शनिवार, 28 अगस्त 2021

अमीर अली खान पठान की गद्दारी

जब कंधार के तत्तकालीन शासक अमीर अली खान पठान को  मजबूर हो कर जैसलमेर राज्य में शरण लेनी पड़ी। तब यहां के महारावल लूणकरण थे।वे महारावल जैतसिंह के जेष्ठ पुत्र होने के कारण उनके बाद यहां के शासक बने। वैसे उनकी कंधार के शासक अमीर अली खान पठान से पहले से ही मित्रता थी और विपत्ति के समय मित्र ही के काम आता है ये सोचते हुए उन्होंने सहर्ष अमीर अली खान पठान को जैसलमेर का राजकीय अतिथि स्वीकार कर लिया। 

लम्बें समय से दुर्ग में रहते हुए अमीर अली खान पठान को किले की व्यवस्था और गुप्त मार्ग की सारी जानकारी मिल चुकी थी।उस के मन में किले को जीत कर जैसलमेर राज्य पर अधिकार करने का लालच आने लगा और वह षड्यंत्र रचते हुए सही समय की प्रतीक्षा करने लगा। इधर महारावल लूणकरण भाटी अपने मित्र अमीर अली खान पठान पर आंख मूंद कर पूरा विश्वास करते थे। वो स्वप्न में भी ये सोच नहीं सकते थे कि उनका मित्र कभी ऐसा कुछ करेगा।
इधर राजकुमार मालदेव अपने कुछ मित्रों और सामंतों के साथ शिकार पर निकल पड़े। अमीर अली खान पठान बस इस मौके की ताक में ही था। उसने महारावल लूणकरण भाटी को संदेश भिजवाया कि वो आज्ञा दे तो उनकी पर्दानशी बेगमें रानिवास में जाकर उनकी रानियों और राजपरिवार की महिलाओं से मिलना चाहती है। फिर क्या होना था? 
वही जिसका अनुमान पूर्व से ही अमीर अली खान पठान को था। महारावल ने सहर्ष बेगमों को रानिवास में जाने की आज्ञा दे दी। इधर बहुत सारी पर्दे वाली पालकी दुर्ग के महल में प्रवेश करने लगी किन्तु अचानक महल के प्रहरियों को पालकियों के अंदर से भारी भरकम आवाजें सुनाई दीं तो उन्हें थोड़ा सा शक हुआ। उन्होंने एक पालकी का पर्दा हटा कर देखा तो वहां बेगमों की जगह दो-तीन सैनिक छिपे हुए थे।

जब अचानक  षड्यंत्र का भांडा फूटते ही वही पर आपस में मार-काट शुरू हो गई। दुर्ग में जिसके भी पास जो हथियार था वो लेकर महल की ओर महारावल और उनके परिवार की रक्षा के लिए दौड़ पडा। चारों ओर अफरा -तफरी मच गई किसी को भी अमीर अली खान पठान के इस विश्वासघात की पहले भनक तक नहीं थी। कोलाहल सुनकर दुर्ग के सबसे ऊंचे बुर्ज पर बैठे प्रहरियों ने संकट के ढोल-नगाड़े  बजाने शुरू कर दिए जिसकी घुर्राने की आवाज दस-दस कोश तक सुनाई देने लगी। 
महारावल ने रानिवास की सब महिलाओं को बुला कर अचानक आए हुए संकट के बारे में बताया। अब अमीर अली खान पठान से आमने-सामने युद्ध करने के सिवाय और कोई उपाय नहीं था। राजकुमार मालदेव और सांमत पता नहीं कब तक लौटेंगे। दुर्ग से बाहर निकलने के सारे मार्ग पहले ही बंद किए जा चुके थे। राजपरिवार की स्त्रियों को अपनी इज्जत बचाने के लिए जौहर के सिवाय कुछ और उपाय नहीं दिखाई दे रहा था। अचानक से किया गया आक्रमण बहुत ही भंयकर था और महल में जौहर के लिए लकड़ियां भी बहुत कम थी। इसलिए सब महिलाओं ने महारावल के सामने अपने अपने सिर आगे कर दियें और सदा सदा के लिए बलिदान हो गई। महारावल केसरिया बाना पहन कर युद्ध करते हुए रणभूमि में बलिदान हो गए । 

महारावल लूणकरण भाटी को अपने परिवार सहित चार भाई, तीन पुत्रों के साथ को कई विश्वास पात्र वीरों को खो कर मित्रता की कीमत चुकानी पड़ी। इधर रण दुंन्दुभियों की आवाज सुनकर राजकुमार मालदेव दुर्ग की तरफ दौड़ पड़े।
वे अपने सामंतों और सैनिकों को लेकर महल के गुप्त द्वार से किले में प्रवेश कर गए और अमीर अली खान पठान पर प्रचंड आक्रमण कर दिया। अमीर अली खान पठान को इस आक्रमण की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी। अंत में उसे पकड़ लिया गया और चमड़े के बने कुड़िए में बंद करके दुर्ग के दक्षिणी बुर्ज पर तोप के मुंह पर बांध कर उड़ा दिया गया। 

इतिहास की क ई सैकड़ों ऐसी घटनाएं है जिससे हम वर्तमान में बहुत कुछ सीख सकते है।

शनिवार, 21 अगस्त 2021

महाराणा अमर सिंह और जहांगीर से संघर्ष

महाराणा अमर सिंह और जहांगीर 

ये गौरवगाथा एक ऐसे वीर योद्धा की है, जिसने अनबन के कारण मेवाड़ के शासक के सामने कभी अपना सिर नहीं झुकाया, पर उसी सिर को मेवाड़ की ख़ातिर मातृभूमि के चरणों मे भेंट कर दिया और सिद्ध कर दिया कि जब मातृभूमि पुकारती है, तो एक सच्चा राजपूत अपना सर्वस्व समर्पण करने को तैयार हो जाता है।

देलवाड़ा के जैतसिंह झाला के पुत्र मानसिंह झाला महाराणा प्रताप के बहनोई थे, जो कि हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे। मानसिंह झाला के 3 पुत्र हुए :- शत्रुसाल झाला, कल्याण झाला और आसकरण झाला। शत्रुसाल झाला गरम मिजाज़ के थे।
शत्रुसाल झाला महाराणा प्रताप की बहन के पुत्र थे। एक बार इनकी अपने मामा महाराणा प्रताप से तकरार हो गई थी और इन्होंने कहा था कि “आज से मैं सिसोदियों की नौकरी न करुंगा।”

*महाराणा प्रताप ने जब शत्रुसाल को रोकने के लिए उनके अंगरखे का दामन पकड़ा, तो शत्रुसाल ने अपने अंगरखे का दामन काट दिया। महाराणा प्रताप ने कहा था कि “आज के बाद शत्रुसाल नाम के किसी बन्दे को अपने राज में न रखूँगा”

इस तकरार के बाद शत्रुसाल मारवाड़ चले गए, तब महाराणा प्रताप ने क्रोध में आकर झाला राजपूतों से देलवाड़ा की जागीर ज़ब्त की। महाराणा प्रताप ने वीर जयमल मेड़तिया के पौत्र व मुकुन्ददास मेड़तिया के पुत्र मनमनदास को देलवाड़ा जागीर में दिया और वचन दिया की देलवाड़ा जीवनभर आपकी जागीर रहेगी।

ये जागीर मनमनदास को उनके पिता मुकुन्ददास मेड़तिया के जीवित रहते दी थी। कल्याण झाला और आसकरण झाला मेवाड़ के ही गांव चीरवा में रहे। जब मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह मुगलों से भीषण युद्ध कर रहे थे, उस समय कल्याण झाला ने भी महाराणा का साथ दिया।

महाराणा अमरसिंह ने खुश होकर कल्याण झाला को कोई जागीर देनी चाही, पर कल्याण झाला ने कहा कि हमें हमारे बाप-दादों की देलवाड़ा की जागीर ही दी जावे। महाराणा अमरसिंह ने कहा कि वह जागीर हमारे पूजनीय पिता ने मनमनदास को दी थी और वचन भी दिया था कि मरते दम तक जागीर उन्हीं की रहेगी। कल्याण झाला ने कहा कि आपको जागीर देने की इच्छा, हो तो देलवाड़ा ही जागीर में देवें।

1614 ई. में जब शहज़ादा खुर्रम (शाहजहाँ) कुल हिंदुस्तान की फौज समेत मेवाड़ आया, तब महाराणा अमरसिंह ने कल्याण झाला की कर्तव्यपरायणता देखकर उनसे कहा कि हम देलवाड़ा की जागीर आपको देने के लिए तैयार हैं, आप जोधपुर जाकर अपने भाई शत्रुसाल को भी यहाँ ले आओ।

इसी दौरान संयोग से जोधपुर के राजा सूरसिंह  के पुत्र कुँवर गजसिंह  से शत्रुसाल झाला की तकरार हो गई। कुँवर गजसिंह ने शत्रुसाल से कहा कि “महाराणा अमरसिंह जी तो आजकल अपनी रानियों के साथ पहाड़ों में मारे-मारे फिरते हैं।”

शत्रुसाल झाला ये सुनते ही उठ खड़े हुए और कहा “हाँ संभव है उनको अपनी बहन-बेटियों का सम्मान अधिक प्रिय हो”। कुँवर गजसिंह ने कहा कि “महाराणा के ऐसे हितैषी को तो बादशाही फौज के हाथों मरना चाहिए”।

तब शत्रुसाल झाला ने कहा कि “आपकी इस नसीहत को याद रखते हुए मैं वचन देता हूँ कि मरूँगा तो सिर्फ महाराणा और मेवाड़ की खातिर और रही बात बादशाही फौज की तो उनको भी आज असल रजपूती तलवार का स्वाद चखा ही देता हूँ। उन्हें भी तो मालूम पड़े कि एक सच्चे राजपूत की तलवार कितना लहू पीती है।”

इतना कहकर मेवाड़ लौटते वक्त शत्रुसाल झाला की अपने भाई कल्याण झाला से मुलाकात हुई और पता चला कि महाराणा अमरसिंह ने उन्हें देलवाड़ा की जागीर लौटा दी है। ये सुनकर शत्रुसाल झाला की आंखें भर आईं, क्योंकि उन्हें अपने पूर्वजों की जागीर पुनः प्राप्त हो गई।

शत्रुसाल झाला ने कल्याण झाला से कहा कि “पिछली बार मैंने अपने मामा महाराणा प्रताप से झगड़ा किया था। अब अगर मैं इस तरह महाराणा अमरसिंह के सामने गया, तो वे कहेंगे कि शत्रुसाल इतने वर्षों बाद मेवाड़ आया है और वो भी खाली हाथ। महाराणा के सामने खाली हाथ जाना ठीक न होगा, क्यों न मैं अपने प्राण ही दे दूँ”

दोनों भाईयों ने अपने कुछ गिने-चुने 100-200 झाला राजपूतों के साथ मुगल फौज पर हमला करने का फैसला किया। मेवाड़-मारवाड़ की सीमा पर आंवड़-सांवड़ की नाल में नवाब अब्दुल्ला खां अपनी फौज के साथ तैनात था। (नाल :- मेवाड़ में तंग पहाड़ी घाटियों को नाल कहा जाता था। यहां देसूरी की नाल, केवड़ा की
 नाल, आंवड़-सांवड़ की नाल प्रसिद्ध थी।)

दोनों भाईयों का मुकाबला अब्दुल्ला खां की फौज से हुआ। कई मुगल मारे गए व मेवाड़ की तरफ से भोपत झाला समेत कई राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए। संख्या में कम होने के कारण दोनों भाई अलग-अलग पहाड़ियों में चले गए पर गम्भीर रुप से घायल हुए।

शत्रुसाल झाला तो मेवाड़ की पहाड़ियों में गए, पर कल्याण झाला के घोड़े ने अपने प्राण त्याग दिए, जिस कारण वे पास के ही एक मन्दिर में रुके।

 अब्दुल्ला खां को कल्याण झाला की ख़बर मिली, तो मुगल फौज ने उनको घेर लिया।

एक अकेला राजपूत तब तक लड़ता रहा, जब तक उसके तीर समाप्त न हो गए। कल्याण झाला के पास जब तक तीर थे, तब तक किसी को अपने पास तक नहीं आने दिया, पर तीर खत्म होने के बाद अब्दुल्ला खां उन्हें कैद कर खुर्रम के पास ले गया।

बादशाहनामे में लिखा है कि “शहज़ादे खुर्रम ने कल्याण झाला की मरहम पट्टी वगैरह की और उसे जीवित छोड़ दिया”। मेवाड़ में अत्याचारों की सभी हदें पार करने वाले ख़ुर्रम ने यहां ऐसी दरियादिली कैसे दिखा दी, ये तो वक्त ही जानता है।

कल्याण झाला को तो जीवनदान मिल गया, पर शत्रुसाल झाला तो जोधपुर से महाराणा के लिए मरना ठान के निकले थे, इस खातिर उन्होंने पहाड़ों में ही अपने घाव ठीक किए और कुछ दिन बाद गोगुन्दा के शाही थाने पर हमला कर दिया।

गोगुन्दा में मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह के काका और जगमाल के छोटे भाई विश्वासघाती सगरसिंह सिसोदिया के नेतृत्व में हज़ारों की फौज तैनात थी। इस लड़ाई में शत्रुसाल झाला के कुल 39 घाव लगे, जिससे गोगुन्दा के पास रावल्या गांव में वे वीरगति को प्राप्त हुए।

इस तरह शत्रुसाल झाला ने अपने जीवन में जितने भी वचन लिए, पूरे किए। अनेक शत्रुओं और विश्वासघातियों को यमलोक भेजकर उन्होंने अपनी लहू की अंतिम बूंद तक युद्ध लड़ा। निश्चित ही यदि इस समय महाराणा प्रताप जीवित होते, तो अपने भांजे की इस वीरता पर अति प्रसन्न होते।

महाराणा अमरसिंह ने ये नियम बना रखा था कि कोई भी जागीर सदा एक ही सामंत या उसके वंशजों के पास रहे, ये जरूरी नहीं। जागीर वंश परंपरा के अनुसार नहीं, बल्कि कर्तव्यपरायणता के अनुसार दी जाएगी। शत्रुसाल झाला की ये वीरता निश्चित ही उनके वंशजों के लिए भी उपयोगी सिद्ध हुई।
महाराणा अमरसिंह ने शत्रुसाल झाला की बहादुरी देखकर गोगुन्दा की जागीर शत्रुसाल झाला के पुत्र कान्ह झाला को दे दी, तब से लेकर आज तक गोगुन्दा झाला राजपूतों का ठिकाना रहा है। इस तरह शत्रुसाल झाला को मरणोपरांत गोगुन्दा के पहले “राजराणा” की उपाधि दी गई व कान्ह झाला दूसरे राजराणा कहलाए।

जारी.............

महाराणा अमर सिंह और जहांगीर

महाराणा अमर सिंह और जहांगीर 

1614 ई. के अंतिम 2-3 माह में ख़ुर्रम के नेतृत्व में समूचे मुगल साम्राज्य की सेनाओं ने मेवाड़ के राजपूतों को चारों ओर से घेर लिया। राजपूतों तक रसद पहुंचनी बन्द हो गई। खेत पहले ही जला दिए गए थे। मेवाड़ के जो राजपूत जिन पहाड़ियों में थे, वे वहीं फंस गए।

इन दिनों महाराणा अमरसिंह ने जिन परिस्थितियों का सामना किया, ऐसी भयंकर परिस्थितियों का सामना तो कभी महाराणा प्रताप को भी नहीं करना पड़ा। पर इन परिस्थितियों से भी महाराणा अमरसिंह के मन में एक पल के लिए भी अपने पूर्वजों की महान परंपरा को तोड़ने का ख्याल नहीं आया।
परन्तु मेवाड़ के सामंत और कुँवर कर्णसिंह आदि के मन वर्षों से रक्तपात और 1614 ई. के भयंकर आक्रमण से टूटने लगे, क्योंकि जिस मातृभूमि की रक्षा की ख़ातिर वे बरसों से अपना सर्वस्व दांव पर लगाने को तत्पर थे, वह मातृभूमि इतने प्रयासों के बाद भी परतंत्रता की ओर बढ़ रही थी।

इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि “लंबे समय से चली आ रही यह अत्यंत पीड़ादायी लड़ाई मेवाड़ के लिए ऐसी आपदा बन चुकी थी, जिससे निस्तार का कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा था। मेवाड़ पर बहुत अत्याचार हो रहे थे। जन साधारण का विनाश, मंदिरों का विध्वंस, मृत शरीरों का छिन्न-भिन्न करके छितराया जाना, आम जनता की औरतों और बच्चों को नीलाम करना, घरों को फूंकना, पकी फसलों को जलाना आदि अत्याचारों से मेवाड़ का सामाजिक व आर्थिक ढांचा हिल गया।”

महाराणा अमरसिंह व रहीम के बीच पत्र व्यवहार :- महाराणा अमरसिंह की सेना दिन-दिन कम होती गई और प्रजा पर अत्याचार होने लगे, तो महाराणा बड़ी दुविधा में फँस गए। एक तरफ उनकी प्रजा सरेआम नीलाम हो रही थी और दूसरी तरफ पिछले 1050 वर्ष पहले गुहिल से चली आ रही मेवाड़ की स्वाधीनता दाँव पर लगी थी।

दुविधा ये की इन दोनों में से महाराणा को किसी एक को चुनना था। महाराणा अमरसिंह ने एक दोहा लिखा और कहा कि इसे अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना के पास भेज दिया जावे।

कृष्णभक्त अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना बैरम खां का बेटा था। ये वही सिपहसालार था, जिसकी बेगमों को महाराणा प्रताप के समय कुँवर अमरसिंह ने बन्दी बनाया था व महाराणा प्रताप ने सभी को मुक्त किया। तब से रहीम मेवाड़ का तरफदार रहा।

महाराणा अमरसिंह ने इस दोहे के ज़रिए रहीम से पूछा कि कब तक मुझे और मेरे साथियों को वन में भटकना चाहिए :- गोड़ कछाहा राठवड़, गोखा जोख करंत। कहजो खानांखान ने, वनचरु हुआ फिरंत।। तँवरां सूं दिल्ली गई, राठौड़ां सूं कन्नौज। अमर पूछे खान ने, सो दिन दीसै अज्ज।।

अर्थात् महाराणा अमरसिंह रहीम से कहते हैं कि तंवर राजपूतों के हाथ से दिल्ली गई थी, राठौड़ राजपूतों के हाथ से कन्नौज गया था। आज फिर वही दिन आया लगता है, हमारे हाथ से मेवाड़ जाने लगा है।

अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना ने महाराणा को जवाब में ये दोहा लिखा :- धर रहसी रहसी धरम, खपजासी खुरसाण। अमर विशंभर ऊपरा, राखो निहचो राण।। अर्थात् हे राणा अमरसिंह ! धरती रहेगी, धर्म भी रहेगा, पर मुगल साम्राज्य एक न एक दिन नष्ट हो जाएगा। गैरत के आराम से इज्जत की तकलीफ अच्छी, इसलिए आपको धैर्य रखना चाहिए।

रहीम के इस संदेश से महाराणा अमरसिंह को कुछ तसल्ली हुई, जिसके बाद वे कुछ और लड़ाइयां लड़े, परन्तु समूचे मुगल साम्राज्य के सामने मेवाड़ की छोटी सी सेना कब तक सामना करती। मेवाड़ के लोगों और अपनों की हालत देखकर मेवाड़ के सामन्तों और कुँवर कर्णसिंह के हौंसले अब पस्त होने लगे।

(रहीम व महाराणा अमरसिंह के बीच हुए इस पत्र व्यवहार को इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा सत्य घटना मानते हैं, परन्तु अन्य बहुत से इतिहासकार इस घटना को इसलिए खारिज करते हैं क्योंकि उस समय मेवाड़ चारों ओर से घिरा हुआ था और वहां से आगरा तक पत्र व्यवहार सम्भव नहीं था। बहरहाल, सत्य जो भी हो, मेवाड़ के महाराणा का हृदय धर्मसंकट में पड़ गया।)

तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि “मेवाड़ में जहां-जहां रहने की जगह खराब थी और बीहड़ जंगल थे, वहां भी ख़ुर्रम ने राणा के पीछे एक के बाद एक फ़ौज भेजकर थाने बिठा दिए। शहज़ादे ने भारी गर्मी और भारी बरसात की भी कोई फिक्र नहीं की। मेरे हुक्म से मेरे बेटे खुर्रम ने राणा अमर के मुल्क के लोगों को कैद कर लिया। राणा को पैगाम भेजा गया कि या तो अपने मुल्क के लोगों की हिफाजत के लिए बादशाही मातहती कुबूल करे या उनकी परवाह किये बगैर अपने मुल्क को छोड़कर चला जावे”

क्या यहां कुँवर कर्णसिंह को दोष दिया जाना उचित है ? जी नहीं, कुँवर कर्णसिंह का तो जन्म ही जंगलों में हुआ था, वनवासी की तरह उन्होंने जीवन के 28 वर्ष इन जंगलों में रहकर बिताए और हर लड़ाई में अपने पिता का साथ दिया।

क्या यहां मेवाड़ के सामन्तों को दोष दिया जाना चाहिए ? जी नहीं, मेवाड़ के इन सामन्तों की कई पीढ़ियों ने मातृभूमि की ख़ातिर अनेक बलिदान दिए और वे स्वयं भी बलिदान देने से पीछे हटने वालों में से नहीं थे। उन दिनों जीवन का बलिदान देना मेवाड़ के बहादुरों के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी।
बात प्राणों की नहीं, मान सम्मान की थी, क्योंकि अब राजपरिवार और सामन्तों की स्त्रियों पर भी संकट आने का भय था। मेवाड़ जिस मान सम्मान के लिए लड़ रहा था, यदि वो मान सम्मान ही संकट में हो तो फिर किसकी रक्षा की जाए। कुँवर कर्णसिंह व मेवाड़ के सामन्त भलीभांति महाराणा अमरसिंह के हृदय को समझ सकते थे।
महाराणा अमरसिंह का हृदय कांपने लगा। परन्तु ये कंपन ना तो अपने प्राणों के लिए थी और ना ही किसी भय के कारण। ये कंपन थी मेवाड़ की महान स्वतंत्र परंपरा को तोड़ने का अपमान सहन करने की। ये कंपन थी प्रजावत्सल महाराणा अमरसिंह की प्रजा के सरेआम नीलाम होने की।

मेवाड़ के सामंतों ने मिलकर सलाह की, जिसमें मुगल शहज़ादे खुर्रम से संधि की बात करना तय रहा, लेकिन सामंतों ने संधि वाली बात महाराणा अमरसिंह को बताना ठीक नहीं समझा, क्योंकि उन्हें पता था कि महाराणा इसके लिए कभी राजी नहीं होंगे।

साथ ही सभी सामंत ये भी जानते थे कि महाराणा अमरसिंह कभी भी दूसरे राजाओं की तरह बादशाही दरबार में जाकर मुगल बादशाह को सलाम नहीं करेंगे, इसलिए सामंत चाहते थे कि संधि कुछ इस तरह से हो कि महाराणा को मुगल दरबार में हाजरी ना देनी पड़े और महाराणा की जगह कुँवर कर्णसिंह को दरबार में भेज दिया जावे।

सभी सामंत एकमत से कुँवर कर्णसिंह के पास गए और उनसे कहा कि “बादशाही फ़ौज इस कदर हावी हो चुकी है, कि हमारी स्त्रियों और बच्चों तक के पकड़े जाने का खतरा मंडराने लगा है, प्रजा पर अत्याचार हो रहे हैं, इस ख़ातिर आप यदि तैयार हों, तो हम सन्धि की बात आगे बढ़ाएं।”

कुँवर कर्णसिंह ने कहा कि “हम स्वयं भी यही कहना चाहते थे, परन्तु दाजीराज के सामने ये कहने का साहस नहीं है मुझमें। पर आप सभी साथ हों, तो इस सन्धि की वार्ता के लिए मैं ख़ुर्रम से बात करने को तैयार हूं।”

जारी.......

ग्वालियर के महाराजधिराज मानसिंह तोमर जी

तोमर राजवंश के महान शासक , ग्वालियर के महाराजधिराज मानसिंह तोमर जी की जयंती पर उन्हें बारम्बार नमन् .
.
तोमर राजवंश में जितने भी राजा महाराजा हुये उन्हें इतिहासकारों ने एकमत से कहा है कि तोमर राजवंश के सारे राजा महाराजा बेहद उच्च कोटि के विद्वान एवं धर्मज्ञ , साहसी, वीर , पराक्रमी और उदार , त्यागी व बलिदानी हुये , विद्धता और उदारता में , रण कौशल, बहादुरी पराक्रम में जहॉं ग्वालियर महाराजा मान सिंह तोमर का नाम सर्वोपरि आता है तो उन्हें अति उच्च कोटि का साहित्यकार, धर्म मर्मज्ञ , संस्कृति रक्षक व सनातन धर्म का सर्वाच्च सेवक भी माना जाता है , राजपूती काल गणनाओं में महाराजा मान सिंह तोमर का नाम ऐसे वीर योद्धा के रूप में शुमार किया जाता है जिसने अपने जीवन काल में अनेक युद्ध किये और सदैव विजयी रहे , हर शत्रु को हर रण में बुरी तरह न केवल मार भगाया बल्कि मध्यभारत की ओर या ग्वालियर चम्बल की ओर जिसने भी ऑंख उठाने की जुर्रत की उसका या तो शीष उतार लिया या कैद कर लिया या भागने पर मजबूर कर दिया , अपनी मृत्युकाल तक अविजित रहे इस विजेता महाराजा की सबसे बड़ी खासियत थी संगीत, नृत्य, साहित्य व प्रभु से लगाव , प्रेम प्यार और प्रीति की साक्षात प्रतिमूर्ति , महाराजा मान सिंह तोमर की राजपूत रानीयों के अलावा एक गूजर प्रेमिका थी जिसका नाम निन्नी था , सुंदरता व बहादुरी की बेजोड़ मिसाल निन्नी , महाराजा मान सिंह तोमर की अतुल्य प्रेमिका थी , जिससे महाराजा मान सिंह तोमर ने विधिवत विवाह कर ग्वालियर किले के निचले हिस्से में एक अलग से महल बनवाया , जिसे गूजरी महल कहा जाता है , मान मंदिर ( महाराजा मान सिंह तोमर के राजमहल) के ऐन नीचे ग्वालियर किले के निचले हिस्से की तराई में गूजरी रानी का राजमहल स्थित है, महाराजा मान सिंह तोमर के राजमहल से एक सीधी सुरंग गूजरी रानी के राजमहल , गूजरी महल तक जाती है, इसी सुरंग के जरिये महाराजा मान सिंह तोमर अपनी प्रियतमा रानी निन्नी से मिलने जाते थे, बेहद खूबसूरत नेत्रों व कमल नयनों वाली इस बहादुर , शूर वीर गूजर रानी को उसकी सुंदरता से , सौंदर्य से अभिभूत होकर महाराजा मान सिंह तोमर ने उसे ''मृगनयनी'' नाम दिया और इतिहास में महाराजा मान सिंह तोमर की यह प्रेमिका रानी मृगनयनी नाम से ही विख्यात हुई.

ग्वालियर महाराजा मान सिंह तोमर बेहद सुप्रसिद्ध वैभवशाली, बहुत प्रतापी और यशस्वी महाराज रहे हैं ... ग्वालियर को जो आज संगीत की राजधानी कहा जाता है यह महाराजा मान सिंह तोमर के कारण ही कहा जाता है .. महाराजा मान सिंह तोमर ने ही ध्रुपद का आविष्कार किया ... महाराजा मान सिंह तोमर के दरबार में ही थे महान गायक और संगीतकार... तानसेन और बैजू बावरा .... महाराजा मान सिंह तोमर ने ही ग्वालियर किले का पुनरूद्धार व जीर्णोद्धार कराया और सिकंदर लोदी और इब्राहीम लोदी को अनेकों बार धूल चटाई ... इतिहास में प्रसिद्ध लड़ाईयों में लोदीयों को महाराजा मान सिंह तोमर ने कई बार बुरी तरह मार भगाया .... जितने यशगान महाराजा मान सिंह तोमर के गाये जाते हैं उसमें सबसे अधिक महाराजा मानसिंह तोमर के साथ संगीत सम्राट तानसेन के भी यशगान प्रसिद्ध है .... महाराजा मान सिंह तोमर के रहते कोई मुगल या लोदी या बाहरी आक्रमणकारी मध्य भारत तक पॉंव नहीं धर पाया ... महाराजा मान सिंह तोमर का ही एक सेनापति कुंवर तेजपाल सिंह तोमर था जिसने दिल्ली के लोधी दरबार में में सिंह गर्जना कर हुंकार भरी थी ... कि मैं वह तोमर हूँ जिसके पुरखे ने इसी दिल्ली में किल्ली गाड़ी थी .... जो शेषनाग के फन को चीरती हुयी धरती में धंसी और पार कर गई .... उसने लोदी के ही दरबारमें लोदी को बुरी तरह गरिया डाला और कहा कि हम तोमर हैं तेरे जैसे दुष्टों को चीर कर धरती को तेरे लहू से स्नान करा देंगें .... इस पर लोदी ने दूत की मर्यादा भूल कर उसका सिर वहीं कलम करवा दिया था ओर दिल्ली के पुराने किले के तोमर महल में उसका कटा हुआ सिर लटकवा दिया था, लेकिन उसने अपना सिर कटने से पहले लोदी के दरबार में काफी प्रलय ढा दी थी और लोदी के कई दरबारी ओर सेना प्रमुखों को मार कर मौत के घाट उतार लोधी का दरबार लहू से लाल कर दिया था ... महाराजा मान सिंह तोमर महान साहित्यकार भी थे ... उन्होंने अनेक दोहों , चौपाईयों , कविताओं एवं अनेक छन्दों की रचना की .. विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ मान कुतूहल की रचना उन्हीं ने की.. महाराजा मान सिंह तोमर के ही एक महा आमात्य खेमशाह ने प्रसिद्ध ग्रंथ''बेताल पच्चीसी''की रचना मानिक कवि से कराई ... मान कौतूहल का फारसी अनुवाद फकीर उल्ला सैफ खॉं ने किया ... इसके अलावा महाराजा मान सिंह तोमर के दरबार में प्रसिद्ध साहित्यकार व संगीतकार बक्शु, महमूद लोहंग, नायक पाण्डेय, देवचंद्र, रतनरंग, मानिक कवि, थेघनाथ, सूरदास (बचपन काल में) , गोविंददास, नाभादास, हरिदास, कर्ण, नायक गोपाल, भगवंत, रामदास वगैरह थे ... भक्तमाल नामक ग्रंथ यहीं महाराजा मान सिंह तोमर के ही दरबार काल में लिखा गया, स्वयं महाराजा मान सिंह तोमर ने सावंती, लीलावती, षाढव, मानशाही, कल्याण आदि रागों के गीत लिखे हैं , ''रास '' नामक नृत्य नाटिका का आविष्कार स्वयं महाराजा मान सिंह तोमर ने ही किया ... जो कि आज रास लीला के नाम से बेहद प्रसिद्ध नृत्य नाटिका कही पुकारी जाती है, महाराजा मानसिंह तोमर ने ग्वालियर के निकट ही बरई में विशाल रास मण्डल का निर्माण कराया , रास नृत्य शैली को बृज क्षेत्र में ले जा कर हरिराम, हरिवंश ओर हरिदास ने चरमोत्कर्षपर पहुँचाया .

शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

वीर दुर्गादास

मारवाड़ के लोह पुरुष वीर दुर्गादास

"आठ पहर चौसठ घड़ी , घुड़ले उपर वास |
सैल अणी स्यूं सैकतो, बाटी दुर्गादास || ""

आज एक ऐसे राष्ट्रनायक की जयंती है जिसने मारवाड़, मेवाड़, जयपुर को ही नहीं बल्कि सुदूर दक्षिण की मराठा शक्ति को राष्ट्र के साझा शत्रु के सामने संयुक्त रूप से खड़ा कर भारत के एक राष्ट्र होने के भाव को पुष्ट किया।

आज ऐसे राष्ट्र नायक की जयंती है जिसका जीवन भारत राष्ट्र की राष्ट्रीयता (भारतीयता) का जीवंत प्रतीक था। उनमें भगवान राम जैसा त्याग और मर्यादाओं के प्रति लगाव था तो भगवान कृष्ण जैसा राजनीतिक चातुर्य था। अपने लक्ष्य के प्रति उनमें ध्रुव और प्रहलाद जैसी एक निष्ठता थी तो हनुमान जी जैसी तेल और सिंदुर में ही प्रसन्न रहने की अकिंचनता थी। प्रताप जैसा तेज था तो शिवाजी जैसा शौर्य था। हमीर जैसी शरणागतवत्सला थी तो पाबूजी और तेजाजी जैसा वचनपालन था। 

यदि हमें देश के सभी राष्ट्रनायकों के एक साथ किसी एक व्यक्तित्व में दर्शन करने हों तो हमें दुर्गादास जी को देखना चाहिए। 

ऐसे महान दुर्गा बाबा को उनकी  जयंती पर सादर नमन।

दुरगादास रौ सुजस

दुरगादास रौ सुजस 

कमधज कुल़ री कीरती,मारवाड़ सिरमोड़।।
अनमी   सेवक  ऊजल़ौ, दुरगदास राठौड़।।(१)

आसकरण सुत ओल़खै,जसवंतें जोधांण।।
सैनिक  राख्यौ सूरमों,दुरगदास  कर तांण।।(२)

अरक ताप अत आकरौ,जसवंत करै छांव।।
मान  राखियौ  मौकल़ौ,दुरगे  तणो  उमाव।।(३)

धवल़ मना सामी धरम,धरणी धरियौ धीर।। 
अवल असूलीआदमी, दुरगो कमधज वीर।।(४)

अंगरकसक  अजीत रौ,छतर बणै की छांव।।
हरपल  सह  रह हेत सूं, दुरगे  खेल्या  दांव।।(५)

लेस न रहियौ लालची, स्याम धरम सूं नेह।।
जोधांणै  रख   जाबतौ,दुरगे   सहियौ   देह।।(६)

काचा  राजा  कान रा,दुरग छुड़ायौ देस।।
भूल करी हद भूपती,तन मन लाए  तेस।।(७)

हड़ूमान ज्यूं हालियौ,रजवट पाल़ै रीत।।
दुरगै साथै देखतां,ओछी करी अजीत।।(८)

सूरज चांद  गगन सदा,धर दुरगे  रौ  नाम।।
वीर सिरोमणी वसुधा,सेवक धरमी स्याम।।(९)

कमधज कीरत कारणै,कुल़भूसण  करणोत।।
दुरगे  री  दरियादिली, जस री जगमग जोत।।(१०)

छिपरा  तट  रै   छेवटै, दुरगे   त्यागी   देह।।
दो गज जमी न दे सकै, छुछकै कीधौ छेह।।(११)

राठौड़ी राखी रिदै,भुजबल़ सूं  भरपूर।।
कीरत दुरगादास री,दसां  दिसावां दूर।।(१२)

अंतस रौ नीत ऊजल़ौ,आसकरण री आस।।
कमधज  कुल़  रौ  केहरी,धरमी  दुरगदास।।(१३)

सामधरम पाल़ै सदा,अनमी राखी  आंण।।
सूरवीर  दुरगो  सही, धरा   प्रीत जोधांण।।(१४)

सफीयतुनिसा  सहज सै,ओल़खती आवाज।।
दुरगदास  नह  देखियौ, सरणागत  सरताज।।(१५)

मुकनदास  खींची  मिलै,दिल्ली  रै  दरबार।।
अवल अजीत उठावियौ,दुरगदास सिरदार।।(१६)

फैली  सुवास  फूठरी, कीरत   हंदा  काज।।
दुरगो छिपरा दागियौ,रल़पट मिनखां राज।।(१७)

ओरंग आंख औजका,दुरगो सिंघ दहाड़।।
दरबारी धूजै दरस,हरवल  खड़ौ  पहाड़।।(१८)

कमधज रण में काटकै,घणो कियौ घमसांण।।
मुंड  काटिया   मौकल़ा, सूरै   दुरग  सुजांण।।(१९)

चरित दुरग रै चांदणै,रजपूती रखवाल़।।
पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़ै,खासौ राख खयाल।।(२०)

दुरगे रिपुदल़ दाटिया,हित स्वामी हरमेस।।
संघर्षरत रयौ सदा, परम    रूप  परमेस।।(२१)

सत सत नमन सिरोमणी,वाल्हो वसुधा वीर।।
दुरगे सम  नह  देखियौ,सटकातौ   समसीर।।(२२)

अमर हुवौ इल़ ऊपरै, जस   फैल्यौ पुरजोर।।
कमधज कीरत कारणै, गरब फिरां चहुँओर।।(२३)

रिदै मरठ हद राखतौ,प्रण पाल़्या प्रयास।।
इल़ होयौ नह ऐहड़ौ,जिसड़ौ  दुरगादास।।(२४)

चउदस  सांवण  चांदणी,दरसण दुरगादास।।
आसकरण रै आंगणै,असल खुसी उल्लास।।(२५)

माँगू सिंह बिशाला

मंगलवार, 12 जनवरी 2021

मारवाड़ के राणा प्रताप वीर चंद्रसेन

मारवाड़ के राणा प्रताप वीर चंद्रसेन
'मारवाड़ के राणा प्रताप' स्वाभिमानी योद्धा राव चंद्रसेन जी राठौड़ की 440वीं पुण्यतिथि पर शत शत नमन.....

