मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

बात पूरी सुन लेना

घर की मालकिन परेशान थी, रात को घर में दावत थी, पनीर पिज़्ज़ा बनाना चाह रही थी,सारा सामान ले आई थी लेकिन मशरुम लाना भूल गयी थी,रहती भी शहर से दूर थी, करीब कोई दूकान में मिलना मुश्किल था, साहब को मामला बताया तो टीवी से नज़रें हटाए बगैर बोले "मैं शहर नहीं जा रहा, अगर मशरुम नहीं डाले तो पिज़्ज़ा बन जायेगा और अगर फिर भी डालने है तो पीछे जो झाड़ियाँ हैं उसमें लगे हुवे है जंगली मशरूम उसमें डाल देना..घर मालकिन बोली "मैंने सूना है जंगली मशरूम ज़हरीले होते है अगर फ़ूड पोइसोनिंग हो गई और किसी को कुछ हुआ तो? साहब कहने लगे कुछ नहीं होगा..

घर मालकिन गयीं और जंगली मशरुम तोड़ लायी,लेकिन अक़लमंद थी, मशरुम सबसे पहले अपने कुत्ते मोती को डाले,कुत्ता खाने के कुछ देर मस्त खेलता रहा..चार, पांच घंटे बाद मालकिन ने पिज़्ज़ा बनाना शुरू किया और अच्छी तरह धोकर मशरुम पिज़्ज़ा और सालाद में डाल दिए..

दावत शानदार रही, मेहमानों को खाना पसंद आया, घर मालकिन बर्तन समेटने के बाद मेहमानों केलिए कॉफ़ी बना रही थी तो अचानक बेटी किचेन में दाख़िल हुई और कहा "मम्मी, हमारा मोती मर गया"

घर मालकिन की ऊपर की सांस ऊपर और निचे की सांस निचे अटक गयी लेकिन चूँकि समझदार थी इसलिए परेशान नहीं हुई फ़ौरन अस्पताल फोन किया और मामला बताया डॉक्टर ने कहा "क्यूंकि खाना अभी खाया है इसलिए बचाया जा सकता है,तमाम लोग जिन्होंने मशरुम खाए हैं उन्हें एनीमिया देना पडेगा और पेट साफ़ करना पड़ेगा"

थोड़ी ही देर में स्टाफ घर पहुँच गया और सबका पेट साफ़ किया गया..

रात तीन बजे सब मेहमान आड़े तिरछे बेड पर पड़े थे..

इतने में घर मालकिन की बेटी जिसने मशरुम नहीं खाए थे और सारी तकलीफ से बची थी, सूजी हुई आँखों के साथ माँ के पास बैठ गयी और उसके कंधे पर सर रखकर कहने लगी "मम्मी, कुछ लोग कितने ज़ालिम होते है, जिस ड्राईवर ने अपनी गाडी के निचे हमारे मोती को कुचल दिया था वो एक सेकंड भी नहीं रुका,कितना पत्थर दिल आदमी था,हाय मेरा मोती"

नोट:-आप कितने भी समझदार,अक़लमंद,ज़हीन क्यूँ ना हो, बात पूरी सुन लेने में कोई हर्ज नहीं है।

