बुधवार, 22 अगस्त 2018

शेखाजी कछवाहा ओर घाटवा का युद्ध

शेखाजी कछवाहा ओर घाटवा का युद्ध

राव शेखाजी कछवाहा का नाम भारत के उन यौद्धाओ के शुमार है , जिन्होंने एक स्त्री के सम्मान की रक्षा करने के लिए , पापी को दंड देने के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए। राव शेखाजी कुशवाहा ने राजस्थान के एक बंजर प्रदेश को अपने खून तथा पसीने से सींचकर उसे स्वर्ग से सुंदर बना दिया था।

कुश के पुत्रो की इस शेखावत कछवाहा शाखा का राजस्थान के मनोहरपुर , शाहपुरा , खंडेला , सीकर , खेतड़ी , बिसाऊ , महनसर , गांगियासर , सूरजगढ़, नवलगढ़ग मंडावा , मुकुंदगढ़ , दांता , खाचरियावास , डूंडलोद , अलसीसर , मलसीसर तथा रानोली कई क्षेत्रों पर अधिकार था।

शेखाजी कुशवाहा ने राजस्थान के इस भाग को स्वर्ग से सुंदर तब बनाया था , जब पुरे भारत में विदेशी मुसलमान मल्लेछ आतंक तथा हिंसा , लूटमार के नए नए आयाम पेश कर रहे थे। उस मल्लेछ काल में भी राव शेखाजी ने खुली घोषणा की थी " मेरे राज्य में गाय काटने वाले का सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा " यह राव शेखाजी कुशवाहा की ही देंन है की राजस्थान का शेखावाटी अंचल आज कला तथा सौंदर्य में अपना अग्रणी स्थान रखता है , साल भर विदेशी पर्यटकों की भरमार राजस्थान के इस छोटे से प्रदेश में आज तक रहती है।

रावशेखाजी का व्यक्तित्व बहुत सरल था , उनकी वाणी कर्णप्रिय थी , आज भी राजस्थान के उस पुरे प्रदेश को राव शेखाजी के नाम से ही याद रखा गया है। राव शेखाजी ने केवल मनुष्यो का ही विकाश नहीं किया , गौ माता के लिए तो जैसे कुबेर का भंडार ही खोल दिया , बड़ी बड़ी गौशलाओं का निर्माण करवाया गया , जो आज तक है , गौ-शाला के लिए जितनी जमीने राव शेखाजी ने छोड़ी, शायद ही कोई अन्य राजा इतनी जमीने मात्र गौशाला के लिए दान कर पाया हो।

लेकिन राव शेखाजी को मुख्य रूप से याद किया जाता है " घाटवा के युद्ध " के लिए। यह युद्ध एक महिला के मान सम्मान के लिए लड़ा गया था। हुआ यह था की राव शेखाजी के राज्य के राजपूत दम्पति किसी दूसरे राज्य की सीमा से गुजरते हुए अपने परिवारजन से मिलने जा रहे थे, बीच में गोड़ राज्य पड़ता था। गोड़ राज्य में उस समय सड़क निर्माण का काम चल रहा था , और जो भी यात्री वहां से गुजरता , उससे २ धामे मिटटी बालू के गिरवा लिए जाते। उस राजपूत दम्पति को भी वहीँ रोक लिया गया , जहाँ सड़क निर्माण का यह कार्य चल रहा था। उस राजपूत जवान ने भी मिटटी डालने की बात पर कोई शर्म महसूस नहीं की , क्यों की यह तो समाज कल्याण और समाज की सुविधा का ही कार्य था। लेकिन गॉड सरदार ने मर्यादा तोड़ते हुए उस महिला से भी २ परात मिटटी के सड़क पर डालने को कह दिया , राजपूत महिलायें सड़क पर काम नहीं करती , राजपूत होकर इस मर्यादा का ख्याल गोड़ सरदार को करना तरह , इतनी सी बात पर बात बड़कर इतनी बड़ी हो गयी , की दोनों पक्षों में तलवारे चल गयी , और उस क्षत्राणी के पति की वहां हत्या हो गयी , वह स्त्री भी राजपूत थी , गोड़ सरदार को चुनौती दे आयी , की बाकी बची इस लड़ाई का हिसाब अब यूद्धभूमि पर ही पूरी होगी।

अपने साथ हुई यह अपमानजनक घटना उस महिला ने महाराज राव शेखाजी को कह सुनाई , राज शेखाजी धर्म के पक्के राजा थे , उनका यही मानना था की स्त्री का अपमान करने वालो का तो गला ही कटना चाहिए।

राव शेखाजी ने गोड़ो पर उनके सरदार कलराज गोड़ का सिर धड़ से अलग कर उसे अमरसर के किले पर टांग दिया। राव शेखाजी के इस कृत्य से आसपास के सभी क्षेत्रो में उनका आतंक फ़ैल गया , लेकिन महाराज शेखाजी का उदेश्य आम जनता को भयभीत करना नहीं था , बल्कि वे पापियों और दुस्टो को भयभीत करना चाहते थे , की तुम्हारा अंत भी यही होगा। लगातार ५ वर्ष तक अपने सरदार का सिर ले जाने का साहसिक प्रयास गोड़ सरदार करते रहे । लेकिन हर बार उन्हे असफलता ही हाथ लगती।

लगातार आक्रमणों के बाद भी सफलता नहीं मिलने के बाद गोड़ अब और खूंखार हो गए , और उन्होंने शेखावतो को सीधे युद्ध के मैदान में ही चुनौती दे दी ,
अब युद्ध का आह्वाहन सुन एक राजपूत अपने पग पीछे कैसे रख सकता था ?