राजपूताने का दुर्भाग्य रहा है कि महाराणा सांगा, महाराणा राजसिंह जी, राव चंद्रसेन जी जैसे महावीरों को विश्वासघातियों ने उस समय ज़हर दिया, जब वे मुग़लिय सत्ता से संघर्ष की चरम सीमा पर थे

राव चन्द्रसेन का जन्म 30 जुलाई, 1541 ई. को हुआ था। राव चन्द्रसेन के पिता का नाम राव मालदेव था। राव चन्द्रसेन जोधपुर, राजस्थान के राव मालदेव के छठे पुत्र थे। लेकिन फिर भी उन्हें मारवाड़ राज्य की सिवाना जागीर दे दी गयी थी, पर राव मालदेव ने उन्हें ही अपना उत्तराधिकारी चुना था। राव मालदेव की मृत्यु के बाद राव चन्द्रसेन सिवाना से जोधपुर आये 1619 को जोधपुर की राजगद्दी पर बैठे।

चन्द्रसेन के जोधपुर की गद्दी पर बैठते ही उनके बड़े भाइयों राम और उदयसिंह ने राजगद्दी के लिए विद्रोह कर दिया। राम को चन्द्रसेन ने सैनिक कार्यवाही कर मेवाड़ के पहाड़ों में भगा दिया और उदयसिंह, जो उसके सहोदर थे, को फलौदी की जागीर देकर संतुष्ट कर दिया। राम ने अकबर से सहायता ली। अकबर की सेना मुग़ल सेनापति हुसैन कुली ख़ाँ के नेतृत्व में राम की सहायता के लिए जोधपुर पहुंची और जोधपुर के क़िले मेहरानगढ़ को घेर लिया। आठ महीनों के संघर्ष के बाद राव चन्द्रसेन ने जोधपुर का क़िला ख़ाली कर दिया और अपने सहयोगियों के साथ भाद्राजूण चले गए और यहीं से अपने राज्य मारवाड़ पर नौ वर्ष तक शासन किया। भाद्राजूण के बाद वह सिवाना आ गए।

1627 को बादशाह अकबर जियारत करने अजमेर गए वहां से वह नागौर चले गए , जहाँ सभी राजपूत राजा उससे मिलने पहुंचे। राव चन्द्रसेन भी नागौर पहुंचा, पर वह अकबर की फूट डालो नीति देखकर वापस लौट आया। उस वक्त उसका सहोदर उदयसिंह भी वहां उपस्थित था, जिसे अकबर ने जोधपुर के शासक के तौर पर मान्यता दे दी। कुछ समय बाद मुग़ल सेना ने भाद्राजूण पर आक्रमण कर दिया, पर राव चन्द्रसेन वहां से सिवाना के लिए निकल गए। सिवाना से ही राव चन्द्रसेन ने मुग़ल क्षेत्रों, अजमेर, जैतारण, जोधपुर आदि पर छापामार हमले शुरू कर दिए। राव चन्द्रसेन ने दुर्ग में रहकर रक्षात्मक युद्ध करने के बजाय पहाड़ों में जाकर छापामार युद्ध प्रणाली अपनाई। अपने कुछ विश्वास पात्र साथियों को क़िले में छोड़कर खुद पिपलोद के पहाड़ों में चले गए और वहीं से मुग़ल सेना पर आक्रमण करके उनकी रसद सामग्री आदि को लूट लेते। बादशाह अकबर ने उनके विरुद्ध कई बार बड़ी सेनाएं भेजीं, पर अपनी छापामार युद्ध नीति के बल पर राव चन्द्रसेन अपने थोड़े से सैनिको के दम पर ही मुग़ल सेना पर भारी रहे।

संवत 1632 में सिवाना पर मुग़ल सेना के आधिपत्य के बाद राव चन्द्रसेन मेवाड़, सिरोही, डूंगरपुर और बांसवाड़ा आदि स्थानों पर रहने लगे। कुछ समय  के बाद वे फिर शक्ति संचय कर मारवाड़ आए और संवत 1636 श्रावण में सोजत पर अधिकार कर लिया। उसके बाद अपने जीवन के अंतिम वर्षों में राव चन्द्रसेन ने सिवाना पर भी फिर से अधिकार कर लिया था। अकबर उदयसिंह के पक्ष में था, फिर भी उदयसिंह राव चन्द्रसेन के रहते जोधपुर का राजा बनने के बावजूद भी मारवाड़ का एकछत्र शासक नहीं बन सका। अकबर ने बहुत कोशिश की कि राव चन्द्रसेन उसकी अधीनता स्वीकार कर ले, पर स्वतंत्र प्रवृत्ति वाला राव चन्द्रसेन अकबर के मुकाबले कम साधन होने के बावजूद अपने जीवन में अकबर के आगे झुके नहीं और विद्रोह जारी रखा।

11 जनवरी, 1581 (विक्रम संवत 1637 माघ सुदी सप्तमी) को मारवाड़ के महान् स्वतंत्रता सेनानी का सारण सिचियाई के पहाड़ों में 39 वर्ष की अल्पायु में उनका स्वर्गवास हो गया

मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

महाराणा प्रताप का हल्दीघाटी युद्ध मे शौर्य

महाराणा प्रताप का हल्दीघाटी युद्ध मे शौर्य 

इतिहास में यह कभी नहीं पढ़ाया गया है की हल्दीघाटी युद्ध में जब महाराणा प्रताप ने कुंवर मानसिंह के हाथी पर जब प्रहार किया तो शाही फ़ौज पांच छह कोस दूर तक भाग गई थी और अकबर के आने की अफवाह से पुनः युद्ध में सम्मिलित हुई है ये वाकया अबुल फज़ल की पुस्तक अकबरनामा में दर्ज है।

क्या हल्दीघाटी अलग से एक युद्ध था या एक बड़े युद्ध की छोटी सी घटनाओं में से बस एक शुरूआती घटना महाराणा प्रताप को इतिहासकारों ने हल्दीघाटी तक ही सीमित करके मेवाड़ के इतिहास के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है। 

वास्तविकता में हल्दीघाटी का युद्ध महाराणा प्रताप और मुगलो के बीच हुए कई युद्धों की शुरुआत भर था मुगल न तो प्रताप को पकड़ सके और न ही मेवाड़ पर अधिपत्य जमा सके। 

हल्दीघाटी के बाद क्या हुआ उसकी बानगी देखिए

हल्दीघाटी के युद्ध के बाद महाराणा के पास सिर्फ 7000 सैनिक ही बचे थे और कुछ ही समय में मुगलों का कुम्भलगढ़, गोगुदा , उदयपुर और आसपास के ठिकानों पर अधिकार हो गया था उस स्थिति में महाराणा ने गुरिल्ला युद्ध की योजना बनायी और मुगलों को कभी भी मेवाड़ में स्थिर नहीं होने दिया महराणा के शौर्य से विचलित अकबर ने उनको दबाने के लिए 1576 में हुए हल्दीघाटी के बाद भी हर साल 1577 से 1582 के बीच एक एक लाख के सैन्यबल भेजे जो कि महाराणा को झुकाने में नाकामयाब रहे।

हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात् महाराणा प्रताप के खजांची भामाशाह और उनके भाई ताराचंद मालवा से दंड के पच्चीस लाख रुपये और दो हज़ार अशर्फिया लेकर हाज़िर हुए इस घटना के बाद महाराणा प्रताप ने भामाशाह का बहुत सम्मान किया और दिवेर पर हमले की योजना बनाई भामाशाह ने जितना धन महाराणा को राज्य की सेवा के लिए दिया उस से 25 हज़ार सैनिकों को 12 साल तक रसद दी जा सकती थी बस फिर क्या था महाराणा ने फिर से अपनी सेना संगठित करनी शुरू की और कुछ ही समय में 40000 लडाकों की एक शक्तिशाली सेना तैयार हो गयी।

उसके बाद शुरू हुआ हल्दीघाटी युद्ध का दूसरा भाग जिसको इतिहास से एक षड्यंत्र के तहत या तो हटा दिया गया है या एकदम दरकिनार कर दिया गया है इसे बैटल ऑफ़ दिवेर कहा गया गया है।

बात सन 1582 की है विजयदशमी का दिन था और महराणा ने अपनी नयी संगठित सेना के साथ मेवाड़ को वापस स्वतंत्र कराने का प्रण लिया उसके बाद सेना को दो हिस्सों में विभाजित करके युद्ध का बिगुल फूंक दिया।

एक टुकड़ी की कमान स्वंय महाराणा के हाथ थी दूसरी टुकड़ी का नेतृत्व उनके पुत्र अमर सिंह कर रहे थे कर्नल टॉड ने भी अपनी किताब में हल्दीघाटी को Thermopylae of Mewar और दिवेर के युद्ध को राजस्थान का मैराथन बताया है। 

ये वही घटनाक्रम हैं जिनके इर्द गिर्द आप फिल्म 300 देख चुके हैं कर्नल टॉड ने भी महाराणा और उनकी सेना के शौर्य तेज और देश के प्रति उनके अभिमान को स्पार्टन्स के तुल्य ही बताया है जो युद्ध भूमि में अपने से 4 गुना बड़ी सेना से यूँ ही टकरा जाते थे।

दिवेर का युद्ध बड़ा भीषण था महाराणा प्रताप की सेना ने महाराजकुमार अमर सिंह के नेतृत्व में दिवेर थाने पर हमला किया हज़ारो की संख्या में मुग़ल राजपूती तलवारो बरछो भालो और कटारो से बींध दिए गए। युद्ध में महाराजकुमार अमरसिंह ने सुलतान खान मुग़ल को बरछा मारा जो सुल्तान खान और उसके घोड़े को काटता हुआ निकल गया। 

उसी युद्ध में एक अन्य राजपूत की तलवार एक हाथी पर लगी और उसका पैर काट कर निकल गई महाराणा प्रताप ने बहलोल खान मुगल के सर पर वार किया और तलवार से उसे घोड़े समेत काट दिया। 

शौर्य की ये बानगी इतिहास में कहीं देखने को नहीं मिलती हैउसके बाद यह कहावत बनी की मेवाड़ में सवार को एक ही वार में घोड़े समेत काट दिया जाता है ये घटनाये मुगलो को भयभीत करने के लिए बहुत थी बचे खुचे 36000 मुग़ल सैनिकों ने महाराणा के सामने आत्म समर्पण किया। 

दिवेर के युद्ध ने मुगलो का मनोबल इस तरह तोड़ दिया की जिसके परिणाम स्वरुप मुगलों को मेवाड़ में बनायीं अपनी सारी 36 थानों ठिकानों को छोड़ के भागना पड़ा यहाँ तक की जब मुगल कुम्भलगढ़ का किला तक रातो रात खाली कर भाग गए।

दिवेर के युद्ध के बाद प्रताप ने गोगुन्दा , कुम्भलगढ़ , बस्सी, चावंड , जावर , मदारिया , मोही , मंडलगढ़ जैसे महत्त्वपूर्ण ठिकानो पर कब्ज़ा कर लिया इसके बाद भी महाराणा और उनकी सेना ने अपना अभियान जारी रखते हुए सिर्फ चित्तौड़ को छोड़ के मेवाड़ के सारे ठिकाने/दुर्ग वापस स्वतंत्र करा लिए।

अधिकांश मेवाड़ को पुनः कब्जाने के बाद महाराणा प्रताप ने आदेश निकाला की अगर कोई एक बिस्वा जमीन भी खेती करके मुसलमानो को हासिल (टैक्स) देगा उसका सर काट दिया जायेगा इसके बाद मेवाड़ और आस पास के बचे खुचे शाही ठिकानो पर रसद पूरी सुरक्षा के साथ अजमेर से मगाई जाती थी।

दिवेर का युद्ध न केवल महाराणा प्रताप बल्कि मुगलो के इतिहास में भी बहुत निर्णायक रहा मुट्ठी भर राजपूतो ने पुरे भारतीय उपमहाद्वीप पर राज करने वाले मुगलो के ह्रदय में भय भर दिया दिवेर के युद्ध ने मेवाड़ में अकबर की विजय के सिलसिले पर न सिर्फ विराम लगा दिया बल्कि मुगलो में ऐसे भय का संचार कर दिया की अकबर के समय में मेवाड़ पर बड़े आक्रमण लगभग बंद हो गए।

इस घटना से क्रोधित अकबर ने हर साल लाखों सैनिकों के सैन्य बल अलग अलग सेनापतियों के नेतृत्व में मेवाड़ भेजने जारी रखे लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली अकबर खुद 6 महीने मेवाड़ पर चढ़ाई करने के मकसद से मेवाड़ के आस पास डेरा डाले रहा लेकिन ये महराणा द्वारा बहलोल खान को उसके घोड़े समेत आधा चीर देने के ही डर था कि वो सीधे तौर पे कभी मेवाड़ पे चढ़ाई करने नहीं आया।


रविवार, 22 नवंबर 2020

ग्वालियर के राजा रामशाह तोमर

ग्वालियर के राजा रामशाह तोमर 

ग्वालियर के राजा रामशाह तोमर ने अपने 3 पुत्रों (कुंवर शालिवाहन, कुंवर भान, कुंवर प्रताप) व एक पौत्र (धर्मागत) व 300 तोमर साथियों के साथ हल्दीघाटी युद्ध में भाग लिया और सभी वीरगति को प्राप्त हुए... एक साथ 3-3 पीढ़ियों ने अपने रक्त से रणभूमि को पवित्र कर दिया

महाराणा प्रताप के बहनोई कुंवर शालिवाहन तोमर महाभारत के अभिमन्यु की तरह लड़ते हुए सबसे अन्त में वीरगति को प्राप्त हुए

प्रत्यक्षदर्शी मुगल लेखक अब्दुल कादिर बंदायूनी 'मुन्तख़ब उत तवारीख' में लिखता है "यहाँ राजा रामशाह तोमर ने जिस तरह अपना जज्बा दिखाया, उसको लिख पाना मेरी कलम के बस की बात नहीं"

झलकारी बाई

झलकारी बाई 

मातृभूमि के रक्षण हेतु अपने प्राणों की आहुति देने वाली वाली झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का नाम अमर है।  रानी लक्ष्मी बाई के ही साथ देश की एक और पुत्री थी जिन्होंने  अपनी मातृभूमि रक्षार्थ अंतिम श्वाश तक अंग्रेजों के विरुद्ध भीषण युद्ध किया।

वह वीरांगना, जिसने न केवल 1857 की क्रांति में भाग लिया बल्कि अपने देशवासियों और अपनी रानी की रक्षा के लिए अपने प्राणों को सदैव अपनी हथेली पर रखा।

झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को उत्तर प्रदेश के झांसी के समीप स्थित  भोजला गाँव में एक कोली परिवार में हुआ था। झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु  हो गयी।

उनके पिता ने उन्हें एक पुत्र की तरह पाला। उन्हें घुड़सवारी, तीर चलाना, तलवार बाजी करने जैसे सभी युद्ध कौशल सिखाये। झलकारी बाई ने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी, किन्तु फिर भी वे किसी भी कुशल और अनुभवी योद्धा से कमतर नहीं थी।  रानी लक्ष्मी बाई की ही तरह उनकी वीरता के चर्चे भी बचपन से ही होने लगे थे।

झलकारी बाई घर के काम के अलावा पशुओं की देख-रेख और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में झलकारी की मुठभेड़ एक बाघ से हो गई थी और उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी से उसे मार गिराया। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर आक्रमण किया, तब झलकारी बाई ने अपनी वीरता से उन्हें पीछे हटने को विवश कर दिया था।

झलकारी बाई जितनी वीर थी, उतने ही वीर सैनिक से उनका विवाह हुआ। वह वीर सैनिक थे पूरन, जो झांसी की सेना में अपनी वीरता के लिए प्रसिद्द थे।

विवाह के पश्चात जब झलकारी बाई झांसी आई तो एक बार गौरी पूजा के अवसर पर गाँव की अन्य महिलाओं के साथ, वह भी महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले में गयीं। वहाँ जब रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें देखा तो वह दंग रह गयी। झलकारी बाई बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही दिखतीं थीं। साथ ही जब रानी ने झलकारी की वीरता के प्रसंग सुने तो उनसे इतनी प्रभावित हुई कि उन्होंने झलकारी बाई  को तुरंत ही दुर्गा सेना में सम्मिलित करने का आदेश दे दिया।

झलकारी बाई ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी का प्रशिक्षण लिया। पूर्व से ही इन कलाओं में सिद्धहस्त झलकारी बाई इतनी पारंगत हो गयी कि शीघ्र ही उन्हें दुर्गा सेना का सेनापति बना दिया गया।

केवल सेना में ही नहीं बल्कि बहुत बार झलकारी बाई ने व्यक्तिगत स्तर पर भी रानी लक्ष्मी बाई का साथ दिया। कई बार उन्होंने रानी की अनुपस्थिति में अंग्रेजों को चकमा दिया
 मुख व कद-काठी समान होने के कारण कोई भी आसानी से भेद नहीं कर पाता था कि कौन रानी लक्ष्मी बाई है और कौन झलकारी बाई।

1857 के विद्रोह के समय, जनरल ह्यूरोज ने अपनी विशाल सेना के साथ 23 मार्च 1858 को झाँसी पर आक्रमण किया। रानी ने वीरतापूर्वक अपने सैन्य दल से उस विशाल सेना का सामना किया। रानी कालपी में पेशवा द्वारा सहायता की प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन उन्हें कोई सहायता नही मिल सकी, क्योंकि तात्याँ टोपे जनरल ह्युरोज से पराजित हो चुके थे।

शीघ्र ही अंग्रेजी सेना झाँसी में प्रविष्ट हो गयी और रानी अपनी प्रजा के रक्षण हेतु अंग्रेजों से भीषण युद्ध करने लगी। ऐसे में झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई के प्राण बचाने के लिये खुद को रानी प्रदर्शित करते हुए लड़ने का निर्णय लिया। उन्होंने पूरी अंग्रेजी सेना को भ्रम में रखा ताकि रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजो की घेराबंदी से सुरक्षित बाहर निकल सके।

एक बुन्देलखंडी कथा के अनुसार रानी लक्ष्मी बाई का वेश धर झलकारी बाई किले के बाहर निकल ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज के शिविर में उससे मिलने पहँची। ब्रिटिश शिविर में पहुँचने पर उन्होंने गरजकर  ह्यूरोज को सामने आने की चुनोती दी । ह्यूरोज और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि न सिर्फ उन्होने झांसी पर अधिकार कर लिया है बल्कि जीवित रानी भी उनकी कैद में आ गई।

किन्तु यह झलकारी बाई  की रणनीति थी, ताकि वे अंग्रेजों को उलझाए रखें और रानी लक्ष्मी बाई को शक्ति संग्रहित करने के लिए और समय मिल जाये।

जनरल ह्यूरोज़ (जो उन्हें रानी ही समझ रहा था) ने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाना चाहिए? तो उसने दृढ़ता के साथ कहा, चाहे मुझे फाँसी दे दो। झलकारी बाई के इसी साहस और नेतृत्व क्षमता से प्रभावित होकर जनरल ह्यूरोज़ ने कहा था कि 
“यदि भारत की एक प्रतिशत महिलायें भी उसके जैसी हो जायें, तो अंग्रेजों को शीघ्र ही भारत छोड़ना होगा।”

झलकारी बाई को युद्ध में ‎4 अप्रैल 1858 को वीरगति प्राप्त हुई। उनकी मृत्यु के पश्चात अंग्रेजों को ज्ञात हुआ  कि जिस वीरांगना ने उन्हें कई दिनों तक युद्ध में घेरकर रखा था, वह रानी लक्ष्मी बाई नहीं बल्कि उनकी  झलकारी बाई थी।

इसे विडंबना ही कह लीजिये कि देश के लिए अपने प्राणों की भेंट चढ़ा देने वाली भारत की इस वीरांगना झलकारी बाई को इतिहास में बहुत अधिक स्थान नहीं मिला।  उनके सम्मान में भारत सरकार ने उनके नाम का पोस्ट और टेलीग्राम स्टेम्प अवश्य जारी किया, साथ ही भारतीय पुरातात्विक सर्वे ने अपने पंच महल के संग्रहालय में, झाँसी के किले में झलकारी बाई का भी उल्लेख किया है।

झलकारी बाई का उल्लेख कई क्षेत्रीय लेखकों द्वारा अपनी रचनाओं में किया गया है!

