शनिवार, 17 सितंबर 2022

तलवार के विभिन्न हिस्सों के नाम

तलवार के विभिन्न हिस्सों के नाम



तलवार के विभिन्न हिस्सों के नामों की जानकारी आम तौर पर कोई नहीं जानते हैं. पर यह बहुत ही रोचक है. तलवारों का प्रयोग आम तौर पर आजकल शादियों या सजावट के तौर पर होता रहा है.

उपरोक्त चित्र में इसके बारे बताया है. जिसे सभी प्रयोगकर्ताओं को जानना चाहिए.

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

योद्धा पत्ता परमार


योद्धा पत्ता परमार

बात उन दिनों की है जब चितलवाना पर राव आन्नदसिंह चौहान का शासन था जो सांचौरा चौहानो की #बल्लूओत् शाखा से थे।
एक दिन चितलवाना के कोट में सरदारो की बैठक थी।
 चौहान सरदार आपस में अफीम-पान कर रहे थे और हुक्के से तम्बाकू का कश खींच रहे थे वैसे ठाकुर के साथ हुक्का-पान करने का अधिकार साधारण सरदारों को नही था, फिर भी #पत्ता_परमार ने जो साधारण राजपूत सरदार था हुक्का-पान करने के लिए अपना हाथ हुक्के की ओर बढ़ाया! 
इस पर वहां उपस्थित चौहान सरदारों ने उसका हाथ पकड़ लिया।
पत्ता परमार ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोध में आकर हुक्का फोड़ दिया और अपने घर आ गए।
कुछ समय बाद मुसलमान सरायां ने चितलवाना की गाये घेर ली उस समय पत्ता परमार नारु (बाला)रोग से ग्रसित थे और चारपाई पर लेटे हुए थे।
पत्ता की मां ने अपने पूत्र से कहा की जिसका तूने हुक्का फोड़ा था उस पर सरायें चढ़ आए हैं और गांव की गाये घेर ली है। हुक्का फोड़ कर तूने कोई वीरता का कार्य नहीं किया है!
 अब इस विकट घड़ी में हाथ चलाए तो तेरा यश रहेगा!
मां के वाक्य सुनकर पत्ता परमार को जोश आ गया।
वह अश्वारुढ़_होकर बड़े वेग से क्षत्रुओ पर टूट पड़े। उनके वार से सेनाध्यक्ष घोड़े से नीचे गिर गया उसने नीचे पड़े ही पत्ता के तीर मारा जिससे पत्ता भी घोड़े से नीचे गिर गये लेकिन उन्होंने पुनः सम्भल कर अपनी तलवार से सेनाध्यक्ष पर वार किया जिससे उसके #प्राण_पखेरु उड़ गये।
बाद में घायल पत्ता परमार ने हुक्का-पान करने की इच्छा प्रकट की। इस पर चौहान सरदारों ने पत्ता को बड़े सम्मान के साथ हुक्का-पान कराया और हुक्का-पान करने के कुछ ही क्षण पश्चात पत्ता परमार #वीरगति को प्राप्त हुए।
इस प्रकार पत्ता परमार ने स्वामीभक्ति का परिचय देकर आखिर मरते समय चौहान सरदारों के साथ हुक्का-पान करने का सम्मान पा ही लिया।
#परमार_एक_सुप्रसिद्ध_राजवंश_है जिसमें भोज परमार जैसे शूरवीर व दानी योद्धा हुए। मारवाड़ में परमारो की #काबा,#भायल, #सोढ़ा,#सांखला, #वाल्हा,#महपावत् आदी उपशाखाओ के ठिकाने व गांव रहे हैं जो वर्तमान में भी इन ठिकानों तथा गांवों में आबाद है।
परमार_व_पवांर_एक_ही_राजवंश_है।

पवांर राजवंश का ये #दोहा प्रसिद्ध है--
                        
"जंह पवांर तंह धार है, जहां धार वहां पवांर।
धार बिना पवांर नहि,नहि पवांर बिन धार।।"

स्रोत

सोनगरा व सांचौरा चौहानों का इतिहास
(डॉ.हुकमसिंह भाटी)

वीर पत्ता जी का जन्म जालोर जिले के #सांथू गांव में हुआ था। लुटेरो से गांव की रक्षा करते हुए इन्होंने प्राण उत्सर्ग कर दिए। सांथू गांव,जालोर में इनका विशाल मन्दिर है जहां भाद्रपद शुक्ला नवमी को मेला भरता है।

(स्रोत- राजस्थान का इतिहास,कला, संस्कृति, साहित्य,परम्परा एवं विरासत)

बुधवार, 6 जुलाई 2022

आमेर के राजा मानसिंह और अफगान


 आमेर के राजा मानसिंह और अफगान
अफगान/पश्तून एक गज़ब की उपद्रवी योद्धा जनजाति रही है जिसे काबू में करने में अच्छे अच्छे साम्राज्यों के पसीने निकल गए। ब्रिटिश एम्पायर जिसके बारे में कहा जाता है की उस राज में सूर्य अस्त नहीं होता था उन अंग्रेजों को पठानों ने दौड़ा दौड़ा कर मारा, इतनी किरकिरी हुई की अपमानित होकर ब्रिटिश फोर्स को पीछे हटना पड़ा।

