शनिवार, 13 अक्टूबर 2018

तोप-अनौखी परंपरा

तोप /अनौखी परंपरा/जानकारी
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जोधपुर दुर्ग से रियासत काल में परम्परानुसार तीन तोपें प्रतिदिन छोडी जाती थी ।
पहली - दिन के 12 बजे
दूसरी - 9 बजे
तीसरी - 10 बजे ।
अंतिम तोप दस बजे छूटने के बाद जोधपुर शहर के परकोटे के सभी दरवाजे व खिड़कियां बंद कर दी जाती थी ।
बिना शहर कोतवाल की आज्ञा के न तो कोई आ सकता था न कोई जा सकता था । परकोटो के अंदर रात्री में रोशनी के लिए रियासत द्वारा महराजा सरदारसिंह के समय1904 में 70 लालटेनें लगवाई गई थीं उस दौर में प्रतिमाह बारह आना प्रति लालटेन खर्च किये जाते थें । एवं रात्रि में प्रजा सुरक्षा के लिए कई चौकीदार नियुक्त थे ।
यह तोपें दागने की परम्परा मारवाड रियासत के  अनुशासन, शौर्य की प्रतीक थी।
जो देश आजादी के बाद तक चलती रही। जिसे 19 मार्च 1952 के बाद प्रतिदिन की परम्परा को खत्म कीया गया ।
इसके बाद जोधपुर रियासत के भारत गणराज्य में विलय होने के पश्चात केवल तोप राजपरिवार के राज्याभिषेक, पुत्र जन्म, दशहरा, दीवाली, ईद, विवाह, जन्मदिन पर तोपें दागी जाती थी, जिसका लेखा-जोखा रजिस्टर में रखा जाता था। जो रजिस्टर आज भी मेहरानगढ संग्रहालय में मौजूद हैं। जिसमे 10 अक्टूबर 1973 तक तोप दागने का लेखा-जोखा दर्ज हैं ।
रजिस्टर के अनुसार नवरात्रि स्थापना पर 7 तोप
उथापना पर 11
दशहरे पर 19
दीवाली लक्ष्मीपूजन पर 1
महाराजा के जन्मदिन पर 15
महाराजा के द्वारा किले पहुंचने तथा प्रस्थान करने पर 4
नये चांद {रोजा} के दिखने पर 1 तोपें छोडी जाती थी ।
'किलकीला' एवं 'जमजमा' तोप का धमाका अत्यंत भयंकर व उग्र होता था । आज मेहरानगढ दुर्ग में 'कडकबिजली' 'नुसरत' 'शम्भुबाण' 'बगरूवाहन' गुब्बारा' धूडधाणी' 'हडमानहाक' 'बिछुबाण' जैसी दर्जनो तोपें मौजूद हैं । जो आज भी भूतकाल के शौर्यपूर्ण इतिहास को ताजा करती हैं ।
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रविवार, 7 अक्टूबर 2018

रौंगटे खड़े कर देगी ये दास्तान

सबसे आगे युद्घ लड़ने के लिए दिया एेसा बलिदान, रौंगटे खड़े कर देगी दास्तान

  
राजस्थान के वीर योद्घा युद्घ की घड़ी में सबसे आगे रहने के लिए हर वक्त तैयार रहते थे। सबसे आगे रहने की एेसी ही कहानी है चूण्डावतों आैर शक्तावतों की।

राजस्थान का हर जर्रा वीरता आैर शौर्य की कहानियों से अटा पड़ा है। यहां के कण-कण में एेसी हजारों कहानियां हैं जिनमें यहां के वीर योद्घा मातृभूमि की रक्षा आैर आत्म सम्मान के लिए हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहूति दे देते हैं। राजस्थान का इतिहास बताता है कि पराक्रमी वीर योद्घा युद्घ की घड़ी में सबसे आगे रहने के लिए हर वक्त तैयार रहते थे। युद्घ में सबसे आगे रहने की एेसी ही एक कहानी है चूण्डावतों आैर शक्तावतों की।

मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह की सेना में दो राजपूत रेजीमेंट चूण्डावत आैर शक्तावत हमेशा से ही अपनी श्रेष्ठता सिद्घ करने के लिए प्रयासरत रहते थे। मेवाड़ की सेना में चूण्डावतों को 'हरावल' यानी युद्घ में सबसे आगे रहने का गौरव प्राप्त था।
महाराणा लाखा के ज्येष्ठ पुत्र रावत चूंडा ने मेवाड़ के राज्याधिकार छोड़ा था जिस कारण लाखा ने रावत चूडा वंशजो को यह सम्मान दिया गया था। हालांकि शक्तावत उनसे कम पराक्रमी नहीं थे। शक्तावत भी चाहते थे कि हरावल दस्ते का प्रतिनिधित्व वे करें। अपनी इस इच्छा को उन्होंने महाराणा अमर सिंह के सामने रखा आैर कहा कि वे वीरता आैर बलिदान देने में किसी भी प्रकार से वे चूण्डावतों से कम नहीं हैं।

शक्तावतों की इस बात से अमरसिंह पशोपेश में पड़ गए। उन्होंने इस पर काफी विचार करने के बाद अपना फैसला सुनाया। उन्होंने कहा कि दोनों दल उन्टाला दुर्ग पर अलग-अलग दिशा से एक साथ आक्रमण करेंगे। इसके बाद जिस दल का योद्घा इस दुर्ग में पहले पहुंचेगा उसे ही युद्घों में सबसे आगे रहने का गौरव मिलेगा। ये किला बादशाह जहांगीर के नियंत्रण में था आैर उस वक्त फतेहपुर का नवाब समस खां वहां का किलेदार था।

युद्घ शुरू हुआ आैर शक्तावत दुर्ग के फाटक पर पहुंचकर इसे तोड़ने की कोशिश करने लगे तो चूण्डावतों ने रस्सी के सहारे दुर्ग पर चढ़ने की कोशिश की। कहते हैं कि जब दुर्ग को तोड़ने के लिए शक्तावतों ने हाथी को आगे बढ़ाया गया तो वह सहमकर पीछे हट गया। फाटक पर नुकीले शूल थे, जिसके कारण वह आगे बढ़ने से हिचकिचा रहा था। ये देखकर शक्तावतों के सरदार बल्लू अपना सीना शूलों से अड़ाकर खड़े हो गए। उन्होंने महावत को हाथी को आगे बढ़ाने का हुक्म दिया। महावत से जब एेसे करते न बना तो उन्होंने कठोर शब्दों में एेसा करने के लिए कहा। महावत ने उनका हुक्म मानते हुए हाथी को आगे बढ़ाया आैर सरदार बल्लू के सीने को नुकीले शूलों ने बींध दिया। उन्होंने इस युद्घ में वीरता पार्इ। सरदार बल्लू का बलिदान देखकर वहां पर मौजूद हर कोर्इ उनके आगे नतमस्तक था।

चूंण्डावतों ने ये देखा तो उन्हें लगा कि शक्तावत इस तरह से किले में पहले पहुंचने में कामयाब हो जाएंगे। यह देखकर चूण्डावताें के सरदार जैतसिंह चूण्डावत ने अपने सिपाहियों काे वो आदेश दिया जिसे सुनकर आज भी लोगों के रौंगटे खड़े हो जाते हैं। उन्होंने अपने सैनिकों से कहा कि दुर्ग में पहले पहुंचने की शर्त को पूरा करने के लिए मेरे सिर को काटकर किले के अंदर फेंक दो। कहते हैं कि जब उनके साथी एेसा करने को तैयार नहीं हुए तो उन्हेांने खुद अपना सिर काटकर किले में फेंक दिया।

