मंगलवार, 27 अक्टूबर 2020

स्वांगिया/भादरिया राय माता

वंश_कुलदेवी_दर्शन (स्वांगिया/भादरिया राय माता)

यदुवंशी_भाटियों_की_कुलदेवी_स्वांगीया_जी

देवी स्वांगिया का इतिहास बहुत पुराना है। भगवती आवड़ के पूर्वज सिन्ध में निवास करने वाले सउवा शाखा के चारण थे जो गायें पालते और घी व घोडों का व्यापार करते थे। मांड प्रदेश (जैसलमेर) के चेलक गांव में चेला नामक एक चारण आकर रहे। उसके वंश में मामड़िया जी चारण हुए जिसने संतान प्राप्ति के लिए सात बार हिंगलाज माता धाम की यात्रा की तब विक्रमी सम्वत् 808 में सात कन्याओं के रूप में देवी हिंगलाज ने मामड़िया के घर में जन्म लिया। इनमें बडी कन्या का नाम आवड़ रखा गया। आवड़ की अन्य बहिनों के नाम आशी, सेसी, गेहली, हुली, रूपां और लांगदे था। अकाल पडने पर ये कन्याएँ अपने माता-पिता के साथ सिन्ध में जाकर हाकड़ा नदी पाकिस्तान के किनारे पर रहीं। पहले इन कन्याओं ने सूत कातने का कर्म किया। इसलिए ये कल्याणी देवी कहलाई। फिर आवड़ देवी की पावन यात्रा और जनकल्याण की अद्भुत घटनाओं के साथ ही क्रमशः सात मन्दिरों का निर्माण हुआ और समग्र मांड प्रदेश में आवड माता के प्रति लोगों की आस्था बढती गई|
देवी का प्रतीक रुप स्वांग(भाला) व सुगन चिड़ी है। ये प्रतीक जैसलमेंर के राज्य चिन्ह में विद्यमान है। आजादी से पहले तक जैसलमेर के शासक दशहरा, दीपावली के दिन अपने घोड़ों को सजाते समय चांदी या सोने की चिड़िया बनाकर शक्ति के प्रतीक को बैठा कर पूजा करते थे| जैसलमेर के सिक्कों पट्टो-परवानो, स्टांपो, तोरणो आदि पर शुगन चिड़ी की आकृतियों का अंकन किया जाता था |

स्वांगिया या आवड़ माता के ये सात मन्दिर निम्नलिखित हैं –

 (1) तनोट राय मन्दिर:- 
राव तनु ने 8 वी शताब्दी में निर्माण करवाया।
इस स्थान पर मोहम्मद बिन कासिम, हुसैनशाह पठान, लंगाहो, वराहों,यवनों जोइयों व खीचियों ने कई आक्रमण किए। तनोट के शासक  विजयराव ने  देवी के प्रताप से ईरान के शाह व खुरासान के शाह को पराजित कर कुल 22 युद्ध जीते। 
सिंध के मुसलमान ने जब विजयराव पर आक्रमण किया तो देवी से प्रार्थना की कि अगर विजयी हुआ तो अपना मस्तक देवी को अर्पित करेगा। युद्ध में देवी ने विजयराव की मदद की और राव की विजय हुई। इस पर वह मंदिर में जाकर तलवार से अपना मस्तक काटने लगा तो देवी प्रकट हो गई और बोले कि मैनै तेरी पूजा मान ली और अपनी हाथ की सोने की चूड़ उतार🎂 कर दी। यही विजयराव इतिहास में #विजयराव_चूंडाला के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 1965 ई व 1971 ई में पाकिस्तान से युद्ध हुआ। सभी युद्धों में देवी के प्रताप से विजय मिली। 1965 ई के बाद BSF द्वारा पूजा अर्चना की जाती है।
जहाँ 1965 ई में पाकिस्तान के गिराए 300 बम बेअसर हुए थे। देवी की कृपा से पाकिस्तान के सैनिक रात के अंधेरे में आपस में लड़.कर मारे गए। इस समय पाकिस्तान ने 150 किमी तक कब्जा कर लिया था।
तनोट देवी को #थार_की_वैष्णों_देवी भी कहा जाता है। BSF की एक यूनिट का नाम तनोट वारियर्स है। 

 (2) घंटियाली राय मंदिरः– तनोट से 5 KM की दूरी पर दक्षिण-पूर्व में है। वीरधवल नामक पुजारी को नवरात्र के दिनों में देवी ने शेरनी के रूप में दर्शन दिए जिसके गले में घंटी बंधी थी। 1965 ई में पाकिस्तानी सैनिकों ने इस मंदिर की मूर्तियों को खंडित किया था। जिन्हें देवी ने मृत्यु दंड दिया।

 (3) श्री देगराय मन्दिर - जैसलमेर के पूर्व में देगराय जलाशय पर स्थित है। महारावल अखैसिह ने इस नवीन मंदिर का निर्माण करवाया था। देवियों ने महिष के रुप में विचरण कर रहे दैत्य को मारकर उसी के सिर का देग बनाकर उससे रक्तपान किया।
यहाँ रात को नगाड़ों व घुघरुओं की ध्वनि सुनाई देती है। कभी कभी दीपक स्वतः ही प्रज्ज्वलित हो जाता है।

 (4) भादरियाराय का मन्दिर:- इसका निर्माण महारावल गजसिंह जी ने #बासणपी_की_लडाई जीतने के पश्चात  करवाया और अपनी रानी व मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह की पुत्री रुपकंवर के साथ जाकर मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई।
महारावल शालीवाहन ने देवी को चांदी का भव्य सिंहासन अर्पित किया। सिंहासन के ऊपर जैसलमेर का राज्यचिन्ह उत्कीर्ण है जिसे महारावल शालीवाहन सिंह ने भेंट चढा़या।  फिर जवाहरसिंह ने इसका जीर्णोद्धार करवाया। 
शक्तियो ने वहादरिया ग्वाले को परचा दिया । वहादरिया के निवेदन करने पर देवी ने यहीं निवास किया। इसी कारण वाहदरिया भादरिया नाम से प्रसिद्ध हुआ। राव तणु ने यहाँ पहुंच कर देवियों के दर्शन किए। इस स्थान को आधुनिक रूप संत हरिवंश राय निर्मल ने दिया ।यहाँ पर विशाल गौशाला व एशिया का सबसे बडा़ भूमिगत पुस्तकालय स्थित है। यहाँ पर एक विश्वविद्यालय बनना भी प्रस्तावित है। महाराज ने शिक्षा, पर्यावरण, नशामुक्ति, चिकित्सा एवमं स्वास्थ्य के क्षेत्र में बेहतर काम किया । कन्या भ्रूण हत्या, दहेज, बाल विवाह का सदा विरोध किया। यहाँ का शक्ति और सरस्वती का अनूठा संगम अन्यत्र दुर्लभ है।

(5) श्री तेमड़ेराय मंदिर :- जैसलमेर के दक्षिण में गरलाउणे पहाड़ की कंदरा में बना हुआ है। इसका निर्माण महारावल केहर ने करवाया था। केहर ने मंदिर की पहाड़ी के नीचे एक सरोवर का निर्माण करवाया तथा सरोवर के निकट दो परसाले भी बनवाई । यहां देवी की पूजा छछुन्दरी के रुप में होती है। चारण इसे द्वितीय हिंगलाज मानते है। महारावल अमरसिंह ने तेमडेराय पहाड़ की पाज बंधाई,मंदिर के सामने बुर्ज, पगोथिये व उस पर बंगला बनवाया। महारावल जसवंतसिंह ने परसाल व बुर्ज का निर्माण करवाया व प्रतिष्ठा करवाई। महारावल जवाहरसिंह ने इसके निज मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। यहाँ शक्तियों ने तेमड़ा नामक दैत्य का वध किया था। बीकानेर महाराजा रायसिंह जी ने अपनी रानी व जैसलमेर की राजकुमारी गंगाकुमारी के साथ यहां की यात्रा की और देवी ने नागिणियों के रुप में दर्शन दिए तो रायसिंह ने मंदिर के सामने खंभो वाला देवल बनाया।
करणी माता भी तेमडेराय की परम भक्त थी। इसलिए कुछ लोग करणी जी को स्वांगीया का अवतार भी मानते है।

(6) स्वांगिया माता गजरूप सागर मन्दिर :- यह गजरुप सागर तालाब के पास समतल पहाडी पर निर्मित मंदिर. जिसका निर्माण महारावल गजसिंह ने करवाया था। वे प्रातःकाल उठते ही किले से देवी के दर्शन करते है।

(7) श्री काले डूंगरराय मन्दिर:-जैसलमेर से 25किमी दूर इस मंदिर का जीर्णोद्धार महारावल जवाहरसिंह ने निर्माण कराया।
काले रंग के पहाड़ पर स्थित है। सिंध का मुसलमान इन कन्याओं से बलात विवाह करना चाहता था। सिंध से लौटने समय देवी ने हाकड़ा से मार्ग मांगा परंतु हाकडा के मार्ग नहीं देने पर  देवी के चमत्कार से हाकडा़ नदी का पानी सुख गया। इसके पश्चात शक्तियां कुछ समय यहां भी रही थी।

 जय माँ कुलदेवी

जठै यादवों राज जोरे जमाया।
वठै जा करी जोगणी छत्र छाया।।

जय माँ स्वांगीया 🚩🙏

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2020

कछवाह क्षत्रिय वंश - शेखावत

कछवाह क्षत्रिय वंश - शेखावत

शेखावत सूर्यवंशी कछवाह क्षत्रिय वंश की एक शाखा है देशी राज्यों के भारतीय संघ में विलय से पूर्व मनोहरपुर,शाहपुरा, खंडेला,सीकर, खेतडी,बिसाऊ,सुरजगढ़,नवलगढ़, मंडावा,मुकन्दगढ़, दांता,खुड,खाचरियाबास,दूंद्लोद,अलसीसर,मलसिसर,रानोली आदि प्रभाव शाली ठिकाने शेखावतों के अधिकार में थे जो शेखावाटी नाम से प्रशिध है वर्तमान में शेखावाटी की भौगोलिक सीमाएं सीकर और झुंझुनू दो जिलों तक ही सीमित है भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज कछवाह कहलाये महाराजा कुश के वंशजों की एक शाखा अयोध्या से चल कर साकेत आयी, साकेत से रोहतास गढ़ और रोहताश से मध्य प्रदेश के उतरी भाग में निषद देश की राजधानी पदमावती आये रोहतास गढ़ का एक राजकुमार तोरनमार मध्य प्रदेश आकर वाहन के राजा गौपाल का सेनापति बना और उसने नागवंशी राजा देवनाग को पराजित कर राज्य पर अधिकार कर लिया और सिहोनियाँ को अपनी राजधानी बनाया कछवाहों के इसी वंश में सुरजपाल नाम का एक राजा हुवा जिसने ग्वालपाल नामक एक महात्मा के आदेश पर उन्ही नाम पर गोपाचल पर्वत पर ग्वालियर दुर्ग की नीवं डाली महात्मा ने राजा को वरदान दिया था कि जब तक तेरे वंशज अपने नाम के आगे पाल शब्द लगाते रहेंगे यहाँ से उनका राज्य नष्ट नहीं होगा सुरजपाल से 84 पीढ़ी बाद राजा नल हुवा जिसने नलपुर नामक नगर बसाया और नरवर के प्रशिध दुर्ग का निर्माण कराया नरवर में नल का पुत्र ढोला (सल्ह्कुमार) हुवा

जो राजस्थान में प्रचलित ढोला मारू के प्रेमाख्यान का प्रशिध नायक है उसका विवाह पुन्गल कि राजकुमारी मार्वणी के साथ हुवा था, ढोला के पुत्र लक्ष्मण हुवा, लक्ष्मण का पुत्र भानु और भानु के परमप्रतापी महाराजाधिराज बज्र्दामा हुवा जिसने खोई हुई कछवाह राज्यलक्ष्मी का पुनः उद्धारकर ग्वालियर दुर्ग प्रतिहारों से पुनः जित लिया बज्र्दामा के पुत्र मंगल राज हुवा जिसने पंजाब के मैदान में महमूद गजनवी के विरुद्ध उतरी भारत के राजाओं के संघ के साथ युद्ध कर अपनी वीरता प्रदर्शित की थी मंगल राज दो पुत्र किर्तिराज व सुमित्र हुए,किर्तिराज को ग्वालियर व सुमित्र को नरवर का राज्य मिला सुमित्र से कुछ पीढ़ी बाद सोढ्देव का पुत्र दुल्हेराय हुवा जिनका विवाह dhundhad के मौरां के चौहान राजा की पुत्री से हुवा था
दौसा पर अधिकार करने के बाद दुल्हेराय ने मांची,bhandarej खोह और झोट्वाडा पर विजय पाकर सर्वप्रथम इस प्रदेश में कछवाह राज्य की नीवं डाली मांची में इन्होने अपनी कुलदेवी जमवाय माता का मंदिर बनवाया वि.सं. 1093 में दुल्हेराय का देहांत हुवा दुल्हेराय के पुत्र काकिलदेव पिता के उतराधिकारी हुए जिन्होंने आमेर के सुसावत जाति के मीणों का पराभव कर आमेर जीत लिया और अपनी राजधानी मांची से आमेर ले आये 

काकिलदेव के बाद हणुदेव व जान्हड़देव आमेर के राजा बने जान्हड़देव के पुत्र पजवनराय हुए जो महँ योधा व सम्राट प्रथ्वीराज के सम्बन्धी व सेनापति थे संयोगिता हरण के समय प्रथ्विराज का पीछा करती कन्नोज की विशाल सेना को रोकते हुए पज्वन राय जी ने वीर गति प्राप्त की थी आमेर नरेश पज्वन राय जी के बाद लगभग दो सो वर्षों बाद उनके वंशजों में वि.सं. 1423 में राजा उदयकरण आमेर के राजा बने,राजा उदयकरण के पुत्रो से कछवाहों की शेखावत, नरुका व राजावत नामक शाखाओं का निकास हुवा उदयकरण जी के तीसरे पुत्र बालाजी जिन्हें बरवाडा की 12 गावों की जागीर मिली शेखावतों के आदि पुरुष थे बालाजी के पुत्र मोकलजी हुए और मोकलजी के पुत्र महान योधा शेखावाटी व शेखावत वंश के प्रवर्तक महाराव शेखाजी का जनम वि.सं. 1490 में हुवा वि. सं. 1502 में मोकलजी के निधन के बाद राव शेखाजी बरवाडा व नान के 24 गावों के स्वामी बने राव शेखाजी ने अपने साहस वीरता व सेनिक संगठन से अपने आस पास के गावों पर धावे मारकर अपने छोटे से राज्य को 360 गावों के राज्य में बदल दिया राव शेखाजी ने नान के पास अमरसर बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया और शिखर गढ़ का निर्माण किया राव शेखाजी के वंशज उनके नाम पर शेखावत कहलाये 

जिनमे अनेकानेक वीर योधा,कला प्रेमी व स्वतंत्रता सेनानी हुए शेखावत वंश जहाँ राजा रायसल जी,राव शिव सिंह जी, शार्दुल सिंह जी, भोजराज जी,सुजान सिंह आदि वीरों ने स्वतंत्र शेखावत राज्यों की स्थापना की वहीं बठोथ, पटोदा के ठाकुर डूंगर सिंह, जवाहर सिंह शेखावत ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष चालू कर शेखावाटी में आजादी की लड़ाई का बिगुल बजा दिया था शेखावत वंश के ही श्री भैरों सिंह जी भारत के उप राष्ट्रपति बने |

शेखावत वंश की शाखाएँ

* टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍- शेखा जी के ज्येष्ठ पुत्र दुर्गा जी के वंशज टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍ कहलाये !खोह,पिपराली,गुंगारा आदि इनके ठिकाने थे जिनके लिए यह दोहा प्रशिध है
खोह खंडेला सास्सी गुन्गारो ग्वालेर !
अलखा जी के राज में पिपराली आमेर !!
टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍ शेखावटी में त्यावली,तिहाया,ठेडी,मकरवासी,बारवा ,खंदेलसर,बाजोर व चुरू जिले में जसरासर,पोटी,इन्द्रपुरा,खारिया,बड्वासी,बिपर आदि गावों में निवास करते है !

* रतनावत शेखावत -महाराव शेखाजी के दुसरे पुत्र रतना जी के वंशज रतनावत शेखावत कहलाये इनका स्वामित्व बैराठ के पास प्रागपुर व पावठा पर था !हरियाणा के सतनाली के पास का इलाका रतनावातों का चालीसा कहा जाता है
*मिलकपुरिया शेखावत -शेखा जी के पुत्र आभाजी,पुरन्जी,अचलजी के वंशज ग्राम मिलकपुर में रहने के कारण मिलकपुरिया शेखावत कहलाये इनके गावं बाढा की ढाणी, पलथाना ,सिश्याँ,देव गावं,दोरादास,कोलिडा,नारी,व श्री गंगानगर के पास मेघसर है !

* खेज्डोलिया शेखावत -शेखा जी के पुत्र रिदमल जी वंशज खेजडोली गावं में बसने के कारण खेज्डोलिया शेखावत कहलाये !आलसर,भोजासर छोटा,भूमा छोटा,बेरी,पबाना,किरडोली,बिरमी,रोलसाहब्सर,गोविन्दपुरा,रोरू बड़ी,जोख,धोद,रोयल आदि इनके गावं है !
*बाघावत शेखावत - शेखाजी के पुत्र भारमल जी के बड़े पुत्र बाघा जी वंशज बाघावत शेखावत कहलाते है ! इनके गावं जेई पहाड़ी,ढाकास,सेनसर,गरडवा,बिजोली,राजपर,प्रिथिसर,खंडवा,रोल आदि है !

*सातलपोता शेखावत -शेखाजी के पुत्र कुम्भाजी के वंशज सातलपोता शेखावत कहलाते है !

*रायमलोत शेखावत -शेखाजी के सबसे छोटे पुत्र रायमल जी के वंशज रायमलोत शेखावत कहलाते है
इनकी भी कई शाखाएं व प्रशाखाएँ है जो इस प्रकार है !
-तेजसी के शेखावत -रायमल जी पुत्र तेज सिंह के वंशज तेजसी के शेखावत कहलाते है ये अलवर
जिले के नारायणपुर,गाड़ी मामुर और बान्सुर के परगने में के और गावौं में आबाद है !

-सहसमल्जी का शेखावत -- रायमल जी के पुत्र सहसमल जी के वंशज सहसमल जी का
शेखावत कहलाते है !इनकी जागीर में सांईवाड़ थी !
-जगमाल जी का शेखावत -जगमाल जी रायमलोत के वंशज जगमालजी का शेखावत कहलाते
है !इनकी १२ गावों की जागीर हमीरपुर थी जहाँ ये आबाद है

-सुजावत शेखावत -सूजा रायमलोत के पुत्र सुजावत शेखावत कहलाये !सुजाजी रायमल जी के
ज्यैष्ठ पुत्र थे जो अमरसर के राजा बने !
-लुनावत शेखावत :-लुन्करण जी सुजावत के वंशज लुन्करण जी का शेखावत कहलाते है इन्हें लुनावत शेखावत भी कहते है,इनकी भी कई शाखाएं है !
उग्रसेन जी का शेखावत ,अचल्दास का शेखावत,सावलदास जी का शेखावत,मनोहर दासोत शेखावत आदि !

