शनिवार, 11 मई 2024

राव शेखाजी के निर्वाण का प्रसंग



राव शेखाजी के निर्वाण का प्रसंग

धर जाता धर्म पल्टतां, त्रिया पडता ताव।
तीनो ही दिन मरण रा कुण रंक कुण राव ।।


उस दिन विक्रम संवत् 1545 की अक्षय तृतीय का सूर्य ठीक सर पर पहुंच चूका था । समस्त वातावरण बसन्त की समाप्ति और ग्रीष्म के आगमन की सूचना दे रहा था । गर्म वायु का एक झोंका आता और बालू के टीलों पर फूलो से लदे हुए फोग हिल उठते और उनकी केशो जेसी लम्बी पत्तियो से भूमि पर झाड़ू सा लग जाता । वायु के झोंके के साथ ही कंटीली बंवलियो के पिले पुष्पो की सुगन्धि दूर तक फेल जाती और सुगन्ध रहित रोहिड़ा के सुंदर लाल पुष्प इधर उधर बिखर जाते । ठीक इसी समय जीण माता पर्वत श्रंखला की छाया में एक खेजड़ी के वृक्ष के नीचे राव शेखा जी घायलावस्था में बैठे थे । उनके सब घावों में टांके लगा दिये गए थे तथापि अब भी उनमे पीड़ा हो रही थी । वे बार बार अनुचर से मंगवा के पानी पी रहे थे । कल से अब तक उन्होंने कुछ भी नही खाया था अतएव इस समय उनको जोर की भूख लग रही थी । उन्होंने अनुचर से पूछा - भोजन में कितनी देर है ? देर नही हे महाराज ! माँस तो पक चूका हे और रोटिया बन रही हे सो अभी लाता हूं । थोड़ी देर में अनुचर ने बाजरे की रोटी पर माँस परोस कर उसे राव शेखाजी के हाथ में दे दिया । बायें हाथ की हथेली पर रोटी को रख कर दाहिने हाथ से वे उसे खाने लगे । रोटी खाते खाते उन्होंने देखा - एक वनबिलाव काली सी कम्बल जैसी किसी वस्तु को घसीट कर ले जा रहा था । उन्होंने पूछा - वह वनबिलाव क्या घसीट कर ले जा रहा है ? जरा देखो तो उधर जा कर । एक आदमी वनबिलाव के पीछे दौड़ा और थोड़ी देर में एक ताजा खाल को उससे छुड़ावाकर ले आया । क्या था ? राव शेखाजी ने फिर पूछा । महाराज ! मेढे की यह खाल थी जो वह घसीट कर भाग रहा था । अनुचर ने पास ही खड़ी दूसरी खेजड़ी की टहनियों पर सुखाते हुए कहा । राव शेखाजी ने ध्यान से उस खाल को देखते हुए पूछा -
क्या यह माँस इसी मेढे का बनाया है ?
हाँ महाराज !
उनकी मुख मुद्रा गंभीर हो गयी । उन्होंने अपने ऊपर फैली खेजड़ी को देखा , जिस खाट पर वे बैठे थे उसे ध्यान से देखा और फिर हाथ की बाजरे की रोटी और मांस को देखा । उनके ह्रदय में कई भाव तरंगे उठी और वे सब  एक ही आशंका में बदल गयी । उनके मस्तिष्क के विभिन्न विचारो ने एक निश्चयात्मक रूप धारण कर लिया । इन सब कारणों से उनके मुख मण्डल पर एक विचित्र परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगा । कुछ ही क्षणों में उन्होंने अपने विगत जीवन के चालीस पचास वर्षो का लेखा जोखा कर डाला और तत्काल ही उनकी विचार श्रंखला वर्तमान को छोड़ कर भविष्य पर जा ठहरी । उन्होंने हाथ के रोटी मांस को एक और रख दिया और फिर हाथ धोकर कुल्ला कर लिया ।
क्या महाराज जीम चुके ? अनुचर ने और रोटी और माँस परोसने के लिए लाते हुए पूछा ।
हाँ । कहते हुए उन्होंने अपने अंगरखे की जेब से एक छोटी सी लाल चीथड़े में बन्धी हुई गठरी निकाली । उसे उन्होंने बार बार ध्यान से देखा और सावधानी पूर्वक उसे जेब में रखते हुए पूछा -
सालजी भाटी कहाँ गए ?
वे घोड़ो के लिए घास का प्रबंध करने के लिए रलावता गाँव में गए हे । अनुचर ने उत्तर दिया ।
