शनिवार, 25 सितंबर 2021

राई रा भाव राते बीत ग्या


राई रा भाव राते बीत ग्या

ये बात है सन 1305 ई.की...  आज आधी रात तक मुँह मांग्या दाम है सा...
घुड़सवार नगाड़े पीटते हुए #जालोर के बाजार की गलियों में घूम रहे थे, लोग अचंभित थे लेकिन राई के मुँह मांगे दाम मिल रहे थे, इसलिए किसी ने इस बात पर गौर करना उचित नही समझा कि आखिर एका एक राई के मुँह मांगे दाम मिल क्यों रहे हैं ।

शाम होते होते लगभग शहर के हर घर में पड़ी राई घुड़सवारों ने खरीद ली थी । 

अगली सुबह सूरज की पहली किरण के साथ ही दुर्ग से अग्नि-ज्वाला की लपटें उठती देख लोगों को अंदेशा हो गया था कि आज का दिन जालोर के इतिहास के पन्नों में जरूर सुनहरे अक्षरों में लिखा जाने वाला है या जालोर की प्रजा के लिए काला दिवस साबित होने वाला है ।

प्रातः दासी ने थाली में गेंहू पीसने से पहले साफ करने के लिए थाली में लिए ही थे कि अचानक थाली में पड़े गेँहू में हलचल हुई। फर्श पर पड़ी गेंहू से भरी थाली में कम्पन्न होने लगी, दासी को किसी भारी अनिष्ट की शंका हुई, दासी दौड़ती हुई राजा कान्हड़देव जी के पास गई और थाली में कम्पन्न वाली बात बताई । 

कान्हड़देव जी को अहसास हो गया कि हो न हो किसी भेदी ने दुर्ग की दीवार के कमजोर हिस्से की जानकारी दुश्मन को दे दी हैं, ओर दुश्मन किले में प्रवेश कर चुका है ।

क्योंकि दुर्ग का निर्माण करते समय दीवार का एक कोना शेष रह गया था, तभी संदेश मिल गया था कि अलाउद्दीन की सेना दिल्ली से जालोर पर कब्जा करने कुच कर चुकी है अतः आनन फानन में उस शेष बचे हिस्से को मिट्टी और गोबर से लीप कर बना दिया था, यह जानकारी मात्र गिने चुने विश्वासपात्र लोगों को ही थी । 

आभ फटे,धर उलटे, #कटे बगत रा कोर
शीश कटे धड़ तड़फड़े, #तब छुटे जालोर 

यह लड़ाई थी स्वाभिमान की, यह लड़ाई थी क्षत्रित्व की, अल्लाउद्दीन की बेटी फिरोजा विरमदेव जी से विवाह करना चाहती थी, लेकिन विरमदेव एक तुर्कणी से विवाह करना नही चाहते थे, इसी कारण अल्लाउद्दीन ने जालौर पर सेना भेजी थी, वैसे इसके पहले भी अल्लाउद्दीन जालौर पर दो बार आक्रमण कर चुका था, लेकिन दोनों ही बार कान्हड़देव जी से उसे पराजित होना पड़ा था ।

मामो लाजे भाटिया #कुऴ लाजे चव्हाण
 हुं जद परणु तुरकणी #उल्टो उगे भाण..!

अलाउद्दीन की सेना कई महीनों से जालोर दुर्ग को घेर कर बैठी रही, लेकिन दुर्ग की दीवार को भेदना असंभव था, सेना इसी आस में बैठी थी कि आखिर जब किले में राशन पानी खत्म हो जाएगा तब राजपूत शाका जरूर करेंगे, लेकिन न राशन पानी खत्म हुआ और ना ही सेना किले को भेद सकी आखिर में थक हारकर सेना दिल्ली के लिए कुच करने लगी, तभी विका दहिया नामक व्यक्ति ने जा कर सेनापति को उस दीवार के कच्चे भाग की जानकारी दे दी, ( क्योकि विका दहिया और कान्हड़देव जी मे किसी बात को लेकर मतभेद हो गया था )  विका दहिया को यह तो पता था कि किले की दीवार का एक हिस्सा कच्चा है लेकिन कौनसा यह पता नही था  

उधर वीका दहिया की पत्नी हीरादे को यह बात मालूम पड़ी की उसके पति ने विश्वास घात किया है, विका दहिया के घर जाने पर उनकी पत्नी हीरादे ने कटार से विका दहिया का सिर धड़ से अलग कर दिया था ।

तुर्की सेनापति ने कयास लगाया, क्यों न पूरी दीवार पर पानी छिड़क कर राई डाल दी जाये ताकि सुबह तक जो भाग कच्ची मिट्टी और गोबर से बना होगा वहां #राई अंकुरित हो जाएगी और हमे पता चल जाएगा कि कौनसा हिस्सा कमजोर है । 

उधर कान्हड़देव जी ने दरबार लगाया, क्षत्राणियों को भी संदेश पहुंचाया गया कि आज मर्यादा की बलिवेदी प्राणों की आहुति मांग रही है । 

चेत मानखा दिन आया  #रणभेरी आज बजावाला आया
उठो आज पसवाडो फेरो, #सुता सिंह जगावाला आया..!

रानीमहल में जौहर की तैयारियां शुरू हुई, इधर क्षत्राणियां सोलह श्रृंगार कर सज-धज कर अपनी मर्यादा की बलिवेदी पर अग्निकुंड में स्नान हेतु तैयार थी, उधर रणबांकुरे केसरिया पहन शाके के लिए तैयार खड़े थे । 

दिन चढ़ने तक पूरा दुर्ग जय भवानी के नारों से गूंज रहा था, इधर क्षत्राणियां एक एक कर अग्निस्नान हेतु जौहर कुंड में कूद रही थी उधर रणबांकुरे तुर्को पर टूट पड़े और गाजर मूली की तरह काटने लगे, नरमुंड इस तरह कट कर गिर रहे थे जैसे सब्जियां काटी जा रही हो । 

#जोहर री जागी आग अठै, #रळ मिलग्या राग विराग अठै
#तलवार उगी रण खेतां में, इतिहास मंडयोड़ा रेता में..!

मुट्ठीभर रणबांकुरे हजारों की सेना  के आगे कब तक टिक पाते, रणभूमि में लड़ते लड़ते कान्हड़देव जी और उनके बहुत से साथी वीरगति को प्राप्त हो हुए ।

उसी समय विरमदेव जी का राजतिलक किया गया, विरमदेव जी चामुण्डा माता की आराधना करने गए, ओर बोले, हे माँ रणभूमि में मेरा साथ देना, माँ चामुण्डा ने वचन दिया, जा लड़ में तेरे साथ हूँ, पर एक बात का ध्यान रखना, पीछे मुड़कर मत देखना, माता का आशीर्वाद लेकर कूद पड़े रन भूमि में, विरमदेव ऐसे लड़ रहे थे, जैसे साक्षात चामुण्डा रणभूमि में तांडव कर रही हो, दुश्मनों को गाजर मूली की तरह काटने लगे, काटते काटने सेना का अंत ही नही आ रहा था, तभी विरमदेव ने सोचा कि अभी और कितनी सेना बची है, ऐसा सोचकर पीछे देखा, तभी माँ चामुण्डा बोली तेरा मेरा वचन पूरा हुआ, उसके बाद भी वीरमदेव जी लड़ते रहे, तभी अचानक दुश्मन ने पीठ पीछे से वार कर विरमदेव का सिर धड़ से अलग कर दिया । 

युद्ध मे साथ आई मुगल दासी ने विरमदेव का सिर थाली में लिया और ससम्मान दिल्ली के लिए रवाना हो गई ताकि अलाउद्दीन की पुत्री फिरोजा को दिए वचन को पूरा कर सके, सोनगरा का सिर दासी की गोद मे और धड़ रणभूमि में कोहराम मचा रहा था । 

दिन ढलते ढलते सभी क्षत्रिय रणबांकुरे मातृभूमि के काम आ चुके थे, लेकिन विरमदेव का धड़ अभी भी कोहराम मचा रहा था ।

 तभी किसी ने कहा धड़ को अशुद्ध करो, सेनापति ने सोनगरा के धड़ पर अशुद्ध जल के छींटे डाले और धड़ शांत हो गया।

तुर्को ने दुर्ग तो विजय कर लिया था लेकिन चारों तरफ लाशों और नरमुण्डों के ढेर पड़े थे, दुर्ग की नालियों में पानी की जगह खून बह रहा था, वीरान दुर्ग सोनगरा के बलिदान पर आज भी गर्व से सीना तान खड़ा हैं । 

शाम के सन्नाटे में एक लालची सेठ अपनी #राई बेचने निकला "राई ले ल्यो रे राई"

पास से गुजरते सिपाही को पूछा "भाई आज राई नही खरीदोगे"

सिपाही ने जवाब दिया
                           "राई रा भाव राते ई बीत ग्या भाया"

उधर विरमदेव का सिर लिए दासी दिल्ली स्थित फिरोजा के महल पहुँची और शहजादी के समक्ष थाली में सजा सोनगरा का सिर रखा, फिरोजा ने जैसे ही थाल में सजे सोनगरा के सिर से औछार (थाल ढकने का वस्त्र) हटाया, सोनगरा का स्वाभिमानी सिर उल्टा घूम गया, फिरोजा ने अंतिम निवेदन करते हुए कहा
#तज तुरकाणी चाल #हिन्दुआणि हुई हमें,
#भो-भो रा भरतार, #शीश न धुण सोनगरा !

#जग जाणी रे शूरमा  #मुछा तणी आवत,
#रमणी रमता रम रमी #झुकिया नही चौहान

वीर विरमदेव जी सोनगरा का धड़ जहाँ गिरा था, वहाँ पर उनका मन्दिर बना हुआ है, सोनगरा मोमाजी के नाम से पूजे जाते है, तथा जालौर के हर गाँव मे सोनगरा मोमाजी के मन्दिर बने हुए है, हर घर मे उनकी पूजा की जाती है, दीन दुखियों को ठीक करते है, वाजियो को पुत्र देते है, तथा उनसे मांगी हुई हर मनोकामना पूर्ण करते है ।

जय सोनगरा वीर
जालौर दुर्ग का इतिहास 

शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

पन्नाधाय

माता पन्नाधाय

महाबलिदानी माता पन्नाधाय का जन्म चित्तौड़गढ़ के निकट माताजी की पांडोली नामक गांव में हुआ। इनके पिता का नाम हरचंद सांखला था।* पन्नाधाय का विवाह आमेट के निकट स्थित कमेरी गांव में रहने वाले
 सूरजमल चौहान से हुआ।

1527 ई. में खानवा के युद्ध के बाद 1528 ई. में महाराणा सांगा का स्वर्गवास हो गया। 1531 ई. तक महाराणा सांगा के पुत्र महाराणा रतनसिंह मेवाड़ के शासक रहे। फिर महाराणा विक्रमादित्य मेवाड़ की गद्दी पर बैठे, जो कि एक कमजोर शासक थे।

1534 ई. में जब गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण किया, तब राजमाता कर्णावती ने शासन की बागडोर अपने हाथों में ली। पन्नाधाय इन्हीं राजमाता कर्णावती की सेवा में नियुक्त थीं।

राजमाता कर्णावती ने पन्नाधाय को बुलाया और कहा कि “मेरे दोनों पुत्र विक्रमादित्य और उदयसिंह को अब मैं तुम्हें सौंपती हूँ, इनको इनके ननिहाल बूंदी लेकर जाना और जब चित्तौड़ से शत्रु खदेड़ दिए जावे, तभी इनको वापिस लाना”

राजमाता कर्णावती ने हज़ारों राजपूतानियों के साथ जौहर किया। बहादुरशाह ने चित्तौड़गढ़ जीत लिया। फिर मेवाड़ के सामन्तों के जोर-शोर से फिर से चित्तौड़गढ़ पर मेवाड़ का अधिकार हो गया।

महाराणा सांगा के बड़े भाई उड़न पृथ्वीराज की दासी पूतलदे से उनका एक बेटा हुआ, जिसका नाम बनवीर था। महाराणा सांगा ने बनवीर को बदचलनी के सबब से मेवाड़ से निकाल दिया था। मौका देखकर ये फिर मेवाड़ आया।

1535 ई. में बनवीर ने चित्तौड़ के कई खास सर्दारों को अपनी तरफ मिलाया और तलवार से महाराणा विक्रमादित्य की हत्या कर दी। फिर बनवीर ने कुंवर उदयसिंह को मारने के लिए उनके कक्ष में प्रवेश किया।

पन्नाधाय ने कुंवर उदयसिंह के वस्त्र अपने पुत्र चन्दन को पहनाकर उसको कुंवर उदयसिंह के स्थान पर लिटा दिया। राजगद्दी के नशे में चूर बनवीर कुँवर उदयसिंह को ढूंढते हुए महलों में आया और पन्नाधाय से पूछा कि “उदयसिंह कहाँ है पन्ना, आज मेवाड़ की राजगद्दी और मेरे बीच आने वाले उस आख़िरी कांटे को भी निकाल फेंकने आया हूँ”

पन्नाधाय ने जान बूझकर बनवीर को रोकने का प्रयास किया, ताकि बनवीर को शक ना हो। बनवीर ने पन्नाधाय को हटाया और चन्दन को ही कुंवर उदयसिंह समझकर पन्नाधाय की आँखों के सामने तलवार से चन्दन के दो टुकड़े कर दिये।

अपने पुत्र के दो टुकड़े होते देख भी पन्नाधाय उफ़ तक न कर सकीं, उनका हृदय जैसे थम सा गया। बनवीर खुशी के मारे राजगद्दी की तरफ गया। पन्नाधाय कीरत बारी (वाल्मीकि) के सेवक के ज़रिए बड़े टोकरे में पत्तलों से ढंककर कुंवर उदयसिंह को छुपाकर निकलीं।

बहुत से लोग अज्ञानवश इस समय कुँवर उदयसिंह को एक दुधमुंहा बालक बताते हैं, जबकि वास्तविकता में कुँवर की आयु इस समय 13-14 वर्ष थी।

पन्नाधाय नदी किनारे पहुंची और यहीं अपने पुत्र चंदन का अंतिम संस्कार किया। एक माँ को इस समय आत्मग्लानि में डूबकर पश्चाताप करना चाहिए था, परन्तु प्रश्न मातृभूमि का था। पन्नाधाय यहां नहीं रुकीं, क्योंकि अभी कुँवर उदयसिंह के प्राणों का संकट टला नहीं था।

पुत्र की चिता की राख अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि पन्नाधाय अपने पति सूरजमल के साथ कुंवर उदयसिंह को लेकर देवलिया पहुंची। देवलिया के रावत रायसिंह सिसोदिया ने इनकी बड़ी खातिरदारी की, पर जब पन्नाधाय ने कुंवर उदयसिंह को देवलिया में शरण देने की बात कही, तो रावत रायसिंह ने बनवीर के खौफ से ये काम न किया।

रावत रायसिंह ने पन्नाधाय को एक घोड़ा देकर विदा किया। पन्नाधाय कुंवर उदयसिंह को लेकर डूंगरपुर पहुंची। डूंगरपुर के रावल आसकरण ने भी बनवीर के डर से उन्हें शरण नहीं दी। रावल आसकरण ने उन्हें खर्च व सवारी देकर विदा किया।

आखिरकार पन्नाधाय कुम्भलगढ़ पहुंची, जहाँ उन्हें शरण मिली। कुम्भलगढ़ के किलेदार आशा देवपुरा ने अपनी माँ से इजाजत लेने के बाद कुंवर उदयसिंह को अपने यहाँ रखना स्वीकार किया।

भला एक माँ द्वारा दिया गया ऐसा अद्वितीय बलिदान व्यर्थ कैसे जाता। धीरे-धीरे यह ख़बर फैलती गई कि महाराणा उदयसिंह जीवित हैं, सामन्तों ने महाराणा उदयसिंह का राज्याभिषेक कर दिया। 1540 ई. में महाराणा उदयसिंह ने महाराणा विक्रमादित्य व चन्दन के हत्यारे बनवीर को चित्तौड़गढ़ के युद्ध में परास्त करके उसका अस्तित्व ही नष्ट कर दिया।

महाराणा उदयसिंह ने पन्नाधाय को चित्तौड़गढ़ में बुलवाया, लेकिन पन्नाधाय वहां फिर कभी न आई। महाराणा उदयसिंह जानते थे कि पन्नाधाय के बलिदान के सामने उनके लिए कुछ भी कर पाना सूरज को रोशनी दिखाने के बराबर है, लेकिन फिर भी वे पन्नाधाय के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करना चाहते थे।

इसलिए 1564 ई. में चांदरास गाँव में महाराणा उदयसिंह ने साह आसकर्ण देवपुरा (आशा देवपुरा) को धाय माता पन्नाधाय की सुरक्षा के लिए 451 बीघा भूमि का ताम्रपत्र प्रदान किया। मेवाड़ में इतने बड़े भूभाग के अनुदान का यही एक मात्र लेख है। इस ताम्रपत्र पर “संवत् 1621 आसोज सुदी नवमी” अंकित है।

गुरुवार, 9 सितंबर 2021

विरांगना "किरण देवी"

जब गर्दन में रखी कटारी तो अकबर ने विरांगना "किरण देवी" से मांगी क्षमा..