शक्तावत जब फाटक तोड़कर अंदर घुसे तो उन्हें वहां पर चूडावतों के सरदार जैतसिंह चूडावत का मस्तक किले के अंदर दिखा। चूडावतों ने हरावल का अधिकार अपने पास रखा। ये युद्घ दिखाता है कि राजस्थान की मिट्टी में पैदा होने वाले वीर अपने जीवन के लिए नहीं बल्कि अपने सम्मान के लिए जीते हैं आैर इसके लिए वे स्वयं का बलिदान देने से भी पीछे नहीं हटते।

शनिवार, 1 सितंबर 2018

कच्छावा वंश की कुलदेवी जमवाय माता जमवा रामगढ़ जयपुर पर दोहे, सोरठे व मुक्तक

क्षत्रिय साहित्यिक व्हाट्सएप समुह "साहित अर शमशीर" के कवियों द्वारा "कच्छावा वंश की कुलदेवी जमवाय माता जमवा रामगढ़ जयपुर " पर दोहे, सोरठे व मुक्तक लिखे गए।
जयश्री कंवर भामोलाव कृत
(1)
शीश झुका अरजी करा,सबकी करो सहाय
आया थाकी हाजरी जय माता जमवाय
(2)
मिंदर जमुआ रामगढ़ शोभा बरनी न जाय,
हिरदा में हरदम बसो,जय माता जमवाय
(3)
गऊ मात रा रूप म,परगट करी सहाय
दूल्हेराय जिंदा करि, जय माता जमवाय.
(4)
कुलदेवी किरपा करे, बिगड़ृया काम बणाय,
सुमिरण करस्या आपने, जय माता जमवाय
(5)
जगमग जोत जले सदा, मां रे मंदिर मांय।
मनभावन मां की छबी, जय माता जमवाय।।
(6)
लाल चूनड़ी ओढ़ के, मंद मंद मुसकाय
भगती दीजै भगवती, जय माता जमवाय.
(7)
कुंकू मेंदी चूड़लो, मायड़ मन में भाय
लोग लुगाई पूजता, जय माता जमवाय.
(8)
दीयो बाती आरती , इत्तर गंध सुहाय
ढोल नगाड़ा बाजता, जय माता जमवाय.
(9)
बरफी लपसी गुलगुला छप्पन भोग लगाय
थाल परोसाँ प्रेम सूँ, जय माता जमवाय.
(10)
टाबर नीका राखजै, सत की राह दिखाय
अला बला ने टालजै, जय माता जमवाय.
संतोष कंवर राठौड़ बाबरा कॄत
(1)
सिंह सवारी मात की ,हाथ लिए तलवार।
लांगुर बाबा साथ में ,भैरु चले पिछवार।।
(2)
जोत जले जमवाय की, भेंट चढे नारेळ।
आई शरणे आपकी ,दर्शन दो ना शैल।।
(3)
चंदन चौकी बैठ मां ,दूध पखारू पाय।
अरज करूं जमवाय को ,बैठौ आसन आय।।
(4)
हाथाँ सोवै चूड़लो ,गळ में नौसर हार।
लाल कसूमल ओढ़णी,बैठी मां दरबार।।
श्रवण सिंह राजावत जोधपुर कृत
(1)
हरसिद्धि को रूप माँ ढूंढाड़ धरा री माय
दुल्हराय हित प्रगटी जय हो मां जमवाय
(2)
जम को फन्द कटावती भगता रे हित आय
जमुवागढ़ री धणी जय माता जमवाय
कल्याण सिंह शेखावत राजनोता कृत
(1)
जंगल में मंगल कर्या, जै जै जमवा मात।
नित्य हरख सेवा करें,कछवाहा दिन रात
(2)
जात जड़ूला थान पे, गठजोड़ा की जात।
चढै चूनड़ी देवरै, भोग लापसी मात।।
(3)
कछवाहा के साथ में, पूजै सातूं जात।
भेदभाव बिन मावड़ी,सबको जीमै भात
(4)
मायड़ थारा थान पे, जोत जगै दिन रात,
राज सवाई भेंट दे, मणां तेल घृत बात।।
(5)
छट बारूं म्हैनां भरे, मेल़ो जमवा मात।
चोर उचक्का ऐबला, करें नहीं आघात।।
*मानसिंह शेखावत "मऊ" कृत
(1)
तूँ माँ शक्तिदायीनी, तूँ जीवन आधार।
माता आ रक्षा करो,संकट में परिवार।।
(2)
सिंह सवारी मात की,हाथ लिये तलवार।
अरि का माँ संहार कर,हम बालक लाचार।।
(3)
वन-जंगल में वास है, खड्ग लिये माँ हाथ।
अमन-चैन चहुँ ओर माँ,यह गौरव की बात।।
(4)
श्रद्धालू आते सभी,दूर दूर से मात।
कुलदीपक परिवार सँग, कुल ललनाएं साथ।।
(5)
जय जय माँ जगदंबिका,जय माता जमुवाय।
मान 'मऊ' की याचना,बुद्धी करो सवाय।।

