भकरि गढ़ मेड़तिया राठौडौ़ का ठिकाना जो औरंगज़ेब और जयपुर की सैना दोनों से अजेय रहा
मेडतिया रघुनाथ रे मुख पर बांकी मुछ भागे हाथी शाह रा करके ऊँची पुंछ
मेडतिया रघुनाथ रासो, लड़कर राखयो मान, जीवत जी गैंग पहुंचा, दियो बावन तोला हाड ,
हु खप जातो खग तले, कट जातो उण ठोड ! बोटी-बोटी बिखरती, रेतो रण राठोड !!
मरण नै मेडतिया अर राज करण नै जौधा "
"मरण नै दुदा अर जान(बारात) में उदा "
उपरोक्त कहावतों में मेडतिया राठोडों को आत्मोत्सर्ग में अग्रगण्य तथा युद्ध कौशल में प्रवीण मानते हुए मृत्यु को वरण करने के लिए आतुर कहा गया है मेडतिया राठोडों ने शौर्य और बलिदान के एक से एक कीर्तिमान स्थापित किए है ईसका जीता जागता उदाहरण भकरि गाँव कि छोटी सी पहाड़ी पर अपना गर्वीला मस्तक उठाकर खड़े इस छोटे से किले का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है| इस किले के राठौड़ों की मेड़तिया शाखा से है। यहाँ के वीर शासकों ने अपने से बड़ी बड़ी सेनाओं को चुनौतियाँ दी है, जिन्हें पढ़कर लगता है कि उन्हें मरने का कहीं कोई खौफ ही नहीं था, उनके लिए जीवन से ज्यादा अपना स्वाभिमान व जातीय आन थी जिसकी रक्षा के लिए वे बड़े से बड़ा खतरा उठाने के लिए मौत के मुंह में हाथ डालने से भी नहीं हिचकते थे| इस किले व यहाँ के वीर शासकों से ऐसी ही कुछ घटनाएँ आज हम आपके साथ साझा कर रहे है-
जोधपुर के महाराजा अभयसिंह जी ने अपने भाई बखतसिंह द्वारा भड़काए जाने पर बीकानेर पर दो बार हमले किये| दूसरे हमले के वक्त बीकानेर के महाराजा जोरावरसिंह जी जोधपुर की सेना का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं थे अत: उन्होंने जयपुर के राजा जयसिंह जी द्वितीय को मदद के लिए पत्र लिखा| जोधपुर महाराजा अभयसिंहजी महाराजा सवाई जयसिंह जी के दामाद थे अत: जयपुर के सामंत अपने दामाद के खिलाफ बीकानेर को सहायता देने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन सीकर के राव शिवसिंहजी की राय थी कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो जोधपुर की शक्ति बढ़ जाएगी जो राजस्थान के अन्य राज्यों के लिए खतरा हो सकती है अत: शक्ति संतुलन के लिए बीकानेर की सहायता करनी चाहिए|
राव शिवसिंह की राय को मानते हुए आखिर सवाई जयसिंहजी ने बीकानेर की सहायता का निर्णय लिया व अपने दामाद जोधपुर नरेश अभयसिंह को पत्र लिखकर बीकानेर से हटने का आग्रह किया| लेकिन अभयसिंह ने उनका आग्रह यह कहते हुए ठुकरा दिया कि- राठौड़ों के आपसी झगड़े में उन्हें टांग अड़ाने की जरुरत नहीं है| इस जबाब से क्रुद्ध होकर सवाई जयसिंहजी ने 20 हजारी सेना जोधपुर पर आक्रमण के लिए भेज दी| इसकी खबर मिलते ही अभयसिंहजी को समझ आया कि अब सैनिक टकराव उनके हित में नहीं है अत: वे बीकानेर से घेरा उठाकर जोधपुर आये अपने ससुर महाराजा सवाई जयसिंह जी से अगस्त 1740 ई. में एक संधि की| इस संधि की कई शर्तें राठौड़ों के लिए अपमानजनक थी, जिसे जोधपुर के कई सामंतों ने कछवाहों द्वारा राठौड़ों की नाक काटने की संज्ञा दी|
