सोमवार, 30 अगस्त 2021

राणा पूंजा सोलंकी

"राणा पूंजा सोलंकी"  पानरवा (भोमट क्षेत्र)

गंभीर मुद्रा में सोच रहा योद्धा एक महान
मैं लड़ा जिस देश ख़ातिर क्या ये है मेरा हिंदुस्तान..

हिंदवा सूरज महाराणा प्रताप को शत-शत नमन...
महान योद्धा राणा पूंजाजी जी को शत शत नमन... 

समरथ जोध सोलंकी  , समहर राणा संग ।
हल्दीघाट हरावल में  ,  रंग "ज" पूंजा रंग ।।

वीर मही मेवाड़ रा ,  सोलंकी "ज" सुचंग ।
हल्दीघाट हरावल में , सोहै प्रताप संग ।।

आज हम हल्दीघाटी के महान योद्धा के इतिहास के ऊपर सत्य जानकारी जानेंगे जो इतिहासकारों ने दंत कथाओं के आधार पर भिल बनाकर इतिहास बिगाड़ दिया..

राणा पूंजा ( 1572 - 1610 ई . ) महाराणा प्रताप द्वारा मुगल  अकबर के विरूद्ध लड़े गये दीर्घकालीन स्वतंत्रता - संग्राम का अदम्य सेनानी , पानरवा का सोलंकी शासक एवं भोमट का गौरव वीर योद्धा राणा पूंजा जिसने 1576 ई . के इतिहास - प्रसिद्ध हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप का साथ दिया । 

1576 ई . से 1586 ई . तक महाराणा प्रताप द्वारा मेवाड़ के विकट पहाड़ों एवं वनों में मुगल बादशाह अकबर के विरुद्ध लड़ी गई दस वर्षीय लड़ाई में राणा पूंजा के नेतृत्व में सोलंकी व आदिवासी भील सैनिकों ने जो अवर्णनीय एवं अविस्मरणीय सहयोग प्रदान किया , उसके कारण प्रताप द्वारा मुगल सेनाओं को परास्त करना संभव हुआ । मुगल - दासता विरोधी मेवाड़ के स्वतंत्रता - संघर्ष के इतिहास में वीर राणा पूंजा का नाम चिरस्मरणीय रहेगा ।  

*"पानरवा के सोलंकी ओर मुगल साम्राज्य के विरुद्ध मेवाड़ का स्वतंत्र संग्राम"

 ।28 फरवरी , 1572 ई . के दिन महाराणा प्रतापसिंह के राज्यारोहण के समय कुम्भलगढ़ में राणा पूंजा सोलंकी अपने सैनिकों व धनुर्धारी भील,  सैनिकों क साथ मौजूद थे। महाराणा प्रतापसिंह के राज्यारोहण - उत्सव में मेवाड़ के सभी बड़े - छोटे सर्दार , जो चित्तौड़ के जौहर से बचे थे , शामिल हुए । उनके अलावा ग्वालियर का राजा रामशाह ( रामसिंह ) और उसके तीन पुत्र , जोधपुर का राव चन्द्रसेन राठोड़ , प्रताप का मामा पाली का राव मानसिंह सोनगरा अपने भ्राताओं सहित , ईडर का राव नारायणदास राठोड़ और  पठान सर हकीमखा सूर आदि मौजूद थे ।

 इस अवसर पर महाराणा प्रताप और उसके सहयोगियों ने मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा की योजना बनाई और मेवाड़ के पहाड़ों में मुगल सेनाओं से लड़ने की छापामार युद्ध - प्रणाली की रूपरेखा तैयार की । इस रणनीति की मुख्य बातें थीं :
 1.   300 मील की परिधि वाले मेवाड़ के पहाडी प्रदेश के भीतर प्रवेश करने वाले सभी मार्गों की नाकेबंदी करना और वहां पर शत्रु के प्रवेश करते समय पहाड़ों के पीछे से निकल कर उस पर अचानक आक्रमण करके उसको जन - धन को हानि पहुँचाना । पहाड़ों में आने पर शत्रु के साथ इसी प्रकार की छापा मार । लड़ाई करना । 

