मंगलवार, 26 अगस्त 2025

जैता जी बगड़ी

जैता जी, पंचायण (अखैराजोत) के पुत्र थे।
ये बगड़ी के ठाकुर थे।
मण्डोर पर राव जोधा का अधिकार होने पर इनके बड़े भाई अखैराज ने तत्काल अपने अँगूठे को तलवार से चीरकर रुधिर से जोधाजी के मस्तक पर राज-तिलक लगा दिया। इस पर जोधाजी ने भी मेवाड़ वालों से छीन कर बगड़ी का अधिकार उसे वापस सौंप देने की प्रतिज्ञा की।

उसी दिन से मारवाड़ में यह प्रथा चली है कि जब कभी किसी महाराजा का स्वर्गवास हो जाता है, तब बगड़ी जब्त करने की आज्ञा दे दी जाती है,
और नए महाराजा के गद्दी पर बैठने के समय बगड़ी ठाकुर अपना अँगूठा चीरकर रुधिर से तिलक करता है, बगडी वापस दे दी जाती है। जैताजी के वंशज जैतावत ‘‘राठौड़” कहलाते हैं।

जैताजी महान् योद्धा थे। ये राव गाँगा जोधपुर की सेवा में थे। कुँपाजी को जैताजी ने ही राव गाँगा की तरफ मिलाया था। जैता जी ने भी कँपा जी के साथ रहते हुए अनेक युद्धों में भाग लिया था। वि.सं. १५८६ (ई.स. १५२९) में राव गाँगा के काका शेखा (पीपाड़) ने नागौर के शासक दौलत खाँ की सहायता से जोधपुर पर आक्रमण किया।

दोनों सेनाओं में सेवकी’ नामक स्थान पर युद्ध हुआ। शेखा रणखेत रहा और दौलत खाँ प्राण बचाकर रणक्षेत्र से भाग गया। राव गाँगा की सेना में जैताजी ने भाग लिया था । राव गाँगा के बाद राव मालदेव मारवाड़ के शासक बने ।

राव मालदेव ने विशाल साम्राज्य स्थापित किया उसमें जैताजी का विशेष योगदान रहा। उन्होंने मालदेव के प्रत्येक सैनिक अभियान में भाग लिया । राव वीरमदेव मेड़तिया से अजमेर और मेड़ता में हुए युद्धों में जैताजी ने अद्भुत पराक्रम दिखाकर मालदेव को विजय दिलाई। वीरमदेव डीडवाना चला गया,जैताजी और कँपा जी ने डीडवाना से वीरमदेव का कब्जा हटवाया।

राणा उदयसिंह को मेवाड़ की गद्दी पर बैठाने में भी जैता जी का योगदान रहा।
वणवीर से हुए युद्ध में राव मालदेव ने उदयसिंह की सहायता के लिए एक सेना भेजी थी। उस सेना में अखैराज सोनगरा, कँपाजी राठौड़ और जैताजी राठौड़ सम्मिलित थे। माहोली (मावली) में हुए युद्ध में उदयसिंह की विजय हुई और वह मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। वि.सं. १५९८ (ई.स. १५४१) में राव मालदेव ने बीकानेर पर चढ़ाई की।

राव जैतसी बीकानेर रणखेत रहा, राव मालदेव की विजय हुए। इस युद्ध में जैताजी और कँपाजी ने विशेष वीरता दिखाई। शेरशाह सूरी आगरे से एक विशाल सेना के साथ राव मालदेव पर आक्रमण करने के लिए रवाना हुआ। इसकी सूचना जैताजी और कँपाजी को डीडवाणा में मिली।

इन्होंने शेरशाह की मारवाड़ पर चढ़ाई की सूचना राव मालदेव को दी। अखैराज सोनगरा, कँपाजी और जैताजी अजमेर पहुँचे। सुमेल-गिररी (जैतारण पाली) में दोनों सेनाओं ने ब्यूह रचना की। लगभग एक महीने तक सेनाएँ आमनेसामने रही, लेकिन शेरशाह की हिम्मत नहीं हुई कि वह मारवाड़ी वीरों पर आक्रमण कर दे। रोज छुट-पुट लड़ाई होती थी जिनमें पठानों का नुकसान अधिक होता था।

राठौड़ वीरों की शौर्य गाथाएँ सुनकर शेरशाह हताश होकर लौटने का निश्चय करने लगा। यह देख वीरम ने उसे बहुत समझाया। जब इस पर भी वह सम्मुख युद्ध में लोहा लेने की हिम्मत न कर सका, तब अन्त में वीरम ने उसे यह भय दिखाया कि यदि आप इस प्रकार घबराकर लौटेंगे, तो रावजी की सेना पीठ पर आक्रमण कर आपके बल को आसानी से नष्ट कर डालेगी।

परन्तु जब इतने पर भी शेरशाह सहमत न हुआ, तब वीरम ने कपट जाल रचा।
ऐसे जाली पत्र मालदेव के शिविर में भिजवा दिए, जिन्हें देखकर राव मालदेव को अपने प्रमुख-प्रमुख सरदारों पर शंका हुई कि ये लोग शत्रु से मिल गए हैं।

राव मालदेव की शंका का निवारण करने के लिए जैताजी, कँपाजी और अखैराज सोनगरा ने रावजी को खूब समझाया कि ये फरमान जाली हैं। मालदेव रात में ही वहाँ से जोधपुर कूच कर गया। युद्ध से पहले विशाल सेना एकत्र हुई थी, वह रावजी के मैदान से हटते ही छिन्न-भिन्न हो गई।

जैताजी, कुँ पाजी और अखैराज ने अपने ऊपर लगे स्वामिद्रोही के कलंक को हटाने के लिए शेरशाह से युद्ध करने की ठानी। अपने बारह हजार सैनिकों को लेकर रात में ही युद्ध के लिए रवाना हुए।

परन्तु दुर्भाग्य से, अधिक अंधकार के कारण सैनिक रास्ता-भटक गए। सुबह जल्दी आक्रमण के समय केवल पाँच-छः हजार योद्धा ही साथ थे। शेरशाह की अस्सी हजार सेना से राजपूत योद्धा भिड़ गए।

