किले का विवाह
"बधाई ! बधाई ! तुर्क सेना हार कर जा रही है गढ का घेरा उठाया जा रहा है" प्रधान बीकमसी(विक्रमसिह) ने प्रसन्नातापूर्वक जाकर यह सूचना रावल मूलराज को दे दी
"घेरा क्यो उठाया जा रहा है?" रावल ने विस्मयपूर्वक कहा
कल के धावे ने शाही सेना को हताश कर दिया है मलिक, केशर और शिराजुद्दीन जैसे योग्य सेनापति तो कल ही मारे गए अब कपूर मरहठा और कमालदीन मे बनती नही है कल के धावे मे शाही सेना का जितना नाश हुआ उतना शायस पिछले एक वर्ष के सब धावो मे नही हुआ होगा अब उनकी संख्या भी कम हो गई है जिससे उनका भय हो गया है कि कही तलहटी मे पङी फौज पर ही आक्रमण न कर दे
प्रधान बीकमसी ने कहा
"तलहटी मे कुल शाही फौज कितनी होगी"
"लगभग पच्चीस हजार"
"हमारे पास तो कुल तीन हजार रही है"
"फिर भी उनको भय हो गया है"
रावल मूलराज ने एक गहरी नि:श्वास छोङी और उसका मुँह उतर गया उसने छोटे भाई रतनसी की ओर देखा वह भी उदास हो गया था बीकमसी और दूसरे दरबारी लोग बङे असमंजस मे पङे जहाँ चेहरे पर प्रसन्नाता छा जानी चाहिए थी वहाँ उदासी क्यो? वर्षो के प्रयत्न के उपरान्त विजय मिली थी हजारो राजपूतो ने प्राण गंवाये थे
तब कही जाकर शाही सेना हताश होकर लौट जाने को विवश हुई थी बीकमसी ने समझा शायद मेरे आशय को रावजी ठिक नही समझे है इसलिए उसने फिर कहा-
"कितनी कठिनाई से अपने को जीत मिली है अब तो लौटती हुई फौज पर दिल्ली तक धावे करने का अवसर मिल गया है हारी हुई फौज मे लङऩे का साहस नही होता इसलिए खुब लूट का माल मिल सकता है"
रावल मूलराज ने बीकमसी की बात पर कोई ध्यान नही दिया और वह और भी उदास होकर बैठ गया सारे दरबार मे सन्नाटा छा गया रावलजी के इस व्यवहार को रतनसी के अतिरिक्त और कोई नही समझ रहा था बहुत देर से छा रही नि:स्तब्धता को भंग करते हुए अन्त मे एक और गहरी नि:श्वास छोङ कर रावल मूलराज ने कहा-
"बङे रावलजी(रावल जैतसी) के समय से ही हमने जो प्रयत्न करना शुरु किया था वह आज जाकर विफल हुआ है शेखजादा को मारा और लुटा सुल्तान फिरोज का इतना बिगाङ किया उसके इलाके को तबाह किया और हजारो राजपूतो को मरवाया पर फिरौज की फौज हार कर जा रही है तब दूसरा तो और कौन है जो हमारे उद्देश्य को पुरा कर सके"
इस प्रकार शाही फौज हार कर जाना बहुत बुरा है क्योकि इस आक्रमण मे सुल्ताऩ को जन धन की इतनी हानि उठानि पङी है
वह भविष्य मे यहाँ आक्रमण करने की स्वपन मे भी नही सोचेगा"रतनसी ने रावल मूलराज की बात का समर्थन करते आगे कहा-
"शाही फौज के हताश लौटने का एक कारण अपना किला भी है यह इतना सुदृढ और अजेय है कि शत्रु इसे देखते ही निराश हो जाते है वास्तव मे अति बलवार वीर व दुर्ग दोनो ही कुँआरे(अविवाहित) ही रहते है मेरे तो एक बात ध्यान मे आती है क्यो नही किले की एक दीवार तुङवा दी जाये जिससे हताश होकर जा रही शत्रु सेना धावा करने के लिए ठहर जाए।" रावल मूलराज ने प्रश्नभरी मुद्रा से सबकी और देखते हुए कहा-