2 . राज्य के कोषागार और शस्त्रागार की सुरक्षा का प्रबन्ध करना ।

3 . पहाड़ों में आवागमन और संचारव्यवस्था तथा तीव्रगामी सूचना की व्यवस्था करना । 

4 . राजपरिवार , सामतों , अधिकारियों आदि की स्त्रियों एवं बचों की सुरक्षित स्थलों पर रक्षा करना । । स्पष्ट है इन सभी उपरोक्त कार्यों में भीलों की प्रधान भूमिका रही । 
पानरवा राणा पूजा के नेतृत्व में पानरवा । और ओगणा के सोलंकी ठिकानेदारों ने इन सब कार्यवाहियों में बढ़ चढ़कर भाग लिया ।

 भोमट के अन्य राजन ठिकानों मादडी . जवास . जड़ा , मेरपर , पहाड़ा आदि के सारों ने भी अपने भील सनिकों के साथ राणा प्रताप को सहयोगा । प्रदान किया । चंकि इन सब ठिकानों की अधिकांश प्रजा भील थी और सिपाही भी भील थे अतएव इन ठिकानेदार को भीलों के सर्दार अथवा कहीं कहीं भील सर्दार लिखा मिलता है । 

इससे यह भ्रम फैला कि ये भोमिया राजपत । ठिकानेदार भोमिया भील है । राणा पूंजा का भील सैनिकों के साथ हल्दीघाटी की लड़ाई में भाग लेना 1572 ई . से 1575 ई . तक महाराणा प्रताप मुगल बादशाह अकबर के साथ आश्वासन देने और बहाना बनाने " की कूटनीति द्वारा लड़ाई को टालता रहा । इस काल के दौरान उसने पहाड़ों में रक्षात्मक युद्ध की पूरी तैयारी कर ली । आखिरकार 1576 ई . के जून माह में 5000 मुगल सेना मेवाड़ पर चढ़ आई

 उस समय महाराणा प्रताप ने मानसिंह की सेना के साथ पहाड़ों से बाहर निकल कर लड़ने का निश्चय किया । चेतक घोड़े पर सवार महाराणा प्रताप ने अपनी 3000 अश्वारोही और पैदल सेना तथा हाथियों को लेकर 18 जून । 1576 ई . के दिन हल्दीघाटी के बाहर निकलकर खमणोर के मैदान में मुगल सेना पर आक्रमण किया और प्रारम्भ में अधिकांश मुगल सेना को छ : कोस तक भगा दिया । भील सैनिक मैदानी लड़ाई के अभ्यस्त नहीं थे , अतएव राणा पूंजा के भील सैनिक मेवाड़ी सेना के चंदावल भाग में पहाड़ों पर ही रहे । 

राणा पूंजा सोलंकी प्रताप की सेना के चंदावल भाग में नियुक्त था जहां उसके साथ पुरोहित गोपीनाथ , पुरोहित जगन्नाथ , बच्छावत जयमल , महता रत्नचन्द खेतावत , महासानी जगन्नाथ , चारण जैसा और केशव आदि भी सेना के पिछले भाग में थे , जो लड़ाई के मैदान में नहीं उतरे । ' वीरविनोद में राणा पूजा को मेरपुर का राणा पूजा और भीलों का सर्दार लिखा है । जिसका आशय यही है कि राणा पूंजा भील सैनिकों का नेता था । आगे वीरविनोद में उसको पानरवा के भीलों का सिरदार लिखा है । 10 सम्भव है उस समय तक पानरवा के सोलंकी ठिकाने का प्रभाव मेरपुर तक रहा हो 

कतिपय लोग जो इतिहास के ज्ञाता नहीं हैं , वे राणा पूजा को इस आधार पर भील होना बताते हैं कि उसको भीलों का सार लिखा गया है । सोलंकी राजपूत राणा पूंजा को भील बताना सर्वथा अनैलिहासिक एवं अप्रामाणिका