उन्हें जल्दी बुलाओ । कहते हुए राव शेखा जी ने फिर उस लाल चीथड़े में बन्धी हुई गठरी को जेब से निकाला । थोड़ी देर में उनके उन्नत ललाट पर पसीने की बुँदे चमक उठी और वे व्याकुलतापूर्वक बार बार उसकी और देखने लगे । ठीक ग्यारह वर्षो से तलवार की ही भाँति वह गठरी भी उनके शरीर का एक अभिन्न अंग बन गई थी । वे सदैव उसे सावधानी पूर्वक अपने पास रखते थे । उसके माध्यम से वे किसी दुष्कर कार्य को पूरा करना चाहते थे पर उस दिन उनकी भावभंगी से ऐसा लग रहा था मानो वह कार्य पूरा हुआ नही है । उन्होंने व्यग्रता पूर्वक पूछा -
सालजी को बुलाने भेजा हे किसी को ? हाँ महाराज ! उत्तर मिला । वे फिर अपने गत जीवन का सिंहावलोकन करने लगे । विगत ग्यारह वर्षो का इतिहास कुछ ही क्षणों में उनके मानस पटल पर अंकित होता हुआ उनकी आँखों के सामने से निकल गया ।
यह ग्यारह वर्षो का इतिहास भी बहुत कुछ उसी गठरी से प्रभावित रहता आया था । उस गठरी की घटना ने राव शेखाजी के जीवन प्रवाह को एक विशिष्ट दिशा की ओर उन्मुख कर दिया था । ग्यारह वर्षो से वे एक दृढ़ व्रती साधक की भांति सब बाधाओ को कुचलते हुए उसी दिशा में बढ़ रहे थे ।
उस दिन से लगभग ग्यारह वर्ष पहले वे एक दिन प्रातः काल के समय अपनी राजधानी अमरसर से कुछ ही दूर उत्तर की और एक चबूतरे पर बैठे हुए अपने घोड़ो की सिखलाई का निरीक्षण कर रहे थे । कई घोड़ो को ऊँचा और लंबा कूदाने का अभ्यास कराया जा रहा था और कइयों को भाले की लड़ाई की शिक्षा दी जा रही थी । दौड़ते हुए घोड़ो की टापो से मिट्टी ऊपर उठ कर आकाश में छा गयी थी । उन्होंने अपने प्रिय घोड़े 'अबलख 'को अपने पास मंगवाया । वे स्वयं उसे दौड़ा कर और फेर कर अपनी इच्छा अनुसार सुशिक्षित करना चाहते थे । काफी समय से अनुचर घोडा सजाये पास में ही खड़ा था पर राव शेखाजी दूसरे घोड़ो की दौड़ देखने में इतने तन्मय हो रहे थे कि उन्हें अबलख का ध्यान ही नही रहा । चंचल अश्व अबलख ने ही हिनहिना कर अपने स्वामी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया ।
अभी आया अभी आया । कहते हुए वे उठने ही वाले थे कि उनके सामने पीछे से आकर घूँघट रहित , खुले सिर और विकराल रूप बनाये एक नवयुवती खड़ी हो गई । वे उससे कुछ पूछना ही चाहते थे कि पहले वह पूछ उठी -
शेखाजी आप ही है ?
हाँ बाला , शेखा नाम मेरा ही है ।
यह सुनते ही उस स्त्री ने अपनी ओढ़नी के सिर से बंधी हुई गठरी को खोला और उसमे से मुट्ठी भर खाकी मिट्ठी लेकर उसे राव शेखाजी के ऊपर फेंक दिया ।
वह मिट्ठी उनके श्वेत अंगरखे को मेला करती हुई चबूतरे पर फैल गयी । जब राव शेखाजी ने उसकी ओर देखा तब वह फुट फुट कर रो रही थी ।
है यह क्या ? यह पागल कौन है ? यह क्या किया इसने ? आदि वाक्य कहते हुए पास खड़े हुए सब सरदार चौकन्ने हो गए ।
बाला , तुमने यह मिट्ठी मेरे ऊपर क्यों फेकी है ? तुम्हे क्या शिकायते है सो मुझसे कहो ।
............ दुष्टो ने मेरा अपमान किया और मेरे माँग के सिंदूर को धो डाला ........ हिइं ......हिइं ........ हिइं....... ।
