शुक्रवार, 19 अप्रैल 2019

शौर्य शेखा का

शेखाजी से हार के बाद चन्द्रसेन का अपनी हार पर चिन्तन करना और अपनी सेना को संगठित कर शेखाजी पर फिर से आक्रमण की तैयारी करना।

         शौर्य शेखा का अध्याय-6
    

शेखा आ तूँ बुरी करी,घटग्यो म्हारो माण।
वक़्त वक़्त री बातां सारी,वक़्त प लेस्यां जाण।।

वक़्त थारो तो आतोड़ो है,म्हारी गयी पिछाण।
शेर मारण र खातर शेखा,ऊँचो घाल्यो मचाण।।

चन्द्रसेन रा राज र माँहि,काळो पड्यो अकाश।
चाँद सूरज भी काळा पड़ग्या ,ना देवे प्रकाश।।

जीत है जश्न मानवणी,जीत्यो गढ़ आमेर।
रही अबे न लाग लपट अर,ना ही रही बछेर।।

शेखा थारो जस बढियो बढ्यो सिंघ रो राज।
कुल कछावा माँहि शेखो,भुपां रो शरताज।।

हार,हरण सूं मरण भलो,भलो बिना सिर ताज।
काट्या पंख पखेरू रा,ना पँखा परवाज।।

चिंता चिता समान है,चिंता चित रो नाश।
चिंता छोडो चंद्रराज जी,इण सूं हुवे विनाश।।

गढ़ आमेरी लश्कर डटिया,गाँव धुळी र खेत।
आज बचेड़ो चुकसी शेखा,चुकसी सूद समेत।।

घणो तने समझायो चन्दरजी,मत न रोपे फ़ांस।
रण मं पीठ दिखावणियो,तूँ कुल रो खोनाश।।

हारया ओजूं फेर चन्दरजी,भाग रह्या ढुंढाँर।
अबक शेखोजी कर लियो,कूकस पर अधिकार।।

जे गढ़ आमेरी सूरज डूब्यो,रुळ ज्यासी ढ़ूंढ़ाड़।
एको करल्यो अब सगळा,जीत लेवां बरवाड़।।

शेखो अब ललकार रह्यो,सकल कछावा भूप।
कसल्यो काठी घुड़लां री,रण में करस्यां कूच।।

नरुजी जायो नार रो,चन्दर थारे साथ।
गढ़ आमेरी मान राखस्यां,धर तरवारां हाथ।।

रणछोड़ू रणधीर थे होग्या,दो बर बखस्या प्राण।
तीजां रण र माहि चन्दर जी,थारा जगे मसाण।।

किण भगतां तूं जण्यो चंद्रजी,कलंक लग्यो रघुराज।
घणा घणा कुलधीर जन्मिया,इण कुल रा सिरताज।।

कुबद थारी अब मिटे चन्द्रजी,रख रजपूती मान।
कायर बणियो कुळ कलंक ,भागे रण मैदान।।

रजपूती रो जायो नहीं,जे छूटे मैदान।
ओ शेखो तो रण रमें,रण रो है बरदान।।

जे तूं साँचो बीर कहिजे,रण मं मिल्जये आज।
थारो शीश चढ़ाय के,रखूँ कछावा लाज।।

कुल कछाव जन्म लियो,जन्माय वीर अनूप।
शेखा मिलसी रण माँहि,सकल ढूंढाड़ी भूप।।

गढ़ आमेरी  लश्कर उतराया,कूकस नद री पाळ।
शेखाजी रा लश्कर देखो,शस्त्र लिया सम्भाळ।।

देख शेखा रा लश्कर न,नरजी है बेहाल।
सूरज जेड़ो चमक रह्यो,शेखाजी रो भाल।।

झट नरजी अब पाळो बदल्यो,शेखाजी शरणाय।
नरजी थारे  साथ है शेखा,हारलो चन्दराय।।

नरजी शेखा लश्कर माँहि,लग्यो चन्दर र घात।
म्हरो साथ निभावणीय अब,शेखाजी र साथ।।

हार मान क अब चन्द्रजी भेज्यो एक प्रस्ताव।
शेखा संधि मान ल्यो म्हारी,मेटो अब दुर्भाव।।

बुधवार, 17 अप्रैल 2019

हुंकार कलंगी ,(चुण्डावत सिरदार)