"मुझे एक उपाय सूझा है यदि आज्ञा हो तो कहुँ। " रतनसी ने अपने भाई की ओर देखते हुए कहा।
"हाँ हाँ जरुर कहो।"
कमालदीऩ आपका पगङी बदल भाई है । उसको किसी के साथ कहलाया जाए कि हम गढ के किवाङ खोलने के लिए तैयार है तुम धावा करो वह आपका आग्रह अवश्व मान लेगा । उसको आपकी प्रतिज्ञा भी बतला दी जाए और विश्वास दिलाया जाए कि किसी भी प्रकार का धोखा नही है।"
"वह नही माना तो।"
"जरुर मान जाएगा । एक तो आपका मित्र है इसलिए आप पर विश्वास भी कर लेगा और दूसरा हार कर लौटने मे उसको कौनसी लाज नही आ रही है । वह सुल्तान के पास किस मुँह से जाएगा।
इसलिए विजय का लोभ भी उसे लौटने से रोक देगा"
"उसे विश्वास कैसे दिलाया जा कि यहाँ धोखा नही होगा"
"किले पर लगे हुए झाँगर यंत्रो और किंवाङो को पहले से तोङ दिया जाय"
रावल मूलराज के रतनसिह की बताई हुई युक्ति जँच गई उसके मुँह पर प्रसन्नता दौङती हुई दिखाई दी
उसी क्षण जैसलमेर दुर्ग पर लगे हुए झाँगर यंत्रो के तोङने की ध्वनि लोगो ने सुनी लोगो ने देखा कि किले के किवाङ खोल दिये गए थे और दूसरे ही क्षण उन्होने देखा कि वे तोङ जा रहे थे फिर उन्होने देखा एक घूङसवार जैसलमेर दुर्ग से निकला और तलहटी मे पङाव डाले हुए पङी शाही फौज की ओर जाने लगा वह दूत वेश मे नि:शस्त्र था उसके बाँये हाथ मे घोङे की लगाम और दाये हाथ मे एक पत्र था लोग इन सब घटनाओ को देखकर आश्चर्यचकित हो रहे थे झाँगर यंत्रो का और किवाङो को तोङा जाना और असमय मे दूत का शत्रु सेना की ओर जाना विस्मयोत्पादक घटऩाएँ थी जिनको समझने का प्रयास सब कर रहे थे पर समझ कोई नही रहा था
कमालदीन ने दूत के हाथ से पत्र लिया । वह अपने डेरे मे गया और उसे पढने लगा-
"भाई कमालदीन को भाटी मूलराज की जुहार मालूम हो। अप्रंच यहा के समाचार भले है । राज के सदा भले चाहिए ।
आगे का समाचार मालूम हो-
जैसलमेर का इतना बङा और दृढ किला होने पर भी अभी तक यह किला कुँआरा ही बना हुआ है मेरे पुरखा बङे बलवान और बहादुर थे पर उन्होने भी किल का कौमार्य नही उतारा जब तक किला कुँआरा(अविवाहित) रहेगा तब तक भाटियो की गौरवगाथा अमर नही बनेगी और हमारी सन्तानो को गौरव का ज्ञान नही होगा इसलिए मैं लम्बे समय से सुल्तान फिरोजशाह से शत्रुता करता आ रहा हुँ उसी शत्रुता के कारण उन्होने बङी फौज जैसलमेर भेजी है पर मुझे बङा दु:ख है कि वह फौज आज हार कर जाने लगी है इस फौज के चले जाने के उपरान्त मुझे तो भारत मे और कोई इतना बलवान दिखाई नही पङता जो जैसलमेर दुर्ग पर धावा करके इसमे जौहर और शाका करवाये जब तक