अजय सिंह राठौड़ सिकरोडी कृत
(1)
कच्छप कुळ पर छाँवड़ी, राखै मां दिन रात।
भगत रा भंडार भरै,बिगड़ी बणाय बात।।
(2)
साची सरदा सिवरतां,आवै जमवा माय।
पल मांही परमेसरी, सेवग करणै साय।।
(3)
शेखा कुळ री सारदा, मोटी कहिजे मात।
जय जय जमवा जोगणी,सगती दीजै साथ।।
(4)
जमवा मां री जातरी, करै घणी जयकार।
सिवरण सरदा भाव सूं,पल में बेड़ो पार।।
(5)
अवनी सिंवरु आपनै,मोटी जमवा मात।
अजय करै आराधना, बिगड़ बणादे बात।।
केशर सिंह शेखावत केहरपुरा कलां कृत
(1)
चोटी नीचे बास है,जयपुर से नजदीक।
भगतजन हैं पहुँचते मां से मिलना ठीक।
(2)
कच्छावा कुल पूजता, अपनी मां जमवाय।
झंडा ऊँचा फहरता, मां के शरणे आय।
(3)
नवरात्र में धमकती, सब करते हैं प्यार।
जमवा झोली पूरती, भव्य सजा दरबार।
(4)
पोशाकें व मान संग, चढे पुनित प्रसाद।
सजता अब दरबार है, भगत बढे तादाद।
(5)
अभ्यारण्य औ झील हैं, आते पर्यटक खूब।
मंदिर तलहट में खड़ा, अनुपम रूप अजूब।
(6)
घर से निकले, पहुँचते, कुल वंशी जमवाय।
राजकुँवर राजा बने, मां की चौकी आय।
(7)
मीणाओं को मात दी, राजा दूल्हेराय।
संगत देवी सोहती, अपनी मां जमवाय।
(8)
बेहोशी रण में हुई, गहन अँधेरा छाय।
दूल्हे को पुचकारती कुलदेवी जमवाय।
(9)
बुढवा के आदेश से, नाम पड़ा, जमवाय।
मंदिर में पूजन शुरु, महिमा कुल पूजवाय।
(10)
मंदिर बीचों शक्तिरूप, मूरत मां जमवाय।
दाहिने धेनू बाछड़ा, बाएं मां बूढवाय।
(11)
बाल बाल मुंडन हुवे, कच्छावा संस्कार।
राज्यारोहण परम्परा, बुढवा के दरबार।
(12)
माताजी के नाम पर बसा एक था गाँव।
आपश्री आशीष से बढा गाँव का भाव।
(13)
कांकील जी के साथ भी, मां का आशीर्वाद।
दुग्धरूप वर्षा करें, वंश हुआ आबाद।
(14)
दमन ढेर दुश्मन हुआ, गढ बासा आमेर।
जमुवा महिमा गूँजती, कुल में जन्मे शेर।
(15)
जमुवा की आशीष से, राज हुआ विस्तार।
शेखा, राजा नरूका, नाथावत सिरदार।
(16)
सभी रश्म पूरी तभी, जब पहुँचो दरबार।
पगड़ी शादी जन्मदिन, जमुवा का सत्कार।
(17)
अंतस श्रृद्धा राखीए, मात बड़ी जमवाय।
कारज पूरे भगत के, अपनी रीत निभाय।
(18)
बूढवा वंश विस्तार दे, फहर ध्वज आकाश।
फैले कच्छवाह कीर्ति, जगह जगह हो बास।
(19)
कच्छवाहा कुल कीर्ति, करे कष्ट की काट।
जमुवा जग में जय करे, करे ठाठ पर ठाठ।
(20)
दूल्हे राय राजा बने, संग खड़ी जमवाय।
राजकाज बढता रहा, आशीषों को पाय।
(21)
कच्छवाह कुल फैलता, शेखावाटी माय।
अलवर आभा चमकती, ढूँढाड़ै जमवाय।
(22)
द्वारे आकर झुक गए, राजा रंक फकीर।
मन्नत की बौछार हो, बनती है तकदीर।
(23)
सच्चे मन से पूजीए, कुलदेवी जमवाय।
संकट सारे काटती, सुख सारे ही पाय।
(24)
दुखों में जमवाय खड़ी, सब अपनो के साथ।
भगत बँटे प्रसाद अब, ऊपर देवी हाथ।
(25)
केशर कुल का पूत है, पूजे अपनी माय।
पीढी की महिमा बढे, जयकारा जमवाय।
(26)
गहन तिमिर है छा रहा, कर दो नेक उपाय।
उम्मीदों के दीप जल, मां ऊँची जमवाय।
(27)
जुल्म जोर अब बढ रहा, बढता पापाचार।
शक्ति परम जमवाय है, सभी हटाये भार।
(28)
भारत मां की बेटियां, करती करुण पुकार।
जीवन कोमल भी बचे, जमुवा कर उपचार।
(29)
धर्म ध्वजा झुकने लगी, अब रिश्तों पर मार।
बुद्धि सबको दीजिए, करें धर्म को प्यार।
(30)
वंदन क्षत्रीय कर रहे, साहित अर शमशीर।
जमुवा कृपा कीजीए, दोनो बने नजीर
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*मदन सिंह शेखावत ढोढसर कृत*
(1)
गढ जीत्यो आमेर को,थाप्यो मंदिर आय।
मंदिर  लागे सोवणो,बिराजती जमवाय।।
(2)
सहाय करती मावङी,हारे को जीताय।
युद्ध जीत दुलेराय,आमेर गढ बनाय।।
(3)
जमवाय मात देवरो,सोहे धणो सुहाय
दौङ्यो आवे जातरी,मन वांछित फल पाय ।।
(4)
कच्छावा कुल तारणी,भगत बचावण माय।
मंदिर सोहे जोरको,ऊचे भाकर माय ।।
(5)
जमवाराम बिराजती,मेरी मोटी मात।
भक्ता का कारज करे,सिवरे जो दिन रात।।
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*प्रेम सिंह राठौड़ उदावत मंडोवरी कृत*
(1)
प्रथम नमन गणराज न सुमरू शारद मात।
जग जननी जगदम्ब तूं जमवां मात अर तात।।
(2)
गणनायक शुभ लाभ संग,सुमरू शारद माय,
कुल देवी आमेर की जमुवां कीजे सहाय।।
(3)
जगजननी जगदम्ब का जग मे रूप अनेक।
राठोड़ा कुल नागणेच है आमेरा जमुवा भेक।।
(4)
आपही दुर्गा आप ही चंडी, आप ही मां जमवाय।
दुल्हे राय न दर्शन दीना, आमेर मे आय।।
(5)
नमो सदा सुत शैलजा, अम्बे मा जमुवाय।
राम  कृपा जहां हुवे लक्ष्मी  घर मे आय।।
(6)
दौषा क्षेत्र चोहाण कुल, दूल्हा को ससुराल।
जमुवाय की कृपा हुई भक्त होयग्यो निहाल।।
(7)
झाड़ी जंगल जोरका,शैल घणा चहुओर।
मां जमुवाय कृपा करी, मीणा तजदी ठौर।
(8)
दुल्हे राय घायल हुया घिरग्या चारो ओर।
मां अम्बे दर्शन दिया, मंदिर जमुवा ठौर।।
(9)
कुल कच्छावां गादी मिली, सुघड़ किलो आमेर।
कूरम धजा फरकन लगी जमुवा भक्ति जोर।।
(10)
इष्ट राम के नाम को नगर बसायो एक।
नाम राखियो राम गढ , जमुवा राखी टेक।।
(11)
ऊंचा पर्वत द्रुमदल घणा, मंदिर नींव लगाय।
जमुवा अम्बे मात को जसड़ो दुनिया गाय।।
(12)
बड़ गूजर चोहाण मे हुवे रोजका राड़।
ससरिया चोहांण संग दुल्हो आयो दहाड़।।
(13)
रज्य को विस्तार कियो मीणा मांडी राड़।
मां जमुवां की कृपा हुई ,भाग्या चूल्हा पाड़।।
(14)
आमेर को राज मिल्यो कूरम पदवी पाय।
मां जमुवां कृपा करी,आमेरा कुल माय।।
(15)
सुमरिन कर श्री राम को, पूजन मां जमुवाय।
मन चित मां को घ्यान घर्या करसी अम्बे सहाय।।
(16)
सुखदाता जमुवाय मां कच्छावां कुल करतार।
भक्ति मां जगदम्ब की,शक्ति को आधार।।
(17)
दुर्गा अम्बे काली कहो,चाहे कहो नागणेच।
आवड़ मां हिंगलाज का   प्यारा मंदिर पैच।।
अम
(18)
अम्बे मां बहू रूप धरे बगत बगत की बात।
आवड़ करणी हीगलाज सब मे मात समात।।
(19)
आप ही ब्रहमा आप ही विष्णु आप ही शिव को रूप।
आपके कारण चले चराचर जमुवां रूप अनूप।।
(20)
नमन मात जमुवाय न,मां सब की शिर मौर।
आमेरा कुल मात न.ध्यावे  प्रेम राठौड़।।
(21)
जबरी मां जमुवाय भाकर बिच मे शोहणी।
मंदिर जबर बैजोड़, मूरत है मन मोहनी।।
(22)
घिरियो दुल्हेराय, घायल कर मीणा फिरे।
सहाय करी जमुवाय माथा ऊपर हाथ धरे।।
(23)
ऊचो गढ आमेर कच्छावां कुल की धरा।
दर्शन दे जमुवाय दूल्हे जी ऊठो परा।।
(24)
उठ्यो कड़कड़ी भींच मीणा मे भगदड़ पड़ी।
भाग्या पिंड छुड़ाय दुल्हे कन मां जमुवा खड़ी।।
(25)
दुल्हेराय दल बल चढ्यो आगी मीणा मौत।
छौड़ो गढ आमेर न जमुवा जागी जोत।।
जमुवा जागी जोत अम्बे मां संग लड़े है।
कच्छावां कुल शमसीर मीणा सू आय भिड़ै है।।
