सलूंबर चूंडावत राजाओं का शासन रहा । चूंडावत सरदार मेवाड़ महाराणा के हरावल दल की सेना नेतृत्व किया करते थे।
यहां चूंडावत सरदार की वीरता का का अद्भुत शौर्य रहा हैं जैसे. "उंटाला का युद्ध"...... महाराणा अमर सिंह जी इतिहास प्रसिद्ध महाराणा प्रताप के पुत्र थे! महाराणा प्रताप की मृत्यु के बाद महाराणा अमर सिंह जी भी पिता की भांति मेवाड़ को स्वतंत्र कराने के लिए बादशाह अकबर से लड़ते रहे! उन्होंने मेवाड़ के सभी दुर्गों और गांवों को मुगलों के पंजे से मुक्त कराने के लिए अपना प्रयत्न जोर-शोर से जारी रखा! इन दुर्गों में उटाला का प्रसिद्ध किला भी थ!
ऊटाला गढ़, राजधानी उदयपुर से 39 कि.मी. पूर्व दिशा में स्थित है!( जो वर्तमान में वल्लभनगर के नाम से जाना जाता है) इसके चारों और मजबूत परकोटा बना हुआ है! इसके ऊपरी भाग में एक-दो बुर्ज व बाकी चारों और दीवार बनी हुई है! परकोटे की नींव को स्पर्श करती हुई नदी बहती है! गढ के मध्य में दुर्ग रक्षक का महल बना हुआ है! जिसके चारों तरफ खाई खुदी हुई है! गढ में प्रवेश के लिए केवल एक द्वार है!
राजस्थान का इतिहासिक देश तथा धर्म पर बलिदान होने की घटनाओं से भरा पड़ा है! युद्ध के लिए इस समय सेना में सबसे आगे रहने और बलिदान का सबसे पहले अवसर पाने की घटनाएं कम ही मिलती है! इसे ‘हरावल’ कहां जाता था! इस तरह की एक घटना 1600 ई. में मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह जी के राज काल में घटी!
ऊटाला को जिस तरह मुगलों से महाराणा अमर सिंह जी ने पुन : जीतकर लिया वह वीरता की एक अनोखी कहानी हो गई थी , महाराणा अमर सिंह जी ने ऊटाला के थानेदार कायम खा पर चढ़ाई की और गांव को घेर लिया! बादशाह और महाराणा अमर सिंह जी की सेना के मध्य जमकर लड़ाई हुई जिसमें दोनों दलों के सैकड़ों योद्धा मारे गये! कायम खा को खुद महाराणा अमर सिंह जी ने मार गिराया, शाही फौज भाग गई और जाकर ऊँटाला के घर में शरण ली और भीतर से गढ़ का किवाड़ बंद कर लिया! गढ जीतना मुश्किल हो गया था! इस पर महाराणा अमर सिंह जी ने अपने साथियों को उत्साहित किया और चुंडावतों तथा शक्तावत सरदारों के बीच चला आ रहा झगड़ा भी सदा के लिए निपटाने का निश्चय किया ! यह झगड़ा यह था, कि हरावल यानि कि युद्ध में सबसे पहले कौन बलिदान देगा!
