मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

लेफ्टिनेंट जनरल हनुत सिंह

लेफ्टिनेंट जनरल हनुत सिंह


1986 में भारत और पाकिस्तान के नक़्शे बदल देते?
1971 की लड़ाई में लेफ्टिनेंट जनरल हनुत सिंह को महावीर चक्र मिला था और उनके जूनियर ऑफिसर अरुण खेत्रपाल को परमवीर चक्र
राजस्थान में बाड़मेर जाते वक़्त जोधपुर से लगभग 80 किलोमीटर के फ़ासले पर एक शहर है-बालोतरा. और इससे कुछ मील दूर है जसोल. विशुद्ध राजस्थानी संस्कृति वाले जसोल में आप अगर किसी बच्चे से भी पूछें कि स्वर्गवासी हुकम हनुत सिंह की ड्योढ़ी कहां है तो वह हाथ पकड़ आपको वहां छोड़ आएगा.
कौन हनुत सिंह? यह पूछने वाले यकीनन भारतीय सेना के सबसे गौरवशाली अफ़सरों में से एक लेफ्टिनेंट जनरल ‘हंटी’ उर्फ़ हनुत सिंह से परिचित नहीं हैं. वे भारतीय सेना के उस ‘भीष्म पितामह’ से वाबस्ता नहीं हैं जिसने सेना में अपना सर्वस्व झोंकने के लिए विवाह नहीं किया. वे उस अधिकारी बारे में नहीं जानते जिसे भारतीय सेना का सबसे कुशल रणनीतिकार कहा जाता है, और वे उस हनुत सिंह को नहीं जानते जो गौरवशाली टैंक रेजिमेंट 17 पूना हॉर्स के कमांडिंग ऑफ़िसर (सीओ) थे. जो नहीं जानते वे अब याद रखें कि सन 1971 की लड़ाई के बाद पाकिस्तान की सेना ने 17 पूना हॉर्स को ‘फ़क्र-ए-हिन्द’ का ख़िताब दिया था. हैरत की बात नहीं, जनता ही नहीं सरकारें भी अब हनुत सिंह को भूल चुकी हैं.

भारतीय सेना के 12 सबसे चर्चित अफ़सरों की जीवनी ‘लीडरशिप इन द आर्मी’ के लेखक रिटायर्ड मेजर जनरल वीके सिंह लिखते हैं, ‘अगरचे कोई एक लफ्ज़ है जो हनुत सिंह के बारे में समझा सके तो वह है- सैनिक’. वे आगे लिखते हैं कि हनुत सेनाध्यक्ष तो नहीं बन पाए पर लेफ्टिनेंट कर्नल रहते हुए भी वे एक किंवदंति बन गए थे.

ऐसा 1971 में हुआ था जब हनुत सिंह 17 पूना हॉर्स के सीओ थे. बैटल ऑफ़ बसंतर की उस मशहूर लड़ाई में दुश्मन से घिर जाने के बावजूद अपने हर जूनियर ऑफ़िसर को एक इंच भी पीछे हटने के लिए मना कर दिया था. इसी लड़ाई में सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल को अद्मय साहस का परिचय देने पर मरणोपरांत परमवीर चक्र मिला था. इसी जंग में शानदार नेतृत्व के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल हंटी को महावीर चक्र मिला था.

पर यहां ज़िक्र 1971 का नहीं, बल्कि 1986 का है जब भारतीय सेना इतिहास में सबसे बड़े युद्धाभ्यास ‘ऑपरेशन ब्रासटैक्स’ के चलते पाकिस्तान पर लगभग हमला करने से कुछ कदम ही पीछे रह गई थी और इसमें हंटी की अहम भूमिका थी.
ऑपरेशन ब्रासटैक्स