घमासान लड़ाई हुई। युद्ध में ऐसा प्रलय मचाया कि शत्रु सेना हारकर भागने की तैयारी करने लगी, लेकिन उसी समय शेरशाह का एक सरदार जलाल खाँ अपने सुरक्षित दस्ते के साथ मैदान में आ गया। राजपूतों को चारों ओर से घेर लिया।

राजपूत घोड़ों से उतरकर युद्ध में प्रलय मचाने लगे। लेकिन शत्रू सेना अपार थी। एक-एक राजपूत वीरगति को पहुँचा। जैताजी अपने साथियों के साथ वीरगति को प्राप्त हुए। इस युद्ध में लगभग पाँच हजार राजपूत रणखेत रहे। वि.सं. १६०० पोस सुदि ११ को (ई.स. १५४४ जनवरी ५) सुमेल-गिररी की रक्तरंजित लड़ाई समाप्त हुई।

जैताजी ने जिस स्वामिभक्ति का परिचय दिया है वह मारवाड़ के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। इस बलिदान से पूरे मारवाड़ में शोक की लहर छा गई। मालदेव को जब यह खबर मिली तो वह बड़ा दुखी हुआ कि मैंने अपने सरदारों पर शंका की।
परन्तु समय निकल चुका था पछतांने के अलावा कोई चारा नहीं था।

जैताजी के वंशज जैतावत राठौड़ कहलाते हैं। इनका बगड़ी (पाली) में मुख्य ठिकाना हैं।

“गिररी हन्दै गौरवे, सज भारत दोहू सूर।
जैतो-कुँ पो जोरवर, स्रग नै ड़ा घर दूर।

शुक्रवार, 22 अगस्त 2025

कोडमदे अर सादै(शार्दूल) भाटी


 मरणो एकण बार
राजस्थान रै मध्यकालीन वीर मिनखां अर मनस्विनी महिलावां री बातां सुणां तो मन मोद ,श्रद्धा अर संवेदनावां सूं सराबोर हुयां बिनां नीं रैय सकै।

ऐड़ी ई एक कथा  है कोडमदे अर सादै(शार्दूल) भाटी री।
कोडमदे छापर-द्रोणपुर रै राणै माणकराव मोहिल री बेटी ही।

ओ द्रोणपुर उवो इज है जिणनै पांडवां-कौरवां रा गुरु द्रोणाचार्य आपरै नाम सूं बसायो।

मोहिल चहुवांण राजपूतां री चौबीस  शाखावां मांय सूं एक शाखा रो नाम जिका आपरै पूर्वज 'मोहिल' रै नाम माथै हाली।

इणी शाखा में माणकराव मोहिल हुयो।जिणरै घरै कोडमदे रो जलम हुयो।कोडमदे रूप, लावण्य अर शील रो त्रिवेणी संगम ही।मतलब अनद्य सुंदरी।
राजकुमारी ही सो हाथ रै छालै ज्यूं पल़ी अर मोटी हुई।

राजकुमारी कोडमदे मोटी हुई जणै उणरै माईतां नै इणरै जोड़ वर जोवण री चिंता हुई।उण दिनां राजपूतां में फूठरै वर नै इती वरीयता नीं दिरीजती जिती  एक वीर पुरुष नै दिरीजती।इणी कारण उणरी सगाई मंडोवर रै राजकुमार अड़कमल चूंडावत सागै करी दी गई।

कोडमदे जितरी रूप री लंझा ही अडकमल उतरो इज कठरूप।एक'र चौमासै रो बगत हो।बादल़ चहुंवल़ा गैंघूंबियोड़ा हा,बीजल़ी पल़ाका करै ही ,झिरमिर मेह वरसै हो।ऐड़ै में जोग सूं एकदिन अड़कमल सूअर री शिकार रमतो छापर रै गोरवैं पूगग्यो।उठै ई जोग सूं कोडमदे आपरी साथण्यां सागै झूलरै में हींड हींडै ही।हींड लंफणां पूगी कै उणरी नजर सूअर लारै घोड़ै चढिये डारण देहधारी बजरागिये अड़कमल माथै पूगी।नजर रै सागै ई उणरो सास ऊंचो चढग्यो अर उवां थांथल़ीजगी।थांथरणै रै साथै ई धैंकीज'र पड़गी।पड़तां ई उणरो सास ऊंचो चढग्यो।रंग में भंग पड़ग्यो।साथण्यां ई सैतरै-बैतरै हुयगी। उणनै ऊंचाय'र महल में लेयगी अर झड़फा-झड़फी करण  सूं उणरो सास पाछो बावड़्यो।ज्यूं सास बावड़्यो जणै साथण्यां पूछ्यो कै-
"बाईसा! इयां एकएक भंवल़ कियां आयगी?ओ तो आखड़िया जैड़ा पड़िया नीं नीतर आज जुलम हुय जावतो।म्हे मूंडो ई कठै काढती?"

जणै कोडमदे कह्यो कै-
"अरै गैलक्यां भंवल़ नीं आई।म्हैं तो उण ठालैभूलै ठिठकारिये घोड़ै सवार नै देखर धैलीजगी।"

आ सुणतां ई उणां मांय सूं एक बोली -
"अरे बाईसा!उवै घोड़ै सवार नै देख'र ई धैलीजग्या जणै पछै उण सागै रंगरल़ी कीकर करोला?उणरै सागै तो थांरो हथल़ोवो जुड़ण वाल़ो है!"