-लुनावत शेखावत :-लुन्करण जी सुजावत के वंशज लुन्करण जी का शेखावत कहलाते है इन्हें लुनावत शेखावत भी कहते है,इनकी भी कई शाखाएं है !
उग्रसेन जी का शेखावत ,अचल्दास का शेखावत,सावलदास जी का शेखावत,मनोहर दासोत शेखावत आदि !

रायसलोत शेखावत :- लाम्याँ की छोटीसी जागीर जागीर से खंडेला व रेवासा का स्वतंत्र राज्य
स्थापित करने वाले राजा रायसल दरबारी के वंशज रायसलोत शेखावत कहलाये !राजा रायसल के १२
पुत्रों में से सात प्रशाखाओं का विकास हुवा जो इस प्रकार है !
A- लाड्खानी :- राजा रायसल जी के जेस्ठ पुत्र लाल सिंह जी के वंशज लाड्खानी कहलाते है
दान्तारामगढ़ के पास ये कई गावों में आबाद है यह क्षेत्र माधो मंडल के नाम से भी प्रशिध है
पूर्व उप राष्ट्रपति श्री भैरों सिंह जी इसी वंश से है !
B- रावजी का शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र तिर्मल जी के वंशज रावजी का शेखावत कहलाते है !
इनका राज्य सीकर,फतेहपुर,लछमनगढ़ आदि पर था !
C- ताजखानी शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र तेजसिंह के वंशज कहलाते है इनके गावं चावंङिया,
भोदेसर ,छाजुसर आदि है
D. परसरामजी का शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र परसरामजी के वंशज परसरामजी का शेखावत कहलाते है !
E. हरिरामजी का शेखावत :- हरिरामजी रायसलोत के वंशज हरिरामजी का शेखावत कहलाये !

. गिरधर जी का शेखावत :- राजा गिरधर दास राजा रायसलजी के बाद खंडेला के राजा बने
इनके वंशज गिरधर जी का शेखावत कहलाये ,जागीर समाप्ति से पहले खंडेला,रानोली,खूड,दांता आदि ठिकाने इनके आधीन थे !
G. भोजराज जी का शेखावत :- राजा रायसल के पुत्र और उदयपुरवाटी के स्वामी भोजराज के वंशज भोजराज जी का शेखावत कहलाते है ये भी दो उपशाखाओं के नाम से जाने जाते है,
१-शार्दुल सिंह का शेखावत ,२-सलेदी सिंह का शेखावत
*गोपाल जी का शेखावत - गोपालजी सुजावत के वंशज गोपालजी का शेखावत कहलाते है 
* भेरू जी का शेखावत - भेरू जी सुजावत के वंशज भेरू जी का शेखावत कहलाते है
* चांदापोता शेखावत - चांदाजी सुजावत के वंशज के वंशज चांदापोता शेखावत कहलाये.

गुरुवार, 24 सितंबर 2020

हाईफा रौ युद्ध

हाईफा रौ युद्ध 

-:  हाईफा दिवस :-
हाईफा रौ युद्ध  :-  २३ सितंबर १९१८
म्हारी आ नवीं कविता :- तोपा नै तलवारां सूं जीत्या हा ।
( हाईफा सहर जो इण बगत इजराइल में है उण सहर पर कबजौ तुर्की रौ हो अर अंग्रेजी हकुमत कई बार जीतण री कोसीस करी पण पार पड़ी कोनी क्यूंक हिफाजत में तुर्की सागै जर्मनी अर आस्ट्रेया री फोजा तोपा अर बंदूका सूं लेस तैनात ही पण अंग्रेज हाईफा नै ऐन-केन प्रकारेण कब्जावणौ चावा हा  इणी योजना रे कारण अंग्रेज ऐलकार जोधपुर रियासत आय-परा सर प्रताप सूं मिळया अर आ सलाह दी क आप  सैना रा हथियार बदलो क्यूंक अंग्रेजा री नजर मारवाड़ रा वीरां री वीरता पर ही इण कारण मदद वास्ते सैना में बदलाव री बात पर जोर दियो )

(सर-प्रताप सूं अंग्रेजी अफसर रो सवाल जबाब )

इण बेळयां करो बदलाव थै सैना में,
ऐ भाला तलवारा धिकै नहीं ।
दुस्मण री तोपां अर बंदूका सामीं, 
थांरी आ सैना टिकै नहीं । 

ल्यावौ थांरा सस्त्र पाती, 
अर लाव-लसकर भी ल्यावौ थाकां ।
म्हैं उतारां सैरां ने सामीं, 
तो जीतला ऐ रणबंका म्हाकां ।

म्हे कोनी आया लड़बा ताणी, 
कोई समझोतों करणौ है म्हाने थांसू ।
यूं तो म्हैं मूलक जीत्यो पण, 
अबतक जीतीज्यो कोनी हाईफो म्हां सूं ।

मदद करो थै आ म्हाकी, 
म्हैं थारै रगत रो मोल चुकावालां ।
जोधाणे ने देस्या धन दूणौ, 
थारै आडे बगत काम भी आवालां ।

( १९१८ में दौना पक्षा री हताई हुई अर मारवाड़ री फौज नै भैजण री बात तय हुई )

सर प्रताप राखी सरत ऐक, 
साधन थांका घोड़ा सस्त्र सैनिक म्हांका ।
ले जावण री करो तयारी, 
जबर जोध जीत ल्यावेला हाईफा थांका ।

हर ऐक टाळवां सैनिक हो, 
जिण री गिणती लसकर माहीं ठावां में ।
बै तिलक कढा ले सस्त्र, 
घोड़्या रे सागै जा बैठ्या अंगरेजा री नावां में ।

सात समदर पार करण ने बीर हुया, 
बै काले ताणी खेला हा आं गावां में ।
मरणा ने मंगळ जाणै, 
उण री गिणती हुया करे जग चावां में ।

पुगी फोज अंग्रेज धरा पर, 
सामान धरया निचे अर बांध्या घोड़ा ने खूटे।
मारवाड़ मे गरम्या रा घाण, 
अठै थर-थर धूजणी घोड़ा धणी दोन्या ने छुटे ।

( इंग्लैंड में ठंड रै कारण गूदड़ा में दुबक्योड़ा सैनिका नै अर ठंड सूं भैळा हुयोड़ा घोड़ा ने देख अंग्रेजी आला अफसर निरास हुया क ऐ कांई युद्ध में पार पड़ेला ! क्योंक हाईफा में बड़ण रौ संकडौ दर्रौ सामी तोप तणयोड़ी अर पाछलै पसवाड़ै भाखर ऊभी भींत जयूं खड़ौ अर दूसरो कोई रस्तौ कोनी, तौ भारत सूं गयोड़ा रसाला में मीन-मेख काढण लागा क्यूंक अंग्रेज ऐक बार और आपरी नाक कटण रा डर सूं अंग्रेज तुर्की री सैना सूं हाईफा री लड़ाई नै टाळण री जुगत में लाग्या )

क्यो घाल्या घोड़ा ने फोड़ा, 
घुड़दौड़ तो इंग्लिश घोड़ा री होवै तेज ।
पतळा है आंरा ऐ घोड़ा, 
कांई करस्या आंने हाइफा भेज ?

( उप सैनापति अमान सिह जी सूं सवाल-जबाब में घोड़ा रो बखाण अर अंग्रेजा री बात रो विरोध )
( बै थाकळ घोड़ा री खासयित बताई )

आगे-पाछै, दायां-बायां, 
चालो आ बात, म्हारा घोड़ा नै नहीं है केणा री ।
आ नस्ल मारवाड़ी असल, 
खुद दौड़ै दड़बड़ै जरूरत कोनी ऐडी देणा री ।

ऐ दुस्मण पर खुद लपकै,
ऐ घोड़ा सक्ल पिछाणै, दुस्मण अर सेणा री ।
ऐ असवारां रौ मन पढै,अर आगै बढै,
आं घोड़ा री आदत, मोत नै टापां हेटै देणा री ।

( तलवारां अर भाला पर अंग्रेज अफसर मोसा बोल्या )

बै खळकावे  तोपां सूं गोळा, 
अर थै लाय्या हो खिल्ला पाती ।
थै पाछा बावड़ल्यो,
हाइफो हाथ ना आवै, मोत आवेली थांकै पांती ।

आ बात सूणी, मना गुणी,
तो अमान रै आंख्यां आयौ रगत उतर ।
म्हैं जावां नहीं जींवता, 
म्हानै पाछा भेजण रौ, थैं सूणौ पड़ूतर ।

म्हैं आया बुलायोड़ा लड़बा ताणी, 
कोई जरूत कोनी कूड़ा बैणा री ।
अंग्रेजी अफसर पाछपग्या खिसक्या,
देखी रंगत राठौड़ी नेणा री ।

बिन सोच्या समझ्या म्हानै थै लाया क्यों,
ई आवण में फिटा म्है पड़स्या ।
पग पाछां देणी रातां, ना जण्या म्हानै माता,
लस्कर ने आगे म्हैं खड़स्यां ।

वीरगति हुवै म्हारी भली गति, इण बिद,
बंदूका तोपां आगे म्हैं अड़स्या ।
थानै मरबा को डर लागै, 
थै मना लड़ो, तुर्की सूं लड़ाई म्हैं लड़स्या ।

मात भवानी सिंवर परा, 
तिलक्या सस्त्र पछै, कसूमल किदो धारण ।
पाछा जावण रा दौ ही रस्ता,
मरा क मारा, तीजौ नहीं है कोई कारण ।

म्हे नहीं आया करबा देसाटण, 
म्हे आया हां बैरया नै मारण ।
भूल भरोसै बावड़ देखां, 
तो चुंट्या चुंटै चाम, म्हांका चारण ।

पांख पसार आसिस आप्यो मां,
जद निकल्या हा, केसरिया पेंचो रख माथे ।
पाछो मुड़ देखण रो लागे पाप,
म्हे लड़स्या, है मात भवानी म्हारे साथै ।

म्हैं भी जाणां हां, 
ऐ हाईफा रा रस्ता है बाकां है ।
पण पाछा जावण वाळा, 
ऐ बोल कूड़ा थाकां है ।

मत डरपौ थैं, 
म्हारै हाथां टुटे टैंका रा टांका है ।
सवा हाथ चौड़ी छाती, 
काळजा सवा सेर का म्हांका है ।

थे म्हाकौ इतिहास पढो, 
लिख्योड़ा उजळ आखर उजळ धोरां पर ।
आ सुण अंगरेजा जिद छोडी, 
आ दबक असर करगी अफसर गौरां पर ।

( आखिर में युद्ध रौ निर्णय हुयौ, त्यारां होवण लागी इण युद्ध में मैसूर, जोधपुर और हैदराबाद रा टाळवां सैनिक भी हा पण इण सैना री अगवाणी सेनापति दलपत सिंघ अर स-सेनापति अमान सिंघ जोधपुर रसालों करी अर ऐ दोन्यूं वीर मारवाड़ रै पाली जिला रा हा, फौजां हाईफा कानी रवाना हुई आ संसर में घुडसवारां री आखिरी लड़ाई ही अर आखिरी जीत ही )

घोड़ा संवारियां, 
सूर सज्या है आपै थापै ।
हिणहिणा घोड़ा, 
असवारा ने ऊभा भांपै ।

जोध जवान जीतण जोग, 
जगदम्बै जापै ।
फिरै-गिरै अंग्रेजी अफसर, 
वीरां री छाती नापै ।

घोड़ै चढ चाल्या तो, 
टापां सूं अंबर कांपै ।
बिजळ री गत घोड़ा, 
हाइफा रो रस्तो नापै ।

अंग्रेजां ने होग्यौ सक, 
ऐ चढगी फोजां उल्टे पासा ।
पण दलपत अमान ने, 
भुजबळ पर ही पूरी आसा ।

तोफानी सरणाटो ऊठै, 
दोड़त बोलें घोड़ा री नासां ।
दड़बड़यां घोड़ा री टापां, 
तो धूळ चढी ही आकासा ।

हाईफा रै नैड़ा पूग्या, 
तो अंग्रेज़ी अफसर हंसतौ हौ ।
नैणा रगत उतर आयौ, 
सस्त्रा री मूंठा, मूठ्ठी सूर कस्तौ हौ ।

द्ररा रै सामी तोप खड़ी, 
घूसण रौ संकड़ौ रस्तौ हौ ।
बाकी फौज खड़ी ही पाछै, 
आगै मारवाड़ रौ दस्तौ हौ ।

रण भूमि में रणखेत हुवां, 
म्हानै मोत मिठी आ लागै है ।
माँ री जयकर करी, हूंकार भरी,
ऐ मोत वरण करण में आगै है ।

( सैना री आधी टुकड़ी पाछै सूं भाखर पर चढी )

चढ्या सपाट परबत री पूठा,
दुस्मण अठा सूं गौळा दागै है ।
ऐ पाछा सूं जाय दबोच्या बानै,
क्यूंक दुस्मण रा मून्डा आगै है ।

चकबंगा होग्या देख मोत,
ऐ वीर यमराज ज्यूं लागै है ।
तोपा रा मूण्डा फेर दिया,
अब गोला उल्टा-सुल्टा दागै है ।

दुस्मण गोळ्यां री बौछाड़ करी, 
गोळ्या सामी छाती लागै है ।
मींच आंख्यां दुस्मण री छाती चढग्या, 
देखो, यूं जगदम्बा जागै है ।

भाला तलवारां यूं पळकी, 
मोत दुस्मण नै नैड़ी लागै है । 
पटक पछाड़्या तोपा सूं निचै, 
देखा, अब कुण गोळा दागै है ।

अणचीत री देख मौत नै, 
आ डरती तुर्की सैना भागै है।
मिनखां रै बात नहीं बसकी, 
आरैं तो मात भवानी सागै है ।

तोपा रे सामी भाला तरवारा, 
ताकत सूं खणकी ही ।
जोध जवना रे हिवड़ै, 
हूंस उठ्योड़ी रण की ही ।

तोपा रा तोपची हुया दिसा-हीण, 
क्यूंक चोटा भी मण-मण की ही ।
हथियार फैंक समरपण किदौ, 
मान्यौ, फौज मारवाड़ री टणकी ही ।

छाती पर सूरवीर गोळ्या झैली,
जीत ल्या पटकी अंग्रेजा रै खाता में ।
हाईफा रो हिरो दलपत सहिद हुयो, 
अब कमान अमान रै हाथां में ।

अब दुस्मण तौ हार मानली,
पड़्या जर्मन तुर्की सैनिक लाता में ।
आ लड़ाई ना लड़्ता, धोखौ रहतो,
ओ चक्कर चढगौ अंग्रेजा रै माथा में ।

ऐ रण-बांकुरा नही आता तो,
ना आतौ हाईफो म्हांकै हाथां में
अंग्रेज देख वीरता हुया बावळा,
अर भर लियौ अमान नै बाथां में ।

आज होवै आजाद हाईफा, 
गुलामी रा बरस चार सौ बित्या हा ।
लांठा लांघ्या नदी नाळा, 
अर दळ-दळ ने भी चिंत्या हा ।

पार पायगा परबत बै, 
जो सिधी ऊभी भींतयां हा ।
अणहोणी नै करदी होणी, 
तोंपा नै तलवारां सूं जीत्या हा ।

हाँ तोपा नै, तलवारां सूं जीत्या हा ।
                  .*****
इण युद्ध नै अंग्रेज आज भी ऐक अणहोणी ही माने है क्यूंक हाईफा में कई बार हार रा जख्म अंग्रेजा रै आज-तक दर्द करे है । 
हाईफा में घुसणौ अर तोप गोळा, बंदूका रे आगे तलवारां भाला सूं दौ तीन घड़ी में मात ऐक अजूबे सू कम कोनी ही, इण कारण अंग्रेज सरकार जोधपुर रियासत नै कौल मुजब धन दियो पण सैनिका नै भी ऐक बड़ी रकम बतोर ईनाम सर-प्रताप नै सौंपी । 
पण सर-प्रताप री निजर आगला बदलता बगत में पढाई री महत्ता पर ही, इण कारण व्है ई रकम रौ सद-ऊपयोग करण रौ मानस बणायौ आवण वाळी पिढयां रै सिक्षा खातर ऐक बड़ी स्कूल बणावणौ चावता हा । 
जद ओ प्रस्ताव सर-प्रताप रसाला रै सैनिका सामी रख्यौ क इण रकम सूं ऐक बड़ी स्कूल बणावां तो आप लोगां रो कांई विचार है ? इण बात रौ सैना सर-प्रताप रौ विरोध करयौ सर-प्रताप समझावण री खूब कोसीस करी पण रसाला रा सैनिक ताव में आयगा और सर-प्रताप पर पथराव कर दियो तो रियासत रा बडा-बडेरा बीच-बचाव सूं सांति करवाई पण रसाला री फोरी हरकत सूं नाराज सर-प्रताप चौपासनी में बड़ी स्कूल बणावण पर अड़्योड़ा हा, अर बणाई ।
आज सर-प्रताप री आवण वाळा बगत पर पढाई री जरूरत री नजर आ चौपासनी स्कूल ना जाणै मारवाड़ रा कितरा हीरा तरास परा मां भारती नै सुमप्यां हा अर बै मारवाड़ रा सपूत देस री हर क्षैत्र में सेवा करी अर करे है । 
पछमी राजस्थान अर मारवाड़ री आ संस्था हाईफा में बलिदान दियोड़ा वीरां लोही अर लड़ाई में भाग लियोड़ा वीर सैनिका रै पसेवा री कमाई आ चौपासनी स्कूल री इमारत आज भी सर-प्रताप री मूर्ति रै सागै मस्तक ऊंचौ करयां जोधपुर में आथूणै पसवाड़ै आज भी खड़ी है ।
आवौ आज २३ सितंबर है इण हाईफा दिवस माथै काळजा सूं आज आवौ उण वीर सपूता नै नमन करां ।
महेन्द्र सिंह भेरून्दा

मंगलवार, 15 सितंबर 2020

पाटण की रानी रुदाबाई

पाटण की रानी रुदाबाई 

इतिहास की वीरता की सत्य घटना- 
पाटण की रानी रुदाबाई जिसने सुल्तान बेघारा के सीने को फाड़ कर दिल निकाल लिया था, और कर्णावती शहर के बिच में टांग दिया था, ओर धड से सर अलग करके पाटन राज्य के बीचोबीच टांग दिया था।

गुजरात से कर्णावती के राजा थे, 
राणा वीर सिंह सोलंकी ईस राज्य ने कई तुर्क हमले झेले थे, पर कामयाबी किसी को नहीं मिली, सुल्तान बेघारा ने सन् 1497 पाटण राज्य पर हमला किया राणा वीर सिंह सोलंकी के पराक्रम के सामने सुल्तान बेघारा की 40000 से अधिक संख्या की फ़ौज 
२ घंटे से ज्यादा टिक नहीं पाई, सुल्तान बेघारा जान बचाकर भागा। 

