मंगलवार, 31 अगस्त 2021

गोगाजी

मारवाड़ के प्रसिद्ध वीर गोपाजी

गोगाजी और महमूद गजनवी के बीच 1024 ईसवी में युद्ध हुआ।  उस समय गजनवी सोमनाथ पर आखिरी आक्रमण के लिए जा रहा था।


जब गोगाजी ने छुड़ाए थे गजनवी के छक्के

गोगाजी और महमूद गजनवी के बीच 1024 ईसवी में युद्ध हुआ। उस समय गजनवी सोमनाथ पर आखिरी आक्रमण के लिए जा रहा था।

हनुमानगढ़. लोकदेवता के रूप में प्रतिष्ठित ददरेवा के चौहानवंशी शासक गोगाजी  प्रजा वत्सल, गोरक्षक और सांपों के देवता के रूप में तो प्रतिष्ठित एवं पूजित  हैं ही। इसके अलावा शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक सोमनाथ की रक्षा के लिए उनका महमूद गजनवी जैसे क्रूर और दुर्दांत आक्रांता की विशाल सेना से मुट्ठी भर परिजनों और सैनिकों के साथ लोहा लेकर वीर गति पाना इतिहास की ऐसी घटना है, जिस पर भविष्य में भी गर्व होगा।

लेकिन हरामी सेकुलर लेखकों ने गोगा वीर को गोगा पीर प्रचारित किया ताकि  गजनी से लोहा लेने की हकीकत दबाई जा सके...गोगा जी को सेकुलर साबित करने के लिये उनके पास किसी पीर की कब्र बना दी....

आज भी मारवाड़ में गोगा नवमी को रक्षा बंधन मनाया जाता है इसका मूलकारण है कि मारवाड़ की बहने अपने भाई को गोगा वीर के समान मानती है कि जिस प्रकार गोगा वीर ने सनातन धर्म व बहन बेटियों की रक्षा के लिये अपना पूरा परिवान   न्योछावर कर दिया, वह प्रेरणा भाई को मिलती रहे....

गुरु गोरखनाथ की कृपा से उत्पन्न गोगाजी के इष्ट देव सोमनाथ ही थे। गोगा बाबा ने सोमनाथ से शिव लिंग लाकर गोगा गढ़ में उसकी प्राण प्रतिष्ठा करवाई थी।

 महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर सत्रह बार आक्रमण किया और वहां से अकूत धन संपदा लूटकर गजनी ले गया।

गोगाजी और महमूद गजनवी के बीच 1024 ईसवी में युद्ध हुआ। उस समय गजनवी सोमनाथ पर आखिरी आक्रमण के लिए जा रहा था।  पूर्व में मरुस्थली के मस्तक पर उसका रास्ता गोगाजी ने ही रोका। उस समय गोगाजी ददरेवा के शासक थे। उम्र थी 78 साल। सोमनाथ पर गजनवी के आखिरी आक्रमण के बारे में जिन इतिहासकारों ने लिखा है, उन्होंने गोगाजी और गजनवी के बीच हुए युद्ध का उल्लेख जरूर किया है। गोगाजी और उनकी सेना के लिए यह युद्ध आत्महत्या करने जैसा था। एक तरफ गजनवी की विशाल सेना तो दूसरी तरफ मुट्ठी भर सैनिक। लेकिन सवाल गोगा बाबा के इष्ट देव के मंदिर को लूटने जा रहे लुटेरे को रोकने का था सो संख्या बल गौण हो गया। वर्तमान में जहां गोगामेड़ी है, वहीं पर भीषण युद्ध हुआ। इसमें गोगा बाबा सहित उनके 82 पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र और दौहित्र तथा ग्यारह सौ सैनिक वीर गति को प्राप्त हुए।

जौहर की ज्वाला
गोगाजी के वीर गति पाने के बाद उनके गढ़ की स्थिति का वर्णन भी इतिहासकारों ने किया है। गढ़ का नाम गोगा गढ़ और घोघा गढ़ बताया गया है। गोगा बाबा के परिवार सहित वीर गति पाने का समाचार गढ़ में पहुंचते ही वहां मौजूद स्त्रियां, युवतियां और किशोरियां जौहर की ज्वाला में समा जाती है। इसी दौरान गजनी की सेना लूटमार के लिए गढ़ में प्रवेश करती है। जौहर की ज्वाला में जीवित मूर्तियों को जलते देख गजनी की सेना भयभीत होकर गढ़ से बाहर भाग जाती है।

गोगादेव को विदाई
 
गजनी के साथ युद्ध में गोगा बाबा वीर गति को प्राप्त होते हैं। गजनी की सेना सोमनाथ पर आक्रमण के लिए मरुस्थली में आगे बढ़ जाती है। गोगा गढ़ में जीवित बचे किसान रणभूमि में आते हैं। चारों तरफ शवों के ढेर पड़े हैं। गिद्ध और गीदड़ शवों को नोच रहे होते हैं। शवों के ढेर में से नंदिदत अपने प्रिय गोगा राणा का शव ढूंढ़ निकालते हैं। उसे पीठ पर लादकर शुद्ध स्थान पर ले जाते हैं और वहीं अंतिम संस्कार कर देते हैं। शेष शवों का अंतिम संस्कार मरुस्थली की रेत डाल कर किया जाता है। कई इतिहासकार गोगाजी का अंतिम संस्कार किसानों की ओर से किए जाने का उल्लेख करते हैं।

मरुस्थली के वीर किसानों ने लिया गजनी के लुटेरे से लोहा

ददरेवा से आए किसानों ने गोगाजी का अंतिम संस्कार गोगामेड़ी में उसी जगह किया जहां समाधि बनी हुई है। 

इस जगह पर मंदिर निर्माण की सही तिथि तो ज्ञात नहीं। लोक मान्यता है कि भादरा के पास थेहड़ों से ईंटें लाकर गोगा मेड़ी में मंदिर निर्माण किया गया था। 
विक्रम संवत् 1911 में बीकानेर रियासत के महाराजा गंगासिंह ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया तथा सभी जातियों के जल कुण्डों को निर्माण करवाने के लिए भूमि आवंटित की।

सोमवार, 30 अगस्त 2021

राणा पूंजा सोलंकी

"राणा पूंजा सोलंकी"  पानरवा (भोमट क्षेत्र)

गंभीर मुद्रा में सोच रहा योद्धा एक महान
मैं लड़ा जिस देश ख़ातिर क्या ये है मेरा हिंदुस्तान..

हिंदवा सूरज महाराणा प्रताप को शत-शत नमन...
महान योद्धा राणा पूंजाजी जी को शत शत नमन... 

समरथ जोध सोलंकी  , समहर राणा संग ।
हल्दीघाट हरावल में  ,  रंग "ज" पूंजा रंग ।।

वीर मही मेवाड़ रा ,  सोलंकी "ज" सुचंग ।
हल्दीघाट हरावल में , सोहै प्रताप संग ।।

आज हम हल्दीघाटी के महान योद्धा के इतिहास के ऊपर सत्य जानकारी जानेंगे जो इतिहासकारों ने दंत कथाओं के आधार पर भिल बनाकर इतिहास बिगाड़ दिया..

राणा पूंजा ( 1572 - 1610 ई . ) महाराणा प्रताप द्वारा मुगल  अकबर के विरूद्ध लड़े गये दीर्घकालीन स्वतंत्रता - संग्राम का अदम्य सेनानी , पानरवा का सोलंकी शासक एवं भोमट का गौरव वीर योद्धा राणा पूंजा जिसने 1576 ई . के इतिहास - प्रसिद्ध हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप का साथ दिया । 

1576 ई . से 1586 ई . तक महाराणा प्रताप द्वारा मेवाड़ के विकट पहाड़ों एवं वनों में मुगल बादशाह अकबर के विरुद्ध लड़ी गई दस वर्षीय लड़ाई में राणा पूंजा के नेतृत्व में सोलंकी व आदिवासी भील सैनिकों ने जो अवर्णनीय एवं अविस्मरणीय सहयोग प्रदान किया , उसके कारण प्रताप द्वारा मुगल सेनाओं को परास्त करना संभव हुआ । मुगल - दासता विरोधी मेवाड़ के स्वतंत्रता - संघर्ष के इतिहास में वीर राणा पूंजा का नाम चिरस्मरणीय रहेगा ।  

*"पानरवा के सोलंकी ओर मुगल साम्राज्य के विरुद्ध मेवाड़ का स्वतंत्र संग्राम"