घबराओ नही ! तुम्हारा किस दुष्ट ने अपमान किया है और किसने तुम्हारे पति को मारा है ? मुझे साफ साफ कहो । .......हिइं ........ हिइं....... हिइं...... वे मेरे पीहर मारवाड़ से मुझे लेकर आ रहे थे । मार्ग में झुँथर गाव के तालाब पर हम लोग घूप टालने के लिए ठहरे । वह तालाब खुद रहा हे ......हिइं ........ हिइं....... हिइं...... वहा ऐसा नियम बना रखा है क़ि उधर से निकलते हुए प्रत्येक यात्री को एक टोकरी मिट्टी तालाब से बाहर डालनी पड़ती है । उन्होंने ......हिइं ........ हिइं....... अपने हिस्से की एक टोकरी मिट्टी बाहर फेंक दी । " जब उन लोगों ने पूछा कि इस रथ में कौन है तो उन्होंने उत्तर दिया कि इसमे मेरी स्त्री है । ......हिइं ........ हिइं....... उन लोगों ने कहा कि तुम्हारी स्त्री से भी मिट्टी बाहर डलवाओ । उन्होंने उत्तर दिया कि उसके बदले मैं दो टोकरी मिटटी बाहर फेंक दूंगा पर वो माने नही । .....
इस पर कुछ कहा सुनी हो गयी और उनमे से एक दुष्ट ने आगे बढ़ करे मेरे रथ का पर्दा हटा दिया और हाथ पकड़ कर वह मुझे बहार घसीटने लगा । यह देखा कर उन्होंने उस दुष्ट का उसी समय तलवार से सिर काट दिया । तब उन सबने मिल कर उनको भी ........ ......हिइं ........ हिइं....... हिइं......मार दिया ......हिइं ........ हिइं....... हिइं...... और मुझ से मिट्टी बाहर डलवाई वही मिटटी मैं अपनी ओढनी में बाँध कर लाई हूँ । ......हिइं ........ हिइं....... हिइं ।
"क्या तुम मेरे राज्य की प्रजा हो ?" "नही । " "और तुम्हारे साथ यह अत्याचार भी मेरे राज्य में नही हुआ है । " "नही ।" "अत्याचार करने वाला भी मेरे राज्य का निवासी नही है ।" "नही । " "तो बताओ मैं क्या कर सकता हूँ । "
"कुछ नही कर सकते इसलिये तो यह मिटटी आपके सिर पर डाली है । धिक्कार है आपको । वीरता और रजपूती का बाना पहने हुए फिरते हो और जब एक अबला के अपमान का बदला लेने का प्रश्न उठता है तब अपने राज्य और पराये राज्य की सीमा का बहाना करने लग जाते हो । " इस बार उस स्त्री के स्वर में दृढ़ता आ गयी थी ।
राव शेखाजी उसी मुद्रा में कुछ समय तक चुप रहे । वे मन ही मन कुछ सोच रहे थे कि इतने में वह स्त्री फिर बोल उठी -
"मेने आपकी वीरता के प्रसंग सुन रखे थे इसलिए यहाँ आई थी । यदि आप एक अबला के अपमान का बदला नही ले सकते , स्त्री जाति की मर्यादा की रक्षा नही कर सकते तो मैं दूसरे किसी अन्य वीर पुरुष को खोजती हूँ । यह पृथ्वी वीरो से अभी खाली नही हुई है । " यह कहते हुए वह वहाँ से जाने को तत्पर हुई ।
पर इन थोड़े से मार्मिक शब्दों में उस स्त्री ने राव शेखाजी के सामने कर्तव्य का एक विस्तृत अध्याय खोल कर रख दिया ।
"ठहर बाला ! तुम्हारे अपमान का प्रतिशोध अवश्य लिया जायेगा - स्त्री जाति की मर्यादा की रक्षा अवश्य होनी चाहिए और वह होगी ।" अंतिम शब्द राव शेखाजी ने जोर देकर कहे । "तुम्हार यह अपमान और तुम्हारे पति का वध किसकी आज्ञा से हुआ है ?"
"वहाँ के राजा कोलराज गौड़ की आज्ञा से " ।
"बाला निश्चिन्त रहो । जब तक कोलराज गौड़ का कटा हुआ सिर लाकर तुम्हारे चरणों में रख नही दूँगा तब तक अन्न जल ग्रहण नही करूँगा । ...... और जब तक स्त्री जाति का अपमान करने वाले इस प्रकार के दुष्टो का नाश नही कर डालूँगा तब तक चैन से विश्राम नही लूँगा । " राव शेखाजी ने यह भीषण प्रतिज्ञा कर डाली ।
सालजी भाटी ने कहा -
"महाराज शकुन अच्छे हुए है । घर बैठे हुए मिटटी आई है इसलिए आपका इस भूमि पर अधिकार होगा ; ...... यह मिटटी चारो ओर चबूतरे पर फेल गई है सो आपका यश और प्रताप भी चारो ओर फैल जायेगा , पर यह मिटटी आपके सीने पर गिरी है सो आपका शरीर इसी निमित्त काम आएगा । "
"इसकी कोई चिंता नही है सालजी । " राव शेखाजी ने दृढ़ता से उत्तर दिया ।
