रविवार, 17 जून 2018

हरखा बाई और अकबर

आदि-काल से क्षत्रियों के राजनीतिक शत्रु उनके प्रभुत्व को चुनौती देते आये है। किन्तु क्षत्रिय अपने क्षात्र-धर्म के पालन से उन सभी षड्यंत्रों का मुकाबला सफलतापूर्वक करते रहे है। कभी कश्यप ऋषि और दिति के वंशजो जिन्हें कालांतर के दैत्य या राक्षस नाम दिया गया था, क्षत्रियों से सत्ता हथियाने के लिए भिन्न भिन्न प्रकार से आडम्बर और कुचक्रों को रचते रहे। कुरुक्षेत्र के महाभारत में जब अधिकांश ज्ञानवान क्षत्रियों ने एक साथ वीरगति प्राप्त कर ली, उसके बाद से ही क्षत्रिय इतिहास को केवल कलम के बल पर दूषित कर दिया गया। इतिहास में क्षत्रिय शत्रुओं को महिमामंडित करने का भरसक प्रयास किया गया ताकि क्षत्रिय गौरव को नष्ट किया जा सके। किन्तु जिस प्रकार हीरे के ऊपर लाख धूल डालने पर भी उसकी चमक फीकी नहीं पड़ती, ठीक वैसे ही क्षत्रिय गौरव उस दूषित किये गए इतिहास से भी अपनी चमक बिखेरता रहा। फिर धार्मिक आडम्बरों के जरिये क्षत्रियों को प्रथम स्थान से दुसरे स्थान पर धकेलने का कुचक्र प्रारम्भ हुआ, जिसमंे शत्रओं को आंशिक सफलता भी मिली। क्षत्रियों की राज्य शक्ति को कमजोर करने के लिए क्षत्रिय इतिहास को कलंकित कर क्षत्रियों के गौरव पर चोट करने की दिशा में आमेर नरेशों के मुगलों से विवादित वैवाहिक सम्बन्धों (Amer-Mughal marital relationship) के बारे में इतिहास में भ्रामक बातें लिखकर क्षत्रियों को नीचा दिखाने की कोशिश की गई। इतिहास में असत्य तथ्यों पर आधारित यह प्रकरण आमजन में काफी चर्चित रहा है।

इन कथित वैवाहिक संबंधों पर आज अकबर और आमेर नरेश भारमल की तथाकथित बेटी हरखा बाई (जिसे फ़िल्मी भांडों ने जोधा बाई नाम दे रखा है) के विवाह की कई स्वयंभू विद्वान आलोचना करते हुए इस कार्य को धर्म-विरुद्ध और निंदनीय बताते नही थकते। उनकी नजर में इस तरह के विवाह हिन्दू जाति के आदर्शों की अवहेलना थी। वहीं कुछ विद्वानों सहित राजपूत समाज के लोगों का मानना है कि भारमल में अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए अकबर से अपनी किसी पासवान-पुत्री के साथ विवाह किया था। चूँकि मुसलमान वैवाहिक मान्यता के लिए महिला की जाति नहीं देखते और राजपूत समाज किसी राजपूत द्वारा विजातीय महिला के साथ विवाह को मान्यता नहीं देता। इस दृष्टि से मुसलमान, राजा की विजातीय महिला से उत्पन्न संतान को उसकी संतान मानते है। जबकि राजपूत समाज विजातीय महिला द्वारा उत्पन्न संतान को राजपूत नहीं मानते, ना ही ऐसी संतानों के साथ राजपूत समाज वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करते है। अतः ऐसे में विजातीय महिला से उत्पन्न संतान को पिता द्वारा किसी विजातीय के साथ ब्याहना और उसका कन्यादान करना धर्म सम्मत बाध्यता भी बन जाता है। क्योंकि यदि ऐसा नही किया गया जाता तो उस कन्या का जीवन चौपट हो जाता था। वह मात्र दासी या किसी राजपूत राजा की रखैल से ज्यादा अच्छा जीवन नहीं जी सकती थी।

भारमल द्वारा अकबर को ब्याही हरखा बाई का भी जन्म राजपूत समाज व लगभग सभी इतिहासकार इसी तरह किसी पासवान की कोख से मानते है। यही कारण है कि भारमल द्वारा जब अकबर से हरखा का विवाह करवा दिया तो तत्कालीन सभी धर्मगुरुओं द्वारा भारमल के इस कार्य की प्रसंशा की गयी।