हुंकार कलंगी ,(चुण्डावत सिरदार)
ठिकाणा-कोशीथल(मेवाड़)
*मांजी मराठा मारीया ,
       *रणचंडी बण रा"ड़ ।
*पाई हुंकार कलँगी ,
     *मुकट  मणीं  मेवाड़।।
दोहा रचना द्वारा----
*भगवतसिंह बालावत रायथल
हुंकार की कलंगी : लोक कथा
उदयपुर के महलों में राणा जी ने आपात सभा बुला रखी थी| सभा में बैठे हर सरदार के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ़ नजर आ रही थी, आँखों में गहरे भाव नजर आ रहे थे सबके हाव भाव देखकर ही लग रहा था कि किसी तगड़े दुश्मन के साथ युद्ध की रणनीति पर गंभीर विचार विमर्श हो रहा है| सभा में प्रधान की और देखते हुए राणा जी ने गंभीर होते हुए कहा-
“इन मराठों ने तो आये दिन हमला कर सिर दर्द कर रखा है|”
“सिर दर्द क्या रखा है ? अन्नदाता ! इन मराठों ने तो पूरा मेवाड़ राज्य ही तबाह कर रखा है, गांवों को लूटना और उसके बाद आग लगा देने के अलावा तो ये मराठे कुछ जानते ही नहीं !” पास ही बैठे एक सरदार ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा|
“इन मराठों जैसी दुष्टता और धृष्टता तो बादशाही हमलों के समय मुसलमान भी नहीं करते थे| पर इन मराठों का उत्पात तो मानवता की सारी हदें ही पार कर रहा है| मुसलमान ढंग से लड़ते थे तो उनसे युद्ध करने में भी मजा आता था पर ये मराठे तो लूटपाट और आगजनी कर भाग खड़े होते है|” एक और सरदार ने पहले सरदार की बात को आगे बढाया|
सभा में इसी तरह की बातें सुन राणा जी और गंभीर हो गए, उनकी गंभीरता उनके चेहरे पर स्पष्ट नजर आ रही थी|
मराठों की सेना मेवाड़ पर हमला कर लूटपाट व आगजनी करते हुए आगे बढ़ रही थी मेवाड़ की जनता उनके उत्पात से बहुत आतंकित थी| उन्हीं से मुकाबला करने के लिए आज देर रात तक राणा जी मुकाबला करने के लिए रणनीति बना रहे थे और मराठों के खिलाफ युद्ध की तैयारी में जुटे थे| अपने ख़ास ख़ास सरदारों को बुलाकर उन्हें जिम्मेदारियां समझा रहे थे| तभी प्रधान जी ने पूरी परिस्थिति पर गौर करते हुए कहा-
“खजाना रुपयों से खाली है| मराठों के आतंक से प्रजा आतंकित है| मराठों की लूटपाट व आगजनी के चलते गांव के गांव खाली हो गए और प्रजा पलायन करने में लगी है| राजपूत भी अब पहले जैसे रहे नहीं जो इन उत्पातियों को पलक झपकते मार भगा दे और ऐसे दुष्टों के हमले झेल सके|”
प्रधान के मुंह से ऐसी बात सुन पास ही बैठे एक राजपूत सरदार ने आवेश में आकर बोला –“पहले जैसे राजपूत अब क्यों नहीं है ? कभी किसी संकट में पीछे हटे है तो बताएं ? आजतक हम तो गाजर मुली की तरह सिर कटवाते आये है और आप कह रहें है कि पहले जैसे राजपूत नहीं रहे ! पिछले दो सौ वर्षों से लगातार मेवाड़ पर हमले हो रहे है पहले मुसलमानों के और अब इन मराठों के| रात दिन सतत चलने वाले युद्धों में भाग लेते लेते राजपूतों के घरों की हालत क्या हो गयी है ? कभी देखा है आपने ! कभी राजपूतों के गांवों में जाकर देखो एक एक घर में दस दस शहीदों की विधवाएं बैठी मिलेंगी| फिर भी राजपूत तो अब भी सिर कटवाने के लिए तैयार है| बस एक हुक्म चाहिए राणा जी का! मराठा तो क्या खुद यमराज भी आ जायेंगे तब भी मेवाड़ के राजपूत पीठ नहीं दिखायेंगे|”
ये सुन राणा बोले- “राज पाने व बचाने के लिए गाजर मुली की तरह सिर कटवाने ही पड़ते है, इसीलिए तो कहा जाता है कि राज्य का स्वामी बनना आसान नहीं| स्वराज्य बलिदान मांगता है और हम राजपूतों ने अपने बलिदान के बूते ही यह राज हासिल किया है| धरती उसी की होती है जो इसे खून से सींचने के लिए तैयार रहे| हमारे पूर्वजों ने मेवाड़ भूमि को अपने खून से सींचा है| इसकी स्वतंत्रता के लिए जंगल जंगल ठोकरे खायी है| मातृभूमि की रक्षा के लिए घास की रोटियां खाई है, और अब ये लुटरे इसकी अस्मत लुटने आ गए तो क्या हम आसानी से इसे लुट जाने दे ? अपने पूर्वजों के बलिदान को यूँ ही जाया करें? इसलिए बैठकर बहस करना छोड़े और मराठों को माकूल जबाब देने की तैयारी करें|”
राणा की बात सुनकर सभा में चारों और चुप्पी छा गयी| सबकी नजरों के आगे सामने आई युद्ध की विपत्ति का दृश्य घूम रहा था| मराठों से मुकाबले के लिए इतनी तोपें कहाँ से आएगी? खजाना खाली है फिर सेना के लिए खर्च का बंदोबस्त कैसे होगा? सेना कैसे संगठित की जाय? सेना का सेनापति कौन होगा? साथ ही इन्हीं बिन्दुओं पर चर्चा भी होने लगी|
आखिर चर्चा पूरी होने के बाद राणा जी ने अपने सभी सरदारों व जागीरदारों के नाम एक पत्र लिख कर उसकी प्रतियाँ अलग-अलग घुड़सवारों को देकर तुरंत दौड़ाने का आदेश दिया|
पत्र में लिखा था-“मेवाड़ राज्य पर उत्पाती मराठों ने आक्रमण किया है उनका मुकाबला करने व उन्हें मार भगाने के लिए सभी सरदार व जागीरदार यह पत्र पहुँचते ही अपने सभी सैनिकों व अस्त्र-शस्त्रों के साथ मेवाड़ की फ़ौज में शामिल होने के लिए बिना कोई देरी किये जल्द से जल्द हाजिर हों|”
पत्र में राणा जी के दस्तखत के पास ही राणा द्वारा लिखा था- “जो जागीरदार इस संकट की घडी में हाजिर नहीं होगा उसकी जागीर जब्त कर ली जाएगी| इस मामले में किसी भी तरह की कोई रियायत नहीं दी जाएगी और इस हुक्म की तामिल ना करना देशद्रोह व हरामखोरी माना जायेगा|”
राणा का एक सवार राणा का पत्र लेकर मेवाड़ की एक जागीर कोसीथल पहुंचा और जागीर के प्रधान के हाथ में पत्र दिया| प्रधान ने पत्र पढ़ा तो उसके चेहरे की हवाइयां उड़ गयी| *कोसीथल चुंडावत राजपूतों के वंश की एक छोटीसी जागीर थी और उस वक्त सबसे बुरी बात यह थी कि उस वक्त उस जागीर का वारिस एक छोटा बच्चा था| कोई दो वर्ष पहले ही उस जागीर के जागीरदार ठाकुर एक युद्ध में शहीद हो गए थे और उनका छोटा सा इकलौता बेटा उस वक्त जागीर की गद्दी पर था| इसलिए जागीर के प्रधान की हवाइयां उड़ रही थी| राणा जी का बुलावा आया है और गद्दी पर एक बालक है वो कैसे युद्ध में जायेगा? प्रधान के आगे एक बहुत बड़ा संकट आ गया| सोचने लगा-“क्या इन मराठों को भी अभी हमला करना था| कहीं ईश्वर उनकी परीक्षा तो नहीं ले रहा?”*
प्रधान राणा का सन्देश लेकर जनाना महल के द्वार पर पहुंचा और दासी की मार्फ़त माजी साहब (जागीरदार बच्चे की विधवा माँ) को आपात मुलाकात करने की अर्ज की|
दासी के मुंह से प्रधान द्वारा आपात मुलाकात की बात सुनते ही माजी साहब के दिल की धडकनें बढ़ गयी-“पता नहीं अचानक कोई मुसीबत तो नहीं आ गयी?”
खैर.. माजी साहब ने तुरंत प्रधान को बुलाया और परदे के पीछे खड़े होकर प्रधान का अभिवादन स्वीकार करते हुए पत्र प्राप्त किया| पत्र पढ़ते ही माजी साहब के मुंह से सिर्फ एक छोटा सा वाक्य ही निकला-“हे ईश्वर ! अब क्या होगा?” और वे प्रधान से बोली-“अब क्या करें ? आप ही कोई सलाह दे! जागीर के ठाकुर साहब तो आज सिर्फ दो ही वर्ष के बच्चे है उन्हें राणा जी की चाकरी में युद्ध के लिए कैसे ले जाया जाय ?
तभी माजी के बेटे ने आकर माजी साहब की अंगुली पकड़ी| माजी ने बेटे का7 मासूम चेहरा देखा तो उनके हृदय ममता से भर गया| मासूम बेटे की नजर से नजर मिलते ही माजी के हृदय में उसके लिए उसकी जागीर के लिए दुःख उमड़ पड़ा| राणा जी द्वारा पत्र में लिखे *आखिरी वाक्य माजी साहब के नजरों के आगे घुमने लगे-“हुक्म की तामिल नहीं की गयी तो जागीर जब्त कर ली जाएगी| देशद्रोह व हरामखोरी समझा जायेगा आदि आदि|”*
पत्र के आखिरी वाक्यों ने माजी सा के मन में ढेरों विचारों का सैलाब उठा दिया-“जागीर जब्त हो जाएगी ! देशद्रोह व हरामखोरी समझा जायेगा! मेरा बेटा अपने पूर्वजों के राज्य से बाहर बेदखल हो जायेगा और ऐसा हुआ तो उनकी समाज में कौन इज्जत करेगा? पर उसका आज बाप जिन्दा नहीं है तो क्या हुआ ? मैं माँ तो जिन्दा हूँ! यदि मेरे जीते जी मेरे बेटे का अधिकार छिना जाए तो मेरा जीना बेकार है ऐसे जीवन पर धिक्कार| और फिर मैं ऐसी तो नहीं जो अपने पूर्वजों के वंश पर कायरता का दाग लगने दूँ, उस वंश पर जिसनें कई पीढ़ियों से बलिदान देकर इस भूमि को पाया है मैं उनकी इस बलिदानी भूमि को ऐसे आसानी से कैसे जाने दूँ ?
*ऐसे विचार करते हुए माजी सा की आँखों वे दृश्य घुमने लगे जो युद्ध में नहीं जाने के बाद हो सकते थे- “कि उनका जवान बेटा एक और खड़ा है और उसके सगे-संबंधी और गांव वाले बातें कर रहें है कि इन्हें देखिये ये युद्ध में नहीं गए थे तो राणा जी ने इनकी जागीर जब्त कर ली थी| वैसे इन चुंडावतों को अपनी बहादुरी और वीरता पर बड़ा नाज है हरावल में भी यही रहते है|”* और ऐसे व्यंग्य शब्द सुन उनका बेटा नजरें झुकाये दांत पीस कर जाता है| ऐसे ही दृश्यों के बारे में सोचते सोचते माजी सा का सिर चकराने लगा वे सोचने लगे यदि ऐसा हुआ तो बेटा बड़ा होकर मुझ माँ को भी धिक्कारेगा|
*ऐसे विचारों के बीच ही माजी सा को अपने पिता के मुंह से सुनी उन राजपूत वीरांगनाओं की कहानियां याद आ गयी जिन्होंने युद्ध में तलवार हाथ में ले घोड़े पर सवार हो दुश्मन सेना को गाजर मुली की तरह काटते हुए खलबली मचा अपनी वीरता का परिचय दिया था| दुसरे उदाहरण क्यों उनके ही खानदान में पत्ताजी चुंडावत की ठकुरानी उन्हें याद आ गयी जिसनें अकबर की सेना से युद्ध किया और अकबर की सेना पर गोलियों की बौछार कर दी थी| जब इसी खानदान की वह ठकुरानी युद्ध में जा सकती थी तो मैं क्यों नहीं ? क्या मैं वीर नहीं ? क्या मैंने भी एक राजपूतानी का दूध नहीं पिया ? बेटा नाबालिग है तो क्या हुआ ? मैं तो हूँ ! मैं खुद अपनी सैन्य टुकड़ी का युद्ध में नेतृत्व करुँगी और जब तक शरीर में जान है दुश्मन से टक्कर लुंगी| और ऐसे वीरता से भरे विचार आते ही माजी सा का मन स्थिर हो गया उनकी आँखों में चमक आ गयी, चेहरे पर तेज झलकने लगा* और उन्होंने *बड़े ही आत्मविश्वास के साथ प्रधान जी को हुक्म दिया कि-*
*“राणा जी हुक्म सिर माथे ! आप युद्ध की तैयारी के लिए अपनी सैन्य टुकड़ी को तैयार कीजिये हम अपने स्वामी के लिए युद्ध करेंगे और उसमें जान की बाजी लगा देंगे|”*
प्रधान जी ने ये सुन कहा- “माजी सा ! वो तो सब ठीक है पर बिना स्वामी के केसी फ़ौज ?
माजी सा बोली- “हम है ना ! अपनी फ़ौज का हम खुद नेतृत्व करेंगे|”
प्रधान ने विस्मय पूर्वक माजी सा की और देखा| यह देख माजी सा बोली-
“क्या आजतक महिलाएं कभी युद्ध में नहीं गयी ? क्या आपने उन महिलाओं की कभी कोई कहानी नहीं सुनी जिन्होंने युद्धों में वीरता दिखाई थी ? क्या इसी खानदान में पत्ताजी की ठकुरानी सा ने अकबर के खिलाफ युद्ध में भाग ले वीरगति नहीं प्राप्त की थी ? मैं भी उसी खानदान की बहु हूँ तो मैं उनका अनुसरण करते हुए युद्ध में क्यों नहीं भाग ले सकती ?
बस फिर क्या था| प्रधान जी ने कोसीथल की सेना को तैयार कर सेना के कूच का नंगारा बजा दिया| माजी सा शरीर पर जिरह बख्तर पहने, सिर पर टोप, हाथ में तलवार और गोद में अपने बालक को बिठा घोड़े पर सवार हो युद्ध में कूच के लिए पड़े|
कोसीथल की फ़ौज के आगे आगे माजी सा जिरह वस्त्र पहने हाथ में भाला लिए कमर पर तलवार लटकाये उदयपुर पहुँच हाजिरी लगवाई कि-“कोसीथल की फ़ौज हाजिर है|
अगले दिन मेवाड़ की फ़ौज ने मराठा फ़ौज पर हमला किया| हरावल (अग्रिम पंक्ति) में चुंडावतों की फ़ौज थी जिसमें माजी सा की सैन्य टुकड़ी भी थी| चुंडावतों के पाटवी सलूम्बर के राव जी थे उन्होंने फ़ौज को हमला करने का आदेश के पहले संबोधित किया- “वीर मर्द राजपूतो ! मर जाना पर पीठ मत दिखाना| हमारी वीरता के बल पर ही हमारे चुंडावत वंश को हरावल में रहने का अधिकार मिला है जिसे हमारे पूर्वजों ने सिर कटवाकर कायम रखा है| हरावल में रहने की जिम्मेदारी हर किसी को नहीं मिल सकती इसलिए आपको पूरी जिम्मेदारी निभानी है मातृभूमि के लिए मरने वाले अमर हो जाते है अत: मरने से किसी को डरने की कोई जरुरत नहीं! अब खेंचो अपने घोड़ों की लगाम और चढ़ा दो मराठा सेना पर|”
माजी सा ने भी अन्य वीरों की तरह एक हाथ से तलवार उठाई और दुसरे हाथ से घोड़े की लगाम खेंच घोड़े को ऐड़ लगादी| युद्ध शुरू हुआ, तलवारें टकराने लगी, खच्च खच्च कर सैनिक कट कट कर गिरने लगे, तोपों, बंदूकों की आवाजें गूंजने लगी| हर हर महादेव केनारों से युद्ध भूमि गूंज उठी| माजी सा भी बड़ी फुर्ती से पूरी तन्मयता के साथ तलवार चला दुश्मन के सैनिकों को काटते हुए उनकी संख्या कम कर रही थी कि तभी किसी दुश्मन ने पीछे से उन पर भाले का एक वार किया जो उनकी पसलियाँ चीरता हुआ निकल गया और तभी माजी सा के हाथ से घोड़े की लगाम छुट गयी और वे नीचे धम्म से नीचे गिर गए| साँझ हुई तो युद्ध बंद हुआ और साथी सैनिकों ने उन्हें अन्य घायल सैनिकों के साथ उठाकर वैध जी के शिविर में इलाज के लिए पहुँचाया| वैध जी घायल माजी सा की मरहम पट्टी करने ही लगे थे कि उनके सिर पर पहने लोहे के टोपे से निकल रहे लंबे केश दिखाई दिए| वैध जी देखते ही समझ गए कि यह तो कोई औरत है| बात राणा जी तक पहुंची-
“घायलों में एक औरत ! पर कौन ? कोई नहीं जानता| पूछने पर अपना नाम व परिचय भी नहीं बता रही|”
सुनकर राणा जी खुद चिकित्सा शिविर में पहुंचे उन्होंने देखा एक औरत जिरह वस्त्र पहने खून से लथपथ पड़ी| पुछा –
“कृपया बिना कुछ छिपाये सच सच बतायें ! आप यदि दुश्मन खेमें से भी होगी तब भी मैं आपका अपनी बहन के समान आदर करूँगा| अत: बिना किसी डर और संकोच के सच सच बतायें|”
घायल माजी सा ने जबाब- “कोसीथल ठाकुर साहब की माँ हूँ अन्नदाता !”
सुनकर राणा जी आश्चर्यचकित हो गए| पुछा- “आप युद्ध में क्यों आ गई?”
“अन्नदाता का हुक्म था कि सभी जागीरदारों को युद्ध में शामिल होना है और जो नहीं होगा उसकी जागीर जब्त करली जाएगी| कोसीथल जागीर का ठाकुर मेरा बेटा अभी मात्र दो वर्ष का है अत: वह अपनी फ़ौज का नेतृत्व करने में सक्षम नहीं सो अपनी फ़ौज का नेतृत्व करने के लिए मैं युद्ध में शामिल हुई| यदि अपनी फ़ौज के साथ मैं हाजिर नहीं होती तो मेरे बेटे पर देशद्रोह व हरामखोरी का आरोप लगता और उसकी जागीर भी जब्त होती|”
माजी सा के वचन सुनकर राणा जी के मन में उठे करुणा व अपने ऐसे सामंतों पर गर्व के लिए आँखों में आंसू छलक आये| ख़ुशी से गद-गद हो राणा बोले-
*“धन्य है आप जैसी मातृशक्ति! मेवाड़ की आज वर्षों से जो आन बान बची हुई है वह आप जैसी देवियों के प्रताप से ही बची हुई है|
*आप जैसी देवियों ने ही मेवाड़ का सिर ऊँचा रखा हुआ है| जब तक आप जैसी देवी माताएं इस मेवाड़ भूमि पर रहेगी तब तक कोई माई का लाल मेवाड़ का सिर नहीं झुका सकता|
*मैं आपकी वीरता, साहस और देशभक्ति को नमन करते हुए इसे इज्जत देने के लिए अपनी और से कुछ* *पारितोषिक देना चाहता हूँ यदि आपकी इजाजत हो तो,* *सो अपनी इच्छा बतायें कि आपको ऐसा क्या दिया जाय ? जो आपकी इस वीरता के लायक हो|”
*माजी सा सोच में पड़ गयी आखिर मांगे तो भी क्या मांगे|
*आखिर वे बोली- “अन्नदाता ! यदि कुछ देना ही है तो कुछ ऐसा दें जिससे मेरे बेटे कहीं बैठे तो सिर ऊँचा कर बैठे|”
*राणा जी बोले- “आपको हुंकार की कलंगी बख्सी जाती है जिसे आपका बेटा ही नहीं उसकी पीढियां भी उस कलंगी को पहन अपना सिर ऊँचा कर आपकी वीरता को याद रखेंगे|”
*भगवतसिंह बालावत रायथल