 राजस्थान रेतीले धोरों और राजपूतो की वीरता, त्याग और बलिदान की पहचान है। राजस्थान की धरती पर ऐसे कई वीर – वीरांगनाओ ने जन्म लिया है जिनकी वीरता की प्रशंसा आज भी कि जाती है, और राजस्थान का इतिहास ऐसी कई घटनाओं का संग्रहण किये हुए है।

 यह वीरांगना और कोई नही बल्कि "वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप जी" के छोटे भाई "शक्ति सिंह" की पुत्री किरणदेवी की है।"किरणदेवी" ने अकबर को प्राणों की भीख मांगने पर विवश कर दिया था। इस घटना का संबध दिल्ली में लगने वाले नौरोज मेले से है, यह मेला अकबर द्वारा आयोजित किया जाता था।

 इस मेले में अकबर स्वयं वेशभूषा बदलकर जाता और सुंदर महिलाओं को देखता और जो उसे पसन्द आ जाती उसको महल में बुलवाता और अपनी हवस को शान्त करता। एक दिन मेले में घूमते - घूमते अकबर की नजर "किरण देवी" पर पड़ी। अकबर "किरण देवी" का सुंदर रूप देख कर मोहित हो गया और किरण देवी को किसी भी हालत में पाना चाहता था। तुरंत ही उसने गुप्तचरो को पता लगाने का आदेश दिया, तो पता चलता है की वो "महाराणा प्रताप" के छोटे भाई "शक्ति सिंह जी" की बेटी है और उसका विवाह बीकानेर के "पृथ्वीराज राठौड़" से हुआ है, जो उनके ही दरबार में सेवक है।

अकबर ने "पृथ्वीराज" को युद्ध के बहाने बाहर भेज दिया और एक सेविका के द्वारा संदेश भिजवाया की बादशाह ने आपको बुलवाया है। "किरण देवी" ने शाही आदेश का मान रखते हुए महल में चले गये। वंहा पहुँचने "किरण देवी" को अकबर के मनसूबो का पता चल जाता है। इस बात को लेकर किरण देवी को क्रोध आ जाता है, और अकबर जीस कालीन पर खड़ा होता है, "किरण देवी" उस कालीन को खींचती है और अकबर को धराशाई कर देती है।

 किरण सिहनी - सी चडी, उर पर खीच कटार।
भीख मांगता प्राणकी, अकबर हाथ पसार।।
"किरण देवी" शस्त्र चलाने में तथा "आत्मरक्षा" करने में निपुण थी। "किरण देवी" अपनी "कटारी" निकाल कर अकबर की गर्दन पर रख कर बोलती है बताये अकबर बादशाह आपकी आखरी इच्छा क्या है। इस बाजी का इतना जल्दी तकता पलट जायेगा अकबर ने सोचा भी नही था।

 अकबर क्षमा याचना करता है और बोलता है की अगर मेरी मृत्यु हो गयी तो देश में बहुत सारी समस्या खड़ी हो जायगी, और वचन देता है की कभी भी नोरोज मेला नही लगाऊंगा। "किरण देवी" अकबर को खरी खोटी सुनाकर छोड़ी देती है तथा चेतावनी देकर वापस अपने महल चली जाती है।

 आप स्वयं सोचिये की एक वीरांगना से "प्राणों की भीख" मांगता अकबर महान कैसे हो सकता है, जब भी हमारे वीर योद्धाओ का मुग़लो से युध्द हुआ तब मुग़लों को धूल चटाई, किंतु युद्ध मे विश्वासघात होने पर ही हमारे "वीर योद्धाओ" की पराजय हुई है, बाकी किसी भी मुग़लो की औकात न थी कि हमारे "वीर योद्धाओ" को पराजय कर सके, इस बात का इतिहास साक्षी है।

 नमन है ऐसे "वीर योद्धा ओर वीरांगनाओं" को जिन्हों ने धर्म की रक्षा के हेतु अपने प्राण न्योछावर किये ओर धर्म बचाये रखा।

मंगलवार, 31 अगस्त 2021

गोगाजी

मारवाड़ के प्रसिद्ध वीर गोपाजी

गोगाजी और महमूद गजनवी के बीच 1024 ईसवी में युद्ध हुआ।  उस समय गजनवी सोमनाथ पर आखिरी आक्रमण के लिए जा रहा था।


जब गोगाजी ने छुड़ाए थे गजनवी के छक्के

गोगाजी और महमूद गजनवी के बीच 1024 ईसवी में युद्ध हुआ। उस समय गजनवी सोमनाथ पर आखिरी आक्रमण के लिए जा रहा था।

हनुमानगढ़. लोकदेवता के रूप में प्रतिष्ठित ददरेवा के चौहानवंशी शासक गोगाजी  प्रजा वत्सल, गोरक्षक और सांपों के देवता के रूप में तो प्रतिष्ठित एवं पूजित  हैं ही। इसके अलावा शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक सोमनाथ की रक्षा के लिए उनका महमूद गजनवी जैसे क्रूर और दुर्दांत आक्रांता की विशाल सेना से मुट्ठी भर परिजनों और सैनिकों के साथ लोहा लेकर वीर गति पाना इतिहास की ऐसी घटना है, जिस पर भविष्य में भी गर्व होगा।

लेकिन हरामी सेकुलर लेखकों ने गोगा वीर को गोगा पीर प्रचारित किया ताकि  गजनी से लोहा लेने की हकीकत दबाई जा सके...गोगा जी को सेकुलर साबित करने के लिये उनके पास किसी पीर की कब्र बना दी....

आज भी मारवाड़ में गोगा नवमी को रक्षा बंधन मनाया जाता है इसका मूलकारण है कि मारवाड़ की बहने अपने भाई को गोगा वीर के समान मानती है कि जिस प्रकार गोगा वीर ने सनातन धर्म व बहन बेटियों की रक्षा के लिये अपना पूरा परिवान   न्योछावर कर दिया, वह प्रेरणा भाई को मिलती रहे....

गुरु गोरखनाथ की कृपा से उत्पन्न गोगाजी के इष्ट देव सोमनाथ ही थे। गोगा बाबा ने सोमनाथ से शिव लिंग लाकर गोगा गढ़ में उसकी प्राण प्रतिष्ठा करवाई थी।

 महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर सत्रह बार आक्रमण किया और वहां से अकूत धन संपदा लूटकर गजनी ले गया।

गोगाजी और महमूद गजनवी के बीच 1024 ईसवी में युद्ध हुआ। उस समय गजनवी सोमनाथ पर आखिरी आक्रमण के लिए जा रहा था।  पूर्व में मरुस्थली के मस्तक पर उसका रास्ता गोगाजी ने ही रोका। उस समय गोगाजी ददरेवा के शासक थे। उम्र थी 78 साल। सोमनाथ पर गजनवी के आखिरी आक्रमण के बारे में जिन इतिहासकारों ने लिखा है, उन्होंने गोगाजी और गजनवी के बीच हुए युद्ध का उल्लेख जरूर किया है। गोगाजी और उनकी सेना के लिए यह युद्ध आत्महत्या करने जैसा था। एक तरफ गजनवी की विशाल सेना तो दूसरी तरफ मुट्ठी भर सैनिक। लेकिन सवाल गोगा बाबा के इष्ट देव के मंदिर को लूटने जा रहे लुटेरे को रोकने का था सो संख्या बल गौण हो गया। वर्तमान में जहां गोगामेड़ी है, वहीं पर भीषण युद्ध हुआ। इसमें गोगा बाबा सहित उनके 82 पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र और दौहित्र तथा ग्यारह सौ सैनिक वीर गति को प्राप्त हुए।

जौहर की ज्वाला
गोगाजी के वीर गति पाने के बाद उनके गढ़ की स्थिति का वर्णन भी इतिहासकारों ने किया है। गढ़ का नाम गोगा गढ़ और घोघा गढ़ बताया गया है। गोगा बाबा के परिवार सहित वीर गति पाने का समाचार गढ़ में पहुंचते ही वहां मौजूद स्त्रियां, युवतियां और किशोरियां जौहर की ज्वाला में समा जाती है। इसी दौरान गजनी की सेना लूटमार के लिए गढ़ में प्रवेश करती है। जौहर की ज्वाला में जीवित मूर्तियों को जलते देख गजनी की सेना भयभीत होकर गढ़ से बाहर भाग जाती है।

गोगादेव को विदाई
 
गजनी के साथ युद्ध में गोगा बाबा वीर गति को प्राप्त होते हैं। गजनी की सेना सोमनाथ पर आक्रमण के लिए मरुस्थली में आगे बढ़ जाती है। गोगा गढ़ में जीवित बचे किसान रणभूमि में आते हैं। चारों तरफ शवों के ढेर पड़े हैं। गिद्ध और गीदड़ शवों को नोच रहे होते हैं। शवों के ढेर में से नंदिदत अपने प्रिय गोगा राणा का शव ढूंढ़ निकालते हैं। उसे पीठ पर लादकर शुद्ध स्थान पर ले जाते हैं और वहीं अंतिम संस्कार कर देते हैं। शेष शवों का अंतिम संस्कार मरुस्थली की रेत डाल कर किया जाता है। कई इतिहासकार गोगाजी का अंतिम संस्कार किसानों की ओर से किए जाने का उल्लेख करते हैं।

मरुस्थली के वीर किसानों ने लिया गजनी के लुटेरे से लोहा

ददरेवा से आए किसानों ने गोगाजी का अंतिम संस्कार गोगामेड़ी में उसी जगह किया जहां समाधि बनी हुई है। 

इस जगह पर मंदिर निर्माण की सही तिथि तो ज्ञात नहीं। लोक मान्यता है कि भादरा के पास थेहड़ों से ईंटें लाकर गोगा मेड़ी में मंदिर निर्माण किया गया था। 
विक्रम संवत् 1911 में बीकानेर रियासत के महाराजा गंगासिंह ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया तथा सभी जातियों के जल कुण्डों को निर्माण करवाने के लिए भूमि आवंटित की।

सोमवार, 30 अगस्त 2021

राणा पूंजा सोलंकी

"राणा पूंजा सोलंकी"  पानरवा (भोमट क्षेत्र)

गंभीर मुद्रा में सोच रहा योद्धा एक महान
मैं लड़ा जिस देश ख़ातिर क्या ये है मेरा हिंदुस्तान..

हिंदवा सूरज महाराणा प्रताप को शत-शत नमन...
महान योद्धा राणा पूंजाजी जी को शत शत नमन... 

समरथ जोध सोलंकी  , समहर राणा संग ।
हल्दीघाट हरावल में  ,  रंग "ज" पूंजा रंग ।।

वीर मही मेवाड़ रा ,  सोलंकी "ज" सुचंग ।
हल्दीघाट हरावल में , सोहै प्रताप संग ।।

आज हम हल्दीघाटी के महान योद्धा के इतिहास के ऊपर सत्य जानकारी जानेंगे जो इतिहासकारों ने दंत कथाओं के आधार पर भिल बनाकर इतिहास बिगाड़ दिया..

राणा पूंजा ( 1572 - 1610 ई . ) महाराणा प्रताप द्वारा मुगल  अकबर के विरूद्ध लड़े गये दीर्घकालीन स्वतंत्रता - संग्राम का अदम्य सेनानी , पानरवा का सोलंकी शासक एवं भोमट का गौरव वीर योद्धा राणा पूंजा जिसने 1576 ई . के इतिहास - प्रसिद्ध हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप का साथ दिया । 

1576 ई . से 1586 ई . तक महाराणा प्रताप द्वारा मेवाड़ के विकट पहाड़ों एवं वनों में मुगल बादशाह अकबर के विरुद्ध लड़ी गई दस वर्षीय लड़ाई में राणा पूंजा के नेतृत्व में सोलंकी व आदिवासी भील सैनिकों ने जो अवर्णनीय एवं अविस्मरणीय सहयोग प्रदान किया , उसके कारण प्रताप द्वारा मुगल सेनाओं को परास्त करना संभव हुआ । मुगल - दासता विरोधी मेवाड़ के स्वतंत्रता - संघर्ष के इतिहास में वीर राणा पूंजा का नाम चिरस्मरणीय रहेगा ।  

*"पानरवा के सोलंकी ओर मुगल साम्राज्य के विरुद्ध मेवाड़ का स्वतंत्र संग्राम"

 ।28 फरवरी , 1572 ई . के दिन महाराणा प्रतापसिंह के राज्यारोहण के समय कुम्भलगढ़ में राणा पूंजा सोलंकी अपने सैनिकों व धनुर्धारी भील,  सैनिकों क साथ मौजूद थे। महाराणा प्रतापसिंह के राज्यारोहण - उत्सव में मेवाड़ के सभी बड़े - छोटे सर्दार , जो चित्तौड़ के जौहर से बचे थे , शामिल हुए । उनके अलावा ग्वालियर का राजा रामशाह ( रामसिंह ) और उसके तीन पुत्र , जोधपुर का राव चन्द्रसेन राठोड़ , प्रताप का मामा पाली का राव मानसिंह सोनगरा अपने भ्राताओं सहित , ईडर का राव नारायणदास राठोड़ और  पठान सर हकीमखा सूर आदि मौजूद थे ।

 इस अवसर पर महाराणा प्रताप और उसके सहयोगियों ने मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा की योजना बनाई और मेवाड़ के पहाड़ों में मुगल सेनाओं से लड़ने की छापामार युद्ध - प्रणाली की रूपरेखा तैयार की । इस रणनीति की मुख्य बातें थीं :
 1.   300 मील की परिधि वाले मेवाड़ के पहाडी प्रदेश के भीतर प्रवेश करने वाले सभी मार्गों की नाकेबंदी करना और वहां पर शत्रु के प्रवेश करते समय पहाड़ों के पीछे से निकल कर उस पर अचानक आक्रमण करके उसको जन - धन को हानि पहुँचाना । पहाड़ों में आने पर शत्रु के साथ इसी प्रकार की छापा मार । लड़ाई करना । 

2 . राज्य के कोषागार और शस्त्रागार की सुरक्षा का प्रबन्ध करना ।

3 . पहाड़ों में आवागमन और संचारव्यवस्था तथा तीव्रगामी सूचना की व्यवस्था करना । 

4 . राजपरिवार , सामतों , अधिकारियों आदि की स्त्रियों एवं बचों की सुरक्षित स्थलों पर रक्षा करना । । स्पष्ट है इन सभी उपरोक्त कार्यों में भीलों की प्रधान भूमिका रही । 
पानरवा राणा पूजा के नेतृत्व में पानरवा । और ओगणा के सोलंकी ठिकानेदारों ने इन सब कार्यवाहियों में बढ़ चढ़कर भाग लिया ।

 भोमट के अन्य राजन ठिकानों मादडी . जवास . जड़ा , मेरपर , पहाड़ा आदि के सारों ने भी अपने भील सनिकों के साथ राणा प्रताप को सहयोगा । प्रदान किया । चंकि इन सब ठिकानों की अधिकांश प्रजा भील थी और सिपाही भी भील थे अतएव इन ठिकानेदार को भीलों के सर्दार अथवा कहीं कहीं भील सर्दार लिखा मिलता है । 

इससे यह भ्रम फैला कि ये भोमिया राजपत । ठिकानेदार भोमिया भील है । राणा पूंजा का भील सैनिकों के साथ हल्दीघाटी की लड़ाई में भाग लेना 1572 ई . से 1575 ई . तक महाराणा प्रताप मुगल बादशाह अकबर के साथ आश्वासन देने और बहाना बनाने " की कूटनीति द्वारा लड़ाई को टालता रहा । इस काल के दौरान उसने पहाड़ों में रक्षात्मक युद्ध की पूरी तैयारी कर ली । आखिरकार 1576 ई . के जून माह में 5000 मुगल सेना मेवाड़ पर चढ़ आई

 उस समय महाराणा प्रताप ने मानसिंह की सेना के साथ पहाड़ों से बाहर निकल कर लड़ने का निश्चय किया । चेतक घोड़े पर सवार महाराणा प्रताप ने अपनी 3000 अश्वारोही और पैदल सेना तथा हाथियों को लेकर 18 जून । 1576 ई . के दिन हल्दीघाटी के बाहर निकलकर खमणोर के मैदान में मुगल सेना पर आक्रमण किया और प्रारम्भ में अधिकांश मुगल सेना को छ : कोस तक भगा दिया । भील सैनिक मैदानी लड़ाई के अभ्यस्त नहीं थे , अतएव राणा पूंजा के भील सैनिक मेवाड़ी सेना के चंदावल भाग में पहाड़ों पर ही रहे । 

राणा पूंजा सोलंकी प्रताप की सेना के चंदावल भाग में नियुक्त था जहां उसके साथ पुरोहित गोपीनाथ , पुरोहित जगन्नाथ , बच्छावत जयमल , महता रत्नचन्द खेतावत , महासानी जगन्नाथ , चारण जैसा और केशव आदि भी सेना के पिछले भाग में थे , जो लड़ाई के मैदान में नहीं उतरे । ' वीरविनोद में राणा पूजा को मेरपुर का राणा पूजा और भीलों का सर्दार लिखा है । जिसका आशय यही है कि राणा पूंजा भील सैनिकों का नेता था । आगे वीरविनोद में उसको पानरवा के भीलों का सिरदार लिखा है । 10 सम्भव है उस समय तक पानरवा के सोलंकी ठिकाने का प्रभाव मेरपुर तक रहा हो 

कतिपय लोग जो इतिहास के ज्ञाता नहीं हैं , वे राणा पूजा को इस आधार पर भील होना बताते हैं कि उसको भीलों का सार लिखा गया है । सोलंकी राजपूत राणा पूंजा को भील बताना सर्वथा अनैलिहासिक एवं अप्रामाणिका

 ' महाराणा प्रताप महान ' में भी वीरविनोद पर आधारित बात लिखी गई है । किन्तु महाराणा प्रताप को । हल्दीघाटी की लड़ाई के बाद पानरवा के सोलंकी राणा पूंजा और प्रधानतः उसके भील सैनिकों का जो अटूट सहयोग मिलता रहा , जिसके कारण प्रताप को मुगल विरोधी संघर्ष में अद्वितीय सफलता मिली तथा बाद में महाराणा अमरसिंह को राणा पूंजा के पुत्र राणा राम का जो सहयोग मिला और महाराणा राजसिंह को पानरवा के तत्कालीन राणा चन्द्रभाण ने अपने भील सैनिकों के साथ औरगजेब की मुगल सेना के विरुद्ध लड़ाई में जो मदद की , उसको देखते राणा पूंजा के । 

लिये लडाई के प्रारंभ में भाग जाने वाली बात स्वीकार कर लेना उचित नहीं होगा । वस्तुतः वह हल्दीघाटी की लड़ाई । समाप्त होने से पूर्व पहाड़ों के भीतरी भाग में चला गया था और मुगल सेना द्वारा घाटी में प्रवेश करने पर उसपर । आक्रमण करने हेतु अपने भील सैनिकों के साथ घात लगाकर जम गया था ।

पानरवा का सोलंकी राजवंश ने प्रताप की सेना का पहाड़ी भाग में पीछा करना उचित नहीं समझा । इसलिए यही सही प्रतीत होता है कि जब प्रताप की सेना युद्ध से लौटने लगी तो उससे पहिले ही राणा पूंजा और उसके भील सैनिक यह सोचकर पहाड़ों के भीतरी भाग में चले गये कि मुगल सेना पीछा करती हुई हल्दीघाटी में प्रवेश करेगी और उस स्थिति में वे मुगल सेना पर उस तंग घाटी में दोनों ओर से आक्रमण करके मुगल सैनिकों को मारेंगे

 बडवा ओंकार की नस्लनामा पोथी में पानरवा के राणा पूजा की गद्दीनशीनी का वर्ष वि . स . 1690 गलत लिखा मिलता है । इस आधार पर आजकल कुछ लेखक यह सिद्ध करने पर तुले हुए हैं कि हल्दीघाटी की । लड़ाई में प्रताप के साथ पानरवा का राणा पूजा सोलंकी मौजूद नहीं था । वह राणा पूजा नाम का अन्य कोई भील व्यक्ति था , जो ' भीलों का राजा ' था । किन्तु ऐसी मान्यता बनाना ऐतिहासिक सत्य को झुठलाना होगा । 

संवतों सम्बन्धी गलतियां बड़वों की वंशावली पोथियों में प्रायः देखने को मिलती है । बड़वों की प्रत्येक पीढ़ी अपने पुरुखों द्वारा लिखी वशावलियों की प्रतिलिपि तैयार करके उसमें नवीन नाम जोड़ती रहती थी । प्रतिलिपि तैयार करते समय कई प्रकार की भूलें हो जाती थीं । बड़वा परिवारों में शिक्षित लोग कम होते गये तो इस प्रकार की भूलें भी बढ़ती गई और कई प्रकार की अलौकिक बातों के वर्णन भी उनमें जुड़ते गये ।

 बड़वा ओंकार की पोथी में यद्यपि पूजा राणा की गद्दीनशीनी का वर्ष गलत दिया गया है किन्तु साथ ही उसमें राणा पूंजा और उसके दादा राणा हरपाल का जो सहयोग महाराणा प्रताप के साथ बताया गया है , उससे उसकी संवत सम्बन्धी गलती स्पष्ट हो जाती है । अन्य सभी दस्तावेजों और ग्रंथों में पानरवा के सोलंकी राणा हरपाल के पौत्र राणा पूंजा का ही हल्दीघाटी लड़ाई में मौजूद होना लिखा गया है । 

- गोगुंदा में मुगल सेना का घेराव महाराणा प्रताप हल्दीघाटी से निकल कर गोगंदा होते हए भोमट इलाके में कोल्यारी पहुंचा , जो क्षेत्र उस समय पानरवा ठिकाने के अन्तर्गत था । वहां घायल सैनिकों की सुश्रुषा का प्रबन्ध किया गया । प्रताप ने राणा पूंजा को आदेश देकर सभी भील सैनिकों को हल्दीघाटी से गोगुंदा के पहाड़ी क्षेत्र में बुला लिया । प्रताप ने गोगूदा पर मुगल सेना के संभावित आक्रमण को देखते हुए उसको पूरी तरह खाली करवा दिया ।

 19 जून को जब मंगल सेना हल्दीघाटी होते हुए गोगुंदा पहुँचा तो राणा पूंजा के नेतृत्व में भील एवं राजपूत सैनिकों ने मुगल सेना को चारों ओर से घेराबन्दी कर दी और गोगूदा को जाने वाले सभी पहाड़ी रास्ते बन्द कर दिये । उन्होंने बजारों के काफिलों को रोक कर मुगल सेना की रसद - आपूर्ति बंद कर दी । गोगुंदा से बाहर निकलने वाले मुगल सैनिक मारे जाने लगे । अकबर के खास सेनापति व बड़े-बड़े धुरंधर आतंकित हो गये कि उनको अपनी रक्षार्थ गोगंदा के चारों ओर रक्षक - दीवार बनवानी पड़ी । 

मुगल सेना की इतनी दुर्दशा हुई कि वे भोज्य पदार्थ के बिना भूखों मरने लगे और उनको घोड़ों का मांस एवं आम खाकर काम चलाना पड़ा । ऐसी विपत्ति में फंसने पर सितम्बर माह में मुगल सेना अपने को बचाती हुई गोगूदा छोड़कर हल्दीघाटी से बाहर भाग निकली थी..