गौड़ बुलावे घाटवे,चढ़ आवो शेखा |
लस्कर थारा मारणा,देखण का अभलेखा ||

कुछ इस तरह के शब्दों के साथ राव शेखाजी को युद्ध करने के लिए आह्वाहन दिया गया , राव शेखाजी ने युद्ध की चुनौती मिलने के बाद एक क्षण की भी प्रतीक्षा नहीं की , राव शेखाजी ने अपना खाड़ा उठा लिया , और आर पार के युद्ध के लिए निकल पड़े। राव शेखाजी को युद्ध भूमि पर युद्ध करता देख शत्रु सेना की पिंडली काँप गयी।

इस युद्ध में गोड़ो की सेना का नेतृत्व गोड़राज रिड़मल जी कर रहे थे। उन्होंने राव शेखाजी पर तीरो की भरमार कर दी , राव शेखाजी ने कई तीरो को विफल कर दिया , लेकिन एक तीर आकर सीधा उनकी छाती पर लगा। कुछ समय के लिए शेखाजी स्थिर हुए , की शत्रु सेना ने उन्हें तीरो से छलनी कर दिया , शरीर की एक एक शिराओ से रक्त की धार बह निकली।

इतने घायल होने के बाद भी राव शेखाजी ने अपने अपने शस्त्र नहीं तजे। रिड़मल जी पर ऐसा प्रहार किया , की रिड़मल जी बड़ी मुश्किल से खुद बच पाएं , घोडा बीच से कट गया। घायल अवस्था में भी शत्रुओ को गाजर मूली की तरह काटते शेखाजी कछवाहा आगे बढ़ते ही जा रहे थे।

राव शेखाजी के तेग़े के जोर के आगे , गोड़ सूर्यास्त से पहले ही भाग खड़े हुए। अपनी जान बचाते हुए वे घाटवा के मैदान की और बढे , यह उनकी योजना का ही हिस्सा था , गोड़ो ने घाटवा पर अपनी रिजर्व सेना छोड़ रखी थी , उनकी योजना के अनुसार शेखाजी के थके हारे सेनिको को घाटवा के मैदान पर घेरकर बंदी बना लेना या मार डालना था। लेकिन शेखाजी ने उनकी इस योजना को बड़ी कुशलता से पहचाना भी और , योजना को ध्वस्त भी करवा दिया। युद्ध तो राव शेखाजी जित चुके थे , उनके बड़े पुत्र इस युद्ध में वीरगति प्राप्त कर गए।

खून से लथपथ राव शेखाजी ने उसके बाद अपने सभी अफसरों को बुलाया , उनके सामने अपने कनिष्क पुत्र रायमल कछवाहा शेखावत को अपने ढाल और तलवार सौंप उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया , तथा खुद सदा सदा के लिए आँखे बंद क्र , यह लोक जीत , स्वर्गलोक जीतने प्रस्थान कर गए।
Satveer Singh Shekhawat Barsinghpura

बुधवार, 1 अगस्त 2018

गढ़वाल की बहादुर महारानी कर्णावती - नाक काटी रानी

गढ़वाल की बहादुर महारानी
कर्णावती "नाक काटी रानी"

क्या आपने गढ़वाल क्षेत्र की “नाक काटी रानी”
का नाम सुना है ?

नहीं सुना होगा...

क्योंकि ऐसी बहादुर हिन्दू रानियों के तमाम
कार्यों को चुपके से छिपा देना ही  “फेलोशिप-खाऊ” इतिहासकारों का काम था...

गढ़वाल राज्य को मुगलों द्वारा कभी भी जीता
नहीं जा सका....

ये तथ्य उसी राज्य से सम्बन्धित है.
यहाँ एक रानी हुआ करती थी, जिसका नाम
“नाक काटी रानी” पड़ गया था, क्योंकि उसने
अपने राज्य पर हमला करने वाले कई मुगलों
की नाक काट दी थी.

जी हाँ!!! शब्दशः नाक बाकायदा काटी थी.

इस बात की जानकारी कम ही लोगों को है
कि गढ़वाल क्षेत्र में भी एक “श्रीनगर” है,

यहाँ के महाराजा थे महिपाल सिंह, और
इनकी महारानी का नाम था कर्णावती
(Maharani Karnavati).

महाराजा अपने राज्य की राजधानी
सन 1622 में देवालगढ़ से श्रीनगर ले गए.

महाराजा महिपाल सिंह एक कठोर, स्वाभिमानी
और बहादुर शासक के रूप में प्रसिद्ध थे.

उनकी महारानी कर्णावती भी ठीक वैसी ही थीं.

इन्होंने किसी भी बाहरी आक्रांता को अपने राज्य में घुसने नहीं दिया. जब 14 फरवरी 1628 को आगरा में शाहजहाँ ने राजपाट संभाला, तो उत्तर भारत के दूसरे कई छोटे-मोटे राज्यों के राजा शाहजहाँ से सौजन्य भेंट करने पहुँचे थे.

लेकिन गढ़वाल के राजा ने शाहजहाँ की इस
ताजपोशी समारोह का बहिष्कार कर दिया था.

ज़ाहिर है कि शाहजहाँ बहुत नाराज हुआ.

फिर किसी ने शाहजहाँ को बता दिया कि गढ़वाल
के इलाके में सोने की बहुत खदानें हैं और
महिपाल सिंह के पास बहुत धन-संपत्ति है...

बस फिर क्या था, शाहजहाँ ने “लूट परंपरा” का
पालन करते हुए तत्काल गढ़वाल पर हमले की
योजना बना ली.