कहे प्रेम पुकार पाड़ कर भागो चुल्हा।
मध्य प्रदेश सू आगयो जवाई राजा दुल्हा।।
*भवानी सिंह राठौड़ टापरवाडा़ भावुक कृत*
(1)
जमवागढ़ में जोरकी,जगजननी जमवाय!.
काछबकुळरी कीरती,राखे मोटी मांय।।
(2)
जगदम्बे जमवाय ने,जाझा करूं जुहार!
पूरो मन री कामना,भावुक करे पुकार!!
(3)
मानो मुजरो मावड़ी,बगसो बिस्वाबीस!
जमवागढ़ में जायके,नमन करूं निज सीस!!
(4)
जगमग जोतां जागरी,जमवागढ़ रे मांय!
दे आशीसां डोकरी,जगदम्बा जमवाय!!
(5)
नितका बगसे नैमतां,दरशण देवे दौड़!
काछबकुळरे काज में,रण राचै रणछौड़!!
रतन सिंह राठौड़ चापाँवत जोधपुर कृत
(1)
अवनी वंश उबारणी कूरम कुल कल्याण
शरण तिहारे रख सदा जमवा करजै जांण
(2)
आप बसो आमेर में शिला भवानी शैल
कछवा पूजै कोड कर लीला ले नारेळ
रिछपाल सिंह राठौड़ कांगसिया कृत
(1)
जाजम बीछै जोरकी, मैया मंदिर माय।
भगती भजन भाव सूं, जै जै माँ जमवाय।।
(2)
रामगढ रमे रामजी, जमवाय तणो वास।
आमेर नगर पास मे, मंदिर बणियो खास।।
(3)
दूलैसिंह पर कर दया, दर्शन दीन्हा आय।
कर किलकारी काटकी, रण मे जीत दिलाय।।
(4)
ऊंचो भवन ऊजलो, सब क्षत्रियो की शान।
खांडो खल खपावणो,जगत बचावण जान।।
(5)
जगदंब जगदीशवरी, जग जननी जमवाय।
म्हारी मोटी मावडी, सरन गये सुख पाय।।
(6)
जम से झगडो जीतसी, जय माता जमवाय।
निर्भय होवै निर्मला, इनके शरणे आय।।
(7)
अडिग अखाड़े आयसी,खडग खपर लै हाथ।
बावन भैरू जोगणी, चोसट राखै साथ।।
(8)
जोती ज्वाला जालपा, करणी काली काल।
आप जमवाय आवडा, रंग रचे रिछपाल।।
(9)
आज आंगण आयसी, साहित अरु शमसीर।
सोरा राखै शंकरी, चूनड चमकै चीर।।
(10)
माता के दरबार में, कमी रहे ना कोय।
चित चरन धरो चाहना, जमवाय जल्दी जोय।।
शिवराज सिँह चौहान'नान्धा' कृत
(1)
जमुआ रामगढ़ बांध पै,सबकी सदा सहाय !
किरपा हरदम राखिये,जय माता जमवाय !!
(2)
ढोल नगाड़ा बाजता,धजा रही फहराय !
जातर ढोकां मारता,जय माता जमवाय !!
(3)
तन मन से अरदास कर,मंदिर अन्दर जाय !
जंगल मैं मंगल करै,जय माता जमवाय !!
(4)
जोत जगै अर भोग लगै,जब मंदिर के मांय !
कटज्यां सारे कष्ट खुद,जय माता जमवाय !!
(5)
अरावली की गोद मैं,बरगद पीपल छांय !
तनमन को शीतल करै,जय माता जमवाय !!
महेन्द्र सिंह शेखावत केहरपुरा कलां कृत
(1)
कुलदेवी मां आपकी, कृपा रहे हमेश
करता सिमरन आपका, पूरा भारत देश
(2)
कुल की कीरत आपसे, कुल की हो पहचान
यशो पताका फैलती , करते मंगल गान
(3)
जग की जननी आप हो, सब की पालनहार
सच्चे मन से याद कर, करती मां उद्धार
(4)
दर्शन दे जमवाय मां, कब तक आऊं मात
तेरे खातिर ही सदा,सेवा दूं दिन रात
मूल सिंह शेखावत पीथलपुर कृत
(1)
माता के दरबार में, हर दम  जय जय कार।
मैया तेरे सामने, हाजिर बारम्बार।।
(2)
कुलदेवी को राम गढ़ ,लाये दूल्हे राय।
माता की आशीष से, विजय हुई भरपाय।।
(3)
जमे रामगढ स्थित है,मन्दिर मां जमवाय ।
इच्छा फल सबको मिले, कृपा दृष्टि सब पाय।।
(4)
पर्वत माला ओट में, बसती माँ जमवाय ।
धरा मन को मोह रही , बाग बाग हो जाय।।
(5)
माता तेरी आरती,गाऊँ सुबहा शाम।
काज तो सिद्ध  हो गये, दिया बहुत आराम ।।
महेन्द्र सिंह राठौड़ जाखली कृत
(1)
जग उजियारा कर दिया, कीरत बढी़ भरपूर
दुल्हे राय व मात तो, हीरा कोही नूर
(2)
राठौड़ी सरदार भी,करे आपको मान
नमन करूं जमवाय को,रखना मेरा ध्यान
(3)
जीतो गढ़ आमेर को,राजा दुल्हे राय
राजधानी बना यहां, कहती हूँ मैं माय
(4)
परचम लहरा राम का,करती हूँ आबाद
मैं देती हूं आज तो,तुझको आर्शीवाद
(5)
दुल्हे राजा बन गया,माता जी का दूत
नरवर शासक सोढ के,ऐसा हुआ सपूत
(6)
विपती में भी साथ है,माता ये जमवाय
ऐसी मैया ना मिले,हरदम करे सहाय
(7)
सिंह सवारी आपकी,मैया तेरी आज
लाल धजा लहरा रही,करे धरा पर राज
(8)
सारे जग में दे रही परचे हाथों हाथ
राज काज सब देखती,रण में रहती साथ
(9)
दानव दल को मारती,करती बूरा हाल
हाथों में हथियार ले,संघारती बेहाल
(10)
भागी आती जोर से, याद करो तो मात
भगत की तो खास है,दिन देखे ना रात
(11)
राम वंश पर मात ने, किया बहुत उपकार
सभी समर में साथ थी,लेती सारे भार
कुँवर विराज शेखावत भडुन्दा कृत
(1)
कीरत कुळ कछवाह री, ऊंची करे सदाय।
शेखावत सिमरे सदा, जय माड़ी जमवाय।।
(2)
कूरम कूल रो आप कियो, नोकुंटा में नाम।
जमवागढ़ जगदंब सूं, पहचाणीजे धाम।।
(3)
सतजुग सु अब तक सगती,नित आ करी सहाय।
बुढ़वाय कदे भगवती, कदे बणी जमवाय।।
(4)
आदिपुरुष शेखा कुळ रो,जद सिमरी जमवाय।
पवन वेग परमेशरी,  ऊभी आडी आय ।।
(5)
मुर्छित जद राजा भयो, रण में दूलेराय।
मीणा मारण मावड़ी,झटपट दियो जिवाय।।
(6)
आगे आगे अम्बिका, लारे बावन लार।
मार काट हुई मोकळी,कूरम वीर अपार।।
(7)
ढूंढ नदी रा देश में,कछवाहा थिरपाय।
इक आमेर सु जेपर तक, बस जे जे जमवाय।।
(8)
कुळदेवी करुणामयी, होण न देती हाण।
इक तू आडी आवती, दूजी वा धणियाण।।
(9)
भोडकी में भगवती, थिरपिज्यो तुझ थान।
मन्दिर थारे मावड़ी, धजा उड़े असमान।।
(10)
सदा रहिज्यो साथ मे, जंग बीच जमवाय।
ऊँचो करजे अम्बिका, सबसूं नाम सवाय।।
(11)
तू करणी तर तारणी, जगदम्बा जगराय।
विपद "विराजे" री सदा, हर लीज्यो जमवाय।।
हनुमान सिंह राठौड़ सवाई गढ़ कृत
(1)
जयो मात जमुवाय, माँ लज्जा  मम राखजौ |
सगती कीजौ स्हाय, चरणां कर स्यूं चाकरी ||
(2)
अवरां सूं नीं आस, इक थारो ही आसरौ |
वित आतम विश्वास, सदा सौंपजै सांभरी ||
नरेंद्र प्रताप सिंह भाटी सत्याया जैसलमेर कृत
(1)
शेखों कुळ ने तारणी,खंगारोत री खान
राजावत नाथा नरू,राखे थारो मान
(2)
मैया तू मातेश्वरी , काछब कुळ री राय।
एक अर्ज सुण डोकरी ,हे मायड़ जमवाय।
(3)
काटे दुखड़ो मावड़ी , बोले दुल्हे राय।
हेले हाजर जोगणी,जग में माँ जमवाय।
(4)
अधर आकास ऊतरी,जमवा गढ़ री माय ।
मीणा मारण मुलक में , जग में माँ जमवाय।
(5)
मध प्रदेश रो मोनवी, अब आयो  रजथोण।
दुल्हे संग'म डोकरी,बैठो माया मोण
(6)
सिहं सवारी जोगणी ,मढङै आळी माय।
भुरै भाखर आव ज्यो, जोगण थूं जमवाय।
(7)
धजा फरूखै डोकरी, ऊंचा मढ़ री माय।
राजा'न राज देवणी, माता थूं  जमवाय।
(8)
नाथावत नख राखणी,भगवती महेमाय।
नरू नाम मां राख'यो ,जग की माँ जमवाय।
(9)
देवी माँ थूं डोकरी,सबरी करजै साय।
रामगढा़ री लाज तो ,राखी थूं जमवाय।
(10)
मैळो भरलो जोरको , रामगढा़ रे मांय।
थारो नरसी दास है ,चरण पखारू माय।।
(11)
जै मात जवालामुखी,जै जै माँ जमवाय।
दाळद दुखने मेटणी,मोटी थूं  महमाय।
संकलन कर्ता:--ज्ञान सिंह इन्दा जोलियाली एडमीन "साहित अर शमशीर"