"हैं!उण सागै म्हारो हथल़ेवो!तूं आ कांई काली बात करै?अर जे आ बात सही है अर ओ इज अड़कमल है तो सुणलो इण सागै हथल़ोवो जोड़ूं तो म्हारै बाप सागै जोड़ूं।"कोडमदे रै कैतां ई आ बात उणरै माईतां तक पूगी।
कोडमदे रै मा-बाप दोनां ई कह्यो -
"बेटी !तूं आ बात जाणै नीं है कै थारो हुवण वाल़ो वींद कितरो जोरावर अर आंटीलो है।उणरै हाथ रो वार एक'र तो भलां-भलां सूं नीं झलै।पछै तूं ई बात नै  जाणै है कै नीं कै सिहां अर सल़खाणियां सूं वैर कुण मोल लेवै?आ सगाई छोड दां ला तो थारो हाथ झालण नै, ई जमराज सूं डरतो कोई त्यार नीं हुवैला।"
आ सुणतां ई कोडमदे कह्यो-
"अंकनकुंवारी रैय सकूं पण अड़कमल सूं गंठजोड़ नीं जोड़ूं।"

माणकराव मोहिल आपरी बेटी रो नारेल़ दे मिनखां नै वल़ोवल़ी मेल्या पण अड़कमल रै डर सूं किणी कान ई ऊंचो नीं कियो।
सेवट आदमी पूगल रै राव राणकदे भाटी रै बेटे सादै(शार्दूल)नै कोडमदे रै जोग वर मान टीको लेयग्या। पण राणकदेव सफा नटग्यो।उण राठौड़ां सूं भल़ै वैर बधावणो ठीक नीं समझ्यो।
मोहिलां रा आदमी मूंडो पलकार'र पाछा टुरग्या।उवै पूगल़़ सूं कोस दो-तीनेक आगीनै आया हुसी कै पूगल़ रो कुंवर सादो उणांनै आपरी घोड़ी चढ्यो मिल्यो।
असैंधा आदमी देख'र सादै पूछ्यो तो उणां पूरी बात धुरामूल़ सूं मांड'र बताई।
जद सादै नै इण बात रो ठाह लागो तो उणरो रजपूतपणो जागग्यो,मूंछां रा बाल़ ऊभा हुयग्या।भंवारा तणग्या।उण मोहिलां रै आदम्यां नै कह्यो-
 "हालो पाछा पूगल़।टीको म्हारै सारू लाया हो तो नारेल़ हूं झालसूं!
सादै आवतां रावजी नै कह्यो कै-
"हुकम!ठंठेरां री मिनड़ी जे खड़कां सूं डरै तो उणरै पार कीकर पड़ै?जूंवां रै खाधां कोई गाभा थोड़ा ई न्हाखीजै?राजपूत अर मोत रै तो चोल़ी-दामण रो साथ है।जे टीको नीं झाल्यो तो निकल़ंक भाटी कुल़ रै.जिको कल़ंक लागसी उवो जुगां तक नीं धुपैलो।आप तो जाणो कै गिरां अर नरां  रो उतर्योड़ो नीर पाछो नीं चढै--
धन गयां फिर आ मिले,
त्रिया ही मिल जाय।
भोम गई फिर से मिले,
गी पत कबुहन आय।।
आ कैय सादै, मोहिलां री कुंवरी कोडमदे रो नारेल़ झाल लियो पण एक शर्त राखी कै -
"म्हारी कांकड़ में बड़ूं जितै म्हनै राठौड़ां रो चड़ी रो ढोल नीं सुणीजणो चाहीजै तो साथै ई उणांरै रै घोड़ां रै पोड़ां री खेह ई नीं दीसणी चाहीजै।
ऐ दोनूं बातां हुयां म्है उठै सूं एक पाऊंडो ई आगै नीं दे सकूं।क्यूंकै--
झालर बाज्यां भगतजन,
बंब बज्यां रजपूत।
ऐतां बाज्यां ना उठै,
(पछै)आठूं गांठ कपूत।।
मोहिलां वचन दियो अर सावो थिर कियो।
आ बात जद अड़कमल नै ठाह लागी तो उणरै रूं-रूं में लाय लागगी।उण आपरै साथ नै कह्यो- कै -
"मांग तो मर्यां नीं जावै। हूं तो जीवतो हूं।सादै अर मोहिलां अजै म्हारी खाग रो पाणी चाख्यो नीं है।हुवो त्यार।मोहिलवाटी सूं निकल़तां ई सादै नै सुरग रो वटाऊ नीं बणा दियो तो म्हनै असल राजपूत मत मानजो।"
अठीनै सादो जान ले चढ्यो अर उठीनै अड़कमल आपरा जोधार लेय खार खाय चढ्यो।
कोडमदे अर सादै(शार्दूल) भाटी 
माणकराव आपरी लाडकंवर रो घणै लाडै -कोडै ब्याव कियो अर आपरै सात बेटां नै हुकम दियो कै-
"बाई नै पूगल़ पूगायर आवो।आपां सादै नै वचन दियो है पछै भलांई स्वारथ हुवै कै कुस्वारथ बात सूं पाछो नीं हटणो।
आगै मोहिल अर लारै आपरी परणेतण कोडमदे सागै सादो।
मोहिलवाटी सूं निकल़तां ई अड़कमल रो मोहिलां सूं सामनो हुयो।ठालाभूलां नै मरण मतै देख एक'र तो राठौड़ काचा पड़्या पण पछै सवाल मूंछ रो हो सो राटक बजाई।बारी -बारी सूं मोहिल आपरी बैन री बात सारू कटता रैया पण पाछा नीं हट्या।जसरासर,साधासर,कुचौर,नापासर,आद जागा मोहिल वीर राठौड़ां सूं मुकाबलो करतां कटता रैया।छठो भाई बीकानेर अर नाल़ रै बिचाल़ै कट्यो तो सातमो मेघराज मोहिल आपरी बात सारूं कोडमदेसर में वीरगत वरग्यो।ऐ सातूं भाई आज ई इण भांयखै में भोमियां रै रूप में लोक री श्रद्धा रा पूरसल पात्र है।
हालांकि उण दिनां ओ कोडमदेसर नीं हो पण आ छेहली लड़ाई इणी जागा हुई। अठै इज भाटी सादै अर अड़कमल री आंख्यां च्यार हुई।उठै आदम्यां सादै नै कह्यो -
"हुकम!आप ठंभो मती।आप पूगल़ दिसा आगै बढो।"
जणै सादै कह्यो कै-
"हमैं कांकड़ म्हारी है!म्हैं अठै सूं न्हाठ'र कठै जाऊंलो?मोत तो एक'र ई  आवै ,रोजीनै नीं-
कंथा पराए गोरमे,
नह भाजिये गंवार।
लांछण लागै दोहुं कुल़ां,
मरणो एकण बार।।
 जोरदार संग्राम हुयो सेवट अड़कमल रै हाथां सादो भाटी ई वीरता बताय'र आपरी आन-बान रै सारू स्वर्गारोहण करग्यो पण धरती माथै नाम अमर करग्यो।
आपरै पति नै वीरता सागै लड़'र वीरगत वरण माथै कोडमदे नै ई अंजस हुयो।उण आपरी तरवार काढ आपरो जीवणो हाथ बाढ्यो अर  उठै ऊभै एक आदमी नै झलावतां कह्यो-
"लो !ओ म्हारो  हाथ पूगल ले जाय म्हारी सासू रै पगै लगावजो अर कैजो कै थांरै बेटे थांरो दूध नीं लजायो तो थांरी बहुआरी थांरो नाम नीं लजायो तो ओ दूजै हाथ रो गैणो है इणसूं म्हारै सुसरैजी नै कैजो कै इण तालर में तिसियां खातर एक तल़ाव खणावजो।"
इतो कैय  उण जुग री रीत मुजब कोडमदे रथी बणाय आपरै पति महावीर सादै रै साथै सुरग पूगी-
आ धर खेती ऊजल़ी,
रजपूतां कुल़ राह।
चढणो धव लारै चिता,
बढणो धारां वाह!!
उठै राव राणकदे कोडमदे री स्मृति में कोडमदेसर तल़ाब खोदायो जिको इण बात रो आज ई साखीधर है कै मरतां-मरतां ई आपरी बात री धणियाणी मनस्विनी कोडमदे किणगत लोककल्याणकारी भावनावां रो सुभग संदेश जगत नै देयगी।