शीत युद्ध के पीक पर सोवियत रूस ने अफगानिस्तान को कम्युनिस्ट स्फीयर में लाने के लिए अपने पूरे रिसोर्सेस के साथ उस देश पर धावा बोला। सालों तक युद्ध चला पर आखिरकार थक हार कर रूसियों को वापस अपने देश जाना पड़ा।

यही हाल अपनी तकनीकी कौशल और मिलिट्री श्रेष्ठता पर घमंड खाए अमेरिका का हुआ। 
अफगानिस्तान को ग्रेवयार्ड ऑफ एंपायर्स यूं ही नही कहा जाता। अच्छे अच्छे नामचीन वहां जाकर पसर गए।
सिवाय एक के। राजा मानसिंह और उनकी कच्छवाहा सेना एकमात्र ऐसी हमलावर फौज़ थी जिनके बारे में कहा जा सकता है की उन्होंने पठानों को वाकई में नानी याद दिला दी।
मानसिंह की बहादुरी और युद्ध कौशल से प्रभावित होकर खुद पश्तूनों ने उनकी तारीफ की। अबुल फ़ज़ल लिखता है की अकबर को मानसिंह को काबुल की सूबेदारी से हटाना पड़ा क्योंकि पठानों को बेइज्जती महसूस होती थी की हिंदू उनपर राज कर रहे हैं। अफगान इतिहास में उन्होंने इतना तिरस्कार कभी नहीं झेला  जितना उन्होंने मानसिंह के नीचे रहते हुए महसूस किया।


रविवार, 5 जून 2022

बेला और कल्याणी

बेला और कल्याणी


  

 भारत की दो वीरांगना बेटियाँ बेला और कल्याणी कौन थी ....?
नई पीढ़ी को इनके नाम भी शायद 
नहीं मालूम ? तो सुनो -

..

बेला तो पृथ्वीराज चौहान की बेटी थी और कल्याणी जयचंद की पौत्री।

*मुहम्मद गोरी* हमारे देश को लूटकर जब अपने वतन गया तो *गजनी के सर्वोच्च काजी व गोरी के गुरु निजामुल्क* ने मोहम्मद गौरी का अपने महल में स्वागत करते हुए कहा। "आओ गौरी आओ! हमें तुम पर नाज है कि तुमने हिन्दुस्तान पर फतह करके इस्लाम का नाम रोशन किया है। कहो सोने की चिड़िया हिन्दुस्तान के कितने पर कतर कर लाए हो।’’ 
‘‘काजी साहब ! 
मैं हिन्दुस्तान से सत्तर करोड़ दिरहम मूल्य के सोने के सिक्के, चार सौ मन सोना और चांदी, इसके अतिरिक्त मूल्यवान आभूषणों, मोतियों, हीरा, पन्ना, जरीदार वस्त्रों और ढाके की मल-मल की लूट-खसोट कर भारत से गजनी की सेवा में लाया हूं।’’
‘‘बहुत अच्छा ! लेकिन वहां के लोगों को कुछ दीन-ईमान का पाठ पढ़ाया कि नहीं"?
‘‘बहुत से लोग इस्लाम में दीक्षित हो गए हैं’’!
"और बंदियों का क्या किया"?
"बंदियों को गुलाम बनाकर गजनी लाया गया है। अब तो गजनी में बंदियों की सरेआम बिक्री की जा रही है। एक-एक गुलाम दो-दो या तीन-तीन दिरहम में बिक रहा है"।
‘‘हिन्दुस्तान के काफिरो के मंदिरों का क्या किया’’?
‘‘मंदिरों को लूटकर 17 हजार सोने और चांदी की मूर्तियां लायी गयी हैं, दो हजार से अधिक कीमती पत्थरों की मूर्तियां और शिवलिंग भी लाए गये हैं और बहुत से पूजा स्थलों को नष्ट भृष्ट कर आग से जलाकर जमीदोज कर दिया गया है।

फिर थोड़ा रुककर काजी ने कहा, *‘‘लेकिन हमारे लिए भी कोई खास तोहफा लाए हो या नहीं"?’
‘‘लाया हूं ना काजी साहब जीती जागती गजल लाया हूं !’’

‘‘क्या"...?

‘‘जन्नत की हूरों से भी सुंदर जयचंद की पौत्री कल्याणी और पृथ्वीराज चौहान की पुत्री बेला’’

"तो फिर देर किस बात की है"?
"बस आपके इशारेभर की".!!

काजी की इजाजत पाते ही शाहबुद्दीन गौरी ने "कल्याणी और बेला" को काजी के हरम में पहुंचा दिया।* कल्याणी और बेला की अद्भुत सुंदरता को देखकर काजी अचम्भे में आ गया। उसे लगा कि स्वर्ग से अप्सराएं आ गयी हैं। उसने दोनों राजकुमारियों से विवाह का प्रस्ताव रखा तो बेला बोली- *‘‘काजी साहब! आपकी बेगमें बनना तो हमारी खुशकिस्मती होगी, लेकिन हमारी दो शर्तें हैं’’??