एक फ़रवरी 1986 को जनरल के सुंदरजी ने भारतीय सेना की कमान संभाली और राजस्थान से लगी हुई पाकिस्तानी सीमा पर तीनों सेनाओं का संयुक्त युद्धाभ्यास कराने की योजना बनाई. सुंदरजी बदलते दौर की युद्ध शैलियों, एयरफोर्स की एयर असाल्ट डिविज़न और रीऑर्गनाइस्ड असाल्ट प्लेन्स इन्फेंट्री डिविज़न को आज़माना चाहते थे. इस संयुक्त युद्धाभ्यास की कमांड लेफ्टिनेंट जनरल हनुत सिंह के हाथों में सौंपी गई. इससे पहले एक उच्च स्तरीय मीटिंग में हनुत सुंदरजी से किसी बात पर दो-दो हाथ कर चुके थे. तब फ़ौज में यह बात उड़ गई कि हनुत अब रिटायरमेंट ले लेंगे पर सुंदरजी नियाहत ही पेशेवर अफ़सर थे, उन्होंने हनुत का सुझाव ही नहीं माना, उन्हें प्रमोट भी किया था.

तयशुदा प्लान के तहत 29 अप्रैल, 1986 को हनुत ने भारतीय सेना की सुप्रतिष्ठित हमलावर 2 कोर की कमान संभाली और इसे लेकर राजस्थान की सीमा पर आ डटे. एक आंकड़े के मुताबिक़ लगभग डेढ़ लाख भारतीय सैनिक सीमा पर जमा हुए थे. हनुत ने अब तक जो भी सीखा था, उसे इस युद्धाभ्यास में इस्तेमाल किया. रोज़ नए अभ्यास कराये जाते, नक़्शे, सैंड-मॉडल बनाकर हमले की प्लानिंग की जाती और जवानों को गहन ट्रेनिंग दी जाती.

ब्रास टैक्स के कई चरण थे. जब यह युद्धाभ्यास चौथे चरण में पहुंचा तो उनकी कोर को उस प्रशिक्षण से गुज़रना पड़ा जो अब तक नहीं हुआ था. भारत के तीखे तेवर देखकर पाकिस्तान में हडकंप मच गया. पाकिस्तानी सेना हनुत सिंह का युद्ध कौशल 1971 में देख चुकी थी जब बसंतर की लड़ाई में हनुत ने उनके 60 टैंक मार गिराए थे. इस युद्धाभ्यास को सीधे तौर पर संभावित भारतीय हमला समझा गया जिसकी वजह से पाकिस्तानी सरकार के पसीने छूट गए थे. कहते हैं कि पाकिस्तानी संसद में विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री रोज़ाना बयान देकर देश को भारतीय सैन्य ऑपरेशन की जानकारी देते थे.

इस ऑपरेशन ने अमेरिका तक की नींद उड़ा दी थी. पश्चिम के डिप्लोमेट्स भारत की पारंपरिक युद्ध की ताक़त से हैरान रह गए थे. उनके मुताबिक़ यह युद्धाभ्यास नाटो फ़ोर्सेस के अभ्यासों से किसी भी प्रकार कमतर नहीं था. बल्कि, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दक्षिण एशिया में यह तब तक का सबसे बड़ा युद्धाभ्यास था. पाकिस्तान ने ट्रैक 2 डिप्लोमेसी का इस्तेमाल किया और बड़ी मुश्किल से इस युद्धाभ्यास को रुकवाया.

सुंदरजी इसे सिर्फ़ एक अभ्यास की संज्ञा दे रहे थे पर जानकारों के मुताबिक़ इस युद्धाभ्यास का असल मकसद कुछ और ही था. इसके रुकने पर हनुत और उनके अफ़सर बड़े मायूस हुए. वीके सिंह लिखते हैं कि हनुत का पिछला रिकॉर्ड देखते हुए यकीन से कहा जा सकता है कि अगर हनुत को इजाज़त मिल जाती तो वे दोनों मुल्कों का नक्शा बदल देते.
सिक्किम में वीआईपी कल्चर बंद कर दिया