कवि मैथिलीशरण गुप्त ने उनके शौर्य का वर्णन करते हुए लिखा था,

“जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।”

भारत की स्वतंत्रता के स्वप्न  को पूर्ण करने  हेतु अपना सर्वोच्च बलिदान देने  वाली वीरांगना झलकारी बाई का समस्त राष्ट्र सदैव ऋणी रहेगा!

शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

भाटी वंश का इतिहास भाटियों की मान्यताएं और उनके प्रतिक

भाटी वंश का इतिहास भाटियों की मान्यताएं और उनके प्रतिक

भाटी वंश का इतिहास भाटियों की मान्यताएं और उनके प्रतिक का सम्पूर्ण वर्णन विस्तार से
वंश परिचय :-
चंद्र:- सर्वप्रथम इस बिंदु पर विचार किया जाना आवश्यक हे की भाटीयों की उत्पत्ति केसे हुयी ? और प्राचीन श्रोतों पर द्रष्टि डालने से ज्ञात होता हे की भाटी चंद्रवंशी है | यह तथ्य प्रमाणों से भी परिपुष्ट होता हे इसमें कोई विवाद भी नहीं हे और न किसी कल्पना का हि सहारा लिया गया है | कहने का तात्पर्य यह हे की दुसरे कुछ राजवंशो की उत्पत्ति अग्नि से मानकर उन्हें अग्निवंशी होना स्वीकार किया हे | सूर्यवंशी राठोड़ों के लिए यह लिखा मिलता हे की राठ फाड़ कर बालक को निकालने के कारन राठोड़ कहलाये | ऐसी किवदंतियों से भाटी राजवंश सर्वथा दूर है |
श्रीमदभगवत पुराण में लिखा हे चंद्रमा का जन्म अत्री ऋषि की द्रष्टि के प्रभाव से हुआ था | ब्रह्माजी ने उसे ओषधियों और नक्षत्रों का अधिपति बनाया | प्रतापी चन्द्रमा ने राजसूय यज्ञ किया और तीनो लोको पर विजयी प्राप्त की उसने बलपूर्वक ब्रहस्पति की पत्नी तारा का हरण किया जिसकी कोख से बुद्धिमान 'बुध ' का जन्म हुआ | इसी के वंश में यदु हुआ जिसके वंशज यादव कहलाये | आगे चलकर इसी वंश में राजा भाटी का जन्म हुआ | इस प्रकार चद्रमा के वंशज होने के कारन भाटी चंद्रवंशी कहलाये |

कुल परम्परा :-
यदु :- भाटी यदुवंशी है | पुराणों के अनुसार यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है | इसलिए इस वंश में भगवान् श्रीकृष्णा ने जन्म लिया तथा और भी अनेक प्रख्यात नृप इस वंश में हुए |

३.कुलदेवता :-
लक्ष्मीनाथजी :- राजपूतों के अलग -अलग कुलदेवता रहे है | भाटियों ने लक्ष्मीनाथ को अपना कुलदेवता माना है |

४. कुलदेवी :-
स्वांगीयांजी :- भाटियों की कुलदेवी स्वांगयांजी ( आवड़जी ) है | उन्ही के आशीर्वाद और क्रपा से भाटियों को निरंतर सफलता मिली और घोर संघर्ष व् विपदाओं के बावजूद भी उन्हें कभी साहस नहीं खोया | उनका आत्मविश्वास बनाये रखने में देवी -शक्ति ने सहयोग दिया |

५. इष्टदेव

श्रीकृष्णा :- भाटियों के इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्णा है | वे उनकी आराधना और पूजा करते रहे है | श्रीकृष्णा ने गीता के माध्यम से उपदेश देकर जनता का कल्याण किया था | महाभारत के युद्ध में उन्होंने पांडवों का पक्ष लेकर कोरवों को परास्त किया | इतना हि नहीं ,उन्होंने बाणासुर के पक्षधर शिवजी को परास्त कर अपनी लीला व् शक्ति का परिचय दीया | ऐसी मान्यता है की श्रीकृष्णा ने इष्ट रखने वाले भाटी को सदा सफलता मिलती है और उसका आत्मविश्वास कभी नहीं टूटता है |

६.वेद :-
यजुर्वेद :- वेद संख्या में चार है - ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद ,और अर्थवेद | इनमे प्रत्येक में चार भाग है - संहिता ,ब्राहण, आरण्यक और उपनिषद | संहिता में देवताओं की स्तुति के मन्त्र दिए गए हे तथा ;ब्राहण ' में ग्रंथो में मंत्रो की व्याख्या की गयी है | और उपनिषदों में दार्शनिक सिद्धांतों का विवेचन मिलता है | इनके रचयिता गृत्समद ,विश्वामित्र ,अत्री और वामदेव ऋषि थे | यह सम्पूर्ण साहित्य हजारों वर्षों तक गुरु-शिष्यपरम्परा द्वारा मौखिक रूप से ऐक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होता रहा | बुद्ध काल में इसके लेखन के संकेत मिलते है परन्तु वेदों से हमें इतिहास की पूर्ण जानकारी नहीं मिलती है | इसके बाद लिखे गए पुराण हमें प्राचीन इतिहास का बोध कराते है | भाटियों ने यजुर्वेद को मान्यता दी है | स्वामी दयानंद सरस्वती यजुर्वेद का भाष्य करते हुए लिखते है '' मनुष्यों ,सब जगत की उत्पत्ति करने वाला ,सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त सब सुखों के देने और सब विद्या को प्रसिद्ध करने वाला परमात्मा है |............. लोगो को चाहिए की अच्छे अच्छे कर्मों से प्रजा की रक्षा तथा उतम गुणों से पुत्रादि की सिक्षा सदेव करें की जिससे प्रबल रोग ,विध्न और चोरों का आभाव होकर प्रजा व् पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हो | यही श्रेष्ठ काम सब सुखों की खान है | इश्वर आज्ञा देता है की सब मनुष्यों को अपना दुष्ट स्वभाव छोड़कर विध्या और धर्म के उपदेश से ओरों को भी दुष्टता आदी अधर्म के व्यवहारों से अलग करना चाहिए | इस प्रकार यजुर्वेद ज्ञान का भंडार है | इसके चालीस अध्याय में १९७५ मंत्र है

७.गोत्र :-
अत्री :- कुछ लोग गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से मानने की भूल करते है | वस्तुत गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से नहीं हे बल्कि ब्राहण से है जो वेदादि शास्त्रों का अध्ययन कराता था | विवाह ,हवन इत्यादि सुभ कार्य के समय अग्नि की स्तुति करने वाला ब्राहण अपने पूर्व पुरुष को याद करता है इसलिए वह हवन में आसीन व्यक्ति को | वेड के सूक्तों से जिन्होंने आपकी स्तुति की उनका में वंशज हूँ | यदुवंशियों के लिए अत्री ऋषि ने वेदों की रचना की थी | इसलिए इनका गोत्र '' अत्री '' कहलाया |

८.छत्र :-
मेघाडम्बर :- श्री कृष्णा का विवाह कुनणपुर के राजा भीष्मक की पुत्री रुकमणी के साथ हुआ | श्रीकृष्ण जब कुनणपुर गए तब उनका सत्कार नहीं होने से वे कृतकैथ के घर रुके | उस समय इंद्र ने लवाजमा भेजा | जरासंध के अलावा सभी राजाओं ने नजराना किया | श्रीकृषण ने लवाजमा की सभी वस्तुएं पुनः लौटा दी परन्तु मेघाडम्बर छत्र रख लिया | श्रीकृष्ण ने कहा की जब तक मेघाडम्बर रहेगा यदुवंशी राजा बने रहेंगे | अब यह मेघाडम्बर छत्र जैसलमेर के राजघराने की सोभा बढ़ा रहा है |

9.ध्वज :-
भगवा पीला रंग :- पीला रंग समृदधि का सूचक रहा है और भगवा रंग पवित्र माना गया है | इसके अतिरिक्त पीले रंग का सूत्र कृष्ण भगवान के पीताम्बर से और भगवा रंग नाथों के प्रती आस्था से जुड़ा हुआ है | इसलिए भाटी वंश के ध्वज में पीले और भगवा रंग को स्थान दिया गया है |

१०.ढोल :-
भंवर :- सर्वप्रथम महादेवजी ने नृत्य के समय 14 बार ढोल बजा कर 14 महेश्वर सूत्रों का निर्माण किया था | ढोल को सब वाध्यों का शिरोमणि मानते हुए use पूजते आये है | महाभारत के समय भी ढोल का विशेष महत्व रहा है | ढोल का प्रयोग ऐक और जहाँ युद्ध के समय योद्धाओं को एकत्र करने के लिए किया जाता था वही दुसरी और विवाह इत्यादि मांगलिक अवसरों पर भी इसे बजाया जाता है | भाटियों ने अपने ढोल का नाम भंवर रखा |

११. नक्कारा :-
अग्नजोत ( अगजीत)- नक्कारा अथवा नगारा (नगाड़ा ) ढोल का हि ऐक रूप है | युद्ध के समय ढोल घोड़े पर नहीं रखा जा सकता था इसलिए इसे दो हिस्सो में विभक्त कर नगारे का स्वरूप दिया गया था | नगारा बजाकर युद्ध का श्रीगणेश किया जाता था | विशेष पराक्रम दिखाने पर राज्य की और से ठिकानेदारों को नगारा ,ढोल ,तलवार और घोडा आदी दिए जाते थे | ऐसे ठिकाने ' नगारबंद' ठिकाने कहलाते थे | घोड़े पर कसे जाने वाले नगारे को 'अस्पी' , ऊंट पर रखे जाने वाले नगारे को सुतरी' और हाथी पर रखे जाने नगारे को ' रणजीत ' कहा गया है |''
भाटियों ने अपने नगारे का नाम अग्नजोत रखा है | अर्थात ऐसा चमत्कारी नक्कारा जिसके बजने से अग्नि प्रज्वलित हो जाय | अग्नि से जहाँ ऐक और प्रकाश फैलता है और ऊर्जा मिलती है वही अग्नि दूसरी और शत्रुओं का विनाश भी करती है | कुछ रावों की बहियों में इसका नाम '' अगजीत '' मिलता है , जिसका अर्थ है पापों पर विजय पाने वाला ,नगारा

१२.गुरु:-
रतननाथ :- नाथ सम्प्रदाय का सूत्र भाटी राजवंश के साथ जुड़ा हुआ है | ऐक और नाथ योगियों के आशीर्वाद से भाटियों का कल्याण हुआ तो दूसरी और भाटी राजवंश का पश्रय मिलने पर नाथ संप्रदाय की विकासयात्रा को विशेष बल मिला | 9वीं शताब्दी के मध्य योगी रतननाथ को देरावर के शासक देवराज भाटी को यह आशीर्वाद दिया था की भाटी शासकों का इस क्षेत्र में चिरस्थायी राज्य रहेगा | इसके बारे में यह कथा प्रचलित हे की रतननाथ ने ऐक चमत्कारी रस्कुप्पी वरीहायियों के यहाँ रखी | वरीहायियो के जमाई देवराज भाटी ने उस कुप्पी को अपने कब्जे में कर उसके चमत्कार से गढ़ का निर्माण कराया | रतननाथ को जब इस बात का पता चला तो वह देवराज के पास गए और उन्होंने उस कुप्पी के बारे में पूछताछ की | तब देवराज ने सारी बतला दी | इस पर रतननाथ बहुत खुश हुए और कहा की '' टू हमारा नाम और सिक्का आपने मस्तक पर धारण कर | तेरा बल कीर्ति दोनों बढेगी और तेरे वंशजों का यहाँ चिरस्थायी राज्य रहेगा | राजगद्दी पर आसीन होते समय तू रावल की पदवी और जोगी का भगवा ' भेष ' अवश्य धारण करना |''
भाटी शासकों ने तब से रावल की उपाधि धारण की और रतननाथ को अपना गुरु मानते हुए उनके नियमों का पालन किया |

13.पुरोहित :-
पुष्करणा ब्राहण :- भाटियों के पुरोहित पुष्पकरणा ब्राहण माने गए है | पुष्कर के पीछे ये ब्राहण पुष्पकरणा कहलाये | इनका बाहुल्य ,जोधपुर और बीकानेर में रहा है | धार्मिक अनुष्ठानो को किर्यान्वित कराने में इनका महतवपूर्ण योगदान रहता आया है |

14 पोळपात
रतनू चारण - भाटी विजयराज चुंडाला जब वराहियों के हाथ से मारा गया तो उस समय उसका प्रोहित लूणा उसके कंवर देवराज के प्राण बचाने में सफल हुए | कुंवर को लेकर वह पोकरण के पास अपने गाँव में जाकर रुके | वराहियों ने उसका पीछा करते हुए वहां आ धमके | उन्होंने जब बालक के बारे में पूछताछ की तो लूणा ने बताया की मेरा बेटा है | परन्तु वराहियों को विस्वाश नहीं हुआ | तब लूणा ने आपने बेटे रतनू को साथ में बिठाकर खाना खिलाया | इससे देवराज के प्राण बच गए परन्तु ब्राह्मणों ने रतनू को जातिच्युत कर दिया | इस पर वह सोरठ जाने को मजबूर हुआ | जब देवराज अपना राज्य हस्तगत करने में सफल हुआ तब उसने रतनू का पता लगाया और सोरठ से बुलाकर सम्मानित किया और अपना पोळपात बनाया | रतनू साख में डूंगरसी ,रतनू ,गोकल रतनू आदी कई प्रख्यात चारण हुए है |

15. नदी
यमुना :- भगवान् श्रीकृष्ण की राजधानी यमुना नदी किनारे पर रही ,इसी के कारन भाटी यमुना को पवित्र मानते है |

16.वृक्ष
पीपल और कदम्ब :- भगवान् श्री कृष्णा ने गीता के उपदेश में पीपल की गणना सर्वश्रेष्ठ वृक्षों में की है | वेसे पीपल के पेड़ की तरह प्रगतिशील व् विकासशील प्रवर्ती के रहे है | जहाँ तक कदम्ब का प्रश्न है , इसका सूत्र भगवान् श्री कृष्णा की क्रीड़ा स्थली यमुना नदी के किनारे कदम्ब के पेड़ो की घनी छाया में रही थी | इसके आलावा यह पेड़ हमेशा हर भरा रहता है इसलिए भाटियों ने इसे अंगीकार किया हे | वृहत्संहिता में लिखा है की कदम्ब की लकड़ी के पलंग पर शयन करना मंगलकारी होता है | चरक संहिता के अनुसार इसका फूल विषनीवारक् तथा कफ और वात को बढ़ाने वाला होता है | वस्तुतः अध्यात्मिक और संस्कृतिक उन्नयन में कदम्ब का जितना महत्व रहा है | उतना महत्व समस्त वनस्पतिजगत में अन्य वृक्ष का नहीं रहा है

17.राग
मांड :- जैसलमेर का क्षेत्र मांड प्रदेश के नाम से भी जाना गया है | इस क्षेत्र में विशेष राग से गीत गाये जाते है जिसे मांड -राग भी कहते है | यह मधुर राग अपने आप में अलग पहचान लिए हुए है | मूमल ,रतनराणा ,बायरीयो ,कुरंजा आदी गीत मांड राग में गाये जाने की ऐक दीर्धकालीन परम्परा रही है |

18.माला
वैजयन्ती:- भगवान् श्रीकृष्णा ने जब मुचुकंद ( इक्ष्वाकुवशी महाराजा मान्धाता का पुत्र जो गुफा में सोया हुआ था ) को दर्शन दिया , उस समय उनके रेशमी पीताम्बर धारण किया हुआ था और उनके घुटनों तक वैजयंती माला लटक रही थी | भाटियों ने इसी नाम की माला को अंगीकार किया | यह माला विजय की प्रतिक मानी जाती है |

19.विरुद
उतर भड़ किवाड़ भाटी :-सभी राजवंशो ने उल्लेखनीय कार्य सम्पादित कर अपनी विशिष्ट पहचान बनायीं और उसी के अनुरूप उन्हें विरुद प्राप्त हुआ | दुसरे शब्दों में हम कह सकते हे की '; विरुद '' शब्द से उनकी शोर्य -गाथा और चारित्रिक गुणों का आभास होता है | ढोली और राव भाट जब ठिकानों में उपस्थित होते है , तो वे उस वंश के पूर्वजों की वंशावली का उद्घोष करते हुए उन्हें विरुद सुनते है
भाटियों ने उतर दिशा से भारत पर आक्रमण करने वाले आततायियों का सफलतापूर्ण मुकाबला किया था , अतः वे उतर भड़ किवाड़ भाटी अर्थात उतरी भारत के रक्षक कहलाये | राष्ट्रिय भावना व् गुमेज गाथाओं से मंडित यह विरुद जैसलमेर के राज्य चिन्ह पर अंकित किया गया है