अंग्रेज़ और शेखावाटी की राजपुतानियों का संघर्ष

सन 1803 में राजस्थान में जयपुर रियासत की ईस्ट इंडिया कम्पनी से मैत्रिक संधि व कुछ अन्य रियासतों द्वारा भी मराठों और पिंडारियों की लूट खसोट से तंग राजस्थान की रियासतों ने सन 1818ई में शांति की चाहत में अंग्रेजों से संधियां की| शेखावाटी के अर्ध-स्वतंत्र शासकों से भी अंग्रेजों ने जयपुर के माध्यम से संधि की कोशिशें की| लेकिन स्वतंत्र जीवन जीने के आदि शेखावाटी के शासकों पर इन संधियों की आड़ में शेखावाटी में अंग्रेजों का प्रवेश और हस्तक्षेप करने के चलते इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा| अंग्रेजों के दखल की नीति के चलते शेखावाटी के छोटे-छोटे शासकों ने अपने सामर्थ्य अनुसार अंग्रेजों का विरोध किया और अग्रेजों के साथ खूनी लड़ाईयां भी लड़ी| बिसाऊ के ठाकुर श्यामसिंह व मंडावा के ठाकुर ज्ञान सिंह अंग्रेजों की खिलाफत करने वाले शेखावाटी के प्रथम व्यक्ति थे| इन दोनों ठाकुरों ने वि.सं.1868 में पंजाब के महाराजा रणजीतसिंह की सहातार्थ अंग्रेजों के खिलाफ अपनी सेनाएं भेजी थी|

चित्र प्रतीकात्मक है|
अमर सिंह शेखावत (भोजराज जी का) ने बहल पर अधिकार कर लिया था, उसकी मृत्यु के बाद कानसिंह ने वहां की गद्दी संभाली और बहल पर अपना अधिकार जमाये रखने के लिए ददरेवा के सूरजमल राठौड़, श्यामसिंह बिसाऊ, संपत सिंह शेखावत, आदि के साथ अपनी स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के साथ संघर्ष जारी रखा, प्रचलित जनश्रुतियों के अनुसार इनके नेतृत्व में तीन हजार भोजराज जी का शाखा के शेखावत अंग्रेजों से लड़ने पहुँच गए थे| इनके साथ ही शेखावाटी के विभिन्न शासकों अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में उतर आये थे, जो अंग्रेज व अंग्रेजों से संधि किये शासकों द्वारा शासित प्रदेशों में अक्सर धावे डालकर लूटपाट करते| ये क्रांतिकारी अक्सर अंग्रेजों की सैनिक छावनियां लूटकर अंग्रेज सत्ता को चुनौती देते| अंग्रेजों ने इनकी गतिविधियों की अंकुश लगाने के लिए राजस्थान की देशी रियासतों के माध्यम से भसक कोशिश की पर ये क्रांतिकारी जयपुर, बीकानेर, जोधपुर किसी भी रियासत के वश में नहीं थे|

आखिर अंग्रेजों ने शेखावाटी के इन क्रांतिवीरों के दमन के लिए जिन्हें अंग्रेज लूटेरे व डाकू कहते थे, शेखावाटी ब्रिगेड की स्थापना की| जिसका मुख्यालय झुंझनु रखा गया और मेजर फोरेस्टर को इसका नेतृत्त्व सौंपा गया| मेजर फोरेस्टर ने शेखावाटी के सीमावर्ती उन किलों को तोड़ना शुरू किया, जिनमें ये क्रांतिकारी अक्सर छुपने के लिए इस्तेमाल करते थे| मेजर की इस कार्यवाही में अक्सर शेखावाटी के क्रांतिकारियों की शेखावाटी ब्रिगेड से झड़पें हो जाया करती थी| इस ब्रिगेड में भर्ती हुये शेखावाटी के ठाकुर डूंगरसिंह व जवाहर सिंह, पटोदा ने ब्रिगेड के ऊंट-घोड़े व हथियार लेकर विद्रोह कर दिया था| गुडा के क्रांतिकारी दुल्हेसिंह शेखावत शेखावाटी ब्रिगेड के साथ एक झड़प में शहीद हो गए| मेजर फोरेस्टर ने उनका सिर कटवाकर झुंझनु में लटका दिया, ताकि अन्य क्रान्ति की चाह रखने वाले भयभीत हो सकें| लेकिन एक साहसी क्रांतिकारी खांगा मीणा रात में उनका सिर उतार लाया और मेजर फोरेस्टर की सेना देखती रह गई|