 ।28 फरवरी , 1572 ई . के दिन महाराणा प्रतापसिंह के राज्यारोहण के समय कुम्भलगढ़ में राणा पूंजा सोलंकी अपने सैनिकों व धनुर्धारी भील,  सैनिकों क साथ मौजूद थे। महाराणा प्रतापसिंह के राज्यारोहण - उत्सव में मेवाड़ के सभी बड़े - छोटे सर्दार , जो चित्तौड़ के जौहर से बचे थे , शामिल हुए । उनके अलावा ग्वालियर का राजा रामशाह ( रामसिंह ) और उसके तीन पुत्र , जोधपुर का राव चन्द्रसेन राठोड़ , प्रताप का मामा पाली का राव मानसिंह सोनगरा अपने भ्राताओं सहित , ईडर का राव नारायणदास राठोड़ और  पठान सर हकीमखा सूर आदि मौजूद थे ।

 इस अवसर पर महाराणा प्रताप और उसके सहयोगियों ने मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा की योजना बनाई और मेवाड़ के पहाड़ों में मुगल सेनाओं से लड़ने की छापामार युद्ध - प्रणाली की रूपरेखा तैयार की । इस रणनीति की मुख्य बातें थीं :
 1.   300 मील की परिधि वाले मेवाड़ के पहाडी प्रदेश के भीतर प्रवेश करने वाले सभी मार्गों की नाकेबंदी करना और वहां पर शत्रु के प्रवेश करते समय पहाड़ों के पीछे से निकल कर उस पर अचानक आक्रमण करके उसको जन - धन को हानि पहुँचाना । पहाड़ों में आने पर शत्रु के साथ इसी प्रकार की छापा मार । लड़ाई करना । 

2 . राज्य के कोषागार और शस्त्रागार की सुरक्षा का प्रबन्ध करना ।

3 . पहाड़ों में आवागमन और संचारव्यवस्था तथा तीव्रगामी सूचना की व्यवस्था करना । 

4 . राजपरिवार , सामतों , अधिकारियों आदि की स्त्रियों एवं बचों की सुरक्षित स्थलों पर रक्षा करना । । स्पष्ट है इन सभी उपरोक्त कार्यों में भीलों की प्रधान भूमिका रही । 
पानरवा राणा पूजा के नेतृत्व में पानरवा । और ओगणा के सोलंकी ठिकानेदारों ने इन सब कार्यवाहियों में बढ़ चढ़कर भाग लिया ।

 भोमट के अन्य राजन ठिकानों मादडी . जवास . जड़ा , मेरपर , पहाड़ा आदि के सारों ने भी अपने भील सनिकों के साथ राणा प्रताप को सहयोगा । प्रदान किया । चंकि इन सब ठिकानों की अधिकांश प्रजा भील थी और सिपाही भी भील थे अतएव इन ठिकानेदार को भीलों के सर्दार अथवा कहीं कहीं भील सर्दार लिखा मिलता है । 

इससे यह भ्रम फैला कि ये भोमिया राजपत । ठिकानेदार भोमिया भील है । राणा पूंजा का भील सैनिकों के साथ हल्दीघाटी की लड़ाई में भाग लेना 1572 ई . से 1575 ई . तक महाराणा प्रताप मुगल बादशाह अकबर के साथ आश्वासन देने और बहाना बनाने " की कूटनीति द्वारा लड़ाई को टालता रहा । इस काल के दौरान उसने पहाड़ों में रक्षात्मक युद्ध की पूरी तैयारी कर ली । आखिरकार 1576 ई . के जून माह में 5000 मुगल सेना मेवाड़ पर चढ़ आई

 उस समय महाराणा प्रताप ने मानसिंह की सेना के साथ पहाड़ों से बाहर निकल कर लड़ने का निश्चय किया । चेतक घोड़े पर सवार महाराणा प्रताप ने अपनी 3000 अश्वारोही और पैदल सेना तथा हाथियों को लेकर 18 जून । 1576 ई . के दिन हल्दीघाटी के बाहर निकलकर खमणोर के मैदान में मुगल सेना पर आक्रमण किया और प्रारम्भ में अधिकांश मुगल सेना को छ : कोस तक भगा दिया । भील सैनिक मैदानी लड़ाई के अभ्यस्त नहीं थे , अतएव राणा पूंजा के भील सैनिक मेवाड़ी सेना के चंदावल भाग में पहाड़ों पर ही रहे । 

राणा पूंजा सोलंकी प्रताप की सेना के चंदावल भाग में नियुक्त था जहां उसके साथ पुरोहित गोपीनाथ , पुरोहित जगन्नाथ , बच्छावत जयमल , महता रत्नचन्द खेतावत , महासानी जगन्नाथ , चारण जैसा और केशव आदि भी सेना के पिछले भाग में थे , जो लड़ाई के मैदान में नहीं उतरे । ' वीरविनोद में राणा पूजा को मेरपुर का राणा पूजा और भीलों का सर्दार लिखा है । जिसका आशय यही है कि राणा पूंजा भील सैनिकों का नेता था । आगे वीरविनोद में उसको पानरवा के भीलों का सिरदार लिखा है । 10 सम्भव है उस समय तक पानरवा के सोलंकी ठिकाने का प्रभाव मेरपुर तक रहा हो 

कतिपय लोग जो इतिहास के ज्ञाता नहीं हैं , वे राणा पूजा को इस आधार पर भील होना बताते हैं कि उसको भीलों का सार लिखा गया है । सोलंकी राजपूत राणा पूंजा को भील बताना सर्वथा अनैलिहासिक एवं अप्रामाणिका

 ' महाराणा प्रताप महान ' में भी वीरविनोद पर आधारित बात लिखी गई है । किन्तु महाराणा प्रताप को । हल्दीघाटी की लड़ाई के बाद पानरवा के सोलंकी राणा पूंजा और प्रधानतः उसके भील सैनिकों का जो अटूट सहयोग मिलता रहा , जिसके कारण प्रताप को मुगल विरोधी संघर्ष में अद्वितीय सफलता मिली तथा बाद में महाराणा अमरसिंह को राणा पूंजा के पुत्र राणा राम का जो सहयोग मिला और महाराणा राजसिंह को पानरवा के तत्कालीन राणा चन्द्रभाण ने अपने भील सैनिकों के साथ औरगजेब की मुगल सेना के विरुद्ध लड़ाई में जो मदद की , उसको देखते राणा पूंजा के । 

लिये लडाई के प्रारंभ में भाग जाने वाली बात स्वीकार कर लेना उचित नहीं होगा । वस्तुतः वह हल्दीघाटी की लड़ाई । समाप्त होने से पूर्व पहाड़ों के भीतरी भाग में चला गया था और मुगल सेना द्वारा घाटी में प्रवेश करने पर उसपर । आक्रमण करने हेतु अपने भील सैनिकों के साथ घात लगाकर जम गया था ।

पानरवा का सोलंकी राजवंश ने प्रताप की सेना का पहाड़ी भाग में पीछा करना उचित नहीं समझा । इसलिए यही सही प्रतीत होता है कि जब प्रताप की सेना युद्ध से लौटने लगी तो उससे पहिले ही राणा पूंजा और उसके भील सैनिक यह सोचकर पहाड़ों के भीतरी भाग में चले गये कि मुगल सेना पीछा करती हुई हल्दीघाटी में प्रवेश करेगी और उस स्थिति में वे मुगल सेना पर उस तंग घाटी में दोनों ओर से आक्रमण करके मुगल सैनिकों को मारेंगे

 बडवा ओंकार की नस्लनामा पोथी में पानरवा के राणा पूजा की गद्दीनशीनी का वर्ष वि . स . 1690 गलत लिखा मिलता है । इस आधार पर आजकल कुछ लेखक यह सिद्ध करने पर तुले हुए हैं कि हल्दीघाटी की । लड़ाई में प्रताप के साथ पानरवा का राणा पूजा सोलंकी मौजूद नहीं था । वह राणा पूजा नाम का अन्य कोई भील व्यक्ति था , जो ' भीलों का राजा ' था । किन्तु ऐसी मान्यता बनाना ऐतिहासिक सत्य को झुठलाना होगा । 

संवतों सम्बन्धी गलतियां बड़वों की वंशावली पोथियों में प्रायः देखने को मिलती है । बड़वों की प्रत्येक पीढ़ी अपने पुरुखों द्वारा लिखी वशावलियों की प्रतिलिपि तैयार करके उसमें नवीन नाम जोड़ती रहती थी । प्रतिलिपि तैयार करते समय कई प्रकार की भूलें हो जाती थीं । बड़वा परिवारों में शिक्षित लोग कम होते गये तो इस प्रकार की भूलें भी बढ़ती गई और कई प्रकार की अलौकिक बातों के वर्णन भी उनमें जुड़ते गये ।