सालजी ने कहा - " इस मिटटी को एक गठरी में बाँध कर आप सदैव अपने पास रखे । यह शुभ मिटटी है । " दुसरे ही क्षण उन्होंने अपने ऊपर फेंकी गयी उस मिटटी को झाड़ कर लाल कपडे के एक टुकड़े में बाँधा और उसे अपने अंगरखे की जेब में रख लिया । उसी दोपहर को चुने हुए 500  घुड़सवारों ने अपने घोड़ो का मुह दक्षिण - पश्चिम की ओर करके एड लगा दी । लोगो ने घोड़ो की टांपो की रगड़ से धुलि का एक बादल ऊपर उठते हुए देखा ।
तीसरे दिन प्रातःकाल कोलराज का कटा हुआ सिर उस स्त्री के चरणों में पड़ा हुआ था । उसने अपनी प्रतिहिंसा की भावना शान्त करने के लिए उस सिर को अमरसर के दरवाजे में चुनवाने का आग्रह किया । अंत में वह सिर अमरसर के दुर्ग के बाहरी द्वार में चुनवा दिया गया ।
उस अबला के प्रतिशोध की अग्नि अब शांत हुई । उसके अपमान का प्रतिशोध चूका दिया गया था ,......... स्त्री जाति की मर्यादा की रक्षा का प्रमाण मूल चूका था पर दूसरी ओर इससे भी भीषण प्रतिशोध की अग्नि सुलग चुकी थी । जब कोलराज के अन्य भाई गौड़ राजाओ और सरदारो को यह ज्ञात हुआ कि उनके भाई का सिर अमरसर के द्वार में चुना गया है तब उनके क्रोध का ठिकाना न रहा । गौड़ जैसी वीर और पराक्रमी जाति यह अपमान चुपचाप सहने को तैयार नही थी । एक व्यक्ति का अपमान समस्त गौड़ जाति का अपमान बन गया । इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए समस्त गौड़ राव शेखाजी के कट्टर शत्रु बन गए । उस समय मकराने से लगा कर घाटवे तक का समस्त भूखंड गौडों के अधिकार में था । मारोठ , घाटवा , भावंता , सरगोठ आदि उनके छोटे पर शक्तिशाली ठिकाने थे । उन सब ने मिलकर राव शेखाजी पर आक्रमण कर दिया । पर राव शेखाजी जैसे प्रचण्ड वीर के सामने वे ठहर नही सके । अब राव शेखाजी ने भी उनकी शक्ति को समूल नष्ट करने का निश्चय कर लिया था । वे भी प्रतिवर्ष उन पर चढाई करने लगे और प्रत्येक युद्ध में उनसे बहुत से गाँव छीन कर अपने राज्य में मिलाने लगे । इस प्रकार इन ग्यारह वर्षों में ग्यारह बार गौड़ो से लोमहर्षक युद्ध कर चुके थे । इन युद्धों में इनके बहुत से सम्बन्धी , भाई बेटे और सूर सामन्त काम आ चुके थे ।
खुले युद्ध में शेखाजी को परास्त करना गौड़ो के लिए असम्भव बन गया था अतएव उन्होंने इस बार निति और छल से काम लेना ही उचित समझा । सब गौड़ राजाओ और सरदारो ने मिलाकर राव शेखाजी को घाटवा में आकर धर्म युद्ध करने का निमन्त्रण दिया । रण निमन्त्रण एक राजपूत के लिए विवाह निमन्त्रण से भी अधिक उल्लास और आनंदमय होता है । राव शेखा जी ने उस निमन्त्रण को सहर्ष स्वीकार कर लिया । दोनों ओर से युद्ध की तैयारियां होने लगी ।
गौड़ो ने इसे छल और कौशल से लड़ना ही उचित समझा । उन्होने अपने 500 चुने हुए सैनिक घाटवा से दो कोस दूर अमरसर के मार्ग पर राव शेखाजी पर अकस्मात आक्रमण करने के लिए वन में छिपा दिए थे । राव शेखा जी आखेट खेलते हुए अपनी मुख्य सेना के कुछ साथियो सहित आगे निकल चुके थे । इस प्रकार उनको अकेला देख कर उन लोगो का उत्साह और भी बढ़ गया । उन्होंने सहसा उन पर मार्ग के दोनों ओर से आक्रमण कर दिया । राव शेखा जी अपने थोड़े से साथियो सहित उनसे वीरता से लड़ते रहे और जब तक उनकी मुख्य सेना वहाँ तक पहुँची तब तक उन्होंने बहुत से शत्रुओ को तलवार के घाट उतार दिया था पर इस युद्ध में उनके भी अनेक घाव लगे थे इसलिये उनके सरदार उनको वहाँ से उठा कर जीणमाता के पहाड़ की तलहटी में ले आये थे । उसी स्थान पर उनके घावो की मरहम पट्टी की गयी थी ।