कोडमदे अर सादै(शार्दूल) भाटी 

रविवार, 6 जुलाई 2025

महाराजा मानसिंह की उपलब्धियां

 राजा मान सिंह
जन्म - 21 दिसम्बर, 1550 ई.
जन्म भूमि - आमेर, राजस्थान 
मृत्यु तिथि - 6 जुलाई, 1614 ई.
पिता- राजा भगवानदास, माता- रानी भगवती बाई
राजा मानसिंह के शासनकाल में आमेर राज्य ने बड़ी उन्नति की। मुग़ल प्रशासन में अत्यधिक प्रभावशाली मानसिंह ने अपने राज्य का विस्तार किया अनेक राज्यों पर आक्रमण कर के जो अपरिमित संपत्ति लूटी थी, उसके द्वारा आमेर राज्य को शक्तिशाली बना दिया। धौलाराय के बाद आमेर, जो एक साधारण राज्य समझा जाता था, मानसिंह के समय वही एक शक्तिशाली और विस्तृत राज्य हो गया था।भारत के इतिहास में कछवाहो का महत्वपूर्ण स्थान आता है मानसिंह के समय कछवाहो ने खुतन से समुद्र तक अपने बल, पराक्रम और वैभव की प्रतिष्ठा की थी। राजा मानसिंह की राजपूत सेना, बादशाह की सेना से कहीं अधिक शक्तिशाली मानी जाती थी,हिन्दू धर्म के सच्चे संरक्षक के रूप में कछवाहों ने कार्य किया और कट्टर इस्लामीकरण से भारत और समस्त हिंदुओं को बचाए रखा ,कट्टर औरंगज़ेब के समय कछवाहो और मुगलों के सम्बन्ध खराब हो गए थे और औरगज़ेब के अंतिम समय मै कछवाहो ने मुगलों से दूरी बना ली थी।

मात सुणावै बालगां,
       खौफ़नाक रण-गाथ |
काबुल भूली नह अजै,
         ओ खांडो, ऎ हाथ ||

काबुल की भूमि अभी तक यहाँ के वीरों द्वारा किये गए प्रचंड खड्ग प्रहारों को नहीं भूल सकी है | उन प्रहारों की भयोत्पादक गाथाओं को सुनाकर माताएं बालकों को आज भी डराकर सुलाती है |

महमूद गजनी के समय से ही आधुनिक शास्त्रों से सुसज्जित यवनों के दलों ने अरब देशों से चलकर भारत पर आक्रमण करना आरम्भ कर दिया था | ये आक्रान्ता काबुल (अफगानिस्तान)होकर हमारे देश में आते थे अफगानिस्तान में उन दिनों पांच मुस्लिम राज्य थे ,जहाँ पर भारी मात्रा में आधुनिक शास्त्रों का निर्माण होता था वे भारत पर आक्रमण करने वाले आक्रान्ताओं को शस्त्र प्रदान करते थे बदले में भारत से लूटकर ले जाने वाले धन का आधा भाग प्राप्त करते थे |

इस प्रकार काबुल का यह क्षेत्र उस समय बड़ा भारी शस्त्र उत्पादक केंद्र बन गया था जिसकी सहायता से पहले यवनों ने भारत में लुट की व बाद में यहाँ राज्य स्थापना की चेष्टा में लग गए | ऐसी परिस्थिति में आमेर के शासक भगवानदास व उनके पुत्र मानसिंह ने मुगलों से संधि कर अफगानिस्तान (काबुल) के उन पांच यवन राज्यों पर आक्रमण किया व उन्हें इस प्रकार तहस नहस किया कि वंहाँ राजा मानसिंह के नाम का इतना भय व्याप्त हो गया कि वहां की स्त्रियाँ अपने बच्चों को राजा मानसिंह के नाम से डराकर सुलाने लगी | राजा मानसिंह ने वहां के समस्त हथियार बनाने वाले कारखानों को नष्ट कर दिया व श्रेष्ठतम हथियार बनाने वाली तकनीक को जयगढ़ (आमेर) में स्थापित करवाया |