असल मे कहते है सुलतान बेघारा की नजर रानी रुदाबाई पे थी, रानी बहुत सुंदर थी, वो रानी को युद्ध मे जीतकर अपने हरम में रखना चाहता था। सुलतान ने कुछ वक्त बाद फिर हमला किया। 

राज्य का एक साहूकार इस बार सुलतान बेघारा से जा मिला, और राज्य की सारी गुप्त सूचनाएं सुलतान को दे दी, इस बार युद्ध मे राणा वीर सिंह सोलंकी को सुलतान ने छल से हरा दिया जिससे राणा वीर सिंह उस युद्ध मे वीरगति को प्राप्त हुए। 

सुलतान बेघारा रानी रुदाबाई को अपनी वासना का शिकार बनाने हेतु राणा जी के महल की ओर 10000 से अधिक लश्कर लेकर पंहुचा, रानी रूदा बाई के पास शाह ने अपने दूत के जरिये निकाह प्रस्ताव रखा,

रानी रुदाबाई ने महल के ऊपर छावणी बनाई थी जिसमे 2500 धर्धारी वीरांगनाये थी, जो रानी रूदा बाई का इशारा पाते ही लश्कर पर हमला करने को तैयार थी, सुलतान बेघारा को महल द्वार के अन्दर आने का न्यौता दिया गया। 

सुल्तान बेघारा वासना मे अंधा होकर वैसा ही किया जैसे ही वो दुर्ग के अंदर आया राणी ने समय न गंवाते हुए सुल्तान बेघारा के सीने में खंजर उतार दिया और उधर छावनी से तीरों की वर्षा होने लगी जिससे शाह का लश्कर बचकर वापस नहीं जा पाया। 

सुलतान बेघारा का सीना फाड़ कर रानी रुदाबाई ने कलेजा निकाल कर कर्णावती शहर के बीचोबीच लटकवा दिया।

और..उसके सर को धड से अलग करके पाटण राज्य के बिच टंगवा दिया साथ ही यह चेतावनी भी दी की कोई भी आक्रांता भारतवर्ष पर या हिन्दू नारी पर बुरी नज़र डालेगा तो उसका यही हाल होगा। 

इस युद्ध के बाद रानी रुदाबाई ने राजपाठ सुरक्षित हाथों में सौंपकर कर जल समाधि ले ली, ताकि कोई भी तुर्क आक्रांता उन्हें अपवित्र न कर पाए। 

ये देश नमन करता है रानी रुदाबाई को, गुजरात के लोग तो जानते होंगे इनके बारे में। ऐसे ही कोई क्षत्रिय और क्षत्राणी नहीं होता, हमारे पुर्वज और विरांगानाये ऐसा कर्म कर क्षत्रिय वंश का मान रखा है और धर्म बचाया है। 


सोमवार, 14 सितंबर 2020

मोलासर ( मारवाड़ ) की बाजरी

मोलासर ( मारवाड़ ) की बाजरी 
भारत का सर्वश्रेष्ठ अनाज - मुग़ल शासक !
मुग़ल शासक अकबर ने जब मीना बाज़ार में नोरोज का मेला लगाना शुरू किया तब वह एक दिन भारत के अलग अलग प्रान्त के अनाज को देखकर,  सबसे श्रेष्ठ अनाज के बारे में पुछवाया । तब वज़ीरों हाकिमों बावरचियो व्यापारियों ने मारवाड़ ( राजस्थान ) के गेहूँ को श्रेष्ठ बताया । 
मुग़ल शासक अहमदशाह के समय नागौर के राजा बखतसिंह जी जो मुग़ल मनसबदार थे तथा जब वे आगरा में थे तब एक दिन बादशाह ने उनसे उनके बलिष्ठ बदन का राज पूछा तब राजा बखत सिंह जी ने कहा की मोलासर की बाजरी का राज है । इस पर बादशाह ने मोलासर की बाजरी के भोजन का आदेश दिया तब राजा बखतसिंह जी ने कहाँ की ताज़े आटे की रोटी ( सोगरा ) मोलासर की गाय या भैंस के ताज़े दूध दही ओर मक्खन के साथ तथा नागौर की ज़ाटनी के हाथ का पिसा हुवा , उन्ही का बनाया भोजन होना चाहिये । देसी केर सांगरी कुमट व गवारफली की सब्ज़ी के साथ ये भोजन ग्रहण करे, 
बादशाह के आदेश पर राजा बखतसिंह जी के डेरे से सभी व्यवस्था की गयी बादशाह ने आदेश दिया की मोलासर की बाजरी सरकार में ख़रीद की जाये। इस तरह रातों रात मोलासर की बाजरी के भाव बढ़ गये सदियों तक राजस्थान की बाजरी मोलासर की बाजरी के नाम से बिकती रही । 
कहते है बादशाह भोजन के पश्चात बहुत ख़ुश हुवा । उसने आदेश किया की उसके शाही रसोडे में इसकी व्यवस्था की जाये ।मोलासर के दो होशियार जाट अपनी अौरतौ व गाय - भेंसो समेत बादशाही नोकर हो गये । 
मारवाड़ के प्रसिद्ध इतिहासकार जगदीश सिंह गहलोत ने भी इस घटना का उल्लेख अपनी पुस्तक मारवाड़ राज्य के इतिहास में किया है वे लिखते है की मोलासर के दोनो  जाट परिवार राजा को ख़ुफ़िया जानकारी भी देते थे । 
आज भी मारवाड़ के रेगिस्तान में होने वाली बाजरी सबसे अच्छा अनाज है जिसने किसी प्रकार की मिलावट नहीं होती क्योंकि न तो इसमें किसी दवाई का छिड़काव होता है ओर ना हीं मिलावट । लाखों टन बाजरी की पैदावार होती जो केवल वर्षा पर निर्भर है । ये वे खेत है जहाँ केवल वर्षा काल में ही खेती होती है । सरकार ओर जैविक(ओरगेनिक )अनाज के चाहने वाले यदि इस अनाज को मोलासर की बाजरी की तरह महत्त्व दे तो लाखों किसानो को अनाज के उचित दाम मिल सकते है ।  सब्ज़ियों में केर सांगरी  पूरी तरह जैविक (ओरगेनिक )है ।आज केवल राजा बखतसिंह जी के जैसी सोच वाले जन प्रतिनिधियों किसानो ओर नोकरशाही की ज़रूरत है।
बाजरी पोषक से भरपूर है इसमें विटामिन खनिज आदि सभी पदार्थ है जो शरीर को निरोगी बनाता है । अनेक बीमारियों से बचाता है । 42 डिग्री से अधिक तापमान में भी इसकी खेती की जा सकती है । आज दुनिया के विद्वान ओर वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार कर चुके है । अब देरी किस बात की है भाइयों स्वदेशी अपनाओ ओर स्वस्थ रहो ।
जय मारवाड़ जय राजस्थानी 
जय बाजरी !
किसी ने सच ही कहा है —-

आकड़े की झोंपड़ी फोगन की बाड़
बाजरी का सोगरा मोठन की दाल 
देखी राजा मानसिंघ थारी मारवाड़

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

उंटाला का युद्ध - मेवाड़ का इतिहास

सलूंबर चूंडावत राजाओं का शासन रहा । चूंडावत सरदार मेवाड़ महाराणा के हरावल दल की सेना नेतृत्व किया करते थे।

यहां चूंडावत सरदार की वीरता का का अद्भुत शौर्य रहा हैं जैसे. "उंटाला का युद्ध"...... महाराणा अमर सिंह जी इतिहास प्रसिद्ध महाराणा प्रताप के पुत्र थे! महाराणा प्रताप की मृत्यु के बाद महाराणा अमर सिंह जी भी पिता की भांति मेवाड़ को स्वतंत्र कराने के लिए बादशाह अकबर से लड़ते रहे! उन्होंने मेवाड़ के सभी दुर्गों और गांवों को मुगलों के पंजे से मुक्त कराने के लिए अपना प्रयत्न जोर-शोर से जारी रखा! इन दुर्गों में उटाला का प्रसिद्ध किला भी थ!

ऊटाला गढ़,  राजधानी उदयपुर से 39 कि.मी.  पूर्व दिशा में स्थित है!( जो वर्तमान में वल्लभनगर के नाम से जाना जाता है) इसके चारों और मजबूत परकोटा बना हुआ है! इसके ऊपरी भाग में एक-दो  बुर्ज व बाकी चारों और दीवार बनी हुई है!  परकोटे की नींव को स्पर्श करती हुई नदी बहती है!  गढ के मध्य में दुर्ग रक्षक का महल बना हुआ है! जिसके चारों तरफ खाई खुदी हुई है! गढ में प्रवेश के लिए केवल एक द्वार है!
राजस्थान का इतिहासिक देश तथा धर्म पर बलिदान होने की घटनाओं से भरा पड़ा है! युद्ध के लिए इस समय सेना में सबसे आगे रहने और बलिदान का सबसे पहले अवसर पाने की घटनाएं कम ही मिलती है! इसे ‘हरावल’  कहां जाता था! इस तरह की एक घटना 1600 ई. में मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह जी के राज काल में घटी!
ऊटाला को जिस तरह मुगलों से महाराणा अमर सिंह जी ने पुन : जीतकर लिया वह वीरता की एक अनोखी कहानी हो गई थी , महाराणा अमर सिंह जी ने ऊटाला के थानेदार कायम खा पर चढ़ाई की और गांव को घेर लिया! बादशाह और महाराणा अमर सिंह जी की सेना के मध्य जमकर लड़ाई हुई जिसमें दोनों दलों के सैकड़ों योद्धा मारे गये! कायम खा को खुद महाराणा अमर सिंह जी ने मार गिराया, शाही फौज भाग गई और जाकर ऊँटाला के घर में शरण ली और भीतर से गढ़ का किवाड़ बंद कर लिया! गढ जीतना मुश्किल हो गया था! इस पर महाराणा अमर सिंह जी ने अपने साथियों को उत्साहित किया और चुंडावतों तथा शक्तावत सरदारों के बीच चला आ रहा झगड़ा भी सदा के लिए निपटाने का निश्चय किया ! यह झगड़ा यह था, कि हरावल यानि कि युद्ध में सबसे पहले कौन बलिदान देगा!

मेवाड़ की सेना में विशेष पराक्रमी होने के कारण चुंडावत वीरो को ही हरावल (युद्ध में लड़ते समय सेना की अग्रिम पंक्ति) में रहने का गौरव प्राप्त था, और वे उसे अपना अधिकार समझते थे! हरावल में रहना उस समय बड़ी इज्जत की बात समझी जाती थी! उस समय तक हरावल में चुंडावत ही रहते आए थे!  किंतु शक्तावत वीर  भी कम परा कर्मी नहीं थे! क्योंकि महाराणा  प्रताप के अनुज महाराज शक्ति सिंह जी के  पुत्र भाणजी,  अचलदास जी, बल्लू जी, दलपत जी , शक्तावत काफी शक्तिशाली होकर उबर गए थे! एवं उनके हृदय में भी यह अरमान जागृत हुआ की युद्ध के क्षेत्र में मृत्यु से  पहला मुकाबला हमारा होना चाहिए! अपनी इस  महत्वाकांक्षा को महाराणा अमर सिंह जी के समक्ष रखते हुए शक्तावत वीरों ने कहा कि चुंडावतों से त्याग बलिदान वह बहादुरी मैं हम किसी भी प्रकार कम नहीं है! अत: शक्तावतो  को भी हरावल मैं रहने का हक जताया है तब चुंडावतों ने महाराणा से निवेदन किया कि जब तक हम जीवित हैं हमारा स्थान कोई दूसरा प्राप्त नहीं कर सकता यदि इसके विपरीत हुआ तो हम कट मरेंगे महाराणा ने फरमाया कि आपस में लड़ाई झगड़ा करने की आवश्यकता नहीं है! महाराणा अमर सिंह जी इस विवाद से दुविधा में पड़ गए! वे शक्तावतो  और चुंडावतों के आपस की लड़ाई से मेवाड़ की शक्ति और मातृभूमि को कमजोर नहीं होने देना चाहते थे दोनों ही पक्षों को महाराणा बड़ी इज्जत की निगाह से देखते थे  अंत हरावल मैं रहने का अधिकार किसे मिलना चाहिए !  मृत्यु से पाणि-ग्रहण  के लिए होने वाली इस अद्भुत प्रतिस्पर्धा को देख कर महाराणा अमर सिंह जी धर्म संकट में पड़ गए! किस पक्ष को अधिक पराक्रमी मानकर हरावल में रहने का अधिकार दिया जाए! इसका निर्णय करने के लिए उन्होंने एक कसौटी तय की जिसके अनुसार यह निश्चय किया गया कि दोनों दल ‘ऊटाला’  दुर्ग ( जो शहजादा  जहांगीर के अधीन था) पर प्रथक दिशा से एक साथ आक्रमण करेंगे वह जिस दल का व्यक्ति पहले दुर्ग में प्रवेश कर जाएगा उसे ही हरावल मैं रहने का अधिकार दिया जाएगा!
महाराणा कि यह राय  दोनों दल के योद्धाओं को पसंद आई वह दोनों ही दल ऊटाले  किले के लिए कुच की तैयारी करने लगे! शक्तावतो  की टोली के मुखिया  बल्लू सिंह थे! शेर जैसी चाल से चलते तो देखने वालों का मन  मोह लेते, हमेशा मरने मारने को तैयार रहते!
ऊटाले के किले मै प्रवेश करने के लिए ‘ शक्तावत सेना अपने सरदार रावत बल्लू जी शक्तावत के नेतृत्व में किले के मुख्य द्वार पर जा पहुंची और चुंडावत सरदार रावत जात सिंह जी अपने साथियों शहित किले की दीवार के नीचे जा डटे! बस! फिर क्या था! प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए मौत को ललकारते हुए दोनों ही दलों के रण-बॉकुरे वीरों ने ऊटाला दुर्ग पर आक्रमण कर दिया! शक्तावत वीर दुर्ग के मुख्य द्वार के पास पहुंच कर उसे तोड़ने का प्रयास करने लगे तो चुंडावत वीरों ने समीप दुर्ग की दीवार पर सीढ़ियां कबंध डालकर उस पर चढ़ने का प्रयास शुरू किया! गढ की दीवार से मुगल सिपाही पत्थर, गोलिया और तीर बरसा रहे थे! बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा रहा था, चारों ओर मौत दिखाई दे रही थी! मुख्य द्वार पर बल्लू जी शक्तावत ने तेज आवाज में अपने हाथी के महावत से कहा-‘ ‘ महावत! हाथी से पोल (दरवाजे) के किवाड़ तुडवा! हाथी को टक्कर देने के लिए आगे बढ़ाया तो किवाड मैं लगे हुए तीक्ष्ण शुलो से सहम कर हाथी पीछे हट गया! हाथी मुकना ( बिना दांत वाला) होने से और गढ के किवाड़ों मैं लोहे के बड़े-बड़े मजबूत और तीक्ष्ण किले होने से हाथी किवाडो पर मोहरा ना कर सका! यह देख शक्तावतो के सरदार बल्लू जी शक्तावत खुद अद्भुत बलिदान का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए किवाड़ के शुलो पर पीठ अडा कर खड़े हो गये, जिससे कि हाथी शुलो के भय से पीछे ना हटे! उनकी आंखें लाल हो गई! आवेश के साथ उन्होंने महावत से फिर कहा-‘ अब क्या देखते हो महावत! हाथी को मेरे बदन पर हुल दो! ‘ ‘