 ' महाराणा प्रताप महान ' में भी वीरविनोद पर आधारित बात लिखी गई है । किन्तु महाराणा प्रताप को । हल्दीघाटी की लड़ाई के बाद पानरवा के सोलंकी राणा पूंजा और प्रधानतः उसके भील सैनिकों का जो अटूट सहयोग मिलता रहा , जिसके कारण प्रताप को मुगल विरोधी संघर्ष में अद्वितीय सफलता मिली तथा बाद में महाराणा अमरसिंह को राणा पूंजा के पुत्र राणा राम का जो सहयोग मिला और महाराणा राजसिंह को पानरवा के तत्कालीन राणा चन्द्रभाण ने अपने भील सैनिकों के साथ औरगजेब की मुगल सेना के विरुद्ध लड़ाई में जो मदद की , उसको देखते राणा पूंजा के । 

लिये लडाई के प्रारंभ में भाग जाने वाली बात स्वीकार कर लेना उचित नहीं होगा । वस्तुतः वह हल्दीघाटी की लड़ाई । समाप्त होने से पूर्व पहाड़ों के भीतरी भाग में चला गया था और मुगल सेना द्वारा घाटी में प्रवेश करने पर उसपर । आक्रमण करने हेतु अपने भील सैनिकों के साथ घात लगाकर जम गया था ।

पानरवा का सोलंकी राजवंश ने प्रताप की सेना का पहाड़ी भाग में पीछा करना उचित नहीं समझा । इसलिए यही सही प्रतीत होता है कि जब प्रताप की सेना युद्ध से लौटने लगी तो उससे पहिले ही राणा पूंजा और उसके भील सैनिक यह सोचकर पहाड़ों के भीतरी भाग में चले गये कि मुगल सेना पीछा करती हुई हल्दीघाटी में प्रवेश करेगी और उस स्थिति में वे मुगल सेना पर उस तंग घाटी में दोनों ओर से आक्रमण करके मुगल सैनिकों को मारेंगे

 बडवा ओंकार की नस्लनामा पोथी में पानरवा के राणा पूजा की गद्दीनशीनी का वर्ष वि . स . 1690 गलत लिखा मिलता है । इस आधार पर आजकल कुछ लेखक यह सिद्ध करने पर तुले हुए हैं कि हल्दीघाटी की । लड़ाई में प्रताप के साथ पानरवा का राणा पूजा सोलंकी मौजूद नहीं था । वह राणा पूजा नाम का अन्य कोई भील व्यक्ति था , जो ' भीलों का राजा ' था । किन्तु ऐसी मान्यता बनाना ऐतिहासिक सत्य को झुठलाना होगा । 

संवतों सम्बन्धी गलतियां बड़वों की वंशावली पोथियों में प्रायः देखने को मिलती है । बड़वों की प्रत्येक पीढ़ी अपने पुरुखों द्वारा लिखी वशावलियों की प्रतिलिपि तैयार करके उसमें नवीन नाम जोड़ती रहती थी । प्रतिलिपि तैयार करते समय कई प्रकार की भूलें हो जाती थीं । बड़वा परिवारों में शिक्षित लोग कम होते गये तो इस प्रकार की भूलें भी बढ़ती गई और कई प्रकार की अलौकिक बातों के वर्णन भी उनमें जुड़ते गये ।

 बड़वा ओंकार की पोथी में यद्यपि पूजा राणा की गद्दीनशीनी का वर्ष गलत दिया गया है किन्तु साथ ही उसमें राणा पूंजा और उसके दादा राणा हरपाल का जो सहयोग महाराणा प्रताप के साथ बताया गया है , उससे उसकी संवत सम्बन्धी गलती स्पष्ट हो जाती है । अन्य सभी दस्तावेजों और ग्रंथों में पानरवा के सोलंकी राणा हरपाल के पौत्र राणा पूंजा का ही हल्दीघाटी लड़ाई में मौजूद होना लिखा गया है । 