बुधवार, 3 अप्रैल 2019

म्है जीमू खरगोशियो.....

नाहर सिह जी जसोल साहब ने डा. राजेन्द्र बारहठ कह्यो

काचो जीमो प्याजियो
ठंडी पीवो राब ।
लूवां चाले मोकल़ी
आपे लेसी ढाब ।।

नाहर सिह सा रौ जवाब आयो

म्है जीमू खरगोशियो
ऊपर पीवूं जिन ।
आप अरोगो राबड़ी
दोरा काटो दिन ।।

साफौ सांगानेर कठै

शीश बोरलो,नासा मे नथड़ी,सौगड़ सोनो सेर कठै,
कठै पौमचो मरवण रौ, बोहतर कळियां घेर कठै!!

कठै पदमणी पूंगळ री ढोलो जैसलमैर कठै,
कठै चून्दड़ी जयपुर री साफौ सांगानेर कठै !!

गिणता गिणता रेखा घिसगी पीव मिलन की रीस कठै,
ओठिड़ा सू ठगियौड़़ी बी पणिहारी की टीस कठै!!

विरहण रातां तारा गिणती सावण आवण कौल कठै,
सपने में भी साजन दीसे सास बहू का बोल कठै!!

छैल भवंरजी ढौला मारू कुरजा़ मूमल गीत कठै,
रूड़ा राजस्थान बता वा थारी रूड़ी रीत कठै!!

हरी चून्दड़ी तारा जड़िया मरूधर धर की छटा कठै,
धौरां धरती रूप सौवणौ काळी कळायण घटा कठै!

राखी पूनम रेशम धागे भाई बहन को हेत कठै,
मौठ बाज़रा सू लदियौड़ा आसौजा का खैत कठै!

आधी रात तक होती हथाई माघ पौष का शीत कठै,
सुख दुःख में सब साथ रैवता बा मिनखा की प्रीत कठै!

जन्मया पैला होती सगाई बा वचना की परतीत कठै,
गाँव गौरवे गाया बैठी दूध दही नौनीत कठै!

दादा को करजौ पोतो झैले बा मिनखा की नीत कठै
रूड़ा राजस्थान बता वा थारी रूड़ी रीत कठै! !

काळ पड़िया कौठार खोलता दानी साहूकार कठै
सड़का ऊपर लाडू गुड़ता गैण्डा की बै हुणकार कठै!

पतियां सागै सुरग जावती बै सतवन्ती नार कठै,
लखी बणजारो टांडौ ढाळै बाळद को वैपार कठै!

धरा धरम पर आँच आवतां मर मिटण री हौड़ कठै
फैरा सू अधबिच उठिया
बे पाबू राठौड़ कठै!!

गळियां में गिरधर ने गावै बीं मीरा का गीत कठै
रूड़ा राजस्थान बता वा थारी रूड़ी रीत कठै!!

बितौड़ा वैभव याद दिरावै रणथम्बौर चितौड़ जठै
राणा कुम्भा रौ विजय स्तम्भ बलि राणा को मौड़ जठै!

हल्दीघाटी में घूमर घालै चैतक चढ्यौ राण जठै
छत्र छँवर छन्गीर झपटियौ बौ झालौ मकवाण कठै!

राणी पदमणी के सागै ही कर सोला सिणगार जठै
सजधज सतीया सुरग जावती मन्त्रा मरण त्यौहार कठै!!

जयमल पत्ता गौरा बादल रै खड़का री तान कठै,
बिन माथा धड़ लड़ता रैती बा रजपूती शान कठै!!

तैज केसरिया पिया कसमा साका सुरगा प्रीत कठै
रूड़ा राजस्थान बता वा थारी रूड़ी रीत कठै!!

निरमोही चित्तौड़ बतावै तीनों सागा साज कठै,
बौहतर बन्द किवाँड़ बतावै ढाई साका आज कठै!

चित्तौड़ दुर्ग को पेलौ पैहरी रावत बागौ बता कठै
राजकँवर को बानौ पैरया पन्नाधाय को गीगो कठै!!

बरछी भाला ढाल कटारी तोप तमाशा छैल कठै,
ऊंटा लै गढ़ में बड़ता चण्डा शक्ता का खैल कठै!

जैता गौपा सुजा चूण्डा चन्द्रसेन सा वीर कठै
हड़बू पाबू रामदेव सा कळजुग में बै पीर कठै!!

कठै गयौ बौ दुरगौ बाबौ श्याम धरम सू प्रीत कठै
रूड़ा राजस्थान बता वा थारी रूड़ी रीत कठै!!

हाथी रौ माथौ छाती झालै बै शक्तावत आज कठै,
दौ दौ मौतों मरबा वाळौ बल्लू चम्पावत आज कठै!!

खिलजी ने सबक सिखावण वाळौ सोनगिरौ विरमदैव कठै
हाथी का झटका करवा वाळौ कल्लो राई मलौत कठै!!

अमर कठै हमीर कठै पृथ्वीराज चौहान कठै
समदर खाण्डौ धोवण वाळौ बौ मर्दानौ मान कठै!!

मौड़ बन्धियोड़ौ सुरजन जूंझै जग जूंझण जूंझार कठै
ऊदिया राणा सू हौड़ करणियौ बौ टौडर दातार कठै!!

जयपुर शहर बसावण वाळा जयसिंह जी सी रणनीत कठै,
रूड़ा राजस्थान बता वा थारी रूड़ी रीत कठै !!
रूडा़ राजस्थान बता वा थारी रूड़ी रीत कठै!!