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2018

संघ प्रमुख श्री आयुवानसिंह

श्री क्षत्रिय युवक संघ के दुसरे संघ प्रमुख श्री कुंवर आयुवानसिंह जी शेखावत नागौर जिले के हुडील गांव में ठाकुर पेहपसिंह जी शेखावत के ज्येष्ठ पुत्र थे आपका जन्म १७ अक्टूबर १९२० ई.को अपने ननिहाल पाल्यास गांव में हुआ था|आपका परिवार एक साधारण राजपूत परिवार था|आपका विवाह बहुत कम उम्र में ही जब आपने आठवीं उत्तीर्ण की तभी कर दिया|
राजस्थान के ख्यातिप्राप्त विद्यालय चौपासनी, जोधपुर में आठवीं परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आपकी शादी होने के कारण विद्यालय के नियमों के तहत आपको आगे पढ़ने से रोक दिया गया पर आपकी प्रतिभा व कुशाग्र बुद्धि देखकर तत्कालीन शिक्षा निदेशक जोधपुर व चौपासनी विद्यालय के प्रिंसिपल कर्नल ए.पी.काक्स ने आपको अध्यापक की नौकरी दिला ग्राम चावण्डिया के सरकारी स्कूल में नियुक्ति दिला दी ताकि आप अध्यापन के साथ साथ खुद भी पढ़ सकें|
राजकीय सेवा में रहते हुए आपने सन १९४२ में साहित्य रत्न व् उसके बाद प्रथम श्रेणी से हिंदी विषय में एम.ए व एल.एल.बी की परीक्षाएं उत्तीर्ण की|तथा सन १९४८ में आपने सरकारी नौकरी से त्याग पत्र दे दिया|
सन १९४२ के आरम्भ में ही आपका परिचय श्री तनसिंह जी,बाड़मेर से हुआ | दोनों के ही मन में समाज के प्रति पीड़ा व कुछ कर गुजरने की अभिलाषा थी| इस अभिलाषा को पूर्ण करने हेतु एक संगठन बनाने को दोनों आतुर थे|तनसिंह जी ने पिलानी में पढते हुए "राजपूत नवयुवक मंडल" नाम से एक संगठन बना आयुवानसिंह जी को सूचित किया| इस संगठन के प्रथम जोधपुर अधिवेशन (मई १९४५) में क्षत्रिय युवक संघ नाम दिया गया जिसके प्रथम अध्यक्ष श्री आयुवानसिंह जी चुने गए|बाद में क्षत्रिय युवक संघ में नवीन कार्यप्रणाली की शुरुआत की गयी और आप इस संघ के संघ प्रमुख बने |तथा संघ के बनने से लेकर १९५९ तक क्षत्रिय युवक संघ से जुड़े रहे|
देशी रियासतों के विलीनीकरण व राजस्थान के निर्माण की घटनाओं के बाद १९५२ के प्रथम चुनावों की घोषणा हुई इससे कुछ समय पूर्व ही स्वामी करपात्री जी ने धर्म-नियंत्रित राजतन्त्र की मांग के साथ "रामराज्य परिषद" के नाम से एक राजनैतिक पार्टी की स्थापना की|राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ के वर्ण-विहीन हिन्दुवाद से वर्ण-धर्म की स्वीकारोक्ति के साथ धर्म की करपात्रीजी की बात क्षत्रिय युवक संघ के लोगों को अच्छी लगी और वे रामराज्य परिषद से जुड़ गए| क्षत्रिय युवक संघ का साथ मिलते ही रामराज्य परिषद का राजस्थान में विस्तार होने लगा| इस बीच कांग्रेसी नीतियों से असंतुष्ट जोधपुर के महाराजा को कर्नल मोहनसिंह जी के माध्यम से मुलाकात कर श्री आयुवानसिंह जी ने राजनीति में आने को प्रेरित किया और महाराजा जोधपुर ने आपको अपना राजनैतिक सलाहकार बनाया| आपकी सलाह से महाराजा ने ३३ विधानसभा क्षेत्रों में अपने लोगों को समर्थन दिया जिसमे से ३० उम्मीदवार विजयी हुए| किन्तु दुर्भाग्य से चुनाव परिणामों के बाद महाराजा जोधपुर हनुवंतसिंह जी का एक विमान दुर्घटना में देहांत हो गया|
जोधपुर के महाराजा को राजनीति में आने के लिए प्रेरित करना और उनकी सफलता के बाद उनका देहांत होने के बाद राजस्थान के अन्य राजपूत नेता बदली परिस्थितियों में कांग्रेस की ओर चले गए और राजपूत हितों की रक्षा करने हेतु फिर राजनैतिक शून्यता पैदा हो गयी जिसे पूरी करने के लिए आप महाराजा बीकानेर से मिले पर वहां आपको सफलता की कहीं कोई किरण नजर नहीं आई अत: आप जयपुर चले आये और निश्चय किया कि जयपुर राजघराने को आप सक्रिय राजनीति से जोडेंगे|
