शनिवार, 11 मई 2024

महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय (1873-1895) के वक्त मारवाड़ राज्य के सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकारी

महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय (1873-1895) के वक्त मारवाड़ राज्य के सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकारियों की सूची:

1. सरदार सिंह मेहता (बनिया) : राज्य के दीवान. इनका सालाना वेतन 12000 रुपए था और साथ ही जागीर में दो गांव भी थे जिनकी साल भर की इनकम तकरीबन 4500 रुपए निकलती थी।

2. मुंशी हरदयाल सिंह (कायस्थ) : विभिन्न न्यायालयों के अधीक्षक होने के साथ ही मालानी क्षेत्र के भी हैड थे। इनका सालाना वेतन 13,200 रुपए था। साथ ही दरबार में इन्हे सिंगल ताजीम का दर्जा भी प्राप्त था।

3. कविराज मुरारीदान (चारण) : राज्य कवि होने के साथ साथ फौजदारी अदालत के अधीक्षक भी थे। सिंगल ताजीम का दर्जा प्राप्त था, जागीर में दो गांव मिले हुए थे तथा सालाना वेतन था 8400 रुपए। 

4. आसकरण जोशी (ब्राह्मण) : शहर के कोतवाल और किलेदार हुआ करते थे। सिंगल ताजीम, जागीर में दो गांव तथा 3600 रुपए वेतन ।

5. हनवंत चंद (भंडारी) : अपीलीय अदालत के अधीक्षक थे। जागीर में एक गांव तथा 4800 रुपए वेतन।

6. अमृत लाल मेहता (महाजन) : दीवानी न्यायालय के अधीक्षक। जागीर में एक गांव तथा सालाना वेतन 3600 रुपए।

7. मुंशी हीरा लाल (कायस्थ) : राजमुंशी थे।

8. सुखदेव प्रसाद (ब्राह्मण): ज्यूडिशियल सेक्रेटरी . कश्मीरी पंडित थे।

9. पंडित जीवानंद (ब्राह्मण): सरदार न्यायालय के उप अधीक्षक 

10. मुंशी किशोरी लाल (कायस्थ) : पुलिस अधीक्षक 
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गौरतलब है कि इन 10 सबसे मुख्य अधिकारियों में एक भी क्षत्रिय जाति से नही था। 1857 के बाद राजस्थान में जोरों शोरों से किसान आंदोलन देखने को मिले चाहे वो फिर मेवाड़ (बिजौलिया, बेगू) हो या जयपुर (शेखावाटी)। आमतौर पर इन आंदोलनों का कारण सिर्फ सामंतवाद अत्याचार कह कर वाइटवॉश करने की कोशिश की जाती है जबकि अगर गहराई से देखा जाए तो मुद्दा बेहद जटिल प्रतीत होता है। जब राज्य के सभी ऑफिशियल्स मुख्यतः नॉन राजपूत जातियों से थे तो निश्चित तौर पर उनकी जवाबदेही बनती है लेकिन इसके बावजूद आजादी के बाद लिखे गए प्रोपेगेंडा लिटरेचर में इन अधिकारियों को दोषी ठहराना तो दूर इनका नाम तक नहीं लिया जाता जिससे यह लगे मानो सारा प्रशासन दरअसल एक ऑटोक्रेटिक राजपूत रेजीम था जिसमे दूसरे वर्गों की हिस्सेदारी ना के बराबर थी और तानाशाही अपने चरम पर थी।

देखने योग्य यह भी बात है की जिन अधिकारियों का ऊपर वर्णन किया गया है उन्ही की जाति के लोगों ने बढ़ चढ़कर प्रजामंडल आंदोलन का नेतृत्व भी किया, चाहे जयनारायण व्यास (ब्राह्मण) हो या जमनालाल बजाज (बनिया) । बड़ी आयरोनीकल बात है जहां एक समूह सत्तापक्ष की मलाई खा रहा था वहीं उसी जाति का दूसरा समूह आज़ादी के बाद अपनी कम्युनिटी का प्रभुत्व बनाए रखने के लिए लोकतंत्र, समानता, उदारता इत्यादि झूठे तर्क वितर्क इस्तेमाल कर क्षत्रिय हुकूमत की नीव खोदने में लगा था।

सवाल सीधा है, जब तथाकथित अत्याचारों की बात आती है तब इस नॉन राजपूत सवर्ण वर्ग के कारनामों को क्यों नजरंदाज कर दिया जाता है?
उस काल में एक आम राजपूत की स्थिति बेहद दयनीय हुआ करती थी और अगर कुछ बड़े ठिकानेदारों को छोड़ दिया जाए तो उसकी हालत एक सामान्य किसान से कुछ थोड़ी ही ठीक थी। बावजूद इसके आज उसी आम राजपूत को सामंतवाद के झूठे और संगीन आरोप झेलने पड़ते हैं जबकि अगर हल्का भी गहन अध्यन किया जाए तो 99% राजपूतों का इसमें कोई रोल नहीं था।

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