शनिवार, 13 अक्टूबर 2018

तोप-अनौखी परंपरा

तोप /अनौखी परंपरा/जानकारी
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जोधपुर दुर्ग से रियासत काल में परम्परानुसार तीन तोपें प्रतिदिन छोडी जाती थी ।
पहली - दिन के 12 बजे
दूसरी - 9 बजे
तीसरी - 10 बजे ।
अंतिम तोप दस बजे छूटने के बाद जोधपुर शहर के परकोटे के सभी दरवाजे व खिड़कियां बंद कर दी जाती थी ।
बिना शहर कोतवाल की आज्ञा के न तो कोई आ सकता था न कोई जा सकता था । परकोटो के अंदर रात्री में रोशनी के लिए रियासत द्वारा महराजा सरदारसिंह के समय1904 में 70 लालटेनें लगवाई गई थीं उस दौर में प्रतिमाह बारह आना प्रति लालटेन खर्च किये जाते थें । एवं रात्रि में प्रजा सुरक्षा के लिए कई चौकीदार नियुक्त थे ।
यह तोपें दागने की परम्परा मारवाड रियासत के  अनुशासन, शौर्य की प्रतीक थी।
जो देश आजादी के बाद तक चलती रही। जिसे 19 मार्च 1952 के बाद प्रतिदिन की परम्परा को खत्म कीया गया ।
इसके बाद जोधपुर रियासत के भारत गणराज्य में विलय होने के पश्चात केवल तोप राजपरिवार के राज्याभिषेक, पुत्र जन्म, दशहरा, दीवाली, ईद, विवाह, जन्मदिन पर तोपें दागी जाती थी, जिसका लेखा-जोखा रजिस्टर में रखा जाता था। जो रजिस्टर आज भी मेहरानगढ संग्रहालय में मौजूद हैं। जिसमे 10 अक्टूबर 1973 तक तोप दागने का लेखा-जोखा दर्ज हैं ।
रजिस्टर के अनुसार नवरात्रि स्थापना पर 7 तोप
उथापना पर 11
दशहरे पर 19
दीवाली लक्ष्मीपूजन पर 1
महाराजा के जन्मदिन पर 15
महाराजा के द्वारा किले पहुंचने तथा प्रस्थान करने पर 4
नये चांद {रोजा} के दिखने पर 1 तोपें छोडी जाती थी ।
'किलकीला' एवं 'जमजमा' तोप का धमाका अत्यंत भयंकर व उग्र होता था । आज मेहरानगढ दुर्ग में 'कडकबिजली' 'नुसरत' 'शम्भुबाण' 'बगरूवाहन' गुब्बारा' धूडधाणी' 'हडमानहाक' 'बिछुबाण' जैसी दर्जनो तोपें मौजूद हैं । जो आज भी भूतकाल के शौर्यपूर्ण इतिहास को ताजा करती हैं ।
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