जब चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य ने स्वतंत्र पार्टी के गठन के लिए बम्बई में पहला अधिवेशन आयोजित किया तो आपने बम्बई जाकर राजगोपालाचार्य जी से जयपुर की महारानी गायत्रीदेवी को पार्टी में शामिल करने के लिए आमंत्रित करने के लिए मना लिया, महारानी को राजनीति की ललक आप पहले ही लगा चुके थे|राजगोपालाचार्य जी की आग्रह पर महारानी स्वतंत्र पार्टी में शामिल हो गयी पर समस्या ये थी कि वे न तो हिंदी जानती थी न भाषण देना| तब आपने महारानी को न सिर्फ हिंदी का ज्ञान कराया बल्कि भाषण देने कि कला भी सिखाई|आपके सहयोग और महाराजा मानसिंह जी के राजनैतिक कौशल के बूते महारानी गायत्री देवी एक कुशल नेता बन गयी|
महारानी गायत्री देवी को राजनीति में लाकर जयपुर राजघराने को राजनीति से जोड़ने के बाद आपन अपने प्रयासों से महारावल लक्ष्मण सिंह डूंगरपुर को भी राजनीति में खीच लाये| इस तरह से जो राजनैतिक शून्यता महाराजा जोधपुर के आकस्मिक निधन के बाद हो गयी थी उसे आपने भर दिया| और १९६२ के आम चुनावों में भी महारानी गायत्री देवी को वैसी ही सफलता मिली जैसी महाराजा जोधपुर को १९५२ में मिली थी|
महाराजा हनुवंतसिंह जोधपुर के निधन के बाद कांग्रेस ने राजनैतिक तोड़ फोड़ व प्रलोभन नीति शुरू कर दी थी|और जागीरदारी उन्मूलन अभियान शुरू कर दिया जिसके चलते जागीरदार अपना पक्ष रखने तत्कालीन गृह्रमंत्री प.गोविंदबल्लभ पंत से मिले,साधारण राजपूतों ने भी पंत से मिलने वाले प्रतिनिधि मंडल में शामिल होने की मांग की पर बड़े जागीरदारों ने उन्हें शामिल नहीं होने दिया और उन्होंने पंत से समझोता कर लिया इस समझौते में बड़े जागीरदारों का मुआवजा बढ़ा दिया गया और छोटे राजपूत किसानों का मुआवजा खत्म कर दिया गया|इस तरह कांग्रेस ने बड़े जागीरदारों को जो विपक्ष से चुनाव जीते थे को अपने पक्ष में कर कांग्रेस में मिला लिया |
उधर कांग्रेसी सरकार के जागीरदारी उन्मूलन कानून की आड़ लेकर आम छोटे काश्तकार राजपूत की काश्त की जमीनों पर भी किसानों ने कब्जे करने शुरू कर दिया परिणाम स्वरूप गांव-गांव में जमीन के लिए राजपूत समुदाय का दूसरें लोगों से झगड़ा शुरू हो गए इन झगडों में कई हत्याएं हुई| पर बड़े राजपूत जागीरदारों व नेताओं ने छोटे राजपूतों की कोई सहायता नहीं की|आम राजपूत उस समय अशिक्षित था अत:वह कुछ क़ानूनी कार्यवाही समझने में भी अक्षम था|
इसी समय सन १९५४ में आयुवानसिंह जी क्षत्रिय युवक संघ के संघ प्रमुख चुने गए उन्होंने समाज की दुर्दशा देख समाज के प्रबुद्ध लोगों से संपर्क कर जागीरदारी उन्मूलन कानून के खिलाफ आंदोलन करने का धरातल तैयार किया|१९५५ में भू-स्वामी संघ के नाम से एक संगठन बनाया गया जिसके अध्यक्ष ठाकुर मदनसिंह दांता थे|व कार्यकारी अध्यक्ष आयुवानसिंह जी को बनाया गया| १ जून १९५५ को इस संगठन ने जागीरों की समाप्ति के विरुद्ध आंदोलन की घोषणा कर दी|पर थोड़े ही समय में भू-स्वामी संघ के अध्यक्ष ठा.मदनसिंह जी कांग्रेसी चालों में फंस गए और उनके समझोता करने के बाद आंदोलन खत्म हो गया|
पर आयुवानसिंह जी ने समझोते को क्रियान्वित नहीं करने का आरोप लगाते हुए पुन: संघर्ष का बिगुल बजा दिया|इस बार उन्होंने कांग्रेसी चालों से बचने के लिए यथा संभव उपाय भी कर लिए थे|इस बार बाड़मेर के तनसिंह जी को आन्दोलन का केन्द्रीय संचालनकर्ता बनाया गया|आंदोलन पुरे राजस्थान में फ़ैल गया और करीब तीन लाख राजपूतों ने अपनी गिरफ्तारियां देकर राजस्थान की सभी जेलें भरदी|पच्चीस हजार से अधिक लोगों को जेलों में रखने के बाद बाकि लोगों को सरकार ने कड़ाके की ठण्ड में जंगलों में ले जाकर छोड़ दिया| एक तरफ आंदोलन अपने चरम था आयुवानसिंह जी सहित सभी नेता जेलों में बंद थे|उसी समय आयुवानसिंह जी ने जेल में जाने पहले महाराजा जयपुर को एक पत्र के माध्यम से पूरी वस्तुस्थिति की जानकारी देते हुए राजप्रमुख के नाते प्रधान मंत्री नेहरु से वार्ता करने का आग्रह किया था| साथ ही एक दल ने दिल्ली पहुँच तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री सत्यनारायण सिंह से मुलाकात कर उन्हें प्रधानमंत्री से मिलवाने का आग्रह किया| मिलने पर पूरी वस्तुस्थिति सुन प्रधानमंत्री ने दल को कार्यवाही करने का आश्वाशन दिया और राजप्रमुख से बात की|