 बड़वा ओंकार की पोथी में यद्यपि पूजा राणा की गद्दीनशीनी का वर्ष गलत दिया गया है किन्तु साथ ही उसमें राणा पूंजा और उसके दादा राणा हरपाल का जो सहयोग महाराणा प्रताप के साथ बताया गया है , उससे उसकी संवत सम्बन्धी गलती स्पष्ट हो जाती है । अन्य सभी दस्तावेजों और ग्रंथों में पानरवा के सोलंकी राणा हरपाल के पौत्र राणा पूंजा का ही हल्दीघाटी लड़ाई में मौजूद होना लिखा गया है । 

- गोगुंदा में मुगल सेना का घेराव महाराणा प्रताप हल्दीघाटी से निकल कर गोगंदा होते हए भोमट इलाके में कोल्यारी पहुंचा , जो क्षेत्र उस समय पानरवा ठिकाने के अन्तर्गत था । वहां घायल सैनिकों की सुश्रुषा का प्रबन्ध किया गया । प्रताप ने राणा पूंजा को आदेश देकर सभी भील सैनिकों को हल्दीघाटी से गोगुंदा के पहाड़ी क्षेत्र में बुला लिया । प्रताप ने गोगूदा पर मुगल सेना के संभावित आक्रमण को देखते हुए उसको पूरी तरह खाली करवा दिया ।

 19 जून को जब मंगल सेना हल्दीघाटी होते हुए गोगुंदा पहुँचा तो राणा पूंजा के नेतृत्व में भील एवं राजपूत सैनिकों ने मुगल सेना को चारों ओर से घेराबन्दी कर दी और गोगूदा को जाने वाले सभी पहाड़ी रास्ते बन्द कर दिये । उन्होंने बजारों के काफिलों को रोक कर मुगल सेना की रसद - आपूर्ति बंद कर दी । गोगुंदा से बाहर निकलने वाले मुगल सैनिक मारे जाने लगे । अकबर के खास सेनापति व बड़े-बड़े धुरंधर आतंकित हो गये कि उनको अपनी रक्षार्थ गोगंदा के चारों ओर रक्षक - दीवार बनवानी पड़ी । 

मुगल सेना की इतनी दुर्दशा हुई कि वे भोज्य पदार्थ के बिना भूखों मरने लगे और उनको घोड़ों का मांस एवं आम खाकर काम चलाना पड़ा । ऐसी विपत्ति में फंसने पर सितम्बर माह में मुगल सेना अपने को बचाती हुई गोगूदा छोड़कर हल्दीघाटी से बाहर भाग निकली थी..

जहा मानसिंह जी से बादशाह  नाराज हो गया  । " मुगल सेना के जाते ही महाराणा प्रताप ने गोगूदा पर वापस अधिकार कर लिया और सुरक्षा हेतु चारों ओर भील टुकड़िया तैनात कर दी । प्रताप की छापामार लड़ाई में सोलंकी राणा पूंजा का सहयोग तीन वर्ष 1576 से 1579 ई . तक महाराणा प्रताप के लिए भीषण विपदा के वर्ष रहे । हल्दीघाटी के तीन माह बाद स्वयं बादशाह मेवाड़ पर चढ़ आया । 

उसके बाद उसने तीन वर्ष तक निरन्तर प्रतिवर्ष अपने सेनापति शाहबाजखा । को बड़ी सेना देकर प्रताप का पीछा करने और मेवाड़ के पहाड़ी भाग को तहस - नहस करने हेतु भेजा । प्रताप की कुशल सैन्ययोजना के कारण ये सभी मुगल आक्रमण असफल रहे । इससे बादशाह अकबर बहुत निराश हुआ । इन तीन वर्षों में प्रताप ने पानरवा एवं भीलों की आबादी वाले भोमट के दक्षिणी पहाड़ों को अपनी सैन्ययोजना का प्रधान ।
 क्षेत्र बनाया और झाड़ोल के निकट स्थित ऊचे आवरपर्वत पर दर्ग बनाकर आवरगढ़ को अपनी राजधानी रखी । वहाँ । पर उस काल की प्राचीरों और भवनों के अवशेष आज भी यत्र - तत्र दष्टिगत होते है । यहां स्त्रिया और बच्चे सरक्षित रहे ।

 राणा पूंजा के नेतृत्व में भीलों ने उनकी सुरक्षा का दायित्व निभाया , साथ ही उन्होंने इन तीन वर्षों के दौरान पहाड़ों में छापामार युद्ध - प्रणाली से मुगल आक्रमणों को विफल करने में बड़ा योगदान दिया । भीलों ने पहाड़ों में मुगल सैनिकों को जिस भाति तंग और आतंकित किया तथा उनको जन - धन की हानि पहुंचाई , उससे मुगल सैनिक पहाडी भाग में घुसने और मगल थानों पर ठहरने से कतराने लगे । 1579 ई . तक प्रताप ने अपनी सफलता का सिका । 

पूरी तरह जमा लिया और उसी वर्ष दिवेर के बड़े मुगल थाने पर कब्जा करके और वहां पर नियुक्त थानेदार अकबर के चाचा सुल्तानखां को मार कर प्रताप ने अपना विजय - अभियान शुरू कर दिया । प्रताप की सफलताओं से मेवाड़ के राजपूतों एवं भील सैनिकों का मनोबल सुदृढ़ हो गया । मुगल सैनिक हतोत्साहित हो गये । प्रताप एवं उसके सेनापतियों ने नवीन परिस्थिति में पहाड़ों के बाहर निकल कर मुगल इलाकों में धावे बोलना और लूटमार करना शुरू कर दिया ।

 1579 ई . में प्रताप ने अपनी राजधानी पानरवा क्षेत्र से हटा कर छप्पन क्षेत्र में चावंड में कायम की । पानरवा क्षेत्र को आगे से प्रधानतः राजपरिवार , सामंतों एवं अधिकारियों की स्त्रियों एवं बच्चों के सुरक्षा - स्थल के रूप में उपयोग किया गया , साथ ही चावंड पर आक्रमण होने पर उसको राजधानी का सुरक्षा क्षेत्र बनाया गया । चावंड राजधानी कायम करने से प्रताप को कई लाभ हुए । गुजरात और मालवा की सीमाएं निकट होने से मेवाड़ क्षेत्र के वाणिज्य और उद्यम को बड़ा प्रोत्साहन मिला ।

 कृषि की उन्नति हुई एक बार फिर मेवाड़ की बहुमुखी प्रगति होने लगी । कला और साहित्य फलने - फूलने लगे । राजकोष में वृद्धि हुई । चावंड से मुगल इलाके में थानों पर हमले बोलने , धन एवं साधन प्राप्त करने का कार्य आसान हो गया । इससे मूगलप्रशासन और सेना की परेशानियां बढ़ गई । निस्संदेह ही प्रताप की सैन्य - योजना और प्रशासनिक व्यवस्था की सफलता में पानरवा के सोलंकी राणा पूजा ने अपने भील सैनिकों को साथ लेकर जो अविस्मरणीय योगदान प्रताप को दिया , वह मेवाड़ के मुगल - दासता - विरोधी स्वातंत्र्य - संग्राम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है।

  मेवाड़ में अपनी निरन्तर असफलताओं से निराश होकर 1585 ई . के बाद मुगल बादशाह अकबर ने मेवाड़ से मुंह मोड़ लिया । महाराणा प्रताप ने मेवाड़ के मैदानी भाग के अधिकांश हिस्से पर पुनः अपना अधिकार कायम कर लिया और उसके बाद 1597 ई में प्रताप के देहावसान होने तक मेवाड़ शान्ति और सम्पन्नता का उपभोग करता । रहा । 1605 ई . में अकबर की मृत्यु हो गई और वह अपने जीवन - काल में मेवाड़ को अधीन करने का अपना स्वप्न साकार नहीं कर सका ।