‘‘कहो..कहो.. क्या शर्तें हैं तुम्हारी! तुम जैसी हूरों के लिए तो मैं कोई भी शर्त मानने के लिए तैयार हूं"।

‘‘पहली शर्त तो यह है कि शादी होने तक हमें अपवित्र न किया जाए? क्या आपको मंजूर है?

"हमें मंजूर है! दूसरी शर्त का बखान करो।’’

‘‘हमारे यहां प्रथा है कि विवाह के कपड़े लड़की के यहां से आते हैं। अतः दूल्हे का जोड़ा और अपने जोड़े की रकम हम भारत भूमि से मंगवाना चाहती हैं।’’*

"मुझे तुम्हारी दोनों शर्तें मंजूर हैं"।

और फिर? बेला और कल्याणी ने कवि चंद के नाम एक रहस्यमयी खत लिखकर भारत भूमि से शादी का जोड़ा मंगवा लिया। काजी के साथ उनके निकाह का दिन निश्चित हो गया। रहमत झील के किनारे बनाये गए नए महल में विवाह की तैयारी शुरू हुई। कवि चंद द्वारा भेजे गये कपड़े पहनकर काजी साहब विवाह मंडप में आए। कल्याणी और बेला ने भी काजी द्वारा दिये गये कपड़े पहन रखे थे। शादी को देखने के लिए बाहर जनता की भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। 

तभी बेला ने काजी से कहा- *‘‘हम कलमा और निकाह पढ़ने से पहले जनता को झरोखे से दर्शन देना चाहती हैं। क्योंकि? विवाह से पहले जनता को दर्शन देने की हमारे यहां प्रथा है और फिर गजनी वालों को भी तो पता चले कि आप बुढ़ापे में जन्नत की सबसे सुंदर हूरों से शादी रचा रहे हैं। शादी के बाद तो हमें जीवन भर बुरका पहनना ही है। तब हमारी सुंदरता का होना न के बराबर ही होगा। नकाब में छिपी हुई सुंदरता भला तब किस काम की.? 

‘‘हां..हां..क्यों नहीं।’’

काजी ने उत्तर दिया और कल्याणी और बेला के साथ राजमहल के कंगूरे पर गया, लेकिन वहां तक पहुंचते-पहुंचते ही काजी के दाहिने कंधे से आग की लपटें निकलने लगी, क्योंकि कविचंद ने बेला और कल्याणी का रहस्यमयी पत्र समझकर बड़े तीक्ष्ण विष में सने हुए कपड़े भेजे थे। काजी साहब विष की ज्वाला से पागलों की तरह इधर-उधर भागने लगा, तब बेला ने उससे कहा- *‘‘तुमने ही गौरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए उकसाया था ना? हमने तुझे मार कर अपने देश को लूटने का बदला ले लिया है। हम हिन्दू कुमारियां हैं समझे, किसमें इतना साहस है जो जीते जी हमारे शरीर को छू भी सकें"।

इतना कहकर उन दोनों बालिकाओं ने महल की छत के बिल्कुल किनारे खड़ी होकर एक-दूसरी की छाती में विष बुझी कटार भोंक दी और उनकी प्राणहीन देह उस उंची छत से नीचे लुढ़क गई। 
पागलों की तरह इधर-उधर भागता हुआ काजी भी जल कर तड़प-तड़प कर भस्म हो गया।

भारत की इन दोनों बहादुर बेटियों ने विदेशी धरती पर, पराधीन रहते हुए भी बलिदान की जिस गाथा का निर्माण किया, वह गर्व करने योग्य है।



गुरुवार, 19 मई 2022

पंजवन देव जी कच्छावा

सम्राट पृथ्वीराज चहुआण के मंत्रिमंडल में 100 सामंत थे अर्थात यूं कहें कि उनकी सेना में 100 सेनापति थे जिनके बल पर पृथ्वीराज की हर युद्ध में विजय होती थी उनके सेना के एक सेनापति पजवन राय के बारे में उक्त आलेख है

 नरेश पंजवन देव जी कच्छावा : एक महान धनुर्धर एवम पराक्रमी योद्धा 

पंजवन देव जी सम्राट पृथ्वीराज के अहम सहयोगी थे। इनका विवाह पृथ्वीराज चौहान के काका कान्ह की पुत्री पदारथ दे के साथ हुआ।

पजवन देव जी ने स्वयं के नेतृत्व में  कुल 64 युद्ध जीते थे । 

प्रारंभिक रूप से भोले  राव पर विजय प्राप्त की , (राजा भीम सोलंकी गुजरात का राजा था इसे भोला भीम का जाता था) ।