बुधवार, 22 अगस्त 2018

शेखाजी कछवाहा ओर घाटवा का युद्ध

शेखाजी कछवाहा ओर घाटवा का युद्ध

राव शेखाजी कछवाहा का नाम भारत के उन यौद्धाओ के शुमार है , जिन्होंने एक स्त्री के सम्मान की रक्षा करने के लिए , पापी को दंड देने के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए। राव शेखाजी कुशवाहा ने राजस्थान के एक बंजर प्रदेश को अपने खून तथा पसीने से सींचकर उसे स्वर्ग से सुंदर बना दिया था।

कुश के पुत्रो की इस शेखावत कछवाहा शाखा का राजस्थान के मनोहरपुर , शाहपुरा , खंडेला , सीकर , खेतड़ी , बिसाऊ , महनसर , गांगियासर , सूरजगढ़, नवलगढ़ग मंडावा , मुकुंदगढ़ , दांता , खाचरियावास , डूंडलोद , अलसीसर , मलसीसर तथा रानोली कई क्षेत्रों पर अधिकार था।

शेखाजी कुशवाहा ने राजस्थान के इस भाग को स्वर्ग से सुंदर तब बनाया था , जब पुरे भारत में विदेशी मुसलमान मल्लेछ आतंक तथा हिंसा , लूटमार के नए नए आयाम पेश कर रहे थे। उस मल्लेछ काल में भी राव शेखाजी ने खुली घोषणा की थी " मेरे राज्य में गाय काटने वाले का सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा " यह राव शेखाजी कुशवाहा की ही देंन है की राजस्थान का शेखावाटी अंचल आज कला तथा सौंदर्य में अपना अग्रणी स्थान रखता है , साल भर विदेशी पर्यटकों की भरमार राजस्थान के इस छोटे से प्रदेश में आज तक रहती है।

रावशेखाजी का व्यक्तित्व बहुत सरल था , उनकी वाणी कर्णप्रिय थी , आज भी राजस्थान के उस पुरे प्रदेश को राव शेखाजी के नाम से ही याद रखा गया है। राव शेखाजी ने केवल मनुष्यो का ही विकाश नहीं किया , गौ माता के लिए तो जैसे कुबेर का भंडार ही खोल दिया , बड़ी बड़ी गौशलाओं का निर्माण करवाया गया , जो आज तक है , गौ-शाला के लिए जितनी जमीने राव शेखाजी ने छोड़ी, शायद ही कोई अन्य राजा इतनी जमीने मात्र गौशाला के लिए दान कर पाया हो।

लेकिन राव शेखाजी को मुख्य रूप से याद किया जाता है " घाटवा के युद्ध " के लिए। यह युद्ध एक महिला के मान सम्मान के लिए लड़ा गया था। हुआ यह था की राव शेखाजी के राज्य के राजपूत दम्पति किसी दूसरे राज्य की सीमा से गुजरते हुए अपने परिवारजन से मिलने जा रहे थे, बीच में गोड़ राज्य पड़ता था। गोड़ राज्य में उस समय सड़क निर्माण का काम चल रहा था , और जो भी यात्री वहां से गुजरता , उससे २ धामे मिटटी बालू के गिरवा लिए जाते। उस राजपूत दम्पति को भी वहीँ रोक लिया गया , जहाँ सड़क निर्माण का यह कार्य चल रहा था। उस राजपूत जवान ने भी मिटटी डालने की बात पर कोई शर्म महसूस नहीं की , क्यों की यह तो समाज कल्याण और समाज की सुविधा का ही कार्य था। लेकिन गॉड सरदार ने मर्यादा तोड़ते हुए उस महिला से भी २ परात मिटटी के सड़क पर डालने को कह दिया , राजपूत महिलायें सड़क पर काम नहीं करती , राजपूत होकर इस मर्यादा का ख्याल गोड़ सरदार को करना तरह , इतनी सी बात पर बात बड़कर इतनी बड़ी हो गयी , की दोनों पक्षों में तलवारे चल गयी , और उस क्षत्राणी के पति की वहां हत्या हो गयी , वह स्त्री भी राजपूत थी , गोड़ सरदार को चुनौती दे आयी , की बाकी बची इस लड़ाई का हिसाब अब यूद्धभूमि पर ही पूरी होगी।