शाहजहाँ ने गढ़वाल पर कई हमले किए, लेकिन सफल नहीं हो सका. इस बीच कुमाऊँ के एक युद्ध में गंभीर रूप से घायल होने के कारण 1631 में महिपाल सिंह की मृत्यु हो गई. उनके सात वर्षीय पुत्र पृथ्वीपति शाह को राजा के रूप में नियुक्त किया गया, स्वाभाविक
है कि राज्य के समस्त कार्यभार की जिम्मेदारी
महारानी कर्णावती पर आ गई.

लेकिन महारानी का साथ देने के लिए उनके
विश्वस्त गढ़वाली सेनापति लोदी रिखोला,
माधोसिंह, बनवारी दास तंवर और दोस्त
बेग मौजूद थे.

जब शाहजहां को महिपाल सिंह की मृत्यु की
सूचना मिली तो उसने एक बार फिर 1640 में
श्रीनगर पर हमले की योजना बनाई.

शाहजहां का सेनापति नज़ाबत खान,
तीस हजार सैनिक लेकर कुमाऊँ गढवाल रौंदने
के लिए चला.

महारानी कर्णावती ने चाल चलते हुए उन्हें राज्य
के काफी अंदर तक आने दिया और वर्तमान में
जिस स्थान पर लक्ष्मण झूला स्थित है, उस जगह
पर शाहजहां की सेना को महारानी ने दोनों तरफ
से घेर लिया.

पहाड़ी क्षेत्र से अनजान होने और
बुरी तरह घिर जाने के कारण नज़ाबत खान
की सेना भूख से मरने लगी, तब उसने महारानी कर्णावती के सामने शान्ति और समझौते का सन्देश भेजा, जिसे महारानी ने तत्काल ठुकरा दिया.

महारानी ने एक अजीबोगरीब शर्त रख दी कि
शाहजहाँ की सेना से जिसे भी जीवित वापस आगरा जाना है वह अपनी नाक कटवा कर ही जा सकेगा,
मंजूर हो तो बोलो.

महारानी ने आगरा भी यह सन्देश भिजवाया
कि वह चाहें तो सभी के गले भी काट सकती हैं,

लेकिन फिलहाल दरियादिली दिखाते हुए
वे केवल नाक काटना चाहती हैं.

सुलतान बहुत शर्मिंदा हुआ,

अपमानित और क्रोधित भी हुआ,

लेकिन मरता क्या न करता...

चारों तरफ से घिरे होने और भूख की वजह
से सेना में भी विद्रोह होने लगा था ।

तब महारानी ने सबसे पहले नज़ाबत खान की
नाक खुद अपनी तलवार से काटी और उसके
बाद अपमानित करते हुए सैकड़ों सैनिकों की
नाक काटकर वापस आगरा भेजा,
तभी से उनका नाम “नाक काटी रानी” पड़ गया था.

नाक काटने का यही कारनामा उन्होंने दोबारा
एक अन्य मुग़ल आक्रांता अरीज़ खान और
उसकी सेना के साथ भी किया...

उसके बाद मुगलों की हिम्मत नहीं हुई कि
वे कुमाऊँ-गढ़वाल की तरफ आँख उठाकर देखते.

महारानी को कुशल प्रशासिका भी माना जाता था.

देहरादून में महारानी कर्णावती की बहादुरी के किस्से आम हैं (लेकिन पाठ्यक्रमों से गायब हैं).

दून क्षेत्र की नहरों के निर्माण का श्रेय भी
कर्णावती को ही दिया जा सकता है.

उन्होंने ही राजपुर नहर का निर्माण करवाया था जो रिपसना नदी से शुरू होती है और देहरादून शहर तक पानी पहुँचाती है. हालाँकि अब इसमें कई बदलाव और विकास कार्य हो चुके हैं, लेकिन दून घाटी तथा कुमाऊँ-गढ़वाल के इलाके में “नाक काटी रानी” अर्थात महारानी कर्णावती का योगदान अमिट है.

“मेरे मामले में अपनी नाक मत घुसेड़ो, वर्ना कट जाएगी”, वाली कहावत को उन्होंने अक्षरशः पालन करके दिखाया और इस समूचे पहाड़ी इलाके को मुस्लिम आक्रान्ताओं से बचाकर रखा.

उम्मीद है कि आप यह तथ्य और लोगों तक
पहुँचाएंगे...

ताकि लोगों को हिन्दू रानियों की वीरता
के बारे में सही जानकारी मिल सके.

रविवार, 29 जुलाई 2018

सूरवीर गौ रक्षक वीर श्री पाबूजी राठौड़

सूरवीर गौ रक्षक वीर श्री पाबूजी राठौड़ 

राव सिहाजी "मारवाड में राठौड वंश के संस्थापक " उनके तीन पुत्र थे ।
राव आस्थानजी, राव अजेसीजी, राव सोनगजी !

राव आस्थानजी के आठ पूत्र थे !
राव धुहडजी, राव धांधलजी, राव हरकडजी,राव पोहडजी, राव खिंपसिजी, राव आंचलजी,राव चाचिंगजी, राव जोपसाजी !

राव धांधलजी राठौड़ के दो पुत्र थे ! बुढोजी और पाबुजी !