इस तरह जयपुर की सेना ने बिना युद्ध किये जोधपुर से प्रस्थान किया| मार्ग में जयपुर की सेना ने परबतसर से लगभग 35 किलोमीटर दूर भकरी गांव Bhakri Fort के पास डेरा डाला| उस वक्त भकरी पर ठाकुर केसरीसिंह मेड़तिया राठौड़ का शासन था, ठाकुर केसरीसिंह जातीय स्वाभिमान से ओतप्रोत बड़े गर्वीले वीर थे और उनके किले में स्थित शीतला देवी का उन्हें आशीर्वाद प्राप्त था| इतिहासकारों के अनुसार जब जयपुर की सेना का भकरी के पास पड़ाव था तब नींदड के राव जोरावरसिंघ ने झुंझलाकर कहा कि – “लगता है राठौड़ों का राम निकल गया, सो कछवाहों की तोपें भी खाली ना करवा सके, लगता है मारवाड़ में अब रजपूती नहीं रही|”
यह बात वहां उपस्थित भकरी के किसी व्यक्ति ने सुन ली और उसने जाकर ठाकुर केसरीसिंह को बताया, भकरी Bhakri Fort के इतिहास के अनुसार खुद केसरीसिंह जी उस वक्त उधर से गुजर रहे थे और उन्होंने जोरावरसिंघ की कही बात सुन ली| बस फिर क्या था अपने जातीय स्वाभिमान व आन की रक्षा के लिए ठाकुर केसरीसिंह जी ने अपने कुछ सैनिकों के बल पर ही जयपुर की सेना को युद्ध का निमंत्रण भेज दिया और दूसरे दिन अपने छोटे से किले से जयपुर की सेना पर तोपों से गोले बरसाए| जबाबी कार्यवाही में भकरी किले को काफी नुकसान पहुंचा पर चार दिन तक चले युद्ध व कई सैनिकों के बलिदान के बाद भी जयपुर की विशाल सेना भकरी किले पर कब्ज़ा नहीं कर पाई|
Bhakri Fort भकरी के इतिहास के अनुसार जब जयपुर नरेश को पता चला कि किले में स्थित शीतला माता के आशीर्वाद के कारण किले को जीता नहीं जा सकता तब दैवीय चमत्कार को मानकर जयपुर नरेश ने युद्ध बंद किया और देवी के चरणों में आकर भूल स्वीकार की और एक सोने का छत्र देवी के चरणों में चढ़ाया| इस तरह भकरी के ठाकुर केसरीसिंह जी ने राठौड़ों का जातीय स्वाभिमान व आन बरकरार रखी और नींदड के राव जोरावरसिंघ की बात का जबाब कछवाह सेना की तोपें खाली करवाकर दिया और साबित किया कि मारवाड़ कभी वीरों से खाली नहीं रह सकती | ठाकर केसरीसिंघजी जयपुर की तोपें खाली नहीं करवाते तो मारवाड़ पर सदा के लिए यह कलंक रह जाता। जयपुर सेना का गर्व भंग पर ठाकुर केसरीसिंह जी ने मारवाड़ की नाक बचाली और यश कमाया, उनके यश को कवियों ने इस तरह शब्द दिए-
केहरिया करनाळ, जे नह जुड़तौ जयसाह सूं।
आ मोटी अवगाळ, रहती सिर मारू धरा।।
Bhakri Fort भकरी इतिहास के अनुसार वि.स. 1687 में औरंगजेब गुजरात विजय से लौट रहा था, तब भकरी के ठाकुर दाणीदास जी ने उसे भी युद्ध का निमंत्रण देकर रोका. तब दोनों के मध्य पांच दिन युद्ध चला. आखिर पांच दिन चले युद्ध में कई सैनिकों को खोने के बाद औरंगजेब को पता चला कि किले में स्थित शीतला माता के चमत्कार के कारण वह इस छोटे से किले को अधिकार में नहीं कर पाया. तब औरंगजेब ने देवी के चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम किया और एक स्वर्ण छत्र मातेश्वरी की सेवा में अर्पण किया| अपने से कई बड़ी बड़ी सेनाओं से लोहा लेने वाले भकरी किले पर आज भी आक्रान्ताओं की तोपों के निशान देखे जा सकते है आक्रान्ता आये और चले गए पर भकरी किला आज भी अपना गर्वीला मस्तक ऊपर उठाये शान से खड़ा है |
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