इस कार्यवाही के परिणामस्वरुप ही यवनों के भारत पर आक्रमण बंद हुए व बचे-खुचे हिन्दू राज्यों को भारत में अपनी शक्ति एकत्रित करने का अवसर प्राप्त हुआ | मानसिंह की इस कार्यवाही को तत्कालीन संतो ने भी पूरी तरह संरक्षण दिया व उनकी मृत्यु के बाद हरिद्वार में उनकी स्मृति में हर की पेड़ियों पर उनकी एक विशाल छतरी बनवाई | यहाँ तक कि अफगानिस्तान के उन पांच यवन राज्यों पर विजय के चिन्ह स्वरुप जयपुर राज्य के पचरंग ध्वज को धार्मिक चिन्ह के रूप में मान्यता प्रदान की गयी व मंदिरों पर भी पचरंग ध्वज फहराया जाने लगा | 

आज भी उनके बारे यह उक्ति प्रसिद्ध है -
*माई एडो पूत जण, जैडौ मान मरद |*
*समदर खान्ड़ो पखारियो ,काबुल पाड़ी हद ||*

नाथ सम्प्रदाय के भक्त गंगामाई के भजनों में धर्म रक्षक वीरों के रूप में अन्य राजाओं के साथ राजा मानसिंह का यश गान आज भी गाते है ।

 राजा मान सिंह जी अपने साथ चारण ( कवि ) रखा करते थे । दो ऐसे अवसर आए जब कवियो ने मान सिंह जी का मनोबल बढाया । जब काबुल जाते समय अटक ( अब पाकिस्तान मे है) मे सिंधू नदी पार करते समय सेना शंकित हो रही थी । तब कवि ने कहा :-
सब भूमि गोपाल की
          या मे अटक कहा ।
जां के मन मे अटक है
           वो ही अटक रहा ।।  
( अर्थात् ये सारी धरती भगवान की है इसमे अडचन कहा है ? किन्तु जिनके मन मे अडचने है केवल वही लोग अटके (रूके ) हुए हैं । ) ये सुनते ही सबसे पहले मान सिंह जी ने सिंधु नदी को पार किया बाद मे उनके पीछे सेना ने पार किया । 
 
कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है- आमेर, मानसिंह के समय एक शक्तिशालीऔर विस्तृत राज्य हो गया था । भारतवर्ष के इतिहास में मानसिंह के समय कछवाहा लोगों ने खुतन से समुद्र तक अपने बल, पराक्रम, और वैभव की प्रतिष्ठा की थी ।

मानसिंह जी ने उडीसा और आसाम को जीता । और इन्होंने बिहार , बंगाल, दक्षिण और काबुल को जीतकर वहां शासन किया । 
मान सिंह जी अपनी नौसेना बनाकर श्रीलंका पर आक्रमण करने वाले थे परन्तु एक चारण ने कहा :-
*रघुपति दीनो दान,*
         *विप्र विभिसन जानिके ।*
*मान महिपत मान,*
        *दियो दान किमी लीजिये ।।*
{ भगवान राम ने विभीषण ( ब्राह्मण ) को श्रीलंका दान मे दे दिया । }
हे राजा मानसिंह ,रूको । एक बार कुछ भी दान कर दिया जाए , उसे वापस नही लिया जाता है । 
[श्रीलंका राजा मानसिंह के पूर्वज अयोध्या के राजा श्रीराम द्वारा जीता गया और रावण के सौतेले भाई विभीषण को राज करने के लिए दे दिया गया ।] 
कहा जाता है कि इसके बाद राजा मानसिंह जी ने श्रीलंका पर आक्रमण करने का विचार त्याग दिया ।

*राजा मानसिंह और सनातन धर्म:*

आमेर के इतिहास प्रसिद्ध राजा मानसिंह सनातन धर्म के अनन्य उपासक थे। वे सनातन धर्म के सभी देवी और देवताओं के भक्त थे व स्वधर्म में प्रचलित सभी सम्प्रदायों का समान रूप से आदर करते थे| उनकी धार्मिक आस्था पर भले ही समय समय पर किसी सम्प्रदाय विशेष का प्रभाव रहा हो, पर वे हमेशा एक आम क्षत्रिय की भांति अपनी कुलदेवी, कुलदेवता व इष्ट के उपासक रहे| अपनी दीर्घकालीन वंश परम्परा के अनुरूप राजा मानसिंह ने सभी सम्प्रदायों के संतों का आदर किया पर उनके जीवन पर रामभक्त संत दादूदयाल का सर्वाधिक प्रभाव रहा। 

राजा मानसिंह के काल में अकबर ने धर्म क्षेत्र में नया प्रयोग किया और अपने साम्राज्य में एक विश्वधर्म की स्थापना के लिए “दीने इलाही” धर्म विकसित किया| अकबर के भरसक प्रयत्न के बाद भी वे अपने स्वधर्म से एक इंच भी दूर हटने को तैयार नहीं हुये| अकबर के दरबारी इतिहासकार बदायुनी का कथन है कि “एक बार 1587 में जब राजा मानसिंह बिहार, हाजीपुर और पटना का कार्यभार संभालने के लिए जाने की तैयारी कर रहे थे तब बादशाह ने उन्हें खानखाना के साथ एक मित्रता का प्याला दिया और दीने इलाही का विषय सामने रखा| कुंवर ने दृढ़ता 
से धर्म परिवर्तन का प्रस्ताव ठुकरा कर अपने स्वधर्म में अप्रतिम आस्था प्रदर्शित की| रॉयल ऐशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल के जरनल में मि. ब्लैकमैन ने अपने लेख में लिखा है- “अकबर के अनुयायी मुख्यरूप से मुसलमान थे| केवल बीरबल को छोड़कर जो आचरणहीन था, दूसरे किसी हिन्दू सदस्य का नाम धर्म परिवर्तन करने वालों में नहीं था| वृद्ध राजा भगवंतदास, राजा टोडरमल और राजा मानसिंह अपने धर्म पर दृढ रहे यद्धपि अकबर ने उनको परिवर्तित करने की चेष्टा की थी|