मेवाड़ की सेना में विशेष पराक्रमी होने के कारण चुंडावत वीरो को ही हरावल (युद्ध में लड़ते समय सेना की अग्रिम पंक्ति) में रहने का गौरव प्राप्त था, और वे उसे अपना अधिकार समझते थे! हरावल में रहना उस समय बड़ी इज्जत की बात समझी जाती थी! उस समय तक हरावल में चुंडावत ही रहते आए थे! किंतु शक्तावत वीर भी कम परा कर्मी नहीं थे! क्योंकि महाराणा प्रताप के अनुज महाराज शक्ति सिंह जी के पुत्र भाणजी, अचलदास जी, बल्लू जी, दलपत जी , शक्तावत काफी शक्तिशाली होकर उबर गए थे! एवं उनके हृदय में भी यह अरमान जागृत हुआ की युद्ध के क्षेत्र में मृत्यु से पहला मुकाबला हमारा होना चाहिए! अपनी इस महत्वाकांक्षा को महाराणा अमर सिंह जी के समक्ष रखते हुए शक्तावत वीरों ने कहा कि चुंडावतों से त्याग बलिदान वह बहादुरी मैं हम किसी भी प्रकार कम नहीं है! अत: शक्तावतो को भी हरावल मैं रहने का हक जताया है तब चुंडावतों ने महाराणा से निवेदन किया कि जब तक हम जीवित हैं हमारा स्थान कोई दूसरा प्राप्त नहीं कर सकता यदि इसके विपरीत हुआ तो हम कट मरेंगे महाराणा ने फरमाया कि आपस में लड़ाई झगड़ा करने की आवश्यकता नहीं है! महाराणा अमर सिंह जी इस विवाद से दुविधा में पड़ गए! वे शक्तावतो और चुंडावतों के आपस की लड़ाई से मेवाड़ की शक्ति और मातृभूमि को कमजोर नहीं होने देना चाहते थे दोनों ही पक्षों को महाराणा बड़ी इज्जत की निगाह से देखते थे अंत हरावल मैं रहने का अधिकार किसे मिलना चाहिए ! मृत्यु से पाणि-ग्रहण के लिए होने वाली इस अद्भुत प्रतिस्पर्धा को देख कर महाराणा अमर सिंह जी धर्म संकट में पड़ गए! किस पक्ष को अधिक पराक्रमी मानकर हरावल में रहने का अधिकार दिया जाए! इसका निर्णय करने के लिए उन्होंने एक कसौटी तय की जिसके अनुसार यह निश्चय किया गया कि दोनों दल ‘ऊटाला’ दुर्ग ( जो शहजादा जहांगीर के अधीन था) पर प्रथक दिशा से एक साथ आक्रमण करेंगे वह जिस दल का व्यक्ति पहले दुर्ग में प्रवेश कर जाएगा उसे ही हरावल मैं रहने का अधिकार दिया जाएगा!
महाराणा कि यह राय दोनों दल के योद्धाओं को पसंद आई वह दोनों ही दल ऊटाले किले के लिए कुच की तैयारी करने लगे! शक्तावतो की टोली के मुखिया बल्लू सिंह थे! शेर जैसी चाल से चलते तो देखने वालों का मन मोह लेते, हमेशा मरने मारने को तैयार रहते!
ऊटाले के किले मै प्रवेश करने के लिए ‘ शक्तावत सेना अपने सरदार रावत बल्लू जी शक्तावत के नेतृत्व में किले के मुख्य द्वार पर जा पहुंची और चुंडावत सरदार रावत जात सिंह जी अपने साथियों शहित किले की दीवार के नीचे जा डटे! बस! फिर क्या था! प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए मौत को ललकारते हुए दोनों ही दलों के रण-बॉकुरे वीरों ने ऊटाला दुर्ग पर आक्रमण कर दिया! शक्तावत वीर दुर्ग के मुख्य