अकबर के उत्तराधिकारी  जहागिर न मेवाड़ को अधीन करने के अपने पिता का सपना पुरा करने के प्रयास शुरू किये । 1506 ई . में शाहजादा प्रवेज़ को बड़ी सेना देकर मेवार लेकर ऊंठाला और देबारी के बीच आ पहुँचा । महाराणा अमरसिंह ने अपने पिता के पद - चिह्नों पर चलने छापामार यब - प्रणाली का सहारा लिया । उसने पानरवा के राणा पूजा सोलंकी के पुत्र कुंवर राम को हजारों सोलंकी सैनिक और  भील सैनिक को साथ मे बुलाया और पहाड़ों में अपनी सेना का प्रधान मददगार और भीलों का सेनापति बनाकर शाही - फौज की रसद । का आदेश दिया । 

रात्रि के समय महाराणा अमरसिंह ने अपनी सेना लेकर मुगल सेना पर आक्रमण करके शाहजादे को मार भगाया और पानरवा के कुंवर राम के नेतृत्व में भील सैनिकों ने शाही खजाने और रसद को लूटा और भाल हए मगल सैनिकों को मारा । " 1606 ई . तक पानरवा के राणा पूजा काफी वृद्ध हो चुके थे , अतएव उस समय भील सैनिकों का नेतृत्व अपने कुंवर राम को देकर महाराणा अमरसिंह की सहायतार्थ भेजा था ।

राणा पूंजा और पानरवा ठिकाने ने मेवाड़ को विकट परिस्थितियों में अपनी हजारों की भील सेना प्रदान की व छापामार युद्ध प्रणाली के द्वारा आक्रमणकारियों से मेवाड़ की सदा हिफाज़त की, वे जाती से सोलंकी (चालुक्य) राजपूत थे।

पानरवा के शासकों को मेवाड़ में 16 उमरावो  के बराबर बैठने का अधिकार प्राप्त था व स्वतंत्र ठिकाना है..

आप सभी से निवेदन है कि इतिहास में राणा पूंजा को भील लिखकर बदनाम नहीं किया जाए वह भीलों के सेनापति थे सोलंकी क्षत्रीय राजपूत...

#सद्रभ : नस्लनामा बढड़वाजी की वंशावलियां 1 . सोलकियों का कुर्सीनामा 2 . सोलंकियों का नस्लनामा बड़वा देवीदान ( गांव दायक्या राजस्थान अभिलेखागार इलाका टोंक ) की पोथी बीकानेर में उपलब्ध बड़वा ओंकार ( गाव दायक्या पानरवा ठिकाने में उपलब्ध इलाका टोक ) की पोथी बड़वा नंदराम ( गांव सीतामऊ ) पानरवा ठिकाने में उपलब्ध की पोथी बड़वा रामसिंह वल्द ईसकदान पानरवा ठिकाने में उपलब्ध की पोथी 3 . पानरवा के सोलकियों की वंशावली 4 . पानरवा के सोलकियों की वंशावली पत्रावली सं . 10 पत्रावली सं . 171 पत्रावली सं . 315 2 . ख्यात गोगुंदा की ख्यात - स . डॉ . हुकमसिंह भाटी ( 1997 ई . में प्रकाशित ) 3 . अभिलेखागार एवं संग्रहालय 1 . राजस्थान राज्य प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान , उदयपुर भोमट का हाल , ग्रंथ सं 2680 2 . राजस्थान राज्य अभिलेखागार ( श्यामलदास - संग्रह ) , बीकानेर बड़वा देवीदान का सोलकियों का कुर्सीनामा पूजाजी का पीढ़ीनामा Report on the hilly tracts of Mewar 
3 . Akbarnama by Abul Fazl ( translation by H . Beveridge )  Akbar  by A . L . Srivastava , वीरविनोद , ले . कविराज श्यामलदास , राजस्थान राज्य अभिलेखागार , उदयपुर , पत्रावली , भोमट , सं .  राव पंजाजी का पीढीनामा - राजस्थान राज्य अभिलेखागार , बीकानेर , श्यामलदास - संग्रह ,भोमट का हाल , राज प्राच्य विद्याप्रतिष्ठान , उदयपुर ग्रंथ सं  . VII राजपूताने का इतिहास , ले जगदीशसिंह गहलोत , भाग । महाराणा प्रताप महान , ले . डॉ . देवीलाल पालीवाल , 

(राणा पूंजा जी के संदर्भ में कुछ पोस्ट फोटो जानकारी कॉमेंट बॉक्स में अपलोड किये है)
"जय वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप" 
"जय राणा पूंजा सोलंकी "

पोस्ट लेखक:- बलवीर सिंह(नाथावत)सोलंकी 
ठिकाना बासनी खलेल, परगना नागौर (मारवाड़)

 

शनिवार, 28 अगस्त 2021

अमीर अली खान पठान की गद्दारी

जब कंधार के तत्तकालीन शासक अमीर अली खान पठान को  मजबूर हो कर जैसलमेर राज्य में शरण लेनी पड़ी। तब यहां के महारावल लूणकरण थे।वे महारावल जैतसिंह के जेष्ठ पुत्र होने के कारण उनके बाद यहां के शासक बने। वैसे उनकी कंधार के शासक अमीर अली खान पठान से पहले से ही मित्रता थी और विपत्ति के समय मित्र ही के काम आता है ये सोचते हुए उन्होंने सहर्ष अमीर अली खान पठान को जैसलमेर का राजकीय अतिथि स्वीकार कर लिया। 

लम्बें समय से दुर्ग में रहते हुए अमीर अली खान पठान को किले की व्यवस्था और गुप्त मार्ग की सारी जानकारी मिल चुकी थी।उस के मन में किले को जीत कर जैसलमेर राज्य पर अधिकार करने का लालच आने लगा और वह षड्यंत्र रचते हुए सही समय की प्रतीक्षा करने लगा। इधर महारावल लूणकरण भाटी अपने मित्र अमीर अली खान पठान पर आंख मूंद कर पूरा विश्वास करते थे। वो स्वप्न में भी ये सोच नहीं सकते थे कि उनका मित्र कभी ऐसा कुछ करेगा।
इधर राजकुमार मालदेव अपने कुछ मित्रों और सामंतों के साथ शिकार पर निकल पड़े। अमीर अली खान पठान बस इस मौके की ताक में ही था। उसने महारावल लूणकरण भाटी को संदेश भिजवाया कि वो आज्ञा दे तो उनकी पर्दानशी बेगमें रानिवास में जाकर उनकी रानियों और राजपरिवार की महिलाओं से मिलना चाहती है। फिर क्या होना था? 
वही जिसका अनुमान पूर्व से ही अमीर अली खान पठान को था। महारावल ने सहर्ष बेगमों को रानिवास में जाने की आज्ञा दे दी। इधर बहुत सारी पर्दे वाली पालकी दुर्ग के महल में प्रवेश करने लगी किन्तु अचानक महल के प्रहरियों को पालकियों के अंदर से भारी भरकम आवाजें सुनाई दीं तो उन्हें थोड़ा सा शक हुआ। उन्होंने एक पालकी का पर्दा हटा कर देखा तो वहां बेगमों की जगह दो-तीन सैनिक छिपे हुए थे।

जब अचानक  षड्यंत्र का भांडा फूटते ही वही पर आपस में मार-काट शुरू हो गई। दुर्ग में जिसके भी पास जो हथियार था वो लेकर महल की ओर महारावल और उनके परिवार की रक्षा के लिए दौड़ पडा। चारों ओर अफरा -तफरी मच गई किसी को भी अमीर अली खान पठान के इस विश्वासघात की पहले भनक तक नहीं थी। कोलाहल सुनकर दुर्ग के सबसे ऊंचे बुर्ज पर बैठे प्रहरियों ने संकट के ढोल-नगाड़े  बजाने शुरू कर दिए जिसकी घुर्राने की आवाज दस-दस कोश तक सुनाई देने लगी। 
महारावल ने रानिवास की सब महिलाओं को बुला कर अचानक आए हुए संकट के बारे में बताया। अब अमीर अली खान पठान से आमने-सामने युद्ध करने के सिवाय और कोई उपाय नहीं था। राजकुमार मालदेव और सांमत पता नहीं कब तक लौटेंगे। दुर्ग से बाहर निकलने के सारे मार्ग पहले ही बंद किए जा चुके थे। राजपरिवार की स्त्रियों को अपनी इज्जत बचाने के लिए जौहर के सिवाय कुछ और उपाय नहीं दिखाई दे रहा था। अचानक से किया गया आक्रमण बहुत ही भंयकर था और महल में जौहर के लिए लकड़ियां भी बहुत कम थी। इसलिए सब महिलाओं ने महारावल के सामने अपने अपने सिर आगे कर दियें और सदा सदा के लिए बलिदान हो गई। महारावल केसरिया बाना पहन कर युद्ध करते हुए रणभूमि में बलिदान हो गए । 