मेजर फोरेस्टर ने गुमानसिंह, शेखावत, टाई जो वि.सं. 1890 में भोड़की चले गए थे, के प्रपोत्र रामसिंह को सजा देने के लिए भोड़की गढ़ को तोड़ने के लिए तोपखाने सहित आक्रमण किया| इससे पूर्व जी रामसिंह तथा उनके भाई बेटे पकड़े जा चुके थे| अत: मेजर फोरेस्टर का मुकाबला करने के लिए रामसिंह की ठकुरानी ने तैयारी की| ठकुरानी के आव्हान पर भोड़की की सभी राजपुतानियाँ मरने के लिए तैयारी हो गई और भोड़की गढ़ में तलवारें लेकर मुकाबले को आ डटी|

राजपुतानियों के हाथों में नंगी तलवारें और युद्ध कर वीरता दिखाने के उत्साह व अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान देने की ललक देख मेजर फोरेस्टर ने बिना गढ़ तोड़े ही अपनी सेना को वहां से हटा लिया| इस तरह राजपूत नारियों के साहस, दृढ़ता के आगे अपनी कठोरता के लिए इतिहास में प्रसिद्ध मेजर फोरेस्टर को भी युद्ध का मैदान छोड़ना पड़ा|

राव जयमल मेड़ता और राव मालदेव

राव विरमदेव के स्वर्गवास होने के बाद राव जयमल मेड़ता का शासक बना, चूँकि जयमल को बचपन से ही जोधपुर के शक्तिशाली शासक राव मालदेव के मन में मेड़ता के खिलाफ घृणा का पता था, साथ ही जयमल राव मालदेव की अपने से दस गुना बड़ी सेना का कई बार मुकाबला कर चुका था अत: उसे विश्वास था कि मालदेव मौका मिलते ही मेड़ता पर आक्रमण अवश्य करेगा सो उसनें शुरू से सैनिक तैयारियां जारी रखी और अपने सीमित संसधानों के अनुरूप सेना तैयार की| हालाँकि जोधपुर राज्य के सामने उसके पास संसाधन क्षीण थे|

आखिर संवत १६१० में राव मालदेव विशाल सेना के साथ मेड़ता पर आक्रमण हेतु अग्रसर हुआ| जयमल चूँकि जोधपुर की विशाल सेनाएं अपने पिता के राज्यकाल में देख चुका था, उसे पता था कि जोधपुर के आगे उसकी शक्ति कुछ भी नहीं| सो उसनें बीकानेर से सहायता लेने के साथ ही मालदेव से संधि कर युद्ध रोकने की कोशिश की, चूँकि सेनाओं में दोनों और के सैनिक व सामंत सभी आपसी निकट संबंधी ही थे सो जयमल नहीं चाहता था कि निकट संबंधी या भाई आपस में लड़े मरे, सो उसनें मालदेव के एक सेनापति पृथ्वीराज जैतावत को संदेश भेजकर संधि की बात की व भाईचारा कायम रखते हुए युद्ध बंद करने हेतु अपने दो सामंत अखैराज भादा व चांदराज जोधावत को अपना दूत बना मालदेव के शिविर में भेजा|

जयमल के दूतों ने मालदेव से युद्ध रोकने की विनती करते हुए कहा जयमल का संदेश दिया कि–“ हम आप ही के छोटे भाई है और आपकी सेवा चाकरी करने के लिए तैयार है सो हमसे युद्ध नहीं करे|”

राव मालदेव ने बड़े अहम् भाव से दूतों से कहा – “अब तो हम जयमल से मेड़ता छिनेंगे|”

दूत अखैराज ने कहा- “मेड़ता कौन लेता है और कौन देता है, जिसने आपको जोधपुर दिया उसी ने हमको मेड़ता दिया|”

इस पर राव मालदेव ने व्यंग्य से कहा – “जयमल के सामंत निर्बल है|”