पृथ्वीराज चौहान ने इन्हें  बाद में नागौर भेजा।

पृथ्वीराज और गोरी के बीच लड़े गए अधिकतर युद्धों में नेतृत्व इन्होंने ही किया।

जब गोरी से प्रथम बार सामना हुए तब  मुस्लिम सेना की संख्या 3 लाख के करीब थी।

परंतु पजवन जी के पास केवल 5000 सैनिकों की फौज थी। इसलिए पंजवन जी के लोगो ने अरज किया कि-

"अपने पास सेना बहुत कम है और गौरी के पास बहुत अधिक है इसलिए युद्ध मत करो, वापिस चलो।"

तब पंजवन जी कछवाहा ने कहा कि-

 " पृथ्वीराज को जाकर क्या कहेंगे। फिर भी जिसको घर प्यारा है वो युद्धक्षेत्र से जाओ अर्थात जिसे अपने प्राण प्यारे है वो अपने घर चले जाओ मैं तो युद्ध करूंगा। 

तुम सब मुह पर मूंछ रखते हो या घास बढ़ा रखी है। तुम सब हिम्मत हार गए हो इसलिए अपने घर जाओ।" 

इतना सुनते ही सभी सरदार बोले-

" महाराज आपके बिना हम कहा जाए हम आपके साथ ही रहकर युद्ध करेंगे। 

तभी गौरी से युद्ध प्रारम्भ हुए और मात्र 5000 की फौज के साथ उसकी 300000 की सेना को परास्त किया। 

गौरी को कैद कर के नागौर के किले में ले गए उसके बाद उसे दिल्ली ले जाकर दंडित कर के छोड़ दिया।

गहैत गौरी शाह कै, भाजी सेना ओर।
आयो वाह लिया तब, फिर कुरम नागौर ।।

अर्थात :- आमेर नरेश पंजवन जी कछवाहा द्वारा गौरी को कैद करने पर मुस्लिम सेना युद्ध क्षेत्र से भाग गई। युद्ध मे विजय होकर कुरम ( पंजवन जी कछवाहा ) नागौर आये तब उनकी चारो और वाह वाह हो रही थी।
   

गौरी को कैद करके पंजवन देव जी कछवाहा जब दिल्ली गए तो पृथ्वीराज चौहान स्वयं सामने से आकर उनको सम्मान के साथ दरबार मे लेकर गए और वहां उनका बहुत बड़ा सम्मान किया। 

बाद में काबुल की तरफ पठानो ने माथा उठाया अर्थात पृथ्वीराज चौहान के सीमांत क्षेत्र में उपद्रव करने लगे तब आमेर नरेश पंजवन देव जी कछवाहा को काबुल भेजा। वहां पठानो ने खैबर घाटी रोक दी।
आमेर नरेश पंजवन देव जी कच्छावा ने  पठानो पर हमला किया और वहां अधिकार जमाया। वही गौरी से दूसरा युद्ध हुवा एवं उसमें विजय प्राप्त की।
.
.
.
आई समर सकेत मैं, पीड़ करि पज्जोन।
गोरी सम-गोरी अनी, गई लजत भजि भोन ।।
.
.

अर्थात :- सेनाएं समर भूमि में आकर आमने सामने हुई। तब पंजवन राय जी ऐसा पराक्रम दिखाया कि गोरी शाह को सेना का नाश कर दिया। गोरी स्त्री के समान लज्जित हुवा एवं उसकी सेना भी भाग गई।
.
.
.
बाद में पृथ्वीराज चौहान ने बुलाया और कन्नौज ओर चढ़ाई की। सयोंगीता ने पृथ्वीराज चौहान का वरण किया था एवं पृथ्वीराज चौहान ने फिर कन्नौज की ओर चढ़ाई कर के उसका अपहरण किया। तब आमेर नरेश पंजवन देव जी कच्छावा भी पृथ्वीराज चौहान  के साथ थे।
.
.
.
कन्नौज में जयचंद के साथ युद्ध हुआ। जयचंद की तरफ से अजमत खा पठान युद्ध करने आया था।

 उसके पास 60000 अश्वरोही सेना थी।  पठान अजमत ख़ाँ हाथी पर सवार था , आमेर नरेश पंजवन देव जी कच्छावा ने हाथी को पकड़  उसके  दांत उखाड़ डाले। 
.
.
.
उसकी सारी फ़ौज को रणखेत किया।  लेकिन आमेर नरेश पंजवन देव जी कच्छावा भी कन्नौज के पास इस युद्ध मे वीरगति को प्राप्त हुए। 
.
.
.
जब इनकी वीरगति की खबर दिल्ली में पृथ्वीराज चौहान के पास पहुंची तो पृथ्वीराज चौहान ने इनके सम्मान में कुछ यूं कहा :- 
.
.
.
आजे भिधाता ढिलडी आज ढूँढाड़ अनथ ।
आज अदिन प्रथिराज आज सावंत बिन मथ।।
.
.
आज पुहप बिन वास आज मरजाद अलंघिय।
आज असुर दल परक आज निज दल तजि संघिय।।