गुरुवार, 21 मार्च 2019

जोरजी चम्पावत

जोरजी_चम्पावत .....यह एक सत्य ऐतिहासिक बात है

वर्षों से मारवाड में फागुन_के_लोकगीतों में जोरजी चम्पावत को गाया जा रहा है,  जोरजी_चांपावत कसारी गांव के थे, जो जायल से 10 किमी खाटू सान्जू रोड़ पर है जहा जौरजी की छतरी भी है । जोधपुर के महाराजा नें एक विदेश से बन्दूक मंगाई थी और दरबार मे उसका बढ चढ कर वर्णन कर रहे थे संयोग से जौरजी भी दरबार मे मौजूद थे । दरबार ने जोरजी से कहा, देखो जोरजी ये बन्दूक हाथी को मार सकती है । जोरजी ने कहा, इसमे कोनसी बड़ी बात है हाथी तो घास खाता है ।
दरबार ने फिर कहा, ये शेर को मार सकती है..
जोरजी ने कहा, शेर तो जानवर को खाता है ।
इस बात को लेकर जोरजी और जोधपुर दरबार मे कहा सुनी हो गयी...तब जोरजी ने कहा, मेरे पास अगर मेरे मनपसंद का घोड़ा और हथियार हो तो मुझे कोई नही पकड सकता चाहे पुरा मारवाड़ पिछे हो जाय..तो जोधपुर दरबार ने कहा आपको जो अच्छा लगे वो घोड़ा ले लो और ये बन्दुक ले लो...जोरजी ने वहा से एक अपने मनपसंद का घोड़ा लिया और वो बन्दुक ले कर निकल गये..और मारवाड़ मे जगह जगह डाका डालते रहे ।
जोधपुर दरबार के नाक मे दम कर दिया। दरबार ने आस पास की रियासतो से भी मदद ली पर जोरजी को कौई पकड़ नही पाये ।तब ये दोहा प्रचलित हुआ ।
'"#चाम्पा_थारी_चाल_औरा_न_आवे_नी,
#बावन_रजवाङा_लार_तु_हाथ_कोई_के_आवे_नी ।"
फिर दरबार ने जोरजी पर इनाम रखा की जो उनको पकड़ के लायेगा उन्हे इनाम दिया जायेगा । इनाम के लालच मे आकर जोरजी के मासी के बेटे भाई खेरवा ठाकर धोखे से खेरवा बुलाकर जोरजी को मारा । जोरजी ने मरते मरते ही खेरवा ठाकर को मार गिराया । जब जोधपुर दरबार को जोरजी की मौत के बारे मे पता चला तो बहुत दूखी हुवे और बोले ऐसे शेर को तो जिन्दा पकड़ना था ऐसे शेर देखने को कहा मिलते है । जोरजी बन्दुक और कटारी हरसमय साथ रखते थे, खेरवा मे रात को सोते समय बन्दुक को खुंटी मे टंगा दी और कटारी को तकिये के नीचे रखते थे । जब जोरजी को निन्द आ गयी तो खेरवा ठाकर बन्दुक को वहा से हटवा दी और जोरजी के घोड़े को गढ़ से बहार निकाल कर दरवाजे बन्द कर दिया । तो घोड़ा जोर जोर से बोलने लगा घोड़े की हिनहिनाहट सुनकर जोरजी को कुछ अनहोनी की आसंका हुई वो उठे ओर बन्दुक की तरफ लपके पर वहा बन्दुक नही थी । तो जोरजी को पुरी कहानी समझ मे आ गयी ओर कटारी लेकर आ गये चौक मे मार काट शुरू कर दी उन सैनिको को मार गिराया ।
खेरवा ठाकर ढ्योढी मे बैठा था वहा से गोली मारी । जोरजी घायल शेर की तरह उछल कर ठाकर को ढ्योढी से निचे मार गिराया । ओर जोरजी घायल अवस्था मे अपने खुन से पिण्ड बना कर पिण्डदान करते करते प्राण त्याग दिये । ( उस समय जो राजपुत खुद अपने खुन से पिण्डदान करे तो उनकी मोक्स होती है ऐसी कुछ धारणा थी) राजस्थान के गाँवों मे जौर जी लिये होली पर गाया जाने वाला वीर-रस पूर्ण गीत :-
लिली लैरया ने लिलाड़ी माथे हीरो पळके वो
के मोडो बतलायो ओ जोरजी सिंघनी को जायो रे
के मोड़ो बतलायो.....
मेहला से उतरता जोरजी लोड़ालाडी बरजे वो
ढोड्या से निकलता जोरजी थाने मांजी बरजे वो
के मत खैरवे ओ खैरवो भाया को बैरी रे..
के मत जा खैरवे....
पागडी़ये पग देता जोरजी डाई कोचर बोली वो
जिवनी झाड्.या मे थाने तितर बरजे वो
के मत जा खैरवे..
गॉव से निकलता जोरजी काळो खोदो मिलयो वो
जिवनी झाड़्या मे थाने स्याळ बरजे वो
के मत जा खैरवे....
ओ खैरवो भाया को बैरी रे
जोरजी रा घुड़ला कांकड़ - कांकड़ खड़िया वो
जोरजी रो झुन्झरियो भरीयोड़ो हाले वो
के मत जा खैरवे..
जोरजी रा घुड़ला सुंवा बजारा खडि़या वो
खाटू आळे खाण्डेय डूगंर खाली तोपा हाले वो
खैरवा ठाकर घोड़ा आडा दिना वो
खाटू रा सिरदारा थाने धान किकर भावे वो
जोरजी रो मोरियो जोधाणे हाले वो
के मत जा खैरवे...
भरियोड़ी बोतलड़ी ठाकर जाजम माते ढुळगी वो
राम धर्म न देय न दरवाजा जड़िया वो
के मोड़ो बतलायो ओ जोरजी सिंघनी रो जायो रे
के मोड़ो बतलायो.....
ढाल न तलवार ठाकर महल माते रेगी रे
के भरियोड़ी बन्दुक बैरन धोखो देगी रे
के मत जा खैरवे....
जोरजी चाम्पावत थारे महल माथे मेड़ी वो
अर मेड़ी माते मोर बोले मौत नेड़ी वो
के मत जा खैरवे ओ खैरवो भाया को बैरी वो
के मत जा खैरवे.......
(यह जानकारी हमें श्री रतनसिंह जी चम्पावत जोधपुर ने उपलब्ध करवायी है)

सोमवार, 4 मार्च 2019

झरड़ो!पाबू सूं करड़ो!

झरड़ो!पाबू सूं करड़ो!!-

गिरधरदान रतनू दासोड़ी

प्रणवीर पाबूजी राठौड़ अपने प्रण पालन के लिए वदान्य है तो उनके भतीज झरड़ा राठौड़ अपने कुल के वैरशोधन के लिए मसहूर है।
मात्र बारह वर्ष की आयु में जींदराव खीची को मारा। जींदराव की पत्नी पेमां जो स्वयं जींदराव की नीचता से क्रोधित थी और इस इंतजार में थी कि कब उसका भतीजा आए और अपने वंश का वैर ले।संयोग से एकदिन झरड़ा जायल आ ही गया।जब पेमल को किसी ने बताया कि एक बालक तलाई की पाल़ पर बैठा है और उसकी मुखाकृति तुम्हारे भाईयों से मिलती है।पेमल की खुशी की ठिकाना नहीं रहा।वो उसके पास गई।उसकी मुखाकृति देखकर पहचान गई तो साथ ही उसकी दृढ़ता देखकर आश्वस्त  भी हो गई कि यह निश्चित रूप से वैरशोधन कर लेगा।
उलेख्य है कि झरड़ा का जन्म उसकी मा का पेट चीरकर करवाया गया था इसलिए यह 'झरड़ा'नाम से विदित है।
जींदराव को ललकारकर मारा।बाद में ये गौरखनाथजी के शिष्य हो गए तथा रूपनाथ के नाम से जाना जाते हैं।कहते हैं कि आजके ही दिन उन्होंने अपने गुरू से दीक्षा ली थी।वर्तमान बीकानेर जिले की नोखा तहसील के 'सैंगाल़ धोरा' पर इन्होंने तपस्या की और यहीं समाधि ली।आजके दिन यहां विशाल मेला भरता है और अनेक भक्त दर्शनार्थ आते हैं।आज बीकानेर से जोधपुर जाते समय नोखा में ट्रेन से उतरते भक्तों को देखकर एक 'सोहणा' गीत इन्हें समर्पित किया जो आपसे भी साझा कर रहा हूं--
गीत सोहणो-
प्रणधर वर वीर हुवो  धिन पाबू,
कीरत जग कव मांड करै।
अँजसै कोम आ भोम  अजलग,
धुर -जन अंतस ध्यान धरै।।1

दियो वचन देवल नै दाटक,
वित्त  कज थारै मोत वरूं।
आवै जम ले फौज अराड़ी,
कीधो पूरण कोल करूं।।2

दीधी जदै काल़मी देवल,
दख भोल़ावण भल़ै दही।
सुरभी मूझ चरै वन सारी,
रण रखवाल़ण त्यार रही।।3

वचनां मूझ मान तूं बाई,
कमधज एकर भल़ै कयो।
दे दृढ भाव देवल नै डारण,
वाट घरां री वीर बयो।।4

बणियो वींद सोढी नै वरवा,
केसर ऊपर जीण करी।
मिणधर धाट थाट रै मारग,
भल- भल निजरां रीझ भरी।।5

आई जान धरा अमराणै,
कितरा सोढां कोड किया।
सारां आय  कियो सामेल़ो,
दत्त चित्त सारा नेग दिया।।6

तोरण वींद निरखियो तारां,
दिल सासू लखदाद दिया।
कंवरी भाग सराया कितरा,
लुल़ लुल़ वारण घणा लिया।।7

बैठो जाय चवरियां वरधर,
उण वेल़ा फरियाद अई।
खल़ बल़ आय जींदरो खीची,
लांठेपै गौ खोस लई।।8

ढिग पाबू निज आय ढैंभड़ै,
डाकर ओ संदेश दियो।
गँठबँध त्याग ऊठ गाढाल़ै,
कमधज झट प्रस्थान कियो।।9

भिड़ियो आय वीर भुरजाल़ो,
खित पर राखण बात खरी।
कमधज जदै चारणां कारण,
वड नर सांप्रत मोत वरी।।10

कमधज धरा बात रै कारण,
खल़ खीची रै दिया खला।
रह्या सरब धांधल रा रण में,
भील एक सौ बीस भला।।11

रगतस देय बात धिन राखी,
साखी सूरज-चांद सको।
नर धिन करी वीरता नाहर
जाहर है इतियास जको।।12

बूड़ै  साथ बल़ण नै बोड़ी,
हिव छत्राणी त्यार हुई।
परतख पेट जदै परनाल़ै,
बत झरड़ै री बात बुई।।13

