गुरुवार, 28 जून 2018

शौर्य शेखा का

शेखाजी का आमेर रियासत को बछेर देने से मना करना।
आमेर के राजा चंद्रसेन के द्वारा शेखाजी को युद्ध के लिए ललकारना। महाराव शेखाजी और आमेर की सेना के बीच बरवाड़ा के समीप युद्ध जिसमे आपने रण कौशल से आमेर की विशाल सेना को हरा कर उनके ही बछेरों को शेखाजी द्वारा पकड़ कर ले आना।

                    
चंद्रसेन-
चढ़ बरवाड़ा लश्कर आयो,
शेखा लीज्यो जाण।
शेखा थारो माण मरस्यां,
म्हारी हुसी नाण।।

घोड़ा हाथी लश्कर माँहि,
पैदल पांच हजार।
थारी हार रो लेख लिखण न,
तरस रह्या सिरदार।।

शेखाजी -
सुण फरमाना गढ़ आमेरी ,
आंख्या होगी लाल।
सिर झुकावे मात जुम्माई,
थारी काईं मजाल।।

गढ़ अमरसर सुपणो थारो,
म्हारी माता नाण ।
निजऱ पड़ी जे थारी इण पर,
थारा जगे मसाण।।

एक कानी आमेरी लश्कर,
जब्बर जब्बर रणधीर।
दूजे पासे  हुंकारे आ
शेखा री शमसीर।।

रण माहीं रणभीरी बाजी,
चमक उठी शमसीर।
भारी पड़िया लश्कर ऊपर ,
शेखा रा चन्द बीर।।

घुड़लां सूं अबे  घुड़ला भिड़िया,
हाथी रह्या चीघाड़।
सिंघा री दहाड़ सूं देखो,
गूंज रह्यो बरवाड़।।

जद भालां रो पड़:सटाको,
साँस्याँ अटक सी जाय।
बाणा री जदों बणे बादळी,
सूरजड़ो लुख जाय।।

पांच पठाणी भारी पड़ऱ्या,
सौ सौ री ललकार ।
शेखा री तरवार भी देखो,
दिन्या शीश उतार।।

कोजो घणों घमासाण मचाऱ्या,
शेखाजी रा बाण।
एक एक दस न काट रह्या,
देखो पन्नी पठाण।।

खून रो नाळो चाल पड्यो,
लाल हुयी बरवाड़।
आधो लश्कर पड्यों मैदानां,
बचियो भग्यो ढूंढाड़।।

आमेर का सैनिक-
किण दुश्मन सूं लड़ा दियो,
राजा चंद्रसेण।
अधकटिया मैदान पड़ीया,
बंद हो रह्या नैण।।

सन्देश-
थारा बछेरया लग्यो शेखो,
थाम सके तो जाण।        
शेखा मरण रो लिख्यो लेखड़ों,
चढ़ आओ अब नाण।।

          
चंद्रसेन-
सुण संदेशो झट चंद्रजी,
आया रण र मायं।      
बीर बड़ो तूँ कहिजे शेखा,
माटी देऊँ मिलाय।।

शेखाजी-
घणा गरजता बरसण तरसे,
मत गरजो चंदराज।        
कुण तो माट्टी माय मिलेलो,
वक़्त बतासी आज।।

        
शेखाजी अब लश्कर बाट्यां,
तीन दिशा र माय।         
आज मरण रो लेखो चंद्रजी,
शेखो दियो बताय।।

         
इक कुणा सूं तीर चलांस्यां,
इक सूं घुड़ असवार।        
इक कुणा सूं  भीड़े चंद्र सूं,
शेखो ले तरवार।।
     
वीरां सूं जदों वीर भिड्या,
गूंज उठ्यो असमान।        
कटी भुजावां वीर ब देखो,
लड़ रह्या बीच मैदान।।
         
लश्कर छोटो शेखा रो पण,
लड़ रह्यो स्वाभिमान।         
पीठ दिखावण सीख्यो न शेखो,
मरस्यां रण मैदान।।
        
सूरज छिप्गो धुल गुब्बारां,
धरती होगी लाल।       
शेखा सामी चाल रही ना,
चंद्रसेन री चाल।। 
       
शेखाजी रा लश्कर देखो,
हाहाकार मचाई है।       
चन्द्रसेनजी टिक्या न सामीं,
भाग र जान बचाई है।।
             
हार गयो अबे चंद्रसेन जी,
हारी गढ़ आमेरी है।       
शेखाजी री शान म देखो,
हो री जय जयकारी है।।
       
वीरगति में पैदल छः सौ,
छः सौ घुड़ असवारी है।      
शेखोजी भी झुकग्या देखो,
धन धन मात तिहारी है।।

शेखाजी-
वीरगति रा वीरां न
देस्यां राज सम्मान।           
ऐड़ा पूत जन्मिया,
धन्य हो गयी नाण।।

सोमवार, 18 जून 2018

बाईसा किरणदेवी

अकबर की महानता का गुणगान तो कई इतिहासकारों ने किया है लेकिन....