इस दृश्य को देखकर सभी सैनिक अचंभित रह गए और कोई कुछ समझ नहीं पा रहा था इतने में बल्लू सिंह जी ने चिल्ला कर कहा आज मैं अपने रक्त के बलिदान से मातृभूमि और मेवाड़ की भूमि का श्रृंगार करूंगा मातृभूमि को अपने रक्त से सीचूगा! आज प्रथम बलिदान से मुझे कोई नहीं रोक सकता है! एक बार तो महावत सहम गया! किंतु फिर वीर बल्लू जी ने मृत्यु से जी भयानक क्रोध  पूर्ण आदेश करते हुए  महावत  को ललकार कर कहा कि हाथी को अब हमारे ऊपर हूल दे! जिससे गढ़ के किवाड़ टूट जाए!
बल्लू जी का आदेश सुनते ही महावत अवाक रह गया एक और उसके स्वामी की मौत थी और दूसरी और मालिक आदेश! वह यह सोच ही रहा था कि उसे  बल्लू जी की रोषपूण  आवाज फिर सुनाई दी! यदि हमारी आज्ञा का पालन नहीं करोगे तो तुझ को अभी जान से मार डालूंगा! महावत कॉप गया!  हाथी टक्कर मारे तो सरदार की मौत निश्चित है! लेकिन बल्लू जी ने महावत को हिचकते देख कहा देखता नहीं चुंडावत दुग  पर चढ़े जा रहे हैं! तुझे  शक्तावतो की आन! हाथी हुल!!
महावत भयभीत होकर उनकी आज्ञा का उल्लंघन ना कर सका और इस बार महावत को आदेश का पालन करने में जरा भी देर ना लगी! उसने हाथी के मस्तक में बलपूर्वक अकुश मारा  जिसके लगते ही हाथी ने भयंकर चिगाडा  मार कर जोर से बल्लू जी की छाती पर अपने सिर से मोहरा  किय!  जिससे गढ के मजबूत किवाड़ टुकड़े टुकड़े होकर तत्काल टूट गए! बल्लू जी का शरीर  तीक्ष्ण किलो  से बिध गये  और वीरता बलिदान के पुजारी बल्लू सिंह जी वीरगति को प्राप्त हो गए किवाड़ के गिरते ही शक्तावतो की फौज किले में घुस गई और मुगलों से भयंकर लड़ाई छिड़ गई!
दूसरी ओर सलूंबर के जैत सिंह जी चुंडावत के नेतृत्व मैं उनका दल निसैनी (सीढिया)  कब बंद डालकर किले पर चढ़ने  का प्रयत्न कर रहा था! मेवाड़ में जब भी महाराणा की गद्दी नशीनी  होती है, तब चुंडावतों के रक्त से सबसे पहले महाराणा का राजतिलक लगाया जाता है फौज की हरावल मैं भी चुंडावत ही रहते आए थे इस दल के नेता रावत जेत सिंह जी अपने युद्ध कौशल के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध थे! वीरता उनमें कूट कूट  के भरी थी उनकी वीरता और साहस के सामने अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छक्के छूट जाते थे! जब उन्हें पता चला कि शक्तावत किले के द्वार से गढ़  मैं प्रवेश का प्रयत्न कर रहे हैं और जब रावत जैत सिंह जी ने बल्लू जी के बदन पर हाथी को हूलते देखा तो वह तुरंत ही सीढी लाकर किले की दीवार पर चढ़ने लगे! जैत सिंह जी  किले की दीवार के कंगूरों तक पहुंच गए थे कि दुश्मन के बंदूक की गोली अचानक उनके सीने में आग लगी लेकिन गिरते-गिरते उन्होंने अपने साथियों से चिल्ला कर कहा की जल्दी से उनका सिर काटकर किले में फेंक दो (उन्होंने पहले दुर्ग में पहुंचने  की शर्त को जीतने के उद्देश्य से) उनके साथी हिचकी लेकिन जैसे ही उन्होंने हुकार भर कर  कहा कि मातृभूमि पर सर्वप्रथम बलिदान होने का स्थान मैं किसी दूसरे को नहीं लेने दूंगा! जल्दी करो मेरा सिर काटकर मातृभूमि के चरणों में समर्पित कर दो उनके आदेश की पालना कोई और उनके एक साथी भरे मन से  उनका सिर काटकर किले के अंदर फेंक दिया (मातृभूमि के चरणों में  समर्पित कर दिया)
फिर सीढियो  से चुंडावत किले पर चढ़ गए! शक्तावत भी किले के किवाड  तोड़कर भीतर चले आए! और बाद में किले के अंदर पहुंच कर दुश्मनों को गाजर मूली की तरह काटने लगे! दुर्ग में घमासान युद्ध हुआ बहुत से शाही सैनिक मारे गए एवं पकड़ लिए गए! उससे पहले ही चुंडावत सरदार का कटा हुआ मस्तक दुर्ग के अंदर मौजूद था! इस प्रकार चुंडावतों ने अपना हरावल मैं रहने का अधिकार अद्भुत बलिदान देकर कायम रखा! चुंडावत सरदार का कटा सिर  किले के भीतर शक्तावतो  से पहले पहुंच गया! महाराणा की सेना में हरावल का अधिकार चुंडावतों के पास वंश  परंपरा से था और सुरक्षित रह गया किंतु कहना किसी के लिए सरल कहां है कि शक्तावत और चुंडावत सरदारों में अधिक वीर कौन था!
इस लड़ाई में रावत जैत सिंह जी   शक्तावत (सलूंबर), बल्लू जी (अचल दास जी के लघु भ्राता), रावत तेज सिंह जी खंगारोत (अठाला) के सिवाय और भी बहुत से बहादुर रणभूमि में काम आये!  मेवाड़ का ध्वज ऊटाले  के किले पर फिर फहरा दिया गया! देश जाति एवं कुल की मर्यादा की रक्षा के लिए हंसते हंसते प्राण देने वाले वे वीर धन्य हैं ऐसे वीरों को उत्पन्न करने वाली भारत भूमि धन्य है!
जब बाकरोल के जागीरदार ऊटाला  की विजय का समाचार लेकर महाराणा के पास हाजिर हुए तो महाराणा अमर सिंह जी शीघ्र ऊटाले आये!  वहां पर रणक्षेत्र मैं अपने वीर क्षत्रियों की लाशें  चहूं और पड़ी हुई देखी!  उन्होंने कहा ” हे वीर योद्धाओं”  मेवाड़ी धरा आपकी हमेशा ऋणी रहेगी!
हरावल में रहने का अधिकार किसका रहा यह विवाद का विषय नहीं हो सकता, क्योंकि किले में प्रवेश का प्रश्न खुद की प्रतिष्ठा का न होकर मातृभूमि के लिए प्रथम बलिदान होने का स्थान हासिल करने का था, और किसने हासिल किया यह भी विचार का विषय नहीं है, प्रश्न तो यह है, किस क्षत्रियों ने मातृभूमि के लिए कैसे कैसे बलिदान दिए, कैसे-कैसे रक्त बहाया, जैत सिंह जी  चुंडावत और बल्लू सिंह जी शक्तावत जैसे वीरयोद्धा की वीरता, उनका साहस, उनका त्याग और बलिदान ही तो वर्तमान पीढ़ी की धरोहर है जो हमें सदा प्रेरणा देती रहेगी!

रविवार, 6 सितंबर 2020

क्षत्राणी की जल समाधि

क्षत्राणी की जल समाधि

वैसे तो हमारे इतिहास राजपूतों के त्याग और दान बलिदा

न से भरे पड़े है.... आपको सन 1971 की एक सत्य घटना से आपको अवगत कराता हुँ... चंबल नदी के किनारे एक गाँव था जो #सिकरवार राजपूतों का गाँव था ..... जिसमे एक ठकुराइन (क्षत्राणी ) रहती थी ... उसके पति दूसरे विश्व युद्ध में शहीद हो गये थे और पुत्र जय वीर सिंह सन 1965 के युद्ध मैं शहीद हो गया था....||

जय वीर सिंह अपने पीछे एक 12 वर्षीय पुत्र व पत्नी शारदा को छोड़ गये थे...जय वीर के शहीद होने के छह महीने बाद उनकी पत्नी स्वर्ग सिधार गई...अब परिवार में केवल जयवीर का पुत्र व माँ बचे थे.... सन 1971 में युद्ध के बादल फ़िर गर्जने लगे तो भारत माता ने राजपूतों को फिर आवाज़ लगाई... तो भारत माता की रक्षा के लिए राजपूतों के खून ने उबाल मारा और सेना में भरती होने के लिए आगरा चल दिए....जय वीर का किशोर पुत्र सूर्य भान भी अपने गाँव के साथियों के साथ आया था...  संयोग देखिए सेना का भर्ती अधिकारी भी वो ही मेजर था ... जिसकी बटालियन मैं जयवीर सिंह था और वो उसकी बहुत इज्जत करता था... उसने सूर्य भान को पहचान लिया और अपने पास बुलाया व घर का हाल चाल पूछा तो सूर्य भान ने सब कुछ बता दिया...||

मेजर ने पूछा अब घर में कौन कौन है....तो सूर्यभान ने बताया मेरे अलावा बूढ़ी दादी है...सारा हाल जानने के बाद मेजर बोला की सूर्य भान हम तुमको भर्ती नही कर पायेंगे तुम घर जाओ और अपनी दादी की सेवा करो... वहा से सूर्य भान वापिस घर आया.. उधर उसकी दादी बड़ी खुश बैठी थी की उसका पोता सेना में भर्ती हो कर देश की सेवा करेगा...सूर्य भान ने घर आकर दादी को सारा हाल बताया तो दादी बोली कोई बात नही है तुझे सेना में भर्ती होने से कोई नही रोक सकता...जा खाना खाकर सो जा..||

दूसरे दिन दादी जगी नहा धोकर मंदिर गई और वहा से गाँव के लोगों को बुलावा भेज दिया...गाँव में दादी की बड़ी इज्जत थी सारा गाँव मंदिर पर इकठ्ठा हो गया...सारा गाँव दादी को ठकुराइन कहकर बुलाता था... ठकुराइन ने सारी बात गाँव वालो को बताई और कहा की जाकर उस मेजर से कहना वो मेरी सेवा की जरूरत परवाह ना करें....इसकी ज़रूरत नही पड़ेगी वो केवल भारत माता की सेवा के बारे में सोचें... मेरी सेवा से बड़ी सेवा भारत माता की सेवा है क्योकि वो मेरी भी माता है हम सब की माता है....||

इतना कह कर ठकुराइन चंबल नदी के गहरे पानी में चली गई और जल समाधि ले ली... गाँव के आठ दस आदमी सूर्यभान को लेकर उस मेजर के पास पहुँचे और सारा हाल सुनाया तो वहा जितने भी लोगों ने ये सारा हाल सुना तो उनकी आँखों से अश्रुओं की धारा बह निकली...मेजर ने खड़े होकर सूर्यभान को अपने गले से लगाया और बोला ऐसी राजपूत माताओं ने राजपूत शेरों को जन्म दिया है और देती रहेंगी... राजपूतों ने हमेसा अपनी तलवार की धार से इतिहास लिखा है और लिखते रहेगे...||

जय हो ऐसी बलिदानी माँ की इतिहास गवाह है हमारे देश में औरतों को जगत जननी इस लिए ही कहा जाता है...आप से निवेदन ये एक सत्य घटना है इसे ज़्यादा से ज़्यादा शेयर करें और इस देश के नौंजवान को अवगत कराये की राजपूत क्या है...|

गुरुवार, 27 अगस्त 2020

तलवार का नाप

तलवार का नाप 
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आप के घर में क्या तलवार है, क्या आपको पता है कि उस तलवार का नाप क्या है, और वह आपके जीवन और घर को कितना प्रभावित कर रही है। जी हां, यह जानकारी आप को निचे दोहे और छंद के माध्यम से दी जा रही है आप कि सुविधा के लिए में इसका भावार्थ में
पहले कर देता हूँ। अगर आप के घर में तलवार है, और अगर नहीं है और खरीदने का मन बना लिया है तो आप
अपने हाथ से तलवार की मूंठ से लेकर निचे अणी तक
अपनी अंगुलियों से नाप कर लिजिए। अब जो नाप आता है उसमे तेरह की संख्या और मिला दिजिये अब उक्त संख्या में सात का भाग दिजिये शेष जो बचेगा उसी के अनुसार तलवार का नाम और उसका प्रभाव निचे छंद के रूप में दिया गया है आप सभी विद्वजनो के लिए....

निज अंगुल से नापिये, तेरह और मिलाय।
भाग सात को दिजिये, खड्ग नाप लखाय।।

पेहली निज मालिनी नेत कहै, लख दूण प्रमाण प्रभाव लहै।
द्वितिय जुतकी कही नेत तलै, कर राखत ताही को त्रुंग मीलै।
त्रितिय लख चण्डी नेत तकी, कभी होत न छांह पिशाचन की।
चवथी निज शंखनी कोप करै, धन भोमि कुटुंब ने आद हरै।
पंचमी पद्मिनी नाम गहै निज हाथ रहे तहां प्राण लहै।
अति नून कहावत तेग छठी, कछु काज सरै न घटे न बधी
सत अंगुल भेद कहै वरणी, जय होय सदा अरि को हरणी
यह छंद विधान कहै जग से, वसुधा कुलरीत रहै खग सै। 

।नाप लेने के बाद तेरह मिला कर सात का भाग देवै। अब शेष जो बचे उसी के अनुसार फलादेश है मान लिजिए एक बचा तो इस को पहली तलवार और नाम है इसका मालिनी यह घर में रहने से गृह स्वामी का प्रभाव दुगुना हो जाता है। इसी प्रकार दूसरी तलवार का नाम जुतकी है जिस के पास रहती है उसे घौड़ा मिलता है आज के हीशाब से सवारी मोटरसाइकिल हो सकती है। तीसरी चंडी और काम भूत पिशाच से रक्षा।और चौथी नाम शंखनी काम, धन भुमि कुटुंब का नाश करती है पांचवीं नाम पद्मिनी और काम जिस के हाथ में रहती है उसी के प्राणों का हरण करती है।
छठी नाम अति नून इस से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता है न घटता है न बढता है। जिस में बराबर भाग चला जाए शेष नहीं बचे उसका नाम वरणी है काम युद्ध मैं जीत और शत्रु का विनाश निश्चित है।

गुरुवार, 9 जुलाई 2020

बल्लू चाम्पावत


                बल्लू चाम्पावत 
बल्लू चाम्पावत केवल एक नाम नहीं है वह प्रतीक है, प्रचण्ड साहस का, नैतिक सामर्थ्य का, उज्ज्वल चरित्र का, तेजस्विता का, निष्ठा का, स्वामिभक्ति का, वचन-बद्धता और मानवीय गरिमा का | बल्लू चांपावत का जन्म भारत में उस समय हुआ जब मुगल सत्ता जम चुकी थी |मेवाड़ और दूसरे छिटपुट प्रतिरोधों को छोड़ दिया जाय तो सारे राजपूत मुगल-सत्ता से जुड़ चुके थे |
बल्लूजी का जन्म मारवाड़ के हरसोलाव में राव गोपालदास के यहाँ हुआ | माता महाकंवर भटियाणी राव गोविन्ददास मानसिंहोत बीकमपुर की पुत्री थी | (बीकमपुर केल्हणोतों का ठिकाना था|) वे राजा गजसिंह के साथ दक्षिण में गए थे तब उनको  हरसोलाव मिला था | बाद में वे राव अमरसिंह के साथ भी रहे | राव अमरसिंह से उनका एक संवाद हुआ और उन्होंने नागौर छोड़ दिया |
लोक में प्रचलित है कि राव अमरसिंह ने उन्हें पशु चराने का एक दिन का काम सौंपा | बल्लूजी ने कहा कि यह काम मेरा नहीं गड़रियों का है | तब राव अमरसिंह ने नाराजगी भरे आवेशित से स्वर में कहा कि ‘तब तो आप बादशाही घड़ (सेना) ही मोड़ेंगे |’ स्वाभिमानी बल्लूजी फिर नागौर एक क्षण भी नहीं रुके |
इसी तरह बीकानेर में उनके सामने ‘मतीरौ’ (तरबूज) जैसे शब्द का उच्चारण से ही उन्होंने बीकानेर छोड़ दिया था | राजस्थानी में ‘मतीरौ’ शब्द का अर्थ ‘ठहरना नहीं है’ होता है | ऐसे ध्वन्यार्थ समझने वाले तेजस्विता के प्रतीक बल्लूजी ने जयपुर, बूंदी और मेवाड़ में भी सेवाएं दी थी| शाहजहाँ ने उन्हें 500 का मनसब और जागीर दी थी| बादशाही के समय उनकी जागीर में 127 गाँव थे | राणा जगत सिंह ने बल्लूजी को ‘नीलधवल’ घोड़ा भेंट किया था, आख्यानों के अनुसार इसी ‘नीलधवल’ पर सवार होकर वे राव अमरसिंह की देही लेकर आये थे | 
बल्लूजी के आख्यान और शौर्य से इतिहास भरा पड़ा है| सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कामू ने इतिहास पर टिप्पणी करते कहा है कि ‘कुछ लोग इतिहास जीते हैं|’ बल्लूजी ऐसे ही इतिहास जीने वाले लोगों में थे | वे राव चाम्पाजी के वीर पुत्र राव भैरवदास के वंशज थे| बल्लूजी इतिहास में इसलिए अमर हैं क्योंकि उन्होंने एक उलाहने को सत्य साबित करने के लिए अपने प्राण न्यौछावर किये थे | राव अमरसिंह राठौड़ की कथा सब जानते हैं | उनकी लाश को चील-कौवों को खिलाने के लिए अपमानजनक तरीके से आगरे के किले की दीवार पर डाल दी गई थी, तब की कहानी है यह बल्लूजी की |
राव अमरसिंह की मृत्यु के बाद बादशाह शाहजहाँ  ने राजपूतों को चेतावनी भिजवाई थी, जिसमें बल्लूजी भी शामिल थे | बादशाह का कहना था कि जिसने जुर्म कर लिया था, उसने सजा पा ली | अब आप लोग उस जुर्म में शामिल होकर अपने पतन की राह क्यों बना रहे हो ? 26 जुलाई 1644 की घटना है यह | आगरा में उस समय कोई बलवा न हो यही बादशाह की मंशा थी | इतिहासकारों ने इस घटना पर भिन्न भिन्न प्रकार से लिखा है किन्तु वास्तविकता के नजदीक तथ्य इस प्रकार है कि बल्लूजी ने यहाँ तरकीब से काम लिया था | उन्होंने सन्देशवाहक से कहा कि ‘हमें स्वामी के दर्शन करने की इजाजत दी जाय|’ बादशाह ने इसे मंजूर कर लिया| इसके पीछे दो कारण थे| बादशाह राजपूतों को शांत करना चाहता था ताकि व्यर्थ के खूनखराबे से बचा जाए | दूसरा यह कि शेर खुद पिंजड़े में आ रहा था, इसलिए अगर कोई अनहोनी भी घटती तो किले में उस पर काबू आसानी से पाया जा सकता था | 
     किले के कपाट खोल दिए गए और घुड़सवार बल्लूजी जब अंदर आये तो कपाट बंद कर दिए गए | बल्लूजी सावधान थे और उन्होंने अपने मस्तिष्क में योजना बना रखी थी | बादशाह खुद अंतिम दरवाजे पर सामने आया | बल्लूजी ने उचित अवसर जानकर कहा –
   ‘हुजूर जो होना था हो चुका, ऊपरवाले को यही मंजूर था | मुझे कोई गलतफहमी नहीं है | मैं मेरे वतन लौटना चाहता हूँ पर लौटने से पहले अपने पहले वाले स्वामी को अंतिम प्रणाम करना चाहता हूँ |’ बल्लूजी का कथन जायज था, बादशाह को वह उचित लगा और उन्होंने सैनिकों को राव अमरसिंह की लाश बल्लूजी के सामने लाने का हुकम दिया, ताकि वे उन्हें अंतिम प्रणाम कर सकें | चारों तरफ सैनिकों का घेरा था | बालूजी जानते थे कि किले के कपाट बंद हो चुके हैं | शेर वाकई पिजरे में आ चुका था | उनके सामने अमरसिंह की देह पड़ी थी | वे घोड़े से उतरे | प्रणाम की मुद्रा में अमरसिंह की देह तक पहुंचे और पलक झपकते ही देह को कंधे पर लेकर घोड़े पर चढ़े और तीर की तरह घोड़ा दौड़ाया| घोड़ा हवा में उछला, किले की दीवार की तरफ लपका और दीवार पर चढ़ गया | बल्लूजी ने अपने सम्पूर्ण सामर्थ्य से घोड़े को किले की दीवार से नीचे कुदवा दिया | ‘नीलधवल’ बल्लूजी और राव अमरसिंह की देह के साथ धरती पर था| इस चमत्कारिक कृत्य पर बादशाह के सैनिक हक्के-बक्के रह गए और चिल्लाए – ‘ यह आदमी है कि फ़रिश्ता ?’ 
किले की खाई के बाहर भावसिंह कुम्पावत आठ सौ राजपूतों के साथ खड़े थे | बल्लूजी दूसरे घोड़े पर सवार हुए और मुगल सेना से भिड़ गए | एक जबरदस्त युद्ध बोखारा दरवाजे के बाहर हुआ|  राव अमरसिंह की देह को यमुना किनारे चित्ता-स्थल पहुँचाया, उनका वहाँ रानियाँ इंतजार कर रही थी | रानी हाडीजी और गौड़जी ने अंतिम समय में बल्लूजी को आशीष दी | 
  लोक आख्यानों के अनुसार बल्लूजी जूंझार हुए | शिर कटने के बाद भी लड़ने वाले को राजस्थान में जून्झार कहते हैं | कवियों ने बल्लूजी के शब्दों  में कहा –
      बलू कहे गोपाळ रो, सतियाँ हाथ संदेश |
      पतसाही घड़ मोड़ नै, आवां छां अमरेश || 
(गोपालदास का पुत्र बल्लू सतियों के हाथ सन्देश भेजता हुआ कहता है कि हे अमरसिंहजी ! मैं बादशाही घड़ मोड़कर कुछ समय पश्चात आपके पास आ रहा हूँ |)
राव अमरसिंह के उलाहने कि ‘आप क्या बादशाही घड़ (सेना) मोडेंगे ?’ को उनके मरने के बाद बल्लूजी ने पूरा किया, जबकि कहने वाला रहा ही नहीं था | यह राजस्थान के लोगों की वह चारित्रिक निष्ठा है जिस पर सम्पूर्ण मनुष्य जाति मुग्ध है | उनकी स्मृति में बनी छतरी ‘राठौड़ की छतरी’ के नाम से विख्यात रही जो वर्तमान में खंडहर बनी आगरा के किले के पास यमुना किनारे स्थित है | ‘नील धवल’ घोड़े की तेजस्विता से बादशाह शाहजहाँ इतना प्रभावित हुआ था कि उसने लाल पत्थर की घोड़े की मुखाकृति उस स्थान पर स्थापित की जहां घोड़ा छलांग लगाकर गिरा था | सन 1961 तक यह मूर्ति-शिल्प देखा गया था |
बोखारा गेट का नाम इस घटना के बाद अमरसिंह गेट पड़ गया | इस घटना के बाद यह दरवाजा शताब्दियों तक राजसी आदेश से बंद ही रहा | सन 1644 के बाद यह दरवाजा सन 1809 में केप्टन जिओ स्टील ने फिर से खोला और इस का जीर्णोद्धार करवाया | लोग कहते हैं कि दरवाजे के गिरने पर एक लम्बा भयानक काला सांप निकला था जिससे केप्टन स्टील भाग्य से बच गया |    आजकल अमरसिंह गेट से ही पर्यटक आगरा का किला देखने प्रवेश करते हैं |