चूँकि दोनों दूत अखैराज व चांदराज जयमल के प्रमुख सामंत थे सो राव मालदेव का व्यंग्य बाण दोनों के दिलों को भेद गया और वे गुस्से से लाल पीले होते हुए उठ खड़े हुए| गुस्से से उठते हुए अखैराज ने राव मालदेव के सामने अपने गले में बंधा हुआ दुपट्टा हाथ में ले ऐसा जोर से झटका कि उसके तार-तार बिखर गये| अखैराज द्वारा अपना दम दिखाने के बाद सामंत चांदराज ने गुस्से से लाल पीले होते हुए पास ही खड़े एक घोड़े की काठी के तंग पकड़कर घोड़े को ऊपर उठा अपना बल प्रदर्शित किया| और दोनों वहां से चले आये|

मुंहता नैणसी अपनी ख्यात में लिखता है कि- दोनों के चले जाने बाद राव मालदेव ने अपने सामंतों से दुपट्टे के झटके लगवाये पर कोई सामंत झटका मार कर दुपट्टे के तार नहीं निकाल सका|

इस तरह जयमल द्वारा की गई शांति की कोशिश विफल हुई, दोनों के मध्य युद्ध हुआ, मेड़तीयों ने संख्या बल में कम होने के बावजूद इतना भीषण युद्ध किया कि जोधपुर की सेना को पीछे हटना पड़ा और राव मालदेव को जान बचाने हेतु युद्ध भूमि से जाना पड़ा|

काश ऐसे महाबली योद्धा छोटे छोटे मामलों को लेकर आपस में ना उलझते🙏

मंगलवार, 12 जून 2018

राठौड़ वंश की खापें

राठौड़ वंश की खापें

1. इडरिया राठौड़
2. हटुण्डिया राठौड़
3. बाढेल (बाढेर) राठौड़
4. बाजी राठौड़
5. खेड़ेचा राठौड़
6. धुहडि़या राठौड़
7. धांधल राठौड़
8. चाचक राठौड़
9. हरखावत राठौड़
10. जोलू राठौड़
11. सिंघल राठौड़
12. उहड़ राठौड़
13. मूलू राठौड़
14. बरजोर राठौड़
15. जोरावत राठौड़
16. रैकवार राठौड़
17. बागडि़या राठौड़
18. छप्पनिया राठौड़
19. आसल राठौड़
20. खोपसा राठौड़
21. सिरवी राठौड़
22. पीथड़ राठौड़
23. कोटेचा राठौड़
24. बहड़ राठौड़
25. ऊनड़ राठौड़
26. फिटक राठौड़
27. सुण्डा राठौड़
28. महीपालोत राठौड़
29. शिवराजोत राठौड़
30. डांगी राठौड़
31. मोहणोत राठौड़
32. मापावत राठौड़
33. लूका राठौड़
34. राजक राठौड़
35. विक्रमायत राठौड़
36. भोवोत राठौड़
37. बांदर राठौड़
38. ऊडा राठौड़
39. खोखर राठौड़
40. सिंहमकलोत राठौड़
41. बीठवासा राठौड़
42. सलखावत राठौड़
43. जैतमालोत राठौड़
44. खावडिया राठौड़ 
खावडिया राठौड़ की चार   उप शाखाएँ हैं 1 बाड़मेरा 2 कोटडिया 3 धारवीया 4 कान्हारिया
45. राड़धड़ा राठौड़
46. महेचा राठौड़ (महेचा राठौड़ की चार उप शाखाएँ है।)
47. पोकरण राठौड़
48. बाडमेरा राठौड़
49. कोटडि़या राठौड़
50. धारवीया राठौड़
51. गोगादेव राठौड़
52. देवराजोत राठौड़
53. चाड़ देवोत राठौड़
54. जैसिंधवे राठौड़
55. सातावत राठौड़
56. भीमावत राठौड़
57. अरड़कमलोत राठौड़
58. रणधीरोत राठौड़
59. अर्जुनोत राठौड़
60. कानावत राठौड़
61. पूनावत राठौड़
62. जैतावत राठौड़ (जैतावत राठौड़ की तीन उप शाखाएँ है।)
63. कालावत राठौड़
64. भादावत राठौड़
65. कूँपावत राठौड़ (कूँपावत राठौड़ की 7 उप शाखाएँ है।)

