूंली।)

मन द्रढ रख डरपै मती,
त्रह त्रहत्रहिया त्रंबाळ।
सिर धड़ ऊपर साबतो,
भिल़ण न दूं भुरजाळ।।4
(हे गढ! तूं चल़विचल़ मत होय। तूं मन में द्रढ रैय। ऐ जुद्ध -नगारा भलांई बाजो। जितै तक म्हारी धड़ माथै माथो साबतो है, उतै तक म्हैं तनै भिळण नीं दूं अर्थात वैर्यां रो मांयां आंगळी टिकाव ई नीं हुवण दूं।)

फौजां लड़ करसूं फतै,
तेगां झड़ रणताल़।
आंच थनै न आंणदूं,
जांण न दूं भुरजाल़।।5
(म्हैं खुद तरवार झाल रणांगण में फौजां कर'र लड़ूंली। तनै ई धकल ई नीं आण दूं अर नीं तनै वैर्यां रै हाथां जावण दूं।)

समर छोड खामंध ससुर 
कायर भागो कंत।
हूं भाग जावूं हमैं,
धरती सिर धुणंत।।6
(थारो डरणो सही है क्यूंकै म्हारो कायर सुसरो अर डरपोक पति दोनूं समर छोड न्हाठग्या पण तूं निरभै रैय जे आंरै दांई म्हैं ई न्हाठगी तो धरती लाजां मरती माथो धूणैली)

समर छोड खामंध ससुर,
भागा दुरंग भळाय।
किलो छोड परठूं कदम,
(म्हारी)जात रसातल़ जाय।।7
(हे गढ! तूं आ मानलै कै उवै थोनूं गढ म्हनै भोळाय ग्या ऐड़ै में जे हूं थारो साथ छोड दूंली, तो म्हारी जात री गरिमा खतम हुय जावैला अर्थात रसातलळ में बुई जावैली।)

तात मात मौसाल़ तक,
सूरां साख संसार।
पल़टूं गढ ऊभां पगां,
(म्हारो)लाजै पीहर लार।।8
(हां थारो डरणो सही है कै म्हारा च्यारूं पख ऊजल़ा नीं है पण तूं आ तो जाणै कै म्हारा दो पख अर्थात पीहर अर नानाणो तो वीरता रै मारग ऊजल़ा है। इण बात री साख संसार भरै सो म्हैं ई थारै सूं बदल़गी तो म्हारो पीहर लाज सूं मर जावैला)

कंवरांणी सजियो किल्लो,
बिलकुल मरण विचार।
किलो रहियां रहसी कलम,
(म्हारी)लाज किला री लार।।9
(अतः कंवरांणी किल्लै नै रुखाल़ण सारू मरण तेवड़ियो क्यूंकै उवां जाणती कै किल्लो रह्यां म्हारी जीतब है। म्हारी लाज रो ढाकण ओ किल्लो इज है सो ओ रह्यां लाज रहसी।)

साभार- अजयसिंह राठौड़ सिकरोड़ी