 राजा के निजी कक्ष की चन्दन निर्मित झिलमिली पर राधाकृष्ण के चित्रों का चित्रांकन राजा मानसिंह की सनातन धर्म में अटूट आस्था के बड़े प्रमाण है| आमेर राजमहल में राजा मानसिंह का निजी कक्ष में विश्राम के लिए अलग कक्ष व पूजा के लिए अलग कक्ष व पूजा कक्ष के सामने एक बड़ा तुलसी चत्वर, राजमहल के मुख्य द्वार पर देवी प्रतिमा राजा मानसिंह के धार्मिक दृष्टिकोण को समझने के लिए प्रयाप्त है|

राजा मानसिंह ने अपने जीवनकाल में कई मंदिरों का निर्माण, कईयों का जीर्णोद्धार व कई मंदिरों के रख रखाव की व्यवस्था कर सनातन धर्म के प्रचार प्रसार में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई| 
 बनारस में राजा मानसिंह ने मंदिर व घाट के निर्माण पर अपने एक लाख रूपये के साथ शाही खजाने से दस लाख रूपये खर्च कर दिए थे, जिसकी शिकायत जहाँगीर ने अकबर से की थी।
राजा मानसिंह ने अपने राज्य आमेर के साथ साथ बिहार, बंगाल और देश के अन्य स्थानों पर कई मंदिर बनवाये| पटना जिले के बरह उपखण्ड के बैंकटपुर में राजा मानसिंह ने एक शिव मंदिर बनवाया और उसके रखरखाव की समुचित व्यवस्था की जिसका फरमान आज भी मुख्य पुजारी के पास उपलब्ध है| इसी तरह गया के मानपुर में भी राजा ने एक सुन्दर शिव मंदिर का निर्माण कराया, जिसे स्वामी नीलकंठ मंदिर के नाम से जाना जाता है| इस मंदिर में विष्णु, सूर्य, गणेश और शक्ति की प्रतिमाएं भी स्थापित की गई थी| मि. बेगलर ने बंगाल प्रान्त की सर्वेक्षण यात्रा 1872-73 की अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि- “राजा मानसिंह ने बड़ी संख्या में मंदिर बनाये और पुरानों का जीर्णोद्धार करवाया| ये मंदिर आज भी बिहार में बंगाल के उपखंडों में विद्यमान है| रोहतास किले में भी राजा मानसिंह द्वारा मंदिर बनवाये गए थे|

मानसिंह जी के कारण ही आज जगन्नाथ पुरी का मंदिर मस्जिद नही बना । उड़ीसा के पठान सुल्तान ने जगन्नाथ पुरी के मंदिर को ध्वस्त करके मस्जिद बनाने का प्रयास किया था, जब इसकी सूचना राजा मानसिंहजी को मिली, तब उन्होंने अपने योद्धा उड़ीसा भेजे, किन्तु विशाल सेना के कारण सभी वीरगति को प्राप्त हुए । उसके बाद राजा मानसिंह स्वयं उड़ीसा गए, ओर पठानों ओर उनके सहयोगी हिन्दू राजाओ को कुचलकर रख दिया ।। उसके बाद पठान वर्तमान बंगाल की ओर भाग गया । जगन्नाथ मंदिर की रक्षा हिन्दू इतिहास का सबसे स्वर्णिम इतिहास है । यह हिंदुओ के सबसे प्रमुख मंदिरों में से एक है ।। राजा मानसिंह जी महान कृष्ण भक्त थे, उन्होंने वृंदावन में सात मंजिला कृष्णजी ( गोविन्ददेव जी ) का मंदिर बनाया ।। बनारस के घाट, पटना के घाट, ओर हरिद्वार के घाटों का निर्माण आमेर नरेश मानसिंहजी ने ही करवाया था । जितने मंदिर मध्यकाल से पूर्व धर्मान्ध मुसलमानो ने तोड़े थे, वह सारे मंदिर मानसिंहजी ने बना दिये थे, किन्तु औरंगजेब के समय मुगलो का अत्याचार बढ़ गया था , ओर हिन्दू मंदिरों का भारी नुकसान हो गया।

मथुरा के तत्कालीन छ: गुंसाईयों में से एक रघुनाथ भट्ट के अनुरोध पर राजा मानसिंह ने वृन्दावन में गोविन्द देवजी का मंदिर बनवाया था|
आमेर के किले शिलादेवी का मंदिर भी राजा मानसिंह की ही देन है| शिलादेवी की प्रतिमा राजा मानसिंह बंगाल में केदार के राजा से प्राप्त कर आमेर लाये थे| परम्पराएं इस बात की पुष्टि करती है कि राजा मानसिंह ने हनुमान जी की मूर्ति को और सांगा बाबा की मूर्ति को क्रमश: चांदपोल और सांगानेर में स्थापित करवाया था| आज भी लोक गीतों में गूंजता है-

आमेर की शिलादेवी, सांगानेर को सांगा बाबो ल्यायो राजा मान|

आमेर में जगत शिरोमणी मंदिर का निर्माण कर उसमें राधा और गिरधर गोपाल की प्रतिमाएं भी राजा मानसिंह द्वारा स्थापित करवाई हुई है| 
मंदिर निर्माणों के यह तो कुछ ज्ञात व इतिहास में दर्ज कुछ उदाहरण मात्र है, जबकि राजा मानसिंह ने सनातन धर्म के अनुयायियों हेतु पूजा अर्चना के के कई छोड़े बड़े असंख्य मंदिरों का निर्माण कराया, पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया और कई मंदिरों के रखरखाव की व्यवस्था करवाकर एक तरह से सनातन धर्म के रक्षक के रूप में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई|

राजा मान सिंह भारतीय इतिहास के महानतम राजाओं में से एक है। उनके जैसे वीर योद्धा विरले ही हुए है। 