66. बीदावत राठौड़ ( बीदावत राठौड़ की 22 उप शाखाएँ है।)

67. उदावत राठौड़
68. बनीरोत राठौड़ (बनीरोत राठौड़ की 11 उप शाखाएँ है।)

69. कांधल राठौड़ ( कांधल राठौड़ की चार उप शाखाएँ है।)
70. चांपावत राठौड़ (चांपावत राठौड़ की 15 उप शाखाएँ है।)

71. मण्डलावत राठौड़ (मण्डलावत राठौड़ की 13 उप शाखाएँ है।)
72. मेड़तिया राठौड़ (मेड़तिया राठौड़ की 26 उप शाखाएँ है।)
73. जौधा राठौड़ (जौधा राठौड़ की 45 उप शाखाएँ है।)
74. बीका राठौड़ (बीका राठौड़ की 26 उप शाखाएँ है।)

महेचा राठौड़ की चार उप शाखाएँ

1. पातावत महेचा
2. कालावत महेचा
3. दूदावत महेचा
4. उगा महेचा

जैतावत राठौड़ की तीन उप शाखाएँ

1. पिरथी राजोत जैतावत
2. आसकरनोत जैतावत
3. भोपतोत जैतावत

कूँपावत राठौड़ की 7 उप शाखाएँ

1. महेशदासोत कूंपावत
2. ईश्वरदासोत कूंपावत
3. माणण्डणोत कूंपावत
4. जोध सिंगोत कूंपावत
5. महासिंगोत कूंपावत
6. उदयसिंगोत कूंपावत
7. तिलोक सिंगोत कूंपावत

बीदावत राठौड़ की 22 उप शाखाएँ

1. केशवदासोत बीदावत
2. सावलदासोत बीदावत
3. धनावत बीदावत
4. सीहावत बीदावत
5. दयालदासोत बीदावत
6. घेनावत बीदावत
7. मदनावत बीदावत
8. खंगारोत बीदावत
9. हरावत बीदावत
10. भीवराजोत बीदावत
11. बैरसलोत बीदावत
12. डँूगरसिंगोत बीदावत
13. भोजराज बीदावत
14. रासावत बीदावत
15. उदयकरणोत बीदावत
16. जालपदासोत बीदावत
17. किशनावत बीदावत
18. रामदासोत बीदावत
19. गोपाल दासोत
20. पृथ्वीराजोत बीदावत
21. मनोहरदासोत बीदावत
22. तेजसिंहोत बीदावत

बनीरोत राठौड़ की 11 उप शाखाएँ

1. मेघराजोत बनीरोत
2. मेकरणोत बनीरोत
3. अचलदासोत बनीरोत
4. सूरजसिंहोत बनीरोत
5. जयमलोत बनीरोत
6. प्रतापसिंहोत बनीरोत
7. भोजरोत बनीरोत
8. चत्र सालोत बनीरोत
9. नथमलोत बनीरोत
10. धीरसिंगोत बनीरोत
11. हरिसिंगोत बनीरोत

कांधल राठौड़ की चार उप शाखाएँ

1. रावरोत कांधल
2. सांइदासोत कांधल
3. पूर्णमलोत कांधल
4. परवतोत कांधल

चांपावत राठौड़ की 15 उप शाखाएँ

1. संगतसिंहोत चांपावत
2. रामसिंहोत चांपावत
3. जगमलोत चांपावत
4. गोयन्द दासोत चांपावत
5. केसोदासोत चांपावत
6. रायसिंहोत चांपावत
7. रायमलोत चांपावत
8. विठलदासोत चांपावत
9. बलोत चांपावत
10. हरभाणोत चांपावत
11. भोपतोत चांपावत
12. खेत सिंहोत चांपावत
13. हरिदासोत चांपावत
14. आईदानोत चांपावत
15. किणाल दासोत चांपावत

मण्डलावत राठौड़ की 13 उप शाखाएँ

1. भाखरोत बाला राठौड़
2. पाताजी राठौड़
3. रूपावत राठौड़
4. करणोत राठौड़
5. माण्डणोत राठौड़
6. नाथोत राठौड़
7. सांडावत राठौड़
8. बेरावत राठौड़
9. अड़वाल राठौड़
10. खेतसिंहोत राठौड़
11. लाखावत राठौड़
12. डूंगरोत राठौड़
13. भोजराजोत राठौड़

