आमेर के राजा मानसिंह और अफगान
अफगान/पश्तून एक गज़ब की उपद्रवी योद्धा जनजाति रही है जिसे काबू में करने में अच्छे अच्छे साम्राज्यों के पसीने निकल गए। ब्रिटिश एम्पायर जिसके बारे में कहा जाता है की उस राज में सूर्य अस्त नहीं होता था उन अंग्रेजों को पठानों ने दौड़ा दौड़ा कर मारा, इतनी किरकिरी हुई की अपमानित होकर ब्रिटिश फोर्स को पीछे हटना पड़ा।
शीत युद्ध के पीक पर सोवियत रूस ने अफगानिस्तान को कम्युनिस्ट स्फीयर में लाने के लिए अपने पूरे रिसोर्सेस के साथ उस देश पर धावा बोला। सालों तक युद्ध चला पर आखिरकार थक हार कर रूसियों को वापस अपने देश जाना पड़ा।
यही हाल अपनी तकनीकी कौशल और मिलिट्री श्रेष्ठता पर घमंड खाए अमेरिका का हुआ।
अफगानिस्तान को ग्रेवयार्ड ऑफ एंपायर्स यूं ही नही कहा जाता। अच्छे अच्छे नामचीन वहां जाकर पसर गए।
सिवाय एक के। राजा मानसिंह और उनकी कच्छवाहा सेना एकमात्र ऐसी हमलावर फौज़ थी जिनके बारे में कहा जा सकता है की उन्होंने पठानों को वाकई में नानी याद दिला दी।
मानसिंह की बहादुरी और युद्ध कौशल से प्रभावित होकर खुद पश्तूनों ने उनकी तारीफ की। अबुल फ़ज़ल लिखता है की अकबर को मानसिंह को काबुल की सूबेदारी से हटाना पड़ा क्योंकि पठानों को बेइज्जती महसूस होती थी की हिंदू उनपर राज कर रहे हैं। अफगान इतिहास में उन्होंने इतना तिरस्कार कभी नहीं झेला जितना उन्होंने मानसिंह के नीचे रहते हुए महसूस किया।
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