अकबर की ओछी हरकतों का वर्णन बहुत कम इतिहासकारों ने किया है....!

अकबर अपने गंदे इरादों से प्रतिवर्ष दिल्ली में नौरोज़ का मेला आयोजित करवाता था....!

इसमें पुरुषों का प्रवेश निषेध था....!

अकबर इस मेले में महिला की वेष-भूषा में जाता था और जो महिला उसे मंत्र मुग्ध कर देती....
उसे दासियाँ छल कपट से अकबर के सम्मुख ले जाती थी....!

एक दिन नौरोज़ के मेले में महाराणा प्रताप सिंह की भतीजी, छोटे भाई महाराज शक्तिसिंह की पुत्री मेले की सजावट देखने के लिए आई....!

जिनका नाम
बाईसा किरणदेवी था....!
जिनका विवाह बीकानेर के पृथ्वीराज जी से हुआ था!

बाईसा किरणदेवी की सुंदरता को देखकर अकबर अपने आप पर क़ाबू नहीं रख पाया....
और
उसने बिना सोचे समझे दासियों के माध्यम से धोखे से ज़नाना महल में बुला लिया....!

जैसे ही अकबर ने बाईसा किरणदेवी को स्पर्श करने की कोशिश की....

किरणदेवी ने कमर से कटार निकाली और अकबर को ऩीचे पटक कर उसकी छाती पर पैर रखकर कटार गर्दन पर लगा दी....!
और कहा
नींच....नराधम, तुझे पता नहीं मैं उन महाराणा प्रताप की भतीजी हूँ....
जिनके नाम से तेरी नींद
उड़ जाती है....!

बोल तेरी आख़िरी इच्छा क्या है....?

अकबर का ख़ून सूख गया....!

कभी सोचा नहीं होगा कि सम्राट अकबर आज एक राजपूत बाईसा के चरणों में होगा....!

अकबर बोला: मुझसे पहचानने में भूल हो गई....
मुझे माफ़ कर दो देवी....!

इस पर किरण देवी ने कहा:
आज के बाद दिल्ली में नौरोज़ का मेला नहीं लगेगा....!
और
किसी भी नारी को परेशान नहीं करेगा....!

अकबर ने हाथ जोड़कर कहा आज के बाद कभी मेला नहीं लगेगा....!

उस दिन के बाद कभी मेला नहीं लगा....!

इस घटना का वर्णन
गिरधर आसिया द्वारा रचित सगत रासो में 632 पृष्ठ संख्या पर दिया गया है।

बीकानेर संग्रहालय में लगी एक पेटिंग में भी इस घटना को एक दोहे के माध्यम से बताया गया है!

किरण सिंहणी सी चढ़ी
उर पर खींच कटार..!
भीख मांगता प्राण की
अकबर हाथ पसार....!!

अकबर की छाती पर पैर रखकर खड़ी वीर बाला किरन का चित्र आज भी जयपुर के संग्रहालय में सुरक्षित है.

रविवार, 17 जून 2018

लचित बोरफुकन

आपको यह तो ज्ञात होगा कि NDA (National Defence Academy) में जो बेस्ट कैडेट होता है, उसको एक गोल्ड मैडल दिया जाता हैं | लेकिन क्या आपको यह ज्ञात हैं कि उस मैडल का नाम "लचित बोरफुकन" है ? कौन हैं ये "लचित बोरफुकन" ? पोस्ट को पूरा पढ़ने पर आपकों भी ज्ञात हो जाएगा कि क्यों वामपंथी और मुगल परस्त इतिहासकारों ने इस नाम को हम तक पहुचने नहीं दिया |

क्या आपने कभी सोचा है कि पूरे उत्तर भारत पर अत्याचार करने वाले मुस्लिम शासक और मुग़ल कभी बंगाल के आगे पूर्वोत्तर भारत पर कब्ज़ा क्यों नहीं कर सके ?