मेड़तिया राठौड़ की 26 उप शाखाएँ

1. जयमलोत मेड़तिया
2. सुरतानोत मेड़तिया
3. केशव दासोत मेड़तिया
4. अखैसिंहोत मेड़तिया
5. अमरसिंहोत मेड़तिया
6. गोयन्ददासोत मेड़तिया
7. रघुनाथ सिंहोत मेड़तिया
8. श्यामसिंहोत मेड़तिया
9. माधोसिंहोत मेड़तिया
10. कल्याण दासोत मेड़तिया
11. बिशन दासोत मेड़तिया
12. रामदासोत मेड़तिया
13. बिठलदासोत मेड़तिया
14. मुकन्द दासोत मेड़तिया
15. नारायण दासोत मेड़तिया
16. द्वारकादासोत मेड़तिया
17. हरिदासोत मेड़तिया
18. शार्दूलोत मेड़तिया
19. अनोतसिंहोत मेड़तिया
20. ईशर दासोत मेड़तिया
21. जगमलोत मेड़तिया
22. चांदावत मेड़तिया
23. प्रतापसिंहोत मेड़तिया
24. गोपीनाथोत मेड़तिया
25. मांडणोत मेड़तिया
26. रायसालोत मेड़तिया

जौधा राठौड़ की 45 उप शाखाएँ

1. बरसिंगोत जौधा
2. रामावत जौधा
3. भारमलोत जौधा
4. शिवराजोत जौधा
5. रायपालोत जौधा
6. करमसोत जौधा
7. बणीवीरोत जौधा
8. खंगारोत जौधा
9. नरावत जौधा
10. सांगावत जौधा
11. प्रतापदासोत जौधा
12. देवीदासोत जौधा
13. सिखावत जौधा
14. नापावत जौधा
15. बाघावत जौधा
16. प्रताप सिंहोत जौधा
17. गंगावत जौधा
18. किशनावत जौधा
19. रामोत जौधा
20. के सादोसोत जौधा
21. चन्द्रसेणोत जौधा
22. रत्नसिंहोत जौधा
23. महेश दासोत जौधा
24. भोजराजोत जौधा
25. अभैराजोत जौधा
26. केसरी सिंहोत जौधा
27. बिहारी दासोत जौधा
28. कमरसेनोत जौधा
29. भानोत जौधा
30. डंूगरोत जौधा
31. गोयन्द दासोत जौधा
32. जयत सिंहोत जौधा
33. माधो दासोत जौधा
34. सकत सिंहोत जौधा
35. किशन सिंहोत जौधा
36. नरहर दासोत जौधा
37. गोपाल दासोत जौधा
38. जगनाथोत जौधा
39. रत्न सिंगोत जौधा
40. कल्याणदासोत जौधा
41. फतेहसिंगोत जौधा
42. जैतसिंहोत जौधा
43. रतनोत जौधा
44. अमरसिंहोत जौधा
45. आन्नदसिगोत जौधा

बीका राठौड़ की 26 उप शाखाएँ

1. घुड़सिगोत बीका
2. राजसिंगोत बीका
3. मेघराजोत बीका
4. केलण बीका
5. अमरावत बीका
6. बीकस बीका
7. रतनसिंहोत बीका
8. प्रतापसिंहोत बीका
9. नारणोत बीका
10. बलभद्रोत नारणोत बीका
11. भोपतोत बीका
12. जैमलोत बीका
13. तेजसिंहोत बीका
14. सूरजमलोत बीका
15. करमसिंहोत बीका
16. नीबावत बीका
17. भीमराजोत बीका
18. बाघावत बीका
19. माधोदासोत बीका
20. मालदेवोत बीका
21. श्रृगोंत बीका
22. गोपालदासोत बीका
23. पृथ्वीराजोत बीका
24. किशनहोत बीका
25. अमरसिंहोत बीका
26. राजवी बीका

