बल्लू चाम्पावत
बल्लू चाम्पावत केवल एक नाम नहीं है वह प्रतीक है, प्रचण्ड साहस का, नैतिक सामर्थ्य का, उज्ज्वल चरित्र का, तेजस्विता का, निष्ठा का, स्वामिभक्ति का, वचन-बद्धता और मानवीय गरिमा का | बल्लू चांपावत का जन्म भारत में उस समय हुआ जब मुगल सत्ता जम चुकी थी |मेवाड़ और दूसरे छिटपुट प्रतिरोधों को छोड़ दिया जाय तो सारे राजपूत मुगल-सत्ता से जुड़ चुके थे |
बल्लूजी का जन्म मारवाड़ के हरसोलाव में राव गोपालदास के यहाँ हुआ | माता महाकंवर भटियाणी राव गोविन्ददास मानसिंहोत बीकमपुर की पुत्री थी | (बीकमपुर केल्हणोतों का ठिकाना था|) वे राजा गजसिंह के साथ दक्षिण में गए थे तब उनको हरसोलाव मिला था | बाद में वे राव अमरसिंह के साथ भी रहे | राव अमरसिंह से उनका एक संवाद हुआ और उन्होंने नागौर छोड़ दिया |
लोक में प्रचलित है कि राव अमरसिंह ने उन्हें पशु चराने का एक दिन का काम सौंपा | बल्लूजी ने कहा कि यह काम मेरा नहीं गड़रियों का है | तब राव अमरसिंह ने नाराजगी भरे आवेशित से स्वर में कहा कि ‘तब तो आप बादशाही घड़ (सेना) ही मोड़ेंगे |’ स्वाभिमानी बल्लूजी फिर नागौर एक क्षण भी नहीं रुके |
इसी तरह बीकानेर में उनके सामने ‘मतीरौ’ (तरबूज) जैसे शब्द का उच्चारण से ही उन्होंने बीकानेर छोड़ दिया था | राजस्थानी में ‘मतीरौ’ शब्द का अर्थ ‘ठहरना नहीं है’ होता है | ऐसे ध्वन्यार्थ समझने वाले तेजस्विता के प्रतीक बल्लूजी ने जयपुर, बूंदी और मेवाड़ में भी सेवाएं दी थी| शाहजहाँ ने उन्हें 500 का मनसब और जागीर दी थी| बादशाही के समय उनकी जागीर में 127 गाँव थे | राणा जगत सिंह ने बल्लूजी को ‘नीलधवल’ घोड़ा भेंट किया था, आख्यानों के अनुसार इसी ‘नीलधवल’ पर सवार होकर वे राव अमरसिंह की देही लेकर आये थे |
बल्लूजी के आख्यान और शौर्य से इतिहास भरा पड़ा है| सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कामू ने इतिहास पर टिप्पणी करते कहा है कि ‘कुछ लोग इतिहास जीते हैं|’ बल्लूजी ऐसे ही इतिहास जीने वाले लोगों में थे | वे राव चाम्पाजी के वीर पुत्र राव भैरवदास के वंशज थे| बल्लूजी इतिहास में इसलिए अमर हैं क्योंकि उन्होंने एक उलाहने को सत्य साबित करने के लिए अपने प्राण न्यौछावर किये थे | राव अमरसिंह राठौड़ की कथा सब जानते हैं | उनकी लाश को चील-कौवों को खिलाने के लिए अपमानजनक तरीके से आगरे के किले की दीवार पर डाल दी गई थी, तब की कहानी है यह बल्लूजी की |
राव अमरसिंह की मृत्यु के बाद बादशाह शाहजहाँ ने राजपूतों को चेतावनी भिजवाई थी, जिसमें बल्लूजी भी शामिल थे | बादशाह का कहना था कि जिसने जुर्म कर लिया था, उसने सजा पा ली | अब आप लोग उस जुर्म में शामिल होकर अपने पतन की राह क्यों बना रहे हो ? 26 जुलाई 1644 की घटना है यह | आगरा में उस समय कोई बलवा न हो यही बादशाह की मंशा थी | इतिहासकारों ने इस घटना पर भिन्न भिन्न प्रकार से लिखा है किन्तु वास्तविकता के नजदीक तथ्य इस प्रकार है कि बल्लूजी ने यहाँ तरकीब से काम लिया था | उन्होंने सन्देशवाहक से कहा कि ‘हमें स्वामी के दर्शन करने की इजाजत दी जाय|’ बादशाह ने इसे मंजूर कर लिया| इसके पीछे दो कारण थे| बादशाह राजपूतों को शांत करना चाहता था ताकि व्यर्थ के खूनखराबे से बचा जाए | दूसरा यह कि शेर खुद पिंजड़े में आ रहा था, इसलिए अगर कोई अनहोनी भी घटती तो किले में उस पर काबू आसानी से पाया जा सकता था |