शुक्रवार, 12 जून 2020

भाटी राजपूत गेट--पाकिस्तान

भाटी राजपूत गेट--पाकिस्तान 

लाहौर(पंजाब, पाकिस्तान) की उन हरी दीवारों के मध्य केसरिया (राजपूती आन बान शान) और भाटी राजवंश के स्वर्णिम इतिहास को बयां करता यह भाटी दरवाजा|
लाहौर शहर में स्थित यह राजपूत भाटी गेट, मुल्तान पर राज्य स्थापित करने की याद में भाटी शासक द्वारा बनवाया गया। 
यह गेट आज भी लाहौर में राजपूत भाटी गैट नाम से जाना  जाता है |
 भाटी गेट लाहौर के ऐतिहासिक तेरह फाटकों में से एक है।
राजपूत भाटी गेट पुराने शहर की पश्चिमी दीवार पर स्थित है। राजपूत भाटी गेट को ऐतिहासिक रूप से ओल्ड लाहौर में कला और साहित्य के केंद्र के रूप में जाना जाता है। गेट लाहौर के हकीमन बाजार के लिए शुरुआती बिंदु के रूप में कार्य करता है |भाटी गेट लाहौर जिले की तहसील रवि में केंद्रीय परिषद 29 के रूप में भी कार्य करता है।
 श्री कृष्ण की 90 वी पीढ़ी में जन्मे राजा भाटी लाहौर की राजगद्दी पर विराजे| भाटी का अधिकार गजनी और ह सार तक रहा फिर भटनेर (वर्तमान हनुमानगढ़) नगर बसाया और भटनेर को अपनी राजधानी बनाया| भाटी जी ने 14 युद्धों में विजय प्राप्त की | इसके पश्चात राजा_भाटी के पुत्र राजा भूपत लाहौर की राजगद्दी पर विराजे और भटनेर के किले का निर्माण करवाया| भटनेर के किले के बारे में तैमूर लंग ने अपनी आत्मकथा "तुजुक-ए-तैमूरी" में कहा है कि मैंने इतना मजबूत और इससे सुरक्षित किला पूरे हिंदुस्तान में कहीं नहीं देखा |
इसके समय जब खुरासानी सेना मुल्तान तक पहुंची तो भूपत ने उस पर धावा बोला 3 दिन के घमासान युद्ध में खुरासानी सेना हार गई | भूपत ने यवनों की ऐसी कमर थोड़ी थी कि डेढ़ सौ वर्ष तक भारत की भूमि पर कोई आक्रमण नहीं किया|

सोमवार, 8 जून 2020

Bhakri Fort

भकरि गढ़  मेड़तिया राठौडौ़ का ठिकाना जो औरंगज़ेब और जयपुर की सैना दोनों से अजेय रहा


मेडतिया रघुनाथ रे मुख पर बांकी मुछ भागे हाथी शाह रा करके ऊँची पुंछ
मेडतिया रघुनाथ रासो, लड़कर राखयो मान, जीवत जी गैंग पहुंचा, दियो बावन तोला हाड ,
हु खप जातो खग तले, कट जातो उण ठोड ! बोटी-बोटी बिखरती, रेतो रण राठोड !!
मरण नै मेडतिया अर राज करण नै जौधा "
"मरण नै दुदा अर जान(बारात) में उदा "
उपरोक्त कहावतों में मेडतिया राठोडों को आत्मोत्सर्ग में अग्रगण्य तथा युद्ध कौशल में प्रवीण मानते हुए मृत्यु को वरण करने के लिए आतुर कहा गया है मेडतिया राठोडों ने शौर्य और बलिदान के एक से एक कीर्तिमान स्थापित किए है ईसका जीता जागता उदाहरण भकरि गाँव कि छोटी सी पहाड़ी पर अपना गर्वीला मस्तक उठाकर खड़े इस छोटे से किले का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है| इस किले के राठौड़ों की मेड़तिया शाखा से है। यहाँ के वीर शासकों ने अपने से बड़ी बड़ी सेनाओं को चुनौतियाँ दी है, जिन्हें पढ़कर लगता है कि उन्हें मरने का कहीं कोई खौफ ही नहीं था, उनके लिए जीवन से ज्यादा अपना स्वाभिमान व जातीय आन थी जिसकी रक्षा के लिए वे बड़े से बड़ा खतरा उठाने के लिए मौत के मुंह में हाथ डालने से भी नहीं हिचकते थे| इस किले व यहाँ के वीर शासकों से ऐसी ही कुछ घटनाएँ आज हम आपके साथ साझा कर रहे है-

जोधपुर के महाराजा अभयसिंह जी ने अपने भाई बखतसिंह द्वारा भड़काए जाने पर बीकानेर पर दो बार हमले किये| दूसरे हमले के वक्त बीकानेर के महाराजा जोरावरसिंह जी जोधपुर की सेना का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं थे अत: उन्होंने जयपुर के राजा जयसिंह जी द्वितीय को मदद के लिए पत्र लिखा| जोधपुर महाराजा अभयसिंहजी महाराजा सवाई जयसिंह जी के दामाद थे अत: जयपुर के सामंत अपने दामाद के खिलाफ बीकानेर को सहायता देने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन सीकर के राव शिवसिंहजी की राय थी कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो जोधपुर की शक्ति बढ़ जाएगी जो राजस्थान के अन्य राज्यों के लिए खतरा हो सकती है अत: शक्ति संतुलन के लिए बीकानेर की सहायता करनी चाहिए|
राव शिवसिंह की राय को मानते हुए आखिर सवाई जयसिंहजी ने बीकानेर की सहायता का निर्णय लिया व अपने दामाद जोधपुर नरेश अभयसिंह को पत्र लिखकर बीकानेर से हटने का आग्रह किया| लेकिन अभयसिंह ने उनका आग्रह यह कहते हुए ठुकरा दिया कि- राठौड़ों के आपसी झगड़े में उन्हें टांग अड़ाने की जरुरत नहीं है|   इस जबाब से क्रुद्ध होकर सवाई जयसिंहजी ने 20 हजारी सेना जोधपुर पर आक्रमण के लिए भेज दी| इसकी खबर मिलते ही अभयसिंहजी को समझ आया कि अब सैनिक टकराव उनके हित में नहीं है अत: वे बीकानेर से घेरा उठाकर जोधपुर आये अपने ससुर महाराजा सवाई जयसिंह जी से अगस्त 1740 ई. में एक संधि की| इस संधि की कई शर्तें राठौड़ों के लिए अपमानजनक थी, जिसे जोधपुर के कई सामंतों ने कछवाहों द्वारा राठौड़ों की नाक काटने की संज्ञा दी|

इस तरह जयपुर की सेना ने बिना युद्ध किये जोधपुर से प्रस्थान किया| मार्ग में जयपुर की सेना ने परबतसर से लगभग 35 किलोमीटर दूर भकरी गांव Bhakri Fort के पास डेरा डाला| उस वक्त भकरी पर ठाकुर केसरीसिंह मेड़तिया राठौड़ का शासन था, ठाकुर केसरीसिंह जातीय स्वाभिमान से ओतप्रोत बड़े गर्वीले वीर थे और उनके किले में स्थित शीतला देवी का उन्हें आशीर्वाद प्राप्त था| इतिहासकारों के अनुसार जब जयपुर की सेना का भकरी के पास पड़ाव था तब नींदड के राव जोरावरसिंघ ने झुंझलाकर कहा कि – “लगता है राठौड़ों का राम निकल गया, सो कछवाहों की तोपें भी खाली ना करवा सके, लगता है मारवाड़ में अब रजपूती नहीं रही|”

यह बात वहां उपस्थित भकरी के किसी व्यक्ति ने सुन ली और उसने जाकर ठाकुर केसरीसिंह को बताया, भकरी Bhakri Fort के इतिहास के अनुसार खुद केसरीसिंह जी उस वक्त उधर से गुजर रहे थे और उन्होंने जोरावरसिंघ की कही बात सुन ली| बस फिर क्या था अपने जातीय स्वाभिमान व आन की रक्षा के लिए ठाकुर केसरीसिंह जी ने अपने कुछ सैनिकों के बल पर ही जयपुर की सेना को युद्ध का निमंत्रण भेज दिया और दूसरे दिन अपने छोटे से किले से जयपुर की सेना पर तोपों से गोले बरसाए| जबाबी कार्यवाही में भकरी किले को काफी नुकसान पहुंचा पर चार दिन तक चले युद्ध व कई सैनिकों के बलिदान के बाद भी जयपुर की विशाल सेना भकरी किले पर कब्ज़ा नहीं कर पाई|

Bhakri Fort भकरी के इतिहास के अनुसार जब जयपुर नरेश को पता चला कि किले में स्थित शीतला माता के आशीर्वाद के कारण किले को जीता नहीं जा सकता तब दैवीय चमत्कार को मानकर जयपुर नरेश ने युद्ध बंद किया और देवी के चरणों में आकर भूल स्वीकार की और एक सोने का छत्र देवी के चरणों में चढ़ाया| इस तरह भकरी के ठाकुर केसरीसिंह जी ने राठौड़ों का जातीय स्वाभिमान व आन बरकरार रखी और नींदड के राव जोरावरसिंघ की बात का जबाब कछवाह सेना की तोपें खाली करवाकर दिया और साबित किया कि मारवाड़ कभी वीरों से खाली नहीं रह सकती | ठाकर केसरीसिंघजी जयपुर की तोपें खाली नहीं करवाते तो मारवाड़ पर सदा के लिए यह कलंक रह जाता। जयपुर सेना का गर्व भंग पर ठाकुर केसरीसिंह जी ने मारवाड़ की नाक बचाली और यश कमाया, उनके यश को कवियों ने इस तरह शब्द दिए-

केहरिया करनाळ, जे नह जुड़तौ जयसाह सूं।

आ मोटी अवगाळ, रहती सिर मारू धरा।।

Bhakri Fort भकरी इतिहास के अनुसार वि.स. 1687 में औरंगजेब गुजरात विजय से लौट रहा था, तब भकरी के ठाकुर दाणीदास जी ने उसे भी युद्ध का निमंत्रण देकर रोका. तब दोनों के मध्य पांच दिन युद्ध चला. आखिर पांच दिन चले युद्ध में कई सैनिकों को खोने के बाद औरंगजेब को पता चला कि किले में स्थित शीतला माता के चमत्कार के कारण वह इस छोटे से किले को अधिकार में नहीं कर पाया. तब औरंगजेब ने देवी के चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम किया और एक स्वर्ण छत्र मातेश्वरी की सेवा में अर्पण किया| अपने से कई बड़ी बड़ी सेनाओं से लोहा लेने वाले भकरी किले पर आज भी आक्रान्ताओं की तोपों के निशान देखे जा सकते है आक्रान्ता आये और चले गए पर भकरी किला आज भी अपना गर्वीला मस्तक ऊपर उठाये शान से खड़ा है |

राठौड़ वंश की खापें

राठौड़ वंश की खापें

1. इडरिया राठौड़ 
2. हटुण्डिया राठौड़ 
3. बाढेल (बाढेर) राठौड़ 
4. बाजी राठौड़ 
5. खेड़ेचा राठौड़ 
6. धुहडि़या राठौड़ 
7. धांधल राठौड़ 
8. चाचक राठौड़ 
9. हरखावत राठौड़ 
10. जोलू राठौड़ 
11. सिंघल राठौड़ 
12. उहड़ राठौड़ 
13. मूलू राठौड़ 
14. बरजोर राठौड़ 
15. जोरावत राठौड़ 
16. रैकवार राठौड़ 
17. बागडि़या राठौड़ 
18. छप्पनिया राठौड़ 
19. आसल राठौड़ 
20. खोपसा राठौड़ 
21. सिरवी राठौड़ 
22. पीथड़ राठौड़ 
23. कोटेचा राठौड़ 
24. बहड़ राठौड़ 
25. ऊनड़ राठौड़ 
26. फिटक राठौड़ 
27. सुण्डा राठौड़ 
28. महीपालोत राठौड़ 
29. शिवराजोत राठौड़ 
30. डांगी राठौड़ 
31. मोहणोत राठौड़ 
32. मापावत राठौड़ 
33. लूका राठौड़ 
34. राजक राठौड़ 
35. विक्रमायत राठौड़ 
36. भोवोत राठौड़ 
37. बांदर राठौड़ 
38. ऊडा राठौड़ 
39. खोखर राठौड़ 
40. सिंहमकलोत राठौड़ 
41. बीठवासा राठौड़ 
42. सलखावत राठौड़ 
43. जैतमालोत राठौड़ 
44. जुजाणिया राठौड़ 
45. राड़धड़ा राठौड़ 
46. महेचा राठौड़ (महेचा राठौड़ की चार उप शाखाएँ है।) 
47. पोकरण राठौड़ 
48. बाडमेरा राठौड़ 
49. कोटडि़या राठौड़ 
50. खाबडिया राठौड़ 
51. गोगादेव राठौड़ 
52. देवराजोत राठौड़ 
53. चाड़ देवोत राठौड़ 
54. जैसिंधवे राठौड़ 
55. सातावत राठौड़ 
56. भीमावत राठौड़ 
57. अरड़कमलोत राठौड़ 
58. रणधीरोत राठौड़ 
59. अर्जुनोत राठौड़ 
60. कानावत राठौड़ 
61. पूनावत राठौड़ 
62. जैतावत राठौड़ (जैतावत राठौड़ की तीन उप शाखाएँ है।) 
63. कालावत राठौड़ 
64. भादावत राठौड़ 
65. कूँपावत राठौड़ (कूँपावत राठौड़ की 7 उप शाखाएँ है।)

66. बीदावत राठौड़ ( बीदावत राठौड़ की 22 उप शाखाएँ है।)

67. उदावत राठौड़ 
68. बनीरोत राठौड़ (बनीरोत राठौड़ की 11 उप शाखाएँ है।)

69. कांधल राठौड़ ( कांधल राठौड़ की चार उप शाखाएँ है।) 
70. चांपावत राठौड़ (चांपावत राठौड़ की 15 उप शाखाएँ है।)

71. मण्डलावत राठौड़ (मण्डलावत राठौड़ की 13 उप शाखाएँ है।) 
72. मेड़तिया राठौड़ (मेड़तिया राठौड़ की 26 उप शाखाएँ है।) 
73. जौधा राठौड़ (जौधा राठौड़ की 45 उप शाखाएँ है।) 
74. बीका राठौड़ (बीका राठौड़ की 26 उप शाखाएँ है।) 

महेचा राठौड़ की चार उप शाखाएँ 

1. पातावत महेचा 
2. कालावत महेचा 
3. दूदावत महेचा 
4. उगा महेचा 

जैतावत राठौड़ की तीन उप शाखाएँ 

1. पिरथी राजोत जैतावत 
2. आसकरनोत जैतावत 
3. भोपतोत जैतावत 

कूँपावत राठौड़ की 7 उप शाखाएँ

1. महेशदासोत कूंपावत 
2. ईश्वरदासोत कूंपावत 
3. माणण्डणोत कूंपावत 
4. जोध सिंगोत कूंपावत 
5. महासिंगोत कूंपावत 
6. उदयसिंगोत कूंपावत 
7. तिलोक सिंगोत कूंपावत 

बीदावत राठौड़ की 22 उप शाखाएँ

1. केशवदासोत बीदावत 
2. सावलदासोत बीदावत 
3. धनावत बीदावत 
4. सीहावत बीदावत 
5. दयालदासोत बीदावत 
6. घेनावत बीदावत 
7. मदनावत बीदावत 
8. खंगारोत बीदावत 
9. हरावत बीदावत 
10. भीवराजोत बीदावत 
11. बैरसलोत बीदावत 
12. डँूगरसिंगोत बीदावत 
13. भोजराज बीदावत 
14. रासावत बीदावत 
15. उदयकरणोत बीदावत 
16. जालपदासोत बीदावत 
17. किशनावत बीदावत 
18. रामदासोत बीदावत 
19. गोपाल दासोत 
20. पृथ्वीराजोत बीदावत 
21. मनोहरदासोत बीदावत 
22. तेजसिंहोत बीदावत 

बनीरोत राठौड़ की 11 उप शाखाएँ

1. मेघराजोत बनीरोत 
2. मेकरणोत बनीरोत 
3. अचलदासोत बनीरोत 
4. सूरजसिंहोत बनीरोत 
5. जयमलोत बनीरोत 
6. प्रतापसिंहोत बनीरोत 
7. भोजरोत बनीरोत 
8. चत्र सालोत बनीरोत 
9. नथमलोत बनीरोत 
10. धीरसिंगोत बनीरोत 
11. हरिसिंगोत बनीरोत 

कांधल राठौड़ की चार उप शाखाएँ 

1. रावरोत कांधल 
2. सांइदासोत कांधल 
3. पूर्णमलोत कांधल 
4. परवतोत कांधल 

चांपावत राठौड़ की 15 उप शाखाएँ 

1. संगतसिंहोत चांपावत 
2. रामसिंहोत चांपावत 
3. जगमलोत चांपावत 
4. गोयन्द दासोत चांपावत 
5. केसोदासोत चांपावत 
6. रायसिंहोत चांपावत 
7. रायमलोत चांपावत 
8. विठलदासोत चांपावत 
9. बलोत चांपावत 
10. हरभाणोत चांपावत 
11. भोपतोत चांपावत 
12. खेत सिंहोत चांपावत 
13. हरिदासोत चांपावत 
14. आईदानोत चांपावत 
15. किणाल दासोत चांपावत 