२.अभिवादन
जयश्री कृष्णा :- ऐक दुसरे से मिलते समय भाटी '' जय श्री कृष्णा '' कहकर अभिवादन करते है | पत्र लिखते वक्त भी जय श्री कृष्णा मालूम हो लिखा जाता है |

21. राजचिन्ह :- राजचिन्ह का ऐतिहासिक महत्व रहा है | प्रत्येक चिन्ह के अंकन के पीछे ऐतिहासिक घटना जुडी हुयी रहती हे | जैसलमेर के राज्यचिन्ह में ऐक ढाल पर दुर्ग की बुर्ज और ऐक योद्धा की नंगी भुजा में मुदा हुआ भाला आक्रमण करते हुए दर्शाया गया है | श्री कृष्णा के समय मगध के राजा जरासंघ के पास चमत्कारी भाला था | यादवों ने जरासंघ का गर्व तोड़ने के लिए देवी स्वांगियाजी का प्रतिक माना गया है | ढाल के दोनों हिरण दर्शाए गए है जो चंद्रमा के वाहन है | नीचे '' छ्त्राला यादवपती '' और उतर भड़ किवाड़ भाटी अंकित है | जैसलमेर -नरेशों के राजतिलक के समय याचक चारणों को छत्र का दान दिया जाता रहा है इसलिए याचक उन्हें '' छ्त्राला यादव '' कहते है | इस प्रकार राज्यचिन्ह के ये सूत्र भाटियों के गौरव और उनकी आस्थाओं के प्रतिक रहे है |

22.भट्टीक सम्वत :- भट्टीक सम्वत भाटी राजवंश की गौरव -गरिमा ,उनके दीर्धकालीन वर्चस्व और प्रतिभा का परिचयाक है | वैसे चौहान ,प्रतिहार ,पंवार ,गहलोत ,राठोड़ और कछवाह आदी राजवंशों का इतिहास भी गौरवमय रहा है परन्तु इनमे से किसी ने अपने नाम से सम्वत नहीं चलाया | भाटी राजवंश द्वारा कालगणना के लिए अलग से अपना संवत चलाना उनके वैभव का प्रतिक है | उनके अतीत की यह विशिष्ट पहचान शिलालेखों में वर्षों तक उत्कीर्ण होती रही है |
भाटियों के मूल पुरुष भाटी थे | इस बिंदु पर ध्यान केन्द्रित करते हुए ओझा और दसरथ शर्मा ने आदी विद्वानों ने राजा भाटी द्वारा विक्रमी संवत ६८०-81 में भट्टीक संवत आरम्भ किये जाने का अनुमान लगाया है | परन्तु भाटी से लेकर १०७५ ई. के पूर्व तक प्रकाश में आये शिलालेख में भट्टीक संवत का उल्लेख नहीं है | यदि राजा भाटी इस संवत का पर्वर्तक होते तो उसके बाद के राजा आपने शिलालेखों में इसका उल्लेख जरुर करते |
भट्टीक संवत का प्राचीनतम उल्लेख देरावर के पास चत्रेल जलाशय पर लगे हुए स्तम्भ लेख में हुआ है जो भट्टीक संवत ४५२ ( १०७५ ई= वि.सं.११३२) है इसके बाद में कई शिलेखों प्रकाश में आये जिनके आधार पर कहा जा सकता है की भट्टीक सम्वत का उल्लेख करीब 250 वर्ष तक होता रहा |

खोजे गए शिलालेखों के आधार पर यह तथ्य भी उजागर हुआ हे की भट्टीक सम्वत के साथ साथ वि. सं. का प्रयोग भी वि. सं,. १४१८ से होने लगा | इसके बाद के शिलालेखों में वि. सं, संवत के साथ साथ भट्टीक संवत का भी उल्लेख कहीं कहीं पर मिलता है अब तक प्राप्त शिलालेखों में अंतिम उल्लेख वि. सं. १७५६ ( भट्टीक संवत १०७८ ) अमरसागर के शिलालेख में हुआ है | ऐसा प्रतीत होता है की परवर्ती शासकों ने भाटियों के मूल पुरुष राजा भाटी के नाम से भट्टीक संवत का आरम्भ किया गया | कालगणना के अनुसार राजा भाटी का समय वि. संवत ६८० में स्थिर कर उस समय से हि भट्टीक संवत १ का प्रारंभ माना गया है और उसकी प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए भट्टीक संवत का उल्लेख कुंवर मंगलराव और दुसज तथा परवर्ती शासकों ने शिलालेखों में करवाया | बाद में वि.सं. और भट्टीक संवत के अंतर दर्शाने के लिए दोनों संवतों का प्रयोग शिलालेखों में होने लगा |
एंथोनी ने विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण कर भट्टीक संवत आदी शिलालेखों कि खोज की है | उसके अनुसार अभी तक २३१ शिलालेख भट्टीक संवत के मिले है जिसमे १७३ शिलालेखों में सप्ताह का दिन ,तिथि ,नक्षत्र ,योग आदी पर्याप्त जानकारियां मिली है | भट्टीक संवत ७४० और ८९९ के शिलालेखों में सूर्य राशियों स्पष्ट रूप से देखि जा सकती है | यह तथ्य भी उजागर हुआ है की मार्गशीर्ष सुदी १ से नया वर्ष और अमावस्या के बाद नया महिना प्रारंभ होता है | 
भट्टीक सम्वत का अधिकतम प्रयोग ५०२-600 अर्थात ११२४-१२२४ ई. के दोरान हुआ जिसमे 103 शिलालेख है जबकि १२२४-१३५२ ई. के मध्य केवल 66 शिलालेख प्राप्त हुए है | १२२२ से १२५० ई और ११३३४ से १३५२ के मध्य कोई शिलालेख नहीं मिलता है | जहाँ तह सप्ताह के दिनों का महत्व का प्रसन्न है ११२४- १२२२ के शिलालेखों में रविवार की आवृति बहुत अधिक है परन्तु इसके बाद गुरुवार और सोमवार का अधिक प्रयोग हुआ है | मंगलवार और शनिवार का प्रयोग न्यून है

भाटियो का राव वंश वेलियो ,सोरम घाट ,आत्रेस गोत्र ,मारधनी साखा ,सामवेद ,गुरु प्रोहित ,माग्न्यार डगा ,रतनु चारण तीन परवर ,अरनियो ,अपबनो ,अगोतरो ,मथुरा क्षेत्र ,द्वारका कुल क्षेत्र ,कदम वृक्ष ,भेरव ढोल ,गनादि गुणेश ,भगवां निशान ,भगवी गादी ,भगवी जाजम ,भगवा तम्बू ,मृगराज ,सर घोड़ों अगनजीत खांडो ,अगनजीत नगारों ,यमुना नदी ,गोरो भेरू ,पक्षी गरुड़ ,पुष्पकर्णा पुरोहित ,कुलदेवी स्वांगीयाजी ,अवतार श्री कृष्णा ,छत्र मेघाडंबर ,गुरु दुर्वासा रतननाथ ,विरूप उतर भड किवाड़ ,छ्त्राला यादव ,अभिवादन जय श्री कृष्णा ,व्रत एकादशी ।

भाटी शासक का शासन काल 5000
आजतक भारत के राजवंशो में किसी भी राजवंश का क्रमबद्ध इतिहास नहीं लिखा हुआ है । केवल यदुवंश भाटी ही ऐसा वंश है जो 5000 साल लगातार भारत भूमि पर कही न कही शासन करते चले आ रहे है । इतने लम्बे समय में उनकी राजधानिया एंड काल इस प्रकार रहे ।
राजधानी का नाम काल 
काशी 900 साल 
द्वारिका 500 साल 
मथुरा 1050 साल 
गजनी 1500 साल 
लाहोर 600 साल 
हंसार 160 साल 
भटनेर 80 साल 
मारोट 140 साल 
तनोट 40 साल 
देरावर 20 साल 
लुद्र्वा 180 साल 
जैसलमेर 791 साल 
इतिहास में 5000 साल के लम्बे समय में 49 युद्ध भारत भूमि की रक्षा के लिए शत्रुओं से लड़े गए उनका क्रमबद्ध वर्णन किया गया है । जिसमे 10 युद्ध गजनी पर हुए इस इतिहास में आदिनारायण से वर्तमान महारावल बृजराज सिंह तक ।

208 पीढियों का वर्णन है । यूनान के बादशाह सिकंदर एंड जैसलमेर के महारावल शालिवाहन 167 के बीच युद्ध हुआ जिसमे महारावल विजयी हुए । भटनेर के तीन शाके तनोट पर एक शाका जिसमे 350 क्षत्रानियो ने जोहर किया रोह्ड़ी का शाका , जैसलमेर के ढाई शाके इस प्रकार कुल साढ़े ग्यारह शाके यदुवंशी भाटियो द्वारा किये गए प्रस्तुत इतिहास में 36 वंशों के नाम यदुवंशियों की 11 साखायें भाटियो की 150 साखायें एंड उनकी जागीरे भाटियो द्वारा कला साहित्य संगीत चित्रकला स्थापत्य कला जैसलमेर की स्थापना जैसलमेर का राज्य चिन्ह भाटी मुद्रा टोल जैसलमेर के दर्शनीय स्थान सामान्य ज्ञान पटुओ का इतिहास राठौर एंड परमारों की ख्याति का भी वर्णन है । 

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

स्वांगिया/भादरिया राय माता

वंश_कुलदेवी_दर्शन (स्वांगिया/भादरिया राय माता)

यदुवंशी_भाटियों_की_कुलदेवी_स्वांगीया_जी

देवी स्वांगिया का इतिहास बहुत पुराना है। भगवती आवड़ के पूर्वज सिन्ध में निवास करने वाले सउवा शाखा के चारण थे जो गायें पालते और घी व घोडों का व्यापार करते थे। मांड प्रदेश (जैसलमेर) के चेलक गांव में चेला नामक एक चारण आकर रहे। उसके वंश में मामड़िया जी चारण हुए जिसने संतान प्राप्ति के लिए सात बार हिंगलाज माता धाम की यात्रा की तब विक्रमी सम्वत् 808 में सात कन्याओं के रूप में देवी हिंगलाज ने मामड़िया के घर में जन्म लिया। इनमें बडी कन्या का नाम आवड़ रखा गया। आवड़ की अन्य बहिनों के नाम आशी, सेसी, गेहली, हुली, रूपां और लांगदे था। अकाल पडने पर ये कन्याएँ अपने माता-पिता के साथ सिन्ध में जाकर हाकड़ा नदी पाकिस्तान के किनारे पर रहीं। पहले इन कन्याओं ने सूत कातने का कर्म किया। इसलिए ये कल्याणी देवी कहलाई। फिर आवड़ देवी की पावन यात्रा और जनकल्याण की अद्भुत घटनाओं के साथ ही क्रमशः सात मन्दिरों का निर्माण हुआ और समग्र मांड प्रदेश में आवड माता के प्रति लोगों की आस्था बढती गई|
देवी का प्रतीक रुप स्वांग(भाला) व सुगन चिड़ी है। ये प्रतीक जैसलमेंर के राज्य चिन्ह में विद्यमान है। आजादी से पहले तक जैसलमेर के शासक दशहरा, दीपावली के दिन अपने घोड़ों को सजाते समय चांदी या सोने की चिड़िया बनाकर शक्ति के प्रतीक को बैठा कर पूजा करते थे| जैसलमेर के सिक्कों पट्टो-परवानो, स्टांपो, तोरणो आदि पर शुगन चिड़ी की आकृतियों का अंकन किया जाता था |

स्वांगिया या आवड़ माता के ये सात मन्दिर निम्नलिखित हैं –

 (1) तनोट राय मन्दिर:- 
राव तनु ने 8 वी शताब्दी में निर्माण करवाया।
इस स्थान पर मोहम्मद बिन कासिम, हुसैनशाह पठान, लंगाहो, वराहों,यवनों जोइयों व खीचियों ने कई आक्रमण किए। तनोट के शासक  विजयराव ने  देवी के प्रताप से ईरान के शाह व खुरासान के शाह को पराजित कर कुल 22 युद्ध जीते। 
सिंध के मुसलमान ने जब विजयराव पर आक्रमण किया तो देवी से प्रार्थना की कि अगर विजयी हुआ तो अपना मस्तक देवी को अर्पित करेगा। युद्ध में देवी ने विजयराव की मदद की और राव की विजय हुई। इस पर वह मंदिर में जाकर तलवार से अपना मस्तक काटने लगा तो देवी प्रकट हो गई और बोले कि मैनै तेरी पूजा मान ली और अपनी हाथ की सोने की चूड़ उतार🎂 कर दी। यही विजयराव इतिहास में #विजयराव_चूंडाला के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 1965 ई व 1971 ई में पाकिस्तान से युद्ध हुआ। सभी युद्धों में देवी के प्रताप से विजय मिली। 1965 ई के बाद BSF द्वारा पूजा अर्चना की जाती है।
जहाँ 1965 ई में पाकिस्तान के गिराए 300 बम बेअसर हुए थे। देवी की कृपा से पाकिस्तान के सैनिक रात के अंधेरे में आपस में लड़.कर मारे गए। इस समय पाकिस्तान ने 150 किमी तक कब्जा कर लिया था।
तनोट देवी को #थार_की_वैष्णों_देवी भी कहा जाता है। BSF की एक यूनिट का नाम तनोट वारियर्स है। 

 (2) घंटियाली राय मंदिरः– तनोट से 5 KM की दूरी पर दक्षिण-पूर्व में है। वीरधवल नामक पुजारी को नवरात्र के दिनों में देवी ने शेरनी के रूप में दर्शन दिए जिसके गले में घंटी बंधी थी। 1965 ई में पाकिस्तानी सैनिकों ने इस मंदिर की मूर्तियों को खंडित किया था। जिन्हें देवी ने मृत्यु दंड दिया।

 (3) श्री देगराय मन्दिर - जैसलमेर के पूर्व में देगराय जलाशय पर स्थित है। महारावल अखैसिह ने इस नवीन मंदिर का निर्माण करवाया था। देवियों ने महिष के रुप में विचरण कर रहे दैत्य को मारकर उसी के सिर का देग बनाकर उससे रक्तपान किया।
यहाँ रात को नगाड़ों व घुघरुओं की ध्वनि सुनाई देती है। कभी कभी दीपक स्वतः ही प्रज्ज्वलित हो जाता है।

 (4) भादरियाराय का मन्दिर:- इसका निर्माण महारावल गजसिंह जी ने #बासणपी_की_लडाई जीतने के पश्चात  करवाया और अपनी रानी व मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह की पुत्री रुपकंवर के साथ जाकर मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई।
महारावल शालीवाहन ने देवी को चांदी का भव्य सिंहासन अर्पित किया। सिंहासन के ऊपर जैसलमेर का राज्यचिन्ह उत्कीर्ण है जिसे महारावल शालीवाहन सिंह ने भेंट चढा़या।  फिर जवाहरसिंह ने इसका जीर्णोद्धार करवाया। 
शक्तियो ने वहादरिया ग्वाले को परचा दिया । वहादरिया के निवेदन करने पर देवी ने यहीं निवास किया। इसी कारण वाहदरिया भादरिया नाम से प्रसिद्ध हुआ। राव तणु ने यहाँ पहुंच कर देवियों के दर्शन किए। इस स्थान को आधुनिक रूप संत हरिवंश राय निर्मल ने दिया ।यहाँ पर विशाल गौशाला व एशिया का सबसे बडा़ भूमिगत पुस्तकालय स्थित है। यहाँ पर एक विश्वविद्यालय बनना भी प्रस्तावित है। महाराज ने शिक्षा, पर्यावरण, नशामुक्ति, चिकित्सा एवमं स्वास्थ्य के क्षेत्र में बेहतर काम किया । कन्या भ्रूण हत्या, दहेज, बाल विवाह का सदा विरोध किया। यहाँ का शक्ति और सरस्वती का अनूठा संगम अन्यत्र दुर्लभ है।

(5) श्री तेमड़ेराय मंदिर :- जैसलमेर के दक्षिण में गरलाउणे पहाड़ की कंदरा में बना हुआ है। इसका निर्माण महारावल केहर ने करवाया था। केहर ने मंदिर की पहाड़ी के नीचे एक सरोवर का निर्माण करवाया तथा सरोवर के निकट दो परसाले भी बनवाई । यहां देवी की पूजा छछुन्दरी के रुप में होती है। चारण इसे द्वितीय हिंगलाज मानते है। महारावल अमरसिंह ने तेमडेराय पहाड़ की पाज बंधाई,मंदिर के सामने बुर्ज, पगोथिये व उस पर बंगला बनवाया। महारावल जसवंतसिंह ने परसाल व बुर्ज का निर्माण करवाया व प्रतिष्ठा करवाई। महारावल जवाहरसिंह ने इसके निज मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। यहाँ शक्तियों ने तेमड़ा नामक दैत्य का वध किया था। बीकानेर महाराजा रायसिंह जी ने अपनी रानी व जैसलमेर की राजकुमारी गंगाकुमारी के साथ यहां की यात्रा की और देवी ने नागिणियों के रुप में दर्शन दिए तो रायसिंह ने मंदिर के सामने खंभो वाला देवल बनाया।
करणी माता भी तेमडेराय की परम भक्त थी। इसलिए कुछ लोग करणी जी को स्वांगीया का अवतार भी मानते है।

(6) स्वांगिया माता गजरूप सागर मन्दिर :- यह गजरुप सागर तालाब के पास समतल पहाडी पर निर्मित मंदिर. जिसका निर्माण महारावल गजसिंह ने करवाया था। वे प्रातःकाल उठते ही किले से देवी के दर्शन करते है।

(7) श्री काले डूंगरराय मन्दिर:-जैसलमेर से 25किमी दूर इस मंदिर का जीर्णोद्धार महारावल जवाहरसिंह ने निर्माण कराया।
काले रंग के पहाड़ पर स्थित है। सिंध का मुसलमान इन कन्याओं से बलात विवाह करना चाहता था। सिंध से लौटने समय देवी ने हाकड़ा से मार्ग मांगा परंतु हाकडा के मार्ग नहीं देने पर  देवी के चमत्कार से हाकडा़ नदी का पानी सुख गया। इसके पश्चात शक्तियां कुछ समय यहां भी रही थी।