   हिंदवाण ढाल भाग्यो भरम, अपछरा आय उचकियो।
 पंजवन सुरग जीतै थकां, चंग चंग घरत कियो।
.
.
.
अर्थात :- पंजवन राव की मृत्यु पर आज दिल्ली विधवा की सी उदासी धारण किये हुए दिखने लगी है। मानो वह विधवा हो गई है। ढूंढाड़ प्रदेश उनकी मृत्यु से अनाथ हो गया है। सम्राट पृथ्वीराज के आज बुरे दिन का उदय हुआ है। सामन्तों का मस्तक शिरोमणि पंजवन आज नही रहा। पंजवन की मृत्यु से दूसरे सामन्त अपने आपको मस्तक विहीन मानने लगे है। आज पुष्प बिना सुगन्ध का हो गया है। आज मर्यादा ( न्याय -व्यवस्था ) भंग हो चुकी है। आज से शत्रु सेना में उत्साह और निज सेना में निराशा व्याप्त हो गयी है। तुर्को के दल के प्रवाह को रोकने वाला अब कोई नही रहा। हिन्दू धर्म की ढाल अब समाप्त हो गयी है। अब दुश्मनों का भृम दूर हो गया है। अप्सराएं युद्ध भूमि में उचक उचक कर देख रही है। वे पंजवन देव का वरण करना चाहती है। पंजवन के जीते जी मैने जगह जगह कितनी ही लड़ाइयां लड़ी है जीती है।
.

राजपूतों के युद्ध नियम

राजपूतों के युद्ध नियम :- राजपूतों के इतिहास की बात आते ही आंखों के सामने आ जाते हैं उनके नियम, उसूल। कई बार इन्हीं उसूलों के कारण उन्हें समस्याओं का सामना करना पड़ा, परन्तु फिर भी उन्होंने अपने इन उसूलों को महान आदर्शों का दर्जा देकर इनका अस्तित्व बनाए रखा।
हालांकि ऐसा नहीं है कि इन नियमों का कभी उल्लंघन न हुआ हो। अपवाद सर्वत्र हैं, परन्तु फिर भी राजपूतों ने जहां तक सम्भव हो सका इन नियमों की पालना की। बाद में 16वीं-17वीं सदी से इन उसूलों में कमी देखी गई। 

राजपूत युद्ध में विषैले व आंकड़ेदार तीरों का प्रयोग नहीं करते थे। रथी से रथी, हाथी से हाथी, घुड़सवार से घुड़सवार व पैदल से पैदल लड़ते थे। हालांकि यदि कोई घुड़सवार आगे होकर हाथी से लड़ना चाहे, तो वह लड़ सकता था।
सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद युद्ध नहीं होते थे। तराइन के दूसरे युद्ध में सम्राट पृथ्वीराज चौहान की सेना की पराजय का मुख्य कारण यही था। 

जब सम्राट की बहुत सी सेना को नींद से जागे हुए कुछ ही समय हुआ था कि तभी मोहम्मद गौरी ने सूर्योदय से पहले ही अचानक आक्रमण कर दिया। वह शुरुआती आक्रमण था, इसलिए राजपूत बाहरी आक्रांताओं की इन चालों से अनभिज्ञ थे। 

राजपूत कभी भी भयभीत, पराजित व भागने वाले शत्रु पर वार नहीं करते थे। यह नियम खुले में लड़ने वाले युद्धों के लिए था, छापामार युद्धों में इन नियमों का प्रयोग नहीं किया जाता था। 

शत्रु का शस्त्र टूट जाए, धनुष की प्रत्यंचा टूट जाए, कवच निकल पड़े या उसका वाहन नष्ट हो जाए, तो उस पर वार नहीं किया जाता था। इसी तरह सोते हुए, थके हुए, प्यासे, भोजन या जलपान करते हुए शत्रु पर वार नहीं किया जाता था। 

युद्धों के समय राजपूत शासक प्रजा की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखते थे। लेकिन जब शत्रु भारी संख्या में किले की घेराबंदी के लिए आते थे, तब राजपूतों के पास प्रजा को बचाने का एक ही तरीका होता था कि उन्हें दुर्ग में शरण दी जाए। 

यदि शरण ना दी जाए, तो प्रजा निश्चित रूप से मारी जाती और शरण दी जाए, तो तभी मारी जाती जब बाहरी आक्रांता गढ़ जीत लेता। लेकिन फिर भी हज़ारों की संख्या में लोगों को गढ़ में शरण देना, उन्हें रसद उपलब्ध करवाना मामूली बात नहीं होती थी। 

प्रजा को शरण देने से घेराबंदी कम समय तक चलती थी, क्योंकि किले में रसद सामग्री शीघ्र समाप्त हो जाती थी। फिर भी राजपूत इस बात की परवाह नहीं करते थे और जब रसद समाप्त हो जाती, तो खुद ही किले के द्वार खोलकर लड़ाई लड़ते थे। 

युद्ध में जो शत्रु घायलावस्था में कैद किए जाते, उनका इलाज करवाकर उन्हें छोड़ दिया जाता था। जैसे महाराणा सांगा ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी के ज़ख्मी बेटे व मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय को कैद करके मरहम पट्टी करवाकर छोड़ दिया था। 