पाँच राजपुतानियाँ की जौहर की भस्म और पाँच केसरिया वस्त्रधारी राजपूतो का रक्त इसमे नही लगेगा तब तक यह कुआँरा ही रहेगा तुम मेर पगङी बदल भाई और मित्र हो यह समय है अपने छौटे भाई की प्रतिज्ञा रखने और उसे सहायता पहुँचाने का इसलिए मेरा निवेदन है कि तुम अपनी फौज को लौटाओ मत और कल सवेरे ही किले पर आक्रमण कर दौ ताकि जौहर और शाका करके स्वर्गधाम पहुँचने का अमूल्य अवसर मिलै और किले का भी विवाह हो जाए*किले का विवाह
मै तुम्हे वचन देता हूँ कि यहाँ किसी प्रकार का धोखा नही हो हमने किले के झाँगर यन्त्र और किवाङ तुङवा दिये है सो तुम अपना दूत भेज कर मालूम र सकते हो
कमालदीन ने पत्र को दूसरी बार पढा उसके चेहरे पर प्रसन्नता छा गई धीरे धीरे वह गम्भीरता और उदासी के रुप मे बदल गई एक घङी तक वह अपने स्थान पर बैठा सोचता रहा कई प्रकार के संकल्प विकल्प उसके मस्तिष्क मे उठे। अन्त मे उसने दुत से पूछा-
किले में कुल कितने सैनिक है।
;पच्चीस हजार।
पच्चीस हजार
तब तो रावलजी से जाकर कहना कि मैं मजबूर हूँ । मेरे साथी लङने के लिए तैयार नही है ।
संख्या के विषय मे मुझे मालूम नही । आप अपना दूत मेरे साथ भेज कर मालूम कर सकते है । दूत ने बात बदल कर कहा ।
एक दूत घूङसवार के साथ की ओर चल पङा । थोङी देर पश्चात ऊँटों और बैलगाङियो पर लदा हुआ सामान उतारा जाने लगा । उखङा हुआ पङाव फिर कायम होने लगा । शाही फौज के उखङे हुए पैर फिर जमने लगे ।
दशमी की रात्री का चन्द्रमा अस्त हुआ । अन्धकार अपने टिम - टिम टिमटिमाते हुए तारा रुपी दाँतो को निकाल कर हँस पङा । उसकी हँसी को चुनौती देते हूए एक गढ के कंगूरे औरउऩमे लगे हुए पत्थर तक दूर से दिखाई पङने लगे । एक प्रचण्ड अग्नि की ज्वाला ऊपर उठी जिसके साथ हजारो ललनाओं का रक्त आकाश मे चढ गया समस्त आकाश रक्त-रंजित शून्याकार मे बदल गया उन ललनाओ का यश भी आकाश की भाँति फैल कर विस्तृत और #चिरस्थायी हो गया ।
सूर्यौदय होते ही तीन हजार #केसरिया वस्त्रधारी राजपूतो ने कमालदीन की पच्चीस हजार सेना पर आक्रमण कर दिया ।
घङी भर घोर घमासान युद्ध हुआ ।
जैसलमेर दुर्ग की भुमि और दीवारे रक्त से सन गई ।
जल की प्यासी भूमि ने #रक्तपान करके अपनी तृष्णा को शान्त किया अब ।
पुरा शाका भी पुरा हुआ ।
आज कोई ऩही कह सकता कि #जैसलमेर का #दुर्ग #कुँआरा है, कोई नही कह सकता कि #भाटियो ने कोई #जौहर #शाका नही किया , कोई नही कह सकता कि वहा की #जलहीन भूमि #बलिदानहीन है और कोई नही कह सकता कि उस #पवित्र भूमि की अति #पावन #रज के स्पर्श से #अपवित्र भी #पवित्र नही हो जाते । #जैसलमेर का #दुर्ग आज भी #स्वाभिमान से अपना #मस्तक ऊपर किए हुए संदेश कह रहा है । यदि किसी #सामर्थ्य में हो सुन लो और समझ लो वहाँ जाकर ।