मण्डलावत राठौड़ की 13 उप शाखाएँ

1. भाखरोत बाला राठौड़ 
2. पाताजी राठौड़ 
3. रूपावत राठौड़ 
4. करणोत राठौड़ 
5. माण्डणोत राठौड़ 
6. नाथोत राठौड़ 
7. सांडावत राठौड़ 
8. बेरावत राठौड़ 
9. अड़वाल राठौड़ 
10. खेतसिंहोत राठौड़ 
11. लाखावत राठौड़ 
12. डूंगरोत राठौड़ 
13. भोजराजोत राठौड़ 

मेड़तिया राठौड़ की 26 उप शाखाएँ

1. जयमलोत मेड़तिया 
2. सुरतानोत मेड़तिया 
3. केशव दासोत मेड़तिया 
4. अखैसिंहोत मेड़तिया 
5. अमरसिंहोत मेड़तिया 
6. गोयन्ददासोत मेड़तिया 
7. रघुनाथ सिंहोत मेड़तिया 
8. श्यामसिंहोत मेड़तिया 
9. माधोसिंहोत मेड़तिया 
10. कल्याण दासोत मेड़तिया 
11. बिशन दासोत मेड़तिया 
12. रामदासोत मेड़तिया 
13. बिठलदासोत मेड़तिया 
14. मुकन्द दासोत मेड़तिया 
15. नारायण दासोत मेड़तिया 
16. द्वारकादासोत मेड़तिया 
17. हरिदासोत मेड़तिया 
18. शार्दूलोत मेड़तिया 
19. अनोतसिंहोत मेड़तिया 
20. ईशर दासोत मेड़तिया 
21. जगमलोत मेड़तिया 
22. चांदावत मेड़तिया 
23. प्रतापसिंहोत मेड़तिया 
24. गोपीनाथोत मेड़तिया 
25. मांडणोत मेड़तिया 
26. रायसालोत मेड़तिया 

जौधा राठौड़ की 45 उप शाखाएँ

1. बरसिंगोत जौधा 
2. रामावत जौधा 
3. भारमलोत जौधा 
4. शिवराजोत जौधा 
5. रायपालोत जौधा 
6. करमसोत जौधा 
7. बणीवीरोत जौधा 
8. खंगारोत जौधा 
9. नरावत जौधा 
10. सांगावत जौधा 
11. प्रतापदासोत जौधा 
12. देवीदासोत जौधा 
13. सिखावत जौधा 
14. नापावत जौधा 
15. बाघावत जौधा 
16. प्रताप सिंहोत जौधा 
17. गंगावत जौधा 
18. किशनावत जौधा 
19. रामोत जौधा 
20. के सादोसोत जौधा 
21. चन्द्रसेणोत जौधा 
22. रत्नसिंहोत जौधा 
23. महेश दासोत जौधा 
24. भोजराजोत जौधा 
25. अभैराजोत जौधा 
26. केसरी सिंहोत जौधा 
27. बिहारी दासोत जौधा 
28. कमरसेनोत जौधा 
29. भानोत जौधा 
30. डंूगरोत जौधा 
31. गोयन्द दासोत जौधा 
32. जयत सिंहोत जौधा 
33. माधो दासोत जौधा 
34. सकत सिंहोत जौधा 
35. किशन सिंहोत जौधा 
36. नरहर दासोत जौधा 
37. गोपाल दासोत जौधा 
38. जगनाथोत जौधा 
39. रत्न सिंगोत जौधा 
40. कल्याणदासोत जौधा 
41. फतेहसिंगोत जौधा 
42. जैतसिंहोत जौधा 
43. रतनोत जौधा 
44. अमरसिंहोत जौधा 
45. आन्नदसिगोत जौधा 

बीका राठौड़ की 26 उप शाखाएँ

1. घुड़सिगोत बीका 
2. राजसिंगोत बीका 
3. मेघराजोत बीका 
4. केलण बीका 
5. अमरावत बीका 
6. बीकस बीका 
7. रतनसिंहोत बीका 
8. प्रतापसिंहोत बीका 
9. नारणोत बीका 
10. बलभद्रोत नारणोत बीका 
11. भोपतोत बीका 
12. जैमलोत बीका 
13. तेजसिंहोत बीका 
14. सूरजमलोत बीका 
15. करमसिंहोत बीका 
16. नीबावत बीका 
17. भीमराजोत बीका 
18. बाघावत बीका 
19. माधोदासोत बीका 
20. मालदेवोत बीका 
21. श्रृगोंत बीका 
22. गोपालदासोत बीका 
23. पृथ्वीराजोत बीका 
24. किशनहोत बीका 
25. अमरसिंहोत बीका 
26. राजवी बीका

गुरुवार, 21 मई 2020

बेला और कल्याणी

बेला और कल्याणी

"बेला" पृथ्वीराज चौहान की पुत्री थी और "कल्याणी" जयचंद की पौत्री. जैसा कि हम सभी जानते ही है कि - अजमेर के राजा प्रथ्वीराज चौहान और कन्नौज के राजा जयचन्द आपस में रिश्तेदार (मौसेरे भाई) थे. उनके नाना दिल्ली के राजा अनंगपाल ने दिल्ली का राज प्रथ्वीराज को सौंप दिया था इस बजह से जयचंद प्रथ्वीराज से ईर्ष्या करता था.

इसके अलावा जयचन्द की पत्नी की भतीजी संयोगिता (जिसे जयचन्द अपनी बेटी की तरह स्नेह करता था) का प्रथ्वीराज से प्रेम हो जाने और प्रथ्वीराज द्वारा संयोगिता का हरण कर ले जाने के कारण यह ईर्ष्या दुश्मनी में बदल गई थी. इन कारणों से जयचन्द किसी भी तरह से प्रथ्वीराज चौहान को समाप्त करना चाहता था.

उन दिनों में अफगान लुटेरा मोहम्मद शहाबुद्दीन गौरी ने भारत पर आक्रमण किया था जिसमे प्रथ्वीराज चौहान की सेना के साथ सभी भारतीय हिन्दू राजाओं ने साथ दिया था. इस लड़ाई में मोहम्मद गौरी को बंदी बना लिया गया था तब वह कुरआन की कसम खाकर माफी मांग कर अपनी जान बचाकर वापस गया था.

गौरी का एक आदमी (मोइनुद्दीन चिश्ती) जो तंत्र मन्त्र में माहिर था वह अजमेर में रह कर संत की तरह एक मंदिर के बाहर बैठकर जासूसी का काम करेने लगा. जब उसको प्रथ्वीराज और जयचंद की दुश्मनी का पता चला तो उसने जयचन्द को समझाया कि - अगर तुम गौरी का साथ दो तो तुमको दिल्ली की सत्ता मिल सकती है.

जयचन्द उसकी बातों में आ गया क्योंकि तब तक जितने भी इस्लामी हम्लाबर भारत में आये थे वे केवल लूटमार करके वापस चले गए थे कोई भी भारत में राज करने के लिए नहीं रुका था. गौरी के फिर भारत पर हमले के समय जयचन्द ने न केवल गौरी का साथ दिया बल्कि अपने मित्र राजाओं को भी प्रथ्वीराज का साथ देने से रोका.

उस लड़ाई में प्रथ्वीराज की हार हुई और गौरी प्रथ्वीराज को बंदी बनाकर अपने साथ अफगानिस्तान ले गया. जयचंद को लगता था कि उसे अब दिल्ली का राजा बनाया जाएगा उस जयचंद के मोहम्मद गौरी से जीत का ईनाम मांगने पर उसकी यह कहकर गरदन काट दी गई कि - जो अपनों का नहीं हुआ वह हमारा क्या होगा.

जिस संयोगिता के हरण को जयचन्द ने अपनी इज्ज़त का प्रश्न बनाया था उस संयोगिता को चिश्ती के कहने पर पूर्ण नग्न करके सैनिको के सामने फेंक दिया गया था. गौरी ने भारत की सत्ता अपने गुलाम कुतुबुद्दीन और बख्तियार खिलजी को सौंप दी और प्रथ्वीराज को बंदी बनाकर अफगानिस्तान ले गया. साथ में भरत की हजारों महिलाओं को भी ले गया.

उन स्त्रीयों में प्रथ्वीराज की चचेरी बहन  "बेला" और जयचन्द की पौत्री "कल्याणी" भी थी. मोहम्मद गौरी ने अपनी जीत के तोहफे के रूप में बेला और कल्याणी को गजनी के सर्वोच्च काजी निजामुल्क को देने का ऐलान कर दिया. इस घटना पर बने एक नाटक में बोले गए गौरी और काजी निजामुल्क के संवाद को भी यहाँ लिखना प्रासंगिक समझता हूँ.

गौरी ने काजी निजामुल्क से कहा - ‘‘काजी साहब! मैं हिन्दुस्तान से सत्तर करोड़ दिरहम मूल्य के सोने के सिक्के, पचास लाख चार सौ मन सोना और चांदी, इसके अतिरिक्त मूल्यवान आभूषणों, मोतियों, हीरा, पन्ना, जरीदार वस्त्रा और ढाके की मल-मल की लूट-खसोट कर भारत से गजनी की सेवा में लाया हूं’’

इस पर गौरी की तारीफ करते हुए काजी ने पूछा - ‘‘बहुत अच्छा! लेकिन वहां के लोगों को कुछ दीन-ईमान का पाठ पढ़ाया कि नहीं?’’

गौरी ने कहा - ‘‘बहुत से लोग इस्लाम में दीक्षित हो गए हैं’’ कुतुबुद्दीन, बख्तियार और चिश्ती वहीँ है और वे बुतपरस्ती को ख़त्म करने और इस्लाम का प्रचार करने में लगे हुए हैं

‘‘और वहां से लाये गए दासों और दासियों का क्या किया?’’

दासों को गुलाम बनाकर गजनी लाया गया है. अब तो गजनी में बंदियों की सार्वजनिक बिक्री की जा रही है. रौननाहर, इराक, खुरासान आदि देशों के व्यापारी गजनी से गुलामों को खरीदकर ले जा रहे हैं. एक-एक गुलाम दो-दो या तीन-तीन दिरहम में बिक रहा है.’’

‘‘हिन्दुस्तान के मंदिरों का क्या किया?’’

‘‘मंदिरों को लूटकर 17000 हजार सोने और चांदी की मूर्तियां लायी गयी हैं, दो हजार से अधिक कीमती पत्थरों की मूर्तियां और शिवलिंग भी लाए गये हैं और बहुत से पूजा स्थलों को नेप्था और आग से जलाकर जमीदोज कर दिया गया है।’’

‘‘वाह! अल्हा मेहरबान तो गौरी पहलवान’’ फिर मंद-मंद मुस्कान के साथ बड़बड़ाए, ‘‘गौरे और काले, धनी और निर्धन गुलाम बनने के प्रसंग में सभी भारतीय एक हो गये हैं जो भारत में प्रतिष्ठित समझे जाते थे, आज वे गजनी में मामूली दुकानदारों के गुलाम बने हुए हैं’’ फिर थोड़ा रुककर कहा, ‘‘लेकिन हमारे लिए कोई खास तोहफा लाए हो या नहीं?’’

‘‘लाया हूं ना काजी साहब!’’

‘‘क्या?’’

‘‘जन्नत की हूरों से भी सुंदर जयचंद की पौत्री कल्याणी और पृथ्वीराज चौहान की पुत्री बेला’’

‘‘तो फिर देर किस बात की है।’’

‘‘बस आपके इशारे भर की’’

और काजी की इजाजत पाते ही शाहबुद्दीन गौरी ने कल्याणी और बेला को काजी के हरम में पहुंचा दिया. कल्याणी और बेला की अद्भुत सुंदरता को देखकर काजी अचम्भे में आ गया, उसे लगा कि स्वर्ग से अप्सराएं आ गयी हैं. उसने दोनों राजकुमारियों (बेला और कल्याणी) से इस्लाम कबूलने और उससे निकाह करने का प्रस्ताव रखा.

बेला और कल्याणी भी समझ चुकी थी कि - अब बचना असंभव है इसलिए उन्होंने एक खतरनाक चाल चली. बेला ने काजी से कहा -‘‘काजी साहब! आपकी बेगमें बनना तो हमारी खुशकिस्मती होगी, लेकिन हमारी दो शर्तें हैं’’

‘‘कहो..कहो.. क्या शर्तें हैं तुम्हारी! तुम जैसी हूरों के लिए तो मैं कोई भी शर्त मानने के लिए तैयार हूं।

‘‘पहली शर्त से तो यह है कि शादी होने तक हमें अपवित्र न किया जाए और दुसरी शर्त है कि - हमारी परम्परा के अनुसार दूल्हा और दुल्हन का जोड़ा हमारी पसंद का और भारत से मंगबाया जाए. इस पर काजी ने खुश होकर कहा - ‘‘मुझे तुम्हारी दोनों शर्तें मंजूर हैं’’

फिर बेला और कल्याणी ने कविचंद के नाम एक रहस्यमयी खत लिखकर भारत भूमि से शादी का जोड़ा मंगवा लिया. काजी के साथ उनके निकाह का दिन निश्चित हो गया. रहमत झील के किनारे बनाये गए नए महल में विवाह की तैयारी शुरू हुई कवि चंद द्वारा भेजे गये कपड़े पहनकर काजी साहब विवाह मंडप में आए.

कल्याणी, बेला और काजी ने भी भारत से आये हुए कपड़े पहन रखे थे. शादी को देखने के लिए बाहर जनता की भीड़ इकट्ठी हो गयी थी. तभी बेला ने काजी साहब से कहा-‘‘हमारे होने वाले सरताज! हम कलमा और निकाह पढ़ने से पहले जनता को झरोखे से दर्शन देना चाहती हैं, क्योंकि विवाह से पहले जनता को दर्शन देने की हमारे यहां प्रथा है

और फिर गजनी वालों को भी तो पता चले कि आप बुढ़ापे में जन्नत की सबसे सुंदर हूरों से शादी रचा रहे हैं. शादी के बाद तो हमें जीवनभर बुरका पहनना ही है, तब हमारी सुंदरता का होना न के बराबर ही होगा. नकाब में छिपी हुई सुंदरता भला तब किस काम की।’’

‘‘हां..हां..क्यों नहीं’’ काजी ने उत्तर दिया और कल्याणी और बेला के साथ राजमहल के कंगूरे पर गया, लेकिन वहां पहुंचते-पहुंचते ही काजी साहब के दाहिने कंधे से आग की लपटें निकलने लगी, क्योंकि क्योंकि कविचंद ने बेला और कल्याणी का रहस्यमयी पत्र समझकर बड़े तीक्ष्ण विष में सने हुए कपड़े भेजे थे.

काजी साहब विष की ज्वाला से पागलों की तरह इधर-उधर भागने लगा, तब बेला ने उससे कहा-‘‘तुमने ही गौरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए उकसाया था ना, हमने तुझे मारने का षड्यंत्र रचकर अपने देश को लूटने का बदला ले लिया है. हम हिन्दू कुमारियां हैं समझे, किसमें इतना साहस है जो जीते जी हमारे शरीर को हाथ भी लगा दे’’

कल्याणी ने कहा, ‘‘नालायक! बहुत मजहबी बनते हो, अपने धर्म को शांतिप्रिय धर्म बताते हो और करते हो क्या? जेहाद का ढोल पीटने के नाम पर लोगों को लूटते हो और शांति से रहने वाले लोगों पर जुल्म ढाहते हो, थू! धिक्कार है तुम पर.’’

इतना कहकर दोनों राजकुमारियों ने महल की छत के किनारे खड़ी होकर एक-दूसरी की छाती में विष बुझी कटार जोर से भोंक दी और उनके प्राणहीन देह उस उंची छत से नीचे लुढ़क गये. पागलों की तरह इधर-उधर भागता हुआ काजी भी तड़प-तड़प कर मर गया.

भारत की इन दोनों बहादुर बेटियों ने विदेशी धरती पर पराधीन रहते हुए भी बलिदान की जिस गाथा का निर्माण किया, वह सराहने योग्य है आज सारा भारत इन बेटियों के बलिदान को श्रद्धा के साथ याद करता है. यह कहानी स्कूली इतिहास की किताबों में नहीं मिलेगी लेकिन यह बहुत मशहूर लोककथा है जिसपर मेलों में अक्सर नाटक खेला जाता है.