राजप्रमुख जयपुर महाराजा ने भी आयुवानसिंह जी के पत्र को पढ़ने के बाद राजपूत आन्दोलान्कारियां का पक्ष लिया व राज्य सरकार पर राजपूतों के उत्पीडन का आरोप लगाया|उनकी बात सुनकर प्रधानमंत्री ने आंदोलनकारियों को दिल्ली बुलाया, बैठक में आयुवानसिंह जी द्वारा मेमोरेंडम पढकर सुनाया गया जिसमे जिस भावनात्मक ढंग से भू-स्वामियों का पक्ष रखा गया था उसे सुनकर प.नेहरु द्रवित हो गए| और उन्होंने कहा-"मैं राजपूतों के साथ अन्याय नहीं होने दूँगा|और इसके बाद नेहरु ने भू-स्वामियों की मांगों को मानते हुए आंदोलन समाप्त करवाने हेतु "नेहरु अवार्ड" की घोषणा कर आंदोलन समाप्त कराया|नेहरु अवार्ड के तहत राजपूतों को कई रियायते व नहरी क्षेत्र में जमीनें दी गयी| पूर्व ठिकानों के कर्मचारियों की पेंशन जारी रखी| जिला स्तर पर जागीरदारों के केसों का निपटारा करने के लिए जागीर कार्यलय खोले गए|
भू-स्वामी आंदोलन के दौरान ही आयुवानसिंह ने भी मार्च १९५६ में जोधपुर में जालोरी गेट के पास स्थित जाड़ेची जी के नोहरे में अपनी गिरफ्तारी दी|पर वार्ता के लिए दिल्ली बुलाने के बाद आपको कार्यकारिणी के ११ सदस्यों के साथ १५ दिन के पैरोल पर ११ अप्रेल १९५६ को जेल से रिहा कर दिया गया|प्रधानमंत्री से मिलने के बाद उनसे आश्वाशन मिलने के बाद आंदोलन समाप्ति घोषणा के बाद पैरोल की अवधि खत्म होने के बाद रिहा हुए सभी लोग वापस जेल चले गए पर आपने पुन: जेल जाने के लिए मना कर दिया पर प.नेहरु द्वारा भेजे गए वरिष्ट नेता रामनारायण चौधरी के आग्रह पर आप १० जून १९५६ को वापस जेल चले गए|
समझौता होने व आंदोलन समाप्ति की घोषणा के बाद भी राज्य की कुंठित कांग्रेसी सरकार ने अपनी दमन नीति के तहत भू-स्वामियों को एक माह बाद तक जेलों में बंद रखा| सभी कैदियों को छोड़ने के बाद भी आयुवानसिंह को जेल से रिहा नहीं किया गया|सरकार नियत भांप जब आयुवानसिंह जी ने सुप्रीम कोर्ट में रिट लागने को अपने वकील के पास कागजात भेजे तब इसका पता चलते  राज्य सरकार ने १ अगस्त १९५६ को आपको तुरंत रिहा कर दिया|
१- मेरी साधना
२-राजपूत और भविष्य
३-हमारी ऐतिहासिक भूलें
४- हठीलो राजस्थान
५-ममता और कर्तव्य
६-राजपूत और जागीरें
अत्यधिक श्रम के कारण आपका स्वास्थ्य गिरने लगा| कुछ वर्षों तक आपने जयपुर रहकर अपना इलाज करवाया पर रोग बढ़ने के चलते बाद में आप इलाज के बम्बई गए तब पता चला कि आपको कैंसर है और वह अंतिम स्तर पर जिसका इलाज भारत में संभव नहीं| यह पता चलते ही महारानी गायत्री देवी ने विदेश में जाकर इलाज कराने की बात कही साथ ही विदेश में इलाज पर होने वाले सभी खर्चों को महारानी ने वहन करने की खुद जिम्मेदारी ली| पर आपने कहा-"मैं अपने ही देश में अपने गांव में देह त्यागना चाहता हूँ|" कुछ वर्षों तक रोग की भयंकर वेदना सहन करने के बाद आपने अपने गांव हुडील में ७ जनवरी १९६७ को देह त्याग दी|
आपके निधन से एक वृद्ध पिता ने अपना होनहार पुत्र खोया,पत्नी ने अपना पति खोया,चार अल्पवयस्क पुत्रों व तीन पुत्रियों ने अपना पिता खोया व समाज ने खोया अपना महान हितचिन्तक,एक संघर्षशील व्यक्तित्व,एक आदर्श नेता,एक सुवक्ता,एक क्रांतिदर्शी विचारक,एक उत्कृष्ट लेखक,एक निस्वार्थ समाज सेवक व श्री क्षत्रिय युवक संघ ने खोया अपने मास्टर को|

सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

अविस्मरणीय राजपूत वीर


1. चित्तौड़ के जयमाल मेड़तिया ने एक ही झटके में हाथी का सिर काट डाला था ।

2. करौली के जादोन राजा अपने सिंहासन पर बैठते वक़्त अपने दोनो हाथ जिन्दा शेरों पर रखते थे ।

3. जोधपुर के जसवंत सिंह के 12 साल के पुत्र पृथ्वी सिंह ने हाथोँसे औरंगजेब के खूंखार भूखे जंगली शेर का जबड़ा फाड़ डाला था ।

4. राणा सांगा के शरीर पर युद्धोंके छोटे-बड़े 80 घाव थे। युद्धों में घायल होने के कारण उनके एक हाथ नहीं था, एक पैर नही था, एक आँख नहीं थी। उन्होंने अपने जीवन-काल में 100 से भी अधिक युद्ध लड़े थे ।

5. एक राजपूत वीर जुंझार जो मुगलों से लड़ते वक्त शीश कटने के बाद भी घंटे तक लड़ते रहे आज उनका सिर बाड़मेर में है, जहाँ छोटा मंदिर हैं और धड़ पाकिस्तान में है।

6. रायमलोत कल्ला का धड़, शीश कटने के बाद लड़ता-लड़ता घोड़े पर पत्नी रानी के पास पहुंच गया था तब रानी ने गंगाजल के छींटे डाले तब धड़ शांत हुआ।

7. चित्तौड़ में अकबर से हुए युद्ध में जयमाल राठौड़ पैर जख्मी होने की वजह से कल्ला जी के कंधे पर बैठ कर युद्ध लड़े थे। ये देखकर सभी युद्ध-रत साथियों को चतुर्भुज भगवान की याद आ गयी थी, जंग में दोनों के सर काटने के बाद भी धड़ लड़ते रहे और राजपूतों की फौज ने दुश्मन को मार गिराया। अंत में अकबर ने उनकी वीरता से प्रभावित हो कर जयमाल और कल्ला जी की मूर्तियाँ आगरा के किले में लगवायी थी।

8. राजस्थान पाली में आउवा के ठाकुर खुशाल सिंह 1877 में अजमेर जा कर अंग्रेज अफसर का सर काट कर ले आये थे और उसका सर अपने किले के बाहर लटकाया था, तब से आज दिन तक उनकी याद में मेला लगता है।

9. महाराणा प्रताप के भाले का वजन सवा मन (लगभग 50 किलो ) था, कवच का वजन 80 किलो था। कवच, भाला, ढाल और हाथ में तलवार का वजन मिलाये तो लगभग 200 किलो था। उन्होंने तलवार के एक ही वार से बख्तावर खलजी को टोपे, कवच, घोड़े सहित एक ही झटके में काट दिया था।

10. सलूम्बर के नवविवाहित रावत रतन सिंह चुण्डावत जी ने युद्ध जाते समय मोह-वश अपनी पत्नी हाड़ा रानी की कोई निशानी मांगी तो रानी ने सोचा ठाकुर युद्ध में मेरे मोह के कारण नही लड़ेंगे तब रानी ने निशानी के तौर पर अपना सर काट के दे दिया था। अपनी पत्नी का कटा शीश गले में लटका कर मुग़ल सेना के साथ भयंकर युद्ध किया और वीरता पूर्वक लड़ते हुए अपनी मातृ भूमि के लिए शहीद हो गये थे।

11. हल्दी घाटी की लड़ाई में मेवाड़ से 20000 सैनिक थे और अकबर की ओर से 85000 सैनिक थे। फिर भी अकबर की मुगल सेना पर राजपूत भारी पड़े थे।

रविवार, 14 अक्तूबर 2018

सिंहों की संतान!

