गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

ऊँठाळे का युद्ध – 1600 ई



“ऊँठाळे का युद्ध” – 1600 ई. :- उदयपुर जिले की वल्लभनगर तहसील में स्थित इस दुर्ग पर मुगलों का कब्जा था। ये युद्ध 1605 ई. में जहांगीर के समय होना बताया जाता है, लेकिन कविराज श्यामलदास समेत कुछ विद्वानों द्वारा ये युद्ध 1600 ई. में अकबर के समय होना बताया जाता है। 1600 ई. वाली तारीख ज्यादा सही लगती है।मुगल सिपहसालार कायम खां ऊँठाळे दुर्ग में तैनात था। इस युद्ध को मेवाड़ के इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। इसका सबसे अहम कारण था चुण्डावतों व शक्तावतों में हरावल में रहने की होड़। मेवाड़ की हरावल अर्थात सेना की अग्रिम पंक्ति में रहकर लड़ने का अधिकार चुण्डावतों को प्राप्त था।
जब महाराणा अमरसिंह ने ऊँठाळे दुर्ग पर आक्रमण करने की बात दरबार में की, तब वहां मौजूद महाराज शक्तिसिंह के पुत्र बल्लू सिंह शक्तावत ने महाराणा से अर्ज किया कि “हुज़ूर, मेवाड़ की हरावल में रहने का अधिकार केवल चुंडावतों को ही क्यों है, क्या हम शक्तावत किसी मामले में पीछे हैं ?”

तभी दरबार में मौजूद रावत कृष्णदास चुंडावत के पुत्र रावत जैतसिंह चुंडावत ने कहा कि “मेवाड़ की हरावल में रहकर लड़ने का अधिकार चुंडावतों के पास पीढ़ियों से है।” महाराणा अमरसिंह के सामने दुविधा खड़ी हो गई, क्योंकि वे दोनों को ही नाराज नहीं कर सकते थे। सोच विचारकर महाराणा अमरसिंह ने इस समस्या का एक हल निकाला।

महाराणा अमरसिंह ने कहा कि “आप दोनों शक्तावतों और चुंडावतों की एक-एक सैनिक टुकड़ी का नेतृत्व करो और अलग-अलग रास्तों से ऊँठाळे दुर्ग में जाने का प्रयास करो। दोनों में से जो भी ऊँठाळे दुर्ग में सबसे पहले प्रवेश करेगा, वही हरावल में रहने का अधिकारी होगा और उसके बाद इस बात को लेकर कोई तर्क वितर्क ना किया जावे।”

महाराणा अमरसिंह ने खुद इस महायुद्ध का नेतृत्व किया। महाराणा के नेतृत्व में 10,000 मेवाड़ी वीरों ने ऊँठाळे गांव में प्रवेश किया, जहां मुगलों से लड़ाई हुई। इस लड़ाई में सैंकड़ों मुगल मारे गए। मुगल सेना ने भागकर ऊँठाळे दुर्ग में प्रवेश किया। मेवाड़ी सेना ने ऊँठाळे दुर्ग को घेर लिया।

दुर्ग में प्रवेश करने के लिए बल्लू जी शक्तावत दुर्ग के द्वार के सामने आए और अपने हाथी को आदेश दिया कि द्वार को टक्कर मारे पर लोहे की कीलें होने से हाथी ने द्वार को टक्कर नहीं मारी। ऊपर से हाथी मकुना अर्थात बिना दांत वाला था।

बल्लू जी द्वार की कीलों को पकड़ कर खड़े हो गए और महावत से कहा कि हाथी को मेरे शरीर पर हूल दे। हाथी ने बल्लू जी के टक्कर मारी, जिससे बल्लू जी नुकीली कीलों से टकराकर वीरगति को प्राप्त हुए। द्वार टूट गया और द्वार के साथ-साथ बल्लू जी भी किले के भीतर गिर पड़े।

बल्लू जी के इस बलिदान के बावजूद वे हरावल का अधिकार नहीं ले सके। रावत जैतसिंह चुण्डावत सीढियों के सहारे ऊपर चढ रहे थे। ऊपर पहुंचते ही मुगलों की बन्दूक से निकली एक गोली रावत जैतसिंह की छाती में लगी, जिससे वे सीढ़ी से गिरने लगे, तभी उन्होंने अपने साथियों से कहा कि मेरा सिर काटकर दुर्ग के अन्दर फेंक दो। साथियों ने ठीक वैसा ही किया।

इस तरह किले में पहले प्रवेश करने के कारण हरावल का नेतृत्व चुण्डावतों के अधिकार में ही रहा। “हाथी से टक्कर दिलवाकर, दुर्ग द्वार तुड़वाया था। सिर अपना फेंका कटवाकर, हरावल में नाम जुड़वाया था।।”

मुगल सेनानायक कायम खां शतरंज का बड़ा शौकीन था। इस भीषण युद्ध के बीच वह दुर्ग में शतरंज खेल रहा था, कि तभी स्वयं महाराणा अमरसिंह वहां पहुंचे। कायम खां ने महाराणा से विनती की कि मुझे ये खेल पूरा करने दिया जावे। खेल पूरा होते ही महाराणा अमरसिंह ने अपने हाथों से कायम खां को मारा और मेवाड़ी वीरों ने ऊँठाळे दुर्ग पर ऐतिहासिक विजय प्राप्त की। इस युद्ध में कई मुगल मारे गए व महाराणा अमरसिंह ने बचे खुचे मुगलों को कैद किया।

ऊँठाळे के युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने वाले योद्धा :- सलूम्बर के रावत जैतसिंह चुंडावत, बल्लू जी शक्तावत, वाधा जी, वाधा जी के पुत्र अमरा जी, खान देवड़ा, आहीर दामोदर, बैरीशाल, रावत तेजसिंह खंगारोत आदि योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए। सलूम्बर रावत जैतसिंह चुण्डावत के बलिदान के बाद मानसिंह चुण्डावत सलूम्बर के अगले रावत बने।

महाराज शक्तिसिंह जी के पुत्र, जो ऊँठाळे के युद्ध में काम आए :- कुंवर सुल्तान शक्‍तावत, कुंवर मंडन शक्‍तावत, कुंवर जगन्नाथ शक्‍तावत, महाराज भाण शक्‍तावत। महाराज भाण शक्‍तावत को महाराणा प्रताप ने भीण्डर की जागीर प्रदान की थी।

मोहनदास राठौड़ :- ये नीमडी के चन्दन सिंह राठौड़ के पुत्र थे। ऊँठाळे के युद्ध में मोहनदास राठौड़ के वीरगति पाने के बाद उनके पुत्र अमरसिंह राठौड़ को महाराणा अमरसिंह ने भैंसरोडगढ़ की जागीर दी।

ऊँठाळे के युद्ध में जीवित रहने वाले प्रमुख योद्धा :- देवगढ़ के रावत दूदा चुण्डावत, रामसिंह, महाराणा अमरसिंह के मामा राव शुभकर्ण पंवार। इस लड़ाई में महाराज शक्तिसिंह जी के पुत्र रावत अचलदास शक्तावत, कुँवर मालदेव शक्तावत, कुँवर दलपत शक्तावत व कुँवर भूपत शक्तावत ने बड़ी बहादुरी दिखाई। विशेष रूप से महाराज शक्तिसिंह के पुत्र कुँवर दलपत व कुँवर भूपत की बहादुरी के चर्चे तो मुगल दरबार तक होने लगे।

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