द्वार के पास पहुंच कर उसे तोड़ने का प्रयास करने लगे तो चुंडावत वीरों ने समीप दुर्ग की दीवार पर सीढ़ियां कबंध डालकर उस पर चढ़ने का प्रयास शुरू किया! गढ की दीवार से मुगल सिपाही पत्थर, गोलिया और तीर बरसा रहे थे! बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा रहा था, चारों ओर मौत दिखाई दे रही थी! मुख्य द्वार पर बल्लू जी शक्तावत ने तेज आवाज में अपने हाथी के महावत से कहा-‘ ‘ महावत! हाथी से पोल (दरवाजे) के किवाड़ तुडवा! हाथी को टक्कर देने के लिए आगे बढ़ाया तो किवाड मैं लगे हुए तीक्ष्ण शुलो से सहम कर हाथी पीछे हट गया! हाथी मुकना ( बिना दांत वाला) होने से और गढ के किवाड़ों मैं लोहे के बड़े-बड़े मजबूत और तीक्ष्ण किले होने से हाथी किवाडो पर मोहरा ना कर सका! यह देख शक्तावतो के सरदार बल्लू जी शक्तावत खुद अद्भुत बलिदान का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए किवाड़ के शुलो पर पीठ अडा कर खड़े हो गये, जिससे कि हाथी शुलो के भय से पीछे ना हटे! उनकी आंखें लाल हो गई! आवेश के साथ उन्होंने महावत से फिर कहा-‘ अब क्या देखते हो महावत! हाथी को मेरे बदन पर हुल दो! ‘ ‘
इस दृश्य को देखकर सभी सैनिक अचंभित रह गए और कोई कुछ समझ नहीं पा रहा था इतने में बल्लू सिंह जी ने चिल्ला कर कहा आज मैं अपने रक्त के बलिदान से मातृभूमि और मेवाड़ की भूमि का श्रृंगार करूंगा मातृभूमि को अपने रक्त से सीचूगा! आज प्रथम बलिदान से मुझे कोई नहीं रोक सकता है! एक बार तो महावत सहम गया! किंतु फिर वीर बल्लू जी ने मृत्यु से जी भयानक क्रोध पूर्ण आदेश करते हुए महावत को ललकार कर कहा कि हाथी को अब हमारे ऊपर हूल दे! जिससे गढ़ के किवाड़ टूट जाए!
बल्लू जी का आदेश सुनते ही महावत अवाक रह गया एक और उसके स्वामी की मौत थी और दूसरी और मालिक आदेश! वह यह सोच ही रहा था कि उसे बल्लू जी की रोषपूण आवाज फिर सुनाई दी! यदि हमारी आज्ञा का पालन नहीं करोगे तो तुझ को अभी जान से मार डालूंगा! महावत कॉप गया! हाथी टक्कर मारे तो सरदार की मौत निश्चित है! लेकिन बल्लू जी ने महावत को हिचकते देख कहा देखता नहीं चुंडावत दुग पर चढ़े जा रहे हैं! तुझे शक्तावतो की आन! हाथी हुल!!
महावत भयभीत होकर उनकी आज्ञा का उल्लंघन ना कर सका और इस बार महावत को आदेश का पालन करने में जरा भी देर ना लगी! उसने हाथी के मस्तक में बलपूर्वक अकुश मारा जिसके लगते ही हाथी ने भयंकर चिगाडा मार कर जोर से बल्लू जी की छाती पर अपने सिर से मोहरा किय! जिससे गढ के मजबूत किवाड़ टुकड़े टुकड़े होकर तत्काल टूट गए! बल्लू जी का शरीर तीक्ष्ण किलो से बिध गये और वीरता बलिदान के पुजारी बल्लू सिंह जी वीरगति को प्राप्त हो गए किवाड़ के गिरते ही शक्तावतो की फौज किले में घुस गई और मुगलों से भयंकर लड़ाई छिड़ गई!