सँभल़ी जदै पेमला सारी,
कुल़ छल़ भायां नाम कियो।
बूड़ै घरै वंश रो वारिस,
रसा तूंतड़ो एक रयो।।14

आयो क्रोध अँतस में अणथग,
हाथां धव ना खून हुवै।
झरड़ै तणी भुआ नित जोरां,
जायल बैठी वाट जुवै।।15

बारै वरस वीतग्या बातां,
नैणां रातां नींद नहीं।
जायल आय उतरियो झरड़ो,
कथ पणिहारण बात कही।।16

सँभल़ी बात भुआ मन सरसी,
छाती वरसी ठंड छती।
हरसी आय भीड़ियो हिरदै,
सतधर करजै मूझ सती।।17

आयो वैर उग्राहण अब तो,
भुआ मानजै बात भली।
काको-बाप लेउं कज कीरत,
जिण कज आ तरवार झली।।18

पूगो जाय कोट में पाधर,
ऊठ जींदड़ा वीर अयो।
पाबू -बूड़ जारलै  प्रिथमी,
कहजै एहड़ो मरद कियो।।19

खीची भभक खडग नै खांची,
पण नह उणसूं पार पड़ी,
वंश रै वैर खीझ नै बंकै,
झरड़ै करड़ै सीस जड़ी।।20

धिन- धिन हुवो धांधलहर धरती,
ऊजल़ करनै नाम असा।
पसरी वेल सुजस री परगल़,
रात दिवस जप नाम रसा।।21

झरड़ो करड़ो जो पाबू सूं,
वसू कहावत अजै बहै।
चेलो कियो गौरख चित साचै,
रूपनाथ धर रूप रहै।।22

नामी नाथ हुवो निरभै नर,
धोरै धिन सैंगाल़ धरा।
जांगल़ भोम जिकी जग जाहर,
खमा करै नित भगत खरा।।23

रणवट रखी रसा रजपूती
भीनो भगती रूप भल़ै।
मनमें बसा जबर मजबूती,
रीती नाथां पंथ रल़ै।।24

नाथां सिरहर रूप नमामी,
जस रट थारो जयो जयो।
कीरत कथा सुणी कवि गिरधर,
कथनै सिरधर गीत कयो।।25
गिरधरदान रतनू दासोड़ी

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2019

गांव भाखरी के भोजाजी गौङ

गांव भाखरी मे पन्द्रह वी शताब्दी मे भोजाजी गौङ ने "केशर न नीपजे अठै न हीरा निकलन्त  सिर कटिया खग सामणा इण  धरती उपजन्त।।कवि को ऐसे दोहे लिखने को प्रेरित किया । वीरप्रसूता धरा मारवाड के भेङ गांव  मे  मुगल आक्रन्ता गौवंश को वद के लिऐ लूटकर लेजाने लगे  पुरे ग्रामीण भयतीत व आतंकित थे गायें व बच्छडे  भयवश रंभा रहे थे ऐसे विकट संकट की घडी में वीर प्रसूता धरा का लाडला  नौजवान  भोजाजी गोड मां भवानी का स्मरण कर अश्वारूढ हो  खांडा यानी तलवार  ले सैकङो मुगलो से अकेला ही भीङ गया। "हाथ तलवार मां दे रजपूतां ने मजबूती"    हर हर महदेव के उदघोष के साथ  भेङ गांव का चौहटा  रणक्षेत्र मे तब्दील हो गया। मुगल गाजर मूली की तरह कटने लगे   अचानक एक मुगल के पीठ पीछे वार से भोजाजी की सिर धङ से अलग हो गया लेकिन उस कमद ने  तलवार की गती बढादी इस दृश्य से मुगल भयतीत होकर दौङने लगे तो गौरक्षार्थ झुझांर ने १७किमी तक  इन मलेच्छो का पीछा कर उन्हें मारा गायो को मुक्त करवाया भेङ से भाखरी के बीच मे मुगलो से लङते हुऐ वीरवर के शरीर के अंग सिर की भूजा भेङ मे अश्वारुढ की मूर्ति के रुप मे  तथा धङ घोङे सहीत भाखरी डेलोलाई तालाब पर शांत हुआ  इसलिए धङ की स्माधिरूप मे पूजा भाखरी मे होती है  हर वर्ष भादवा सुदी बीज को भेङ व भाखरी दोनो जगह विशाल मेला  भरता है गौरखवाला भोजाजी का स्मरण करते है     पीढीयो पुर्व गावं छोड गये प्रदेश मे बशे सभी वर्ष मे एक बार तो पूजा अर्चना करने आते है ।
हमे गर्व है हमने इस वीर प्रसूता मारवाड धरा पर जन्म लिया व  पाबुजी   भोजाजी  जैसे गौरक्षार्थ  झूझारो के स्मरण कर अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते है
दौरा धिरज नीपजे धोरा धरम निवाण।
धौरा रे रज कण मिलै सतियां सूर सुजाण।।
जुगतसिह करनोत