जहा मानसिंह जी से बादशाह  नाराज हो गया  । " मुगल सेना के जाते ही महाराणा प्रताप ने गोगूदा पर वापस अधिकार कर लिया और सुरक्षा हेतु चारों ओर भील टुकड़िया तैनात कर दी । प्रताप की छापामार लड़ाई में सोलंकी राणा पूंजा का सहयोग तीन वर्ष 1576 से 1579 ई . तक महाराणा प्रताप के लिए भीषण विपदा के वर्ष रहे । हल्दीघाटी के तीन माह बाद स्वयं बादशाह मेवाड़ पर चढ़ आया । 

उसके बाद उसने तीन वर्ष तक निरन्तर प्रतिवर्ष अपने सेनापति शाहबाजखा । को बड़ी सेना देकर प्रताप का पीछा करने और मेवाड़ के पहाड़ी भाग को तहस - नहस करने हेतु भेजा । प्रताप की कुशल सैन्ययोजना के कारण ये सभी मुगल आक्रमण असफल रहे । इससे बादशाह अकबर बहुत निराश हुआ । इन तीन वर्षों में प्रताप ने पानरवा एवं भीलों की आबादी वाले भोमट के दक्षिणी पहाड़ों को अपनी सैन्ययोजना का प्रधान ।
 क्षेत्र बनाया और झाड़ोल के निकट स्थित ऊचे आवरपर्वत पर दर्ग बनाकर आवरगढ़ को अपनी राजधानी रखी । वहाँ । पर उस काल की प्राचीरों और भवनों के अवशेष आज भी यत्र - तत्र दष्टिगत होते है । यहां स्त्रिया और बच्चे सरक्षित रहे ।

 राणा पूंजा के नेतृत्व में भीलों ने उनकी सुरक्षा का दायित्व निभाया , साथ ही उन्होंने इन तीन वर्षों के दौरान पहाड़ों में छापामार युद्ध - प्रणाली से मुगल आक्रमणों को विफल करने में बड़ा योगदान दिया । भीलों ने पहाड़ों में मुगल सैनिकों को जिस भाति तंग और आतंकित किया तथा उनको जन - धन की हानि पहुंचाई , उससे मुगल सैनिक पहाडी भाग में घुसने और मगल थानों पर ठहरने से कतराने लगे । 1579 ई . तक प्रताप ने अपनी सफलता का सिका । 

पूरी तरह जमा लिया और उसी वर्ष दिवेर के बड़े मुगल थाने पर कब्जा करके और वहां पर नियुक्त थानेदार अकबर के चाचा सुल्तानखां को मार कर प्रताप ने अपना विजय - अभियान शुरू कर दिया । प्रताप की सफलताओं से मेवाड़ के राजपूतों एवं भील सैनिकों का मनोबल सुदृढ़ हो गया । मुगल सैनिक हतोत्साहित हो गये । प्रताप एवं उसके सेनापतियों ने नवीन परिस्थिति में पहाड़ों के बाहर निकल कर मुगल इलाकों में धावे बोलना और लूटमार करना शुरू कर दिया ।

 1579 ई . में प्रताप ने अपनी राजधानी पानरवा क्षेत्र से हटा कर छप्पन क्षेत्र में चावंड में कायम की । पानरवा क्षेत्र को आगे से प्रधानतः राजपरिवार , सामंतों एवं अधिकारियों की स्त्रियों एवं बच्चों के सुरक्षा - स्थल के रूप में उपयोग किया गया , साथ ही चावंड पर आक्रमण होने पर उसको राजधानी का सुरक्षा क्षेत्र बनाया गया । चावंड राजधानी कायम करने से प्रताप को कई लाभ हुए । गुजरात और मालवा की सीमाएं निकट होने से मेवाड़ क्षेत्र के वाणिज्य और उद्यम को बड़ा प्रोत्साहन मिला ।

 कृषि की उन्नति हुई एक बार फिर मेवाड़ की बहुमुखी प्रगति होने लगी । कला और साहित्य फलने - फूलने लगे । राजकोष में वृद्धि हुई । चावंड से मुगल इलाके में थानों पर हमले बोलने , धन एवं साधन प्राप्त करने का कार्य आसान हो गया । इससे मूगलप्रशासन और सेना की परेशानियां बढ़ गई । निस्संदेह ही प्रताप की सैन्य - योजना और प्रशासनिक व्यवस्था की सफलता में पानरवा के सोलंकी राणा पूजा ने अपने भील सैनिकों को साथ लेकर जो अविस्मरणीय योगदान प्रताप को दिया , वह मेवाड़ के मुगल - दासता - विरोधी स्वातंत्र्य - संग्राम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है।

  मेवाड़ में अपनी निरन्तर असफलताओं से निराश होकर 1585 ई . के बाद मुगल बादशाह अकबर ने मेवाड़ से मुंह मोड़ लिया । महाराणा प्रताप ने मेवाड़ के मैदानी भाग के अधिकांश हिस्से पर पुनः अपना अधिकार कायम कर लिया और उसके बाद 1597 ई में प्रताप के देहावसान होने तक मेवाड़ शान्ति और सम्पन्नता का उपभोग करता । रहा । 1605 ई . में अकबर की मृत्यु हो गई और वह अपने जीवन - काल में मेवाड़ को अधीन करने का अपना स्वप्न साकार नहीं कर सका ।

अकबर के उत्तराधिकारी  जहागिर न मेवाड़ को अधीन करने के अपने पिता का सपना पुरा करने के प्रयास शुरू किये । 1506 ई . में शाहजादा प्रवेज़ को बड़ी सेना देकर मेवार लेकर ऊंठाला और देबारी के बीच आ पहुँचा । महाराणा अमरसिंह ने अपने पिता के पद - चिह्नों पर चलने छापामार यब - प्रणाली का सहारा लिया । उसने पानरवा के राणा पूजा सोलंकी के पुत्र कुंवर राम को हजारों सोलंकी सैनिक और  भील सैनिक को साथ मे बुलाया और पहाड़ों में अपनी सेना का प्रधान मददगार और भीलों का सेनापति बनाकर शाही - फौज की रसद । का आदेश दिया । 

रात्रि के समय महाराणा अमरसिंह ने अपनी सेना लेकर मुगल सेना पर आक्रमण करके शाहजादे को मार भगाया और पानरवा के कुंवर राम के नेतृत्व में भील सैनिकों ने शाही खजाने और रसद को लूटा और भाल हए मगल सैनिकों को मारा । " 1606 ई . तक पानरवा के राणा पूजा काफी वृद्ध हो चुके थे , अतएव उस समय भील सैनिकों का नेतृत्व अपने कुंवर राम को देकर महाराणा अमरसिंह की सहायतार्थ भेजा था ।

राणा पूंजा और पानरवा ठिकाने ने मेवाड़ को विकट परिस्थितियों में अपनी हजारों की भील सेना प्रदान की व छापामार युद्ध प्रणाली के द्वारा आक्रमणकारियों से मेवाड़ की सदा हिफाज़त की, वे जाती से सोलंकी (चालुक्य) राजपूत थे।

पानरवा के शासकों को मेवाड़ में 16 उमरावो  के बराबर बैठने का अधिकार प्राप्त था व स्वतंत्र ठिकाना है..

आप सभी से निवेदन है कि इतिहास में राणा पूंजा को भील लिखकर बदनाम नहीं किया जाए वह भीलों के सेनापति थे सोलंकी क्षत्रीय राजपूत...

#सद्रभ : नस्लनामा बढड़वाजी की वंशावलियां 1 . सोलकियों का कुर्सीनामा 2 . सोलंकियों का नस्लनामा बड़वा देवीदान ( गांव दायक्या राजस्थान अभिलेखागार इलाका टोंक ) की पोथी बीकानेर में उपलब्ध बड़वा ओंकार ( गाव दायक्या पानरवा ठिकाने में उपलब्ध इलाका टोक ) की पोथी बड़वा नंदराम ( गांव सीतामऊ ) पानरवा ठिकाने में उपलब्ध की पोथी बड़वा रामसिंह वल्द ईसकदान पानरवा ठिकाने में उपलब्ध की पोथी 3 . पानरवा के सोलकियों की वंशावली 4 . पानरवा के सोलकियों की वंशावली पत्रावली सं . 10 पत्रावली सं . 171 पत्रावली सं . 315 2 . ख्यात गोगुंदा की ख्यात - स . डॉ . हुकमसिंह भाटी ( 1997 ई . में प्रकाशित ) 3 . अभिलेखागार एवं संग्रहालय 1 . राजस्थान राज्य प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान , उदयपुर भोमट का हाल , ग्रंथ सं 2680 2 . राजस्थान राज्य अभिलेखागार ( श्यामलदास - संग्रह ) , बीकानेर बड़वा देवीदान का सोलकियों का कुर्सीनामा पूजाजी का पीढ़ीनामा Report on the hilly tracts of Mewar 
3 . Akbarnama by Abul Fazl ( translation by H . Beveridge )  Akbar  by A . L . Srivastava , वीरविनोद , ले . कविराज श्यामलदास , राजस्थान राज्य अभिलेखागार , उदयपुर , पत्रावली , भोमट , सं .  राव पंजाजी का पीढीनामा - राजस्थान राज्य अभिलेखागार , बीकानेर , श्यामलदास - संग्रह ,भोमट का हाल , राज प्राच्य विद्याप्रतिष्ठान , उदयपुर ग्रंथ सं  . VII राजपूताने का इतिहास , ले जगदीशसिंह गहलोत , भाग । महाराणा प्रताप महान , ले . डॉ . देवीलाल पालीवाल , 

(राणा पूंजा जी के संदर्भ में कुछ पोस्ट फोटो जानकारी कॉमेंट बॉक्स में अपलोड किये है)
"जय वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप" 
"जय राणा पूंजा सोलंकी "

पोस्ट लेखक:- बलवीर सिंह(नाथावत)सोलंकी 
ठिकाना बासनी खलेल, परगना नागौर (मारवाड़)

 

शनिवार, 28 अगस्त 2021

अमीर अली खान पठान की गद्दारी

जब कंधार के तत्तकालीन शासक अमीर अली खान पठान को  मजबूर हो कर जैसलमेर राज्य में शरण लेनी पड़ी। तब यहां के महारावल लूणकरण थे।वे महारावल जैतसिंह के जेष्ठ पुत्र होने के कारण उनके बाद यहां के शासक बने। वैसे उनकी कंधार के शासक अमीर अली खान पठान से पहले से ही मित्रता थी और विपत्ति के समय मित्र ही के काम आता है ये सोचते हुए उन्होंने सहर्ष अमीर अली खान पठान को जैसलमेर का राजकीय अतिथि स्वीकार कर लिया। 

लम्बें समय से दुर्ग में रहते हुए अमीर अली खान पठान को किले की व्यवस्था और गुप्त मार्ग की सारी जानकारी मिल चुकी थी।उस के मन में किले को जीत कर जैसलमेर राज्य पर अधिकार करने का लालच आने लगा और वह षड्यंत्र रचते हुए सही समय की प्रतीक्षा करने लगा। इधर महारावल लूणकरण भाटी अपने मित्र अमीर अली खान पठान पर आंख मूंद कर पूरा विश्वास करते थे। वो स्वप्न में भी ये सोच नहीं सकते थे कि उनका मित्र कभी ऐसा कुछ करेगा।
इधर राजकुमार मालदेव अपने कुछ मित्रों और सामंतों के साथ शिकार पर निकल पड़े। अमीर अली खान पठान बस इस मौके की ताक में ही था। उसने महारावल लूणकरण भाटी को संदेश भिजवाया कि वो आज्ञा दे तो उनकी पर्दानशी बेगमें रानिवास में जाकर उनकी रानियों और राजपरिवार की महिलाओं से मिलना चाहती है। फिर क्या होना था? 
वही जिसका अनुमान पूर्व से ही अमीर अली खान पठान को था। महारावल ने सहर्ष बेगमों को रानिवास में जाने की आज्ञा दे दी। इधर बहुत सारी पर्दे वाली पालकी दुर्ग के महल में प्रवेश करने लगी किन्तु अचानक महल के प्रहरियों को पालकियों के अंदर से भारी भरकम आवाजें सुनाई दीं तो उन्हें थोड़ा सा शक हुआ। उन्होंने एक पालकी का पर्दा हटा कर देखा तो वहां बेगमों की जगह दो-तीन सैनिक छिपे हुए थे।

जब अचानक  षड्यंत्र का भांडा फूटते ही वही पर आपस में मार-काट शुरू हो गई। दुर्ग में जिसके भी पास जो हथियार था वो लेकर महल की ओर महारावल और उनके परिवार की रक्षा के लिए दौड़ पडा। चारों ओर अफरा -तफरी मच गई किसी को भी अमीर अली खान पठान के इस विश्वासघात की पहले भनक तक नहीं थी। कोलाहल सुनकर दुर्ग के सबसे ऊंचे बुर्ज पर बैठे प्रहरियों ने संकट के ढोल-नगाड़े  बजाने शुरू कर दिए जिसकी घुर्राने की आवाज दस-दस कोश तक सुनाई देने लगी। 
महारावल ने रानिवास की सब महिलाओं को बुला कर अचानक आए हुए संकट के बारे में बताया। अब अमीर अली खान पठान से आमने-सामने युद्ध करने के सिवाय और कोई उपाय नहीं था। राजकुमार मालदेव और सांमत पता नहीं कब तक लौटेंगे। दुर्ग से बाहर निकलने के सारे मार्ग पहले ही बंद किए जा चुके थे। राजपरिवार की स्त्रियों को अपनी इज्जत बचाने के लिए जौहर के सिवाय कुछ और उपाय नहीं दिखाई दे रहा था। अचानक से किया गया आक्रमण बहुत ही भंयकर था और महल में जौहर के लिए लकड़ियां भी बहुत कम थी। इसलिए सब महिलाओं ने महारावल के सामने अपने अपने सिर आगे कर दियें और सदा सदा के लिए बलिदान हो गई। महारावल केसरिया बाना पहन कर युद्ध करते हुए रणभूमि में बलिदान हो गए । 

महारावल लूणकरण भाटी को अपने परिवार सहित चार भाई, तीन पुत्रों के साथ को कई विश्वास पात्र वीरों को खो कर मित्रता की कीमत चुकानी पड़ी। इधर रण दुंन्दुभियों की आवाज सुनकर राजकुमार मालदेव दुर्ग की तरफ दौड़ पड़े।
वे अपने सामंतों और सैनिकों को लेकर महल के गुप्त द्वार से किले में प्रवेश कर गए और अमीर अली खान पठान पर प्रचंड आक्रमण कर दिया। अमीर अली खान पठान को इस आक्रमण की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी। अंत में उसे पकड़ लिया गया और चमड़े के बने कुड़िए में बंद करके दुर्ग के दक्षिणी बुर्ज पर तोप के मुंह पर बांध कर उड़ा दिया गया। 

इतिहास की क ई सैकड़ों ऐसी घटनाएं है जिससे हम वर्तमान में बहुत कुछ सीख सकते है।

शनिवार, 21 अगस्त 2021

महाराणा अमर सिंह और जहांगीर से संघर्ष

महाराणा अमर सिंह और जहांगीर 

ये गौरवगाथा एक ऐसे वीर योद्धा की है, जिसने अनबन के कारण मेवाड़ के शासक के सामने कभी अपना सिर नहीं झुकाया, पर उसी सिर को मेवाड़ की ख़ातिर मातृभूमि के चरणों मे भेंट कर दिया और सिद्ध कर दिया कि जब मातृभूमि पुकारती है, तो एक सच्चा राजपूत अपना सर्वस्व समर्पण करने को तैयार हो जाता है।

देलवाड़ा के जैतसिंह झाला के पुत्र मानसिंह झाला महाराणा प्रताप के बहनोई थे, जो कि हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे। मानसिंह झाला के 3 पुत्र हुए :- शत्रुसाल झाला, कल्याण झाला और आसकरण झाला। शत्रुसाल झाला गरम मिजाज़ के थे।
शत्रुसाल झाला महाराणा प्रताप की बहन के पुत्र थे। एक बार इनकी अपने मामा महाराणा प्रताप से तकरार हो गई थी और इन्होंने कहा था कि “आज से मैं सिसोदियों की नौकरी न करुंगा।”

*महाराणा प्रताप ने जब शत्रुसाल को रोकने के लिए उनके अंगरखे का दामन पकड़ा, तो शत्रुसाल ने अपने अंगरखे का दामन काट दिया। महाराणा प्रताप ने कहा था कि “आज के बाद शत्रुसाल नाम के किसी बन्दे को अपने राज में न रखूँगा”

इस तकरार के बाद शत्रुसाल मारवाड़ चले गए, तब महाराणा प्रताप ने क्रोध में आकर झाला राजपूतों से देलवाड़ा की जागीर ज़ब्त की। महाराणा प्रताप ने वीर जयमल मेड़तिया के पौत्र व मुकुन्ददास मेड़तिया के पुत्र मनमनदास को देलवाड़ा जागीर में दिया और वचन दिया की देलवाड़ा जीवनभर आपकी जागीर रहेगी।

ये जागीर मनमनदास को उनके पिता मुकुन्ददास मेड़तिया के जीवित रहते दी थी। कल्याण झाला और आसकरण झाला मेवाड़ के ही गांव चीरवा में रहे। जब मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह मुगलों से भीषण युद्ध कर रहे थे, उस समय कल्याण झाला ने भी महाराणा का साथ दिया।

महाराणा अमरसिंह ने खुश होकर कल्याण झाला को कोई जागीर देनी चाही, पर कल्याण झाला ने कहा कि हमें हमारे बाप-दादों की देलवाड़ा की जागीर ही दी जावे। महाराणा अमरसिंह ने कहा कि वह जागीर हमारे पूजनीय पिता ने मनमनदास को दी थी और वचन भी दिया था कि मरते दम तक जागीर उन्हीं की रहेगी। कल्याण झाला ने कहा कि आपको जागीर देने की इच्छा, हो तो देलवाड़ा ही जागीर में देवें।