कारण था वो हिन्दू योद्धा जिसे वामपंथी और मुग़ल परस्त इतिहासकारों ने इतिहास के पन्नो से गायब कर दिया - असम के परमवीर योद्धा "लचित बोरफूकन।" अहोम राज्य (आज का आसाम या असम) के राजा थे चक्रध्वज सिंघा और दिल्ली में मुग़ल शासक था औरंगज़ेब। औरंगज़ेब का पूरे भारत पे राज करने का सपना अधूरा ही था बिना पूर्वी भारत पर कब्ज़ा जमाये।

इसी महत्वकांक्षा के चलते औरंगज़ेब ने अहोम राज से लड़ने के लिए एक विशाल सेना भेजी। इस सेना का नेतृत्व कर रहा था राजपूत राजा राजाराम सिंह। राजाराम सिंह औरंगज़ेब के साम्राज्य को विस्तार देने के लिए अपने साथ 4000 महाकौशल लड़ाके, 30000 पैदल सेना, 21 राजपूत सेनापतियों का दल, 18000 घुड़सवार सैनिक, 2000 धनुषधारी सैनिक और 40 पानी के जहाजों की विशाल सेना लेकर चल पड़ा अहोम (आसाम) पर आक्रमण करने।

अहोम राज के सेनापति का नाम था "लचित बोरफूकन।" कुछ समय पहले ही लचित बोरफूकन ने गौहाटी को दिल्ली के मुग़ल शासन से आज़ाद करा लिया था।
इससे बौखलाया औरंगज़ेब जल्द से जल्द पूरे पूर्वी भारत पर कब्ज़ा कर लेना चाहता था।

राजाराम सिंह ने जब गौहाटी पर आक्रमण किया तो विशाल मुग़ल सेना का सामना किया अहोम के वीर सेनापति "लचित बोरफूकन" ने। मुग़ल सेना का ब्रम्हपुत्र नदी के किनारे रास्ता रोक दिया गया। इस लड़ाई में अहोम राज्य के 10000 सैनिक मारे गए और "लचित बोरफूकन" बुरी तरह जख्मी होने के कारण बीमार पड़ गये। अहोम सेना का बुरी तरह नुकसान हुआ। राजाराम सिंह ने अहोम के राजा को आत्मसमर्पण ने लिए कहा। जिसको राजा चक्रध्वज ने "आखरी जीवित अहोमी भी मुग़ल सेना से लडेगा" कहकर प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया।

लचित बोरफुकन जैसे जांबाज सेनापति के घायल और बीमार होने से अहोम सेना मायूस हो गयी थी। अगले दिन ही लचित बोरफुकन ने राजा को कहा कि जब मेरा देश, मेरा राज्य आक्रांताओं द्वारा कब्ज़ा किये जाने के खतरे से जूझ रहा है, जब हमारी संस्कृति, मान और सम्मान खतरे में हैं तो मैं बीमार होकर भी आराम कैसे कर सकता हूँ ? मैं युद्ध भूमि से बीमार और लाचार होकर घर कैसे जा सकता हूँ ? हे राजा युद्ध की आज्ञा दें....

इसके बाद ब्रम्हपुत्र नदी के किनारे सरायघाट पर वो ऐतिहासिक युद्ध लड़ा गया, जिसमे "लचित बोरफुकन" ने सीमित संसाधनों के होते हुए भी मुग़ल सेना को रौंद डाला। अनेकों मुग़ल कमांडर मारे गए और मुग़ल सेना भाग खड़ी हुई। जिसका पीछा करके "लचित बोफुकन" की सेना ने मुग़ल सेना को अहोम राज के सीमाओं से काफी दूर खदेड़ दिया। इस युद्ध के बाद कभी मुग़ल सेना की पूर्वोत्तर पर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं हुई। ये क्षेत्र कभी गुलाम नहीं बना।

ब्रम्हपुत्र नदी के किनारे सरायघाट पर मिली उस ऐतिहासिक विजय के करीब एक साल बाद ( उस युद्ध में अत्यधिक घायल होने और लगातार अस्वस्थ रहने के कारण ) माँ भारती का यह अद्भुद लाड़ला सदैव के लिए माँ भारती के आँचल में सो गया |