शनिवार, 21 जून 2025

मारवाड़ नरेश मंडोर के शासक राव रणमल(रिङमल) राठौड़ व वंशज

मारवाड़ नरेश मंडोर के शासक राव रणमल(रिङमल) राठौड़ व वंशज
  
राव रिङमल के 28 पुत्र हुए एवं राठौङ कुल की 22  शाखाएं चली सभी 28 पुत्र राव पदवी कहलाए
 मारवाड़ नरेश राव रणमल भारी भरकम शरीर के बहुत ही खतरनाक शूरवीर क्षत्रिय बलिष्ठ वीर पुरुष योद्धा थे।

राव रणमल ने कई क्षेत्र जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया। राव रणमल की 8 रानियों व पुत्रों के कारण उनका परिवार काफी बड़ा था, जिससे काफी वंश वृद्धि हुई।

राव रणमल के पुत्रों का वर्णन :- 
राव रणमल के पुत्रों से राठौड़ वंश की शाखाओं का जितना प्रसार हुआ है, उतना किसी अन्य राठौड़ शासक के पुत्रों से नहीं हुआ।

राव रणमल के पुत्रों की संख्या कहीं 24, तो कहीं 26 बताई गई है। मुझे विभिन्न ख्यातों पूर्व इतिहासों के शोध से राव रणमल के कुल 28 पुत्रों के नाम मिले हैं, जो इस तरह हैं :-

(1) राव कुँवर अखैराज :- ये राव रणमल के ज्येष्ठ पुत्र थे। अखैराज की मुख्य जागीर बगड़ी थी। अखैराज जी के वंश से राठौड़ों की कुल 5 शाखाएं चलीं। अखैराज के पुत्र मेहराज, पचायण हुए। मेहराज ईनके पुत्र कूंपा जैता हुए। बड़े ही वीर पुरुष थे। (जैतावत कुंपावत भंडावत कलावत राणावत)

ईनका व उनके वंशजों का इतिहास गौरवशाली रहा। कूंपा के वंशज कूंपावत कहलाए। कूंपावत राठौड़ों के आसोप सहित कुल 54 ठिकाने हैं। पचायण के पुत्र जैता हुए, जिनके वंशज जैतावत कहलाए।

जैतावत राठौड़ों के कुल 13 ठिकाने हैं। पचायण के पुत्र भदा जी से भदावत शाखा चली। भदावत राठौड़ों के भदावतों का गुड़ा,रावर सहित कुल 4 ठिकाने हैं।

अखैराज जी के पुत्र रावल जी हुए, रावल जी के पुत्र जोगीदास जी हुए, जोगीदास जी के पुत्र कला जी हुए। कला जी से कलावत शाखा चली। अखैराज जी के पुत्र राणाजी से राणावत शाखा चली। इस शाखा का स्थान पालड़ी है।

(2) राव कुंवर जोधा :- ये राव रणमल के देहांत के बाद मारवाड़ के अगले शासक बने। इनके वंशजों के लाडनूं, भाद्राजूण आदि कुल 152 ठिकाने हैं। राव जोधा ने ही जोधपुर का ऐतिहासिक मेहरानगढ़ किला एवं नगर जौधाणा,जोधपुर की स्थापना की थी।

(3) कुँवर राव कांधल :- इनके वंशज कांधलोत कहलाए। इनके वंशज अधिकतर बीकानेर की तरफ हैं। रावतसर, बीसासर, बिलमु, सिकरोड़ी आदि 70 से अधिक कांधलोत राठौड़ों के ठिकाने हैं।

(4) कुँवर चांपा :- मंडोर से 15 कोस पूर्व में स्थित कापरड़ा नामक गाँव इन्होंने ही बसाया। इनके वंशज चांपावत कहलाए।
चांपावत राठौड़ों की बल्लू दासोत, आईदानोत, विट्ठलदासोत आदि कुल 15 उप-शाखाएं हैं। इनके पोकरण, हरसोलाव आऊवा, पीलवा, कापरड़ा, रनसीगांव, दासपा, सिणली, रोहट, आदि बड़े ठिकाना सहित कुल 109 ठिकाने हैं।
वीर बल्लू चंपावत जिनमें मरणोपरांत दौ बार वीरता की घटना है व 1857 की क्रांति में अंग्रेजों को धूल चटाने वाले महान क्रांतिकारी ठाकुर कुशालसिंह जी इन्हीं चांपा जी के वंशज थे।

(5) कुँवर लखा/लाखा :- इनके वंशज लखावत कहलाए, यह जोधा के पुत्र बीका के साथ गए थे जो बीकानेर में रहे। इनके अधिकतर ठिकाने बीकानेर में ही हैं।

(6) कुँवर भाखर :- इनके वंशज भाखरोत राठौड़ कहलाए। भाखर के पुत्र बाला हुए, जिनके वंशज बालावत कहलाए। इनके मोकलसर आदि कुल 40 ठिकाने हैं।

(7) कुँवर डूंगरसी :- इनके वंशज डूंगरोत कहलाए, जो भाद्राजूण में रहे। बाद में भाद्राजूण पर जोधा राठौड़ों का अधिकार हुआ।

(8) कुँवर जैतमाल :- इनके पुत्र भोजराज हुए, जिनके वंशज भोजराजोत कहलाए। भोजराज को राव जोधा ने पालासणी गांव दिया। इस तालाब के किनारे जोगी का आसन है, जिसका निर्माण भोजराज ने करवाया था।

(9) कुँवर मंडला :- इनके वंशज मंडलावत कहलाए। मंडला को राव जोधा ने सारूंडा गांव दिया। चंंरकडां, भँवरानी समेत इनके कुल 9 ठिकाने हैं।

(10) कुँवर राव पाता :- इनके वंशज पातावत कहलाए। आऊ, चोटिला, करनू, चाडी बरजानसर, समेत इनके कुल 15 ठिकाने हैं।