श्री पाबूजी राठौङ का जन्म 1313 ई में कोळू ग्राम में हुआ था ! कोळू ग्राम जोधपुर में फ़लौदी के पास है ।

धांधलजी कोळू ग्राम के राजा थे, धांधल जी की ख्याति व नेक नामी दूर दूर तक प्रसिद्ध थी ।

एक दिन सुबह सवेरे धांधलजी अपने तालाब पर नहाकर भगवान सूर्य को जल तर्पण कर रहे थे ।
तभी वहां पर एक बहुत ही सुन्दर अप्सरा जमीन पर उतरी ! राजा धांधल जी उसे देख कर उस पर मोहित हो गये, उन्होने अप्सरा के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा ।

जवाब में अप्सरा ने एक वचन मांगा कि राजन ! आप जब भी मेरे कक्ष में प्रवेश
करोगे तो सुचना करके ही प्रवेश करोगे ।
जिस दिन आप वचन तोङेगें मै उसी दिन स्वर्ग लोक लौट जाउगीं, राजा ने वचन दे दिया ।

कुछ समय बाद धांधलजी के घर मे पाबूजी के रूप मे अप्सरा रानी के गर्भ से एक पुत्र का जन्म होता है ।

समय अच्छी तरह बीत रहा था, एक दिन भूल वश या कोतुहलवश धांधलजी अप्सरा रानी के कक्ष में बिना सूचित किये प्रवेश कर जाते है ।

वे देखते है कि अप्सरा रानी पाबूजी को सिंहनी के रूप मे दूध पिला रही है ।

राजा को आया देख अप्सरा अपने असली रूप मे आ जाती है और राजा धांधलजी से कहती है कि "हे राजन आपने अपने वचन को तोङ दिया है इसलिये अब मै आपके इस लोक में नही रह सकती हूं ।

मेरे पुत्र पाबूजी कि रक्षार्थ व सहयोग हेतु मै दुबारा एक घोडी ( केशर कालमी ) के रूप में जनम लूगीं ।
यह कह कर अप्सरा रानी अंतर्ध्यान हो जाती है ।

समय बीत गया और पाबूजी महाराज बड़े हो गए,  गुरू समरथ भारती जी द्वारा उन्हें शस्त्रों की दीक्षा दी जाती है ।
धांधल जी के निधन के बाद नियमानुसार राजकाज उनके बड़े भाई बुङा जी द्वारा किया जाता है ।

गुजरात राज्य मे आया हुआ गाँव " अंजार " जहाँ पर देवल बाई चारण नाम की एक महिला रहती थी ।

उनके पास एक काले रंग की घोडी थी, जिसका नाम केसर कालमी था !
उस घोडी की प्रसिद्धि दूर दूर तक फैली हुई थी ।

उस घोडी को को जायल (नागौर) के जिन्दराव खींची ने डोरा बांधा था, और कहा कि यह घोडी मै लुंगा, यदि मेरी इच्छा के विरूद्ध तुम ने यह घोडी किसी और को दे दी तो मै तुम्हारी सभी गायों को ले जाउगां ।

एक रात श्री पाबूजी महाराज को स्वप्न आता है और उन्हें यह घोडी (केशर कालमी) दिखायी देती है, सुबह वो इसे लाने का विचार करते है ।

श्री पाबूजी महाराज अपने खास चान्दा जी, ढ़ेबाजी को साथ में लेकर अंजार के लिये रवाना होते है ।

अंजार पहुँच ने पर देवल बाई चारण उनकी अच्छी आव भगत करती है, और आने का प्रयोजन पूछती है ।

श्री पाबूजी महाराज देवल से केशर कालमी को मांगते है, लेकिन देवल उन्हें मना कर देती है, और उन्हें बताती है कि इस घोडी को जिन्दराव खींची ने डोरा बांध रखा है और मेरी गायो के अपहरण कि धमकी भी दी हुई है ।

यह सुनकर श्री पाबूजी महाराज देवल बाईं चारण को वचन देते है कि तुम्हारी गायों कि रक्षा कि जिम्मेदारी आज से मेरी है, जब भी तुम विपत्ति मे मुझे पुकारोगी अपने पास ही पाओगी, उनकी बात सुनकर के देवल अपनी घोडी उन्हें दे देती है ।

श्री पाबूजी महाराज के दो बहिने थी, पेमलबाई और सोनल बाई !
जिन्दराव खींची का विवाह श्री पाबूजी महाराज कि बहिन पेमल बाई के साथ होता है, और सोनल बाई का विवाह सिरोही के महाराजा सूरा देवडा के साथ होता है ।

जिन्दराव शादी के समय दहेज मे केशर कालमी कि मांग करता है, जिसे श्री पाबूजी महाराज के बडे भाई बूढा जी द्वारा मान लिया जाता है, लेकिन श्री पाबूजी महाराज घोडी देने से इंकार कर देते है, इस बात पर श्री पाबूजी महाराज का अपने बड़े भाई के साथ मनमुटाव हो जाता है ।

अमर कोट के सोढा सरदार सूरज मल जी कि पुत्री फूलवन्ती बाई का रिश्ता श्री पाबूजी महाराज के लिये आता है, जिसे श्री पाबूजी महाराज सहर्ष स्वीकार कर लेते है, तय समय पर श्री पाबूजी महाराज बारात लेकर अमरकोट के लिये प्रस्थान करते है ।

कहते है कि पहले ऊंट के पांच पैर होते थे इस वजह से बारात धीमे चल रही थी, जिसे देख कर श्री पाबूजी महाराज ने ऊंट के बीच वाले पैर के नीचे हथेली रख कर उसे ऊपर पेट कि तरफ धकेल दिया जिससे वह पेट मे घुस गया, आज भी ऊंट के पेट पर पांचवे पैर का निशान है ।