दास-दासियाँ रखने के कुप्रभाव

राजस्थान के राजाओं में एक से ज्यादा शादियाँ करने, बिना शादी के पत्नियां रखने व दास-दासियाँ रखने की प्रथा सदियों तक चलती रही| इस कुप्रथा के परिणाम भी बड़े गंभीर और जहरीले निकले| इन बिना शादी किये रखी जाने वाली पत्नियों, उनसे पैदा हुई संतानों व दास दासियों ने भी राजस्थान के रजवाडों की राजनीति में कई महत्त्वपूर्ण व घृणित कार्य भी किये| इस तरह कुप्रथा का सबसे ज्यादा जहर बिना शादी के रखी पत्नियों व उनकी संतानों द्वारा खड़ी की गई समस्याओं के रूप में फैला| दरअसल राजाओं द्वारा विजातीय महिला को बिना शादी के रखैल बनाकर रखना, जिन्हें पासवान, पड़दायत आदि की पदवियां देकर रख लिया जाता था, द्वारा जन्मी संतानों को राजपूत समाज ने कभी स्वीकार नहीं किया और इस तरह जन्मीं संतान जिसका पिता राजपूत होता था, समाज से अपने लिए राजपूत जैसा सम्मान पाने की अभिलाषा रखती थी| चूँकि इस तरह की महिलाएं राजाओं को अपने प्रेम-रूप जाल में फंसा कर अथाह धन एकत्र करने के साथ अपनी संतानों के लिए ऊँचे पद तक हासिल कर लेती थी, लेकिन राजपूत समाज उन्हें दोयम दर्जे का समझता और व्यवहार करता था| अत: दोयम दर्जे के व्यवहार से इस तरह की संताने अपना अपमान समझती और अन्दर अन्दर वे राजपूत समाज के अन्य लोगों के प्रति मन में कटुता का भाव रखती| इस तरह का भाव समय आने पर राजपूत समाज का अहित करता था और आजतक करता रहा है| 

मेवाड़ के महाराणा क्षेत्रसिंह (खेता, खेतसी) ने भी एक खाती जाति की महिला को अपनी पासवान रखा था, उससे जन्मीं संतान चाचा और मेरा ने भी इसी कुंठा में चितौड़ के महाराणा मोकल की हत्या कर जघन्य अपराध तक कर दिया था| इतिहास में यह घटना इस तरह दर्ज है -

"वि.स. 1490 की घटना है| अहमदाबाद का सुलतान अहमदशाह (प्रथम) ने इस्लाम के प्रसार और सेवा के नाम पर हिन्दू मंदिरों को तोड़ने, छोटे हिन्दू राजाओं को अपने अधीन करने का ख़्वाब देख, सैनिक तैयारी शुरू की और डूंगरपुर राज्य से होता हुआ जीलवाड़े की तरफ बढ़ा| उस काल मेवाड़ ही इस देश में सबसे बड़ी हिन्दू रियासत थी अत: हिन्दू मंदिर ध्वस्त करने की सूचना पर मेवाड़ के महाराणा चुप कैसे रह सकते थे| फिर मेवाड़ राज्य से हमेशा गुजरात के मुसलमान शासकों के साथ युद्ध चलते रहे है| गुजरात का कोई बादशाह ताकतवर होता तो जाहिर है मेवाड़ की सुरक्षा पर आंच अवश्य आती| अत: जब मेवाड़ के महाराणा मोकल को अहमदशाह के अभियान की सूचना मिली तो उन्होंने भी उसे रोकने के लिए युद्धार्थ प्रस्थान किया| इसी अभियान में वे एक दिन जंगल से गुजर रहे थे कि उन्होंने उत्सुकतावश साथ चल रहे एक हाडा सरदार से एक पेड़ की ओर अंगुली से ईशारा कर उस पेड़ का नाम पूछा|

संयोग से उस वक्त महाराणा मोकल के साथ महाराणा खेता (क्षेत्रसिंह) की पासवान (एक तरह की रखैल) जो जाति से एक खातिन थी, के पुत्र चाचा और मेरा भी साथ थे| चूँकि वे खातिन के पेट से जन्में थे और खातियों को पेड़ व लकड़ी का अच्छा ज्ञान होता है अत: महाराणा द्वारा पेड़ का नाम पूछना उनको अपने ऊपर व्यंग्य लगा| हालाँकि महाराणा मोकल का उन पर व्यंग्य करने का कोई भाव नहीं था, लेकिन चाचा-मेरा को लगा कि महाराणा उन्हें खातिन के पेट से जन्में होने के चलते दोयम दर्जे के होने का अहसास करा रहे है, इसलिये उन पर इस तरह का व्यंग्य बाण छोड़ा गया| और उन्होंने महाराणा का वध करने का निश्चय कर लिया| इस कार्य में सहयोग के लिए उन्होंने महपा (महिपाल) परमार आदि कई सामंतों को साथ कर लिया| जिन्हें साथ लेकर वे महाराणा के डेरे पर गये और आक्रमण कर महाराणा के सुरक्षाकर्मियों सहित महाराणा का भी वध कर दिया|"