अपने साथ हुई यह अपमानजनक घटना उस महिला ने महाराज राव शेखाजी को कह सुनाई , राज शेखाजी धर्म के पक्के राजा थे , उनका यही मानना था की स्त्री का अपमान करने वालो का तो गला ही कटना चाहिए।

राव शेखाजी ने गोड़ो पर उनके सरदार कलराज गोड़ का सिर धड़ से अलग कर उसे अमरसर के किले पर टांग दिया। राव शेखाजी के इस कृत्य से आसपास के सभी क्षेत्रो में उनका आतंक फ़ैल गया , लेकिन महाराज शेखाजी का उदेश्य आम जनता को भयभीत करना नहीं था , बल्कि वे पापियों और दुस्टो को भयभीत करना चाहते थे , की तुम्हारा अंत भी यही होगा। लगातार ५ वर्ष तक अपने सरदार का सिर ले जाने का साहसिक प्रयास गोड़ सरदार करते रहे । लेकिन हर बार उन्हे असफलता ही हाथ लगती।

लगातार आक्रमणों के बाद भी सफलता नहीं मिलने के बाद गोड़ अब और खूंखार हो गए , और उन्होंने शेखावतो को सीधे युद्ध के मैदान में ही चुनौती दे दी ,
अब युद्ध का आह्वाहन सुन एक राजपूत अपने पग पीछे कैसे रख सकता था ?

गौड़ बुलावे घाटवे,चढ़ आवो शेखा |
लस्कर थारा मारणा,देखण का अभलेखा ||

कुछ इस तरह के शब्दों के साथ राव शेखाजी को युद्ध करने के लिए आह्वाहन दिया गया , राव शेखाजी ने युद्ध की चुनौती मिलने के बाद एक क्षण की भी प्रतीक्षा नहीं की , राव शेखाजी ने अपना खाड़ा उठा लिया , और आर पार के युद्ध के लिए निकल पड़े। राव शेखाजी को युद्ध भूमि पर युद्ध करता देख शत्रु सेना की पिंडली काँप गयी।

इस युद्ध में गोड़ो की सेना का नेतृत्व गोड़राज रिड़मल जी कर रहे थे। उन्होंने राव शेखाजी पर तीरो की भरमार कर दी , राव शेखाजी ने कई तीरो को विफल कर दिया , लेकिन एक तीर आकर सीधा उनकी छाती पर लगा। कुछ समय के लिए शेखाजी स्थिर हुए , की शत्रु सेना ने उन्हें तीरो से छलनी कर दिया , शरीर की एक एक शिराओ से रक्त की धार बह निकली।

इतने घायल होने के बाद भी राव शेखाजी ने अपने अपने शस्त्र नहीं तजे। रिड़मल जी पर ऐसा प्रहार किया , की रिड़मल जी बड़ी मुश्किल से खुद बच पाएं , घोडा बीच से कट गया। घायल अवस्था में भी शत्रुओ को गाजर मूली की तरह काटते शेखाजी कछवाहा आगे बढ़ते ही जा रहे थे।

राव शेखाजी के तेग़े के जोर के आगे , गोड़ सूर्यास्त से पहले ही भाग खड़े हुए। अपनी जान बचाते हुए वे घाटवा के मैदान की और बढे , यह उनकी योजना का ही हिस्सा था , गोड़ो ने घाटवा पर अपनी रिजर्व सेना छोड़ रखी थी , उनकी योजना के अनुसार शेखाजी के थके हारे सेनिको को घाटवा के मैदान पर घेरकर बंदी बना लेना या मार डालना था। लेकिन शेखाजी ने उनकी इस योजना को बड़ी कुशलता से पहचाना भी और , योजना को ध्वस्त भी करवा दिया। युद्ध तो राव शेखाजी जित चुके थे , उनके बड़े पुत्र इस युद्ध में वीरगति प्राप्त कर गए।

खून से लथपथ राव शेखाजी ने उसके बाद अपने सभी अफसरों को बुलाया , उनके सामने अपने कनिष्क पुत्र रायमल कछवाहा शेखावत को अपने ढाल और तलवार सौंप उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया , तथा खुद सदा सदा के लिए आँखे बंद क्र , यह लोक जीत , स्वर्गलोक जीतने प्रस्थान कर गए।
Satveer Singh Shekhawat Barsinghpura

बुधवार, 1 अगस्त 2018

गढ़वाल की बहादुर महारानी कर्णावती - नाक काटी रानी

गढ़वाल की बहादुर महारानी
कर्णावती "नाक काटी रानी"

क्या आपने गढ़वाल क्षेत्र की “नाक काटी रानी”
का नाम सुना है ?

नहीं सुना होगा...

क्योंकि ऐसी बहादुर हिन्दू रानियों के तमाम
कार्यों को चुपके से छिपा देना ही  “फेलोशिप-खाऊ” इतिहासकारों का काम था...

गढ़वाल राज्य को मुगलों द्वारा कभी भी जीता
नहीं जा सका....

ये तथ्य उसी राज्य से सम्बन्धित है.
यहाँ एक रानी हुआ करती थी, जिसका नाम
“नाक काटी रानी” पड़ गया था, क्योंकि उसने
अपने राज्य पर हमला करने वाले कई मुगलों
की नाक काट दी थी.

जी हाँ!!! शब्दशः नाक बाकायदा काटी थी.

इस बात की जानकारी कम ही लोगों को है
कि गढ़वाल क्षेत्र में भी एक “श्रीनगर” है,

यहाँ के महाराजा थे महिपाल सिंह, और
इनकी महारानी का नाम था कर्णावती
(Maharani Karnavati).

महाराजा अपने राज्य की राजधानी
सन 1622 में देवालगढ़ से श्रीनगर ले गए.

महाराजा महिपाल सिंह एक कठोर, स्वाभिमानी
और बहादुर शासक के रूप में प्रसिद्ध थे.

उनकी महारानी कर्णावती भी ठीक वैसी ही थीं.

इन्होंने किसी भी बाहरी आक्रांता को अपने राज्य में घुसने नहीं दिया. जब 14 फरवरी 1628 को आगरा में शाहजहाँ ने राजपाट संभाला, तो उत्तर भारत के दूसरे कई छोटे-मोटे राज्यों के राजा शाहजहाँ से सौजन्य भेंट करने पहुँचे थे.

लेकिन गढ़वाल के राजा ने शाहजहाँ की इस
ताजपोशी समारोह का बहिष्कार कर दिया था.