इधर देवल चारणी कि गायो को जिन्दराव खींची ले जाता है, देवल बाईं चारण काफी मिन्नते करती है लेकिन वह नही मानता है, और गायो को जबरन ले जाता है ।

देवल चारणी एक चिडिया का रूप धारण करके अमर कोट पहूँच जाती है, और वहाँ पर खड़ी केसर कालमी घोड़ी हिन्-हिनाने लगती है ।

अमर कोट में उस वक्त श्री पाबूजी महाराज की शादी में फेरो की रस्म चल रही होती है तीन फेरे ही लिए थे की चिडिया के वेश में देवल बाई चारण ने वहा रोते हुए आप बीती सुनाई ! उसकी आवाज सुनकर पाबूजी का खून खोल उठा और वे रस्म को बीच में ही छोड़ कर युद्ध के लिए प्रस्थान करते है ।

उस दिन से राजपूतो में आधे फेरो (चार फेरों ) का  रिवाज चल पड़ा है ।

पाबूजी महाराज अपने जीजा जिन्दराव खिंची को ललकारते है, वहा पर भयानक युद्ध होता है,  श्री पाबूजी महाराज अपने युद्ध कोशल से जिन्दराव खिंची को परस्त कर देते है, लेकिन बहिन के सुहाग को सुरक्षित रखने के लिहाज से जिन्दराव को जिन्दा छोड़ देते है ।

और सभी गायो को लाकर वापस देवल बाईं चारण को सोप देते है, और अपनी गायो को देख लेने को कहते है, देवल बाई चारण कहती है की एक बछडा कम है ।
पाबूजी महाराज वापस जाकर उस बछड़े को भी लाकर दे देते है ।

श्री पाबूजी महाराज रात को अपने गाँव गुन्जवा में विश्राम करते है तभी रात को जिन्दराव खींची अपने मामा फूल दे भाटी के साथ मिल कर सोते हुए पर हमला करता है ! जिन्दराव के साथ पाबूजी महाराज का युद्ध चल रहा होता है और उनके पीछे से फूल दे भाटी वार करता है, और इस प्रकार श्री पाबूजी महाराज गायो की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे देते है ।

पाबूजी महाराज की रानी फूलवंती जी , व बूढा जी की रानी गहलोतनी जी व अन्य राजपूत सरदारों की राणियां अपने अपने पति के साथ सती हो जाती है, कहते है की बूढाजी की रानी गहलोतनी जी गर्भ से होती है ।

हिन्दू शास्त्रों के अनुसार गर्भवती स्त्री सती नहीं हो सकती है  इस लिए उन्होंने अपना पेट कटार से काट कर पेट से बच्चे को निकाल कर अपनी सास को सोंप कर कहती है की यह बड़ा होकर अपने पिता व चाचा का बदला जिन्दराव से जरूर लेगा, यह कह कर वह सती हो जाती है ।

कालान्तर में वह बच्चा झरडा जी ( रूपनाथ जो की गुरू गोरखनाथ जी के चेले होते है ) के रूप में प्रसिद्ध होते है तथा अपनी भुवा की मदद से अपने फूफा को मार कर बदला लेते है और जंगल में तपस्या के लिए निकल जाते है !!

जय #पाबुजी री

शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

भूस्वामी आन्दोलन

" भूस्वामी आन्दोलन "

आजादी के बाद राजपूतों का पहला व सबसे बड़ा आन्दोलन ।
आजादी के बाद कांग्रेस नेताओं ने राजपूत जाति को शक्तिहीन करने के लिए सत्ता का प्रयोग करते हुए उनकी जागीरें समाप्त करने हेतु जागीरदारी उन्मूलन कानून बनाकर आर्थिक प्रहार किया, ताकि आर्थिक दृष्टि से भी शक्तिहीन हो जाये और राजपूत राजनैतिक तौर पर चुनौती ना दे सके। इस हेतु सन् 1954 में जागीरदारी उन्मूलन कानून प्रारूप को तैयार करने के लिए राजस्थान क्षत्रिय महासभा व राजस्थान सरकार के बीच समझौता कराने हेतु गोविन्द बल्लभ पन्त को मध्यस्त बनाया गया । कोशिश करने पर भी इस समझौते में भूस्वामियों के प्रतिनिधियों को भाग नहीं लेने दिया गया । ऐसी स्थिति में क्षत्रिय युवक संघ ने जाति को जागृत करने हेतु शंख बजाया तो जाति ने फिर अंगडाई ली । एक तरफ इस कानून को सबसे पहले राजस्थान उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई कर्मठ क्षत्रियों ने जिसमें आयुवानसिंह जी हुडील, तनसिंह जी बाड़मेर, ठाकुर मदनसिंह जी दांता, रघुवीर सिंह जी जावली, सवाईसिंह जी धमोरा, केशरीसिंह जी पटौदी, विजयसिंह जी राजपुरा, शिवचरणदास जी निम्बाहेड़ा (मेवाड़), हीर सिंह जी सिंदरथ, कुमेर सिंह जी भादरा ने भू - स्वामियों को संगठित किया और जगह - जगह घूमकर राजपूत समाज को सरकार से लड़ने को तैयार कर दिया । क्षत्रिय युवक संघ के युवकों ने सरकार के विरूद्ध अहिंसात्मक आन्दोलन चलाने की योजना बनाई । भूस्वामी आन्दोलन को व्यवस्था देने हेतु एक राजपूतों का शिविर (सिरोही) में रखा गया और वहां सरकार से डटकर मुकाबला करने की योजना बनाई गई । भूस्वामी आन्दोलन को नेतृत्व देने वाले कौन - कौन और कब - कब होंगे ?
यह निश्चित किया गया और भूस्वामी संघ के अध्यक्ष जब गिरफ्तार हो जायेगें तो दूसरे व्यक्ति उसका नेतृत्व ग्रहण कर लेंगे । ठा. मदनसिंह जी दांता प्रथम अध्यक्ष बनाए गए और इसी पंक्ति में फिर रघुवीरसिंह जी जावली, आयुवानसिंह जी हुडील, तनसिंह जी बाड़मेर, शिवचरणदास जी निम्बाहेड़ा (मेवाड़), हीर सिंह जी सिंदरथ (सिरोही) और केशरीसिंह जी पाटोदी रखे गए। इस सारी योजना का विवरण सौभाग्यसिंह जी भगतपुरा के पास रहा।