- गोगुंदा में मुगल सेना का घेराव महाराणा प्रताप हल्दीघाटी से निकल कर गोगंदा होते हए भोमट इलाके में कोल्यारी पहुंचा , जो क्षेत्र उस समय पानरवा ठिकाने के अन्तर्गत था । वहां घायल सैनिकों की सुश्रुषा का प्रबन्ध किया गया । प्रताप ने राणा पूंजा को आदेश देकर सभी भील सैनिकों को हल्दीघाटी से गोगुंदा के पहाड़ी क्षेत्र में बुला लिया । प्रताप ने गोगूदा पर मुगल सेना के संभावित आक्रमण को देखते हुए उसको पूरी तरह खाली करवा दिया ।

 19 जून को जब मंगल सेना हल्दीघाटी होते हुए गोगुंदा पहुँचा तो राणा पूंजा के नेतृत्व में भील एवं राजपूत सैनिकों ने मुगल सेना को चारों ओर से घेराबन्दी कर दी और गोगूदा को जाने वाले सभी पहाड़ी रास्ते बन्द कर दिये । उन्होंने बजारों के काफिलों को रोक कर मुगल सेना की रसद - आपूर्ति बंद कर दी । गोगुंदा से बाहर निकलने वाले मुगल सैनिक मारे जाने लगे । अकबर के खास सेनापति व बड़े-बड़े धुरंधर आतंकित हो गये कि उनको अपनी रक्षार्थ गोगंदा के चारों ओर रक्षक - दीवार बनवानी पड़ी । 

मुगल सेना की इतनी दुर्दशा हुई कि वे भोज्य पदार्थ के बिना भूखों मरने लगे और उनको घोड़ों का मांस एवं आम खाकर काम चलाना पड़ा । ऐसी विपत्ति में फंसने पर सितम्बर माह में मुगल सेना अपने को बचाती हुई गोगूदा छोड़कर हल्दीघाटी से बाहर भाग निकली थी..

जहा मानसिंह जी से बादशाह  नाराज हो गया  । " मुगल सेना के जाते ही महाराणा प्रताप ने गोगूदा पर वापस अधिकार कर लिया और सुरक्षा हेतु चारों ओर भील टुकड़िया तैनात कर दी । प्रताप की छापामार लड़ाई में सोलंकी राणा पूंजा का सहयोग तीन वर्ष 1576 से 1579 ई . तक महाराणा प्रताप के लिए भीषण विपदा के वर्ष रहे । हल्दीघाटी के तीन माह बाद स्वयं बादशाह मेवाड़ पर चढ़ आया । 

उसके बाद उसने तीन वर्ष तक निरन्तर प्रतिवर्ष अपने सेनापति शाहबाजखा । को बड़ी सेना देकर प्रताप का पीछा करने और मेवाड़ के पहाड़ी भाग को तहस - नहस करने हेतु भेजा । प्रताप की कुशल सैन्ययोजना के कारण ये सभी मुगल आक्रमण असफल रहे । इससे बादशाह अकबर बहुत निराश हुआ । इन तीन वर्षों में प्रताप ने पानरवा एवं भीलों की आबादी वाले भोमट के दक्षिणी पहाड़ों को अपनी सैन्ययोजना का प्रधान ।
 क्षेत्र बनाया और झाड़ोल के निकट स्थित ऊचे आवरपर्वत पर दर्ग बनाकर आवरगढ़ को अपनी राजधानी रखी । वहाँ । पर उस काल की प्राचीरों और भवनों के अवशेष आज भी यत्र - तत्र दष्टिगत होते है । यहां स्त्रिया और बच्चे सरक्षित रहे ।

 राणा पूंजा के नेतृत्व में भीलों ने उनकी सुरक्षा का दायित्व निभाया , साथ ही उन्होंने इन तीन वर्षों के दौरान पहाड़ों में छापामार युद्ध - प्रणाली से मुगल आक्रमणों को विफल करने में बड़ा योगदान दिया । भीलों ने पहाड़ों में मुगल सैनिकों को जिस भाति तंग और आतंकित किया तथा उनको जन - धन की हानि पहुंचाई , उससे मुगल सैनिक पहाडी भाग में घुसने और मगल थानों पर ठहरने से कतराने लगे । 1579 ई . तक प्रताप ने अपनी सफलता का सिका । 