भूल गयी इतिहास कौम का, सिंहों की संतान!
जौहर और शाकों की धरती,जय जय
राजस्थान!!
भूल गया राणा प्रताप को, दुजा वीर चौहान!!
गोरा और बादल को भुला,याद नहीं पन्ना का बलिदान !!
क्षात्र लहू से सिंचित धरा, का कण कण बड़ा महान!
भूल गयी इतिहास कौम का, सिंहों की
संतान।।
वीर पद्मिनी हाड़ी
राणी, मीरा का गुणगान!
शेखाजी की शान भूल गए,शेखा
की संतान !!
जयमल पत्ता भूल गए हम दुर्गा का बलिदान !
भूल गयी इतिहास कौम का,सिहों की संतान !!
सतियां और झुंझार खो रहे अपनी ही
पहचान।
पाबू तेजा और गोगाजी जिनका दुनिया करे बखान !!
भूल रामसा भटक रहे, हम निर्लज उनकी
ही संतान !
भूल गयी इतिहास कौम का,सिहों की संतान !!
हठी हमीर के हठ को भूले ,सांगां का
स्वाभिमान!
चेतक की स्वामिभक्ति को,भूले हल्दी का
मैदान!!
कुम्भा की करनी को भूले,भूले पुज्वन सा
बलवान!
भूल गयी इतिहास कौम का,सिंहों की संतान !!
दुल्ला भाट्टी याद किसी को,भूले
बीका रावल मान !
जोधा भूल अमर सिंह भूले,भूले गोगाजी चौहान!!
भोज सरीके पुर्वज भूले,भूले दुर्गादास महान !
भूल गयी इतिहास कौम का,सिहों की संतान !!
दुर्गाजी की भीष्म
प्रतिज्ञा,भूल गयी उनकी ही
संतान !
रामा पीर के पर्चे भूले,भूल गए हम गीता
का वो ज्ञान!!
राजपूती इतिहास गया तो, क्या रहेगा हिंदुस्तान !
भूल गयी इतिहास कौम का सिंहों की
संतान !!
किस और चला तो पथभ्रमित हो,सम्भल जरा नादान !
क्षात्र धर्म के पंच कर्मो से ही,बढे कौम का मान !!
भूल गयी इतिहास कौम का ,सिंहों की संतान!
जौहर और शाकों की धरती,जय जय
संकलनकर्ता :-कान सिंह सुवावा संयुक्त मंत्री जौहर स्मृति संस्थान चितौड गढ़ राजस्थान

शुभ्रक

कुतुबुद्दीन घोड़े से गिर कर मरा, यह तो सब जानते हैं, लेकिन कैसे?

यह आज हम आपको बताएंगे..

वो वीर महाराणा प्रताप जी का 'चेतक' सबको याद है,
लेकिन 'शुभ्रक' नहीं!
तो मित्रो आज सुनिए कहानी 'शुभ्रक' की......

सूअर कुतुबुद्दीन ऐबक ने राजपूताना में जम कर कहर बरपाया, और उदयपुर के 'राजकुंवर कर्णसिंह' को बंदी बनाकर लाहौर ले गया।
कुंवर का 'शुभ्रक' नामक एक स्वामिभक्त घोड़ा था,
जो कुतुबुद्दीन को पसंद आ गया और वो उसे भी साथ ले गया।

एक दिन कैद से भागने के प्रयास में कुँवर सा को सजा-ए-मौत सुनाई गई.. और सजा देने के लिए 'जन्नत बाग' में लाया गया। यह तय हुआ कि राजकुंवर का सिर काटकर उससे 'पोलो' (उस समय उस खेल का नाम और खेलने का तरीका कुछ और ही था) खेला जाएगा..
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कुतुबुद्दीन ख़ुद कुँवर सा के ही घोड़े 'शुभ्रक' पर सवार होकर अपनी खिलाड़ी टोली के साथ 'जन्नत बाग' में आया।

'शुभ्रक' ने जैसे ही कैदी अवस्था में राजकुंवर को देखा, उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे। जैसे ही सिर कलम करने के लिए कुँवर सा की जंजीरों को खोला गया, तो 'शुभ्रक' से रहा नहीं गया.. उसने उछलकर कुतुबुद्दीन को घोड़े से गिरा दिया और उसकी छाती पर अपने मजबूत पैरों से कई वार किए, जिससे कुतुबुद्दीन के प्राण पखेरू उड़ गए! इस्लामिक सैनिक अचंभित होकर देखते रह गए..
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मौके का फायदा उठाकर कुंवर सा सैनिकों से छूटे और 'शुभ्रक' पर सवार हो गए। 'शुभ्रक' ने हवा से बाजी लगा दी.. लाहौर से उदयपुर बिना रुके दौडा और उदयपुर में महल के सामने आकर ही रुका!