शनिवार, 9 जून 2018

तोगा जी राठौर

तोगा जी राठौर जो शीश कटने के बाद भी लड़ते रहे.......
                इतिहास गबाह है वीरता किसी कि बपौती नहीं रही। आम राजपूत से लेकर खास तक ने अपनी सरजमीं के लिए सर कटा दिया। लेकिन इसे विडम्बना ही कहेंगे कि इतिहास में ज्यादातर उन्हीं वीरों की स्थान मिल पाया जो किसी न किसी रूप में खास थे | आम व्यक्ति की वीरता इतिहास के पन्नों पर बेहद कम आईं ,आई भी तो कुछ शब्दों तक सीमित| ऐसा ही एक बेहतरीन उदाहरण दिया है मारवाड़ के एक आम राजपूत तोगाजी राठौर ने, जिन्होंने सिद्ध किया कि राजपूत गर्दन कटने के बाद भी लड़ सकता है।।
                वर्ष 1656 के आसपास का समय था | दिल्ली पर बादशाह शाहजहां व जोधपुर पर राजा गजसिंह  का शासन था। एक दिन शाहजहां का दरबार लगा हुआ था। सभी उमराव (राजपूत)और खान अपनी अपनी जगह पर विराजित थे| उसी समय शाहजहां ने कहा कि अपने दरबार में खान 60 व उमराव 62 क्यों है? उन्होंने दरबारियों से कहा कि इसका जवाब तत्काल चाहिए | सभा में सन्नाटा पसर गया | सभी एक दूसरे को ताकने लगे। सबने अपना जवाब दिया, लेकिन बादशाह संतुष्ट नहीं हुआ । आखिरकार दक्षिण का सुबेदार मीरखां खड़ा हुआ और उसने कहा कि खानों से दो बातों में उमराव आगे है इस कारण दरबार में उनकी संख्या अधिक है।
पहला / सिर कटने के बावजूद युद्ध करना ।
दूसरा / युद्धभूमि में पति के वीरगति को प्राप्त होने पर पत्नी का सति (अग्नि में जिंदा प्रेवेश) होना।
               शाहजहां जवाब सुनने के बाद कुछ समय के लिए मौन रहा | अगले ही पल उसने कहा कि ये दोनों नजारे वह अपनी आंखों से देखना चाहता है | इसके लिए उसने छह माह का समय निर्धारित किया । साथ ही उसने यह भी आदेश दिया कि दोनों बातें छह माह के भीतर साबित नहीं हुई तो मीरखां का कत्ल करवा दिया जाएगा और उमराव की संख्या कम कर दी जाएगी। इस समय दरबार में मौजूद जोधपुर के महाराजा गजसिंह जी को यह बात अखर गई| उन्होंने मीरखां को इस काम के लिए मदद करने का आश्वासन दिया |
              मीरखां चार महीने तक राज रजवाड़ों में घूमते रहे लेकिन ऐसा वीर नही मिला जो कह सके कि बो सिर कटने के बाद भी लड़ लेगा। आखिरकार मीरखां जोधपुर महाराजा गजसिंह जी से आ कर मिले । महाराजा ने तत्काल उमरावों की सभा बुलाई| महाराजा ने जब शाहजहां की बात बताई तो सभा में सन्नाटा छा गया । महाराजा की इस बात पर कोई आगे नहीं आया । इस पर महाराजा गजसिंह जी की आंखें लाल हो गई और भुजाएं फड़कने लगी। उन्होंने गरजना के साथ कहा कि आज मेरे वीरों में कायरता आ गई है क्या अगर आप में से कोई तैयार नहीं है तो यह काम में स्वयं करूँगा। महाराजा इससे आगे कुछ बोलते कि उससे पहले 18 साल का एक जवान उठकर खड़ा हुआ। उसने महाराजा को खम्माघणी करते हुए कहा कि हुकुम मेरे रहते आपकी बारी कैसे आएगी| बोलता-बोलता रुका तो महाराज ने इसका कारण पूछ लिया| उस जवान युवक ने कहा कि अन्नदाता हुकुम सिर कटने के बाद लड़ तो लूँगा, लेकिन पीछे सति होने वाली कोई नहीं है अर्थात मेरी शादी नही हुई है| यह वीरता दिखाने वाला थे तोगाजी राठौर|  
               महाराजा इस विचार में डूब गए कि लड़ने वाला तो तैयार हो गया, लेकिन सति होने की परीक्षा कौन दे | महाराजा ने सभा में दूसरा बेड़ा घुमाया कि कोई राजपूत इस युवक से अपनी बेटी का विवाह सति होने के लिए करे| तभी एक भाटी सिरदार इसके लिए राजी हो गए ।