महारावल लूणकरण भाटी को अपने परिवार सहित चार भाई, तीन पुत्रों के साथ को कई विश्वास पात्र वीरों को खो कर मित्रता की कीमत चुकानी पड़ी। इधर रण दुंन्दुभियों की आवाज सुनकर राजकुमार मालदेव दुर्ग की तरफ दौड़ पड़े।
वे अपने सामंतों और सैनिकों को लेकर महल के गुप्त द्वार से किले में प्रवेश कर गए और अमीर अली खान पठान पर प्रचंड आक्रमण कर दिया। अमीर अली खान पठान को इस आक्रमण की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी। अंत में उसे पकड़ लिया गया और चमड़े के बने कुड़िए में बंद करके दुर्ग के दक्षिणी बुर्ज पर तोप के मुंह पर बांध कर उड़ा दिया गया। 

इतिहास की क ई सैकड़ों ऐसी घटनाएं है जिससे हम वर्तमान में बहुत कुछ सीख सकते है।

शनिवार, 21 अगस्त 2021

महाराणा अमर सिंह और जहांगीर से संघर्ष

महाराणा अमर सिंह और जहांगीर 

ये गौरवगाथा एक ऐसे वीर योद्धा की है, जिसने अनबन के कारण मेवाड़ के शासक के सामने कभी अपना सिर नहीं झुकाया, पर उसी सिर को मेवाड़ की ख़ातिर मातृभूमि के चरणों मे भेंट कर दिया और सिद्ध कर दिया कि जब मातृभूमि पुकारती है, तो एक सच्चा राजपूत अपना सर्वस्व समर्पण करने को तैयार हो जाता है।

देलवाड़ा के जैतसिंह झाला के पुत्र मानसिंह झाला महाराणा प्रताप के बहनोई थे, जो कि हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे। मानसिंह झाला के 3 पुत्र हुए :- शत्रुसाल झाला, कल्याण झाला और आसकरण झाला। शत्रुसाल झाला गरम मिजाज़ के थे।
शत्रुसाल झाला महाराणा प्रताप की बहन के पुत्र थे। एक बार इनकी अपने मामा महाराणा प्रताप से तकरार हो गई थी और इन्होंने कहा था कि “आज से मैं सिसोदियों की नौकरी न करुंगा।”

*महाराणा प्रताप ने जब शत्रुसाल को रोकने के लिए उनके अंगरखे का दामन पकड़ा, तो शत्रुसाल ने अपने अंगरखे का दामन काट दिया। महाराणा प्रताप ने कहा था कि “आज के बाद शत्रुसाल नाम के किसी बन्दे को अपने राज में न रखूँगा”

इस तकरार के बाद शत्रुसाल मारवाड़ चले गए, तब महाराणा प्रताप ने क्रोध में आकर झाला राजपूतों से देलवाड़ा की जागीर ज़ब्त की। महाराणा प्रताप ने वीर जयमल मेड़तिया के पौत्र व मुकुन्ददास मेड़तिया के पुत्र मनमनदास को देलवाड़ा जागीर में दिया और वचन दिया की देलवाड़ा जीवनभर आपकी जागीर रहेगी।

ये जागीर मनमनदास को उनके पिता मुकुन्ददास मेड़तिया के जीवित रहते दी थी। कल्याण झाला और आसकरण झाला मेवाड़ के ही गांव चीरवा में रहे। जब मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह मुगलों से भीषण युद्ध कर रहे थे, उस समय कल्याण झाला ने भी महाराणा का साथ दिया।

महाराणा अमरसिंह ने खुश होकर कल्याण झाला को कोई जागीर देनी चाही, पर कल्याण झाला ने कहा कि हमें हमारे बाप-दादों की देलवाड़ा की जागीर ही दी जावे। महाराणा अमरसिंह ने कहा कि वह जागीर हमारे पूजनीय पिता ने मनमनदास को दी थी और वचन भी दिया था कि मरते दम तक जागीर उन्हीं की रहेगी। कल्याण झाला ने कहा कि आपको जागीर देने की इच्छा, हो तो देलवाड़ा ही जागीर में देवें।

1614 ई. में जब शहज़ादा खुर्रम (शाहजहाँ) कुल हिंदुस्तान की फौज समेत मेवाड़ आया, तब महाराणा अमरसिंह ने कल्याण झाला की कर्तव्यपरायणता देखकर उनसे कहा कि हम देलवाड़ा की जागीर आपको देने के लिए तैयार हैं, आप जोधपुर जाकर अपने भाई शत्रुसाल को भी यहाँ ले आओ।

इसी दौरान संयोग से जोधपुर के राजा सूरसिंह  के पुत्र कुँवर गजसिंह  से शत्रुसाल झाला की तकरार हो गई। कुँवर गजसिंह ने शत्रुसाल से कहा कि “महाराणा अमरसिंह जी तो आजकल अपनी रानियों के साथ पहाड़ों में मारे-मारे फिरते हैं।”

शत्रुसाल झाला ये सुनते ही उठ खड़े हुए और कहा “हाँ संभव है उनको अपनी बहन-बेटियों का सम्मान अधिक प्रिय हो”। कुँवर गजसिंह ने कहा कि “महाराणा के ऐसे हितैषी को तो बादशाही फौज के हाथों मरना चाहिए”।

तब शत्रुसाल झाला ने कहा कि “आपकी इस नसीहत को याद रखते हुए मैं वचन देता हूँ कि मरूँगा तो सिर्फ महाराणा और मेवाड़ की खातिर और रही बात बादशाही फौज की तो उनको भी आज असल रजपूती तलवार का स्वाद चखा ही देता हूँ। उन्हें भी तो मालूम पड़े कि एक सच्चे राजपूत की तलवार कितना लहू पीती है।”

इतना कहकर मेवाड़ लौटते वक्त शत्रुसाल झाला की अपने भाई कल्याण झाला से मुलाकात हुई और पता चला कि महाराणा अमरसिंह ने उन्हें देलवाड़ा की जागीर लौटा दी है। ये सुनकर शत्रुसाल झाला की आंखें भर आईं, क्योंकि उन्हें अपने पूर्वजों की जागीर पुनः प्राप्त हो गई।

शत्रुसाल झाला ने कल्याण झाला से कहा कि “पिछली बार मैंने अपने मामा महाराणा प्रताप से झगड़ा किया था। अब अगर मैं इस तरह महाराणा अमरसिंह के सामने गया, तो वे कहेंगे कि शत्रुसाल इतने वर्षों बाद मेवाड़ आया है और वो भी खाली हाथ। महाराणा के सामने खाली हाथ जाना ठीक न होगा, क्यों न मैं अपने प्राण ही दे दूँ”

दोनों भाईयों ने अपने कुछ गिने-चुने 100-200 झाला राजपूतों के साथ मुगल फौज पर हमला करने का फैसला किया। मेवाड़-मारवाड़ की सीमा पर आंवड़-सांवड़ की नाल में नवाब अब्दुल्ला खां अपनी फौज के साथ तैनात था। (नाल :- मेवाड़ में तंग पहाड़ी घाटियों को नाल कहा जाता था। यहां देसूरी की नाल, केवड़ा की
 नाल, आंवड़-सांवड़ की नाल प्रसिद्ध थी।)

दोनों भाईयों का मुकाबला अब्दुल्ला खां की फौज से हुआ। कई मुगल मारे गए व मेवाड़ की तरफ से भोपत झाला समेत कई राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए। संख्या में कम होने के कारण दोनों भाई अलग-अलग पहाड़ियों में चले गए पर गम्भीर रुप से घायल हुए।

शत्रुसाल झाला तो मेवाड़ की पहाड़ियों में गए, पर कल्याण झाला के घोड़े ने अपने प्राण त्याग दिए, जिस कारण वे पास के ही एक मन्दिर में रुके।

 अब्दुल्ला खां को कल्याण झाला की ख़बर मिली, तो मुगल फौज ने उनको घेर लिया।

एक अकेला राजपूत तब तक लड़ता रहा, जब तक उसके तीर समाप्त न हो गए। कल्याण झाला के पास जब तक तीर थे, तब तक किसी को अपने पास तक नहीं आने दिया, पर तीर खत्म होने के बाद अब्दुल्ला खां उन्हें कैद कर खुर्रम के पास ले गया।