राजस्थान के सब जिलों में जिलेवार शिविरों को व्यवस्थाएं की गई। इन शिविर केन्द्रों से जत्थे के जत्थे जयपुर भेजने की व्यवस्था भी की गई और इस प्रकार क्षत्रिय युवक संघ के युवकों ने सरकार के सामने तूफानी संगठन खड़ा कर दिया था। यह भूस्वामी आन्दोलन 1 जून 1955 को आरम्भ हुआ और प्रथम दिन ही पांच हजार भूस्वामियों ने गिरफ्तारी दी । देश की स्वतंत्रता के बाद देश का यह एक बड़ा आन्दोलन था जिसमें प्रथम दिन ही इतने लोगों ने इतनी बड़ी संख्या में गिरफ्तारी दी । इस समय भूस्वामी संघ के अध्यक्ष मदनसिंह जी दांता थे । आन्दोलनकारियों के सिर पर केशरिया साफा होता था तथा एक बैज होता था जिस पर ‘वीर सेनानी’ अंकित होता था । आयुवानसिंह जी हुडील ने भूमिगत रहकर आन्दोलन का संचालन किया तो बाहर मदनसिंह जी दांता व रघुवीरसिंह जी जावली आदि वीर भूस्वामियों के साथ डटे रहे।

क्षत्रिय युवकों और अन्य साहसी लोगों  से जेलें भरने लगी । भूस्वामी आन्दोलन चलता रहा, राजपूत गिरफ्तार होते रहे । भूस्वामी आन्दोलन का संचालन आयुवानसिंह जी ने भूमिगत रहकर किया । तनसिंह जी ने आन्दोलन का केंद्र बाड़मेर में खोला व बन्दी हुए । आन्दोलन की तेज गति से घबराकर तत्कालीन मुख्यमन्त्री मोहनलाल सुखाड़िया ने भूस्वामी संघ के अध्यक्ष मदनसिंह जी दांता व रघुवीरसिंह जी जावली को लिखित आश्वासन दिया, जिसके फलस्वरूप आन्दोलन 21 जुलाई 1955 को स्थगित कर दिया गया, परन्तु इसकी क्रियान्विति पर पुन: मतभेद हो गया और 19 दिसंबर 1955 को पुन: आन्दोलन शुरू हो गया।

गृहमंत्री रामकिशोर व्यास के निवास स्थान पर प्रदर्शन किया गया । बहुत से भूस्वामी गोविन्दसिंह जी आमेट के नेतृत्व में गिरफ्तार किये गये। आन्दोलन चलता रहा, भूस्वामी जेल जाते रहे और मार्च 1956 में आयुवानसिंह जी को बन्दी बना दिया गया । भूस्वामी बन्दियों को राजनैतिक कैदी मानकर बी श्रेणी में रखा गया। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु आयुवानसिंह जी ने जोधपुर जेल में अनशन शुरू कर दिया । 22 मार्च, 1956 को आयुवानसिंह जी को टोंक जेल में भेज दिया गया , जहाँ तनसिंह जी व सवाईसिंह जी धमोरा भी पहले से बन्दी थे। यहां इन तीनों ने भी अनशन शुरू कर दिए , अन्त में सरकार को भूस्वामियों को राजनैतिक कैदी मानना पड़ा व उनको ‘बी’ श्रेणी की सुविधायें देनी पड़ी।

रामराज्य परिषद् व हिन्दू महासभा के नेताओं ने इस आन्दोलन का पूर्ण समर्थन किया । रामराज्य परिषद् के संस्थापक स्वामी करपात्री जी महाराज, स्वामी कृष्ण बौधाश्रम जी महाराज (जो बाद में ज्योर्तिमठ के शंकराचार्य बने), स्वामी स्व. रूपानन्दजी सरस्वती (ज्योर्तिमठ के तत्कालीन शंकराचार्य), लोकसभा के सदस्य नन्दलाल जी शर्मा (तत्कालीन लोकसभा सदस्य), केशव जी शर्मा, राजा महेन्द्रप्रताप जी वृन्दावन जैसी विशिष्ठ प्रतिभाओं का मार्ग दर्शन भी प्राप्त हुआ। (संघ शक्ति अक्टूबर 80 में श्री भानु के लेख से साभार) इनके अतिरिक्त पृथ्वीराजसिंह जी दिल्ली, ओंकारलाल जी सर्राफ, सत्यनारायण जी सिन्हा, जुगलकिशोर जी बिड़ला, डॉ. बलदेव जी आदि का सराहनीय योगदान रहा ।