भाटी कुल री रीत, आ आजाद सूं आ वती ।
करण काज कुल कीत, भटियाणी होवे सती।
          
                महाराजा ने अच्छा मुहूर्त दिखवा कर तोगा राठौऱ का विवाह करवाया । विवाह के बाद तोगाजी ने अपनी पत्नी के डेरे में जाने से इनकार कर दिया | वे बोले कि उनसे तो स्वर्ग में ही मिलाप करूँगा । उधर, मीरखां भी इस वीर जोड़े की वीरता के दिवाने हो गये | उन्होंने तोगा राठौर का वंश बढ़ाने की सोच शाहजहां से छह माह की मोहलत बढ़वाने का विचार किया, ज्योंहि यह बात नव दुल्हन को पता चली तो उसने अपने पति तोगोजी को सूचना भिजवाई कि जिस उद्देश्य को लेकर दोनों का विवाह हुआ है वह पूरा किये बिना वे ढंग से श्वास भी नहीं ले पाएंगी| इस कारण शीघ्र ही शाहजहाँ के सामने जाने की तैयारी की जाए| महाराजा गजसिंह व मीरखां ने शाहजहाँ को सूचना भिजवा दी|
समाचार मिलते ही शाहजहां ने अपने दो बहादूर जवाजों को तोगाजी से लड़ने के लिए तेयार किया । शाहजहां ने उनको सिखाया कि तोगा व उसके साथियों को पहले दिन भोज दिया जायेगा ,जब वे लोग भोज करने बैठें उस वक्त तोगे का सिर काट देना ताकि वह खड़ा ही नहीं हो सके। उधर, तोगाजी  आगरा पहुंच गए। बादशाह ने उन्हें दावत का न्योता भिजवाया। तोगाजी अपने साथियों के साथ किले पहुँच गए। वहां उनका सम्मान किया गया। मान-मनुहारें हुई बहुत से लोग उन्हें देखने पहुंचे। बादशाह की रणनीति के तहत एक जवान तोगाजी के ईद-गीर्द चक्कर लगाने लगा । तोगाजी को धोखा होने का संदेह हो गया। उन्होंने अपने पास के एक राजपूत सरदार से कहा कि उन्हें कुछ गड़बड़ लग रही है इस कारण उनके आसपास घूम रहे व्यक्ति को आप संभाल लेना ओर उनका भी सिर काट देना। उसके बाद वह अपना काम कर देगा । दूसरी तरफ तोगोजी की पत्नी भी सती होने के लिए जमुना नदी किनारे तैयार हो बैठ गई । इतने में दरीखाने से चीखने-चिल्लाने की आवाजें आने लगी कि तोगाजी ने एक व्यक्ति को मार दिया फिर पास में खड़े किसी व्यक्ति ने तोगाजी का सिर धड़ से अलग कर दिया। तोगाजी बिना सिर तलवार लिये मुस्लिम सेना पर टूट पड़े। उनके इस करतब पर ढोल-नणाड़े बजने लगे। चारणों ने वीर रस के दोहे शुरू किए। ढोली व ढाढ़ी सोरठिया दोहा बोलने लगे। तोगोजी की तलवार रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। बादशाह के दरीखाने में हाहाकार मच गया। बादशाह दौड़ते हुए रणक्षेत्र में पहुंचे। दरबार में खड़े राजपूत सिरदारों ने तोगाजी ओर भटियाणी जी की जयकारों से आसमान गूंजा दिया तोगाजी की वरीता देखकर बादशाह ने महाराजा गजसिंह जी से माफी मांगी और इस वीर को रोकने की तरकीब पूछी। फिर एक ब्राह्मण ने तोगोजी के शरीर पर गुली का छिंटा फेंका जिस कारण तोगोजी की तलवार शांत हुई और धड़ नीचे गिरा।
                   उधर भटियाणी सोलह श्रृंगार कर बैठी हुई थी। जमना नदी के किनारे चंदन कि चिता चुनवाई गई। तोगाजी का धड़ व सिर गोदी में लेकर भटियाणी जी राम का नाम लेते हुए चिता में प्रवेश कर गई| धन्य है ऐसे क्षत्रिय ओर क्षत्राणी ।
              जय माँ भवानी ।

       ✍✍✍
     पृथ्वी सिहं राठोड़
              सोलंकिया तला