शरणागत रक्षा को निभाने के लिए राजपूत अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते थे। रणथंभौर के वीर हम्मीर देव चौहान ने अलाउद्दीन खिलजी से बग़ावत करके भागे हुए 2 बागियों को शरण दी थी, जिनके बदले में उन्होंने रणथंभौर के सभी राजपूतों समेत प्राणों का बलिदान दिया व राजपूतानियों को जौहर करना पड़ा। 

जब भी दो राजपूत शासकों के बीच युद्ध हुए, तब पराजित पक्ष की स्त्रियों को जौहर जैसी परिस्थिति से नहीं गुज़रना पड़ा, क्योंकि राजपूत पराजित पक्ष की स्त्रियों का भी सम्मान करते थे। उदाहरण के तौर पर सिरोही के राव सुरताण देवड़ा ने कल्ला को पराजित करके उनकी स्त्रियों को सम्मान सहित उन तक भिजवा दिया।
महाराणा प्रताप ने तो शत्रु पक्ष के सेनापति अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना की बेगमों को सम्मान सहित रहीम तक भिजवा दिया था। जबकि अकबर के आक्रमण के कारण चित्तौड़गढ़ में जौहर हुआ था। 

हल्दीघाटी युद्ध से पहले राजा मानसिंह कछवाहा शिकार पर निकले थे और महाराणा प्रताप के शिविर के काफी नजदीक आ गए थे, जिसकी सूचना महाराणा के गुप्तचर ने उन तक पहुंचाई।
उस समय राजा मानसिंह के साथ केवल एक हज़ार घुड़सवार थे। लेकिन राजा मानसिंह पर आक्रमण नहीं किया गया। 

राजपूतों में केसरिया का विशेष महत्व रहा है। यदि किसी युद्ध में राजपूत वीर केसरिया धारण कर लेते, तो उसका अर्थ होता था “विजय या वीरगति”। अर्थात पराजित होकर नहीं लौट सकते थे।

अक्सर केसरिया उन युद्धों में किया जाता था, जिनमें जीतने की संभावना बहुत कम हो, जैसे बड़ी सेना द्वारा किसी किले की घेराबंदी कर दी जाए, तो ऐसी परिस्थिति में राजपूतों का लक्ष्य शत्रु का अधिक से अधिक नुकसान करने का रहता था। 

राजपूत अपने वचन के पक्के होते थे। कई बार तो ऐसे अवसर भी आए हैं जब किसी एक राजपूत के वचन ने परंपरा का रूप ले लिया हो। कई बार राजपूत किसी विशेष शत्रु से प्रतिशोध लेने के लिए पगड़ी की जगह फैंटा बांध लिया करते थे और प्रण लेते थे कि जब तक शत्रु को न मार दूं, तब तक पगड़ी धारण नहीं करूंगा। 

कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है कि “यदि स्त्री के प्रति पुरुष की भक्ति और उसके सम्मान को कसौटी माना जाए, तो एक राजपूत का स्थान सबसे श्रेष्ठ माना जाएगा। वह स्त्री के प्रति किए गए असम्मान को कभी सहन नहीं कर सकता और यदि इस प्रकार का संयोग उपस्थित हो जाए, तो वह अपने प्राणों का बलिदान देना अपना कर्तव्य समझता है। जिन उदाहरणों से इस प्रकार का निर्णय करना पड़ता है, उससे राजपूतों का सम्पूर्ण इतिहास ओतप्रोत है।” 

लेनपूल लिखता है कि “राजपूतों की शूरवीरता और प्रतिष्ठा के स्वभाव, उन्हें साहस और बलिदान के लिए इतना उत्तेजित करते थे कि जिनका बाबर के अर्ध-सभ्य सिपाहियों की समझ में आना भी कठिन था” 

फ़ारसी तवारीख बादशाहनामा में लिखा है कि “बड़ी-बड़ी लड़ाइयों में जहां अच्छे-अच्छे बहादुरों के चेहरे का रंग फ़ीका पड़ जाता था, वहां राजपूत हरावल में रहकर लड़ाई का रंग जमा देते थे।”

मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

बाईसा किरण देवी


अकबर प्रतिवर्ष दिल्ली में नौ रोज़ का मेला आयोजित करवाता था....! इसमें पुरुषों का प्रवेश निषेध था....! अकबर इस मेले में महिला की वेष-भूषा में जाता था और जो महिला उसे मंत्र मुग्ध कर देती....उसे उसकी दासियाँ छल कपट से अकबर के सम्मुख ले जाती थी....!
एक दिन नौ रोज़ के मेले में महाराणा प्रताप सिंह की भतीजी, छोटे भाई महाराज शक्तिसिंह की पुत्री मेले की सजावट देखने के लिये आई....! जिनका नाम बाईसा किरण देवी था...!
जिनका विवाह बीकानेर के पृथ्वीराज जी से हुआ था!
बाईसा किरण देवी की सुंदरता को देखकर अकबर अपने आप पर क़ाबू नहीं रख पाया....और उसने बिना सोचे समझे ही दासियों के माध्यम से धोखे से ज़नाना महल में बुला लिया....!
जैसे ही अकबर ने बाईसा किरण देवी को स्पर्श करने की कोशिश की....किरण देवी ने कमर से कटार निकाली और अकबर को ऩीचे पटक कर उसकी छाती पर पैर रखकर कटार गर्दन पर लगा दी....!
और कहा नीच....नराधम, तुझे पता नहीं मैं उन महाराणा प्रताप की भतीजी हूँ....जिनके नाम से तेरी नींद उड़ जाती है....! बोल तेरी आख़िरी इच्छा क्या है....? अकबर का ख़ून सूख गया....! कभी सोचा नहीं होगा कि सम्राट अकबर आज एक राजपूत बाईसा के चरणों में होगा....!
अकबर बोला: मुझसे पहचानने में भूल हो गई....मुझे माफ़ कर दो देवी....!
इस पर किरण देवी ने कहा: आज के बाद दिल्ली में नौ रोज़ का मेला नहीं लगेगा....!
और किसी भी नारी को परेशान नहीं करेगा....!
अकबर ने हाथ जोड़कर कहा आज के बाद कभी मेला नहीं लगेगा....!
उस दिन के बाद कभी मेला नहीं लगा....!
इस घटना का वर्णन गिरधर आसिया द्वारा रचित सगत रासो में 632 पृष्ठ संख्या पर दिया गया है।
बीकानेर संग्रहालय में लगी एक पेटिंग में भी इस घटना को एक दोहे के माध्यम से बताया गया है!
"किरण सिंहणी सी चढ़ी, उर पर खींच कटार..!
भीख मांगता प्राण की, अकबर हाथ पसार....!!"
अकबर की छाती पर पैर रखकर खड़ी वीर बाला किरन का चित्र आज भी जयपुर के संग्रहालय में सुरक्षित है।
इस तरह की‌ पोस्ट को शेअर जरूर करें और अपने महान धर्म की गौरवशाली वीरांगना ओं की कहानी को हर एक भारतीय को  जरूर सुनायें!!