मंगलवार, 19 मई 2020

सपूत कै सो पीढ़ी

सपूत कै सो पीढ़ी  -
एक पैंतालिसा का भोजराजजिका शेखावत ठाकुर अपने ऊंट पर चढ़ा खेतड़ी के पास से गुजर रहा था सो सोचा चलो राजाजी से मिलते हुए निकल जाते हैं। इस समय अजित सिंह जी खेतड़ी के राजा  थे अपने जमाने के वे बहुत ही ख्यातिनामा राजा हुए हैं। खेतड़ी ,नवलगढ़ ,मंडावा ,बिसाऊ ,अलसीसर ,मुकन्दगढ़ ये सभी भी भोजराजजिके शेखावत ही हैं। शार्दुल सिंघजी के झुंझुनू लेने से इनकी जागीर बड़ी हो गयी। किन्तु पग में छोटे  होने से ये सभी पैंतालिसा वाले ठाकुरों को दादाजी कहते थे। 
सो इन ठाकुर साहब  ने गढ़ में जाकर ऊंट तो बाँध दिया व वहां खड़े चोकीदार को कहा की राजा जी को अर्ज कर कि आपके दादाजी मिलने आये हैं। राजा जी शायद दादाजी शब्द से थोड़ी चिड गये थे  सो चोकीदार को बोले की उन से पूछ की "भोजराज जी से कुण सी पीढ़ी में लागो हो " -उस ज़माने के लोग बात बिना लाग लपेट के व सीधी करते थे। सो इन ठाकुर साहेब ने उतर भिजवाया की " सपूत कै तो सो पीढ़ी लागां अर कपूत कै एक ही पीढ़ी कोनी लागां  _ " कहते हैं राजा जी ने उन को उपर बुलाने की जगह खुद ही  मिलने को नीचे आगये।

मदनसिंह शेखावत झांझड की पोस्ट

शुक्रवार, 15 मई 2020

राजवंशों की कुलदेवियाँ

 तँवर / तोमर वंश   

तोमर गोत्र का ही अपभ्रश तंवर है इतिहासकारों ने दिल्ली के तोमर राजाओ के लिए कही पर तोमर तो कही पर तंवर शब्द का उपयोग किया है तोमरो का दिल्ली पर शासन था उनकी शान में यह कहावत प्रचलित थी की जद कद दिल्ली तंवरा तोमरा तोमर जाट गोत्र उत्तर प्रदेश ,हरियाणा , पंजाब , राजस्थान , मध्य प्रदेश दिल्लीमें निवास करते है ।

 ✈️तँवर वंश - कुलदेवी - 

चिलाय माता की तंवर वंश
कुलदेवी के रूप में पूजा आराधना करता है। इतिहास में तंवरों की कुलदेवी के अनेक नाम मिलते हैं जैसे चिलाय माता, जोग माया (योग माया), योगेश्वरी (जोगेश्वरी), सरूण्ड माता, मनसादेवी आदि।

दिल्ली के इतिहास में तंवरो की कुलदेवी का नाम योगमाया मिलता है। तंवरों के पुर्वज पांडवों ने भगवान कृष्ण की बहन को कुलदेवी मानकर इन्द्रप्रस्थ में कुलदेवी का मंदिर बनवाया और उसी स्थान पर दिल्ली के संस्थापक राजा अनंगपाल प्रथम ने पुनः योगमाया के मंदिर का निर्माण करवाया। इसी मंदिर के कारण तंवरों की राजधानी को योगिनीपुर भी कहा गया, जो महरौली के पास स्थित है। यह इतिहास ग्रंथो व भारतीय पुरातत्व विभाग से पुष्ट है। तोमरों की अन्य शाखा और ग्वालियर के इतिहास में तंवरो की कुलदेवी का नाम योगेश्वरी ओर जोगेश्वरी भी मिलता है। ऐसा माना जाता है कि योगमाया (जोग माया) को ही बाद में योगेश्वरी, जोगेश्वरी के नाम से पुकारा जाने लगा।

राजस्थान में तोरावाटी -  (तंवरावाटी) के नाम से नव स्थापित तंवर राज्य के तंवर कुलदेवी के रूप में सरूण्ड माता को पुजते है। पाटन के इतिहास मे पाटन के राजा राव भोपाजी तंवर द्वारा कोटपुतली के पास कुलदेवी का मंदिर बनवाने का विवरण मिलता है। जहाँ पहले अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने योगमाया का मंदिर बनाया था। यह मंदिर अरावली श्रंखला की पहाड़ी पर स्थित है। मंदिर परिसर में उपलब्ध शिलालेख के आधार पर 650 फुट ऊँचा मंदिर एक छत्री (चबूतरा) में स्थित है। इस छत्री के चार दरवाजे हैं उसके अन्दर माता की प्रतिमा विराजमान है। छत्री के बाद का मंदिर 7 भवनों वाला है। मंदिर का मुख्य मार्ग दक्षिण में व माता के निज मंदिर का द्वार पश्चिम में है। इस मंदिर में माता की 8 भुजावाला आदमकद स्वरुप प्रतिमा स्थित है। स्तम्भों व दिवारो पर वाम मार्गियों व तांत्रिकों की मूर्तियाँ की मौजुदगी इनका प्रभाव दर्शाती है। मंदिर में माता को पांडवो द्वारा स्थापित करने के साक्ष्य रूप में छत्री स्थित हैं। मंदिर की परिक्रमा में चामुंडा की मूर्ति है जो आज भी सुरापान करती है। मंदिर की छत्री, जो लाल पत्थर की है का वजन लगभग 5 टन का है। मंदिर पीली मिट्टी से बना हुआ है इसके बावजूद बारिश में इसमें कहीं भी पानी नहीं टपकता। मंदिर तक पहुँचने के लिए 282 सीढियाँ है। इनके मध्य में माता की पवन चरण के निशान हैं! यहाँ 52 भैरव व 64 योग्नियां है ! सरुंड देवी की पहाड़ी से सोता नदी बहती है जिसके पास एशिया प्रसिद्ध बावड़ी है जो बिना सीमेन्ट, चूने आदि के बनी हुई है। इसे द्वापर युग में पाण्डवांे द्वारा 2500 चट्टानों से बनाई गई माना जाता है। योगमाया का मंदिर सरूण्ड गांव में स्थित होने से इसे सरूण्ड माता भी बोलते हैं।

तंवरो के बडवा के अनुसार तंवरो
की कुलदेवी चिलाय माता है। जाटू तंवरों ओर बड़वां की बही के अनुसार तंवरो की कुलदेवी ने चिल पक्षी का रूप धारण कर राव धोतजी के पुत्र जयरथ के पुत्र जाटू सिंह की बाल अवस्था में रक्षा की थी जिसके कारण माँ जोगमाया को चिलाय माता कहा जाने लगा और कालांतर में जोगमाया माता को चिलाय माता पुकारा जाने लगा। इतिहासकारांे के अनुसार कुलदेवी का वाहन चिल पक्षी के होने कारण यह चिलाय माता कहलाई। राजस्थान के तंवर चिलाय माता को ही कुलदेवी मानते हैं। लेकिन चिलाय माता के नाम से कोई भी पुराना मंदिर नहीं मिलता। जिससे जाहिर होता है कि जोगमाया का नाम चिलाय माता सिर्फ तंवरावाटी में ही प्रचलित हुआ। चिलाय माता के दो मंदिरों का विवरण मिलता है। जाटू तंवर और पाटन के इतिहास के अनुसार 12 वीं शताब्दी में जाटू तंवरो ने खुडाना में चिलाय माता का मंदिर बनाया था और माता द्वारा मनसा (मनोकामना) पूर्ण करने के कारण उसे मनसादेवी के नाम से पुकारा जाने लगा। एक और चिलाय माता मंदिर का विवरण मिलता है जो पाटन के राजाओं ने गुडगाँव में 14 वीं शताब्दी में बनवाया और ब्राह्मणों को माता की सेवा के लिए नियुक्त किया। लेकिन 17 वीं शताब्दी के बाद पाटन के राजा द्वारा माता के लिए सेवा जानी बन्द हो गयी थी। आज स्थानीय लोग चिलाय माता को शीतला माता समझ कर शीतला माता के रूप में पुजते है।

विभिन्न स्त्रोतों और पांडवो या तंवरो द्वारा बनवाये गये मंदिर से यही प्रतीत होता है कि तोमर (तंवर) की कुलदेवी माँ योगमाया है, जो बाद में योगेश्वरी कहलाई। और योगमाया को ही बाद में विभिन्न कारणों से स्थानीय रूप में योगेश्वरी, जोगमाया, चिलाय माता, सरुंड माता, मनसा माता, शीतला माता आदि के नाम से पुकारा जाने लगा और आराधना की जाने लगी।

तंवर (तोमर) वंश के गोत्र-प्रवरादि - 

वंश                –     चंद्रवंशी
कुल देवी         -        चिल्लाय माता
शाखा             –       मधुनेक,वाजस्नेयी
गोत्र                –        अत्रि, व्यागर, गागर्य
प्रवर                –  गागर्य,कौस्तुभ,माडषय
शिखा              –           दाहिनी
भेरू                –         गौरा
शस्त्र                –         खड़ग
ध्वज                           पंचरगा
पुरोहित                        भिवाल
बारहठ              –        आपत केदार वंशी
ढोली                –      रोहतान जात का
स्थान                –  पाटा मानस सरोवर
कुल वॄक्ष            –         गुल्लर
प्रणाम               –          जयगोपाल
निशान -        कपि(चील),चन्द्रमा
ढोल                 –             भंवर
नगारा             – रणजीत/जय, विजय, अजय
घोड़ा              –                श्वते
निकास          -          हस्तिनापुर
प्रमुख गदी       - इन्द्रप्रस्थ,दिल्ली
रंग                 –          हरा
नाई                –          क़ाला
चमार              –        भारीवाल
शंख                –         पिचारक
नदी               - सरस्वति,तुंगभद्रा
वेद                 –           यजुर्वेद
सवारी             –             रथ
देवता               –            शिव
गुरु                  –             सूर्य
उपाधि             – जावला नरेश.दिल्लीपति

 तंवरों की खांपें

1 जावला तंवर
2 रूणेचा तंवर
3 असिल जी (आसल जी ) के तंवर बत्तीस के आसल जी की खांपें     (3 उपशाखाएँ)
4 परसाराम जी के तंवर
5 किलोड़ जी के तंवर
6 कर्णे जी के तंवर
7 चैबीसी के तंवर जाटू के तंवर ग्वालेरा तंवर      (7 उपशाखाएँ)
8 सोमवाल तंवर
9 सलेरिया या सुणियार तंवर
10 ढमढेरिया या ढढमेर तंवर
11 पन्ना तंवर
12 तुनिहान तंवर
13 राघव तंवर
14 बेवत या भैपा तंवर
15 सापला (सीपल) तंवर
16 सुलेनिया तंवर
17 कलिया तंवर
18 राठौडि़या तंवर
19 जरावता तंवर
20 इन्दोलिया तंवर
21 इन्दा तंवर

चैबीसी के तंवर जाटू के तंवर ग्वालेरा तंवर  7 उपशाखाएँ
1 मोरी तंवर
2 मोटन तंवर
3 जंधारा तंवर
4 सतरावला तंवर
5 कौढ़याणा तंवर
6 बौडाणा तंवर
7 निहाल तंवर

असिल जी (आसल जी ) के तंवर बत्तीस के आसल जी की खांपें  3 उपशाखाएँ -
1 आसल जी के तंवर
2 उदो जी के तंवर
3 किलोर जी के तंवर बाईसा के तंवर

✈️ चन्द्रवंशी तंवर(तोमर)राजपूतो का इतिहास - 

तोमर या तंवर उत्तर-पश्चिम भारत का एक राजपूत वंश है। तोमर राजपूत क्षत्रियो में चन्द्रवंश की एक शाखा है और इन्हें पाण्डु पुत्र अर्जुन का वंशज माना जाता है.इनका गोत्र अत्री एवं व्याघ्रपद अथवा गार्गेय्य होता है। क्षत्रिय वंश भास्कर,पृथ्वीराज
रासो,बीकानेर वंशावली में भी यह वंश चन्द्रवंशी लिखा हुआ है,यही नहीं कर्नल जेम्स टॉड जैसे विदेशी इतिहासकार भी तंवर वंश को पांडव वंश ही मानते हैं. उत्तर मध्य काल में ये वंश बहुत ताकतवर वंश था और उत्तर पश्चिमी भारत के बड़े हिस्से पर इनका शाशन था। देहली जिसका प्राचीन नाम ढिल्लिका था, इस वंश की राजधानी थी और उसकी स्थापना का श्रेय इसी वंश को जाता है।तंवर अथवा तोमर वंश के नामकरण की कई मान्यताएं प्रचलित हैं,कुछ विद्वानों का मानना है कि राजा तुंगपाल के नाम पर तंवर वंश का नाम पड़ा,पर सर्वाधिक उपयुक्त मान्यता ये प्रतीत होती है "पांडव वंशी अर्जुन ने नागवंशी क्षत्रियो को अपना दुश्मन बना लिया था,नागवंशी क्षत्रियो ने पांड्वो को मारने का प्रण ले लिया था,पर पांडवो के राजवैध धन्वन्तरी के होते हुए वे पांड्वो का कुछ न बिगाड़ पाए !अतः उन्होंने धन्वन्तरी को मार डाला !इसके बाद अभिमन्यु पुत्र परीक्षित को मार डाला !परीक्षित के बाद उसका पुत्र जन्मेजय राजा बना !अपने पिता का बदला लेने के लिए जन्मेजय ने नागवंश के नो कुल समाप्त कर दिए !नागवंश को समाप्त होता देख उनके गुरु आस्तिक जो की जत्कारू के पुत्र थे,जन्मेजय के दरबार मैं गए व् सुझाव दिया की किसी वंश को समूल नष्ट नहीं किया जाना चाहिए व सुझाव दिया की इस हेतु आप यज्ञ करे !महाराज जन्मेजय के पुरोहित कवष के पुत्र तुर इस यज्ञ के अध्यक्ष बने !इस यग्य में जन्मेजय के पुत्र,पोत्र अदि दीक्षित हुए !क्योकि इन सभी को तुर ने दीक्षित किया था इस कारण ये पांडव तुर,तोंर या बाद तांवर तंवर या तोमर कहलाने लगे !ऋषि तुर द्वारा इस यज्ञ का वर्णन पुराणों में भी मिलता है.।

 महाभारत काल के बाद तंवर वंश का वर्णन -  महाभारत काल के बाद पांडव वंश का वर्णन पहले तो 1000 ईसा पूर्व के ग्रंथो में आता है जब हस्तिनापुर राज्य को युधिष्ठर वंश बताया गया,पर इसके बाद से लेकर
बौद्धकाल,मौर्य युग से लेकर गुप्तकाल तक इस वंश के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती । समुद्रगुप्त के शिलालेख से पता चलता है कि उन्होंने मध्य और पश्चिम भारत की यौधेय और अर्जुनायन क्षत्रियों को अपने अधीन किया था। यौधेय वंश युधिष्ठर का वंश माना जा सकता है और इसके वंशज आज भी चन्द्रवंशी जोहिया राजपूत कहलाते हैं जो अब अधिकतर मुसलमान हो गए हैं,इन्ही के आसपास रहने वाले अर्जुनायन को अर्जुन का वंशज माना जा सकता है और ये उसी क्षेत्रो में पाए जाते थे जहाँ आज भी तंवरावाटी और तंवरघार है,यानि पांडव वंश ही उस समय तक अर्जुनायन के नाम से जाना जाता था और कुछ समय बाद वही वंश अपने पुरोहित ऋषि तुर द्वारा यज्ञ में दीक्षित होने पर तुंवर, तंवर,तूर,या तोमर के नाम से जाना गया.(इतिहासकार महेन्द्र सिंह तंवर खेतासर भी अर्जुनायन को ही तंवर वंश मानते हैं) ।

तंवर वंश और दिल्ली की स्थापना -  ईश्वर का चमत्कार देखिये कि हजारो साल बाद पांडव वंश को पुन इन्द्रप्रस्थ को बसाने का मौका मिला,और ये श्रेय मिला अनंगपाल तोमर प्रथम को. दिल्ली के तोमर शासको के अधीन दिल्ली के अलावा पंजाब ,हरियाणा,पश्चिमी उत्तर प्रदेश भी था,इनके छोटे राज्य पिहोवा,सूरजकुंड,हांसी,थानेश्वर में होने के भी अभिलेखों में उल्लेख मिलते हैं।इस वंश ने बड़ी वीरता के साथ तुर्कों का सामना किया और कई सदी तक उन्हें अपने क्षेत्र में अतिक्रमण करने नहीं दिया दिल्ली के तंवर(तोमर) शासक (736-1193 ई) तक हुये ।
 1.अनगपाल तोमर प्रथम (736-754 ई)-दिल्ली के संस्थापक राजा थे जिनके अनेक नाम मिलते हैं जैसे बीलनदेव, जाऊल इत्यादि। 
2.राजा वासुदेव (754-773) 3.राजा गंगदेव (773-794) 4.राजा पृथ्वीमल (794-814)-बंगाल के राजा धर्म पाल के साथ युद्ध 
5.जयदेव (814-834) 
6.राजा नरपाल (834-849) 7.राजा उदयपाल (849-875) 8.राजा आपृच्छदेव (875-897) 9.राजा पीपलराजदेव (897-919) 
10.राज रघुपाल (919-940) 11.राजा तिल्हणपाल (940-961) 
12.राजा गोपाल देव (961-979)-इनके समय साम्भर के राजा सिहराज और लवणखेडा के तोमर सामंत सलवण के मध्य युद्ध हुआ जिसमें सलवण मारा गया तथा उसके पश्चात दिल्ली के राजा गोपाल देव ने सिंहराज पर आक्रमण करके उन्हें युद्ध में मारा 13.सुलक्षणपाल तोमर (979-1005)-महमूद गजनवी के साथ युद्ध किया 
14..जयपालदेव (1005-1021)-महमूद गजनवी के साथ युद्ध किया, महमूद ने थानेश्वसर ओर मथुरा को लूटा 15.कुमारपाल (1021-1051) 1021-1051)-मसूद के साथ युद्ध किया और 1038 में हाँसी के गढ का पतन हुआ, पाच वर्ष बाद कुमारपाल ने हासी, थानेश्वसर के साथ साथ कांगडा भी जीत लिया 
16.अनगपाल द्वितीय (1051-1081)-लालकोट का निर्माण करवाया और लोह स्तंभ की स्थापना की, अनंगपाल द्वितीय ने 27 महल और मन्दिर बनवाये थे।दिल्ली सम्राट अनगपाल द्वितीय ने तुर्क इबराहीम को पराजित किया 17.तेजपाल -प्रथम(1081-1105) 18.महिपाल(1105-1130)-महिलापुर बसाया और शिव मंदिर का निर्माण करवाया 19.विजयपाल (1130-1151)-मथुरा में केशवदेव का मंदिर 20.मदनपाल(1151-1167)- मदनपाल अथवा अनंगपाल तृतीय ,मदनपाल ने बीसलदेव के साथ मिलकर तुर्कों के हमलो के विरुद्ध युद्ध किया और उन्हें मार भगाया,मदलपाल तोमर ने विग्रहराज चौहान उर्फ़ बीसलदेव के शोर्य से प्रभावित होकर उससे अनंगपाल ने अपनी दो पुत्रियों की शादी एक कन्नौज के जयचंद के पिता विजयपाल के साथ और दूसरी कमला देवी का विवाह पृथ्वीराज के पिता सोमेशवर चौहान के साथ की,जिससे पृथ्वीराज चौहान का जन्म हुआ,जबकि सबसे और पृथ्वीराज चौहान तो अनंगपाल तोमर का धेवता था, विजयपाल उसका मौसा 
21.पृथ्वीराज तोमर(1167-1189)-अजमेर के राजा सोमेश्वर और पृथ्वीराज चव्हाण इनके समकालीन थे ।

 22.चाहाडपाल/गोविंदराज (1189-1192)-पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर गोरी के साथ युद्ध किया,तराईन दुसरे युद्ध मे मारा गया।पृथ्वीराज रासो के अनुसार तराईन के पहले युद्ध में मौहम्मद गौरी और गोविन्दराज तोमर का आमना सामना हुआ था,जिसमे दोनों घायल हुए थे और गौरी भाग रहा था। भागते हुए गौरी को धीरसिंह पुंडीर ने पकडकर बंदी बना लिया था। जिसे उदारता दिखाते हुए पृथ्वीराज चौहान ने छोड़ दिया। हालाँकि गौरी के मुस्लिम इतिहासकार इस घटना को छिपाते हैं। 
23.तेजपाल द्वितीय (1192-1193 ई)-दिल्ली का अन्तिम तोमर राजा , जिन्होंने स्वतन्त्र 15 दिन तक शासन किया, और कुतुबुद्दीन ने दिल्ली पर आक्रमण कर हमेशा के लिए दिल्ली पर कब्जा कर लिया।