ज़ाहिर है कि शाहजहाँ बहुत नाराज हुआ.

फिर किसी ने शाहजहाँ को बता दिया कि गढ़वाल
के इलाके में सोने की बहुत खदानें हैं और
महिपाल सिंह के पास बहुत धन-संपत्ति है...

बस फिर क्या था, शाहजहाँ ने “लूट परंपरा” का
पालन करते हुए तत्काल गढ़वाल पर हमले की
योजना बना ली.

शाहजहाँ ने गढ़वाल पर कई हमले किए, लेकिन सफल नहीं हो सका. इस बीच कुमाऊँ के एक युद्ध में गंभीर रूप से घायल होने के कारण 1631 में महिपाल सिंह की मृत्यु हो गई. उनके सात वर्षीय पुत्र पृथ्वीपति शाह को राजा के रूप में नियुक्त किया गया, स्वाभाविक
है कि राज्य के समस्त कार्यभार की जिम्मेदारी
महारानी कर्णावती पर आ गई.

लेकिन महारानी का साथ देने के लिए उनके
विश्वस्त गढ़वाली सेनापति लोदी रिखोला,
माधोसिंह, बनवारी दास तंवर और दोस्त
बेग मौजूद थे.

जब शाहजहां को महिपाल सिंह की मृत्यु की
सूचना मिली तो उसने एक बार फिर 1640 में
श्रीनगर पर हमले की योजना बनाई.

शाहजहां का सेनापति नज़ाबत खान,
तीस हजार सैनिक लेकर कुमाऊँ गढवाल रौंदने
के लिए चला.

महारानी कर्णावती ने चाल चलते हुए उन्हें राज्य
के काफी अंदर तक आने दिया और वर्तमान में
जिस स्थान पर लक्ष्मण झूला स्थित है, उस जगह
पर शाहजहां की सेना को महारानी ने दोनों तरफ
से घेर लिया.

पहाड़ी क्षेत्र से अनजान होने और
बुरी तरह घिर जाने के कारण नज़ाबत खान
की सेना भूख से मरने लगी, तब उसने महारानी कर्णावती के सामने शान्ति और समझौते का सन्देश भेजा, जिसे महारानी ने तत्काल ठुकरा दिया.

महारानी ने एक अजीबोगरीब शर्त रख दी कि
शाहजहाँ की सेना से जिसे भी जीवित वापस आगरा जाना है वह अपनी नाक कटवा कर ही जा सकेगा,
मंजूर हो तो बोलो.

महारानी ने आगरा भी यह सन्देश भिजवाया
कि वह चाहें तो सभी के गले भी काट सकती हैं,

लेकिन फिलहाल दरियादिली दिखाते हुए
वे केवल नाक काटना चाहती हैं.

सुलतान बहुत शर्मिंदा हुआ,

अपमानित और क्रोधित भी हुआ,

लेकिन मरता क्या न करता...

चारों तरफ से घिरे होने और भूख की वजह
से सेना में भी विद्रोह होने लगा था ।

तब महारानी ने सबसे पहले नज़ाबत खान की
नाक खुद अपनी तलवार से काटी और उसके
बाद अपमानित करते हुए सैकड़ों सैनिकों की
नाक काटकर वापस आगरा भेजा,
तभी से उनका नाम “नाक काटी रानी” पड़ गया था.

नाक काटने का यही कारनामा उन्होंने दोबारा
एक अन्य मुग़ल आक्रांता अरीज़ खान और
उसकी सेना के साथ भी किया...

उसके बाद मुगलों की हिम्मत नहीं हुई कि
वे कुमाऊँ-गढ़वाल की तरफ आँख उठाकर देखते.

महारानी को कुशल प्रशासिका भी माना जाता था.

देहरादून में महारानी कर्णावती की बहादुरी के किस्से आम हैं (लेकिन पाठ्यक्रमों से गायब हैं).

दून क्षेत्र की नहरों के निर्माण का श्रेय भी
कर्णावती को ही दिया जा सकता है.

उन्होंने ही राजपुर नहर का निर्माण करवाया था जो रिपसना नदी से शुरू होती है और देहरादून शहर तक पानी पहुँचाती है. हालाँकि अब इसमें कई बदलाव और विकास कार्य हो चुके हैं, लेकिन दून घाटी तथा कुमाऊँ-गढ़वाल के इलाके में “नाक काटी रानी” अर्थात महारानी कर्णावती का योगदान अमिट है.

“मेरे मामले में अपनी नाक मत घुसेड़ो, वर्ना कट जाएगी”, वाली कहावत को उन्होंने अक्षरशः पालन करके दिखाया और इस समूचे पहाड़ी इलाके को मुस्लिम आक्रान्ताओं से बचाकर रखा.

उम्मीद है कि आप यह तथ्य और लोगों तक
पहुँचाएंगे...

ताकि लोगों को हिन्दू रानियों की वीरता
के बारे में सही जानकारी मिल सके.

रविवार, 29 जुलाई 2018

सूरवीर गौ रक्षक वीर श्री पाबूजी राठौड़

सूरवीर गौ रक्षक वीर श्री पाबूजी राठौड़ 

राव सिहाजी "मारवाड में राठौड वंश के संस्थापक " उनके तीन पुत्र थे ।
राव आस्थानजी, राव अजेसीजी, राव सोनगजी !

राव आस्थानजी के आठ पूत्र थे !
राव धुहडजी, राव धांधलजी, राव हरकडजी,राव पोहडजी, राव खिंपसिजी, राव आंचलजी,राव चाचिंगजी, राव जोपसाजी !

राव धांधलजी राठौड़ के दो पुत्र थे ! बुढोजी और पाबुजी !

श्री पाबूजी राठौङ का जन्म 1313 ई में कोळू ग्राम में हुआ था ! कोळू ग्राम जोधपुर में फ़लौदी के पास है ।

धांधलजी कोळू ग्राम के राजा थे, धांधल जी की ख्याति व नेक नामी दूर दूर तक प्रसिद्ध थी ।

एक दिन सुबह सवेरे धांधलजी अपने तालाब पर नहाकर भगवान सूर्य को जल तर्पण कर रहे थे ।
तभी वहां पर एक बहुत ही सुन्दर अप्सरा जमीन पर उतरी ! राजा धांधल जी उसे देख कर उस पर मोहित हो गये, उन्होने अप्सरा के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा ।

जवाब में अप्सरा ने एक वचन मांगा कि राजन ! आप जब भी मेरे कक्ष में प्रवेश
करोगे तो सुचना करके ही प्रवेश करोगे ।
जिस दिन आप वचन तोङेगें मै उसी दिन स्वर्ग लोक लौट जाउगीं, राजा ने वचन दे दिया ।

कुछ समय बाद धांधलजी के घर मे पाबूजी के रूप मे अप्सरा रानी के गर्भ से एक पुत्र का जन्म होता है ।

समय अच्छी तरह बीत रहा था, एक दिन भूल वश या कोतुहलवश धांधलजी अप्सरा रानी के कक्ष में बिना सूचित किये प्रवेश कर जाते है ।

वे देखते है कि अप्सरा रानी पाबूजी को सिंहनी के रूप मे दूध पिला रही है ।

राजा को आया देख अप्सरा अपने असली रूप मे आ जाती है और राजा धांधलजी से कहती है कि "हे राजन आपने अपने वचन को तोङ दिया है इसलिये अब मै आपके इस लोक में नही रह सकती हूं ।