राजकुंवर घोड़े से उतरे और अपने प्रिय अश्व को पुचकारने के लिए हाथ बढ़ाया, तो पाया कि वह तो प्रतिमा बना खडा था.. उसमें प्राण नहीं बचे थे।
सिर पर हाथ रखते ही 'शुभ्रक' का निष्प्राण शरीर लुढक गया..

भारत के इतिहास में यह तथ्य कहीं नहीं पढ़ाया जाता क्योंकि वामपंथी और मुल्लापरस्त लेखक अपने नाजायज बाप की ऐसी दुर्गति वाली मौत बताने से हिचकिचाते हैं! जबकि फारसी की कई प्राचीन पुस्तकों में कुतुबुद्दीन की मौत इसी तरह लिखी बताई गई है।

नमन स्वामीभक्त 'शुभ्रक' को.. 🙏

पढ़कर सीना चौड़ा हुआ हो तो शेयर कर देना।

क्या राजपूत हारे हुए योद्धा हैं ?

आजकल लोगों की एक सोच बन गई है कि राजपूतों ने लड़ाई तो की, लेकिन वे एक हारे हुए योद्धा थे, जो कभी अलाउद्दीन से हारे, कभी बाबर से हारे, कभी अकबर से, कभी औरंगज़ेब से...

क्या वास्तव में ऐसा ही है ?

यहां तक कि राजपूत समाज में भी ऐसे कईं राजपूत हैं, जो महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान आदि योद्धाओं को महान तो कहते हैं, लेकिन उनके मन में ये हारे हुए योद्धा ही हैं

महाराणा प्रताप के बारे में ऐसी पंक्तियाँ गर्व के साथ सुनाई जाती हैं :-

"जीत हार की बात न करिए, संघर्षों पर ध्यान करो"

"कुछ लोग जीतकर भी हार जाते हैं, कुछ हारकर भी जीत जाते हैं"

असल बात ये है कि हमें वही इतिहास पढ़ाया जाता है, जिनमें हम हारे हैं

* मेवाड़ के राणा सांगा ने 100 से अधिक युद्ध लड़े, जिनमें मात्र एक युद्ध में पराजित हुए और आज उसी एक युद्ध के बारे में दुनिया जानती है, उसी युद्ध से राणा सांगा का इतिहास शुरु किया जाता है और उसी पर ख़त्म

राणा सांगा द्वारा लड़े गए खंडार, अहमदनगर, बाड़ी, गागरोन, बयाना, ईडर, खातौली जैसे युद्धों की बात आती है तो शायद हम बता नहीं पाएंगे और अगर बता भी पाए तो उतना नहीं जितना खानवा के बारे में बता सकते हैं

भले ही खातौली के युद्ध में राणा सांगा अपना एक हाथ व एक पैर गंवाकर दिल्ली के इब्राहिम लोदी को दिल्ली तक खदेड़ दे, तो वो मायने नहीं रखता, बयाना के युद्ध में बाबर को भागना पड़ा हो तब भी वह गौण है

मायने रखता है तो खानवा का युद्ध जिसमें मुगल बादशाह बाबर ने राणा सांगा को पराजित किया

* सम्राट पृथ्वीराज चौहान की बात आती है तो, तराईन के दूसरे युद्ध में गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराया

तराईन का युद्ध तो पृथ्वीराज चौहान द्वारा लडा गया आखिरी युद्ध था, उससे पहले उनके द्वारा लड़े गए युद्धों के बारे में कितना जानते हैं हम ?