1614 ई. में जब शहज़ादा खुर्रम (शाहजहाँ) कुल हिंदुस्तान की फौज समेत मेवाड़ आया, तब महाराणा अमरसिंह ने कल्याण झाला की कर्तव्यपरायणता देखकर उनसे कहा कि हम देलवाड़ा की जागीर आपको देने के लिए तैयार हैं, आप जोधपुर जाकर अपने भाई शत्रुसाल को भी यहाँ ले आओ।

इसी दौरान संयोग से जोधपुर के राजा सूरसिंह  के पुत्र कुँवर गजसिंह  से शत्रुसाल झाला की तकरार हो गई। कुँवर गजसिंह ने शत्रुसाल से कहा कि “महाराणा अमरसिंह जी तो आजकल अपनी रानियों के साथ पहाड़ों में मारे-मारे फिरते हैं।”

शत्रुसाल झाला ये सुनते ही उठ खड़े हुए और कहा “हाँ संभव है उनको अपनी बहन-बेटियों का सम्मान अधिक प्रिय हो”। कुँवर गजसिंह ने कहा कि “महाराणा के ऐसे हितैषी को तो बादशाही फौज के हाथों मरना चाहिए”।

तब शत्रुसाल झाला ने कहा कि “आपकी इस नसीहत को याद रखते हुए मैं वचन देता हूँ कि मरूँगा तो सिर्फ महाराणा और मेवाड़ की खातिर और रही बात बादशाही फौज की तो उनको भी आज असल रजपूती तलवार का स्वाद चखा ही देता हूँ। उन्हें भी तो मालूम पड़े कि एक सच्चे राजपूत की तलवार कितना लहू पीती है।”

इतना कहकर मेवाड़ लौटते वक्त शत्रुसाल झाला की अपने भाई कल्याण झाला से मुलाकात हुई और पता चला कि महाराणा अमरसिंह ने उन्हें देलवाड़ा की जागीर लौटा दी है। ये सुनकर शत्रुसाल झाला की आंखें भर आईं, क्योंकि उन्हें अपने पूर्वजों की जागीर पुनः प्राप्त हो गई।

शत्रुसाल झाला ने कल्याण झाला से कहा कि “पिछली बार मैंने अपने मामा महाराणा प्रताप से झगड़ा किया था। अब अगर मैं इस तरह महाराणा अमरसिंह के सामने गया, तो वे कहेंगे कि शत्रुसाल इतने वर्षों बाद मेवाड़ आया है और वो भी खाली हाथ। महाराणा के सामने खाली हाथ जाना ठीक न होगा, क्यों न मैं अपने प्राण ही दे दूँ”

दोनों भाईयों ने अपने कुछ गिने-चुने 100-200 झाला राजपूतों के साथ मुगल फौज पर हमला करने का फैसला किया। मेवाड़-मारवाड़ की सीमा पर आंवड़-सांवड़ की नाल में नवाब अब्दुल्ला खां अपनी फौज के साथ तैनात था। (नाल :- मेवाड़ में तंग पहाड़ी घाटियों को नाल कहा जाता था। यहां देसूरी की नाल, केवड़ा की
 नाल, आंवड़-सांवड़ की नाल प्रसिद्ध थी।)

दोनों भाईयों का मुकाबला अब्दुल्ला खां की फौज से हुआ। कई मुगल मारे गए व मेवाड़ की तरफ से भोपत झाला समेत कई राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए। संख्या में कम होने के कारण दोनों भाई अलग-अलग पहाड़ियों में चले गए पर गम्भीर रुप से घायल हुए।

शत्रुसाल झाला तो मेवाड़ की पहाड़ियों में गए, पर कल्याण झाला के घोड़े ने अपने प्राण त्याग दिए, जिस कारण वे पास के ही एक मन्दिर में रुके।

 अब्दुल्ला खां को कल्याण झाला की ख़बर मिली, तो मुगल फौज ने उनको घेर लिया।

एक अकेला राजपूत तब तक लड़ता रहा, जब तक उसके तीर समाप्त न हो गए। कल्याण झाला के पास जब तक तीर थे, तब तक किसी को अपने पास तक नहीं आने दिया, पर तीर खत्म होने के बाद अब्दुल्ला खां उन्हें कैद कर खुर्रम के पास ले गया।

बादशाहनामे में लिखा है कि “शहज़ादे खुर्रम ने कल्याण झाला की मरहम पट्टी वगैरह की और उसे जीवित छोड़ दिया”। मेवाड़ में अत्याचारों की सभी हदें पार करने वाले ख़ुर्रम ने यहां ऐसी दरियादिली कैसे दिखा दी, ये तो वक्त ही जानता है।

कल्याण झाला को तो जीवनदान मिल गया, पर शत्रुसाल झाला तो जोधपुर से महाराणा के लिए मरना ठान के निकले थे, इस खातिर उन्होंने पहाड़ों में ही अपने घाव ठीक किए और कुछ दिन बाद गोगुन्दा के शाही थाने पर हमला कर दिया।

गोगुन्दा में मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह के काका और जगमाल के छोटे भाई विश्वासघाती सगरसिंह सिसोदिया के नेतृत्व में हज़ारों की फौज तैनात थी। इस लड़ाई में शत्रुसाल झाला के कुल 39 घाव लगे, जिससे गोगुन्दा के पास रावल्या गांव में वे वीरगति को प्राप्त हुए।

इस तरह शत्रुसाल झाला ने अपने जीवन में जितने भी वचन लिए, पूरे किए। अनेक शत्रुओं और विश्वासघातियों को यमलोक भेजकर उन्होंने अपनी लहू की अंतिम बूंद तक युद्ध लड़ा। निश्चित ही यदि इस समय महाराणा प्रताप जीवित होते, तो अपने भांजे की इस वीरता पर अति प्रसन्न होते।

महाराणा अमरसिंह ने ये नियम बना रखा था कि कोई भी जागीर सदा एक ही सामंत या उसके वंशजों के पास रहे, ये जरूरी नहीं। जागीर वंश परंपरा के अनुसार नहीं, बल्कि कर्तव्यपरायणता के अनुसार दी जाएगी। शत्रुसाल झाला की ये वीरता निश्चित ही उनके वंशजों के लिए भी उपयोगी सिद्ध हुई।
महाराणा अमरसिंह ने शत्रुसाल झाला की बहादुरी देखकर गोगुन्दा की जागीर शत्रुसाल झाला के पुत्र कान्ह झाला को दे दी, तब से लेकर आज तक गोगुन्दा झाला राजपूतों का ठिकाना रहा है। इस तरह शत्रुसाल झाला को मरणोपरांत गोगुन्दा के पहले “राजराणा” की उपाधि दी गई व कान्ह झाला दूसरे राजराणा कहलाए।

जारी.............

महाराणा अमर सिंह और जहांगीर

महाराणा अमर सिंह और जहांगीर 

1614 ई. के अंतिम 2-3 माह में ख़ुर्रम के नेतृत्व में समूचे मुगल साम्राज्य की सेनाओं ने मेवाड़ के राजपूतों को चारों ओर से घेर लिया। राजपूतों तक रसद पहुंचनी बन्द हो गई। खेत पहले ही जला दिए गए थे। मेवाड़ के जो राजपूत जिन पहाड़ियों में थे, वे वहीं फंस गए।

इन दिनों महाराणा अमरसिंह ने जिन परिस्थितियों का सामना किया, ऐसी भयंकर परिस्थितियों का सामना तो कभी महाराणा प्रताप को भी नहीं करना पड़ा। पर इन परिस्थितियों से भी महाराणा अमरसिंह के मन में एक पल के लिए भी अपने पूर्वजों की महान परंपरा को तोड़ने का ख्याल नहीं आया।
परन्तु मेवाड़ के सामंत और कुँवर कर्णसिंह आदि के मन वर्षों से रक्तपात और 1614 ई. के भयंकर आक्रमण से टूटने लगे, क्योंकि जिस मातृभूमि की रक्षा की ख़ातिर वे बरसों से अपना सर्वस्व दांव पर लगाने को तत्पर थे, वह मातृभूमि इतने प्रयासों के बाद भी परतंत्रता की ओर बढ़ रही थी।

इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि “लंबे समय से चली आ रही यह अत्यंत पीड़ादायी लड़ाई मेवाड़ के लिए ऐसी आपदा बन चुकी थी, जिससे निस्तार का कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा था। मेवाड़ पर बहुत अत्याचार हो रहे थे। जन साधारण का विनाश, मंदिरों का विध्वंस, मृत शरीरों का छिन्न-भिन्न करके छितराया जाना, आम जनता की औरतों और बच्चों को नीलाम करना, घरों को फूंकना, पकी फसलों को जलाना आदि अत्याचारों से मेवाड़ का सामाजिक व आर्थिक ढांचा हिल गया।”

महाराणा अमरसिंह व रहीम के बीच पत्र व्यवहार :- महाराणा अमरसिंह की सेना दिन-दिन कम होती गई और प्रजा पर अत्याचार होने लगे, तो महाराणा बड़ी दुविधा में फँस गए। एक तरफ उनकी प्रजा सरेआम नीलाम हो रही थी और दूसरी तरफ पिछले 1050 वर्ष पहले गुहिल से चली आ रही मेवाड़ की स्वाधीनता दाँव पर लगी थी।

दुविधा ये की इन दोनों में से महाराणा को किसी एक को चुनना था। महाराणा अमरसिंह ने एक दोहा लिखा और कहा कि इसे अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना के पास भेज दिया जावे।

कृष्णभक्त अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना बैरम खां का बेटा था। ये वही सिपहसालार था, जिसकी बेगमों को महाराणा प्रताप के समय कुँवर अमरसिंह ने बन्दी बनाया था व महाराणा प्रताप ने सभी को मुक्त किया। तब से रहीम मेवाड़ का तरफदार रहा।

महाराणा अमरसिंह ने इस दोहे के ज़रिए रहीम से पूछा कि कब तक मुझे और मेरे साथियों को वन में भटकना चाहिए :- गोड़ कछाहा राठवड़, गोखा जोख करंत। कहजो खानांखान ने, वनचरु हुआ फिरंत।। तँवरां सूं दिल्ली गई, राठौड़ां सूं कन्नौज। अमर पूछे खान ने, सो दिन दीसै अज्ज।।

अर्थात् महाराणा अमरसिंह रहीम से कहते हैं कि तंवर राजपूतों के हाथ से दिल्ली गई थी, राठौड़ राजपूतों के हाथ से कन्नौज गया था। आज फिर वही दिन आया लगता है, हमारे हाथ से मेवाड़ जाने लगा है।

अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना ने महाराणा को जवाब में ये दोहा लिखा :- धर रहसी रहसी धरम, खपजासी खुरसाण। अमर विशंभर ऊपरा, राखो निहचो राण।। अर्थात् हे राणा अमरसिंह ! धरती रहेगी, धर्म भी रहेगा, पर मुगल साम्राज्य एक न एक दिन नष्ट हो जाएगा। गैरत के आराम से इज्जत की तकलीफ अच्छी, इसलिए आपको धैर्य रखना चाहिए।

रहीम के इस संदेश से महाराणा अमरसिंह को कुछ तसल्ली हुई, जिसके बाद वे कुछ और लड़ाइयां लड़े, परन्तु समूचे मुगल साम्राज्य के सामने मेवाड़ की छोटी सी सेना कब तक सामना करती। मेवाड़ के लोगों और अपनों की हालत देखकर मेवाड़ के सामन्तों और कुँवर कर्णसिंह के हौंसले अब पस्त होने लगे।

(रहीम व महाराणा अमरसिंह के बीच हुए इस पत्र व्यवहार को इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा सत्य घटना मानते हैं, परन्तु अन्य बहुत से इतिहासकार इस घटना को इसलिए खारिज करते हैं क्योंकि उस समय मेवाड़ चारों ओर से घिरा हुआ था और वहां से आगरा तक पत्र व्यवहार सम्भव नहीं था। बहरहाल, सत्य जो भी हो, मेवाड़ के महाराणा का हृदय धर्मसंकट में पड़ गया।)

तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि “मेवाड़ में जहां-जहां रहने की जगह खराब थी और बीहड़ जंगल थे, वहां भी ख़ुर्रम ने राणा के पीछे एक के बाद एक फ़ौज भेजकर थाने बिठा दिए। शहज़ादे ने भारी गर्मी और भारी बरसात की भी कोई फिक्र नहीं की। मेरे हुक्म से मेरे बेटे खुर्रम ने राणा अमर के मुल्क के लोगों को कैद कर लिया। राणा को पैगाम भेजा गया कि या तो अपने मुल्क के लोगों की हिफाजत के लिए बादशाही मातहती कुबूल करे या उनकी परवाह किये बगैर अपने मुल्क को छोड़कर चला जावे”

क्या यहां कुँवर कर्णसिंह को दोष दिया जाना उचित है ? जी नहीं, कुँवर कर्णसिंह का तो जन्म ही जंगलों में हुआ था, वनवासी की तरह उन्होंने जीवन के 28 वर्ष इन जंगलों में रहकर बिताए और हर लड़ाई में अपने पिता का साथ दिया।

क्या यहां मेवाड़ के सामन्तों को दोष दिया जाना चाहिए ? जी नहीं, मेवाड़ के इन सामन्तों की कई पीढ़ियों ने मातृभूमि की ख़ातिर अनेक बलिदान दिए और वे स्वयं भी बलिदान देने से पीछे हटने वालों में से नहीं थे। उन दिनों जीवन का बलिदान देना मेवाड़ के बहादुरों के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी।
बात प्राणों की नहीं, मान सम्मान की थी, क्योंकि अब राजपरिवार और सामन्तों की स्त्रियों पर भी संकट आने का भय था। मेवाड़ जिस मान सम्मान के लिए लड़ रहा था, यदि वो मान सम्मान ही संकट में हो तो फिर किसकी रक्षा की जाए। कुँवर कर्णसिंह व मेवाड़ के सामन्त भलीभांति महाराणा अमरसिंह के हृदय को समझ सकते थे।
महाराणा अमरसिंह का हृदय कांपने लगा। परन्तु ये कंपन ना तो अपने प्राणों के लिए थी और ना ही किसी भय के कारण। ये कंपन थी मेवाड़ की महान स्वतंत्र परंपरा को तोड़ने का अपमान सहन करने की। ये कंपन थी प्रजावत्सल महाराणा अमरसिंह की प्रजा के सरेआम नीलाम होने की।

मेवाड़ के सामंतों ने मिलकर सलाह की, जिसमें मुगल शहज़ादे खुर्रम से संधि की बात करना तय रहा, लेकिन सामंतों ने संधि वाली बात महाराणा अमरसिंह को बताना ठीक नहीं समझा, क्योंकि उन्हें पता था कि महाराणा इसके लिए कभी राजी नहीं होंगे।

साथ ही सभी सामंत ये भी जानते थे कि महाराणा अमरसिंह कभी भी दूसरे राजाओं की तरह बादशाही दरबार में जाकर मुगल बादशाह को सलाम नहीं करेंगे, इसलिए सामंत चाहते थे कि संधि कुछ इस तरह से हो कि महाराणा को मुगल दरबार में हाजरी ना देनी पड़े और महाराणा की जगह कुँवर कर्णसिंह को दरबार में भेज दिया जावे।

सभी सामंत एकमत से कुँवर कर्णसिंह के पास गए और उनसे कहा कि “बादशाही फ़ौज इस कदर हावी हो चुकी है, कि हमारी स्त्रियों और बच्चों तक के पकड़े जाने का खतरा मंडराने लगा है, प्रजा पर अत्याचार हो रहे हैं, इस ख़ातिर आप यदि तैयार हों, तो हम सन्धि की बात आगे बढ़ाएं।”

कुँवर कर्णसिंह ने कहा कि “हम स्वयं भी यही कहना चाहते थे, परन्तु दाजीराज के सामने ये कहने का साहस नहीं है मुझमें। पर आप सभी साथ हों, तो इस सन्धि की वार्ता के लिए मैं ख़ुर्रम से बात करने को तैयार हूं।”

जारी.......

ग्वालियर के महाराजधिराज मानसिंह तोमर जी

तोमर राजवंश के महान शासक , ग्वालियर के महाराजधिराज मानसिंह तोमर जी की जयंती पर उन्हें बारम्बार नमन् .
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तोमर राजवंश में जितने भी राजा महाराजा हुये उन्हें इतिहासकारों ने एकमत से कहा है कि तोमर राजवंश के सारे राजा महाराजा बेहद उच्च कोटि के विद्वान एवं धर्मज्ञ , साहसी, वीर , पराक्रमी और उदार , त्यागी व बलिदानी हुये , विद्धता और उदारता में , रण कौशल, बहादुरी पराक्रम में जहॉं ग्वालियर महाराजा मान सिंह तोमर का नाम सर्वोपरि आता है तो उन्हें अति उच्च कोटि का साहित्यकार, धर्म मर्मज्ञ , संस्कृति रक्षक व सनातन धर्म का सर्वाच्च सेवक भी माना जाता है , राजपूती काल गणनाओं में महाराजा मान सिंह तोमर का नाम ऐसे वीर योद्धा के रूप में शुमार किया जाता है जिसने अपने जीवन काल में अनेक युद्ध किये और सदैव विजयी रहे , हर शत्रु को हर रण में बुरी तरह न केवल मार भगाया बल्कि मध्यभारत की ओर या ग्वालियर चम्बल की ओर जिसने भी ऑंख उठाने की जुर्रत की उसका या तो शीष उतार लिया या कैद कर लिया या भागने पर मजबूर कर दिया , अपनी मृत्युकाल तक अविजित रहे इस विजेता महाराजा की सबसे बड़ी खासियत थी संगीत, नृत्य, साहित्य व प्रभु से लगाव , प्रेम प्यार और प्रीति की साक्षात प्रतिमूर्ति , महाराजा मान सिंह तोमर की राजपूत रानीयों के अलावा एक गूजर प्रेमिका थी जिसका नाम निन्नी था , सुंदरता व बहादुरी की बेजोड़ मिसाल निन्नी , महाराजा मान सिंह तोमर की अतुल्य प्रेमिका थी , जिससे महाराजा मान सिंह तोमर ने विधिवत विवाह कर ग्वालियर किले के निचले हिस्से में एक अलग से महल बनवाया , जिसे गूजरी महल कहा जाता है , मान मंदिर ( महाराजा मान सिंह तोमर के राजमहल) के ऐन नीचे ग्वालियर किले के निचले हिस्से की तराई में गूजरी रानी का राजमहल स्थित है, महाराजा मान सिंह तोमर के राजमहल से एक सीधी सुरंग गूजरी रानी के राजमहल , गूजरी महल तक जाती है, इसी सुरंग के जरिये महाराजा मान सिंह तोमर अपनी प्रियतमा रानी निन्नी से मिलने जाते थे, बेहद खूबसूरत नेत्रों व कमल नयनों वाली इस बहादुर , शूर वीर गूजर रानी को उसकी सुंदरता से , सौंदर्य से अभिभूत होकर महाराजा मान सिंह तोमर ने उसे ''मृगनयनी'' नाम दिया और इतिहास में महाराजा मान सिंह तोमर की यह प्रेमिका रानी मृगनयनी नाम से ही विख्यात हुई.