बादशाहनामे में लिखा है कि “शहज़ादे खुर्रम ने कल्याण झाला की मरहम पट्टी वगैरह की और उसे जीवित छोड़ दिया”। मेवाड़ में अत्याचारों की सभी हदें पार करने वाले ख़ुर्रम ने यहां ऐसी दरियादिली कैसे दिखा दी, ये तो वक्त ही जानता है।

कल्याण झाला को तो जीवनदान मिल गया, पर शत्रुसाल झाला तो जोधपुर से महाराणा के लिए मरना ठान के निकले थे, इस खातिर उन्होंने पहाड़ों में ही अपने घाव ठीक किए और कुछ दिन बाद गोगुन्दा के शाही थाने पर हमला कर दिया।

गोगुन्दा में मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह के काका और जगमाल के छोटे भाई विश्वासघाती सगरसिंह सिसोदिया के नेतृत्व में हज़ारों की फौज तैनात थी। इस लड़ाई में शत्रुसाल झाला के कुल 39 घाव लगे, जिससे गोगुन्दा के पास रावल्या गांव में वे वीरगति को प्राप्त हुए।

इस तरह शत्रुसाल झाला ने अपने जीवन में जितने भी वचन लिए, पूरे किए। अनेक शत्रुओं और विश्वासघातियों को यमलोक भेजकर उन्होंने अपनी लहू की अंतिम बूंद तक युद्ध लड़ा। निश्चित ही यदि इस समय महाराणा प्रताप जीवित होते, तो अपने भांजे की इस वीरता पर अति प्रसन्न होते।

महाराणा अमरसिंह ने ये नियम बना रखा था कि कोई भी जागीर सदा एक ही सामंत या उसके वंशजों के पास रहे, ये जरूरी नहीं। जागीर वंश परंपरा के अनुसार नहीं, बल्कि कर्तव्यपरायणता के अनुसार दी जाएगी। शत्रुसाल झाला की ये वीरता निश्चित ही उनके वंशजों के लिए भी उपयोगी सिद्ध हुई।
महाराणा अमरसिंह ने शत्रुसाल झाला की बहादुरी देखकर गोगुन्दा की जागीर शत्रुसाल झाला के पुत्र कान्ह झाला को दे दी, तब से लेकर आज तक गोगुन्दा झाला राजपूतों का ठिकाना रहा है। इस तरह शत्रुसाल झाला को मरणोपरांत गोगुन्दा के पहले “राजराणा” की उपाधि दी गई व कान्ह झाला दूसरे राजराणा कहलाए।

जारी.............

महाराणा अमर सिंह और जहांगीर

महाराणा अमर सिंह और जहांगीर 

1614 ई. के अंतिम 2-3 माह में ख़ुर्रम के नेतृत्व में समूचे मुगल साम्राज्य की सेनाओं ने मेवाड़ के राजपूतों को चारों ओर से घेर लिया। राजपूतों तक रसद पहुंचनी बन्द हो गई। खेत पहले ही जला दिए गए थे। मेवाड़ के जो राजपूत जिन पहाड़ियों में थे, वे वहीं फंस गए।

इन दिनों महाराणा अमरसिंह ने जिन परिस्थितियों का सामना किया, ऐसी भयंकर परिस्थितियों का सामना तो कभी महाराणा प्रताप को भी नहीं करना पड़ा। पर इन परिस्थितियों से भी महाराणा अमरसिंह के मन में एक पल के लिए भी अपने पूर्वजों की महान परंपरा को तोड़ने का ख्याल नहीं आया।
परन्तु मेवाड़ के सामंत और कुँवर कर्णसिंह आदि के मन वर्षों से रक्तपात और 1614 ई. के भयंकर आक्रमण से टूटने लगे, क्योंकि जिस मातृभूमि की रक्षा की ख़ातिर वे बरसों से अपना सर्वस्व दांव पर लगाने को तत्पर थे, वह मातृभूमि इतने प्रयासों के बाद भी परतंत्रता की ओर बढ़ रही थी।

इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि “लंबे समय से चली आ रही यह अत्यंत पीड़ादायी लड़ाई मेवाड़ के लिए ऐसी आपदा बन चुकी थी, जिससे निस्तार का कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा था। मेवाड़ पर बहुत अत्याचार हो रहे थे। जन साधारण का विनाश, मंदिरों का विध्वंस, मृत शरीरों का छिन्न-भिन्न करके छितराया जाना, आम जनता की औरतों और बच्चों को नीलाम करना, घरों को फूंकना, पकी फसलों को जलाना आदि अत्याचारों से मेवाड़ का सामाजिक व आर्थिक ढांचा हिल गया।”

महाराणा अमरसिंह व रहीम के बीच पत्र व्यवहार :- महाराणा अमरसिंह की सेना दिन-दिन कम होती गई और प्रजा पर अत्याचार होने लगे, तो महाराणा बड़ी दुविधा में फँस गए। एक तरफ उनकी प्रजा सरेआम नीलाम हो रही थी और दूसरी तरफ पिछले 1050 वर्ष पहले गुहिल से चली आ रही मेवाड़ की स्वाधीनता दाँव पर लगी थी।

दुविधा ये की इन दोनों में से महाराणा को किसी एक को चुनना था। महाराणा अमरसिंह ने एक दोहा लिखा और कहा कि इसे अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना के पास भेज दिया जावे।

कृष्णभक्त अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना बैरम खां का बेटा था। ये वही सिपहसालार था, जिसकी बेगमों को महाराणा प्रताप के समय कुँवर अमरसिंह ने बन्दी बनाया था व महाराणा प्रताप ने सभी को मुक्त किया। तब से रहीम मेवाड़ का तरफदार रहा।

महाराणा अमरसिंह ने इस दोहे के ज़रिए रहीम से पूछा कि कब तक मुझे और मेरे साथियों को वन में भटकना चाहिए :- गोड़ कछाहा राठवड़, गोखा जोख करंत। कहजो खानांखान ने, वनचरु हुआ फिरंत।। तँवरां सूं दिल्ली गई, राठौड़ां सूं कन्नौज। अमर पूछे खान ने, सो दिन दीसै अज्ज।।

अर्थात् महाराणा अमरसिंह रहीम से कहते हैं कि तंवर राजपूतों के हाथ से दिल्ली गई थी, राठौड़ राजपूतों के हाथ से कन्नौज गया था। आज फिर वही दिन आया लगता है, हमारे हाथ से मेवाड़ जाने लगा है।

अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना ने महाराणा को जवाब में ये दोहा लिखा :- धर रहसी रहसी धरम, खपजासी खुरसाण। अमर विशंभर ऊपरा, राखो निहचो राण।। अर्थात् हे राणा अमरसिंह ! धरती रहेगी, धर्म भी रहेगा, पर मुगल साम्राज्य एक न एक दिन नष्ट हो जाएगा। गैरत के आराम से इज्जत की तकलीफ अच्छी, इसलिए आपको धैर्य रखना चाहिए।

रहीम के इस संदेश से महाराणा अमरसिंह को कुछ तसल्ली हुई, जिसके बाद वे कुछ और लड़ाइयां लड़े, परन्तु समूचे मुगल साम्राज्य के सामने मेवाड़ की छोटी सी सेना कब तक सामना करती। मेवाड़ के लोगों और अपनों की हालत देखकर मेवाड़ के सामन्तों और कुँवर कर्णसिंह के हौंसले अब पस्त होने लगे।

(रहीम व महाराणा अमरसिंह के बीच हुए इस पत्र व्यवहार को इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा सत्य घटना मानते हैं, परन्तु अन्य बहुत से इतिहासकार इस घटना को इसलिए खारिज करते हैं क्योंकि उस समय मेवाड़ चारों ओर से घिरा हुआ था और वहां से आगरा तक पत्र व्यवहार सम्भव नहीं था। बहरहाल, सत्य जो भी हो, मेवाड़ के महाराणा का हृदय धर्मसंकट में पड़ गया।)

तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि “मेवाड़ में जहां-जहां रहने की जगह खराब थी और बीहड़ जंगल थे, वहां भी ख़ुर्रम ने राणा के पीछे एक के बाद एक फ़ौज भेजकर थाने बिठा दिए। शहज़ादे ने भारी गर्मी और भारी बरसात की भी कोई फिक्र नहीं की। मेरे हुक्म से मेरे बेटे खुर्रम ने राणा अमर के मुल्क के लोगों को कैद कर लिया। राणा को पैगाम भेजा गया कि या तो अपने मुल्क के लोगों की हिफाजत के लिए बादशाही मातहती कुबूल करे या उनकी परवाह किये बगैर अपने मुल्क को छोड़कर चला जावे”