दूसरी ओर सलूंबर के जैत सिंह जी चुंडावत के नेतृत्व मैं उनका दल निसैनी (सीढिया) कब बंद डालकर किले पर चढ़ने का प्रयत्न कर रहा था! मेवाड़ में जब भी महाराणा की गद्दी नशीनी होती है, तब चुंडावतों के रक्त से सबसे पहले महाराणा का राजतिलक लगाया जाता है फौज की हरावल मैं भी चुंडावत ही रहते आए थे इस दल के नेता रावत जेत सिंह जी अपने युद्ध कौशल के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध थे! वीरता उनमें कूट कूट के भरी थी उनकी वीरता और साहस के सामने अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छक्के छूट जाते थे! जब उन्हें पता चला कि शक्तावत किले के द्वार से गढ़ मैं प्रवेश का प्रयत्न कर रहे हैं और जब रावत जैत सिंह जी ने बल्लू जी के बदन पर हाथी को हूलते देखा तो वह तुरंत ही सीढी लाकर किले की दीवार पर चढ़ने लगे! जैत सिंह जी किले की दीवार के कंगूरों तक पहुंच गए थे कि दुश्मन के बंदूक की गोली अचानक उनके सीने में आग लगी लेकिन गिरते-गिरते उन्होंने अपने साथियों से चिल्ला कर कहा की जल्दी से उनका सिर काटकर किले में फेंक दो (उन्होंने पहले दुर्ग में पहुंचने की शर्त को जीतने के उद्देश्य से) उनके साथी हिचकी लेकिन जैसे ही उन्होंने हुकार भर कर कहा कि मातृभूमि पर सर्वप्रथम बलिदान होने का स्थान मैं किसी दूसरे को नहीं लेने दूंगा! जल्दी करो मेरा सिर काटकर मातृभूमि के चरणों में समर्पित कर दो उनके आदेश की पालना कोई और उनके एक साथी भरे मन से उनका सिर काटकर किले के अंदर फेंक दिया (मातृभूमि के चरणों में समर्पित कर दिया)
फिर सीढियो से चुंडावत किले पर चढ़ गए! शक्तावत भी किले के किवाड तोड़कर भीतर चले आए! और बाद में किले के अंदर पहुंच कर दुश्मनों को गाजर मूली की तरह काटने लगे! दुर्ग में घमासान युद्ध हुआ बहुत से शाही सैनिक मारे गए एवं पकड़ लिए गए! उससे पहले ही चुंडावत सरदार का कटा हुआ मस्तक दुर्ग के अंदर मौजूद था! इस प्रकार चुंडावतों ने अपना हरावल मैं रहने का अधिकार अद्भुत बलिदान देकर कायम रखा! चुंडावत सरदार का कटा सिर किले के भीतर शक्तावतो से पहले पहुंच गया! महाराणा की सेना में हरावल का अधिकार चुंडावतों के पास वंश परंपरा से था और सुरक्षित रह गया किंतु कहना किसी के लिए सरल कहां है कि शक्तावत और चुंडावत सरदारों में अधिक वीर कौन था!
इस लड़ाई में रावत जैत सिंह जी शक्तावत (सलूंबर), बल्लू जी (अचल दास जी के लघु भ्राता), रावत तेज सिंह जी खंगारोत (अठाला) के सिवाय और भी बहुत से बहादुर रणभूमि में काम आये! मेवाड़ का ध्वज ऊटाले के किले पर फिर फहरा दिया गया! देश जाति एवं कुल की मर्यादा की रक्षा के लिए हंसते हंसते प्राण देने वाले वे वीर धन्य हैं ऐसे वीरों को उत्पन्न करने वाली भारत भूमि धन्य है!
जब बाकरोल के जागीरदार ऊटाला की विजय का समाचार लेकर महाराणा के पास हाजिर हुए तो महाराणा अमर सिंह जी शीघ्र ऊटाले आये! वहां पर रणक्षेत्र मैं अपने वीर क्षत्रियों की लाशें चहूं और पड़ी हुई देखी! उन्होंने कहा ” हे वीर योद्धाओं” मेवाड़ी धरा आपकी हमेशा ऋणी रहेगी!
हरावल में रहने का अधिकार किसका रहा यह विवाद का विषय नहीं हो सकता, क्योंकि किले में प्रवेश का प्रश्न खुद की प्रतिष्ठा का न होकर मातृभूमि के लिए प्रथम बलिदान होने का स्थान हासिल करने का था, और किसने हासिल किया यह भी विचार का विषय नहीं है, प्रश्न तो यह है, किस क्षत्रियों ने मातृभूमि के लिए कैसे कैसे बलिदान दिए, कैसे-कैसे रक्त बहाया, जैत सिंह जी चुंडावत और बल्लू सिंह जी शक्तावत जैसे वीरयोद्धा की वीरता, उनका साहस, उनका त्याग और बलिदान ही तो वर्तमान पीढ़ी की धरोहर है जो हमें सदा प्रेरणा देती रहेगी!
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