* इसी तरह महाराणा प्रताप का ज़िक्र आता है तो हल्दीघाटी नाम सबसे पहले सुनाई देता है

हालांकि इस युद्ध के परिणाम शुरु से ही विवादास्पद रहे, कभी अनिर्णित माना गया, कभी अकबर को विजेता माना तो हाल ही में महाराणा को विजेता माना

बहरहाल, महाराणा प्रताप ने गोगुन्दा, चावण्ड, मोही, मदारिया, कुम्भलगढ़, ईडर, मांडल, दिवेर जैसे कुल 21 बड़े युद्ध जीते व 300 से अधिक मुगल छावनियों को ध्वस्त किया

महाराणा प्रताप के समय मेवाड़ में लगभग 50 दुर्ग थे, जिनमें से तकरीबन सभी पर मुगलों का अधिकार हो चुका था व 26 दुर्गों के नाम बदलकर मुस्लिम नाम रखे गए, जैसे उदयपुर बना मुहम्मदाबाद, चित्तौड़गढ़ बना अकबराबाद

फिर कैसे आज उदयपुर को हम उदयपुर के नाम से ही जानते हैं ?... ये हमें कोई नहीं बताता

असल में इन 50 में से 2 दुर्ग छोड़कर शेष सभी पर महाराणा प्रताप ने विजय प्राप्त की थी व लगभग सम्पूर्ण मेवाड़ पर दोबारा अधिकार किया था

* दिवेर जैसे युद्ध में भले ही महाराणा के पुत्र अमरसिंह जी ने अकबर के काका सुल्तान खां को भाले के प्रहार से कवच समेत ही क्यों न भेद दिया हो, लेकिन हम तो सिर्फ हल्दीघाटी युद्ध का इतिहास पढ़ेंगे, बाकी युद्ध तो सब गौण हैं इसके आगे!!!!

* महाराणा अमरसिंह ने मुगल बादशाह जहांगीर से 17 बड़े युद्ध लड़े व 100 से अधिक मुगल चौकियां ध्वस्त कीं, लेकिन हमें सिर्फ ये पढ़ाया जाता है कि 1615 ई. में महाराणा अमरसिंह ने मुगलों से संधि की | ये कोई नहीं बताएगा कि 1597 ई. से 1615 ई. के बीच क्या क्या हुआ |

* महाराणा कुम्भा ने 32 दुर्ग बनवाए, कई ग्रंथ लिखे, विजय स्तंभ बनवाया, ये हम जानते हैं, पर क्या आप उनके द्वारा लड़े गए गिनती के 4-5 युद्धों के नाम भी बता सकते हैं ?

महाराणा कुम्भा ने आबू, मांडलगढ़, खटकड़, जहांजपुर, गागरोन, मांडू, नराणा, मलारणा, अजमेर, मोडालगढ़, खाटू, जांगल प्रदेश, कांसली, नारदीयनगर, हमीरपुर, शोन्यानगरी, वायसपुर, धान्यनगर, सिंहपुर, बसन्तगढ़, वासा, पिण्डवाड़ा, शाकम्भरी, सांभर, चाटसू, खंडेला, आमेर, सीहारे, जोगिनीपुर, विशाल नगर, जानागढ़, हमीरनगर, कोटड़ा, मल्लारगढ़, रणथम्भौर, डूंगरपुर, बूंदी, नागौर, हाड़ौती समेत 100 से अधिक युद्ध लड़े व अपने पूरे जीवनकाल में किसी भी युद्ध में पराजय का मुंह नहीं देखा

* चित्तौड़गढ़ दुर्ग की बात आती है तो सिर्फ 3 युद्धों की चर्चा होती है :-

1) अलाउद्दीन ने रावल रतनसिंह को पराजित किया
2) बहादुरशाह ने राणा विक्रमादित्य के समय चित्तौड़गढ़ दुर्ग जीता
3) अकबर ने महाराणा उदयसिंह को पराजित कर दुर्ग पर अधिकार किया

क्या इन तीन युद्धों के अलावा 1300 वर्षों के इतिहास में चित्तौड़गढ़ पर कभी कोई हमले नहीं हुए ?

* इस तरह राजपूतों ने जो युद्ध हारे हैं, इतिहास में हमें वही पढ़ाया जाता है

बहुत से लोग हमें नसीहत देते हैं कि तुम राजपूतों के पूर्वजों ने सही रणनीति से काम नहीं लिया, घटिया हथियारों का इस्तेमाल किया इसीलिए हमेशा हारे हो

अब उन्हें किन शब्दों में समझाएं कि उन्हीं हथियारों से हमने अनगिनत युद्ध जीते हैं, मातृभूमि का लहू से अभिषेक किया है, सैंकड़ों वर्षों तक विदेशी शत्रुओं की आग उगलती तोपों का अपनी तलवारों से सामना किया है

साथ ही आप सभी से निवेदन करूंगा कि आप अपने महापुरुषों के बारे में वास्तविक इतिहास पढिए, ताकि आने वाली पीढ़ियां हमें वही समझे, जो वास्तव में हम थे।