भूस्वामी आन्दोलन को सफल बनाने में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के अलावा राजस्थान के बाहर के राजपूतों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा । मालवा के बासेन्द्रा ठिकाने के कुँवर तेजसिंह जी सत्याग्रहियों का जत्था लेकर पहुंचे । राव कृष्णपालसिंह जी, रामदयालसिंह जी ग्वालियर, जनेतसिंह जी इटावा, महावीरसिंह जी भदौरिया, ठाकुर कोकसिंह जी, डॉ. ए.पी. सिंह जी लखनऊ, प्रेमचन्द जी वर्मा, सौराष्ट्र (गुजरात) से एडवोकेट नटवरसिंह जी जाड़ेजा, मास्टर अमरसिंह जी बड़गुजर भौड़सी (हरियाणा) आदि साहसी व्यक्ति भी इस आन्दोलन में कुद पड़े।

यों तो राजस्थान के तीन लाख से अधिक सेनानी इस भूस्वामी आन्दोलन में सम्मिलित हुए पर सबका यहां नाम अंकित करना सम्भव नहीं , फिर भी इस आन्दोलन में जिनका अधिक सक्रिय योगदान रहा उनमें कुँवर आयुवान सिंह जी हुडील , ठाकुर तन सिंह जी रामदेरिया , कर्नल मोहन सिंह जी भाटी ओसियां , ठाकुर मदन सिंह जी दांता , ठाकुर रघुवीर सिंह जी जावली , ठाकुर मोहर सिंह जी लाखाऊ , ठाकुर कल्याण सिंह जी कालवी, कुँवर विजय सिंह जी नन्देरा , ठाकुर केसरी सिंह जी पाटोदी , ठाकुर सज्जन सिंह जी देवली , ठाकुर दलपत सिंह जी पदमपुरा , ठाकुर हरी सिंह जी सोलंकियातला , ठाकुर सवाई सिंह जी धमोरा , ठाकुर हेम सिंह जी चोहटन , ठाकुर हीर सिंह जी सिंदरथ (सिरोही) , ठाकुर शुर सिंह जी नाथावत रेटा , ठाकुर लख सिंह जी भाटी पूनमनगर , ठाकुर देवी सिंह जी खुड़ी , ठाकुर हेम सिंह जी मगरासर , कर्नल माधो सिंह जी अनवाड़ा , ठाकुर रामदयाल सिंह जी ग्वालियर , महाराज प्रहलाद सिंह जी जोधपुर , ठाकुर छोटू सिंह जी डाँवरा (जोधपुर), ठाकुर जैनेश सिंह जी चन्द्रपुरा (UP) , गोहिल ठाकुर हरी सिंह जी गढुला (सौराष्ट्र) , ठाकुर रिसालसिंह जी जोधपुर, खण्डेला राजा लक्ष्मणसिंह जी, छोटा पाना धौंकलसिंह जी चरला, रघुनाथ सहाय जी वकील जयपुर, स्वरूपसिंह जी खुड़ी, उम्मेदसिंह जी कनई, नरपतसिंह जी खवर, कानसिंह जी बोघेरा, मास्टर अमरसिंह जी अलवर, राजा अर्जुनसिंह जी किशनगढ़, बलवन्तसिंह जी नेतावल (मेवाड़), उदयभान सिंह जी चनाना, सूरजसिंह जी झाझड़, बाघसिंह जी नेवरी, गणपतसिंह जी चंवरा (जयपुर जेल से छूटने के बाद वहीं देवलोक हुए), चैनसिंह जी भाकरोद, उदयसिंह जी भाटी, रणमलसिंह जी सापणदा, उदयसिंह जी आवला, हरिसिंह जी राठौड़ (गढ़ियावाला रावजी), कुमसिंह जी सोलंकीयातला , भूरसिंह जी सिंदरथ , नरपतसिंह जी सराणा, मालमसिंह जी बड़गांव , जयसिंह जी नन्देरा, गिरधारीसिंह जी खोखर, प्रतापसिंह जी सापून्दा, ठाकुर रिड़मलसिंह जी सापून्दा, उम्मेदसिंह जी भदूण, महाराजा अर्जुनसिंह जी, ले. जनरल नाथूसिंह जी, राजा संग्रामसिंह जी खण्डेला, हनुवन्तसिंह जी खण्डेला , भोमसिंह जी कुन्दनपुर कोटा, प्रो. मदनसिंह जी अजमेर, राव कल्याणसिंह जी, राजा सुदर्शनसिंह जी शाहपुरा, तख़्तसिंह जी मलसीसर, नारायणसिंह जी सरगोठ, राव वीरेन्द्रसिंह जी खवा (जयपुर), अमरसिंह जी व आनन्दसिंह जी बोरावड़, तेजसिंह जी विचावा, ठा. मानसिंह जी कैराफ, तख्तसिंह जी, भीमसिंह जी साण्डेराव, ठा. सवाई सिंह जी फालना आदि प्रमुख लोग थे ।