पूरी तरह जमा लिया और उसी वर्ष दिवेर के बड़े मुगल थाने पर कब्जा करके और वहां पर नियुक्त थानेदार अकबर के चाचा सुल्तानखां को मार कर प्रताप ने अपना विजय - अभियान शुरू कर दिया । प्रताप की सफलताओं से मेवाड़ के राजपूतों एवं भील सैनिकों का मनोबल सुदृढ़ हो गया । मुगल सैनिक हतोत्साहित हो गये । प्रताप एवं उसके सेनापतियों ने नवीन परिस्थिति में पहाड़ों के बाहर निकल कर मुगल इलाकों में धावे बोलना और लूटमार करना शुरू कर दिया ।

 1579 ई . में प्रताप ने अपनी राजधानी पानरवा क्षेत्र से हटा कर छप्पन क्षेत्र में चावंड में कायम की । पानरवा क्षेत्र को आगे से प्रधानतः राजपरिवार , सामंतों एवं अधिकारियों की स्त्रियों एवं बच्चों के सुरक्षा - स्थल के रूप में उपयोग किया गया , साथ ही चावंड पर आक्रमण होने पर उसको राजधानी का सुरक्षा क्षेत्र बनाया गया । चावंड राजधानी कायम करने से प्रताप को कई लाभ हुए । गुजरात और मालवा की सीमाएं निकट होने से मेवाड़ क्षेत्र के वाणिज्य और उद्यम को बड़ा प्रोत्साहन मिला ।

 कृषि की उन्नति हुई एक बार फिर मेवाड़ की बहुमुखी प्रगति होने लगी । कला और साहित्य फलने - फूलने लगे । राजकोष में वृद्धि हुई । चावंड से मुगल इलाके में थानों पर हमले बोलने , धन एवं साधन प्राप्त करने का कार्य आसान हो गया । इससे मूगलप्रशासन और सेना की परेशानियां बढ़ गई । निस्संदेह ही प्रताप की सैन्य - योजना और प्रशासनिक व्यवस्था की सफलता में पानरवा के सोलंकी राणा पूजा ने अपने भील सैनिकों को साथ लेकर जो अविस्मरणीय योगदान प्रताप को दिया , वह मेवाड़ के मुगल - दासता - विरोधी स्वातंत्र्य - संग्राम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है।

  मेवाड़ में अपनी निरन्तर असफलताओं से निराश होकर 1585 ई . के बाद मुगल बादशाह अकबर ने मेवाड़ से मुंह मोड़ लिया । महाराणा प्रताप ने मेवाड़ के मैदानी भाग के अधिकांश हिस्से पर पुनः अपना अधिकार कायम कर लिया और उसके बाद 1597 ई में प्रताप के देहावसान होने तक मेवाड़ शान्ति और सम्पन्नता का उपभोग करता । रहा । 1605 ई . में अकबर की मृत्यु हो गई और वह अपने जीवन - काल में मेवाड़ को अधीन करने का अपना स्वप्न साकार नहीं कर सका ।

अकबर के उत्तराधिकारी  जहागिर न मेवाड़ को अधीन करने के अपने पिता का सपना पुरा करने के प्रयास शुरू किये । 1506 ई . में शाहजादा प्रवेज़ को बड़ी सेना देकर मेवार लेकर ऊंठाला और देबारी के बीच आ पहुँचा । महाराणा अमरसिंह ने अपने पिता के पद - चिह्नों पर चलने छापामार यब - प्रणाली का सहारा लिया । उसने पानरवा के राणा पूजा सोलंकी के पुत्र कुंवर राम को हजारों सोलंकी सैनिक और  भील सैनिक को साथ मे बुलाया और पहाड़ों में अपनी सेना का प्रधान मददगार और भीलों का सेनापति बनाकर शाही - फौज की रसद । का आदेश दिया । 