इस तरह महाराणा खेता के पासवान पुत्र चाचा व मेरा ने अपने आपको दोयम दर्जे का राजपूत समझे जाने की कुंठा में मेवाड़ के महाराणा की हत्या कर राष्ट्रद्रोह का जघन्य कार्य कर डाला| उन्होंने अपने उस मातृभूमि से गद्दारी कर डाली जिस मातृभूमि पर वे पैदा हुये, पले, बढे और देश के शासन कार्यों में भागीदारी भी हासिल की| उनकी इस राष्ट्रद्रोह रूपी करतूत के कारण उन्हें वर्षों जंगलों में भटकना पड़ा और रणमल राठौड़ के हाथों सजा भुगतनी पड़ी|

महाराणा प्रताप और कुंवर मानसिंह के मध्य राणा का मानसिंह के साथ भोजन ना करने की कहानियां

महाराणा प्रताप और कुंवर मानसिंह के मध्य राणा का मानसिंह के साथ भोजन ना करने के बारे में कई कहानियां इतिहास में प्रचलित है| इन कहानियों के अनुसार जब मानसिंह महाराणा के पास उदयपुर आया तब महाराणा प्रताप ने उनके साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार करते हुये आदर किया और मानसिंह के सम्मान हेतु भोज का आयोजन किया, पर महाराणा प्रताप मानसिंह के साथ स्वयं भोजन करने नहीं आये और कुंवर अमरसिंह को मानसिंह के साथ भोजन करने हेतु भेज दिया| कहानियों के अनुसार राणा का इस तरह साथ भोजन ना करना दोनों के बीच वैम्स्य का कारण बना और मानसिंह रुष्ट होकर चला गया| इसी तरह की कहानियों को कुछ ओर आगे बढाते हुये कई लेखकों ने यहाँ तक लिख दिया कि मानसिंह को जबाब मिला कि तुर्कों को बहन-बेटियां ब्याहने वालों के साथ राणाजी भोजन नहीं करते| कई लेखकों ने इस कहानी को ओर आगे बढाया और लिखा कि मानसिंह के चले जाने के बाद राणा ने वह भोजन कुत्तों को खिलाया और उस स्थल की जगह खुदवाकर वहां गंगाजल का छिड़काव कराया|

मुंहता नैणसी ने अपनी ख्यात में इस घटना का जिक्र करते हुए लिखा-"लौटता हुआ मानसिंह डूंगरपुर आया तो वहां के रावल सहसमल ने उसका अथिति सत्कार किया| वहां से वह सलूम्बर पहुंचा जहाँ रावत रत्न सिंह के पुत्र रावत खंगार ने मेहमानदारी की| राणाजी उस वक्त गोगुन्दे में थे| | गोगुन्दे आकर मानसिंह से मिले और भोजन दिया| जीमने के समय विरस हुआ|"

इस तरह राजस्थान के इस प्रसिद्ध और प्रथम इतिहासकार ने इस घटना पर सिर्फ इतना ही लिखा कि भोजन के समय कोई मतभेद हुये| नैणसी ने राणा व मानसिंह के बीच हुये किसी भी तरह के संवाद की चर्चा नहीं की| नैणसी के अनुसार यह घटना गोगुन्दे में घटी जबकि आधुनिक इतिहासकार यह घटना उदयपुर में होने का जिक्र करते है|