(11) कुँवर राव रूपा :- इनके वंशज रूपावत कहलाए। राव जोधा ने चाडी पुनासर मानेवड़ा का पट्ठा रूपा को दिया था भेलू ऊदट उदासर,मूंजासर, चाखु,भेड़ आदि ठिकाने रूपावत राठौड़ों के हैं। रूपावत वीर पुरुष राव भोजराज भेलू, ठा.सरदार सिंह पल्ली एवं क्षत्रिय संस्कार की ऐतिहासिक घटना चिमटी नमक के कारण शीश कटाने वाले खेत सिंह चाङी जैसे महान वीर हुए हैं इनके कुल 21 ठिकाने हैं।

(12) कुँवर राव करण :- इनके वंशज करणोत कहलाए। इन्हीं के वंश में मारवाड़ केसरी राष्ट्रवीर शिरोमणि वीर दुर्गादास राठौड़ ने जन्म लिया था। राव जोधा ने करण को सालवा का पट्टा जागीर में दिया।
एक ख्यात में करणोत के मूडी, कनाणो, समदड़ी, बाघावास, झंवर, सुरपुरा, कीटनोद, चांदसमा, मुड़ाडो, जाजोलाई आदि कुल 18 ठिकाने होना लिखा है।

(13) कुँवर राव साडा/सांडा :- इनके वंशज साडावत कहलाए।

 (14) कुँवर राव मांडण :- इनके वंशज मांडणोत कहलाए। पहले मांडण को गुडो, मोगड़ो, झंवर आदि गांव जागीर में मिले थे। एक ख्यात में मांडणोत राठौड़ों के अलाय आदि कुल 7 ठिकाने होना लिखा है।

(15) कुँवर राव नाथा :- इनके वंशज नाथावत/नाथोत कहलाए। बीकानेर में नाथूसर आदि गांवों में इनका निवास है। उक्त गांव नाथा जी ने ही बसाया।

(16) कुँवर राव ऊदा :- इनके वंशज ऊदावत कहलाए। बीकानेर में ऊदासर गांव बसाया बीकानेर के काफी गांवों में इनका निवास है।
 (17) कुँवर राव वैरा :- इनके वंशज वेरावत कहलाए। पहले इनका ठिकाना दूदोड था।

(18) कुँवर राव हापा :- इनके वंशज हापावत कहलाए।

 (19) कुँवर राव अड़वाल :- इनके वंशज अड़वालोत कहलाए। इनके वंशजों का निवास मेड़ता के गांव आछीजाई में रहा।

(20) कुँवर सावर/सायर :- इनका देहांत धणला के तालाब में डूबने से हुआ। इनका देहांत बाल्यावस्था में ही हो गया था।

(21) कुँवर जगमाल :- इनके वंशज जगमालोत कहलाए। जगमाल के पुत्र खेतसी हुए। खेतसी से खेतसीगौत शाखा चली। खेतसी के वंशजों का निवास नेतड़ां नामक गाँव में था।

(22) कुँवर सगता/शक्ता :- वीरगति को बालक अवस्था में ही

(23) कुँवर गोइंद :- इनका देहांत हो गया था। 

(24) कुँवर करमचंद :- इनसे करमचंदोत शाखा चली। करमचंद का देहांत शीतला (चेचक बीमारी) से हुआ।

(25) कुँवर सूडा :- इनको भी वंशज का इतिहास गुमनाम

(26) कुँवर तेजसी :- इनसे तेजसीगौत शाखा चली। अभी गुमनाम है

(27) कुँवर बनवीर :- इनसे बनवीरोत शाखा चली। इनका भी खास पता नहीं ह

(28) कुँवर गोपा इनका भी इतिहास गुमनाम है

नोट- राव रिङमल के इन 28 पुत्रौ की शाखों की कहानी, निवास या निवास स्थान की जानकारी एवं इतिहास हो तो जरूर बताएं ताकि इतिहास शुद्धिकरण हो जाए

हूँ रण लड्यो

जो लोग क्षत्रियों को अत्याचारी ठाकुर और निर्दयी सामन्त के रूप में प्रचारित कर रहे है वो जरा इन पंक्तियों को पढ़कर जबाब देवे।

हूँ रण लड्यो हूँ अडिग खड्यो, लोगां री लाज बचावण न।
मानस र खातर हाजिर रहतो, मौत सूं आँख मिलावण न।।

लोग काह्व ठुकराई करतो, हूँ सोतो नागां रा बाड़ा म।
कुटम्ब कबीलो खोयो सारो, रण खून टपकतो नाड़ा म।।

तलवारों रो वार झेलतो, थारा ही घर बसावण न।
चौसठ फोर मौत नाचती, मौत री सजा सुणावण न।।

कुण सामन्ती कयाँ रा ठाकर, म्हे तो चौकीदार रह्या।
खुद न छोटा बता हमेशा, थे गढ़ रा गदार रह्या।।

सौ सौ घावां धड़ झेल्या, पूत सागेड़ा रण मेल्या।
थारा घर रा दिवला ताणी, म्हे तो रातां रण खेल्या।।

छोड्या पूत पालण सोता, छोड़्या म्हे दरबारां न।
रोती छोड़ मरवण न म्हे तो, धारी ही तरवारां न।।

कदे भेष में साँगा र तो, कदे मैं पिरथिराज बण्यो।
कदे प्रताप भेक बणा र, मेवाड़ी री कुख जण्यो।।

मैं ही तो बो शेखों जिण न धर्म रो पाठ पढ़ायो हो।
धर्म धरा अर धेनु ताणी, खुद रो शीश चढायो हो।।

कियां भूलग्या हठ हाडा रो, क्यों भुल्या बाँ रणधीरां न।
थारी खातर रण मं कटता, कियाँ भुल्या थे बाँ वीरां न।।

न ब धर्म जात में बंटता, ना ही कुटम कबिलां में।
पिढ्यां खुद री रण में मेली, राखण खुशियां थारा कबीला मे।।

बण राणोजी महल म्हे छोड़्या, थारो मान बचावण न।
फण थे के बाकी छोड़ी, दोख्यां रो साथ निभावण न।।

रुगा चुग्गा दे दे पाळया, ब ही फण फैलायो है।
ना जोगा फुँकार है मारी, विष ओ घोळ पिलाय