 जय माँ कुलदेवी

जठै यादवों राज जोरे जमाया।
वठै जा करी जोगणी छत्र छाया।।

जय माँ स्वांगीया 🚩🙏

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2020

कछवाह क्षत्रिय वंश - शेखावत

कछवाह क्षत्रिय वंश - शेखावत

शेखावत सूर्यवंशी कछवाह क्षत्रिय वंश की एक शाखा है देशी राज्यों के भारतीय संघ में विलय से पूर्व मनोहरपुर,शाहपुरा, खंडेला,सीकर, खेतडी,बिसाऊ,सुरजगढ़,नवलगढ़, मंडावा,मुकन्दगढ़, दांता,खुड,खाचरियाबास,दूंद्लोद,अलसीसर,मलसिसर,रानोली आदि प्रभाव शाली ठिकाने शेखावतों के अधिकार में थे जो शेखावाटी नाम से प्रशिध है वर्तमान में शेखावाटी की भौगोलिक सीमाएं सीकर और झुंझुनू दो जिलों तक ही सीमित है भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज कछवाह कहलाये महाराजा कुश के वंशजों की एक शाखा अयोध्या से चल कर साकेत आयी, साकेत से रोहतास गढ़ और रोहताश से मध्य प्रदेश के उतरी भाग में निषद देश की राजधानी पदमावती आये रोहतास गढ़ का एक राजकुमार तोरनमार मध्य प्रदेश आकर वाहन के राजा गौपाल का सेनापति बना और उसने नागवंशी राजा देवनाग को पराजित कर राज्य पर अधिकार कर लिया और सिहोनियाँ को अपनी राजधानी बनाया कछवाहों के इसी वंश में सुरजपाल नाम का एक राजा हुवा जिसने ग्वालपाल नामक एक महात्मा के आदेश पर उन्ही नाम पर गोपाचल पर्वत पर ग्वालियर दुर्ग की नीवं डाली महात्मा ने राजा को वरदान दिया था कि जब तक तेरे वंशज अपने नाम के आगे पाल शब्द लगाते रहेंगे यहाँ से उनका राज्य नष्ट नहीं होगा सुरजपाल से 84 पीढ़ी बाद राजा नल हुवा जिसने नलपुर नामक नगर बसाया और नरवर के प्रशिध दुर्ग का निर्माण कराया नरवर में नल का पुत्र ढोला (सल्ह्कुमार) हुवा

जो राजस्थान में प्रचलित ढोला मारू के प्रेमाख्यान का प्रशिध नायक है उसका विवाह पुन्गल कि राजकुमारी मार्वणी के साथ हुवा था, ढोला के पुत्र लक्ष्मण हुवा, लक्ष्मण का पुत्र भानु और भानु के परमप्रतापी महाराजाधिराज बज्र्दामा हुवा जिसने खोई हुई कछवाह राज्यलक्ष्मी का पुनः उद्धारकर ग्वालियर दुर्ग प्रतिहारों से पुनः जित लिया बज्र्दामा के पुत्र मंगल राज हुवा जिसने पंजाब के मैदान में महमूद गजनवी के विरुद्ध उतरी भारत के राजाओं के संघ के साथ युद्ध कर अपनी वीरता प्रदर्शित की थी मंगल राज दो पुत्र किर्तिराज व सुमित्र हुए,किर्तिराज को ग्वालियर व सुमित्र को नरवर का राज्य मिला सुमित्र से कुछ पीढ़ी बाद सोढ्देव का पुत्र दुल्हेराय हुवा जिनका विवाह dhundhad के मौरां के चौहान राजा की पुत्री से हुवा था
दौसा पर अधिकार करने के बाद दुल्हेराय ने मांची,bhandarej खोह और झोट्वाडा पर विजय पाकर सर्वप्रथम इस प्रदेश में कछवाह राज्य की नीवं डाली मांची में इन्होने अपनी कुलदेवी जमवाय माता का मंदिर बनवाया वि.सं. 1093 में दुल्हेराय का देहांत हुवा दुल्हेराय के पुत्र काकिलदेव पिता के उतराधिकारी हुए जिन्होंने आमेर के सुसावत जाति के मीणों का पराभव कर आमेर जीत लिया और अपनी राजधानी मांची से आमेर ले आये 

काकिलदेव के बाद हणुदेव व जान्हड़देव आमेर के राजा बने जान्हड़देव के पुत्र पजवनराय हुए जो महँ योधा व सम्राट प्रथ्वीराज के सम्बन्धी व सेनापति थे संयोगिता हरण के समय प्रथ्विराज का पीछा करती कन्नोज की विशाल सेना को रोकते हुए पज्वन राय जी ने वीर गति प्राप्त की थी आमेर नरेश पज्वन राय जी के बाद लगभग दो सो वर्षों बाद उनके वंशजों में वि.सं. 1423 में राजा उदयकरण आमेर के राजा बने,राजा उदयकरण के पुत्रो से कछवाहों की शेखावत, नरुका व राजावत नामक शाखाओं का निकास हुवा उदयकरण जी के तीसरे पुत्र बालाजी जिन्हें बरवाडा की 12 गावों की जागीर मिली शेखावतों के आदि पुरुष थे बालाजी के पुत्र मोकलजी हुए और मोकलजी के पुत्र महान योधा शेखावाटी व शेखावत वंश के प्रवर्तक महाराव शेखाजी का जनम वि.सं. 1490 में हुवा वि. सं. 1502 में मोकलजी के निधन के बाद राव शेखाजी बरवाडा व नान के 24 गावों के स्वामी बने राव शेखाजी ने अपने साहस वीरता व सेनिक संगठन से अपने आस पास के गावों पर धावे मारकर अपने छोटे से राज्य को 360 गावों के राज्य में बदल दिया राव शेखाजी ने नान के पास अमरसर बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया और शिखर गढ़ का निर्माण किया राव शेखाजी के वंशज उनके नाम पर शेखावत कहलाये 

जिनमे अनेकानेक वीर योधा,कला प्रेमी व स्वतंत्रता सेनानी हुए शेखावत वंश जहाँ राजा रायसल जी,राव शिव सिंह जी, शार्दुल सिंह जी, भोजराज जी,सुजान सिंह आदि वीरों ने स्वतंत्र शेखावत राज्यों की स्थापना की वहीं बठोथ, पटोदा के ठाकुर डूंगर सिंह, जवाहर सिंह शेखावत ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष चालू कर शेखावाटी में आजादी की लड़ाई का बिगुल बजा दिया था शेखावत वंश के ही श्री भैरों सिंह जी भारत के उप राष्ट्रपति बने |

शेखावत वंश की शाखाएँ

* टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍- शेखा जी के ज्येष्ठ पुत्र दुर्गा जी के वंशज टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍ कहलाये !खोह,पिपराली,गुंगारा आदि इनके ठिकाने थे जिनके लिए यह दोहा प्रशिध है
खोह खंडेला सास्सी गुन्गारो ग्वालेर !
अलखा जी के राज में पिपराली आमेर !!
टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍ शेखावटी में त्यावली,तिहाया,ठेडी,मकरवासी,बारवा ,खंदेलसर,बाजोर व चुरू जिले में जसरासर,पोटी,इन्द्रपुरा,खारिया,बड्वासी,बिपर आदि गावों में निवास करते है !

* रतनावत शेखावत -महाराव शेखाजी के दुसरे पुत्र रतना जी के वंशज रतनावत शेखावत कहलाये इनका स्वामित्व बैराठ के पास प्रागपुर व पावठा पर था !हरियाणा के सतनाली के पास का इलाका रतनावातों का चालीसा कहा जाता है
*मिलकपुरिया शेखावत -शेखा जी के पुत्र आभाजी,पुरन्जी,अचलजी के वंशज ग्राम मिलकपुर में रहने के कारण मिलकपुरिया शेखावत कहलाये इनके गावं बाढा की ढाणी, पलथाना ,सिश्याँ,देव गावं,दोरादास,कोलिडा,नारी,व श्री गंगानगर के पास मेघसर है !

* खेज्डोलिया शेखावत -शेखा जी के पुत्र रिदमल जी वंशज खेजडोली गावं में बसने के कारण खेज्डोलिया शेखावत कहलाये !आलसर,भोजासर छोटा,भूमा छोटा,बेरी,पबाना,किरडोली,बिरमी,रोलसाहब्सर,गोविन्दपुरा,रोरू बड़ी,जोख,धोद,रोयल आदि इनके गावं है !
*बाघावत शेखावत - शेखाजी के पुत्र भारमल जी के बड़े पुत्र बाघा जी वंशज बाघावत शेखावत कहलाते है ! इनके गावं जेई पहाड़ी,ढाकास,सेनसर,गरडवा,बिजोली,राजपर,प्रिथिसर,खंडवा,रोल आदि है !

*सातलपोता शेखावत -शेखाजी के पुत्र कुम्भाजी के वंशज सातलपोता शेखावत कहलाते है !

*रायमलोत शेखावत -शेखाजी के सबसे छोटे पुत्र रायमल जी के वंशज रायमलोत शेखावत कहलाते है
इनकी भी कई शाखाएं व प्रशाखाएँ है जो इस प्रकार है !
-तेजसी के शेखावत -रायमल जी पुत्र तेज सिंह के वंशज तेजसी के शेखावत कहलाते है ये अलवर
जिले के नारायणपुर,गाड़ी मामुर और बान्सुर के परगने में के और गावौं में आबाद है !

-सहसमल्जी का शेखावत -- रायमल जी के पुत्र सहसमल जी के वंशज सहसमल जी का
शेखावत कहलाते है !इनकी जागीर में सांईवाड़ थी !
-जगमाल जी का शेखावत -जगमाल जी रायमलोत के वंशज जगमालजी का शेखावत कहलाते
है !इनकी १२ गावों की जागीर हमीरपुर थी जहाँ ये आबाद है

-सुजावत शेखावत -सूजा रायमलोत के पुत्र सुजावत शेखावत कहलाये !सुजाजी रायमल जी के
ज्यैष्ठ पुत्र थे जो अमरसर के राजा बने !
-लुनावत शेखावत :-लुन्करण जी सुजावत के वंशज लुन्करण जी का शेखावत कहलाते है इन्हें लुनावत शेखावत भी कहते है,इनकी भी कई शाखाएं है !
उग्रसेन जी का शेखावत ,अचल्दास का शेखावत,सावलदास जी का शेखावत,मनोहर दासोत शेखावत आदि !

-लुनावत शेखावत :-लुन्करण जी सुजावत के वंशज लुन्करण जी का शेखावत कहलाते है इन्हें लुनावत शेखावत भी कहते है,इनकी भी कई शाखाएं है !
उग्रसेन जी का शेखावत ,अचल्दास का शेखावत,सावलदास जी का शेखावत,मनोहर दासोत शेखावत आदि !

रायसलोत शेखावत :- लाम्याँ की छोटीसी जागीर जागीर से खंडेला व रेवासा का स्वतंत्र राज्य
स्थापित करने वाले राजा रायसल दरबारी के वंशज रायसलोत शेखावत कहलाये !राजा रायसल के १२
पुत्रों में से सात प्रशाखाओं का विकास हुवा जो इस प्रकार है !
A- लाड्खानी :- राजा रायसल जी के जेस्ठ पुत्र लाल सिंह जी के वंशज लाड्खानी कहलाते है
दान्तारामगढ़ के पास ये कई गावों में आबाद है यह क्षेत्र माधो मंडल के नाम से भी प्रशिध है
पूर्व उप राष्ट्रपति श्री भैरों सिंह जी इसी वंश से है !
B- रावजी का शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र तिर्मल जी के वंशज रावजी का शेखावत कहलाते है !
इनका राज्य सीकर,फतेहपुर,लछमनगढ़ आदि पर था !
C- ताजखानी शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र तेजसिंह के वंशज कहलाते है इनके गावं चावंङिया,
भोदेसर ,छाजुसर आदि है
D. परसरामजी का शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र परसरामजी के वंशज परसरामजी का शेखावत कहलाते है !
E. हरिरामजी का शेखावत :- हरिरामजी रायसलोत के वंशज हरिरामजी का शेखावत कहलाये !

. गिरधर जी का शेखावत :- राजा गिरधर दास राजा रायसलजी के बाद खंडेला के राजा बने
इनके वंशज गिरधर जी का शेखावत कहलाये ,जागीर समाप्ति से पहले खंडेला,रानोली,खूड,दांता आदि ठिकाने इनके आधीन थे !
G. भोजराज जी का शेखावत :- राजा रायसल के पुत्र और उदयपुरवाटी के स्वामी भोजराज के वंशज भोजराज जी का शेखावत कहलाते है ये भी दो उपशाखाओं के नाम से जाने जाते है,
१-शार्दुल सिंह का शेखावत ,२-सलेदी सिंह का शेखावत
*गोपाल जी का शेखावत - गोपालजी सुजावत के वंशज गोपालजी का शेखावत कहलाते है 
* भेरू जी का शेखावत - भेरू जी सुजावत के वंशज भेरू जी का शेखावत कहलाते है
* चांदापोता शेखावत - चांदाजी सुजावत के वंशज के वंशज चांदापोता शेखावत कहलाये.

गुरुवार, 24 सितंबर 2020

हाईफा रौ युद्ध

हाईफा रौ युद्ध 

-:  हाईफा दिवस :-
हाईफा रौ युद्ध  :-  २३ सितंबर १९१८
म्हारी आ नवीं कविता :- तोपा नै तलवारां सूं जीत्या हा ।
( हाईफा सहर जो इण बगत इजराइल में है उण सहर पर कबजौ तुर्की रौ हो अर अंग्रेजी हकुमत कई बार जीतण री कोसीस करी पण पार पड़ी कोनी क्यूंक हिफाजत में तुर्की सागै जर्मनी अर आस्ट्रेया री फोजा तोपा अर बंदूका सूं लेस तैनात ही पण अंग्रेज हाईफा नै ऐन-केन प्रकारेण कब्जावणौ चावा हा  इणी योजना रे कारण अंग्रेज ऐलकार जोधपुर रियासत आय-परा सर प्रताप सूं मिळया अर आ सलाह दी क आप  सैना रा हथियार बदलो क्यूंक अंग्रेजा री नजर मारवाड़ रा वीरां री वीरता पर ही इण कारण मदद वास्ते सैना में बदलाव री बात पर जोर दियो )

(सर-प्रताप सूं अंग्रेजी अफसर रो सवाल जबाब )

इण बेळयां करो बदलाव थै सैना में,
ऐ भाला तलवारा धिकै नहीं ।
दुस्मण री तोपां अर बंदूका सामीं, 
थांरी आ सैना टिकै नहीं । 

ल्यावौ थांरा सस्त्र पाती, 
अर लाव-लसकर भी ल्यावौ थाकां ।
म्हैं उतारां सैरां ने सामीं, 
तो जीतला ऐ रणबंका म्हाकां ।

म्हे कोनी आया लड़बा ताणी, 
कोई समझोतों करणौ है म्हाने थांसू ।
यूं तो म्हैं मूलक जीत्यो पण, 
अबतक जीतीज्यो कोनी हाईफो म्हां सूं ।

मदद करो थै आ म्हाकी, 
म्हैं थारै रगत रो मोल चुकावालां ।
जोधाणे ने देस्या धन दूणौ, 
थारै आडे बगत काम भी आवालां ।

( १९१८ में दौना पक्षा री हताई हुई अर मारवाड़ री फौज नै भैजण री बात तय हुई )

सर प्रताप राखी सरत ऐक, 
साधन थांका घोड़ा सस्त्र सैनिक म्हांका ।
ले जावण री करो तयारी, 
जबर जोध जीत ल्यावेला हाईफा थांका ।

हर ऐक टाळवां सैनिक हो, 
जिण री गिणती लसकर माहीं ठावां में ।
बै तिलक कढा ले सस्त्र, 
घोड़्या रे सागै जा बैठ्या अंगरेजा री नावां में ।

सात समदर पार करण ने बीर हुया, 
बै काले ताणी खेला हा आं गावां में ।
मरणा ने मंगळ जाणै, 
उण री गिणती हुया करे जग चावां में ।

पुगी फोज अंग्रेज धरा पर, 
सामान धरया निचे अर बांध्या घोड़ा ने खूटे।
मारवाड़ मे गरम्या रा घाण, 
अठै थर-थर धूजणी घोड़ा धणी दोन्या ने छुटे ।

( इंग्लैंड में ठंड रै कारण गूदड़ा में दुबक्योड़ा सैनिका नै अर ठंड सूं भैळा हुयोड़ा घोड़ा ने देख अंग्रेजी आला अफसर निरास हुया क ऐ कांई युद्ध में पार पड़ेला ! क्योंक हाईफा में बड़ण रौ संकडौ दर्रौ सामी तोप तणयोड़ी अर पाछलै पसवाड़ै भाखर ऊभी भींत जयूं खड़ौ अर दूसरो कोई रस्तौ कोनी, तौ भारत सूं गयोड़ा रसाला में मीन-मेख काढण लागा क्यूंक अंग्रेज ऐक बार और आपरी नाक कटण रा डर सूं अंग्रेज तुर्की री सैना सूं हाईफा री लड़ाई नै टाळण री जुगत में लाग्या )

क्यो घाल्या घोड़ा ने फोड़ा, 
घुड़दौड़ तो इंग्लिश घोड़ा री होवै तेज ।
पतळा है आंरा ऐ घोड़ा, 
कांई करस्या आंने हाइफा भेज ?