रविवार, 11 नवंबर 2018

डूंगजी जवारजी

डूंगजी जवारजी

गाँव में ढोल की आवाज सुण कर सब लोग सावधान हो गये। बाहर झाँक कर देखा तो फिरंगियो की फोज की टोपीयाँ चमक रही थी। घोड़ो की टापो से आकाश गुँज गया।
बठोठ (सीकर) के छोटे से गढ़ में डूंगजी के साथ कुछ साथी बैठे थे।
डूंगजी कहने लगे “आज ये फिरंगी हमारे ही राज में हमारे ही घर में दखलन्दाजी कर रहे है। फौज लेकर आ गये। कल ये हमारे उपर हुकम चलायेंगे और परसो हमें नौकर बनाकर रखेंगे। हम लोग इनकी बात क्यो माने ? हमारा राज है हम मिल बैठकर आपस की लड़ायी खुद निपटेंगे। हमारे धणी तो सीकर राजा जी या फिर जयपुर राजा जी है। ये कौन होते है फौज लेकर गाँव में आने वाले।”
“डूंगजी” एक बूढे सरदार ने डूंगजी को बीच में टोकते हुए, “आप बाते तो अच्छी कर लेते है, परन्तु आप कर क्या लोगे। आपके पास क्या ताकत है ? जयपुर जोधपुर के राजाओ ने इस कम्पनी से दोस्ती करली है। जानते हो क्या ?”
करणीया मीणा अपनी ढाढी पर हाथ फेरते हुए बोला, “राजाओ ने तो ओढनीयां ओढ ली है। उनके पीछे हमसे तो नही ओढनी आवे सा।” “सही बात है राजाओ को तो राज का मोह है। फिरंगी उनकी छाती पर पैर देकर आ रहे है। वो राजा है हम तलवार बन्ध राजपूत है ?” डूंगजी ने कहा।
जवारजी ने हूंकारा भरा “वो बणीये बन कर आये थे धीरे धीरे राजा बन गये। हालात यही रहे तो तलवार से राज करते तो देखा है पर ये तराजू से राज करके हमारा खून पी जायेगे।”
“लाख टके की बात है। यह हमारे ही घर में हमें कोहने में बैठायेंगे देखना। ठाकराँ, तलवारा खैंचो तलवारा।” जवारजी ने बात कही।
डूंगरजी ने हाँ भरी, “क्यो नही ? बीकानेर राज में पेमा बावरी ने अंग्रेजो के छक्के छुटा रखे है। चार हजार आदमीयो की टीम उसके साथ है। जात का बावरी होकर पूरी ठूकराई कर रहा है। हमने तो राजपूताणी का दूध पीया है। हम तो धरती के मालिक कहलाते है। आज इस समय देश के काम नही आयेंगे तो फिर कब आयेंगे। हमारी माताओ ने फालतू ही हमारा बोझ पेट में उठाया है।”
यह सुनते ही लोटिया जाट और करणीया मीणा ने जमीन पर थाप मारी, “उठाओ तलवारे अंग्रेजो को लूट मार कर देश से बाहर भगाओ, फिरंगीयो की फौज गाँव में आ गयी है। गढ को घेर लेगी मुकाबले में हम कितनी देर टिकेंगे। गढ छोड़कर बाहर निकलो अंग्रेजो को लूटो और भगावो।”
डूंगजी, जवारजी, लोटियो जाट और करणिया मीणा ने आपस में मसवरा किया। गाँव छोड़ धाड़ायती बन कर निकल गये।
धाड़ायती तो बन गये अब चाहिये घोड़े।
करणिया ने उपाय सोचा “शेखावाटी की सीमा पर जो अंग्रेजो की पलटन पड़ी है उनके घोड़े लूट लो।”
डूंगरजी ने हुंकार भरते हुए गर्दन हिलाई “बिल्कुल ठीक है।”
रात के चार पहर बीतने पर अंग्रेजो की पलटण पर टूट पड़े। घोड़े लूट कर सबने आपस में बांट लिये। सूचना मिलते ही मेजर फोेरेस्टर ने पीछा किया। रोज आमने सामने भिड़न्त होती और मौका देख कर फिर वारदात कर देते। अंग्रेजो के दिल में इनका गहरा डर बैठ गया। नाकाबन्दी ओर पक्की कर दी गयी।
डूंगजी जवारजी की धाक दिन प्रतिदिन बढती जा रही थी। अंग्रेजो को देश से बाहर निकालने का संकल्प। लड़ने को तैयार, मन में उत्साह। रगो में गर्म खून दौड़ रहा। परन्तु अपने आदमियो के लिए रोटी एवं उँटो व घोड़ो के लिए चारा और दाना पानी का कोई उपाय नही। जो कुछ था सब समाप्त। डूंगजी चिंतित थे। सोच विचार करके रामगढ़ के सेठो को कहलवाया “सेठजी हमने फिरंगियो को देश से बाहर निकालने का प्रण लिया है। इनके पैर यहां जम गये तो हम कही के नही रहेंगे। हमारा राज आपका व्यापार सब इन्ही के हाथो में चला जायेगा। इस समय आप लोग हमारी मदद करे। घोड़े व उँटो के लिए दाणा घास का प्रबन्ध करे। वैसे हम आपको वापस कर देंगे।
सेठों ने मन में सोचा यह तो रांघड़ है कूद फांद कर रह जायेंगे। कम्पनी की तोपो के सामने ये मुठी भर बागी क्या कर लेंगे। इनके पीछे हम और खराब होंगे। कम्पनी तो उगता सूरज है। सेठों ने साफ मना कर दिया “आप जाणो सा हम व्यापारी लोग। फिरंगियो को पता चलते ही हमारा कचरधाण निकाल देंगे। है है ठाकरां उस समय आप काम नही आओगे।”
डूंगजी ने लोटिया कि तरफ देख कर कहा “लोटिया रामगढ़ के सेठों ने तो अपना पोत दिखा दिया। मोठ समाप्त हो गये, बाजरी समाप्त हो गयी, घोड़ो के लिए दाना भी नही है, क्या उपाय करे।”
लोटिया बोला “ठाकरां सीधी अंगुली से घी नही निकलता है। थोड़ी तसल्ली रखो, मैं जाता हूँ। आवँू तब तक जैसे तैसे काम चलावो।”
करणिया व लोटिया दोनो वहां से तीर की तरह निकले। एक ने ली ढोलकी एक ने हाथ में लिया बाँस। रामगढ का नामी सेठां। रामगढ़ में जाकर मदारी का खेल तमाशा करने लग गये। रामगढ़ से माल की कतार अजमेर जाने वाली है। पता लगाया क्या माल है, कौन से दिन और कौन से रास्ते जाने वाला है।
रामगढ़ से आकर डूंगजी को सूचना दी “डूंगजी कसो घोड़ा देरी मत करो। सेठ की कतार अजमेर गयी है पुष्कर की घाटियो में लूटना है।”
डूंगजी, जवारजी, करणिया और लोटिया जाट ने पुष्कर घाटी में जाकर कतार लूट ली।
जरुरी सामान तो करणिया और लोटिया को दे दिया “ले जाओ रोटी और दाणा का प्रबन्ध करो।”
सात ऊँट रुपयो से भरकर पुष्कर के घाट पर गरीबो को बाँट दिया। डूंगजी की जयकार से पुष्कर के घाट गूंज उठे।
रामगढ के सेठ अंग्रेजो के पास जाकर रोने लगे। “आप के राज में हम लुट गये डूंगजी ने हमें लूट लिया।”
अंग्रेजो ने डूंगजी, जवारजी को ईनामी डाकू घोषित कर दिया। एजेन्ट साहब ने सीकर राजा जी से जाकर बोला “हमकू डूंगजी को पकड़वाओ।”
सीकर राजाजी ने साफ मना कर दिया “डूंगजी मेरी जेब में नही जो में आप को दे दूँ। आप जाकर पकड़ले।”
एजेन्ट साहब को सूचना मिली डूंगजी अपने ससुराल गाँव झड़वासा में है। मौका अच्छा है। रातो रात गाँव को फौज ने घेर लिया। सुराग लगाया। भैरुसिंह को बहकाने के लिए सेंसू भेजा और बहकाने लगा।
“भैरुसिंह घर में डूंगजी है। पता है राज किसका है। घर में घुग्घू बोलेंगे घुग्घू। अंग्रेजो की फौज आगयी तो कचरघाण निकाल देगी कचरघाण, कैंद में तड़फोगे तब बहनोई छुड़वाने नही आयेगा।”
भैरुसिंह मन में डर कर मूंछ पर ताव देकर बोला “कांदा का छिलका नही हूँ जो हवा के साथ उड़जावू। राजपूताणी का दूध पिया है। कमर में तलवार रखता हूँ।”
“रहने दो रहने दो राजपूती मत जताओ। ये मुँछे नीची हो जायेगी, यह तलवार लटकती ही रह जायेगी। बहुत देखे है राजपूताणी के दूध पीये हुये। अंग्रेजो के आगे बड़े राजा महाराजा नतमस्तक हो गये है। समय को परखो समय को। एक तोप आ गयी तो तुम्हारी झुंपड़ी के कंकर भी नही मिलेंगे कंकर।”
भैरुसिंह चिन्ता में डूब गया।
“हम तो आपका भला चाहने वाले है भला, कम्पनी का साथ दोगे तो सुखी रहोगे।”
भला चाहने वालो ने भैरुसिंह के हाथ में एक हजार रुपयो की भरी थैली पकड़ाई। थैली झेलते ही भैरुसिंह के हाथ धूजने लगे। दबी जबान से बोला “बहनोई को पकड़वाकर कहाँ मुँह दिखावू।”
“कौन कहेगा की आपने पकड़वाया। अचानक फौज आकर सोते हुए को पकड़ लेगी।”
भैरुसिंह के घर में दारु की भट्टी निकल रही थी। बाँस की नली से दूबारा बोतल में टपक रहा। पास में ही जलाने के लिए सूखी लकड़ी के ठूंठ पड़े थे। एक ठूंठ को भट्टी के नजदीक खिसकाकर भैरुसिंह ने नौकर को आवाज दी “दारु की धार कमजोर पड़ गयी, ताता पाणी न परो निकाल।”
नौकर ने गर्म पानी को निकाल कर ठण्डा पानी डाल दिया। दारु की धार तेज हो गयी। डूंगजी आ गये और बोले “चाहे कुछ भी हो दारु तो हमारे शेखावाटी के मैणसर की होड़ नही।”
“इस भट्टी का दूबारा आप देखना। आप ने अरज करु। जबान पर लगते ही कलेजे तक धार फूटेगी। लो चखावो ये तीसरी बार उलट रहा हँू।”
नाल में से गर्म दारु का एक प्याला भरकर डूंगजी की तरफ बढ़ाया। दो चार सरदार और आ गये। ठूंठ खैच क भट्टी के आस पास बैठ गये। मनवार होने लगी। भैरुसिंह ने छोटे भाई को आवाज दी “देखता क्या है, ला खाजरु, लेट हो रहे है।”
बकरा लाकर खड़ा कर दिया गया। बकरा बड़ा था, बकरे को देख सरदारांे के मुंह में पानी आ गया। उठा के तलवार एक ने झटका दिया। दो मिनट में बकरा ठन्डा। दो सरदार लगे हाथो हाथ खाल उतार दी। दो जणे मांस छूंदने लग गये, दो जणो ने भट्टी में से अंगारे निकाल सूळा सेकने लग गये।
दमामण ढ़फड़ा लेकर आयी गाने लगी
“दारु दे तो मांस दे, गो रस सूदो भात।
तीरीया दे हँस बोलणी, पांच भाया रो साथ।।
कलालण भर ल्याये प्यालो...................”
चार प्याले पीते ही आँखो में रंगत आ गयी। भैरुसिंह ने डूंगजी को मनवार का प्याला दिया। पाँच रुपया दमामण को निछरावल किया। दमामण ने खम्मा घणी कहा।
दूसरे सरदार पीछे कहाँ रहने वाले थे, सब डूंगजी को प्याले देने लगे। म्हारी सोगन्ध एक मनवार कर कितने ही प्याले पिला दिये। डूंगजी के पैर लड़खड़ाये।
डूंगजी को खयाल आया। बस रहने दो दुश्मन छाती पर घूम रहा है।
भैरुसिंह ने कहा “मेरे होते हुए कोई बाल बांका नही कर सकता।” बोतल का ढक्कन खोला, मनवार फिर होने लगी। जांगड़ डूंगजी की तरफ देख, उचे सुर में दोहा बोलने लगा। डूंगजी की आँखो में लाल डोरे तैरने लगे। भर मुठी रुपयो की जांगड़ के सामने फेंकी। “हाँ पाछो बोल” सब सरदारो ने एक एक प्याला और दे दिया।
डगमगाते पैरो से डूंगजी पोढ़ने के लिए मेड़ी में चढ़ गये। पोढ़ते ही ठोरने लगे। तलवार और बन्दूक को उठाकर भैरुसिंह ने अलग रख दी। चार अंग्रेज बन्दूक लेकर छाती पर आ धमके। आठ अंग्रेजो ने मिलकर हाथो में हथकड़ियाँ और पैरो में बेड़ियाँ डाल दी। डूंगजी ने झट से आँखे खोली चारो तरफ सिपाहियो से घिरे हुए। मचक कर बैठ गये, गले में तोख भी जड़ दी खट। डूंगजी ने दाँत कटकटाये हाथांे पर बटके भरने लगे परन्तु करे क्या।
अंग्रेजो को ललकारा “धिक्कार है आप पर, मुझे धोखे से पकड़ा है। आठ आठ ने मिलकर नींद में सोते हुए को पकड़ा है, मर्द हो तो हथकड़ियाँ खोल कर सब एक साथ आ जावो। सामी छाती आकर पकड़ते तो मैं भी जानता, धोखे से पकड़ा है।” डूंगजी को पकड़ कर पींजस में बैठा दिया, गाँव वाले कहने लगे “जँवाई को अच्छी जवाँरी दी, बाप दादो का नाम धूल में मिला दिया। गाँव की इज्जत गमाई।” भैरुसिंह की माँ को दुख हुआ ऐसे पूत से तो मैं बाँझड़ी रह जाती। चारो ओर थू थू होने लगी।
कम्पनी साहब ने सोचा रजवाड़ो में रखने से तो ओर हंगामा होगा। इनको तो दूर आगरे के किले में बन्द करो। कठ पींजरे में डाल कर आगरा ले जा रहे थे। उनका ललाट चमक रहा था। आँखो से आग के शोले निकल रहे थे। राह चलती औरते एक दूसरे से कह रही थी “देखो इनकी आँखो में मशाले जल रही है। सवा हाथ लम्बी गर्दन है।”
दूसरी ने कहा “बहुत ताकतवर है, ऐसे दो चार शूरवीर और होते तो फिरंगियो को मार मार कर कलकत्ते से बाहर कर देते।”
आगरा के किले में डूंगजी को मजबूत पैहरे में नजरबन्द कर दिया। साहब ने खुद आकर पुख्ता पैहरे का इन्तजाम कर दिया।