ग्वालियर महाराजा मान सिंह तोमर बेहद सुप्रसिद्ध वैभवशाली, बहुत प्रतापी और यशस्वी महाराज रहे हैं ... ग्वालियर को जो आज संगीत की राजधानी कहा जाता है यह महाराजा मान सिंह तोमर के कारण ही कहा जाता है .. महाराजा मान सिंह तोमर ने ही ध्रुपद का आविष्कार किया ... महाराजा मान सिंह तोमर के दरबार में ही थे महान गायक और संगीतकार... तानसेन और बैजू बावरा .... महाराजा मान सिंह तोमर ने ही ग्वालियर किले का पुनरूद्धार व जीर्णोद्धार कराया और सिकंदर लोदी और इब्राहीम लोदी को अनेकों बार धूल चटाई ... इतिहास में प्रसिद्ध लड़ाईयों में लोदीयों को महाराजा मान सिंह तोमर ने कई बार बुरी तरह मार भगाया .... जितने यशगान महाराजा मान सिंह तोमर के गाये जाते हैं उसमें सबसे अधिक महाराजा मानसिंह तोमर के साथ संगीत सम्राट तानसेन के भी यशगान प्रसिद्ध है .... महाराजा मान सिंह तोमर के रहते कोई मुगल या लोदी या बाहरी आक्रमणकारी मध्य भारत तक पॉंव नहीं धर पाया ... महाराजा मान सिंह तोमर का ही एक सेनापति कुंवर तेजपाल सिंह तोमर था जिसने दिल्ली के लोधी दरबार में में सिंह गर्जना कर हुंकार भरी थी ... कि मैं वह तोमर हूँ जिसके पुरखे ने इसी दिल्ली में किल्ली गाड़ी थी .... जो शेषनाग के फन को चीरती हुयी धरती में धंसी और पार कर गई .... उसने लोदी के ही दरबारमें लोदी को बुरी तरह गरिया डाला और कहा कि हम तोमर हैं तेरे जैसे दुष्टों को चीर कर धरती को तेरे लहू से स्नान करा देंगें .... इस पर लोदी ने दूत की मर्यादा भूल कर उसका सिर वहीं कलम करवा दिया था ओर दिल्ली के पुराने किले के तोमर महल में उसका कटा हुआ सिर लटकवा दिया था, लेकिन उसने अपना सिर कटने से पहले लोदी के दरबार में काफी प्रलय ढा दी थी और लोदी के कई दरबारी ओर सेना प्रमुखों को मार कर मौत के घाट उतार लोधी का दरबार लहू से लाल कर दिया था ... महाराजा मान सिंह तोमर महान साहित्यकार भी थे ... उन्होंने अनेक दोहों , चौपाईयों , कविताओं एवं अनेक छन्दों की रचना की .. विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ मान कुतूहल की रचना उन्हीं ने की.. महाराजा मान सिंह तोमर के ही एक महा आमात्य खेमशाह ने प्रसिद्ध ग्रंथ''बेताल पच्चीसी''की रचना मानिक कवि से कराई ... मान कौतूहल का फारसी अनुवाद फकीर उल्ला सैफ खॉं ने किया ... इसके अलावा महाराजा मान सिंह तोमर के दरबार में प्रसिद्ध साहित्यकार व संगीतकार बक्शु, महमूद लोहंग, नायक पाण्डेय, देवचंद्र, रतनरंग, मानिक कवि, थेघनाथ, सूरदास (बचपन काल में) , गोविंददास, नाभादास, हरिदास, कर्ण, नायक गोपाल, भगवंत, रामदास वगैरह थे ... भक्तमाल नामक ग्रंथ यहीं महाराजा मान सिंह तोमर के ही दरबार काल में लिखा गया, स्वयं महाराजा मान सिंह तोमर ने सावंती, लीलावती, षाढव, मानशाही, कल्याण आदि रागों के गीत लिखे हैं , ''रास '' नामक नृत्य नाटिका का आविष्कार स्वयं महाराजा मान सिंह तोमर ने ही किया ... जो कि आज रास लीला के नाम से बेहद प्रसिद्ध नृत्य नाटिका कही पुकारी जाती है, महाराजा मानसिंह तोमर ने ग्वालियर के निकट ही बरई में विशाल रास मण्डल का निर्माण कराया , रास नृत्य शैली को बृज क्षेत्र में ले जा कर हरिराम, हरिवंश ओर हरिदास ने चरमोत्कर्षपर पहुँचाया .

शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

वीर दुर्गादास

मारवाड़ के लोह पुरुष वीर दुर्गादास

"आठ पहर चौसठ घड़ी , घुड़ले उपर वास |
सैल अणी स्यूं सैकतो, बाटी दुर्गादास || ""

आज एक ऐसे राष्ट्रनायक की जयंती है जिसने मारवाड़, मेवाड़, जयपुर को ही नहीं बल्कि सुदूर दक्षिण की मराठा शक्ति को राष्ट्र के साझा शत्रु के सामने संयुक्त रूप से खड़ा कर भारत के एक राष्ट्र होने के भाव को पुष्ट किया।

आज ऐसे राष्ट्र नायक की जयंती है जिसका जीवन भारत राष्ट्र की राष्ट्रीयता (भारतीयता) का जीवंत प्रतीक था। उनमें भगवान राम जैसा त्याग और मर्यादाओं के प्रति लगाव था तो भगवान कृष्ण जैसा राजनीतिक चातुर्य था। अपने लक्ष्य के प्रति उनमें ध्रुव और प्रहलाद जैसी एक निष्ठता थी तो हनुमान जी जैसी तेल और सिंदुर में ही प्रसन्न रहने की अकिंचनता थी। प्रताप जैसा तेज था तो शिवाजी जैसा शौर्य था। हमीर जैसी शरणागतवत्सला थी तो पाबूजी और तेजाजी जैसा वचनपालन था। 

यदि हमें देश के सभी राष्ट्रनायकों के एक साथ किसी एक व्यक्तित्व में दर्शन करने हों तो हमें दुर्गादास जी को देखना चाहिए। 

ऐसे महान दुर्गा बाबा को उनकी  जयंती पर सादर नमन।

दुरगादास रौ सुजस

दुरगादास रौ सुजस 

कमधज कुल़ री कीरती,मारवाड़ सिरमोड़।।
अनमी   सेवक  ऊजल़ौ, दुरगदास राठौड़।।(१)

आसकरण सुत ओल़खै,जसवंतें जोधांण।।
सैनिक  राख्यौ सूरमों,दुरगदास  कर तांण।।(२)

अरक ताप अत आकरौ,जसवंत करै छांव।।
मान  राखियौ  मौकल़ौ,दुरगे  तणो  उमाव।।(३)

धवल़ मना सामी धरम,धरणी धरियौ धीर।। 
अवल असूलीआदमी, दुरगो कमधज वीर।।(४)

अंगरकसक  अजीत रौ,छतर बणै की छांव।।
हरपल  सह  रह हेत सूं, दुरगे  खेल्या  दांव।।(५)

लेस न रहियौ लालची, स्याम धरम सूं नेह।।
जोधांणै  रख   जाबतौ,दुरगे   सहियौ   देह।।(६)

काचा  राजा  कान रा,दुरग छुड़ायौ देस।।
भूल करी हद भूपती,तन मन लाए  तेस।।(७)

हड़ूमान ज्यूं हालियौ,रजवट पाल़ै रीत।।
दुरगै साथै देखतां,ओछी करी अजीत।।(८)

सूरज चांद  गगन सदा,धर दुरगे  रौ  नाम।।
वीर सिरोमणी वसुधा,सेवक धरमी स्याम।।(९)

कमधज कीरत कारणै,कुल़भूसण  करणोत।।
दुरगे  री  दरियादिली, जस री जगमग जोत।।(१०)

छिपरा  तट  रै   छेवटै, दुरगे   त्यागी   देह।।
दो गज जमी न दे सकै, छुछकै कीधौ छेह।।(११)

राठौड़ी राखी रिदै,भुजबल़ सूं  भरपूर।।
कीरत दुरगादास री,दसां  दिसावां दूर।।(१२)

अंतस रौ नीत ऊजल़ौ,आसकरण री आस।।
कमधज  कुल़  रौ  केहरी,धरमी  दुरगदास।।(१३)

सामधरम पाल़ै सदा,अनमी राखी  आंण।।
सूरवीर  दुरगो  सही, धरा   प्रीत जोधांण।।(१४)

सफीयतुनिसा  सहज सै,ओल़खती आवाज।।
दुरगदास  नह  देखियौ, सरणागत  सरताज।।(१५)

मुकनदास  खींची  मिलै,दिल्ली  रै  दरबार।।
अवल अजीत उठावियौ,दुरगदास सिरदार।।(१६)

फैली  सुवास  फूठरी, कीरत   हंदा  काज।।
दुरगो छिपरा दागियौ,रल़पट मिनखां राज।।(१७)

ओरंग आंख औजका,दुरगो सिंघ दहाड़।।
दरबारी धूजै दरस,हरवल  खड़ौ  पहाड़।।(१८)

कमधज रण में काटकै,घणो कियौ घमसांण।।
मुंड  काटिया   मौकल़ा, सूरै   दुरग  सुजांण।।(१९)

चरित दुरग रै चांदणै,रजपूती रखवाल़।।
पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़ै,खासौ राख खयाल।।(२०)

दुरगे रिपुदल़ दाटिया,हित स्वामी हरमेस।।
संघर्षरत रयौ सदा, परम    रूप  परमेस।।(२१)

सत सत नमन सिरोमणी,वाल्हो वसुधा वीर।।
दुरगे सम  नह  देखियौ,सटकातौ   समसीर।।(२२)

अमर हुवौ इल़ ऊपरै, जस   फैल्यौ पुरजोर।।
कमधज कीरत कारणै, गरब फिरां चहुँओर।।(२३)

रिदै मरठ हद राखतौ,प्रण पाल़्या प्रयास।।
इल़ होयौ नह ऐहड़ौ,जिसड़ौ  दुरगादास।।(२४)

चउदस  सांवण  चांदणी,दरसण दुरगादास।।
आसकरण रै आंगणै,असल खुसी उल्लास।।(२५)

माँगू सिंह बिशाला

मंगलवार, 12 जनवरी 2021

मारवाड़ के राणा प्रताप वीर चंद्रसेन

मारवाड़ के राणा प्रताप वीर चंद्रसेन
'मारवाड़ के राणा प्रताप' स्वाभिमानी योद्धा राव चंद्रसेन जी राठौड़ की 440वीं पुण्यतिथि पर शत शत नमन.....

राजपूताने का दुर्भाग्य रहा है कि महाराणा सांगा, महाराणा राजसिंह जी, राव चंद्रसेन जी जैसे महावीरों को विश्वासघातियों ने उस समय ज़हर दिया, जब वे मुग़लिय सत्ता से संघर्ष की चरम सीमा पर थे

राव चन्द्रसेन का जन्म 30 जुलाई, 1541 ई. को हुआ था। राव चन्द्रसेन के पिता का नाम राव मालदेव था। राव चन्द्रसेन जोधपुर, राजस्थान के राव मालदेव के छठे पुत्र थे। लेकिन फिर भी उन्हें मारवाड़ राज्य की सिवाना जागीर दे दी गयी थी, पर राव मालदेव ने उन्हें ही अपना उत्तराधिकारी चुना था। राव मालदेव की मृत्यु के बाद राव चन्द्रसेन सिवाना से जोधपुर आये 1619 को जोधपुर की राजगद्दी पर बैठे।

चन्द्रसेन के जोधपुर की गद्दी पर बैठते ही उनके बड़े भाइयों राम और उदयसिंह ने राजगद्दी के लिए विद्रोह कर दिया। राम को चन्द्रसेन ने सैनिक कार्यवाही कर मेवाड़ के पहाड़ों में भगा दिया और उदयसिंह, जो उसके सहोदर थे, को फलौदी की जागीर देकर संतुष्ट कर दिया। राम ने अकबर से सहायता ली। अकबर की सेना मुग़ल सेनापति हुसैन कुली ख़ाँ के नेतृत्व में राम की सहायता के लिए जोधपुर पहुंची और जोधपुर के क़िले मेहरानगढ़ को घेर लिया। आठ महीनों के संघर्ष के बाद राव चन्द्रसेन ने जोधपुर का क़िला ख़ाली कर दिया और अपने सहयोगियों के साथ भाद्राजूण चले गए और यहीं से अपने राज्य मारवाड़ पर नौ वर्ष तक शासन किया। भाद्राजूण के बाद वह सिवाना आ गए।

1627 को बादशाह अकबर जियारत करने अजमेर गए वहां से वह नागौर चले गए , जहाँ सभी राजपूत राजा उससे मिलने पहुंचे। राव चन्द्रसेन भी नागौर पहुंचा, पर वह अकबर की फूट डालो नीति देखकर वापस लौट आया। उस वक्त उसका सहोदर उदयसिंह भी वहां उपस्थित था, जिसे अकबर ने जोधपुर के शासक के तौर पर मान्यता दे दी। कुछ समय बाद मुग़ल सेना ने भाद्राजूण पर आक्रमण कर दिया, पर राव चन्द्रसेन वहां से सिवाना के लिए निकल गए। सिवाना से ही राव चन्द्रसेन ने मुग़ल क्षेत्रों, अजमेर, जैतारण, जोधपुर आदि पर छापामार हमले शुरू कर दिए। राव चन्द्रसेन ने दुर्ग में रहकर रक्षात्मक युद्ध करने के बजाय पहाड़ों में जाकर छापामार युद्ध प्रणाली अपनाई। अपने कुछ विश्वास पात्र साथियों को क़िले में छोड़कर खुद पिपलोद के पहाड़ों में चले गए और वहीं से मुग़ल सेना पर आक्रमण करके उनकी रसद सामग्री आदि को लूट लेते। बादशाह अकबर ने उनके विरुद्ध कई बार बड़ी सेनाएं भेजीं, पर अपनी छापामार युद्ध नीति के बल पर राव चन्द्रसेन अपने थोड़े से सैनिको के दम पर ही मुग़ल सेना पर भारी रहे।

संवत 1632 में सिवाना पर मुग़ल सेना के आधिपत्य के बाद राव चन्द्रसेन मेवाड़, सिरोही, डूंगरपुर और बांसवाड़ा आदि स्थानों पर रहने लगे। कुछ समय  के बाद वे फिर शक्ति संचय कर मारवाड़ आए और संवत 1636 श्रावण में सोजत पर अधिकार कर लिया। उसके बाद अपने जीवन के अंतिम वर्षों में राव चन्द्रसेन ने सिवाना पर भी फिर से अधिकार कर लिया था। अकबर उदयसिंह के पक्ष में था, फिर भी उदयसिंह राव चन्द्रसेन के रहते जोधपुर का राजा बनने के बावजूद भी मारवाड़ का एकछत्र शासक नहीं बन सका। अकबर ने बहुत कोशिश की कि राव चन्द्रसेन उसकी अधीनता स्वीकार कर ले, पर स्वतंत्र प्रवृत्ति वाला राव चन्द्रसेन अकबर के मुकाबले कम साधन होने के बावजूद अपने जीवन में अकबर के आगे झुके नहीं और विद्रोह जारी रखा।

11 जनवरी, 1581 (विक्रम संवत 1637 माघ सुदी सप्तमी) को मारवाड़ के महान् स्वतंत्रता सेनानी का सारण सिचियाई के पहाड़ों में 39 वर्ष की अल्पायु में उनका स्वर्गवास हो गया

मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

महाराणा प्रताप का हल्दीघाटी युद्ध मे शौर्य

महाराणा प्रताप का हल्दीघाटी युद्ध मे शौर्य 

इतिहास में यह कभी नहीं पढ़ाया गया है की हल्दीघाटी युद्ध में जब महाराणा प्रताप ने कुंवर मानसिंह के हाथी पर जब प्रहार किया तो शाही फ़ौज पांच छह कोस दूर तक भाग गई थी और अकबर के आने की अफवाह से पुनः युद्ध में सम्मिलित हुई है ये वाकया अबुल फज़ल की पुस्तक अकबरनामा में दर्ज है।

क्या हल्दीघाटी अलग से एक युद्ध था या एक बड़े युद्ध की छोटी सी घटनाओं में से बस एक शुरूआती घटना महाराणा प्रताप को इतिहासकारों ने हल्दीघाटी तक ही सीमित करके मेवाड़ के इतिहास के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है। 

वास्तविकता में हल्दीघाटी का युद्ध महाराणा प्रताप और मुगलो के बीच हुए कई युद्धों की शुरुआत भर था मुगल न तो प्रताप को पकड़ सके और न ही मेवाड़ पर अधिपत्य जमा सके। 

हल्दीघाटी के बाद क्या हुआ उसकी बानगी देखिए

हल्दीघाटी के युद्ध के बाद महाराणा के पास सिर्फ 7000 सैनिक ही बचे थे और कुछ ही समय में मुगलों का कुम्भलगढ़, गोगुदा , उदयपुर और आसपास के ठिकानों पर अधिकार हो गया था उस स्थिति में महाराणा ने गुरिल्ला युद्ध की योजना बनायी और मुगलों को कभी भी मेवाड़ में स्थिर नहीं होने दिया महराणा के शौर्य से विचलित अकबर ने उनको दबाने के लिए 1576 में हुए हल्दीघाटी के बाद भी हर साल 1577 से 1582 के बीच एक एक लाख के सैन्यबल भेजे जो कि महाराणा को झुकाने में नाकामयाब रहे।

हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात् महाराणा प्रताप के खजांची भामाशाह और उनके भाई ताराचंद मालवा से दंड के पच्चीस लाख रुपये और दो हज़ार अशर्फिया लेकर हाज़िर हुए इस घटना के बाद महाराणा प्रताप ने भामाशाह का बहुत सम्मान किया और दिवेर पर हमले की योजना बनाई भामाशाह ने जितना धन महाराणा को राज्य की सेवा के लिए दिया उस से 25 हज़ार सैनिकों को 12 साल तक रसद दी जा सकती थी बस फिर क्या था महाराणा ने फिर से अपनी सेना संगठित करनी शुरू की और कुछ ही समय में 40000 लडाकों की एक शक्तिशाली सेना तैयार हो गयी।

उसके बाद शुरू हुआ हल्दीघाटी युद्ध का दूसरा भाग जिसको इतिहास से एक षड्यंत्र के तहत या तो हटा दिया गया है या एकदम दरकिनार कर दिया गया है इसे बैटल ऑफ़ दिवेर कहा गया गया है।

बात सन 1582 की है विजयदशमी का दिन था और महराणा ने अपनी नयी संगठित सेना के साथ मेवाड़ को वापस स्वतंत्र कराने का प्रण लिया उसके बाद सेना को दो हिस्सों में विभाजित करके युद्ध का बिगुल फूंक दिया।

एक टुकड़ी की कमान स्वंय महाराणा के हाथ थी दूसरी टुकड़ी का नेतृत्व उनके पुत्र अमर सिंह कर रहे थे कर्नल टॉड ने भी अपनी किताब में हल्दीघाटी को Thermopylae of Mewar और दिवेर के युद्ध को राजस्थान का मैराथन बताया है। 

ये वही घटनाक्रम हैं जिनके इर्द गिर्द आप फिल्म 300 देख चुके हैं कर्नल टॉड ने भी महाराणा और उनकी सेना के शौर्य तेज और देश के प्रति उनके अभिमान को स्पार्टन्स के तुल्य ही बताया है जो युद्ध भूमि में अपने से 4 गुना बड़ी सेना से यूँ ही टकरा जाते थे।

दिवेर का युद्ध बड़ा भीषण था महाराणा प्रताप की सेना ने महाराजकुमार अमर सिंह के नेतृत्व में दिवेर थाने पर हमला किया हज़ारो की संख्या में मुग़ल राजपूती तलवारो बरछो भालो और कटारो से बींध दिए गए। युद्ध में महाराजकुमार अमरसिंह ने सुलतान खान मुग़ल को बरछा मारा जो सुल्तान खान और उसके घोड़े को काटता हुआ निकल गया। 