रात्रि के समय महाराणा अमरसिंह ने अपनी सेना लेकर मुगल सेना पर आक्रमण करके शाहजादे को मार भगाया और पानरवा के कुंवर राम के नेतृत्व में भील सैनिकों ने शाही खजाने और रसद को लूटा और भाल हए मगल सैनिकों को मारा । " 1606 ई . तक पानरवा के राणा पूजा काफी वृद्ध हो चुके थे , अतएव उस समय भील सैनिकों का नेतृत्व अपने कुंवर राम को देकर महाराणा अमरसिंह की सहायतार्थ भेजा था ।

राणा पूंजा और पानरवा ठिकाने ने मेवाड़ को विकट परिस्थितियों में अपनी हजारों की भील सेना प्रदान की व छापामार युद्ध प्रणाली के द्वारा आक्रमणकारियों से मेवाड़ की सदा हिफाज़त की, वे जाती से सोलंकी (चालुक्य) राजपूत थे।

पानरवा के शासकों को मेवाड़ में 16 उमरावो  के बराबर बैठने का अधिकार प्राप्त था व स्वतंत्र ठिकाना है..

आप सभी से निवेदन है कि इतिहास में राणा पूंजा को भील लिखकर बदनाम नहीं किया जाए वह भीलों के सेनापति थे सोलंकी क्षत्रीय राजपूत...

#सद्रभ : नस्लनामा बढड़वाजी की वंशावलियां 1 . सोलकियों का कुर्सीनामा 2 . सोलंकियों का नस्लनामा बड़वा देवीदान ( गांव दायक्या राजस्थान अभिलेखागार इलाका टोंक ) की पोथी बीकानेर में उपलब्ध बड़वा ओंकार ( गाव दायक्या पानरवा ठिकाने में उपलब्ध इलाका टोक ) की पोथी बड़वा नंदराम ( गांव सीतामऊ ) पानरवा ठिकाने में उपलब्ध की पोथी बड़वा रामसिंह वल्द ईसकदान पानरवा ठिकाने में उपलब्ध की पोथी 3 . पानरवा के सोलकियों की वंशावली 4 . पानरवा के सोलकियों की वंशावली पत्रावली सं . 10 पत्रावली सं . 171 पत्रावली सं . 315 2 . ख्यात गोगुंदा की ख्यात - स . डॉ . हुकमसिंह भाटी ( 1997 ई . में प्रकाशित ) 3 . अभिलेखागार एवं संग्रहालय 1 . राजस्थान राज्य प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान , उदयपुर भोमट का हाल , ग्रंथ सं 2680 2 . राजस्थान राज्य अभिलेखागार ( श्यामलदास - संग्रह ) , बीकानेर बड़वा देवीदान का सोलकियों का कुर्सीनामा पूजाजी का पीढ़ीनामा Report on the hilly tracts of Mewar 
3 . Akbarnama by Abul Fazl ( translation by H . Beveridge )  Akbar  by A . L . Srivastava , वीरविनोद , ले . कविराज श्यामलदास , राजस्थान राज्य अभिलेखागार , उदयपुर , पत्रावली , भोमट , सं .  राव पंजाजी का पीढीनामा - राजस्थान राज्य अभिलेखागार , बीकानेर , श्यामलदास - संग्रह ,भोमट का हाल , राज प्राच्य विद्याप्रतिष्ठान , उदयपुर ग्रंथ सं  . VII राजपूताने का इतिहास , ले जगदीशसिंह गहलोत , भाग । महाराणा प्रताप महान , ले . डॉ . देवीलाल पालीवाल , 

(राणा पूंजा जी के संदर्भ में कुछ पोस्ट फोटो जानकारी कॉमेंट बॉक्स में अपलोड किये है)
"जय वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप" 
"जय राणा पूंजा सोलंकी "

पोस्ट लेखक:- बलवीर सिंह(नाथावत)सोलंकी 
ठिकाना बासनी खलेल, परगना नागौर (मारवाड़)

 

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