क्या यहां कुँवर कर्णसिंह को दोष दिया जाना उचित है ? जी नहीं, कुँवर कर्णसिंह का तो जन्म ही जंगलों में हुआ था, वनवासी की तरह उन्होंने जीवन के 28 वर्ष इन जंगलों में रहकर बिताए और हर लड़ाई में अपने पिता का साथ दिया।

क्या यहां मेवाड़ के सामन्तों को दोष दिया जाना चाहिए ? जी नहीं, मेवाड़ के इन सामन्तों की कई पीढ़ियों ने मातृभूमि की ख़ातिर अनेक बलिदान दिए और वे स्वयं भी बलिदान देने से पीछे हटने वालों में से नहीं थे। उन दिनों जीवन का बलिदान देना मेवाड़ के बहादुरों के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी।
बात प्राणों की नहीं, मान सम्मान की थी, क्योंकि अब राजपरिवार और सामन्तों की स्त्रियों पर भी संकट आने का भय था। मेवाड़ जिस मान सम्मान के लिए लड़ रहा था, यदि वो मान सम्मान ही संकट में हो तो फिर किसकी रक्षा की जाए। कुँवर कर्णसिंह व मेवाड़ के सामन्त भलीभांति महाराणा अमरसिंह के हृदय को समझ सकते थे।
महाराणा अमरसिंह का हृदय कांपने लगा। परन्तु ये कंपन ना तो अपने प्राणों के लिए थी और ना ही किसी भय के कारण। ये कंपन थी मेवाड़ की महान स्वतंत्र परंपरा को तोड़ने का अपमान सहन करने की। ये कंपन थी प्रजावत्सल महाराणा अमरसिंह की प्रजा के सरेआम नीलाम होने की।

मेवाड़ के सामंतों ने मिलकर सलाह की, जिसमें मुगल शहज़ादे खुर्रम से संधि की बात करना तय रहा, लेकिन सामंतों ने संधि वाली बात महाराणा अमरसिंह को बताना ठीक नहीं समझा, क्योंकि उन्हें पता था कि महाराणा इसके लिए कभी राजी नहीं होंगे।

साथ ही सभी सामंत ये भी जानते थे कि महाराणा अमरसिंह कभी भी दूसरे राजाओं की तरह बादशाही दरबार में जाकर मुगल बादशाह को सलाम नहीं करेंगे, इसलिए सामंत चाहते थे कि संधि कुछ इस तरह से हो कि महाराणा को मुगल दरबार में हाजरी ना देनी पड़े और महाराणा की जगह कुँवर कर्णसिंह को दरबार में भेज दिया जावे।

सभी सामंत एकमत से कुँवर कर्णसिंह के पास गए और उनसे कहा कि “बादशाही फ़ौज इस कदर हावी हो चुकी है, कि हमारी स्त्रियों और बच्चों तक के पकड़े जाने का खतरा मंडराने लगा है, प्रजा पर अत्याचार हो रहे हैं, इस ख़ातिर आप यदि तैयार हों, तो हम सन्धि की बात आगे बढ़ाएं।”

कुँवर कर्णसिंह ने कहा कि “हम स्वयं भी यही कहना चाहते थे, परन्तु दाजीराज के सामने ये कहने का साहस नहीं है मुझमें। पर आप सभी साथ हों, तो इस सन्धि की वार्ता के लिए मैं ख़ुर्रम से बात करने को तैयार हूं।”

जारी.......

ग्वालियर के महाराजधिराज मानसिंह तोमर जी

तोमर राजवंश के महान शासक , ग्वालियर के महाराजधिराज मानसिंह तोमर जी की जयंती पर उन्हें बारम्बार नमन् .
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तोमर राजवंश में जितने भी राजा महाराजा हुये उन्हें इतिहासकारों ने एकमत से कहा है कि तोमर राजवंश के सारे राजा महाराजा बेहद उच्च कोटि के विद्वान एवं धर्मज्ञ , साहसी, वीर , पराक्रमी और उदार , त्यागी व बलिदानी हुये , विद्धता और उदारता में , रण कौशल, बहादुरी पराक्रम में जहॉं ग्वालियर महाराजा मान सिंह तोमर का नाम सर्वोपरि आता है तो उन्हें अति उच्च कोटि का साहित्यकार, धर्म मर्मज्ञ , संस्कृति रक्षक व सनातन धर्म का सर्वाच्च सेवक भी माना जाता है , राजपूती काल गणनाओं में महाराजा मान सिंह तोमर का नाम ऐसे वीर योद्धा के रूप में शुमार किया जाता है जिसने अपने जीवन काल में अनेक युद्ध किये और सदैव विजयी रहे , हर शत्रु को हर रण में बुरी तरह न केवल मार भगाया बल्कि मध्यभारत की ओर या ग्वालियर चम्बल की ओर जिसने भी ऑंख उठाने की जुर्रत की उसका या तो शीष उतार लिया या कैद कर लिया या भागने पर मजबूर कर दिया , अपनी मृत्युकाल तक अविजित रहे इस विजेता महाराजा की सबसे बड़ी खासियत थी संगीत, नृत्य, साहित्य व प्रभु से लगाव , प्रेम प्यार और प्रीति की साक्षात प्रतिमूर्ति , महाराजा मान सिंह तोमर की राजपूत रानीयों के अलावा एक गूजर प्रेमिका थी जिसका नाम निन्नी था , सुंदरता व बहादुरी की बेजोड़ मिसाल निन्नी , महाराजा मान सिंह तोमर की अतुल्य प्रेमिका थी , जिससे महाराजा मान सिंह तोमर ने विधिवत विवाह कर ग्वालियर किले के निचले हिस्से में एक अलग से महल बनवाया , जिसे गूजरी महल कहा जाता है , मान मंदिर ( महाराजा मान सिंह तोमर के राजमहल) के ऐन नीचे ग्वालियर किले के निचले हिस्से की तराई में गूजरी रानी का राजमहल स्थित है, महाराजा मान सिंह तोमर के राजमहल से एक सीधी सुरंग गूजरी रानी के राजमहल , गूजरी महल तक जाती है, इसी सुरंग के जरिये महाराजा मान सिंह तोमर अपनी प्रियतमा रानी निन्नी से मिलने जाते थे, बेहद खूबसूरत नेत्रों व कमल नयनों वाली इस बहादुर , शूर वीर गूजर रानी को उसकी सुंदरता से , सौंदर्य से अभिभूत होकर महाराजा मान सिंह तोमर ने उसे ''मृगनयनी'' नाम दिया और इतिहास में महाराजा मान सिंह तोमर की यह प्रेमिका रानी मृगनयनी नाम से ही विख्यात हुई.