उसी युद्ध में एक अन्य राजपूत की तलवार एक हाथी पर लगी और उसका पैर काट कर निकल गई महाराणा प्रताप ने बहलोल खान मुगल के सर पर वार किया और तलवार से उसे घोड़े समेत काट दिया। 

शौर्य की ये बानगी इतिहास में कहीं देखने को नहीं मिलती हैउसके बाद यह कहावत बनी की मेवाड़ में सवार को एक ही वार में घोड़े समेत काट दिया जाता है ये घटनाये मुगलो को भयभीत करने के लिए बहुत थी बचे खुचे 36000 मुग़ल सैनिकों ने महाराणा के सामने आत्म समर्पण किया। 

दिवेर के युद्ध ने मुगलो का मनोबल इस तरह तोड़ दिया की जिसके परिणाम स्वरुप मुगलों को मेवाड़ में बनायीं अपनी सारी 36 थानों ठिकानों को छोड़ के भागना पड़ा यहाँ तक की जब मुगल कुम्भलगढ़ का किला तक रातो रात खाली कर भाग गए।

दिवेर के युद्ध के बाद प्रताप ने गोगुन्दा , कुम्भलगढ़ , बस्सी, चावंड , जावर , मदारिया , मोही , मंडलगढ़ जैसे महत्त्वपूर्ण ठिकानो पर कब्ज़ा कर लिया इसके बाद भी महाराणा और उनकी सेना ने अपना अभियान जारी रखते हुए सिर्फ चित्तौड़ को छोड़ के मेवाड़ के सारे ठिकाने/दुर्ग वापस स्वतंत्र करा लिए।

अधिकांश मेवाड़ को पुनः कब्जाने के बाद महाराणा प्रताप ने आदेश निकाला की अगर कोई एक बिस्वा जमीन भी खेती करके मुसलमानो को हासिल (टैक्स) देगा उसका सर काट दिया जायेगा इसके बाद मेवाड़ और आस पास के बचे खुचे शाही ठिकानो पर रसद पूरी सुरक्षा के साथ अजमेर से मगाई जाती थी।

दिवेर का युद्ध न केवल महाराणा प्रताप बल्कि मुगलो के इतिहास में भी बहुत निर्णायक रहा मुट्ठी भर राजपूतो ने पुरे भारतीय उपमहाद्वीप पर राज करने वाले मुगलो के ह्रदय में भय भर दिया दिवेर के युद्ध ने मेवाड़ में अकबर की विजय के सिलसिले पर न सिर्फ विराम लगा दिया बल्कि मुगलो में ऐसे भय का संचार कर दिया की अकबर के समय में मेवाड़ पर बड़े आक्रमण लगभग बंद हो गए।

इस घटना से क्रोधित अकबर ने हर साल लाखों सैनिकों के सैन्य बल अलग अलग सेनापतियों के नेतृत्व में मेवाड़ भेजने जारी रखे लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली अकबर खुद 6 महीने मेवाड़ पर चढ़ाई करने के मकसद से मेवाड़ के आस पास डेरा डाले रहा लेकिन ये महराणा द्वारा बहलोल खान को उसके घोड़े समेत आधा चीर देने के ही डर था कि वो सीधे तौर पे कभी मेवाड़ पे चढ़ाई करने नहीं आया।


रविवार, 22 नवंबर 2020

ग्वालियर के राजा रामशाह तोमर

ग्वालियर के राजा रामशाह तोमर 

ग्वालियर के राजा रामशाह तोमर ने अपने 3 पुत्रों (कुंवर शालिवाहन, कुंवर भान, कुंवर प्रताप) व एक पौत्र (धर्मागत) व 300 तोमर साथियों के साथ हल्दीघाटी युद्ध में भाग लिया और सभी वीरगति को प्राप्त हुए... एक साथ 3-3 पीढ़ियों ने अपने रक्त से रणभूमि को पवित्र कर दिया

महाराणा प्रताप के बहनोई कुंवर शालिवाहन तोमर महाभारत के अभिमन्यु की तरह लड़ते हुए सबसे अन्त में वीरगति को प्राप्त हुए

प्रत्यक्षदर्शी मुगल लेखक अब्दुल कादिर बंदायूनी 'मुन्तख़ब उत तवारीख' में लिखता है "यहाँ राजा रामशाह तोमर ने जिस तरह अपना जज्बा दिखाया, उसको लिख पाना मेरी कलम के बस की बात नहीं"

झलकारी बाई

झलकारी बाई 

मातृभूमि के रक्षण हेतु अपने प्राणों की आहुति देने वाली वाली झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का नाम अमर है।  रानी लक्ष्मी बाई के ही साथ देश की एक और पुत्री थी जिन्होंने  अपनी मातृभूमि रक्षार्थ अंतिम श्वाश तक अंग्रेजों के विरुद्ध भीषण युद्ध किया।

वह वीरांगना, जिसने न केवल 1857 की क्रांति में भाग लिया बल्कि अपने देशवासियों और अपनी रानी की रक्षा के लिए अपने प्राणों को सदैव अपनी हथेली पर रखा।

झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को उत्तर प्रदेश के झांसी के समीप स्थित  भोजला गाँव में एक कोली परिवार में हुआ था। झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु  हो गयी।

उनके पिता ने उन्हें एक पुत्र की तरह पाला। उन्हें घुड़सवारी, तीर चलाना, तलवार बाजी करने जैसे सभी युद्ध कौशल सिखाये। झलकारी बाई ने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी, किन्तु फिर भी वे किसी भी कुशल और अनुभवी योद्धा से कमतर नहीं थी।  रानी लक्ष्मी बाई की ही तरह उनकी वीरता के चर्चे भी बचपन से ही होने लगे थे।

झलकारी बाई घर के काम के अलावा पशुओं की देख-रेख और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में झलकारी की मुठभेड़ एक बाघ से हो गई थी और उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी से उसे मार गिराया। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर आक्रमण किया, तब झलकारी बाई ने अपनी वीरता से उन्हें पीछे हटने को विवश कर दिया था।

झलकारी बाई जितनी वीर थी, उतने ही वीर सैनिक से उनका विवाह हुआ। वह वीर सैनिक थे पूरन, जो झांसी की सेना में अपनी वीरता के लिए प्रसिद्द थे।

विवाह के पश्चात जब झलकारी बाई झांसी आई तो एक बार गौरी पूजा के अवसर पर गाँव की अन्य महिलाओं के साथ, वह भी महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले में गयीं। वहाँ जब रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें देखा तो वह दंग रह गयी। झलकारी बाई बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही दिखतीं थीं। साथ ही जब रानी ने झलकारी की वीरता के प्रसंग सुने तो उनसे इतनी प्रभावित हुई कि उन्होंने झलकारी बाई  को तुरंत ही दुर्गा सेना में सम्मिलित करने का आदेश दे दिया।

झलकारी बाई ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी का प्रशिक्षण लिया। पूर्व से ही इन कलाओं में सिद्धहस्त झलकारी बाई इतनी पारंगत हो गयी कि शीघ्र ही उन्हें दुर्गा सेना का सेनापति बना दिया गया।

केवल सेना में ही नहीं बल्कि बहुत बार झलकारी बाई ने व्यक्तिगत स्तर पर भी रानी लक्ष्मी बाई का साथ दिया। कई बार उन्होंने रानी की अनुपस्थिति में अंग्रेजों को चकमा दिया
 मुख व कद-काठी समान होने के कारण कोई भी आसानी से भेद नहीं कर पाता था कि कौन रानी लक्ष्मी बाई है और कौन झलकारी बाई।

1857 के विद्रोह के समय, जनरल ह्यूरोज ने अपनी विशाल सेना के साथ 23 मार्च 1858 को झाँसी पर आक्रमण किया। रानी ने वीरतापूर्वक अपने सैन्य दल से उस विशाल सेना का सामना किया। रानी कालपी में पेशवा द्वारा सहायता की प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन उन्हें कोई सहायता नही मिल सकी, क्योंकि तात्याँ टोपे जनरल ह्युरोज से पराजित हो चुके थे।

शीघ्र ही अंग्रेजी सेना झाँसी में प्रविष्ट हो गयी और रानी अपनी प्रजा के रक्षण हेतु अंग्रेजों से भीषण युद्ध करने लगी। ऐसे में झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई के प्राण बचाने के लिये खुद को रानी प्रदर्शित करते हुए लड़ने का निर्णय लिया। उन्होंने पूरी अंग्रेजी सेना को भ्रम में रखा ताकि रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजो की घेराबंदी से सुरक्षित बाहर निकल सके।

एक बुन्देलखंडी कथा के अनुसार रानी लक्ष्मी बाई का वेश धर झलकारी बाई किले के बाहर निकल ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज के शिविर में उससे मिलने पहँची। ब्रिटिश शिविर में पहुँचने पर उन्होंने गरजकर  ह्यूरोज को सामने आने की चुनोती दी । ह्यूरोज और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि न सिर्फ उन्होने झांसी पर अधिकार कर लिया है बल्कि जीवित रानी भी उनकी कैद में आ गई।

किन्तु यह झलकारी बाई  की रणनीति थी, ताकि वे अंग्रेजों को उलझाए रखें और रानी लक्ष्मी बाई को शक्ति संग्रहित करने के लिए और समय मिल जाये।

जनरल ह्यूरोज़ (जो उन्हें रानी ही समझ रहा था) ने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाना चाहिए? तो उसने दृढ़ता के साथ कहा, चाहे मुझे फाँसी दे दो। झलकारी बाई के इसी साहस और नेतृत्व क्षमता से प्रभावित होकर जनरल ह्यूरोज़ ने कहा था कि 
“यदि भारत की एक प्रतिशत महिलायें भी उसके जैसी हो जायें, तो अंग्रेजों को शीघ्र ही भारत छोड़ना होगा।”

झलकारी बाई को युद्ध में ‎4 अप्रैल 1858 को वीरगति प्राप्त हुई। उनकी मृत्यु के पश्चात अंग्रेजों को ज्ञात हुआ  कि जिस वीरांगना ने उन्हें कई दिनों तक युद्ध में घेरकर रखा था, वह रानी लक्ष्मी बाई नहीं बल्कि उनकी  झलकारी बाई थी।

इसे विडंबना ही कह लीजिये कि देश के लिए अपने प्राणों की भेंट चढ़ा देने वाली भारत की इस वीरांगना झलकारी बाई को इतिहास में बहुत अधिक स्थान नहीं मिला।  उनके सम्मान में भारत सरकार ने उनके नाम का पोस्ट और टेलीग्राम स्टेम्प अवश्य जारी किया, साथ ही भारतीय पुरातात्विक सर्वे ने अपने पंच महल के संग्रहालय में, झाँसी के किले में झलकारी बाई का भी उल्लेख किया है।

झलकारी बाई का उल्लेख कई क्षेत्रीय लेखकों द्वारा अपनी रचनाओं में किया गया है!

कवि मैथिलीशरण गुप्त ने उनके शौर्य का वर्णन करते हुए लिखा था,

“जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।”

भारत की स्वतंत्रता के स्वप्न  को पूर्ण करने  हेतु अपना सर्वोच्च बलिदान देने  वाली वीरांगना झलकारी बाई का समस्त राष्ट्र सदैव ऋणी रहेगा!

शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

भाटी वंश का इतिहास भाटियों की मान्यताएं और उनके प्रतिक

भाटी वंश का इतिहास भाटियों की मान्यताएं और उनके प्रतिक

भाटी वंश का इतिहास भाटियों की मान्यताएं और उनके प्रतिक का सम्पूर्ण वर्णन विस्तार से
वंश परिचय :-
चंद्र:- सर्वप्रथम इस बिंदु पर विचार किया जाना आवश्यक हे की भाटीयों की उत्पत्ति केसे हुयी ? और प्राचीन श्रोतों पर द्रष्टि डालने से ज्ञात होता हे की भाटी चंद्रवंशी है | यह तथ्य प्रमाणों से भी परिपुष्ट होता हे इसमें कोई विवाद भी नहीं हे और न किसी कल्पना का हि सहारा लिया गया है | कहने का तात्पर्य यह हे की दुसरे कुछ राजवंशो की उत्पत्ति अग्नि से मानकर उन्हें अग्निवंशी होना स्वीकार किया हे | सूर्यवंशी राठोड़ों के लिए यह लिखा मिलता हे की राठ फाड़ कर बालक को निकालने के कारन राठोड़ कहलाये | ऐसी किवदंतियों से भाटी राजवंश सर्वथा दूर है |
श्रीमदभगवत पुराण में लिखा हे चंद्रमा का जन्म अत्री ऋषि की द्रष्टि के प्रभाव से हुआ था | ब्रह्माजी ने उसे ओषधियों और नक्षत्रों का अधिपति बनाया | प्रतापी चन्द्रमा ने राजसूय यज्ञ किया और तीनो लोको पर विजयी प्राप्त की उसने बलपूर्वक ब्रहस्पति की पत्नी तारा का हरण किया जिसकी कोख से बुद्धिमान 'बुध ' का जन्म हुआ | इसी के वंश में यदु हुआ जिसके वंशज यादव कहलाये | आगे चलकर इसी वंश में राजा भाटी का जन्म हुआ | इस प्रकार चद्रमा के वंशज होने के कारन भाटी चंद्रवंशी कहलाये |

कुल परम्परा :-
यदु :- भाटी यदुवंशी है | पुराणों के अनुसार यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है | इसलिए इस वंश में भगवान् श्रीकृष्णा ने जन्म लिया तथा और भी अनेक प्रख्यात नृप इस वंश में हुए |

३.कुलदेवता :-
लक्ष्मीनाथजी :- राजपूतों के अलग -अलग कुलदेवता रहे है | भाटियों ने लक्ष्मीनाथ को अपना कुलदेवता माना है |

४. कुलदेवी :-
स्वांगीयांजी :- भाटियों की कुलदेवी स्वांगयांजी ( आवड़जी ) है | उन्ही के आशीर्वाद और क्रपा से भाटियों को निरंतर सफलता मिली और घोर संघर्ष व् विपदाओं के बावजूद भी उन्हें कभी साहस नहीं खोया | उनका आत्मविश्वास बनाये रखने में देवी -शक्ति ने सहयोग दिया |

५. इष्टदेव

श्रीकृष्णा :- भाटियों के इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्णा है | वे उनकी आराधना और पूजा करते रहे है | श्रीकृष्णा ने गीता के माध्यम से उपदेश देकर जनता का कल्याण किया था | महाभारत के युद्ध में उन्होंने पांडवों का पक्ष लेकर कोरवों को परास्त किया | इतना हि नहीं ,उन्होंने बाणासुर के पक्षधर शिवजी को परास्त कर अपनी लीला व् शक्ति का परिचय दीया | ऐसी मान्यता है की श्रीकृष्णा ने इष्ट रखने वाले भाटी को सदा सफलता मिलती है और उसका आत्मविश्वास कभी नहीं टूटता है |

६.वेद :-
यजुर्वेद :- वेद संख्या में चार है - ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद ,और अर्थवेद | इनमे प्रत्येक में चार भाग है - संहिता ,ब्राहण, आरण्यक और उपनिषद | संहिता में देवताओं की स्तुति के मन्त्र दिए गए हे तथा ;ब्राहण ' में ग्रंथो में मंत्रो की व्याख्या की गयी है | और उपनिषदों में दार्शनिक सिद्धांतों का विवेचन मिलता है | इनके रचयिता गृत्समद ,विश्वामित्र ,अत्री और वामदेव ऋषि थे | यह सम्पूर्ण साहित्य हजारों वर्षों तक गुरु-शिष्यपरम्परा द्वारा मौखिक रूप से ऐक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होता रहा | बुद्ध काल में इसके लेखन के संकेत मिलते है परन्तु वेदों से हमें इतिहास की पूर्ण जानकारी नहीं मिलती है | इसके बाद लिखे गए पुराण हमें प्राचीन इतिहास का बोध कराते है | भाटियों ने यजुर्वेद को मान्यता दी है | स्वामी दयानंद सरस्वती यजुर्वेद का भाष्य करते हुए लिखते है '' मनुष्यों ,सब जगत की उत्पत्ति करने वाला ,सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त सब सुखों के देने और सब विद्या को प्रसिद्ध करने वाला परमात्मा है |............. लोगो को चाहिए की अच्छे अच्छे कर्मों से प्रजा की रक्षा तथा उतम गुणों से पुत्रादि की सिक्षा सदेव करें की जिससे प्रबल रोग ,विध्न और चोरों का आभाव होकर प्रजा व् पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हो | यही श्रेष्ठ काम सब सुखों की खान है | इश्वर आज्ञा देता है की सब मनुष्यों को अपना दुष्ट स्वभाव छोड़कर विध्या और धर्म के उपदेश से ओरों को भी दुष्टता आदी अधर्म के व्यवहारों से अलग करना चाहिए | इस प्रकार यजुर्वेद ज्ञान का भंडार है | इसके चालीस अध्याय में १९७५ मंत्र है

७.गोत्र :-
अत्री :- कुछ लोग गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से मानने की भूल करते है | वस्तुत गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से नहीं हे बल्कि ब्राहण से है जो वेदादि शास्त्रों का अध्ययन कराता था | विवाह ,हवन इत्यादि सुभ कार्य के समय अग्नि की स्तुति करने वाला ब्राहण अपने पूर्व पुरुष को याद करता है इसलिए वह हवन में आसीन व्यक्ति को | वेड के सूक्तों से जिन्होंने आपकी स्तुति की उनका में वंशज हूँ | यदुवंशियों के लिए अत्री ऋषि ने वेदों की रचना की थी | इसलिए इनका गोत्र '' अत्री '' कहलाया |

८.छत्र :-
मेघाडम्बर :- श्री कृष्णा का विवाह कुनणपुर के राजा भीष्मक की पुत्री रुकमणी के साथ हुआ | श्रीकृष्ण जब कुनणपुर गए तब उनका सत्कार नहीं होने से वे कृतकैथ के घर रुके | उस समय इंद्र ने लवाजमा भेजा | जरासंध के अलावा सभी राजाओं ने नजराना किया | श्रीकृषण ने लवाजमा की सभी वस्तुएं पुनः लौटा दी परन्तु मेघाडम्बर छत्र रख लिया | श्रीकृष्ण ने कहा की जब तक मेघाडम्बर रहेगा यदुवंशी राजा बने रहेंगे | अब यह मेघाडम्बर छत्र जैसलमेर के राजघराने की सोभा बढ़ा रहा है |

9.ध्वज :-
भगवा पीला रंग :- पीला रंग समृदधि का सूचक रहा है और भगवा रंग पवित्र माना गया है | इसके अतिरिक्त पीले रंग का सूत्र कृष्ण भगवान के पीताम्बर से और भगवा रंग नाथों के प्रती आस्था से जुड़ा हुआ है | इसलिए भाटी वंश के ध्वज में पीले और भगवा रंग को स्थान दिया गया है |

१०.ढोल :-
भंवर :- सर्वप्रथम महादेवजी ने नृत्य के समय 14 बार ढोल बजा कर 14 महेश्वर सूत्रों का निर्माण किया था | ढोल को सब वाध्यों का शिरोमणि मानते हुए use पूजते आये है | महाभारत के समय भी ढोल का विशेष महत्व रहा है | ढोल का प्रयोग ऐक और जहाँ युद्ध के समय योद्धाओं को एकत्र करने के लिए किया जाता था वही दुसरी और विवाह इत्यादि मांगलिक अवसरों पर भी इसे बजाया जाता है | भाटियों ने अपने ढोल का नाम भंवर रखा |