यह क़िस्सा 1982 का है जब हनुत सिंह मेजर जनरल बने और सिक्किम में तैनात 17 माउंटेन डिविज़न की कमान उनके हाथों में आई. सिक्किम के तत्कालीन गवर्नर होमी तल्यारखान की इंदिरा गांधी के साथ नज़दीकी के चलते सेना के उच्चाधिकारी उनकी हाज़िरी में खड़े रहते. उन दिनों जो भी सरकारी अधिकारी सिक्किम घूमने आते, वे सेना की मेहमाननवाज़ी का लुत्फ़ उठाते. हनुत ने यह सब बंद करवा दिया. बल्कि उन्होंने आने वाले सरकारी सैलानियों से सरकारी शुल्क वसूलना शुरू कर दिया.
सिक्किम में फॉरवर्ड पोस्टों पर सेना का हाल ख़राब था. न रहने के लिए मुकम्मल इंतज़ाम था न बिजली की व्यवस्था थी. हनुत सिंह ने सेना के उच्चाधिकारियों को पत्र लिखकर हालात सुधारने की बात कही तो उनके रिपोर्टिंग ऑफ़िसर ने मना कर दिया. हारकर, जब उन्हें कहीं से भी कोई सहायता नहीं मिली तो उन्होंने लकड़ियों से सैनिकों के लिए बैरक और शौचालय बनवाए. वहां पर जनरेटर लगवाए.
कुछ साल बाद जब उनका तबादला कहीं और हो गया तो विदाई के समय सैनिकों ने उन्हें एक मेमेंटो दिया जिस पर लिखा हुआ था, ‘जितना सैनिकों के लिए बाक़ी अफ़सरों ने 20 साल में किया है, आपने एक साल में कर दिखाया’. उनका मानना था कि एक सैनिक जितना अपने अफ़सर के लिए कुर्बानी देता है, उतना अफ़सर उसके लिए नहीं करते.

जूनियर अफ़सरों के मां-बाप हंटी से परेशान थे

हनुत सिंह का मानना था कि सैनिक अगर शादी कर लेता है तो परिवार सेवा देश सेवा के आड़े आती है. लिहाज़ा, वे आजीवन कुंवारे रहे. वे अपने जूनियर अफ़सरों को भी ऐसी ही सलाह देते. एक समय ऐसा भी आया कि उनकी यूनिट में काफ़ी सारे जवान और अफ़सर उनके इस फ़लसफ़े से प्रभावित होकर कुंवारे ही रहे. इस बात से जूनियर अफ़सरों के मां-बाप हनुत सिंह से परेशान रहते. कइयों ने शिकायत भी की पर उनकी सेहत पर इस तरह की शिकायतों का असर नहीं होता था.
बेबाकी

1971 की लड़ाई के बाद जब उन्होंने अपनी रिपोर्ट पेश की तो उसमें लिख दिया कि सेना के बड़े अफसर जंग ख़त्म होने से कुछ ही घंटे पहले बॉर्डर पर आये थे. इस बात से उनके उनके कई वरिष्ठ अफ़सर उसे नाराज़ हो गए पर हनुत को अपनी काबलियत का बख़ूबी अंदाज़ा था जिसके चलते वे किसी की परवाह नहीं करते. कई बार तो बात यहां तक बढ़ जाती कि उनके अफ़सर अपनी फ़जीहत रुकवाने के लिए बैठकें ख़त्म कर देते थे.
1971 में उनके कमांडिंग ऑफ़िसर अरुण श्रीधर वैद्य (बाद में सेनाध्यक्ष) ने एक बार जंग के दौरान उनसे हालचाल मालूम करने की कोशिश की तो हनुत ने कहलवा दिया कि वे ‘पूजा’ कर रहे हैं और अभी बात नहीं कर सकते!’ दरअसल, जंग के दौरान वे किसी भी प्रकार का दख़ल बर्दाश्त नहीं करते थे. हनुत सिंह की काबिलियत का अंदाज़ा से बात से भी लगाया जा सकता है कि भारत में टैंकों की लड़ाई पर उनके लिखे दस्तावेज़ आज भी इंडियन मिलिट्री अकादमी में पढ़ाये जाते हैं.

इतनी काबिलियत के बावजूद हनुत सिंह सेनाध्यक्ष नहीं बनाए गए. कहते हैं कि जब उन्हें यह बात मालूम हुई तो वे बड़े ही धीर स्वर में बोले, ‘यह मेरा नहीं देश का नुकसान है कि उन्होंने काबिलियत के बजाए किसी और चीज को प्राथमिकता दी है.’ यह तय है कि हर क़ाबिल अफ़सर सेनाध्यक्ष नहीं बनता और हर सेनाध्यक्ष क़ाबिल नहीं होता.

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