होली के दिन दिनभर फाग खेलकर सिरदार बठोठ गढ़ में जाजम जमाई। दारु की बोतलें खुली, आपस में मनवार चल रही थी।
डूंगजी की ठुकराणी महल में उदास बैठी थी। न आँखो में काजल न माथे पर बिन्दी। ठुकराणी बैचेन थी। दिल में आग लग रही थी, डूंगजी कैद में बन्द किसके लिए श्रंगार करे। बदन के कपड़े तो बैरी हो गये थे। कैरी की फाँक जैसी आँखो में पानी आ गया । बैचेन ठुकराणी उठी बाहर झरोखे से चौक में झाँकी।
दारु के प्याले हाथ में लिए सरदार हीं हीं कर रहे थे, ठुकराणी ऐड़ी से चोटी तक गुस्से से भर गयी। घूंघट को लम्बा करके बोली, “ये सरदार है ? डूंगजी के भाईबन्ध है ? डूंगजी को फिरंगियो ने किले मे कैद करके रखा है। ये मतवाल कर रहे। आपकी नाक कहाँ है ? नाक तो फिरंगियो ने काट कर जेब में डाल रखी है। आप राजपूत कहलावो हो ? जीवते ही मरे समान हो ? शक्ल दिखाते शर्म नही आती। यहाँ गढ़ में बैठकर मतवाल कर रहे हो ?”
हाथो के प्याले हाथो में रह गये। जवारजी का शर्म से सर झुक गया। रंग में भंग पड़ते देख किसी को गुस्सा आया तो किसी को ठुकराणी के बोल कलेजे में खटक गये। एक सरदार गुस्सा कर दबी जबान से बोला “क्यो मोसा मार रही हो ठुकराणी जी। आप के शब्दो के घाव लग रहे है हमारे। ये नाक तो कट गयी पर करे क्या। जयपुर फिरंगियो से मिल गयी, जोधपुर मिल गयी, बीकानेर मिल गयी। भाई कन्नी काट कर सब पिछे खिसक गये। हमने ही पगड़ी माथे पर बान्ध रखी है। ठुकराणी जी अन्दर पधारो जो कह दिया वो ही बहुत है।”
सुनते ही ठुकराणी के आग लग गयी। जोर से दहाड़ी “माथे पर पगड़ी बांधते आप। पगड़ी बांधते तो काकोसा को छुड़ाकर लाते। ये माथे की पगड़ी मुझे दो, मेरा घाघरा तुम पहनो।”
ठुकराणी ने चूड़ीयाँ उतारकर सरदारो पर फैंक दी। “जो मरने से डरता है, वो चूड़ियाँ पहन ले और पड़दे में जाकर बैठ जाये। मुझे दे दो तुम्हारे हाथो की तलवार।”
ठुकराणी ने दुर्गा का रुप धारण कर लिया, आँखो से चिंगारियां निकल रही। ठुकराणी के बोल मर्दो के कलेजे में ऐसे लगे जैसे चाबुक, भाला की तरह आर पार होकर चुभ गये।
जवारजी मचमचा कर खड़े हो गये। अन्दर की मर्दानगी जग गयी। डूंगजी को छुड़ाने का विचार करने लगे, उनके बारे में कौन पता लगावे कि बंध तक पहुँचने का रास्ता क्या है, कौन बीड़ा चाबे किसमे हिम्मत है, कई जणे खिसक लिये। कहाँ तो आगरा। कहाँ सात खाइयो का परकोटा। वहाँ कौन पहूँचने दे और कौन खबर लाये। भाई भतीजे सब ने मना कर दिया।
यह सब देख कर करणिया को गुस्सा आया वो बोला “जाने वाले के लिए आगरा हाथ के निचे है। किस कि माँ ने जन्म दिया वो जाये।” लोटिया जाट ने उठकर बीड़ा झेला, “मै जाउंगा मेरे साथी डूंगजी के लिए में जान देने को तैयार हूँ।”
लोटिया जाट और करणिया मीणा ने आगरा का रास्ता लिया।

आगरा के किले के सामने साधु धुणी तप रहे थे। दो दो दिन तक आँख नही खोल रहे थे। किले के सिपाई बाबाजी को रोज नमस्कार करते। औरते धोक लगाती चैला धूणी में लकड़िया डालता दर्शन के लिए भक्तो की भीड़ लग गयी। दरोगा सिपाई सब उनके चर्चे करते सब धोक देते। ऐसा साधु कभी नही देखा सच्चा साधु है। हमारा भाग्य जो हमें दर्शन दिये।
अंग्रेज अफसर ने किले के दरवाजे के बाहर एक साधु को तपते हुए देखा। सुबेदार को हुक्म दिया “साधु बाबा से कह दो दरवाजे से दूर हट जाये।” सुबेदार ने कहा “बाबाजी समाधि में है। समाधि टूटते ही उनको हटा देंगे।” छः महिने बाद समाधि टूटी। सुबेदार ने हाथ जोड़ नमस्कार कर बाबाजी से कहा “बाबाजी धन्य भाग है हमारे जो आपने तपस्या यहाँ की परन्तु राज की तामील करनी पड़ रही है, राज का हुक्म है आप और कही चले जाओ। पाँच पच्चीस जो भी हमसे होगा हम आप को भेंट करेंगे।”
बाबाजी बोले “बच्चे रुपये से हमें क्या करना। हम तो भाव के भूखे है, माया का हमें क्या करना है। आबू से साधू उतर कर आया है। गंगा स्नान को जायेंगे। अगर तुम्हारे हमारे लिए भावना है तो एक काम करदो।”
“करने योग्य हुआ तो जरुर करेंगे।”
“बच्चा इस किले में हमारा एक भक्त कैद है। उसको एक नजर दिखावो। डूंगजी हमारा कंठी बन्ध चैला है। एक बार हमारे भक्त से मिला दो।” सुबेदार सिपाईयो ने विचार किया। डूंगजी इसका भक्त है दिखाने में क्या जाता है। यह कोई कपटी साधु तो है नही चार सिपाई साथ जाकर मिला देंगे। साधु अपनी धुणी उठा के चला जायेगा। इसकी इच्छा पुरी कर दो।
बाबाजी को आगे पीछे से सिपाई घेर कर ले जा रहे थे। बाबाजी उपर नीचे दाये बाये रास्ते सब देखते जा रहे थे। कैदियो के बीच डूंगजी बैड़ियो में जकड़े बैठे थे।
लोटिया बोला “बच्चा सुखी रहो” आवाज सुनते ही डूंगजी पहचान गये। मन में बोले “धन्य है लोटियो, तुझे भली जाटनी ने जन्म दिया।” लोटिया बोला “बच्चा हम इधर से जा रहे थे तुमसे मिलने की इच्छा थी पुरी हुई।” डूंगजी बोले “महाराज आपने दर्शन दिये मेहरबानी। हमको काले पानी की सजा हुई है। आज से चैदह दिन बाद काले पानी भेज देंगे।”
“बच्चा सब अच्छा होगा चिंता मत कर” यह कहते हुए सब वापस घुम गये सफीलें और मोर्चे देखते हुए जा रहे थे। भगवा वस्त्र फेंककर सौ रु में एक ऊँट लेकर रात को चले सुबह बठोठ पहुँच गये। दोनो सुबह पहुँच कर जवारजी से मुजरा किया। जवारजी जी ने दोनो को छाती से लगाकर बोले “आगरा का क्या समाचार है।”
समाचार यह “काकोसा को कालापानी का हुकम हुआ है। मिलना है तो इसी वक्त वापस चलो। नही तो सपने में देखोगे।”
करणिया बोला “देर करने की बात नही है, अभी इसी वक्त घोड़े कसो हाथा में हथकड़ियां, पैरो में बैड़ियां और गले में तोख जड़ी है, डूंगजी के ऐसे जीने से तो मरना अच्छा है।”
ऊँट और घोड़े सजे हुए थे, किसी ठिकाणे की बारात जा रही थी दिन को डेरा देती और रात को चलती। आगरा से दो कोस पहले बारात रुक गयी। यमुना किनारे रेवड़ चर रहा था। एक बराती ने जाकर एक मींढा ले आया। मींढा की अर्थी बनायी गयी, बाराती सब भदर हो गये चार लोगो ने अर्थी को कंधा दिया। नाई एक लोटे में आग लेकर आगे चल दिया। किले के पास जाकर यमुना किनारे अर्थी उतारी। मींढसिंह जी का दाह संस्कार कर दिया। कम्पनी साहब ने देखा सामने कोई मुर्दा जल रहा है। साहब को गुस्सा आया, घोड़े पर चढ़कर साथ में एक कुत्ता लेकर वहा पहुँच गया। तुमने यह बहुत बुरा किया “मुर्दे को यहाँ क्यो जलाया।”
“देखो साहब मुर्दा मुर्दा मत बोलो, यह हमारे सब के सरदार है। उक चूक बोले तो तलवारे चल जायेगी” सब एक साथ बोले।
साहब ने पुछा “कौन है यह ?”
“ये बावन गाँव के धणी है, मींढसिंह जी सरदार है, समय की बात है साहब क्या सोचा था क्या हो गया। राम से उपर जोर नही है।” जोरजी बीदावत ने हकीकत सुनायी।
“अच्छा तीन घड़ी का तीसरा करदो, बारह घड़ी का बारहवां करके रवाना हो जावो।”
लोटिया बोला “साहब यह हमारी इज्जत का सवाल है, तीन दिन का तीसरा और बारह दिन का बारहवां होगा उसके बाद आपका पानी ही नही पियेंगे।”
साहब ने सोचा “जाने दो हुज्जत करना ठीक नही है।”
रात के दो पहर बीतने पर करणिया और लोटिया ने किले पर लकड़ी बनी सिढी लगायी, सब सरदार पीछे चढ़ कर किले में कूद गये। सत्तर सरदारो के साथ कैदियो की बुर्ज में घुस गये। लोटिया लपक कर डूंगजी की हथकड़ियां बैड़ियां काटने लगा।
डूंगजी ने नाहर की दहाड़ लगायी “ठहर लोटिया ठहर, पहले दूसरो की बेड़ियां काट बाद में मेरी काट। पहले इनकी काट ये भी क्या याद रखेंगे। डूंगजी ने सबको आजाद कराया। लोटिया दुनिया याद करेगी।”
लोटिया को गुस्सा आया “ठाकरां देर मत करो। फिरंगियो को पता चल गया तो हमें तोपो पर चढ़ा देंगे। छुड़वाना महंगा पड़ेगा।” सुनते ही डूंगजी ने कहा “इस मुंह का धणी लोटिया मुझे छुड़ाने आया ? तोप से डर गया, जा जा तेरे घर जा।”
सुनते ही लोटिया के तन में आग लग गयी, छीणी हथोड़े से सत्तर लोगो के बन्ध काट कर डूंगजी के पास गया। “अब तो राजी हो” करणिया ने जल्दी से बन्ध काटे। डूंगजी बोले “ला मुझे तलवार दे” सत्तर ही कैदियो को आगे कर के डूंगजी चलने लगे। जल्दबाजी में चैबीस कैदी एक सीढ़ी पर लटक गये। सीढ़ी टूट गयी अब उतरने का कोई रास्ता नही देख सब भालो और तलवारो से दरवाजे पर टूट पड़े। दरवाजे के पास पहरेदार सो रहे थे। शेखावत, बिदावत, मेड़तिया, तंवर, पंवार, मीणा, बावरी कंधे से कंधा मिलाकर सब साथ उलट पड़े। तलवारो से चिंगारियां निकलने लगी, भाले चमकने लगे, दरवाजा टूट गया। एक सौ अठाइस पहरेदारो को काट डाला। चैबीस तो पूरबिया पेहरोदारो को काटा, सोलह चैकीदारो को ठोड़ राखियां, सित्तर कबायलियो को सुलाया और अठारह मुगल पठानो को पोढाया। बाकी कैदियो को कहते गये “हमारा तो फिरंगी पीछा करेंगे, तुम तुम्हारा रास्ता लो।” जयकारा करते हुए डूंगजी किले से बाहर निकल गये। घोड़ो पर टाप लगायी। रामगढ़ आ गये। डूंगजी को देखते ही सेठ कांपने लगे। हवेलियो में हलचल मच गयी। डूंगजी बाजार में पहूँचे।
“फिरंगियो के सपूतो बाहर आओ, डूंगजी आये है। बुलाओ तुम्हारे बापो को हिम्मत है तो पकड़े।” सेठजी हाथ जोड़ने लगे हे ठाकरां म्हे तो थाँका हा। डूंगजी ने सोलह सेठों को पकड़ लिया। बाजार में सन्नाटा छा गया। एक दो बुढा सेठ हवेली में जाकर सेठाणियों से कहा “थे जावो डूंगजी के आगे अरदास करो। औरतो को देख डूंगजी का गुस्सा कम हो जायेगा।” सेठाणियां डूंगजी के हाथ जोड़ने लगी “ठाकरां थे म्हाका धणी हो, म्हे थाकी रेत हाँ। म्हे तो आप क भरोसे ही हा, कसूर माफ करो।” औरते डूंगजी के धोक देने लग गयी। डूंगजी को दया आ गयी सेठों को छोड़ दिया जैसे दूसरा जन्म मिल गया हो।