( उप सैनापति अमान सिह जी सूं सवाल-जबाब में घोड़ा रो बखाण अर अंग्रेजा री बात रो विरोध )
( बै थाकळ घोड़ा री खासयित बताई )

आगे-पाछै, दायां-बायां, 
चालो आ बात, म्हारा घोड़ा नै नहीं है केणा री ।
आ नस्ल मारवाड़ी असल, 
खुद दौड़ै दड़बड़ै जरूरत कोनी ऐडी देणा री ।

ऐ दुस्मण पर खुद लपकै,
ऐ घोड़ा सक्ल पिछाणै, दुस्मण अर सेणा री ।
ऐ असवारां रौ मन पढै,अर आगै बढै,
आं घोड़ा री आदत, मोत नै टापां हेटै देणा री ।

( तलवारां अर भाला पर अंग्रेज अफसर मोसा बोल्या )

बै खळकावे  तोपां सूं गोळा, 
अर थै लाय्या हो खिल्ला पाती ।
थै पाछा बावड़ल्यो,
हाइफो हाथ ना आवै, मोत आवेली थांकै पांती ।

आ बात सूणी, मना गुणी,
तो अमान रै आंख्यां आयौ रगत उतर ।
म्हैं जावां नहीं जींवता, 
म्हानै पाछा भेजण रौ, थैं सूणौ पड़ूतर ।

म्हैं आया बुलायोड़ा लड़बा ताणी, 
कोई जरूत कोनी कूड़ा बैणा री ।
अंग्रेजी अफसर पाछपग्या खिसक्या,
देखी रंगत राठौड़ी नेणा री ।

बिन सोच्या समझ्या म्हानै थै लाया क्यों,
ई आवण में फिटा म्है पड़स्या ।
पग पाछां देणी रातां, ना जण्या म्हानै माता,
लस्कर ने आगे म्हैं खड़स्यां ।

वीरगति हुवै म्हारी भली गति, इण बिद,
बंदूका तोपां आगे म्हैं अड़स्या ।
थानै मरबा को डर लागै, 
थै मना लड़ो, तुर्की सूं लड़ाई म्हैं लड़स्या ।

मात भवानी सिंवर परा, 
तिलक्या सस्त्र पछै, कसूमल किदो धारण ।
पाछा जावण रा दौ ही रस्ता,
मरा क मारा, तीजौ नहीं है कोई कारण ।

म्हे नहीं आया करबा देसाटण, 
म्हे आया हां बैरया नै मारण ।
भूल भरोसै बावड़ देखां, 
तो चुंट्या चुंटै चाम, म्हांका चारण ।

पांख पसार आसिस आप्यो मां,
जद निकल्या हा, केसरिया पेंचो रख माथे ।
पाछो मुड़ देखण रो लागे पाप,
म्हे लड़स्या, है मात भवानी म्हारे साथै ।

म्हैं भी जाणां हां, 
ऐ हाईफा रा रस्ता है बाकां है ।
पण पाछा जावण वाळा, 
ऐ बोल कूड़ा थाकां है ।

मत डरपौ थैं, 
म्हारै हाथां टुटे टैंका रा टांका है ।
सवा हाथ चौड़ी छाती, 
काळजा सवा सेर का म्हांका है ।

थे म्हाकौ इतिहास पढो, 
लिख्योड़ा उजळ आखर उजळ धोरां पर ।
आ सुण अंगरेजा जिद छोडी, 
आ दबक असर करगी अफसर गौरां पर ।

( आखिर में युद्ध रौ निर्णय हुयौ, त्यारां होवण लागी इण युद्ध में मैसूर, जोधपुर और हैदराबाद रा टाळवां सैनिक भी हा पण इण सैना री अगवाणी सेनापति दलपत सिंघ अर स-सेनापति अमान सिंघ जोधपुर रसालों करी अर ऐ दोन्यूं वीर मारवाड़ रै पाली जिला रा हा, फौजां हाईफा कानी रवाना हुई आ संसर में घुडसवारां री आखिरी लड़ाई ही अर आखिरी जीत ही )

घोड़ा संवारियां, 
सूर सज्या है आपै थापै ।
हिणहिणा घोड़ा, 
असवारा ने ऊभा भांपै ।

जोध जवान जीतण जोग, 
जगदम्बै जापै ।
फिरै-गिरै अंग्रेजी अफसर, 
वीरां री छाती नापै ।

घोड़ै चढ चाल्या तो, 
टापां सूं अंबर कांपै ।
बिजळ री गत घोड़ा, 
हाइफा रो रस्तो नापै ।

अंग्रेजां ने होग्यौ सक, 
ऐ चढगी फोजां उल्टे पासा ।
पण दलपत अमान ने, 
भुजबळ पर ही पूरी आसा ।

तोफानी सरणाटो ऊठै, 
दोड़त बोलें घोड़ा री नासां ।
दड़बड़यां घोड़ा री टापां, 
तो धूळ चढी ही आकासा ।

हाईफा रै नैड़ा पूग्या, 
तो अंग्रेज़ी अफसर हंसतौ हौ ।
नैणा रगत उतर आयौ, 
सस्त्रा री मूंठा, मूठ्ठी सूर कस्तौ हौ ।

द्ररा रै सामी तोप खड़ी, 
घूसण रौ संकड़ौ रस्तौ हौ ।
बाकी फौज खड़ी ही पाछै, 
आगै मारवाड़ रौ दस्तौ हौ ।

रण भूमि में रणखेत हुवां, 
म्हानै मोत मिठी आ लागै है ।
माँ री जयकर करी, हूंकार भरी,
ऐ मोत वरण करण में आगै है ।

( सैना री आधी टुकड़ी पाछै सूं भाखर पर चढी )

चढ्या सपाट परबत री पूठा,
दुस्मण अठा सूं गौळा दागै है ।
ऐ पाछा सूं जाय दबोच्या बानै,
क्यूंक दुस्मण रा मून्डा आगै है ।

चकबंगा होग्या देख मोत,
ऐ वीर यमराज ज्यूं लागै है ।
तोपा रा मूण्डा फेर दिया,
अब गोला उल्टा-सुल्टा दागै है ।

दुस्मण गोळ्यां री बौछाड़ करी, 
गोळ्या सामी छाती लागै है ।
मींच आंख्यां दुस्मण री छाती चढग्या, 
देखो, यूं जगदम्बा जागै है ।

भाला तलवारां यूं पळकी, 
मोत दुस्मण नै नैड़ी लागै है । 
पटक पछाड़्या तोपा सूं निचै, 
देखा, अब कुण गोळा दागै है ।

अणचीत री देख मौत नै, 
आ डरती तुर्की सैना भागै है।
मिनखां रै बात नहीं बसकी, 
आरैं तो मात भवानी सागै है ।

तोपा रे सामी भाला तरवारा, 
ताकत सूं खणकी ही ।
जोध जवना रे हिवड़ै, 
हूंस उठ्योड़ी रण की ही ।

तोपा रा तोपची हुया दिसा-हीण, 
क्यूंक चोटा भी मण-मण की ही ।
हथियार फैंक समरपण किदौ, 
मान्यौ, फौज मारवाड़ री टणकी ही ।

छाती पर सूरवीर गोळ्या झैली,
जीत ल्या पटकी अंग्रेजा रै खाता में ।
हाईफा रो हिरो दलपत सहिद हुयो, 
अब कमान अमान रै हाथां में ।

अब दुस्मण तौ हार मानली,
पड़्या जर्मन तुर्की सैनिक लाता में ।
आ लड़ाई ना लड़्ता, धोखौ रहतो,
ओ चक्कर चढगौ अंग्रेजा रै माथा में ।

ऐ रण-बांकुरा नही आता तो,
ना आतौ हाईफो म्हांकै हाथां में
अंग्रेज देख वीरता हुया बावळा,
अर भर लियौ अमान नै बाथां में ।

आज होवै आजाद हाईफा, 
गुलामी रा बरस चार सौ बित्या हा ।
लांठा लांघ्या नदी नाळा, 
अर दळ-दळ ने भी चिंत्या हा ।

पार पायगा परबत बै, 
जो सिधी ऊभी भींतयां हा ।
अणहोणी नै करदी होणी, 
तोंपा नै तलवारां सूं जीत्या हा ।

हाँ तोपा नै, तलवारां सूं जीत्या हा ।
                  .*****
इण युद्ध नै अंग्रेज आज भी ऐक अणहोणी ही माने है क्यूंक हाईफा में कई बार हार रा जख्म अंग्रेजा रै आज-तक दर्द करे है । 
हाईफा में घुसणौ अर तोप गोळा, बंदूका रे आगे तलवारां भाला सूं दौ तीन घड़ी में मात ऐक अजूबे सू कम कोनी ही, इण कारण अंग्रेज सरकार जोधपुर रियासत नै कौल मुजब धन दियो पण सैनिका नै भी ऐक बड़ी रकम बतोर ईनाम सर-प्रताप नै सौंपी । 
पण सर-प्रताप री निजर आगला बदलता बगत में पढाई री महत्ता पर ही, इण कारण व्है ई रकम रौ सद-ऊपयोग करण रौ मानस बणायौ आवण वाळी पिढयां रै सिक्षा खातर ऐक बड़ी स्कूल बणावणौ चावता हा । 
जद ओ प्रस्ताव सर-प्रताप रसाला रै सैनिका सामी रख्यौ क इण रकम सूं ऐक बड़ी स्कूल बणावां तो आप लोगां रो कांई विचार है ? इण बात रौ सैना सर-प्रताप रौ विरोध करयौ सर-प्रताप समझावण री खूब कोसीस करी पण रसाला रा सैनिक ताव में आयगा और सर-प्रताप पर पथराव कर दियो तो रियासत रा बडा-बडेरा बीच-बचाव सूं सांति करवाई पण रसाला री फोरी हरकत सूं नाराज सर-प्रताप चौपासनी में बड़ी स्कूल बणावण पर अड़्योड़ा हा, अर बणाई ।
आज सर-प्रताप री आवण वाळा बगत पर पढाई री जरूरत री नजर आ चौपासनी स्कूल ना जाणै मारवाड़ रा कितरा हीरा तरास परा मां भारती नै सुमप्यां हा अर बै मारवाड़ रा सपूत देस री हर क्षैत्र में सेवा करी अर करे है । 
पछमी राजस्थान अर मारवाड़ री आ संस्था हाईफा में बलिदान दियोड़ा वीरां लोही अर लड़ाई में भाग लियोड़ा वीर सैनिका रै पसेवा री कमाई आ चौपासनी स्कूल री इमारत आज भी सर-प्रताप री मूर्ति रै सागै मस्तक ऊंचौ करयां जोधपुर में आथूणै पसवाड़ै आज भी खड़ी है ।
आवौ आज २३ सितंबर है इण हाईफा दिवस माथै काळजा सूं आज आवौ उण वीर सपूता नै नमन करां ।
महेन्द्र सिंह भेरून्दा

मंगलवार, 15 सितंबर 2020

पाटण की रानी रुदाबाई

पाटण की रानी रुदाबाई 

इतिहास की वीरता की सत्य घटना- 
पाटण की रानी रुदाबाई जिसने सुल्तान बेघारा के सीने को फाड़ कर दिल निकाल लिया था, और कर्णावती शहर के बिच में टांग दिया था, ओर धड से सर अलग करके पाटन राज्य के बीचोबीच टांग दिया था।

गुजरात से कर्णावती के राजा थे, 
राणा वीर सिंह सोलंकी ईस राज्य ने कई तुर्क हमले झेले थे, पर कामयाबी किसी को नहीं मिली, सुल्तान बेघारा ने सन् 1497 पाटण राज्य पर हमला किया राणा वीर सिंह सोलंकी के पराक्रम के सामने सुल्तान बेघारा की 40000 से अधिक संख्या की फ़ौज 
२ घंटे से ज्यादा टिक नहीं पाई, सुल्तान बेघारा जान बचाकर भागा। 

असल मे कहते है सुलतान बेघारा की नजर रानी रुदाबाई पे थी, रानी बहुत सुंदर थी, वो रानी को युद्ध मे जीतकर अपने हरम में रखना चाहता था। सुलतान ने कुछ वक्त बाद फिर हमला किया। 

राज्य का एक साहूकार इस बार सुलतान बेघारा से जा मिला, और राज्य की सारी गुप्त सूचनाएं सुलतान को दे दी, इस बार युद्ध मे राणा वीर सिंह सोलंकी को सुलतान ने छल से हरा दिया जिससे राणा वीर सिंह उस युद्ध मे वीरगति को प्राप्त हुए। 

सुलतान बेघारा रानी रुदाबाई को अपनी वासना का शिकार बनाने हेतु राणा जी के महल की ओर 10000 से अधिक लश्कर लेकर पंहुचा, रानी रूदा बाई के पास शाह ने अपने दूत के जरिये निकाह प्रस्ताव रखा,

रानी रुदाबाई ने महल के ऊपर छावणी बनाई थी जिसमे 2500 धर्धारी वीरांगनाये थी, जो रानी रूदा बाई का इशारा पाते ही लश्कर पर हमला करने को तैयार थी, सुलतान बेघारा को महल द्वार के अन्दर आने का न्यौता दिया गया। 

सुल्तान बेघारा वासना मे अंधा होकर वैसा ही किया जैसे ही वो दुर्ग के अंदर आया राणी ने समय न गंवाते हुए सुल्तान बेघारा के सीने में खंजर उतार दिया और उधर छावनी से तीरों की वर्षा होने लगी जिससे शाह का लश्कर बचकर वापस नहीं जा पाया। 

सुलतान बेघारा का सीना फाड़ कर रानी रुदाबाई ने कलेजा निकाल कर कर्णावती शहर के बीचोबीच लटकवा दिया।

और..उसके सर को धड से अलग करके पाटण राज्य के बिच टंगवा दिया साथ ही यह चेतावनी भी दी की कोई भी आक्रांता भारतवर्ष पर या हिन्दू नारी पर बुरी नज़र डालेगा तो उसका यही हाल होगा। 

इस युद्ध के बाद रानी रुदाबाई ने राजपाठ सुरक्षित हाथों में सौंपकर कर जल समाधि ले ली, ताकि कोई भी तुर्क आक्रांता उन्हें अपवित्र न कर पाए। 

ये देश नमन करता है रानी रुदाबाई को, गुजरात के लोग तो जानते होंगे इनके बारे में। ऐसे ही कोई क्षत्रिय और क्षत्राणी नहीं होता, हमारे पुर्वज और विरांगानाये ऐसा कर्म कर क्षत्रिय वंश का मान रखा है और धर्म बचाया है। 


सोमवार, 14 सितंबर 2020

मोलासर ( मारवाड़ ) की बाजरी

मोलासर ( मारवाड़ ) की बाजरी 
भारत का सर्वश्रेष्ठ अनाज - मुग़ल शासक !
मुग़ल शासक अकबर ने जब मीना बाज़ार में नोरोज का मेला लगाना शुरू किया तब वह एक दिन भारत के अलग अलग प्रान्त के अनाज को देखकर,  सबसे श्रेष्ठ अनाज के बारे में पुछवाया । तब वज़ीरों हाकिमों बावरचियो व्यापारियों ने मारवाड़ ( राजस्थान ) के गेहूँ को श्रेष्ठ बताया । 
मुग़ल शासक अहमदशाह के समय नागौर के राजा बखतसिंह जी जो मुग़ल मनसबदार थे तथा जब वे आगरा में थे तब एक दिन बादशाह ने उनसे उनके बलिष्ठ बदन का राज पूछा तब राजा बखत सिंह जी ने कहा की मोलासर की बाजरी का राज है । इस पर बादशाह ने मोलासर की बाजरी के भोजन का आदेश दिया तब राजा बखतसिंह जी ने कहाँ की ताज़े आटे की रोटी ( सोगरा ) मोलासर की गाय या भैंस के ताज़े दूध दही ओर मक्खन के साथ तथा नागौर की ज़ाटनी के हाथ का पिसा हुवा , उन्ही का बनाया भोजन होना चाहिये । देसी केर सांगरी कुमट व गवारफली की सब्ज़ी के साथ ये भोजन ग्रहण करे, 
बादशाह के आदेश पर राजा बखतसिंह जी के डेरे से सभी व्यवस्था की गयी बादशाह ने आदेश दिया की मोलासर की बाजरी सरकार में ख़रीद की जाये। इस तरह रातों रात मोलासर की बाजरी के भाव बढ़ गये सदियों तक राजस्थान की बाजरी मोलासर की बाजरी के नाम से बिकती रही । 
कहते है बादशाह भोजन के पश्चात बहुत ख़ुश हुवा । उसने आदेश किया की उसके शाही रसोडे में इसकी व्यवस्था की जाये ।मोलासर के दो होशियार जाट अपनी अौरतौ व गाय - भेंसो समेत बादशाही नोकर हो गये । 
मारवाड़ के प्रसिद्ध इतिहासकार जगदीश सिंह गहलोत ने भी इस घटना का उल्लेख अपनी पुस्तक मारवाड़ राज्य के इतिहास में किया है वे लिखते है की मोलासर के दोनो  जाट परिवार राजा को ख़ुफ़िया जानकारी भी देते थे । 
आज भी मारवाड़ के रेगिस्तान में होने वाली बाजरी सबसे अच्छा अनाज है जिसने किसी प्रकार की मिलावट नहीं होती क्योंकि न तो इसमें किसी दवाई का छिड़काव होता है ओर ना हीं मिलावट । लाखों टन बाजरी की पैदावार होती जो केवल वर्षा पर निर्भर है । ये वे खेत है जहाँ केवल वर्षा काल में ही खेती होती है । सरकार ओर जैविक(ओरगेनिक )अनाज के चाहने वाले यदि इस अनाज को मोलासर की बाजरी की तरह महत्त्व दे तो लाखों किसानो को अनाज के उचित दाम मिल सकते है ।  सब्ज़ियों में केर सांगरी  पूरी तरह जैविक (ओरगेनिक )है ।आज केवल राजा बखतसिंह जी के जैसी सोच वाले जन प्रतिनिधियों किसानो ओर नोकरशाही की ज़रूरत है।
बाजरी पोषक से भरपूर है इसमें विटामिन खनिज आदि सभी पदार्थ है जो शरीर को निरोगी बनाता है । अनेक बीमारियों से बचाता है । 42 डिग्री से अधिक तापमान में भी इसकी खेती की जा सकती है । आज दुनिया के विद्वान ओर वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार कर चुके है । अब देरी किस बात की है भाइयों स्वदेशी अपनाओ ओर स्वस्थ रहो ।
जय मारवाड़ जय राजस्थानी 
जय बाजरी !
किसी ने सच ही कहा है —-

आकड़े की झोंपड़ी फोगन की बाड़
बाजरी का सोगरा मोठन की दाल 
देखी राजा मानसिंघ थारी मारवाड़

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

उंटाला का युद्ध - मेवाड़ का इतिहास

सलूंबर चूंडावत राजाओं का शासन रहा । चूंडावत सरदार मेवाड़ महाराणा के हरावल दल की सेना नेतृत्व किया करते थे।

यहां चूंडावत सरदार की वीरता का का अद्भुत शौर्य रहा हैं जैसे. "उंटाला का युद्ध"...... महाराणा अमर सिंह जी इतिहास प्रसिद्ध महाराणा प्रताप के पुत्र थे! महाराणा प्रताप की मृत्यु के बाद महाराणा अमर सिंह जी भी पिता की भांति मेवाड़ को स्वतंत्र कराने के लिए बादशाह अकबर से लड़ते रहे! उन्होंने मेवाड़ के सभी दुर्गों और गांवों को मुगलों के पंजे से मुक्त कराने के लिए अपना प्रयत्न जोर-शोर से जारी रखा! इन दुर्गों में उटाला का प्रसिद्ध किला भी थ!