ग्वालियर महाराजा मान सिंह तोमर बेहद सुप्रसिद्ध वैभवशाली, बहुत प्रतापी और यशस्वी महाराज रहे हैं ... ग्वालियर को जो आज संगीत की राजधानी कहा जाता है यह महाराजा मान सिंह तोमर के कारण ही कहा जाता है .. महाराजा मान सिंह तोमर ने ही ध्रुपद का आविष्कार किया ... महाराजा मान सिंह तोमर के दरबार में ही थे महान गायक और संगीतकार... तानसेन और बैजू बावरा .... महाराजा मान सिंह तोमर ने ही ग्वालियर किले का पुनरूद्धार व जीर्णोद्धार कराया और सिकंदर लोदी और इब्राहीम लोदी को अनेकों बार धूल चटाई ... इतिहास में प्रसिद्ध लड़ाईयों में लोदीयों को महाराजा मान सिंह तोमर ने कई बार बुरी तरह मार भगाया .... जितने यशगान महाराजा मान सिंह तोमर के गाये जाते हैं उसमें सबसे अधिक महाराजा मानसिंह तोमर के साथ संगीत सम्राट तानसेन के भी यशगान प्रसिद्ध है .... महाराजा मान सिंह तोमर के रहते कोई मुगल या लोदी या बाहरी आक्रमणकारी मध्य भारत तक पॉंव नहीं धर पाया ... महाराजा मान सिंह तोमर का ही एक सेनापति कुंवर तेजपाल सिंह तोमर था जिसने दिल्ली के लोधी दरबार में में सिंह गर्जना कर हुंकार भरी थी ... कि मैं वह तोमर हूँ जिसके पुरखे ने इसी दिल्ली में किल्ली गाड़ी थी .... जो शेषनाग के फन को चीरती हुयी धरती में धंसी और पार कर गई .... उसने लोदी के ही दरबारमें लोदी को बुरी तरह गरिया डाला और कहा कि हम तोमर हैं तेरे जैसे दुष्टों को चीर कर धरती को तेरे लहू से स्नान करा देंगें .... इस पर लोदी ने दूत की मर्यादा भूल कर उसका सिर वहीं कलम करवा दिया था ओर दिल्ली के पुराने किले के तोमर महल में उसका कटा हुआ सिर लटकवा दिया था, लेकिन उसने अपना सिर कटने से पहले लोदी के दरबार में काफी प्रलय ढा दी थी और लोदी के कई दरबारी ओर सेना प्रमुखों को मार कर मौत के घाट उतार लोधी का दरबार लहू से लाल कर दिया था ... महाराजा मान सिंह तोमर महान साहित्यकार भी थे ... उन्होंने अनेक दोहों , चौपाईयों , कविताओं एवं अनेक छन्दों की रचना की .. विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ मान कुतूहल की रचना उन्हीं ने की.. महाराजा मान सिंह तोमर के ही एक महा आमात्य खेमशाह ने प्रसिद्ध ग्रंथ''बेताल पच्चीसी''की रचना मानिक कवि से कराई ... मान कौतूहल का फारसी अनुवाद फकीर उल्ला सैफ खॉं ने किया ... इसके अलावा महाराजा मान सिंह तोमर के दरबार में प्रसिद्ध साहित्यकार व संगीतकार बक्शु, महमूद लोहंग, नायक पाण्डेय, देवचंद्र, रतनरंग, मानिक कवि, थेघनाथ, सूरदास (बचपन काल में) , गोविंददास, नाभादास, हरिदास, कर्ण, नायक गोपाल, भगवंत, रामदास वगैरह थे ... भक्तमाल नामक ग्रंथ यहीं महाराजा मान सिंह तोमर के ही दरबार काल में लिखा गया, स्वयं महाराजा मान सिंह तोमर ने सावंती, लीलावती, षाढव, मानशाही, कल्याण आदि रागों के गीत लिखे हैं , ''रास '' नामक नृत्य नाटिका का आविष्कार स्वयं महाराजा मान सिंह तोमर ने ही किया ... जो कि आज रास लीला के नाम से बेहद प्रसिद्ध नृत्य नाटिका कही पुकारी जाती है, महाराजा मानसिंह तोमर ने ग्वालियर के निकट ही बरई में विशाल रास मण्डल का निर्माण कराया , रास नृत्य शैली को बृज क्षेत्र में ले जा कर हरिराम, हरिवंश ओर हरिदास ने चरमोत्कर्षपर पहुँचाया .

शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

वीर दुर्गादास

मारवाड़ के लोह पुरुष वीर दुर्गादास

"आठ पहर चौसठ घड़ी , घुड़ले उपर वास |
सैल अणी स्यूं सैकतो, बाटी दुर्गादास || ""

आज एक ऐसे राष्ट्रनायक की जयंती है जिसने मारवाड़, मेवाड़, जयपुर को ही नहीं बल्कि सुदूर दक्षिण की मराठा शक्ति को राष्ट्र के साझा शत्रु के सामने संयुक्त रूप से खड़ा कर भारत के एक राष्ट्र होने के भाव को पुष्ट किया।

आज ऐसे राष्ट्र नायक की जयंती है जिसका जीवन भारत राष्ट्र की राष्ट्रीयता (भारतीयता) का जीवंत प्रतीक था। उनमें भगवान राम जैसा त्याग और मर्यादाओं के प्रति लगाव था तो भगवान कृष्ण जैसा राजनीतिक चातुर्य था। अपने लक्ष्य के प्रति उनमें ध्रुव और प्रहलाद जैसी एक निष्ठता थी तो हनुमान जी जैसी तेल और सिंदुर में ही प्रसन्न रहने की अकिंचनता थी। प्रताप जैसा तेज था तो शिवाजी जैसा शौर्य था। हमीर जैसी शरणागतवत्सला थी तो पाबूजी और तेजाजी जैसा वचनपालन था। 

यदि हमें देश के सभी राष्ट्रनायकों के एक साथ किसी एक व्यक्तित्व में दर्शन करने हों तो हमें दुर्गादास जी को देखना चाहिए। 

ऐसे महान दुर्गा बाबा को उनकी  जयंती पर सादर नमन।

दुरगादास रौ सुजस

दुरगादास रौ सुजस 

कमधज कुल़ री कीरती,मारवाड़ सिरमोड़।।
अनमी   सेवक  ऊजल़ौ, दुरगदास राठौड़।।(१)

आसकरण सुत ओल़खै,जसवंतें जोधांण।।
सैनिक  राख्यौ सूरमों,दुरगदास  कर तांण।।(२)

अरक ताप अत आकरौ,जसवंत करै छांव।।
मान  राखियौ  मौकल़ौ,दुरगे  तणो  उमाव।।(३)

धवल़ मना सामी धरम,धरणी धरियौ धीर।। 
अवल असूलीआदमी, दुरगो कमधज वीर।।(४)

अंगरकसक  अजीत रौ,छतर बणै की छांव।।
हरपल  सह  रह हेत सूं, दुरगे  खेल्या  दांव।।(५)

लेस न रहियौ लालची, स्याम धरम सूं नेह।।
जोधांणै  रख   जाबतौ,दुरगे   सहियौ   देह।।(६)

काचा  राजा  कान रा,दुरग छुड़ायौ देस।।
भूल करी हद भूपती,तन मन लाए  तेस।।(७)

हड़ूमान ज्यूं हालियौ,रजवट पाल़ै रीत।।
दुरगै साथै देखतां,ओछी करी अजीत।।(८)

सूरज चांद  गगन सदा,धर दुरगे  रौ  नाम।।
वीर सिरोमणी वसुधा,सेवक धरमी स्याम।।(९)

कमधज कीरत कारणै,कुल़भूसण  करणोत।।
दुरगे  री  दरियादिली, जस री जगमग जोत।।(१०)

छिपरा  तट  रै   छेवटै, दुरगे   त्यागी   देह।।
दो गज जमी न दे सकै, छुछकै कीधौ छेह।।(११)

राठौड़ी राखी रिदै,भुजबल़ सूं  भरपूर।।
कीरत दुरगादास री,दसां  दिसावां दूर।।(१२)

अंतस रौ नीत ऊजल़ौ,आसकरण री आस।।
कमधज  कुल़  रौ  केहरी,धरमी  दुरगदास।।(१३)

सामधरम पाल़ै सदा,अनमी राखी  आंण।।
सूरवीर  दुरगो  सही, धरा   प्रीत जोधांण।।(१४)

सफीयतुनिसा  सहज सै,ओल़खती आवाज।।
दुरगदास  नह  देखियौ, सरणागत  सरताज।।(१५)

मुकनदास  खींची  मिलै,दिल्ली  रै  दरबार।।
अवल अजीत उठावियौ,दुरगदास सिरदार।।(१६)

फैली  सुवास  फूठरी, कीरत   हंदा  काज।।
दुरगो छिपरा दागियौ,रल़पट मिनखां राज।।(१७)

ओरंग आंख औजका,दुरगो सिंघ दहाड़।।
दरबारी धूजै दरस,हरवल  खड़ौ  पहाड़।।(१८)

कमधज रण में काटकै,घणो कियौ घमसांण।।
मुंड  काटिया   मौकल़ा, सूरै   दुरग  सुजांण।।(१९)

चरित दुरग रै चांदणै,रजपूती रखवाल़।।
पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़ै,खासौ राख खयाल।।(२०)

दुरगे रिपुदल़ दाटिया,हित स्वामी हरमेस।।
संघर्षरत रयौ सदा, परम    रूप  परमेस।।(२१)

सत सत नमन सिरोमणी,वाल्हो वसुधा वीर।।
दुरगे सम  नह  देखियौ,सटकातौ   समसीर।।(२२)

अमर हुवौ इल़ ऊपरै, जस   फैल्यौ पुरजोर।।
कमधज कीरत कारणै, गरब फिरां चहुँओर।।(२३)

रिदै मरठ हद राखतौ,प्रण पाल़्या प्रयास।।
इल़ होयौ नह ऐहड़ौ,जिसड़ौ  दुरगादास।।(२४)

चउदस  सांवण  चांदणी,दरसण दुरगादास।।
आसकरण रै आंगणै,असल खुसी उल्लास।।(२५)

माँगू सिंह बिशाला