डूंगजी बठोठ पँहुचे। ठुकराणी चोबारे से रास्ता देख रही थी। घोड़े की हिनहिनाहट सुनते ठुकराणी समझ गयी। ठाकर आ गये। आवाज लगायी “छोरी आरती सजा। हमारी जीत हुई।” डोडी में आते ही ठुकराणी ने आरती उतारी। डूंगजी बोले “मेरी नही आरती लोटिया की उतारो मुझे तो यह लेकर आया है।”
डूंगजी आगरा का किला तोड़ कर निकल गये पुरे मुल्क को पता चल गया। औरते गाँवो में डूंगजी के गीत गाने लगी। डूंगजी ने अपने दल बल को वापस तैयार किया। कभी अंग्रेजो का खजाना लूटते कभी माल लूटते। रोज कम्पनी को शिकायत मिलने लगी।
जवारजी ने कहा “छोटी मोटी लूट नही करके एक बड़ी लूट करो। दुनिया को पता चले।” डूंगजी ने कहा “फिरंगियो को देश से बाहर निकालने में बहुत ताकत लगेगी। छत्तीस कोम को समझाना पड़ेगा ये फिरंगी तुम्हारे दुश्मन है। हमारे देश का माल समुद्र पार ले जा रहे है।” विचार करके बोले “रजवाड़ो के बीच नसीराबाद छावनी है उस को लूटो।” पुरे दल को सूचना भेजी। फलां दिन अलग अलग दल बारात के रुप में नसीराबाद पहुँचना है। सब सरदार इकठ्ठे होकर चार सौ घोड़े और सौ ऊँटो से छावनी पर टूट पड़े। खजाना लूट लिया घोड़े छीन लिये। अंग्रेज देखते ही रह गये। देखते ही देखते आँधी की तरह सकुशल वापस निकल गये। पुरे देश में आग की तरह सूचना पहुँच गयी। डूंगजी ने छावनी लूट ली। डूंगजी की धाक जम गई। फिरंगियो की फौज में डर बैठ गया।
छावनी की लूट सुनते ही अंग्रेजो का नशा हीरण हो गया। अजमेर के सुप्रीडेन्ट ने आबू में बैठे ए.जी.जी. सदरलेंड को एक हाथ लम्बा पत्र लिखा।
“साहब हमारी इज्जत लेकर डूंगर चला गया, यह तो अच्छा हुआ कि उसने अजमेर की तरफ मुँह नही किया। अजमेर लुट जाता तो कही के नही रहते। खजाने के लिए फौज का इन्तजाम करो।” सदरलेंड घबरा गया। गोरो में हलचल मच गयी। डूंगजी जवारजी के नाम से बंगलो में सूती गोरी मेम चमने लगी।
अंग्रेज अफसरो ने मिलकर डूंगजी जवारजी को पकड़ने के लिए कमर कसली। छावनी-छावनी थानो-थानो में बिगुल बजा दिया। जोधपुर से मेशन साहब हाईक्लास बड़ी फौज लेकर डूंगजी के पीछे पड़ गये। बीकानेर की सीमा पर पहुँचकर ए.जी.जी. ने रईसो के नाम पर डांट के लम्बे चौडे खत लिखवाये। बीकानेर ने अनमने से फौज भेज दी। जोधपुर तख्तसिंह जी ने अपने खास मुसायब विजयसिंह जी मेहता और कमलराज जी सिंघवी को किलेदार ओनाड़ सिंह के साथ फौज देकर अंग्रेजो की मदद के लिए भेजा। तीनो ओर से फौजे बढ़ती देख डूंगजी बीकानेर के पास गाँव घड़सीसर में घिर गये। डूंगजी ने साथ वालो से कहा “अब बचना मुश्किल है। मौका देख खिसक लो। जीवन रहा तो और मिलेंगे।” ये कहते हुए डूंगजी जवारजी ने अपनी तलवार निकाल ली। घेरे को चीरते हुए तलवार बजाते हुए निकल गये। जवारजी बीकानेर राजा रतनसिंह जी की शरण में चले गये। रतनसिंह जी ने उन्हे छाती से लगाया। दल तीतर बितर हो गया। फौज डूंगजी के पीछे पड़ गयी। जैसलमेर के गिरदड़ा गाँव में डूंगजी चारो ओर से घिर गये। अंग्रेजो ने जोधपुर के मुसायब को भेज कर कहलवाया “म्हे था सू मिलबा न आ रीया हाँ।” सींघवी जी बोले “ठाकरां मरने मंे को समझदारी कोनी है। समझदारी तो जींवता रहने मे है।” मेहता जी तसल्ली से बोले “गिदड़ की मौत क्यो मरो।” “आपकी बाता भी रह जावे और कम्पनी की भी” सिंघवी जी ने ठंडे दिमाग से समझाया। मेहता जी बोले “जवारजी को देखो बीकानेर मे घर की तरह रह रहे है। कौनसी उनके हथकड़ियां है ? अंग्रेजो की मजाल है जो जवारजी ने बीकानेर बाहर बुलाले। तीनो मुसायबो ने डूंगजी को भरोसा में लिया “जोधपुर में राजा जी आप के पास रखेंगे। जोधपुर गढ़ घर है थारो। बठोठ में नही रह कर जोधपुर में रह लिए।” डूंगजी ने मुसायब का भरोसा किया। डूंगजी मान गये और आत्मसमर्पण कर दिया।
लाट साहब का हुकम एक बीकानेर पहुँचा एक जोधपुर डूंगजी जवारजी हमारे सुपुर्द करो। बीकानेर राजा जी रतन सिंह जी ने साफ टक्का सा जवाब लिख भेजा “साहब जवारजी को हम किसी भाव आपको नही देंगे। आप मेरे दोस्त हो आप के वहाँ रहे या मेरे यहाँ रहे एक ही बात है कोई खून करे तो जिम्मेदार मैं हूँ।” लाट साहब का वापस हुकम आया “नही हमकू सुपुर्द कर दो।” राजा जी तैश में आ गये “साब जवारजी को सुपुर्द नही करुँगा यह मेरी नाक का सवाल है। आपको मुझ पर भरोसा नही तो जवारजी के बदले आप मेरे पाटवी बेटे को ले जाये।” राजा जी का तोरा देख अंग्रेज ढीले पड़ गये। जोधपुर वालो ने भरोसा तो दिया था परन्तु अंग्रेजो की घुड़की के सामने पग छोड़ दिये। डूंगजी को अंग्रेजो के सुपुर्द कर दिया। बावन रजवाड़ा तख्तसिंह को थू थू करने लगे। चारण कविताओ के चटके देने लगे। तख्तसिंह शर्म से पानी पानी हो गये। ए.जी.जी. को बहुत कहलवाया। ए.जी.जी. टस से मस नही हुये। आबू में बावन रजवाड़ा के वकील भेज कर कहलवाया “डूंगजी को जोधपुर को सुपुर्द कर दो नही तो पब्लिक में गदर हो जायेगा।” ए.जी.जी. ने सोचा “बावन रजवाड़े खिलाफ खड़े हो जायेंगे इनको हाथो में रखना जरुरी है।” कलकत्ता में फोर्ट विलियम में लाट साहब का दफतर था वहाँ ए.जी.जी. ने खैंच कर एक पत्र लिखा “डूंगजी के जब तक मुकदमा चले तब तक डूंगजी को जोधपुर राजा जी को सुपुर्द कर दिया जाये। यदि सुपुर्द नही किया तो इनसे हमारे संबंध खतरे में पड़ जायेंगे। जोधपुर राजा जी की बदनामी हो रही है।” खैर डूंगजी को जोधपुर भेजा। जब तक जीये डूंगजी जोधपुर के किले में और जवारजी बीकानेर के किले में फिरंगियो को देश के बाहर निकालने के सपने देखते रहे।
न डूंगजी रहे ना जवारजी परन्तु उनका सपना पुरा हो गया।