ऊटाला गढ़,  राजधानी उदयपुर से 39 कि.मी.  पूर्व दिशा में स्थित है!( जो वर्तमान में वल्लभनगर के नाम से जाना जाता है) इसके चारों और मजबूत परकोटा बना हुआ है! इसके ऊपरी भाग में एक-दो  बुर्ज व बाकी चारों और दीवार बनी हुई है!  परकोटे की नींव को स्पर्श करती हुई नदी बहती है!  गढ के मध्य में दुर्ग रक्षक का महल बना हुआ है! जिसके चारों तरफ खाई खुदी हुई है! गढ में प्रवेश के लिए केवल एक द्वार है!
राजस्थान का इतिहासिक देश तथा धर्म पर बलिदान होने की घटनाओं से भरा पड़ा है! युद्ध के लिए इस समय सेना में सबसे आगे रहने और बलिदान का सबसे पहले अवसर पाने की घटनाएं कम ही मिलती है! इसे ‘हरावल’  कहां जाता था! इस तरह की एक घटना 1600 ई. में मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह जी के राज काल में घटी!
ऊटाला को जिस तरह मुगलों से महाराणा अमर सिंह जी ने पुन : जीतकर लिया वह वीरता की एक अनोखी कहानी हो गई थी , महाराणा अमर सिंह जी ने ऊटाला के थानेदार कायम खा पर चढ़ाई की और गांव को घेर लिया! बादशाह और महाराणा अमर सिंह जी की सेना के मध्य जमकर लड़ाई हुई जिसमें दोनों दलों के सैकड़ों योद्धा मारे गये! कायम खा को खुद महाराणा अमर सिंह जी ने मार गिराया, शाही फौज भाग गई और जाकर ऊँटाला के घर में शरण ली और भीतर से गढ़ का किवाड़ बंद कर लिया! गढ जीतना मुश्किल हो गया था! इस पर महाराणा अमर सिंह जी ने अपने साथियों को उत्साहित किया और चुंडावतों तथा शक्तावत सरदारों के बीच चला आ रहा झगड़ा भी सदा के लिए निपटाने का निश्चय किया ! यह झगड़ा यह था, कि हरावल यानि कि युद्ध में सबसे पहले कौन बलिदान देगा!

मेवाड़ की सेना में विशेष पराक्रमी होने के कारण चुंडावत वीरो को ही हरावल (युद्ध में लड़ते समय सेना की अग्रिम पंक्ति) में रहने का गौरव प्राप्त था, और वे उसे अपना अधिकार समझते थे! हरावल में रहना उस समय बड़ी इज्जत की बात समझी जाती थी! उस समय तक हरावल में चुंडावत ही रहते आए थे!  किंतु शक्तावत वीर  भी कम परा कर्मी नहीं थे! क्योंकि महाराणा  प्रताप के अनुज महाराज शक्ति सिंह जी के  पुत्र भाणजी,  अचलदास जी, बल्लू जी, दलपत जी , शक्तावत काफी शक्तिशाली होकर उबर गए थे! एवं उनके हृदय में भी यह अरमान जागृत हुआ की युद्ध के क्षेत्र में मृत्यु से  पहला मुकाबला हमारा होना चाहिए! अपनी इस  महत्वाकांक्षा को महाराणा अमर सिंह जी के समक्ष रखते हुए शक्तावत वीरों ने कहा कि चुंडावतों से त्याग बलिदान वह बहादुरी मैं हम किसी भी प्रकार कम नहीं है! अत: शक्तावतो  को भी हरावल मैं रहने का हक जताया है तब चुंडावतों ने महाराणा से निवेदन किया कि जब तक हम जीवित हैं हमारा स्थान कोई दूसरा प्राप्त नहीं कर सकता यदि इसके विपरीत हुआ तो हम कट मरेंगे महाराणा ने फरमाया कि आपस में लड़ाई झगड़ा करने की आवश्यकता नहीं है! महाराणा अमर सिंह जी इस विवाद से दुविधा में पड़ गए! वे शक्तावतो  और चुंडावतों के आपस की लड़ाई से मेवाड़ की शक्ति और मातृभूमि को कमजोर नहीं होने देना चाहते थे दोनों ही पक्षों को महाराणा बड़ी इज्जत की निगाह से देखते थे  अंत हरावल मैं रहने का अधिकार किसे मिलना चाहिए !  मृत्यु से पाणि-ग्रहण  के लिए होने वाली इस अद्भुत प्रतिस्पर्धा को देख कर महाराणा अमर सिंह जी धर्म संकट में पड़ गए! किस पक्ष को अधिक पराक्रमी मानकर हरावल में रहने का अधिकार दिया जाए! इसका निर्णय करने के लिए उन्होंने एक कसौटी तय की जिसके अनुसार यह निश्चय किया गया कि दोनों दल ‘ऊटाला’  दुर्ग ( जो शहजादा  जहांगीर के अधीन था) पर प्रथक दिशा से एक साथ आक्रमण करेंगे वह जिस दल का व्यक्ति पहले दुर्ग में प्रवेश कर जाएगा उसे ही हरावल मैं रहने का अधिकार दिया जाएगा!
महाराणा कि यह राय  दोनों दल के योद्धाओं को पसंद आई वह दोनों ही दल ऊटाले  किले के लिए कुच की तैयारी करने लगे! शक्तावतो  की टोली के मुखिया  बल्लू सिंह थे! शेर जैसी चाल से चलते तो देखने वालों का मन  मोह लेते, हमेशा मरने मारने को तैयार रहते!
ऊटाले के किले मै प्रवेश करने के लिए ‘ शक्तावत सेना अपने सरदार रावत बल्लू जी शक्तावत के नेतृत्व में किले के मुख्य द्वार पर जा पहुंची और चुंडावत सरदार रावत जात सिंह जी अपने साथियों शहित किले की दीवार के नीचे जा डटे! बस! फिर क्या था! प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए मौत को ललकारते हुए दोनों ही दलों के रण-बॉकुरे वीरों ने ऊटाला दुर्ग पर आक्रमण कर दिया! शक्तावत वीर दुर्ग के मुख्य द्वार के पास पहुंच कर उसे तोड़ने का प्रयास करने लगे तो चुंडावत वीरों ने समीप दुर्ग की दीवार पर सीढ़ियां कबंध डालकर उस पर चढ़ने का प्रयास शुरू किया! गढ की दीवार से मुगल सिपाही पत्थर, गोलिया और तीर बरसा रहे थे! बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा रहा था, चारों ओर मौत दिखाई दे रही थी! मुख्य द्वार पर बल्लू जी शक्तावत ने तेज आवाज में अपने हाथी के महावत से कहा-‘ ‘ महावत! हाथी से पोल (दरवाजे) के किवाड़ तुडवा! हाथी को टक्कर देने के लिए आगे बढ़ाया तो किवाड मैं लगे हुए तीक्ष्ण शुलो से सहम कर हाथी पीछे हट गया! हाथी मुकना ( बिना दांत वाला) होने से और गढ के किवाड़ों मैं लोहे के बड़े-बड़े मजबूत और तीक्ष्ण किले होने से हाथी किवाडो पर मोहरा ना कर सका! यह देख शक्तावतो के सरदार बल्लू जी शक्तावत खुद अद्भुत बलिदान का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए किवाड़ के शुलो पर पीठ अडा कर खड़े हो गये, जिससे कि हाथी शुलो के भय से पीछे ना हटे! उनकी आंखें लाल हो गई! आवेश के साथ उन्होंने महावत से फिर कहा-‘ अब क्या देखते हो महावत! हाथी को मेरे बदन पर हुल दो! ‘ ‘

इस दृश्य को देखकर सभी सैनिक अचंभित रह गए और कोई कुछ समझ नहीं पा रहा था इतने में बल्लू सिंह जी ने चिल्ला कर कहा आज मैं अपने रक्त के बलिदान से मातृभूमि और मेवाड़ की भूमि का श्रृंगार करूंगा मातृभूमि को अपने रक्त से सीचूगा! आज प्रथम बलिदान से मुझे कोई नहीं रोक सकता है! एक बार तो महावत सहम गया! किंतु फिर वीर बल्लू जी ने मृत्यु से जी भयानक क्रोध  पूर्ण आदेश करते हुए  महावत  को ललकार कर कहा कि हाथी को अब हमारे ऊपर हूल दे! जिससे गढ़ के किवाड़ टूट जाए!
बल्लू जी का आदेश सुनते ही महावत अवाक रह गया एक और उसके स्वामी की मौत थी और दूसरी और मालिक आदेश! वह यह सोच ही रहा था कि उसे  बल्लू जी की रोषपूण  आवाज फिर सुनाई दी! यदि हमारी आज्ञा का पालन नहीं करोगे तो तुझ को अभी जान से मार डालूंगा! महावत कॉप गया!  हाथी टक्कर मारे तो सरदार की मौत निश्चित है! लेकिन बल्लू जी ने महावत को हिचकते देख कहा देखता नहीं चुंडावत दुग  पर चढ़े जा रहे हैं! तुझे  शक्तावतो की आन! हाथी हुल!!
महावत भयभीत होकर उनकी आज्ञा का उल्लंघन ना कर सका और इस बार महावत को आदेश का पालन करने में जरा भी देर ना लगी! उसने हाथी के मस्तक में बलपूर्वक अकुश मारा  जिसके लगते ही हाथी ने भयंकर चिगाडा  मार कर जोर से बल्लू जी की छाती पर अपने सिर से मोहरा  किय!  जिससे गढ के मजबूत किवाड़ टुकड़े टुकड़े होकर तत्काल टूट गए! बल्लू जी का शरीर  तीक्ष्ण किलो  से बिध गये  और वीरता बलिदान के पुजारी बल्लू सिंह जी वीरगति को प्राप्त हो गए किवाड़ के गिरते ही शक्तावतो की फौज किले में घुस गई और मुगलों से भयंकर लड़ाई छिड़ गई!
दूसरी ओर सलूंबर के जैत सिंह जी चुंडावत के नेतृत्व मैं उनका दल निसैनी (सीढिया)  कब बंद डालकर किले पर चढ़ने  का प्रयत्न कर रहा था! मेवाड़ में जब भी महाराणा की गद्दी नशीनी  होती है, तब चुंडावतों के रक्त से सबसे पहले महाराणा का राजतिलक लगाया जाता है फौज की हरावल मैं भी चुंडावत ही रहते आए थे इस दल के नेता रावत जेत सिंह जी अपने युद्ध कौशल के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध थे! वीरता उनमें कूट कूट  के भरी थी उनकी वीरता और साहस के सामने अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छक्के छूट जाते थे! जब उन्हें पता चला कि शक्तावत किले के द्वार से गढ़  मैं प्रवेश का प्रयत्न कर रहे हैं और जब रावत जैत सिंह जी ने बल्लू जी के बदन पर हाथी को हूलते देखा तो वह तुरंत ही सीढी लाकर किले की दीवार पर चढ़ने लगे! जैत सिंह जी  किले की दीवार के कंगूरों तक पहुंच गए थे कि दुश्मन के बंदूक की गोली अचानक उनके सीने में आग लगी लेकिन गिरते-गिरते उन्होंने अपने साथियों से चिल्ला कर कहा की जल्दी से उनका सिर काटकर किले में फेंक दो (उन्होंने पहले दुर्ग में पहुंचने  की शर्त को जीतने के उद्देश्य से) उनके साथी हिचकी लेकिन जैसे ही उन्होंने हुकार भर कर  कहा कि मातृभूमि पर सर्वप्रथम बलिदान होने का स्थान मैं किसी दूसरे को नहीं लेने दूंगा! जल्दी करो मेरा सिर काटकर मातृभूमि के चरणों में समर्पित कर दो उनके आदेश की पालना कोई और उनके एक साथी भरे मन से  उनका सिर काटकर किले के अंदर फेंक दिया (मातृभूमि के चरणों में  समर्पित कर दिया)
फिर सीढियो  से चुंडावत किले पर चढ़ गए! शक्तावत भी किले के किवाड  तोड़कर भीतर चले आए! और बाद में किले के अंदर पहुंच कर दुश्मनों को गाजर मूली की तरह काटने लगे! दुर्ग में घमासान युद्ध हुआ बहुत से शाही सैनिक मारे गए एवं पकड़ लिए गए! उससे पहले ही चुंडावत सरदार का कटा हुआ मस्तक दुर्ग के अंदर मौजूद था! इस प्रकार चुंडावतों ने अपना हरावल मैं रहने का अधिकार अद्भुत बलिदान देकर कायम रखा! चुंडावत सरदार का कटा सिर  किले के भीतर शक्तावतो  से पहले पहुंच गया! महाराणा की सेना में हरावल का अधिकार चुंडावतों के पास वंश  परंपरा से था और सुरक्षित रह गया किंतु कहना किसी के लिए सरल कहां है कि शक्तावत और चुंडावत सरदारों में अधिक वीर कौन था!
इस लड़ाई में रावत जैत सिंह जी   शक्तावत (सलूंबर), बल्लू जी (अचल दास जी के लघु भ्राता), रावत तेज सिंह जी खंगारोत (अठाला) के सिवाय और भी बहुत से बहादुर रणभूमि में काम आये!  मेवाड़ का ध्वज ऊटाले  के किले पर फिर फहरा दिया गया! देश जाति एवं कुल की मर्यादा की रक्षा के लिए हंसते हंसते प्राण देने वाले वे वीर धन्य हैं ऐसे वीरों को उत्पन्न करने वाली भारत भूमि धन्य है!
जब बाकरोल के जागीरदार ऊटाला  की विजय का समाचार लेकर महाराणा के पास हाजिर हुए तो महाराणा अमर सिंह जी शीघ्र ऊटाले आये!  वहां पर रणक्षेत्र मैं अपने वीर क्षत्रियों की लाशें  चहूं और पड़ी हुई देखी!  उन्होंने कहा ” हे वीर योद्धाओं”  मेवाड़ी धरा आपकी हमेशा ऋणी रहेगी!
हरावल में रहने का अधिकार किसका रहा यह विवाद का विषय नहीं हो सकता, क्योंकि किले में प्रवेश का प्रश्न खुद की प्रतिष्ठा का न होकर मातृभूमि के लिए प्रथम बलिदान होने का स्थान हासिल करने का था, और किसने हासिल किया यह भी विचार का विषय नहीं है, प्रश्न तो यह है, किस क्षत्रियों ने मातृभूमि के लिए कैसे कैसे बलिदान दिए, कैसे-कैसे रक्त बहाया, जैत सिंह जी  चुंडावत और बल्लू सिंह जी शक्तावत जैसे वीरयोद्धा की वीरता, उनका साहस, उनका त्याग और बलिदान ही तो वर्तमान पीढ़ी की धरोहर है जो हमें सदा प्रेरणा देती रहेगी!

रविवार, 6 सितंबर 2020

क्षत्राणी की जल समाधि

क्षत्राणी की जल समाधि

वैसे तो हमारे इतिहास राजपूतों के त्याग और दान बलिदा

न से भरे पड़े है.... आपको सन 1971 की एक सत्य घटना से आपको अवगत कराता हुँ... चंबल नदी के किनारे एक गाँव था जो #सिकरवार राजपूतों का गाँव था ..... जिसमे एक ठकुराइन (क्षत्राणी ) रहती थी ... उसके पति दूसरे विश्व युद्ध में शहीद हो गये थे और पुत्र जय वीर सिंह सन 1965 के युद्ध मैं शहीद हो गया था....||

जय वीर सिंह अपने पीछे एक 12 वर्षीय पुत्र व पत्नी शारदा को छोड़ गये थे...जय वीर के शहीद होने के छह महीने बाद उनकी पत्नी स्वर्ग सिधार गई...अब परिवार में केवल जयवीर का पुत्र व माँ बचे थे.... सन 1971 में युद्ध के बादल फ़िर गर्जने लगे तो भारत माता ने राजपूतों को फिर आवाज़ लगाई... तो भारत माता की रक्षा के लिए राजपूतों के खून ने उबाल मारा और सेना में भरती होने के लिए आगरा चल दिए....जय वीर का किशोर पुत्र सूर्य भान भी अपने गाँव के साथियों के साथ आया था...  संयोग देखिए सेना का भर्ती अधिकारी भी वो ही मेजर था ... जिसकी बटालियन मैं जयवीर सिंह था और वो उसकी बहुत इज्जत करता था... उसने सूर्य भान को पहचान लिया और अपने पास बुलाया व घर का हाल चाल पूछा तो सूर्य भान ने सब कुछ बता दिया...||

मेजर ने पूछा अब घर में कौन कौन है....तो सूर्यभान ने बताया मेरे अलावा बूढ़ी दादी है...सारा हाल जानने के बाद मेजर बोला की सूर्य भान हम तुमको भर्ती नही कर पायेंगे तुम घर जाओ और अपनी दादी की सेवा करो... वहा से सूर्य भान वापिस घर आया.. उधर उसकी दादी बड़ी खुश बैठी थी की उसका पोता सेना में भर्ती हो कर देश की सेवा करेगा...सूर्य भान ने घर आकर दादी को सारा हाल बताया तो दादी बोली कोई बात नही है तुझे सेना में भर्ती होने से कोई नही रोक सकता...जा खाना खाकर सो जा..||

दूसरे दिन दादी जगी नहा धोकर मंदिर गई और वहा से गाँव के लोगों को बुलावा भेज दिया...गाँव में दादी की बड़ी इज्जत थी सारा गाँव मंदिर पर इकठ्ठा हो गया...सारा गाँव दादी को ठकुराइन कहकर बुलाता था... ठकुराइन ने सारी बात गाँव वालो को बताई और कहा की जाकर उस मेजर से कहना वो मेरी सेवा की जरूरत परवाह ना करें....इसकी ज़रूरत नही पड़ेगी वो केवल भारत माता की सेवा के बारे में सोचें... मेरी सेवा से बड़ी सेवा भारत माता की सेवा है क्योकि वो मेरी भी माता है हम सब की माता है....||

इतना कह कर ठकुराइन चंबल नदी के गहरे पानी में चली गई और जल समाधि ले ली... गाँव के आठ दस आदमी सूर्यभान को लेकर उस मेजर के पास पहुँचे और सारा हाल सुनाया तो वहा जितने भी लोगों ने ये सारा हाल सुना तो उनकी आँखों से अश्रुओं की धारा बह निकली...मेजर ने खड़े होकर सूर्यभान को अपने गले से लगाया और बोला ऐसी राजपूत माताओं ने राजपूत शेरों को जन्म दिया है और देती रहेंगी... राजपूतों ने हमेसा अपनी तलवार की धार से इतिहास लिखा है और लिखते रहेगे...||

जय हो ऐसी बलिदानी माँ की इतिहास गवाह है हमारे देश में औरतों को जगत जननी इस लिए ही कहा जाता है...आप से निवेदन ये एक सत्य घटना है इसे ज़्यादा से ज़्यादा शेयर करें और इस देश के नौंजवान को अवगत कराये की राजपूत क्या है...|