शनिवार, 1 जनवरी 2022

जैसलमेर पर पाकिस्तानी घुसपैठियों (कबायलीयों) का आक्रमण

जैसलमेर पर पाकिस्तानी घुसपैठियों (कबायलीयों) का आक्रमण : दिनांक 24 फरवरी 1948 की अर्धरात्रि , जोधपुर महाराजा के निजी सचिव श्री ओंकार सिंह ( बाबरा ) को  जैसलमेर के महाराज कुमार श्री गिरधारी सिंह का तार मिला, वे अपने शयनकक्ष से बाहर आए उन्होंने तार खोल कर पढ़ा . तार में अंकित था – “ पाँच सौ से अधिक पठान आक्रमणकारियों का एक दल भावलपुर कि ओर से बढ़ता हुआ यहाँ से चौबीस मील देवा तक पहुँचने के समाचार मिले हैं, इन के पीछे हजारों आक्रमणकारी आ रहे हैं जो गाँवों को जलाते हुए और लोगों को अंधाधुंध मारते हुए जैसलमेर कि ओर बढ़ रहे हैं, निवेदन है कि वायुयानों, कारों  ट्रकों आदि साधनों से शीघ्र सहायता भेजिए ...
स्थिति अत्यन्त भयावह है, अतः तुरन्त सहायता से ही बचाव हो सकता है “ ....
तार को पढ़ते ही उन्होंने राजमहल के ए.डी.सी कक्ष को टेलीफोन किया और महाराजा श्री हनुवंतसिंह को तत्काल जगाने के निर्देश दिए और स्वयं महाराजा साहब से मिलने तत्काल उम्मेद भवन के लिए निकल पड़े, कश्मीर में भी पाकिस्तान द्वारा इसी प्रकार की घुसपैठ की जा चुकी थी अतः खलबली मचना स्वाभाविक था । श्री ओंकारसिंह के महल पहुँचने से पहले ही महाराजा साहब और उन के ए.डी.सी. जग चुके थे, महाराजा ने पूछा – “ ओंकारसिंह जी क्या आफ़त लाए हो ? “ ओंकारसिंह जी ने लिफाफे से तार निकाल कर महाराजा के हाथ में रख दिया, महाराजा के चेहरे पर घबराहट का कोई निशान नहीं उभरा और तत्काल जोधपुर राज्य के प्रधानमंत्री,  मुख्य सेनापति, महानिरीक्षक पुलिस को बुलाने तथा भारत के रक्षा मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को ट्रंक काल करने का निर्देश दिया .... 
कुछ ही समय में जोधपुर राज्य की सेना के मुख्य सेनापति ब्रिगेडियर जबरसिंह महाराजा के ऑफिस में उपस्थित हो गए उन्होंने तार को पढ़ा और तत्काल विभिन्न सेना कमांडेंटों को फोन द्वारा सतर्कता बरतने का आदेश दिया इसी समय पुलिस महानिरीक्षक तथा प्रधानमंत्री महाराजा अजीतसिंह भी पहुँच गए, महाराजा की अध्यक्षता में उच्च स्तरीय बैठक हुई जिस में तात्कालिक कार्यवाही के लिए निम्न निर्णय लिए गए –
1. जोधपुर लांसर्स को तुरन्त सैनिक ट्रकों द्वारा जैसलमेर रवाना कर दिया जाए और साथ में वायरलैस इत्यादि संचार साधन रखे जाएँ ....
2. ब्रिगेडियर जबरसिंह कमांडेंटों को निर्देश प्रदान कर सेना को तत्काल निर्दिष्ट स्थानों के लिए रवाना करें ....
3. प्रधानमंत्री राज्य में आपातकाल की घोषणा करे और इसे सवेरे तक असाधारण राजपत्र में प्रकाशित कर दें ....
4. राज्य की पुलिस निजी ट्रकों , कारों तथा जीपों को अपने कब्जे में ले लें और निजी वाहनों के लिए पेट्रोल का वितरण तुरन्त बन्द कर दिया जाए .....
5. महाराजा के अश्वारोही बॉडीगार्ड ‘ दुर्गाहॉर्स ‘ के कमांडेंट मोहनसिंह भाटी स्वयं एक वायुयान ले जा कर जैसलमेर राज परिवार को तुरन्त जोधपुर ले आएँ,
दूसरा वायुयान भेज कर पता लगाएं कि कितने हमलावर हैं, वे कहाँ तक पहुँच गए और उन के पास क्या क्या अस्त्र शस्त्र हैं ?
महाराजा ने टेलीफोन वार्ता कर रक्षामंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को जैसलमेर महाराज कुमार का तार पढ़ कर सुनाया और जोधपुर स्टेट द्वारा की जाने वाली कार्यवाहियों का विवरण भी बता दिया । 
रात्रि में जोधपुर से जैसलमेर विमान ले कर गए कर्नल मोहनसिंह भाटी ने महारावल से उन के महल में मुलाक़ात की तथा मूल्यवान वस्तुएँ तथा जेवर साथ ले कर महारावल को जोधपुर चलने का आग्रह किया किन्तु महारावल में जैसलमेर छोड़ने से स्पष्ट इंकार कर दिया उन्होंने कहा कि वे अपनी प्रजा के साथ ही जिएंगे और उन्हीं के साथ मरेंगे, विपत्तिकाल में प्रजा को असहाय छोड़ कर जाना कायरता की निशानी होगी जिस का कलंक वे अपने वंश पर नहीं लगाएंगे हम जैसलमेर छोड़ने के बजाय लड़ते हुए मर जाना उचित समझेंगे ...
कर्नल मोहनसिंह जी भाटी साहब (जो पूर्व विदेश रक्षा मंत्री जसवंत सिंह जी के ससुर थे) ने बहुत आग्रह किया किन्तु महारावल अपने निर्णय से टस से मस नहीं हुए आखिर हार कर कर्नल मोहनसिंह सैनिक सहायता सुनिश्चित करने के लिए जोधपुर लौट गए ..
जोधपुर लौटने से पहले उन्होंने अपने विमान से देवा और पाकिस्तान की सीमा की ओर उड़ान भर कर आक्रमणकारियों की संख्या और स्थिति का जायजा लिया, उन्होंने पाया कि वास्तव में तीन से चार सौ घुसपैठिए शस्त्रों से लैस ऊँट घोड़ों पर सवार थे, वे गायों और ऊंटों के टोलों को घेर रहे थे और जस रास्ते से आ रहे थे उस पर पड़ने वाले गाँवों को जलाया भी था। एक पुलिस टुकड़ी के मुकाबला करने पर उस एक थानेदार और दो सिपाहियों को भी मार डाला था ।
घुसपैठियों ने जब ऊपर वायुयान को मंडराते देखा तो उन के होश फ़ाख्ता हो गए वे उलटे पाँव पाकिस्तान की तरफ़ भागने लगे .... 
महाराजा हनुवंतसिंह और उन के अधिकारीयों द्वारा तत्काल लिए गए निर्णय से जोधपुर लांसर्स, जोधपुर स्टेट की सेना,  जोधपुर स्टेट पुलिस और वायुसेना के संयुक्त अभियान के फलस्वरूप न केवल जैसलमेर राजपरिवार सुरक्षित रहा अपितु भारत एक और घुसपैठ से राजस्थान के दूसरा कश्मीर बनने से बच गया .... 
लोकतंत्र के नाम पर बने नव शासकों नें बड़ी लकीर को मिटा कर अपने को बड़ा साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, एकतरफा इतिहास पढ़ा कर जनता को भ्रमित करना इन नव शासकों के रक्त में है .......
आलेख का स्रोत -- एक महाराजा की अंतर्कथा - लेखक श्री ओंकारसिंह ( बाबरा ) पूर्व IAS