११. नक्कारा :-
अग्नजोत ( अगजीत)- नक्कारा अथवा नगारा (नगाड़ा ) ढोल का हि ऐक रूप है | युद्ध के समय ढोल घोड़े पर नहीं रखा जा सकता था इसलिए इसे दो हिस्सो में विभक्त कर नगारे का स्वरूप दिया गया था | नगारा बजाकर युद्ध का श्रीगणेश किया जाता था | विशेष पराक्रम दिखाने पर राज्य की और से ठिकानेदारों को नगारा ,ढोल ,तलवार और घोडा आदी दिए जाते थे | ऐसे ठिकाने ' नगारबंद' ठिकाने कहलाते थे | घोड़े पर कसे जाने वाले नगारे को 'अस्पी' , ऊंट पर रखे जाने वाले नगारे को सुतरी' और हाथी पर रखे जाने नगारे को ' रणजीत ' कहा गया है |''
भाटियों ने अपने नगारे का नाम अग्नजोत रखा है | अर्थात ऐसा चमत्कारी नक्कारा जिसके बजने से अग्नि प्रज्वलित हो जाय | अग्नि से जहाँ ऐक और प्रकाश फैलता है और ऊर्जा मिलती है वही अग्नि दूसरी और शत्रुओं का विनाश भी करती है | कुछ रावों की बहियों में इसका नाम '' अगजीत '' मिलता है , जिसका अर्थ है पापों पर विजय पाने वाला ,नगारा

१२.गुरु:-
रतननाथ :- नाथ सम्प्रदाय का सूत्र भाटी राजवंश के साथ जुड़ा हुआ है | ऐक और नाथ योगियों के आशीर्वाद से भाटियों का कल्याण हुआ तो दूसरी और भाटी राजवंश का पश्रय मिलने पर नाथ संप्रदाय की विकासयात्रा को विशेष बल मिला | 9वीं शताब्दी के मध्य योगी रतननाथ को देरावर के शासक देवराज भाटी को यह आशीर्वाद दिया था की भाटी शासकों का इस क्षेत्र में चिरस्थायी राज्य रहेगा | इसके बारे में यह कथा प्रचलित हे की रतननाथ ने ऐक चमत्कारी रस्कुप्पी वरीहायियों के यहाँ रखी | वरीहायियो के जमाई देवराज भाटी ने उस कुप्पी को अपने कब्जे में कर उसके चमत्कार से गढ़ का निर्माण कराया | रतननाथ को जब इस बात का पता चला तो वह देवराज के पास गए और उन्होंने उस कुप्पी के बारे में पूछताछ की | तब देवराज ने सारी बतला दी | इस पर रतननाथ बहुत खुश हुए और कहा की '' टू हमारा नाम और सिक्का आपने मस्तक पर धारण कर | तेरा बल कीर्ति दोनों बढेगी और तेरे वंशजों का यहाँ चिरस्थायी राज्य रहेगा | राजगद्दी पर आसीन होते समय तू रावल की पदवी और जोगी का भगवा ' भेष ' अवश्य धारण करना |''
भाटी शासकों ने तब से रावल की उपाधि धारण की और रतननाथ को अपना गुरु मानते हुए उनके नियमों का पालन किया |

13.पुरोहित :-
पुष्करणा ब्राहण :- भाटियों के पुरोहित पुष्पकरणा ब्राहण माने गए है | पुष्कर के पीछे ये ब्राहण पुष्पकरणा कहलाये | इनका बाहुल्य ,जोधपुर और बीकानेर में रहा है | धार्मिक अनुष्ठानो को किर्यान्वित कराने में इनका महतवपूर्ण योगदान रहता आया है |

14 पोळपात
रतनू चारण - भाटी विजयराज चुंडाला जब वराहियों के हाथ से मारा गया तो उस समय उसका प्रोहित लूणा उसके कंवर देवराज के प्राण बचाने में सफल हुए | कुंवर को लेकर वह पोकरण के पास अपने गाँव में जाकर रुके | वराहियों ने उसका पीछा करते हुए वहां आ धमके | उन्होंने जब बालक के बारे में पूछताछ की तो लूणा ने बताया की मेरा बेटा है | परन्तु वराहियों को विस्वाश नहीं हुआ | तब लूणा ने आपने बेटे रतनू को साथ में बिठाकर खाना खिलाया | इससे देवराज के प्राण बच गए परन्तु ब्राह्मणों ने रतनू को जातिच्युत कर दिया | इस पर वह सोरठ जाने को मजबूर हुआ | जब देवराज अपना राज्य हस्तगत करने में सफल हुआ तब उसने रतनू का पता लगाया और सोरठ से बुलाकर सम्मानित किया और अपना पोळपात बनाया | रतनू साख में डूंगरसी ,रतनू ,गोकल रतनू आदी कई प्रख्यात चारण हुए है |

15. नदी
यमुना :- भगवान् श्रीकृष्ण की राजधानी यमुना नदी किनारे पर रही ,इसी के कारन भाटी यमुना को पवित्र मानते है |

16.वृक्ष
पीपल और कदम्ब :- भगवान् श्री कृष्णा ने गीता के उपदेश में पीपल की गणना सर्वश्रेष्ठ वृक्षों में की है | वेसे पीपल के पेड़ की तरह प्रगतिशील व् विकासशील प्रवर्ती के रहे है | जहाँ तक कदम्ब का प्रश्न है , इसका सूत्र भगवान् श्री कृष्णा की क्रीड़ा स्थली यमुना नदी के किनारे कदम्ब के पेड़ो की घनी छाया में रही थी | इसके आलावा यह पेड़ हमेशा हर भरा रहता है इसलिए भाटियों ने इसे अंगीकार किया हे | वृहत्संहिता में लिखा है की कदम्ब की लकड़ी के पलंग पर शयन करना मंगलकारी होता है | चरक संहिता के अनुसार इसका फूल विषनीवारक् तथा कफ और वात को बढ़ाने वाला होता है | वस्तुतः अध्यात्मिक और संस्कृतिक उन्नयन में कदम्ब का जितना महत्व रहा है | उतना महत्व समस्त वनस्पतिजगत में अन्य वृक्ष का नहीं रहा है

17.राग
मांड :- जैसलमेर का क्षेत्र मांड प्रदेश के नाम से भी जाना गया है | इस क्षेत्र में विशेष राग से गीत गाये जाते है जिसे मांड -राग भी कहते है | यह मधुर राग अपने आप में अलग पहचान लिए हुए है | मूमल ,रतनराणा ,बायरीयो ,कुरंजा आदी गीत मांड राग में गाये जाने की ऐक दीर्धकालीन परम्परा रही है |

18.माला
वैजयन्ती:- भगवान् श्रीकृष्णा ने जब मुचुकंद ( इक्ष्वाकुवशी महाराजा मान्धाता का पुत्र जो गुफा में सोया हुआ था ) को दर्शन दिया , उस समय उनके रेशमी पीताम्बर धारण किया हुआ था और उनके घुटनों तक वैजयंती माला लटक रही थी | भाटियों ने इसी नाम की माला को अंगीकार किया | यह माला विजय की प्रतिक मानी जाती है |

19.विरुद
उतर भड़ किवाड़ भाटी :-सभी राजवंशो ने उल्लेखनीय कार्य सम्पादित कर अपनी विशिष्ट पहचान बनायीं और उसी के अनुरूप उन्हें विरुद प्राप्त हुआ | दुसरे शब्दों में हम कह सकते हे की '; विरुद '' शब्द से उनकी शोर्य -गाथा और चारित्रिक गुणों का आभास होता है | ढोली और राव भाट जब ठिकानों में उपस्थित होते है , तो वे उस वंश के पूर्वजों की वंशावली का उद्घोष करते हुए उन्हें विरुद सुनते है
भाटियों ने उतर दिशा से भारत पर आक्रमण करने वाले आततायियों का सफलतापूर्ण मुकाबला किया था , अतः वे उतर भड़ किवाड़ भाटी अर्थात उतरी भारत के रक्षक कहलाये | राष्ट्रिय भावना व् गुमेज गाथाओं से मंडित यह विरुद जैसलमेर के राज्य चिन्ह पर अंकित किया गया है

२.अभिवादन
जयश्री कृष्णा :- ऐक दुसरे से मिलते समय भाटी '' जय श्री कृष्णा '' कहकर अभिवादन करते है | पत्र लिखते वक्त भी जय श्री कृष्णा मालूम हो लिखा जाता है |

21. राजचिन्ह :- राजचिन्ह का ऐतिहासिक महत्व रहा है | प्रत्येक चिन्ह के अंकन के पीछे ऐतिहासिक घटना जुडी हुयी रहती हे | जैसलमेर के राज्यचिन्ह में ऐक ढाल पर दुर्ग की बुर्ज और ऐक योद्धा की नंगी भुजा में मुदा हुआ भाला आक्रमण करते हुए दर्शाया गया है | श्री कृष्णा के समय मगध के राजा जरासंघ के पास चमत्कारी भाला था | यादवों ने जरासंघ का गर्व तोड़ने के लिए देवी स्वांगियाजी का प्रतिक माना गया है | ढाल के दोनों हिरण दर्शाए गए है जो चंद्रमा के वाहन है | नीचे '' छ्त्राला यादवपती '' और उतर भड़ किवाड़ भाटी अंकित है | जैसलमेर -नरेशों के राजतिलक के समय याचक चारणों को छत्र का दान दिया जाता रहा है इसलिए याचक उन्हें '' छ्त्राला यादव '' कहते है | इस प्रकार राज्यचिन्ह के ये सूत्र भाटियों के गौरव और उनकी आस्थाओं के प्रतिक रहे है |

22.भट्टीक सम्वत :- भट्टीक सम्वत भाटी राजवंश की गौरव -गरिमा ,उनके दीर्धकालीन वर्चस्व और प्रतिभा का परिचयाक है | वैसे चौहान ,प्रतिहार ,पंवार ,गहलोत ,राठोड़ और कछवाह आदी राजवंशों का इतिहास भी गौरवमय रहा है परन्तु इनमे से किसी ने अपने नाम से सम्वत नहीं चलाया | भाटी राजवंश द्वारा कालगणना के लिए अलग से अपना संवत चलाना उनके वैभव का प्रतिक है | उनके अतीत की यह विशिष्ट पहचान शिलालेखों में वर्षों तक उत्कीर्ण होती रही है |
भाटियों के मूल पुरुष भाटी थे | इस बिंदु पर ध्यान केन्द्रित करते हुए ओझा और दसरथ शर्मा ने आदी विद्वानों ने राजा भाटी द्वारा विक्रमी संवत ६८०-81 में भट्टीक संवत आरम्भ किये जाने का अनुमान लगाया है | परन्तु भाटी से लेकर १०७५ ई. के पूर्व तक प्रकाश में आये शिलालेख में भट्टीक संवत का उल्लेख नहीं है | यदि राजा भाटी इस संवत का पर्वर्तक होते तो उसके बाद के राजा आपने शिलालेखों में इसका उल्लेख जरुर करते |
भट्टीक संवत का प्राचीनतम उल्लेख देरावर के पास चत्रेल जलाशय पर लगे हुए स्तम्भ लेख में हुआ है जो भट्टीक संवत ४५२ ( १०७५ ई= वि.सं.११३२) है इसके बाद में कई शिलेखों प्रकाश में आये जिनके आधार पर कहा जा सकता है की भट्टीक सम्वत का उल्लेख करीब 250 वर्ष तक होता रहा |

खोजे गए शिलालेखों के आधार पर यह तथ्य भी उजागर हुआ हे की भट्टीक सम्वत के साथ साथ वि. सं. का प्रयोग भी वि. सं,. १४१८ से होने लगा | इसके बाद के शिलालेखों में वि. सं, संवत के साथ साथ भट्टीक संवत का भी उल्लेख कहीं कहीं पर मिलता है अब तक प्राप्त शिलालेखों में अंतिम उल्लेख वि. सं. १७५६ ( भट्टीक संवत १०७८ ) अमरसागर के शिलालेख में हुआ है | ऐसा प्रतीत होता है की परवर्ती शासकों ने भाटियों के मूल पुरुष राजा भाटी के नाम से भट्टीक संवत का आरम्भ किया गया | कालगणना के अनुसार राजा भाटी का समय वि. संवत ६८० में स्थिर कर उस समय से हि भट्टीक संवत १ का प्रारंभ माना गया है और उसकी प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए भट्टीक संवत का उल्लेख कुंवर मंगलराव और दुसज तथा परवर्ती शासकों ने शिलालेखों में करवाया | बाद में वि.सं. और भट्टीक संवत के अंतर दर्शाने के लिए दोनों संवतों का प्रयोग शिलालेखों में होने लगा |
एंथोनी ने विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण कर भट्टीक संवत आदी शिलालेखों कि खोज की है | उसके अनुसार अभी तक २३१ शिलालेख भट्टीक संवत के मिले है जिसमे १७३ शिलालेखों में सप्ताह का दिन ,तिथि ,नक्षत्र ,योग आदी पर्याप्त जानकारियां मिली है | भट्टीक संवत ७४० और ८९९ के शिलालेखों में सूर्य राशियों स्पष्ट रूप से देखि जा सकती है | यह तथ्य भी उजागर हुआ है की मार्गशीर्ष सुदी १ से नया वर्ष और अमावस्या के बाद नया महिना प्रारंभ होता है | 
भट्टीक सम्वत का अधिकतम प्रयोग ५०२-600 अर्थात ११२४-१२२४ ई. के दोरान हुआ जिसमे 103 शिलालेख है जबकि १२२४-१३५२ ई. के मध्य केवल 66 शिलालेख प्राप्त हुए है | १२२२ से १२५० ई और ११३३४ से १३५२ के मध्य कोई शिलालेख नहीं मिलता है | जहाँ तह सप्ताह के दिनों का महत्व का प्रसन्न है ११२४- १२२२ के शिलालेखों में रविवार की आवृति बहुत अधिक है परन्तु इसके बाद गुरुवार और सोमवार का अधिक प्रयोग हुआ है | मंगलवार और शनिवार का प्रयोग न्यून है

भाटियो का राव वंश वेलियो ,सोरम घाट ,आत्रेस गोत्र ,मारधनी साखा ,सामवेद ,गुरु प्रोहित ,माग्न्यार डगा ,रतनु चारण तीन परवर ,अरनियो ,अपबनो ,अगोतरो ,मथुरा क्षेत्र ,द्वारका कुल क्षेत्र ,कदम वृक्ष ,भेरव ढोल ,गनादि गुणेश ,भगवां निशान ,भगवी गादी ,भगवी जाजम ,भगवा तम्बू ,मृगराज ,सर घोड़ों अगनजीत खांडो ,अगनजीत नगारों ,यमुना नदी ,गोरो भेरू ,पक्षी गरुड़ ,पुष्पकर्णा पुरोहित ,कुलदेवी स्वांगीयाजी ,अवतार श्री कृष्णा ,छत्र मेघाडंबर ,गुरु दुर्वासा रतननाथ ,विरूप उतर भड किवाड़ ,छ्त्राला यादव ,अभिवादन जय श्री कृष्णा ,व्रत एकादशी ।

भाटी शासक का शासन काल 5000
आजतक भारत के राजवंशो में किसी भी राजवंश का क्रमबद्ध इतिहास नहीं लिखा हुआ है । केवल यदुवंश भाटी ही ऐसा वंश है जो 5000 साल लगातार भारत भूमि पर कही न कही शासन करते चले आ रहे है । इतने लम्बे समय में उनकी राजधानिया एंड काल इस प्रकार रहे ।
राजधानी का नाम काल 
काशी 900 साल 
द्वारिका 500 साल 
मथुरा 1050 साल 
गजनी 1500 साल 
लाहोर 600 साल 
हंसार 160 साल 
भटनेर 80 साल 
मारोट 140 साल 
तनोट 40 साल 
देरावर 20 साल 
लुद्र्वा 180 साल 
जैसलमेर 791 साल 
इतिहास में 5000 साल के लम्बे समय में 49 युद्ध भारत भूमि की रक्षा के लिए शत्रुओं से लड़े गए उनका क्रमबद्ध वर्णन किया गया है । जिसमे 10 युद्ध गजनी पर हुए इस इतिहास में आदिनारायण से वर्तमान महारावल बृजराज सिंह तक ।

208 पीढियों का वर्णन है । यूनान के बादशाह सिकंदर एंड जैसलमेर के महारावल शालिवाहन 167 के बीच युद्ध हुआ जिसमे महारावल विजयी हुए । भटनेर के तीन शाके तनोट पर एक शाका जिसमे 350 क्षत्रानियो ने जोहर किया रोह्ड़ी का शाका , जैसलमेर के ढाई शाके इस प्रकार कुल साढ़े ग्यारह शाके यदुवंशी भाटियो द्वारा किये गए प्रस्तुत इतिहास में 36 वंशों के नाम यदुवंशियों की 11 साखायें भाटियो की 150 साखायें एंड उनकी जागीरे भाटियो द्वारा कला साहित्य संगीत चित्रकला स्थापत्य कला जैसलमेर की स्थापना जैसलमेर का राज्य चिन्ह भाटी मुद्रा टोल जैसलमेर के दर्शनीय स्थान सामान्य ज्ञान पटुओ का इतिहास राठौर एंड परमारों की ख्याति का भी वर्णन है । 

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2020

स्वांगिया/भादरिया राय माता

वंश_कुलदेवी_दर्शन (स्वांगिया/भादरिया राय माता)

यदुवंशी_भाटियों_की_कुलदेवी_स्वांगीया_जी

देवी स्वांगिया का इतिहास बहुत पुराना है। भगवती आवड़ के पूर्वज सिन्ध में निवास करने वाले सउवा शाखा के चारण थे जो गायें पालते और घी व घोडों का व्यापार करते थे। मांड प्रदेश (जैसलमेर) के चेलक गांव में चेला नामक एक चारण आकर रहे। उसके वंश में मामड़िया जी चारण हुए जिसने संतान प्राप्ति के लिए सात बार हिंगलाज माता धाम की यात्रा की तब विक्रमी सम्वत् 808 में सात कन्याओं के रूप में देवी हिंगलाज ने मामड़िया के घर में जन्म लिया। इनमें बडी कन्या का नाम आवड़ रखा गया। आवड़ की अन्य बहिनों के नाम आशी, सेसी, गेहली, हुली, रूपां और लांगदे था। अकाल पडने पर ये कन्याएँ अपने माता-पिता के साथ सिन्ध में जाकर हाकड़ा नदी पाकिस्तान के किनारे पर रहीं। पहले इन कन्याओं ने सूत कातने का कर्म किया। इसलिए ये कल्याणी देवी कहलाई। फिर आवड़ देवी की पावन यात्रा और जनकल्याण की अद्भुत घटनाओं के साथ ही क्रमशः सात मन्दिरों का निर्माण हुआ और समग्र मांड प्रदेश में आवड माता के प्रति लोगों की आस्था बढती गई|
देवी का प्रतीक रुप स्वांग(भाला) व सुगन चिड़ी है। ये प्रतीक जैसलमेंर के राज्य चिन्ह में विद्यमान है। आजादी से पहले तक जैसलमेर के शासक दशहरा, दीपावली के दिन अपने घोड़ों को सजाते समय चांदी या सोने की चिड़िया बनाकर शक्ति के प्रतीक को बैठा कर पूजा करते थे| जैसलमेर के सिक्कों पट्टो-परवानो, स्टांपो, तोरणो आदि पर शुगन चिड़ी की आकृतियों का अंकन किया जाता था |