मेरे पुत्र पाबूजी कि रक्षार्थ व सहयोग हेतु मै दुबारा एक घोडी ( केशर कालमी ) के रूप में जनम लूगीं ।
यह कह कर अप्सरा रानी अंतर्ध्यान हो जाती है ।

समय बीत गया और पाबूजी महाराज बड़े हो गए,  गुरू समरथ भारती जी द्वारा उन्हें शस्त्रों की दीक्षा दी जाती है ।
धांधल जी के निधन के बाद नियमानुसार राजकाज उनके बड़े भाई बुङा जी द्वारा किया जाता है ।

गुजरात राज्य मे आया हुआ गाँव " अंजार " जहाँ पर देवल बाई चारण नाम की एक महिला रहती थी ।

उनके पास एक काले रंग की घोडी थी, जिसका नाम केसर कालमी था !
उस घोडी की प्रसिद्धि दूर दूर तक फैली हुई थी ।

उस घोडी को को जायल (नागौर) के जिन्दराव खींची ने डोरा बांधा था, और कहा कि यह घोडी मै लुंगा, यदि मेरी इच्छा के विरूद्ध तुम ने यह घोडी किसी और को दे दी तो मै तुम्हारी सभी गायों को ले जाउगां ।

एक रात श्री पाबूजी महाराज को स्वप्न आता है और उन्हें यह घोडी (केशर कालमी) दिखायी देती है, सुबह वो इसे लाने का विचार करते है ।

श्री पाबूजी महाराज अपने खास चान्दा जी, ढ़ेबाजी को साथ में लेकर अंजार के लिये रवाना होते है ।

अंजार पहुँच ने पर देवल बाई चारण उनकी अच्छी आव भगत करती है, और आने का प्रयोजन पूछती है ।

श्री पाबूजी महाराज देवल से केशर कालमी को मांगते है, लेकिन देवल उन्हें मना कर देती है, और उन्हें बताती है कि इस घोडी को जिन्दराव खींची ने डोरा बांध रखा है और मेरी गायो के अपहरण कि धमकी भी दी हुई है ।

यह सुनकर श्री पाबूजी महाराज देवल बाईं चारण को वचन देते है कि तुम्हारी गायों कि रक्षा कि जिम्मेदारी आज से मेरी है, जब भी तुम विपत्ति मे मुझे पुकारोगी अपने पास ही पाओगी, उनकी बात सुनकर के देवल अपनी घोडी उन्हें दे देती है ।

श्री पाबूजी महाराज के दो बहिने थी, पेमलबाई और सोनल बाई !
जिन्दराव खींची का विवाह श्री पाबूजी महाराज कि बहिन पेमल बाई के साथ होता है, और सोनल बाई का विवाह सिरोही के महाराजा सूरा देवडा के साथ होता है ।

जिन्दराव शादी के समय दहेज मे केशर कालमी कि मांग करता है, जिसे श्री पाबूजी महाराज के बडे भाई बूढा जी द्वारा मान लिया जाता है, लेकिन श्री पाबूजी महाराज घोडी देने से इंकार कर देते है, इस बात पर श्री पाबूजी महाराज का अपने बड़े भाई के साथ मनमुटाव हो जाता है ।

अमर कोट के सोढा सरदार सूरज मल जी कि पुत्री फूलवन्ती बाई का रिश्ता श्री पाबूजी महाराज के लिये आता है, जिसे श्री पाबूजी महाराज सहर्ष स्वीकार कर लेते है, तय समय पर श्री पाबूजी महाराज बारात लेकर अमरकोट के लिये प्रस्थान करते है ।

कहते है कि पहले ऊंट के पांच पैर होते थे इस वजह से बारात धीमे चल रही थी, जिसे देख कर श्री पाबूजी महाराज ने ऊंट के बीच वाले पैर के नीचे हथेली रख कर उसे ऊपर पेट कि तरफ धकेल दिया जिससे वह पेट मे घुस गया, आज भी ऊंट के पेट पर पांचवे पैर का निशान है ।

इधर देवल चारणी कि गायो को जिन्दराव खींची ले जाता है, देवल बाईं चारण काफी मिन्नते करती है लेकिन वह नही मानता है, और गायो को जबरन ले जाता है ।

देवल चारणी एक चिडिया का रूप धारण करके अमर कोट पहूँच जाती है, और वहाँ पर खड़ी केसर कालमी घोड़ी हिन्-हिनाने लगती है ।

अमर कोट में उस वक्त श्री पाबूजी महाराज की शादी में फेरो की रस्म चल रही होती है तीन फेरे ही लिए थे की चिडिया के वेश में देवल बाई चारण ने वहा रोते हुए आप बीती सुनाई ! उसकी आवाज सुनकर पाबूजी का खून खोल उठा और वे रस्म को बीच में ही छोड़ कर युद्ध के लिए प्रस्थान करते है ।

उस दिन से राजपूतो में आधे फेरो (चार फेरों ) का  रिवाज चल पड़ा है ।

पाबूजी महाराज अपने जीजा जिन्दराव खिंची को ललकारते है, वहा पर भयानक युद्ध होता है,  श्री पाबूजी महाराज अपने युद्ध कोशल से जिन्दराव खिंची को परस्त कर देते है, लेकिन बहिन के सुहाग को सुरक्षित रखने के लिहाज से जिन्दराव को जिन्दा छोड़ देते है ।

और सभी गायो को लाकर वापस देवल बाईं चारण को सोप देते है, और अपनी गायो को देख लेने को कहते है, देवल बाई चारण कहती है की एक बछडा कम है ।
पाबूजी महाराज वापस जाकर उस बछड़े को भी लाकर दे देते है ।

श्री पाबूजी महाराज रात को अपने गाँव गुन्जवा में विश्राम करते है तभी रात को जिन्दराव खींची अपने मामा फूल दे भाटी के साथ मिल कर सोते हुए पर हमला करता है ! जिन्दराव के साथ पाबूजी महाराज का युद्ध चल रहा होता है और उनके पीछे से फूल दे भाटी वार करता है, और इस प्रकार श्री पाबूजी महाराज गायो की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे देते है ।

पाबूजी महाराज की रानी फूलवंती जी , व बूढा जी की रानी गहलोतनी जी व अन्य राजपूत सरदारों की राणियां अपने अपने पति के साथ सती हो जाती है, कहते है की बूढाजी की रानी गहलोतनी जी गर्भ से होती है ।

हिन्दू शास्त्रों के अनुसार गर्भवती स्त्री सती नहीं हो सकती है  इस लिए उन्होंने अपना पेट कटार से काट कर पेट से बच्चे को निकाल कर अपनी सास को सोंप कर कहती है की यह बड़ा होकर अपने पिता व चाचा का बदला जिन्दराव से जरूर लेगा, यह कह कर वह सती हो जाती है ।

कालान्तर में वह बच्चा झरडा जी ( रूपनाथ जो की गुरू गोरखनाथ जी के चेले होते है ) के रूप में प्रसिद्ध होते है तथा अपनी भुवा की मदद से अपने फूफा को मार कर बदला लेते है और जंगल में तपस्या के लिए निकल जाते है !!

जय #पाबुजी री