आन्दोलन तेज गति से चलने लगा, जयपुर की सड़कों और चौराहों पर केशरिया साफा बांधे हुए भूस्वामियों के जत्थे नजर आते थे । दिन प्रतिदिन भूस्वामियों से जेल भरी जाने लगी थी । ऐसे समय राजा सवाई मानसिंह जी जयपुर का सहयोग लेने के लिए आयुवानसिंह जी ने उनको एक पत्र लिखा जिसका भाव यह था कि हमारे पूर्वजों ने जयपुर रियासत की रक्षार्थ व प्रजा की रक्षार्थ सिर कटाये हैं । अब आपको जरा भी ध्यान है तो हमारी सहायता करें । यह पत्र खण्डेला राजा संग्रामसिंह जी के माध्यम से महाराजा के पास पहुँचाया गया । पत्र पढ़कर महाराजा सवाई मानसिंह जी प्रभावित हुए और उन्होंने भूस्वामियों को सहायता करने का मानस बना लिया तथा शीघ्र ही तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू से सम्पर्क साधा । दूसरी ओर इसी समय मोहरसिह जी लाखाऊ व देवीसिंह जी महार दिल्ली पहुंचे और जुगल किशोर जी बिड़ला के माध्यम से सत्यनारायण सिन्हा भी भूस्वामियों की मांगों से सहमत हुए और उन्होंने शीघ्र ही नेहरूजी से सम्पर्क किया । नेहरू जी ने भूस्वामियों की मांगों पर विचार करना स्वीकार किया । नेहरूजी के हस्तक्षेप से भूस्वामी कार्यकारिणी के सदस्यों को पन्द्रह दिन के लिए पेरोल पर रिहा किया । भूस्वामी सदस्यों के विषय अध्ययन और उनके समाधान के लिए एक समिति निर्मित की गई। भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के अनुभवी प्रशासक त्रिलोकसिंह व नवाबसिंह इनके सदस्य थे ।
रघुवीरसिंह जी जावली, तनसिंह जी बाड़मेर व आयुवानसिंह जी ने भूस्वामियों की ओर से एक प्रतिवेदन तैयार किया और इस समिति के सामने रखा , नेताओं से बातचीत की । अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के मंत्री डॉ. ए.पी. सिंह जी, ठाकुर रघुवीरसिंह जी व आयुवानसिंह जी सहित छ: सदस्यों के शिष्टमण्डल ने नेहरूजी को स्मरण पत्र दिया । कुछ लोगों ने आन्दोलनकारियों में फूट डालकर इसे विफल करने का प्रयास भी किया पर भूस्वामी टस से मस नहीं हुए। नेहरूजी की भूस्वामियों के साथ सहानुभूति पर भी राज्य सरकार भूस्वामी वर्ग की सहृदयता को कमजोरी मान रही थी । अत: वार्ता असफल हो गई तो 29 मई 1956 को यह आन्दोलन पुन: जोर पकड़ने लगा । भैंरूसिंह जी बड़ावर, ठाकुर देवीसिंह जी खुड़ी और सवाईसिंह जी धमोरा वापिस जेल गए । पं. नेहरू को जब यह हालात मालुम हुए तो वयोवृद्ध गांधीवादी विचारक रामनारायण जी चौधरी को जयपुर भेजा ।
भूस्वामी नेताओं से उन्होंने शीघ्र ही सम्पर्क किया । श्री तनसिंह जी ने 1 जून 1956 को आमरण अनशन शुरू कर दिया था । राजस्थान सरकार का रवैया अच्छा न होने के कारण आयुवानसिंह जी ने पुनः 23 जून, 1956 को व्यक्तिगत सत्याग्रह का नोटिस दिया । इसी समय रघुवीरसिह जी जावली, रामनारायण जी चौधरी, उदयभान सिंह जी चनाना व विजयसिंह जी नन्देरा भी आयुवानसिंह जी से जेल मिलने आये। आयुवानसिंह जी, सवाईसिंह जी धमोरा व तनसिंह जी से लम्बी बातचीत की । अच्छा वातावरण बना प्रस्ताव तैयार किया गया । इस प्रस्ताव को दिखाने शिवचरणदास जी, ठा. रणमलसिंह जी सापणदा, उदयभान सिंह जी चनाना, सुरसिंह जी रेटा जेल में मिलने गये। 26 जून 1956 को उच्च न्यायालय के आदेश से रिहा किये गए पर आयुवानसिंह जी व सवाईसिंह जी धमोरा जेल में ही रहे। बाद में मोहरसिंह जी एडवोकेट ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से 13 अगस्त 1956 की रिहा करवाया। इस आन्दोलन का सरकार पर अधिक दबाव आयुवानसिंह जी के व्यक्तिगत सत्याग्रह, उनकी भूख हड़ताल व उनके अनशन के कारण पड़ा। ठाकुर बाघसिंह जी शेखावत बरड़वा आयुवानसिंह जी के समर्थन में अनशन किया । इन सबका मुख्यमंत्री सुखाड़िया पर नैतिक दबाव पड़ा। साथ ही भैरूसिंह जी की सहानुभूति भी भूस्वामियों के साथ थी।
इस कारण सरकार ने समझौता वार्ता शुरू की व समझौता हुआ। इस समझौते के अनुसार भूस्वामियों को खुदकाश्त के लिए मुरब्बे (जमीन), राजकीय सर्विस में जागीरदारों की नियुक्ति, जागीर कर्मचारियों के पेंशन की सुविधा, जागीर मुवावजे में वृद्धि आदि लाभ दिये गये। ये सुविधाएं नेहरू अवार्ड के नाम से जानी गई। राजस्थान के भूस्वामी संघ के भूस्वामी आन्दोलन की समाप्ति के बाद गुजरात के भूस्वामियों को लाभ दिलाने के लिए आयुवानसिंह जी अपने पचास साथियों सहित कच्छ भूज गए और सौराष्ट्र तथा कच्छ का दौरा किया। अहमदाबाद में स्वयं ने अनशन की घोषणा की। इनके साथ वहां सवाईसिंह जी धमोरा, रघुवीरसिंह जी जावली आदि भी थे। अन्त में गुजरात सरकार को भी वहां के भूस्वामियों को सुविधाएं देनी पड़ी। इस प्रकार भूस्वामी संघ के इन राजपूती चरित्र के युवकों ने जागीरदारी उन्मूलन के मामलों पर राजस्थान सरकार को झुकाया और गुजरात सरकार को भी प्रभावित किया ।