स्वांगिया या आवड़ माता के ये सात मन्दिर निम्नलिखित हैं –

 (1) तनोट राय मन्दिर:- 
राव तनु ने 8 वी शताब्दी में निर्माण करवाया।
इस स्थान पर मोहम्मद बिन कासिम, हुसैनशाह पठान, लंगाहो, वराहों,यवनों जोइयों व खीचियों ने कई आक्रमण किए। तनोट के शासक  विजयराव ने  देवी के प्रताप से ईरान के शाह व खुरासान के शाह को पराजित कर कुल 22 युद्ध जीते। 
सिंध के मुसलमान ने जब विजयराव पर आक्रमण किया तो देवी से प्रार्थना की कि अगर विजयी हुआ तो अपना मस्तक देवी को अर्पित करेगा। युद्ध में देवी ने विजयराव की मदद की और राव की विजय हुई। इस पर वह मंदिर में जाकर तलवार से अपना मस्तक काटने लगा तो देवी प्रकट हो गई और बोले कि मैनै तेरी पूजा मान ली और अपनी हाथ की सोने की चूड़ उतार🎂 कर दी। यही विजयराव इतिहास में #विजयराव_चूंडाला के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 1965 ई व 1971 ई में पाकिस्तान से युद्ध हुआ। सभी युद्धों में देवी के प्रताप से विजय मिली। 1965 ई के बाद BSF द्वारा पूजा अर्चना की जाती है।
जहाँ 1965 ई में पाकिस्तान के गिराए 300 बम बेअसर हुए थे। देवी की कृपा से पाकिस्तान के सैनिक रात के अंधेरे में आपस में लड़.कर मारे गए। इस समय पाकिस्तान ने 150 किमी तक कब्जा कर लिया था।
तनोट देवी को #थार_की_वैष्णों_देवी भी कहा जाता है। BSF की एक यूनिट का नाम तनोट वारियर्स है। 

 (2) घंटियाली राय मंदिरः– तनोट से 5 KM की दूरी पर दक्षिण-पूर्व में है। वीरधवल नामक पुजारी को नवरात्र के दिनों में देवी ने शेरनी के रूप में दर्शन दिए जिसके गले में घंटी बंधी थी। 1965 ई में पाकिस्तानी सैनिकों ने इस मंदिर की मूर्तियों को खंडित किया था। जिन्हें देवी ने मृत्यु दंड दिया।

 (3) श्री देगराय मन्दिर - जैसलमेर के पूर्व में देगराय जलाशय पर स्थित है। महारावल अखैसिह ने इस नवीन मंदिर का निर्माण करवाया था। देवियों ने महिष के रुप में विचरण कर रहे दैत्य को मारकर उसी के सिर का देग बनाकर उससे रक्तपान किया।
यहाँ रात को नगाड़ों व घुघरुओं की ध्वनि सुनाई देती है। कभी कभी दीपक स्वतः ही प्रज्ज्वलित हो जाता है।

 (4) भादरियाराय का मन्दिर:- इसका निर्माण महारावल गजसिंह जी ने #बासणपी_की_लडाई जीतने के पश्चात  करवाया और अपनी रानी व मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह की पुत्री रुपकंवर के साथ जाकर मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई।
महारावल शालीवाहन ने देवी को चांदी का भव्य सिंहासन अर्पित किया। सिंहासन के ऊपर जैसलमेर का राज्यचिन्ह उत्कीर्ण है जिसे महारावल शालीवाहन सिंह ने भेंट चढा़या।  फिर जवाहरसिंह ने इसका जीर्णोद्धार करवाया। 
शक्तियो ने वहादरिया ग्वाले को परचा दिया । वहादरिया के निवेदन करने पर देवी ने यहीं निवास किया। इसी कारण वाहदरिया भादरिया नाम से प्रसिद्ध हुआ। राव तणु ने यहाँ पहुंच कर देवियों के दर्शन किए। इस स्थान को आधुनिक रूप संत हरिवंश राय निर्मल ने दिया ।यहाँ पर विशाल गौशाला व एशिया का सबसे बडा़ भूमिगत पुस्तकालय स्थित है। यहाँ पर एक विश्वविद्यालय बनना भी प्रस्तावित है। महाराज ने शिक्षा, पर्यावरण, नशामुक्ति, चिकित्सा एवमं स्वास्थ्य के क्षेत्र में बेहतर काम किया । कन्या भ्रूण हत्या, दहेज, बाल विवाह का सदा विरोध किया। यहाँ का शक्ति और सरस्वती का अनूठा संगम अन्यत्र दुर्लभ है।

(5) श्री तेमड़ेराय मंदिर :- जैसलमेर के दक्षिण में गरलाउणे पहाड़ की कंदरा में बना हुआ है। इसका निर्माण महारावल केहर ने करवाया था। केहर ने मंदिर की पहाड़ी के नीचे एक सरोवर का निर्माण करवाया तथा सरोवर के निकट दो परसाले भी बनवाई । यहां देवी की पूजा छछुन्दरी के रुप में होती है। चारण इसे द्वितीय हिंगलाज मानते है। महारावल अमरसिंह ने तेमडेराय पहाड़ की पाज बंधाई,मंदिर के सामने बुर्ज, पगोथिये व उस पर बंगला बनवाया। महारावल जसवंतसिंह ने परसाल व बुर्ज का निर्माण करवाया व प्रतिष्ठा करवाई। महारावल जवाहरसिंह ने इसके निज मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। यहाँ शक्तियों ने तेमड़ा नामक दैत्य का वध किया था। बीकानेर महाराजा रायसिंह जी ने अपनी रानी व जैसलमेर की राजकुमारी गंगाकुमारी के साथ यहां की यात्रा की और देवी ने नागिणियों के रुप में दर्शन दिए तो रायसिंह ने मंदिर के सामने खंभो वाला देवल बनाया।
करणी माता भी तेमडेराय की परम भक्त थी। इसलिए कुछ लोग करणी जी को स्वांगीया का अवतार भी मानते है।

(6) स्वांगिया माता गजरूप सागर मन्दिर :- यह गजरुप सागर तालाब के पास समतल पहाडी पर निर्मित मंदिर. जिसका निर्माण महारावल गजसिंह ने करवाया था। वे प्रातःकाल उठते ही किले से देवी के दर्शन करते है।

(7) श्री काले डूंगरराय मन्दिर:-जैसलमेर से 25किमी दूर इस मंदिर का जीर्णोद्धार महारावल जवाहरसिंह ने निर्माण कराया।
काले रंग के पहाड़ पर स्थित है। सिंध का मुसलमान इन कन्याओं से बलात विवाह करना चाहता था। सिंध से लौटने समय देवी ने हाकड़ा से मार्ग मांगा परंतु हाकडा के मार्ग नहीं देने पर  देवी के चमत्कार से हाकडा़ नदी का पानी सुख गया। इसके पश्चात शक्तियां कुछ समय यहां भी रही थी।

 जय माँ कुलदेवी

जठै यादवों राज जोरे जमाया।
वठै जा करी जोगणी छत्र छाया।।

जय माँ स्वांगीया 🚩🙏

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2020

कछवाह क्षत्रिय वंश - शेखावत

कछवाह क्षत्रिय वंश - शेखावत

शेखावत सूर्यवंशी कछवाह क्षत्रिय वंश की एक शाखा है देशी राज्यों के भारतीय संघ में विलय से पूर्व मनोहरपुर,शाहपुरा, खंडेला,सीकर, खेतडी,बिसाऊ,सुरजगढ़,नवलगढ़, मंडावा,मुकन्दगढ़, दांता,खुड,खाचरियाबास,दूंद्लोद,अलसीसर,मलसिसर,रानोली आदि प्रभाव शाली ठिकाने शेखावतों के अधिकार में थे जो शेखावाटी नाम से प्रशिध है वर्तमान में शेखावाटी की भौगोलिक सीमाएं सीकर और झुंझुनू दो जिलों तक ही सीमित है भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज कछवाह कहलाये महाराजा कुश के वंशजों की एक शाखा अयोध्या से चल कर साकेत आयी, साकेत से रोहतास गढ़ और रोहताश से मध्य प्रदेश के उतरी भाग में निषद देश की राजधानी पदमावती आये रोहतास गढ़ का एक राजकुमार तोरनमार मध्य प्रदेश आकर वाहन के राजा गौपाल का सेनापति बना और उसने नागवंशी राजा देवनाग को पराजित कर राज्य पर अधिकार कर लिया और सिहोनियाँ को अपनी राजधानी बनाया कछवाहों के इसी वंश में सुरजपाल नाम का एक राजा हुवा जिसने ग्वालपाल नामक एक महात्मा के आदेश पर उन्ही नाम पर गोपाचल पर्वत पर ग्वालियर दुर्ग की नीवं डाली महात्मा ने राजा को वरदान दिया था कि जब तक तेरे वंशज अपने नाम के आगे पाल शब्द लगाते रहेंगे यहाँ से उनका राज्य नष्ट नहीं होगा सुरजपाल से 84 पीढ़ी बाद राजा नल हुवा जिसने नलपुर नामक नगर बसाया और नरवर के प्रशिध दुर्ग का निर्माण कराया नरवर में नल का पुत्र ढोला (सल्ह्कुमार) हुवा

जो राजस्थान में प्रचलित ढोला मारू के प्रेमाख्यान का प्रशिध नायक है उसका विवाह पुन्गल कि राजकुमारी मार्वणी के साथ हुवा था, ढोला के पुत्र लक्ष्मण हुवा, लक्ष्मण का पुत्र भानु और भानु के परमप्रतापी महाराजाधिराज बज्र्दामा हुवा जिसने खोई हुई कछवाह राज्यलक्ष्मी का पुनः उद्धारकर ग्वालियर दुर्ग प्रतिहारों से पुनः जित लिया बज्र्दामा के पुत्र मंगल राज हुवा जिसने पंजाब के मैदान में महमूद गजनवी के विरुद्ध उतरी भारत के राजाओं के संघ के साथ युद्ध कर अपनी वीरता प्रदर्शित की थी मंगल राज दो पुत्र किर्तिराज व सुमित्र हुए,किर्तिराज को ग्वालियर व सुमित्र को नरवर का राज्य मिला सुमित्र से कुछ पीढ़ी बाद सोढ्देव का पुत्र दुल्हेराय हुवा जिनका विवाह dhundhad के मौरां के चौहान राजा की पुत्री से हुवा था
दौसा पर अधिकार करने के बाद दुल्हेराय ने मांची,bhandarej खोह और झोट्वाडा पर विजय पाकर सर्वप्रथम इस प्रदेश में कछवाह राज्य की नीवं डाली मांची में इन्होने अपनी कुलदेवी जमवाय माता का मंदिर बनवाया वि.सं. 1093 में दुल्हेराय का देहांत हुवा दुल्हेराय के पुत्र काकिलदेव पिता के उतराधिकारी हुए जिन्होंने आमेर के सुसावत जाति के मीणों का पराभव कर आमेर जीत लिया और अपनी राजधानी मांची से आमेर ले आये 

काकिलदेव के बाद हणुदेव व जान्हड़देव आमेर के राजा बने जान्हड़देव के पुत्र पजवनराय हुए जो महँ योधा व सम्राट प्रथ्वीराज के सम्बन्धी व सेनापति थे संयोगिता हरण के समय प्रथ्विराज का पीछा करती कन्नोज की विशाल सेना को रोकते हुए पज्वन राय जी ने वीर गति प्राप्त की थी आमेर नरेश पज्वन राय जी के बाद लगभग दो सो वर्षों बाद उनके वंशजों में वि.सं. 1423 में राजा उदयकरण आमेर के राजा बने,राजा उदयकरण के पुत्रो से कछवाहों की शेखावत, नरुका व राजावत नामक शाखाओं का निकास हुवा उदयकरण जी के तीसरे पुत्र बालाजी जिन्हें बरवाडा की 12 गावों की जागीर मिली शेखावतों के आदि पुरुष थे बालाजी के पुत्र मोकलजी हुए और मोकलजी के पुत्र महान योधा शेखावाटी व शेखावत वंश के प्रवर्तक महाराव शेखाजी का जनम वि.सं. 1490 में हुवा वि. सं. 1502 में मोकलजी के निधन के बाद राव शेखाजी बरवाडा व नान के 24 गावों के स्वामी बने राव शेखाजी ने अपने साहस वीरता व सेनिक संगठन से अपने आस पास के गावों पर धावे मारकर अपने छोटे से राज्य को 360 गावों के राज्य में बदल दिया राव शेखाजी ने नान के पास अमरसर बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया और शिखर गढ़ का निर्माण किया राव शेखाजी के वंशज उनके नाम पर शेखावत कहलाये 

जिनमे अनेकानेक वीर योधा,कला प्रेमी व स्वतंत्रता सेनानी हुए शेखावत वंश जहाँ राजा रायसल जी,राव शिव सिंह जी, शार्दुल सिंह जी, भोजराज जी,सुजान सिंह आदि वीरों ने स्वतंत्र शेखावत राज्यों की स्थापना की वहीं बठोथ, पटोदा के ठाकुर डूंगर सिंह, जवाहर सिंह शेखावत ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष चालू कर शेखावाटी में आजादी की लड़ाई का बिगुल बजा दिया था शेखावत वंश के ही श्री भैरों सिंह जी भारत के उप राष्ट्रपति बने |

शेखावत वंश की शाखाएँ

* टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍- शेखा जी के ज्येष्ठ पुत्र दुर्गा जी के वंशज टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍ कहलाये !खोह,पिपराली,गुंगारा आदि इनके ठिकाने थे जिनके लिए यह दोहा प्रशिध है
खोह खंडेला सास्सी गुन्गारो ग्वालेर !
अलखा जी के राज में पिपराली आमेर !!
टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍ शेखावटी में त्यावली,तिहाया,ठेडी,मकरवासी,बारवा ,खंदेलसर,बाजोर व चुरू जिले में जसरासर,पोटी,इन्द्रपुरा,खारिया,बड्वासी,बिपर आदि गावों में निवास करते है !

* रतनावत शेखावत -महाराव शेखाजी के दुसरे पुत्र रतना जी के वंशज रतनावत शेखावत कहलाये इनका स्वामित्व बैराठ के पास प्रागपुर व पावठा पर था !हरियाणा के सतनाली के पास का इलाका रतनावातों का चालीसा कहा जाता है
*मिलकपुरिया शेखावत -शेखा जी के पुत्र आभाजी,पुरन्जी,अचलजी के वंशज ग्राम मिलकपुर में रहने के कारण मिलकपुरिया शेखावत कहलाये इनके गावं बाढा की ढाणी, पलथाना ,सिश्याँ,देव गावं,दोरादास,कोलिडा,नारी,व श्री गंगानगर के पास मेघसर है !

* खेज्डोलिया शेखावत -शेखा जी के पुत्र रिदमल जी वंशज खेजडोली गावं में बसने के कारण खेज्डोलिया शेखावत कहलाये !आलसर,भोजासर छोटा,भूमा छोटा,बेरी,पबाना,किरडोली,बिरमी,रोलसाहब्सर,गोविन्दपुरा,रोरू बड़ी,जोख,धोद,रोयल आदि इनके गावं है !
*बाघावत शेखावत - शेखाजी के पुत्र भारमल जी के बड़े पुत्र बाघा जी वंशज बाघावत शेखावत कहलाते है ! इनके गावं जेई पहाड़ी,ढाकास,सेनसर,गरडवा,बिजोली,राजपर,प्रिथिसर,खंडवा,रोल आदि है !

*सातलपोता शेखावत -शेखाजी के पुत्र कुम्भाजी के वंशज सातलपोता शेखावत कहलाते है !

*रायमलोत शेखावत -शेखाजी के सबसे छोटे पुत्र रायमल जी के वंशज रायमलोत शेखावत कहलाते है
इनकी भी कई शाखाएं व प्रशाखाएँ है जो इस प्रकार है !
-तेजसी के शेखावत -रायमल जी पुत्र तेज सिंह के वंशज तेजसी के शेखावत कहलाते है ये अलवर
जिले के नारायणपुर,गाड़ी मामुर और बान्सुर के परगने में के और गावौं में आबाद है !

-सहसमल्जी का शेखावत -- रायमल जी के पुत्र सहसमल जी के वंशज सहसमल जी का
शेखावत कहलाते है !इनकी जागीर में सांईवाड़ थी !
-जगमाल जी का शेखावत -जगमाल जी रायमलोत के वंशज जगमालजी का शेखावत कहलाते
है !इनकी १२ गावों की जागीर हमीरपुर थी जहाँ ये आबाद है

-सुजावत शेखावत -सूजा रायमलोत के पुत्र सुजावत शेखावत कहलाये !सुजाजी रायमल जी के
ज्यैष्ठ पुत्र थे जो अमरसर के राजा बने !
-लुनावत शेखावत :-लुन्करण जी सुजावत के वंशज लुन्करण जी का शेखावत कहलाते है इन्हें लुनावत शेखावत भी कहते है,इनकी भी कई शाखाएं है !
उग्रसेन जी का शेखावत ,अचल्दास का शेखावत,सावलदास जी का शेखावत,मनोहर दासोत शेखावत आदि !

-लुनावत शेखावत :-लुन्करण जी सुजावत के वंशज लुन्करण जी का शेखावत कहलाते है इन्हें लुनावत शेखावत भी कहते है,इनकी भी कई शाखाएं है !
उग्रसेन जी का शेखावत ,अचल्दास का शेखावत,सावलदास जी का शेखावत,मनोहर दासोत शेखावत आदि !

रायसलोत शेखावत :- लाम्याँ की छोटीसी जागीर जागीर से खंडेला व रेवासा का स्वतंत्र राज्य
स्थापित करने वाले राजा रायसल दरबारी के वंशज रायसलोत शेखावत कहलाये !राजा रायसल के १२
पुत्रों में से सात प्रशाखाओं का विकास हुवा जो इस प्रकार है !
A- लाड्खानी :- राजा रायसल जी के जेस्ठ पुत्र लाल सिंह जी के वंशज लाड्खानी कहलाते है
दान्तारामगढ़ के पास ये कई गावों में आबाद है यह क्षेत्र माधो मंडल के नाम से भी प्रशिध है
पूर्व उप राष्ट्रपति श्री भैरों सिंह जी इसी वंश से है !
B- रावजी का शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र तिर्मल जी के वंशज रावजी का शेखावत कहलाते है !
इनका राज्य सीकर,फतेहपुर,लछमनगढ़ आदि पर था !
C- ताजखानी शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र तेजसिंह के वंशज कहलाते है इनके गावं चावंङिया,
भोदेसर ,छाजुसर आदि है
D. परसरामजी का शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र परसरामजी के वंशज परसरामजी का शेखावत कहलाते है !
E. हरिरामजी का शेखावत :- हरिरामजी रायसलोत के वंशज हरिरामजी का शेखावत कहलाये !

. गिरधर जी का शेखावत :- राजा गिरधर दास राजा रायसलजी के बाद खंडेला के राजा बने
इनके वंशज गिरधर जी का शेखावत कहलाये ,जागीर समाप्ति से पहले खंडेला,रानोली,खूड,दांता आदि ठिकाने इनके आधीन थे !
G. भोजराज जी का शेखावत :- राजा रायसल के पुत्र और उदयपुरवाटी के स्वामी भोजराज के वंशज भोजराज जी का शेखावत कहलाते है ये भी दो उपशाखाओं के नाम से जाने जाते है,
१-शार्दुल सिंह का शेखावत ,२-सलेदी सिंह का शेखावत
*गोपाल जी का शेखावत - गोपालजी सुजावत के वंशज गोपालजी का शेखावत कहलाते है 
* भेरू जी का शेखावत - भेरू जी सुजावत के वंशज भेरू जी का शेखावत कहलाते है
* चांदापोता शेखावत - चांदाजी सुजावत के वंशज के वंशज चांदापोता शेखावत कहलाये.