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शुक्रवार, 21 नवंबर 2025

ठिकाणा सलूम्बर : मेवाड का प्रथम श्रेणी का ठिकाणा

ठिकाणा सलूम्बर : मेवाड का प्रथम श्रेणी का ठिकाणा
शौर्य की छाया में सलूम्बर का उदय 16वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध वह निर्णायक काल था जब मेवाड़ के महाराणाओं के हाथ से चित्तौड़गढ़, कुम्भलगढ़ और फिर उदयपुर जैसे महत्वपूर्ण गढ़ निकलते जा रहे थे। यह भीषण संघर्ष का दौर था, जिसने स्वाधीनता के प्रति महाराणा प्रताप के संकल्प को और दृढ़ किया। इसी समय, महाराणा प्रताप की इच्छा से उनके प्रमुख सामंत, बेगूं के रावत कृष्णदास चूंडावत ने, राठौड़ों से सलूम्बर क्षेत्र को जीतकर अपनी नई राजस्थली स्थापित की। भारत की स्वतंत्रता तक यह क्षेत्र चूंडावत शासकों के अधीन रहा।24.8 उत्तरी अक्षांश और 74.4 पूर्वी देशांतर के मध्य स्थित, 19200,00 वर्ग मीटर के विशाल क्षेत्रफल वाला सलूम्बर नगर, चूंडावत राजपूतों का अत्यंत महत्वपूर्ण और 'पाटवी' ठिकाना कहलाया। 