इस कहानी में आधुनिक लेखकों ने जब स्थान तक सही नहीं लिखा तो उनके द्वारा लिखी घटना में कितनी सच्चाई होगी समझा जा सकता है| हालाँकि मैं इस बात से इन्कार नहीं करता कि मानसिंह व राणा की इस मुलाकात में कोई विवाद नहीं हुआ हो| यदि विवाद ही नहीं होता तो हल्दीघाटी का युद्ध ही नहीं हुआ होता, मानसिंह के गोगुन्दा प्रवास के दौरान राणा से विवाद हुआ यह सत्य है, पर विवाद किस कारण हुआ वह शोध का विषय है, क्योंकि मानसिंह के साथ राणा द्वारा भोजन ना करने का जो कारण बताते हुए कहानियां घड़ी गई वे सब काल्पनिक है|
यदि प्रोटोकोल या राजपूत संस्कृति के अनुरूप विवाद के इस कारण पर नजर डाली जाय तो यह कारण बचकाना लगेगा और इस तरह की कहानियां अपने आप काल्पनिक साबित हो जायेगी| क्योंकि प्रोटोकोल के अनुसार राजा के साथ राजा, राजकुमार के साथ राजकुमार, प्रधानमंत्री के साथ प्रधानमंत्री, मंत्री के साथ मंत्री भोजन करते है| मानसिंह उस वक्त राजा नहीं, राजकुमार थे, अत: प्रोटोकोल के अनुरूप उसके साथ भोजन राणा प्रताप नहीं, उनके राजकुमार अमरसिंह ही करते| साथ ही हम राजपूत संस्कृति के अनुसार इस घटना पर विचार करें तब भी मानसिंह राणा प्रताप द्वारा उनके साथ भोजन करने की अपेक्षा नहीं कर सकते थे, क्योंकि राजपूत संस्कृति में वैदिक काल से ही बराबरी के आधार पर साथ बैठकर भोजन किये जाने की परम्परा रही है| मानसिंह कुंवर पद पर थे, उनके पिता भगवानदास जीवित थे, ऐसी दशा में उनके साथ राजपूत परम्परा अनुसार कुंवर अमरसिंह को ही भोजन करना था ना कि महाराणा को| हाँ यदि भगवनदास वहां होते तब उनके साथ राणा स्वयं भोजन करते| अत: राजपूत संस्कृति और परम्परा अनुसार मानसिंह राणा के साथ बैठकर भोजन करने की अपेक्षा कैसे कर सकते थे?

मुझे तो उन इतिहासकारों की बुद्धि पर तरस आता है जिन्होंने बिना राजपूत संस्कृति, परम्पराओं व प्रोटोकोल के नियम को जाने इस तरह की काल्पनिक कहानियों पर भरोसा कर अपनी कलम घिसते रहे| मुझे उन क्षत्रिय युवाओं की मानसिकता पर भी तरस आता है जिन्होंने ऐसे इतिहासकारों द्वारा लिखित, अनुमोदित कहानियों को पढ़कर उन पर विश्वास कर लिया, जबकि वे खुद आज भी उस राजपूत संस्कृति और परम्परा का स्वयं प्रत्यक्ष निर्वाह कर रहे है| राजपूत परिवारों में आज भी ठाकुर के साथ ठाकुर, कुंवर के साथ कुंवर साथ बैठकर भोजन करते है| पर जब वे मानसिंह व राणा के मध्य विवाद पर चर्चा करते है तो इन काल्पनिक कहानियों को मान लेते है|

मरियम बेगम और कुँवर जगत सिंह की पुत्री

पूर्व भाग से आगे - -

इसी तरह का एक और उदाहरण आमेर के इतिहास में मिलता है।
राजा मानसिंह द्वारा अपनी पोत्री (राजकुमार जगत सिंह की पुत्री) का जहाँगीर के साथ विवाह किया गया। जहाँगीर के साथ मानसिंह ने अपनी जिस कथित पोत्री का विवाह किया, उससे संबंधित कई चौंकाने वाली जानकारियां इतिहास में दर्ज है। जिस पर ज्यादातर इतिहासकारों ने ध्यान ही नहीं दिया कि वह लड़की एक मुस्लिम महिला बेगम मरियम की कोख से जन्मी थी। जिसका विवाह राजपूत समाज में होना असंभव था।