किले के कपाट खोल दिए गए और घुड़सवार बल्लूजी जब अंदर आये तो कपाट बंद कर दिए गए | बल्लूजी सावधान थे और उन्होंने अपने मस्तिष्क में योजना बना रखी थी | बादशाह खुद अंतिम दरवाजे पर सामने आया | बल्लूजी ने उचित अवसर जानकर कहा –
‘हुजूर जो होना था हो चुका, ऊपरवाले को यही मंजूर था | मुझे कोई गलतफहमी नहीं है | मैं मेरे वतन लौटना चाहता हूँ पर लौटने से पहले अपने पहले वाले स्वामी को अंतिम प्रणाम करना चाहता हूँ |’ बल्लूजी का कथन जायज था, बादशाह को वह उचित लगा और उन्होंने सैनिकों को राव अमरसिंह की लाश बल्लूजी के सामने लाने का हुकम दिया, ताकि वे उन्हें अंतिम प्रणाम कर सकें | चारों तरफ सैनिकों का घेरा था | बालूजी जानते थे कि किले के कपाट बंद हो चुके हैं | शेर वाकई पिजरे में आ चुका था | उनके सामने अमरसिंह की देह पड़ी थी | वे घोड़े से उतरे | प्रणाम की मुद्रा में अमरसिंह की देह तक पहुंचे और पलक झपकते ही देह को कंधे पर लेकर घोड़े पर चढ़े और तीर की तरह घोड़ा दौड़ाया| घोड़ा हवा में उछला, किले की दीवार की तरफ लपका और दीवार पर चढ़ गया | बल्लूजी ने अपने सम्पूर्ण सामर्थ्य से घोड़े को किले की दीवार से नीचे कुदवा दिया | ‘नीलधवल’ बल्लूजी और राव अमरसिंह की देह के साथ धरती पर था| इस चमत्कारिक कृत्य पर बादशाह के सैनिक हक्के-बक्के रह गए और चिल्लाए – ‘ यह आदमी है कि फ़रिश्ता ?’
किले की खाई के बाहर भावसिंह कुम्पावत आठ सौ राजपूतों के साथ खड़े थे | बल्लूजी दूसरे घोड़े पर सवार हुए और मुगल सेना से भिड़ गए | एक जबरदस्त युद्ध बोखारा दरवाजे के बाहर हुआ| राव अमरसिंह की देह को यमुना किनारे चित्ता-स्थल पहुँचाया, उनका वहाँ रानियाँ इंतजार कर रही थी | रानी हाडीजी और गौड़जी ने अंतिम समय में बल्लूजी को आशीष दी |
लोक आख्यानों के अनुसार बल्लूजी जूंझार हुए | शिर कटने के बाद भी लड़ने वाले को राजस्थान में जून्झार कहते हैं | कवियों ने बल्लूजी के शब्दों में कहा –
बलू कहे गोपाळ रो, सतियाँ हाथ संदेश |
पतसाही घड़ मोड़ नै, आवां छां अमरेश ||
(गोपालदास का पुत्र बल्लू सतियों के हाथ सन्देश भेजता हुआ कहता है कि हे अमरसिंहजी ! मैं बादशाही घड़ मोड़कर कुछ समय पश्चात आपके पास आ रहा हूँ |)
राव अमरसिंह के उलाहने कि ‘आप क्या बादशाही घड़ (सेना) मोडेंगे ?’ को उनके मरने के बाद बल्लूजी ने पूरा किया, जबकि कहने वाला रहा ही नहीं था | यह राजस्थान के लोगों की वह चारित्रिक निष्ठा है जिस पर सम्पूर्ण मनुष्य जाति मुग्ध है | उनकी स्मृति में बनी छतरी ‘राठौड़ की छतरी’ के नाम से विख्यात रही जो वर्तमान में खंडहर बनी आगरा के किले के पास यमुना किनारे स्थित है | ‘नील धवल’ घोड़े की तेजस्विता से बादशाह शाहजहाँ इतना प्रभावित हुआ था कि उसने लाल पत्थर की घोड़े की मुखाकृति उस स्थान पर स्थापित की जहां घोड़ा छलांग लगाकर गिरा था | सन 1961 तक यह मूर्ति-शिल्प देखा गया था |
बोखारा गेट का नाम इस घटना के बाद अमरसिंह गेट पड़ गया | इस घटना के बाद यह दरवाजा शताब्दियों तक राजसी आदेश से बंद ही रहा | सन 1644 के बाद यह दरवाजा सन 1809 में केप्टन जिओ स्टील ने फिर से खोला और इस का जीर्णोद्धार करवाया | लोग कहते हैं कि दरवाजे के गिरने पर एक लम्बा भयानक काला सांप निकला था जिससे केप्टन स्टील भाग्य से बच गया | आजकल अमरसिंह गेट से ही पर्यटक आगरा का किला देखने प्रवेश करते हैं |
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