यहाँ के शासकों को मेवाड़ दरबार में सर्वोच्च स्थान और विशेष अधिकार प्राप्त थे। रावत की पदवी से सुशोभित इन चूंडावत सरदारों की बहादुरी, निर्भीकता, स्वतंत्रता के प्रति अटूट प्रेम, स्वामीभक्ति और जुझारू प्रवृत्ति ने ही मेवाड़ के इतिहास को एक विशेष महत्व दिया। वस्तुतः, सलूम्बर मेवाड़ की एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्वतंत्र जागीर थी, जिसने राणा के प्रति निष्ठा की अनूठी मिसाल कायम की।एकलिंगजी की शपथ और चूँडा का महान त्यागसलूम्बर के सरदार, मेवाड़ के महाराणा लाखा (लक्षसिंह) के ज्येष्ठ पुत्र, सत्यव्रत और परम पितृभक्त चूँडा के वंशज हैं और 'रावत' उनकी पारंपरिक उपाधि है। चूंडावत वंश की स्थापना के मूल में चूँडा का वह अविस्मरणीय त्याग है, जिसने मेवाड़ के सिंहासन का भविष्य निर्धारित किया।जब महाराणा लाखा ने मंडोवर के राव चूँडा राठौड़ के ज्येष्ठ पुत्र रणमल की बहिन हँसबाई से विवाह करने की इच्छा व्यक्त की, तो स्वयं युवराज चूँडा ने पहल की। उन्होंने रणमल को संदेश भेजा कि वह अपनी बहिन का विवाह महाराणा से कर दें। इस पर रणमल का उत्तर आया कि वह अपनी बहिन की शादी युवराज चूँडा से तो कर देगा, क्योंकि उनसे उत्पन्न पुत्र मेवाड़ का भावी स्वामी बनेगा। किंतु महाराणा को ब्याहने से हँसबाई की संतान को भावी स्वामी की सेवा करते हुए निर्वाह करना पड़ेगा।यह सुनकर, त्याग और पितृभक्ति की प्रतिमूर्ति चूँडा ने तुरंत घोषणा की कि वह सदा के लिए मेवाड़-राज्य पर अपना उत्तराधिकार छोड़ते हैं। उन्होंने एकलिंगजी की शपथ लेते हुए यह इकरारनामा लिख दिया कि हँसबाई से महाराणा के यदि कोई पुत्र उत्पन्न होगा, तो वही उनके पीछे मेवाड़ का स्वामी होगा, और वह स्वयं जीवन भर उस भावी स्वामी के सेवक होकर रहेंगे। चूँडा के इस महान त्याग के पश्चात ही रणमल ने अपनी बहिन का विवाह महाराणा लाखा के साथ किया, जिससे महाराणा मोकल का जन्म हुआ।भाले का चिन्ह और 'भांजगढ़' का विशेषाधिकार चूँडा की अतुलनीय पितृभक्ति से प्रसन्न होकर, महाराणा लाखा ने उन्हें एक ऐसा सम्मान प्रदान किया जो युगों-युगों तक उनकी निष्ठा का प्रतीक बना रहा। उन्होंने यह आज्ञा दी कि अब से राज्य की ओर से जारी होने वाले सभी पट्टों (भूमि अनुदान), परवानों (शाही आदेश) आदि पर भाले का चिन्ह स्वयं चूँडा और उनके मुख्य वंशधर अंकित करेंगे। इतना ही नहीं, 'भांजगढ़' (राज्य-प्रबंध) का कार्य भी उन्हीं की सम्मति से किया जाएगा, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि राज्य की सर्वोच्च निर्णय प्रक्रिया में चूँडावतों का मत सर्वोपरि रहे।
महाराणा की यह आज्ञा पीढ़ियों तक बराबर निभाई जाती रही। यद्यपि बाद में चूँडा के मुख्य वंशधरों ने, सहूलियत के लिए, भाले का चिन्ह बनाने का अधिकार अपने 'सहीवालों' (मुहर लगाने वाले अधिकारियों) को दे दिया, यह चिन्ह आज भी सनदों पर बनता चला आता है, जो चूँडावत वंश के गौरवशाली इतिहास को दर्शाता है।राजभक्ति की कसौटी पर चूँडावतचूँडावतों ने अपने वचन और प्रतिष्ठा को हर युद्ध और हर राजनीतिक संकट में सिद्ध किया।जब वि.सं. 1525 (ई.स. 1468) में महाराणा कुम्भा के ज्येष्ठ पुत्र उदय सिंह (उदा) ने अपने पिता की हत्या कर मेवाड़ का स्वामी बनने का कलंक मोल लिया, तब राजभक्त सरदारों ने चूँडा के पुत्र काँधल की अध्यक्षता में एकजुट होकर विद्रोह किया। उन्होंने उस पितृहंता को मेवाड़ से निष्कासित कर दिया और वि.सं. 1530 (ई.स. 1473) में उसके भाई रायमल को गद्दी पर बिठाया। काँधल ने सुल्तान गयासुद्दीन के सेनापति ज़फ़रख़ाँ के साथ हुई महाराणा रायमल की लड़ाइयों में भी अपनी वीरता का परिचय दिया।इतिहास के सबसे बड़े युद्धों में से एक, बाबर के साथ हुई महाराणा सांगा की लड़ाई में, काँधल के उत्तराधिकारी रावल रतनसिंह महाराणा के साथ थे। जब महाराणा सांगा सिर में तीर लगने से बेहोश हुए, तो कुछ सरदार उन्हें मेवाड़ की ओर ले जाने लगे। इस आशंका से कि महाराणा को युद्धस्थल में न देखकर राजपूत हतोत्साह हो जाएँगे, उन्होंने रतनसिंह से महाराणा का प्रतिनिधि बनकर उनके हाथी पर बैठने तथा राजचिन्ह धारण करने का आग्रह किया।परंतु रतनसिंह ने अपनी जातिगत प्रतिष्ठा का हवाला देते हुए वह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा, "मेरे पूर्वज मेवाड़ का राज्य छोड़ चुके हैं, इसलिए मैं क्षण भर के लिए भी राज्य-चिन्ह फिर धारण नहीं कर सकता।" किंतु उन्होंने यह वचन दिया, "जो महाराणा का प्रतिनिधि बनेगा, मैं उसकी आज्ञा में रहकर प्राण रहते तक लडूँगा।" इसपर बड़ी सादीवालों का पूर्वज अज्जा महाराणा का प्रतिनिधि बनाया गया, और रतनसिंह ने उसकी अध्यक्षता में लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की।स्वाधीनता और विद्रोह का द्वन्द्वमहाराणा राजसिंह के समय, रावत रघुनाथसिंह ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जब डूंगरपुर का रावल गिरधर, बाँसवाड़ा का रावल समरसिंह और प्रतापगढ़ का रावल हरिसिंह मेवाड़ से स्वतंत्र बनने लगे, तब महाराणा ने प्रधान फतहचन्द की अध्यक्षता में रघुनाथसिंह, रावत मानसिंह (सारंगदेवोत), महाराज मोहकमसिंह शेखावत आदि सरदारों को भेजकर उन्हें अधीन कराया।रघुनाथसिंह महाराणा का अत्यंत विश्वसनीय 'मुसाहब' (सलाहकार) था। जब बादशाह औरंगज़ेब की ओर से मुंशी चन्द्रभान उदयपुर आया, तो उसने रघुनाथसिंह की योग्यता और प्रभाव के विषय में बादशाह को बहुत कुछ लिखा। इससे स्वार्थी लोग ईर्ष्यावश रघुनाथसिंह के विरुद्ध महाराणा के कान भरने लगे। इसका दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम यह हुआ कि महाराणा राजसिंह ने चूँडा और उनके वंशजों का सारा उपकार भूलकर सलूम्बर की जागीर का पट्टा पारसोली के राव केसरीसिंह के नाम लिख दिया।इससे अप्रसन्न होकर रघुनाथसिंह अपने ठिकाने को चले गए और उन्होंने केसरीसिंह को सलूम्बर पर अधिकार नहीं करने दिया, जो चूँडावतों के स्वतंत्र और स्वाभिमानी स्वभाव को दर्शाता है। रघुनाथसिंह के पुत्र, रतनसिंह (द्वितीय), ने भी अपनी निष्ठा बनाए रखी और मेवाड़ पर औरंगज़ेब की चढ़ाई के दौरान महाराणा की सेवा में रहकर वीरता से युद्ध किया, हसनअलीखाँ को पराजित किया और शाहज़ादे अकबर पर कुंवर जयसिंह के आक्रमण में उनका साथ दिया।सलूम्बर की अखंड परंपरायह इतिहास सलूम्बर के चूंडावतों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही अटूट राजनिष्ठा और त्याग की कहानी है। वि.सं. 1919 (ई.स. 1862) में केसरीसिंह के देहान्त के बाद, बंबोरे का रावत जोधसिंह उसका उत्तराधिकारी हुआ। महाराणा शम्भुसिंह स्वयं सलूम्बर जाकर प्राचीन रीति के अनुसार 'मातमपुर्सी' (शोक प्रकट करने) की रस्म अदा की।वि.सं. 1957 (ई.स. 1900) में जोधसिंह के निधन के बाद, बंबोरे से रावत आनासिंह गोद गए। उनके देहान्त के पश्चात वि.सं. 1986 में चावंड के रावत खुमानसिंह सलूम्बर के स्वामी हुए।इस प्रकार, सलूम्बर ठिकाना केवल भूमि का एक टुकड़ा नहीं, बल्कि मेवाड़ के उस गौरव का प्रतीक है, जहाँ त्याग, स्वामीभक्ति और स्वातंत्र्य प्रेम की भावनाएँ राजपूत परंपरा की आधारशिला बनीं। चूँडावतों की वीरगाथा मेवाड़ के इतिहास का वह स्वर्णिम अध्याय है, जो पीढ़ियों तक शौर्य की प्रेरणा देता रहेगा।