कौन थी मरियम बेगम
इतिहासकार छाजू सिंह के अनुसार ‘‘मरियम बेगम उड़ीसा के अफगान नबाब कुतलू खां की पुत्री थी। सन 1590 में राजा मानसिंह ने उड़ीसा में अफगान सरदारों के विद्रोहों को कुचलने के लिए अभियान चलाया था। मानसिंह ने कुंवर जगत सिंह के नेतृत्व में एक सेना भेजी। जगतसिंह का मुकाबला कुतलू खां की सेना से हुआ। इस युद्ध में कुंवर जगतसिंह अत्यधिक घायल होकर बेहोश हो गए थे। उनकी सेना परास्त हो गई थी। उस लड़की ने जगतसिंह को अपने पिता को न सौंपकर उसे अपने पास गुप्त रूप से रखा और घायल जगतसिंह की सेवा की। कुछ दिन ठीक होने पर उसने जगतसिंह को विष्णुपुर के राजा हमीर को सौंप दिया। कुछ समय बाद कुतलू खां की मृत्यु हो गई। कुतलू खां के पुत्र ने मानसिंह की अधीनता स्वीकार कर ली। उसकी सेवा से प्रभावित होकर कुंवर जगतसिंह ने उसे अपनी पासवान बना लिया था। प्रसिद्ध उपन्यासकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘‘दुर्गेशनंदिनी’’ में कुंवर जगतसिंह के युद्ध में घायल होने व मुस्लिम लड़की द्वारा उसकी सेवा करने का विवरण दिया है। लेकिन उसने उस लड़की को रखैल रखने का उल्लेख नहीं किया। कुंवर जगतसिंह द्वारा उस मुस्लिम लड़की बेगम मरियम को रखैल (पासवान) रखने पर मानसिंह कुंवर जगतसिंह से अत्यधिक नाराज हुए और उन्होंने उस मुस्लिम लड़की को महलों में ना प्रवेश करने दिया, ना ही रहने की अनुमति दी। उसके रहने के लिए अलग से महल बनाया। यह महल आमेर के पहाड़ में चरण मंदिर के पीछे हाथियों के ठानों के पास था, जो बेगम मरियम के महल से जाना जाता था। कुंवर जगतसिंह अपने पिता के इस व्यवहार से काफी क्षुब्ध हुये, जिसकी वजह से वह शराब का अधिक सेवन करने लगे। मरियम बेगम ने एक लड़की को जन्म दिया। कुछ समय बाद कुंवर सिंह की बंगाल के किसी युद्ध में मृत्य हो गई। इस शादी पर अपनी पुस्तक ‘‘पांच युवराज’’ में लेखक छाजू सिंह लिखते है ‘‘मरियम बेगम से एक लड़की हुई जिसकी शादी राजा मानसिंह ने जहाँगीर के साथ की। क्योंकि जहाँगीर राजा का कट्टर शत्रु था, इसलिए उसको शक न हो कि वह बेगम मरियम की लड़की है, उसने केसर कँवर (जगतसिंह की पत्नी) के पीहर के हाडाओं से इस विवाह का विरोध करवाया। किसी इतिहासकार ने इस बात का जबाब नहीं दिया कि मानसिंह ने अपने कट्टर शत्रु के साथ अपनी पोती का विवाह क्यों कर दिया? जबकि मानिसंह ने चतुराई से एक तीर से दो शिकार किये- 1. मरियम बेगम की लड़की को एक बड़े मुसलमान घर में भी भेज दिया। 2. जहाँगीर को भी यह सन्देश दे दिया कि अब उसके मन में उसके प्रति कोई शत्रुता नहीं है।

जहाँगीर के साथ जगतसिंह की मुस्लिम रखैल की पुत्री के साथ मानसिंह द्वारा शादी करवाने का यह प्रसंग यह समझने के लिए पर्याप्त है कि इतिहास में मुगल-राजपूत वैवाहिक संबंध में इसी तरह की वर्णशंकर संताने होती थी, जिनका राजपूत समाज में वैवाहिक संबंध नहीं किया जा सकता था। इन वर्णशंकर संतानों के विवाहों से राजा राजनैतिक लाभ उठाते थे। जैसा कि छाजू सिंह द्वारा एक तीर से दो शिकार करना लिखा गया है। एक अपनी इन संतानों को जिन्हें राजपूत समाज मान्यता नहीं देता, और उनका जीवन चौपट होना तय था, उनका शासक घरानों में शादी कर भविष्य सुधार दिया जाता, साथ ही अपने राज्य का राजनैतिक हित साधन भी हो जाता था। इस तरह की उच्च स्तर की कूटनीति तत्कालीन क्षत्रिय समाज ने, न केवल समझी बल्कि इसे मान्यता भी दी। यही कारण है कि हल्दीघाटी के प्रसिद्द युद्ध के बाद भी आमेर एवं मेवाड़ के बीच वैवाहिक सम्बन्ध लगातार जारी रहे