ग्वालियर,चम्बल,ऐसाह गढ़ी का तोमर वंश - दिल्ली छूटने के बाद वीर सिंह तंवर ने चम्बल घाटी के ऐसाह गढ़ी में अपना राज स्थापित किया जो इससे पहले भी अर्जुनायन तंवर वंश के समय से उनके अधिकार में था,बाद में इस वंश ने ग्वालियर पर भी अधिकार कर मध्य भारत में एक बड़े राज्य की स्थापना की ।यह शाखा ग्वालियर स्थापना के कारण ग्वेलेरा कहलाती है ।माना जाता है कि ग्वालियर का विश्वप्रसिद्ध किला भी तोमर शासको ने बनवाया था.यह क्षेत्र आज भी तंवरघार कहा जाता है और इस क्षेत्र में तोमर राजपूतो के 1400 गाँव कहे जाते हैं। वीर सिंह के बाद उद्दरण,वीरम,गणपति,डूंगर सिंह,कीर्तिसिंह,कल्याणमल,और राजा मानसिंह हुए ।राजा मानसिंह तोमर बड़े प्रतापी शासक हुए,उनके दिल्ली के सुल्तानों से निरंतर युद्ध हुए,उनकी नो रानियाँ राजपूत थी । मानसिंह के बाद विक्रमादित्य राजा हुए ।उन्होंने पानीपत की लड़ाई में अपना बलिदान दिया,उनके बाद रामशाह तोमर राजा हुए,उनका राज्य 1567 ईस्वी में अकबर ने जीत लिया।इसके बाद राजा रामशाह तोमर ने मुगलों से कोई संधि नहीं की और अपने परिवार के साथ महाराणा उदयसिंह मेवाड़ के पास आ गए।हल्दीघाटी के युद्ध में राजा रामशाह तोमर ने अपने पुत्र शालिवाहन तोमर के साथ वीरता का असाधारण प्रदर्शन कर अपने परिवारजनों समेत महान बलिदान दिया।उनके बलिदान को आज भी मेवाड़ राजपरिवार द्वारा आदरपूर्वक याद किया जाता है। मालवा में रायसेन में भी तंवर राजपूतो का शासन था ।यहाँ के शासक सिलहदी उर्फ़ शिलादित्य तंवर राणा सांगा के दामाद थे और खानवा के युद्ध में राणा सांगा की और से लडे थे।कुछ इतिहासकार इन पर राणा सांगा से धोखे का भी आरोप लगाते हैं ,पर इसके प्रमाण पुष्ट नही हैं,सिल्ह्दी पर गुजरात के बादशाह बहादुर शाह ने 1532 इसवी में हमला किया।इस हमले में सिलहदी तंवर की पत्नी जो राणा सांगा की पुत्री थी उन्होंने 700 राजपूतानियो और अपने दो छोटे बच्चों के साथ जौहर किया और सिल्हदी तंवर अपने भाई के साथ वीरगति को प्राप्त हुए ।बाद में रायसेन को पूरनमल को दे दिया गया।कुछ वर्षो बाद 1543 इसवी में रायसेन के मुल्लाओ की शिकायत पर शेरशाह सूरी ने इसके राज्य पर हमला किया और पूरणमल की रानियों ने जौहर कर लिया और पूरणमल मारे गये इस प्रकार इस राज्य की समाप्ति हुई ।
 तंवरावाटी और तंवर ठिकाने -  देहली में तोमरो के पतन के बाद तोमर राजपूत विभिन्न दिशाओ में फ़ैल गए। एक शाखा ने उत्तरी राजस्थान के पाटन में जाकर अपना राज स्थापित किया जो की जयपुर राज्य का एक भाग था। ये अब 'तँवरवाटी'(तोरावाटी) कहलाता है और वहाँ तँवरों के ठिकाने हैं। मुख्य ठिकाना पाटण का ही है।एक ठिकाना खेतासर भी है।इनके अलावा पोखरण में भी तंवर राजपूतो के ठिकाने हैं। ।बाबा रामदेव तंवर वंश से ही थे जो बहुत बड़े संत माने जाते हैं।आज भी वो पीर के रूप में पूजे जाते हैं ।मेवाड़ के सलुम्बर में भी तंवर राजपूतो के कई ठिकाने हैं जिनमे बोरज तंवरान एक ठिकाना है ।इसके अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश में बेजा ठिकाना और कोटि जेलदारी,बीकानेर में दाउदसर ठिकाना, मांधोली जागीर,भी तंवर राजपूतो के ठिकाने हैं ।धौलपुर की स्थापना भी तंवर राजपूत धोलनदेव ने की थी। 18 वी सदी के आसपास अंग्रेजो ने जाटों को धौलपुर दे दिया। ये जाट गोहद से सिंधिया द्वारा विस्थापित किये गए थे और पूर्व में इनके पूर्वज राजा मानसिंह तोमर की सेवा में थे और उनके द्वारा ही इन्हें गोहद में बसाया गया था।अब भी धौलपुर में कायस्थपाड़ा तंवर राजपूतो का ठिकाना है।

 तंवरवंश की शाखाएँ  -  तंवर वंश की प्रमुख शाखाएँ - रुनेचा,ग्वेलेरा,बेरुआर,बिल्दारिया,खाति,इन्दोरिया,जाटू,जंघहारा,सोमवाल हैं,इसके अतिरिक्त पठानिया वंश भी पांडव वंश ही माना जाता है,इसका प्रसिद्ध राज्य नूरपुर है,इसमें वजीर राम सिंह पठानिया बहुत प्रसिद्ध यौद्धा हुए हैं.जिन्होंने अंग्रेजो को नाको चने चबवा दिए थे. इन शाखाओं में रूनेचा राजस्थान में,ग्वेलेरा चम्बल क्षेत्र में,बेरुआर यूपी बिहार सीमा पर,बिलदारिया कानपूर उन्नाव के पास,इन्दोरिया मथुरा, बुलन्दशहर,आगरा में मिलते हैं ।मेरठ मुजफरनगर के सोमाल वंश भी पांडव वंश माना जाता है,जाटू तंवर राजपूतो की भिवानी हरियाणा में 1440 गाँव की रियासत थी।इस शाखा के तंवर राजपूत हरियाणा में मिलते हैं।जंघारा राजपूत यूपी के अलीगढ,बदायूं,बरेली शाहजहांपुर आदि जिलो में मिलते हैं,ये बहुत वीर यौद्धा माने जाते हैं इन्होने रुहेले पठानों को कभी चैन से नहीं बैठने दिया,और अहिरो को भगाकर अपना राज स्थापित किया ।

पूर्वी उत्तर प्रदेश का जनवार राजपूत वंश भी पांडववंशी जन्मेजय का वंशज माना जाता है। इस वंश की बलरामपुर समेत कई बड़ी स्टेट पूर्वी यूपी में हैं।

 इनके अतिरिक्त पाकिस्तान में मुस्लिम जंजुआ राजपूत भी पांडव वंशी कहे जाते हैं जंजुआ वंश ही शाही वंश था जिसमे जयपाल,आनंदपाल,जैसे वीर हुए जिन्होंने तुर्क महमूद गजनवी का मुकाबला बड़ी वीरता से किया था ।जंजुआ राजपूत बड़े वीर होते हैं और पाकिस्तान की सेना में इनकी बडी संख्या में भर्ती होती है.इसके अलावा वहां का जर्राल वंश भी खुद को पांडव वंशी मानता है।

 मराठो में भी एक वंश तंवरवंशी है जो तावरे या तावडे कहलाता है ।महादजी सिंधिया का एक सेनापति फाल्किया खुद को बड़े गर्व से तंवर वंशी मानता था ।

 तोमर/तंवर राजपूतो की वर्तमान आबादी -  तोमर राजपूत वंश और इसकी सभी शाखाएँ न सिर्फ भारत बल्कि पाकिस्तान में भी बड़ी संख्या में मिलती है,चम्बल क्षेत्र में ही तोमर राजपूतो के 1400 गाँव हैं,इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पिलखुआ के पास तोमरो के 84 गाँव हैं,भिवानी में 84 गाँव जिनमे बापोड़ा प्रमुख है ।मेरठ में गढ़ रोड पर 12 गाँव जिनमे सिसोली और बढ्ला बड़े गाँव हैं, कुरुक्षेत्र में 12 गाँव,गढ़मुक्तेश्वर में 42 गाँव हैं जिनमे भदस्याना और भैना प्रसिद्ध हैं. बुलन्दशहर में 24 गाँव,खुर्जा के पास 5 गाँव तोमर राजपूतो के हैं,हरियाणा में मेवात के नूह के पास 24 गाँव हैं जिनमे बिघवाली प्रमुख है. ये सिर्फ वेस्ट यूपी और हरियाणा का थोडा सा ही विवरण दिया गया है,इनकी जनसँख्या का,अगर इनकी सभी प्रदेशो और पाकिस्तान में हर शाखाओ की संख्या जोड़ दी जाये तो इनके कुल गाँव की संख्या कम से कम 6000 होगी,चौहान राजपूतो के अलावा राजपूतो में शायद ही कोई वंश होगा जिसकी इतनी बड़ी संख्या हो ।

 जंजुआ राजपूतों की उत्पत्ति व नाम अर्जुन के वंशज राजा जनमेजय से मानी जाती है जिनके ऊपर इनके वंश का नाम पड़ा। जंजुआ वंश तंवर वंश के भाई के रूप में देखा जाता है। जंजुआ राजपूतों के राज्य पूर्वी पाकिस्तान के इलाके में रहे है।

✈️ तँवर  वंश - प्रमुख  शासक , संक्षिप्त इतिहास - 

दक्षिण के राष्ट्रकूट और चालुक्य शासको ने भी अरबो के विरुद्ध संघर्ष में सहायता की,कुछ समय पश्चात् सिंध पुन: सुमरा और सम्मा राजपूतो के नेत्रत्व में स्वाधीन हो गया और अरबों का राज बहुत थोड़े से क्षेत्र पर रह गया ।किसी मुस्लिम इतिहासकार ने लिखा भी है कि “इस्लाम की जोशीली धारा जो हिन्द को डुबाने आई थी वो सिंध के छोटे से इलाके में एक नाले के रूप में बहने लगी,अरबों की सिंध विजय के कई सौ वर्ष बाद भी न तो यहाँ किसी भारतीय ने इस्लाम धर्म अपनाया है न ही यहाँ कोई अरबी भाषा जानता है”अरब तो भारत में सफल नहीं हुए पर मध्य एशिया से तुर्क नामक एक नई शक्ति आई जिसने कुछ समय पूर्व ही बौद्ध धर्म छोडकर इस्लाम धर्म ग्रहण किया था,अल्पतगीन नाम के तुर्क सरदार ने गजनी में राज्य स्थापित किया,फिर उसके दामाद सुबुक्तगीन ने काबुल और जाबुल के हिन्दू शाही जंजुआ राजपूत राजा जयपाल पर हमला किया,
जंजुआ राजपूत वंश भी तोमर वंश की शाखा है और अब अधिकतर पाकिस्तान के पंजाब में मिलते हैं और अब मुस्लिम हैं कुछ थोड़े से हिन्दू जंजुआ राजपूत भारतीय पंजाब में भी मिलते हैं ।उस समय अधिकांश अफगानिस्तान(उपगणस्तान),और समूचे पंजाब पर जंजुआ शाही राजपूतो का शासन था सुबुक्तगीन के बाद उसके पुत्र महमूद गजनवी ने इस्लाम के प्रचार और धन लूटने के उद्देश्य से भारत पर सन 1000 ईस्वी से लेकर 1026 ईस्वी तक कुल 17 हमले किये,जिनमे पंजाब का शाही जंजुआ राजपूत राज्य पूरी तरह समाप्त हो गया और उसने सोमनाथ मन्दिर गुजरात, कन्नौज, मथुरा,कालिंजर,नगरकोट(कटोच),थानेश्वर तक हमले किये और लाखो हिन्दुओं की हत्याएं,बलात धर्मपरिवर्तन,लूटपाट हुई,

ऐसे में दिल्ली के तंवर/तोमर राजपूत वंश ने अन्य राजपूतो के साथ मिलकर इसका सामना करने का निश्चय किया,

दिल्लीपति राजा जयपालदेव तोमर(1005-1021) - गज़नवी वंश के आरंभिक आक्रमणों के समय दिल्ली-थानेश्वर का तोमर वंश पर्याप्त समुन्नत अवस्था में था।महमूद गजनवी ने जब सुना कि थानेश्वर में बहुत से हिन्दू मंदिर हैं और उनमे खूब सारा सोना है तो उन्हें लूटने की लालसा लिए उसने थानेश्वर की और कूच किया ।थानेश्वर के मंदिरों की रक्षा के लिए दिल्ली के राजा जयपालदेव तोमर ने उससे कड़ा संघर्ष किया,किन्तु दुश्मन की अधिक संख्या होने के कारण उसकी हार हुई,तोमरराज ने थानेश्वर को महमूद से बचाने का प्रयत्न भी किया, यद्यपि उसे सफलता न मिली।और महमूद ने थानेश्वर में जमकर रक्तपात और लूटपाट की. ।

दिल्लीपति राजा कुमार देव तोमर(1021-1051) - सन् 1038 ईo (संo १०९५) महमूद के भानजे मसूद ने हांसी पर अधिकार कर लिया। और थानेश्वर को हस्तगत किया। दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी होने लगी। ऐसा प्रतीत होता था कि मुसलमान दिल्ली राज्य की समाप्ति किए बिना चैन न लेंगे।किंतु तोमरों ने साहस से काम लिया।गजनी के सुल्तान को मार भगाने वाले कुमारपाल तोमर ने दुसरे राजपूत राजाओं के साथ मिलकर हांसी और आसपास से मुसलमानों को मार भगाया ।
अब भारत के वीरो ने आगे बढकर पहाड़ो में स्थित कांगड़ा का किला जा घेरा जो तुर्कों के कब्जे में चला गया था,चार माह के घेरे के बाद
नगरकोट(कांगड़ा)का किला जिसे भीमनगर भी कहा जाता है को राजपूत वीरो ने तुर्कों से मुक्त करा लिया और वहां पुन:मंदिरों की स्थापना की ।

लाहौर का घेरा - 

इसके बाद कुमारपाल देव तोमर की सेना ने लाहौर का घेरा डाल दिया,वो भारत से तुर्कों को पूरी तरह बाहर निकालने के लिए कटिबद्ध था.इतिहासकार गांगुली का अनुमान है कि इस अभियान में राजा भोज परमार,कर्ण कलचुरी,राजा अनहिल चौहान ने भी कुमारपाल तोमर की सहायता की थी.किन्तु गजनी से अतिरिक्त सेना आ जाने के कारण यह घेरा सफल नहीं रहा।

नगरकोट कांगड़ा का द्वितीय घेरा(1051 ईस्वी) - गजनी के सुल्तान अब्दुलरशीद ने पंजाब के सूबेदार हाजिब को कांगड़ा का किला दोबारा जीतने का निर्देश दिया,मुसलमानों ने दुर्ग का घेरा डाला और छठे दिन दुर्ग की दीवार टूटी,विकट युद्ध हुआ और इतिहासकार हरिहर दिवेदी के अनुसार कुमारपाल देव तोमर बहादुरी से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ.अब रावी नदी गजनी और भारत के मध्य की सीमा बन गई. ।मुस्लिम इतिहासकार बैहाकी के अनुसार “राजपूतो ने इस युद्ध में प्राणप्रण से युद्ध किया,यह युद्ध उनकी वीरता के अनुरूप था,अंत में पांच सुरंग लगाकर किले की दीवारों को गिराया गया,जिसके बाद हुए युद्ध में तुर्कों की जीत हुई और उनका किले पर अधिकार हो गया ।इस प्रकार हम देखते हैं कि दिल्लीपति कुमारपाल देव तोमर एक महान नायक था उसकी सेना ने न केवल हांसी और थानेश्वर के दुर्ग ही हस्तगत न किए; उसकी वीर वाहिनी ने काँगड़े पर भी अपनी विजयध्वजा कुछ समय के लिये फहरा दी। लाहौर भी तँवरों के हाथों से भाग्यवशात् ही बच गया।

दिल्लीपती राजाअनंगपाल-II ( 1051-1081 ) - उनके समय तुर्क इबराहीम ने हमला किया जिसमें अनगपाल द्वितीय खुद युद्ध लड़ने गये,,,, युद्ध में एक समय आया कि तुर्क इबराहीम ओर अनगपाल कि आमना सामना हो गया। अनंगपाल ने अपनी तलवार से इबराहीम की गर्दन ऊडा दि थी। एक राजा द्वारा किसी तुर्क बादशाह की युद्ध में गर्दन उडाना भी एक महान उपलब्धि है तभी तो अनंगपाल की तलवार पर कई कहावत प्रचलित भी है।तुर्क हमलावर मौहम्मद गौरी के विरुद्ध तराइन के युद्ध में तोमर राजपूतो की वीरता हुई ।

दिल्लीपति राजा चाहाडपाल/गोविंदराज तोमर(1189-1192 ) - गोविन्दराज तोमर पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर तराइन के दोनों युद्धों में लड़ें,पृथ्वीराज रासो के अनुसार तराईन के पहले युद्ध में मौहम्मद गौरी और गोविन्दराज तोमर का आमना सामना हुआ था,जिसमे दोनों घायल हुए थे और गौरी हारकर भाग रहा था। भागते हुए गौरी को धीरसिंह पुंडीर ने पकडकर बंदी बना लिया था। जिसे उदारता दिखाते हुए पृथ्वीराज चौहान ने छोड़ दिया। हालाँकि गौरी के मुस्लिम इतिहासकार इस घटना को छिपाते हैं।पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर गोरी के साथ युद्ध किया,तराईन दुसरे युद्ध मे मारे गए।

तेजपाल द्वितीय (1192-1193 ई) - दिल्ली का अन्तिम तोमर राजा,जिन्होंने स्वतन्त्र 15 दिन तक शासन किया,इन्ही के पास पृथ्वीराज चौहान की रानी(पुंडीर राजा चन्द्र पुंडीर की पुत्री) से उत्पन्न पुत्र रैणसी उर्फ़ रणजीत सिंह था,तेजपाल ने बची हुई सेना की मदद से गौरी का सामना करने की गोपनीय रणनीति बनाई,युद्ध से बची हुई कुछ सेना भी उसके पास आ गई थी।मगर तुर्कों को इसका पता चल गया और कुतुबुद्दीन ने दिल्ली पर आक्रमण कर हमेशा के लिए दिल्ली पर कब्जा कर लिया।इस हमले में रैणसी मारे गए।

इसके बाद भी हांसी में और हरियाणा में अचल ब्रह्म के नेत्रत्व में तुर्कों से युद्ध किया गया,इस युद्ध में मुस्लिम इतिहासकार हसन निजामी किसी जाटवान नाम के व्यक्ति का उल्लेख करता है जिसे आजकल हरियाणा के जाट बताते हैं जबकि वो राजपूत थे और संभवत इस क्षेत्र में आज भी पाए जाने वाले तंवर/तोमर राजपूतो की जाटू शाखा से थे,

इस प्रकार हम देखते हैं कि दिल्ली के तोमर राजवंश ने तुर्कों के विरुद्ध बार बार युद्ध करके महान बलिदान दिए किन्तु खेद का विषय है कि संभवत: कोई तोमर राजपूत भी दिल्लीपति कुमारपाल देव तोमर जैसे वीर नायक के बारे में नहीं जानता होगा जिसने राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए अपने राज्य से आगे बढकर
कांगड़ा,लाहौर तक जाकर तुर्कों को मार लगाई और अपना जीवन धर्मरक्षा के लिए न्योछावर कर दिया ।दिल्ली के तोमर राजवंश की वीरता को समग्र राष्ट्र की और से शत शत नमन।

शिव सिह भुरटिया