दूसरे दिन वे कुछ स्वस्थ से हुए तो बाजरे की रोटी और मेढे का माँस खाने ही लगे थे की अपने आस पास के संयोग को देख कर गंम्भीर बन गए थे ओर अत: ग्यारह वर्ष पूर्व जेब में रखी हुई उस लाल कपडे की गठरी को वे जेब से निकाल कर बार बार देख रहे थे ।
वे बहुत देर तक उसी अवस्था में बेठे रहे । कभी उस गठरी को देखते कभी खेजड़ी और खाट को ।
इतने में सालजी भाटी घोड़ो के लिए बैल गाडियो में घास लेकर आ गए । उन्होंने सालजी को पास बुलाया और मुस्कराते हुए कहा -
"भाटी सरदार ! आपके शकुन आज सच्चे हो रहे है ।"
"कौनसे शकुन महाराज ? "
"वे ही शकुन जो आज से ग्यारह वर्ष पहले देखे थे ।"
"आज क्या , वे तो इतने लम्बे वर्षो से सच्चे हो रहे है , इसलिये आपकी विजय होती जा रही है । "
"पर आज तो उनके अंतिम चरण भी सच्चे होनेे जा रहे है सालजी ।"
"ऐसा दिखाई तो नही दे रहा महाराज ।"
"दिखाई दे रहा है सालजी । मेरी मृत्यू के विषय में की गयी भविष्यवाणी भी अब सच्ची होने जा रही है । देखो सब संयोग अपने आप ही मिल रहे है ...... खेजड़ी की छाया , खींप की खाट , काले मेढे जा मांस , बाजरे की रोटी । यही तो भविष्यवाणी थी न , कि जिस दिन इस प्रकार का संयोग मिलेगा उसी दिन मेरी मृत्यू हो जायेगी । उस मिटटी के कारण शरीर में घाव भी अनेक लग चुके है । अब उनमे असहनीय वेदना हो रही है । आज अक्षय तृतीया का शुभ दिन है इसलिए यह भविष्यवाणी आज ही सच्ची होनी चाहिए । आप सब लोगो को मेरे पास बुला लीजिए । "
बात ही बात में सब लोग उनकी खाट के पास आकर बैठे गए । उन्होंने सब को सम्बोधित करते हुए कहा -
"सरदारो ! मैने अपने जीवन में पचासों युद्ध किए है और आप लोगो की वीरता के कारण प्रत्येक युद्ध में विजयी रहा हुं । पिछले वर्षो में ही ग्यारह भयंकर युद्ध तो गौड़ो से ही लडने पड़े है । मैं गौड़ो से कभी नही लड़ता पर एक स्त्री के अपमान का बदला लेने का प्रश्न था , स्त्री जाति की मर्यादा सुरक्षित रखने का दायित्व था । इसी गठरी की मिटटी ने मुझे अपने कर्तव्य की प्रेरणा दी थी । मेरा कार्य अब भी अधूरा है , गौड़ो की शक्ति क्षीण अवश्य हुई है पर वह समाप्त नही हुई है । उन्होंने धर्म का निमन्त्रण देकर कल घाटवा में ही किस प्रकार से छलपूर्वक आक्रमण कर दिया था । ....... प्रतिशोध अभी पूर्ण नही हुआ हे । मेरी अब अंतिम घडी आ पहुची है । मेरी मृत्यु के समय घटित होने वाले सब संयोग अपने आप एकत्रित हो गए है , इसलिये अब कौन इस मिटटी की पोटली को संभालेगा , कौन गौड़ो से प्रतिशोध लेगा ? "
राजकुमार ने आगे बढ़ कर उस मिटटी की पोटली को अपने हाथ में ले लिया । सरदारो ने एक स्वर में आश्वासन दिया -
"हम प्रतिशोध लेंगे महाराज ! " राव शेखाजी ने संतोष की दृष्टि से चारो ओर देखा । उनके मुख मण्डल पर शांति , संतोष और तेज की आभा उमड़ आई । उन्होंने ईश्वर का ध्यान करते हुए अपने नेत्र बंद किये और दूसरे ही क्षण उनके सिले हुए घावों में से सहसा रक्त प्रवाह होने लगा । उसने खींप की उस खाट को पार करके नीचे को ओर समस्त बालू को भिगो दिया । उस रक्त रंजीत बालू का प्रत्येक कण आंधी के साथ उड़ कर शेखावाटी प्रान्त की पावन भूमि पर फैल गया ......... इसी प्रेरणा और सन्देश के साथ ............
"स्त्री जाति की मर्यादा की रक्षा अवश्य होनी चाहिए । 

महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय (1873-1895) के वक्त मारवाड़ राज्य के सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकारी

महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय (1873-1895) के वक्त मारवाड़ राज्य के सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकारियों की सूची:

1. सरदार सिंह मेहता (बनिया) : राज्य के दीवान. इनका सालाना वेतन 12000 रुपए था और साथ ही जागीर में दो गांव भी थे जिनकी साल भर की इनकम तकरीबन 4500 रुपए निकलती थी।

2. मुंशी हरदयाल सिंह (कायस्थ) : विभिन्न न्यायालयों के अधीक्षक होने के साथ ही मालानी क्षेत्र के भी हैड थे। इनका सालाना वेतन 13,200 रुपए था। साथ ही दरबार में इन्हे सिंगल ताजीम का दर्जा भी प्राप्त था।

3. कविराज मुरारीदान (चारण) : राज्य कवि होने के साथ साथ फौजदारी अदालत के अधीक्षक भी थे। सिंगल ताजीम का दर्जा प्राप्त था, जागीर में दो गांव मिले हुए थे तथा सालाना वेतन था 8400 रुपए। 

4. आसकरण जोशी (ब्राह्मण) : शहर के कोतवाल और किलेदार हुआ करते थे। सिंगल ताजीम, जागीर में दो गांव तथा 3600 रुपए वेतन ।

5. हनवंत चंद (भंडारी) : अपीलीय अदालत के अधीक्षक थे। जागीर में एक गांव तथा 4800 रुपए वेतन।

6. अमृत लाल मेहता (महाजन) : दीवानी न्यायालय के अधीक्षक। जागीर में एक गांव तथा सालाना वेतन 3600 रुपए।

7. मुंशी हीरा लाल (कायस्थ) : राजमुंशी थे।

8. सुखदेव प्रसाद (ब्राह्मण): ज्यूडिशियल सेक्रेटरी . कश्मीरी पंडित थे।

9. पंडित जीवानंद (ब्राह्मण): सरदार न्यायालय के उप अधीक्षक 

10. मुंशी किशोरी लाल (कायस्थ) : पुलिस अधीक्षक 
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गौरतलब है कि इन 10 सबसे मुख्य अधिकारियों में एक भी क्षत्रिय जाति से नही था। 1857 के बाद राजस्थान में जोरों शोरों से किसान आंदोलन देखने को मिले चाहे वो फिर मेवाड़ (बिजौलिया, बेगू) हो या जयपुर (शेखावाटी)। आमतौर पर इन आंदोलनों का कारण सिर्फ सामंतवाद अत्याचार कह कर वाइटवॉश करने की कोशिश की जाती है जबकि अगर गहराई से देखा जाए तो मुद्दा बेहद जटिल प्रतीत होता है। जब राज्य के सभी ऑफिशियल्स मुख्यतः नॉन राजपूत जातियों से थे तो निश्चित तौर पर उनकी जवाबदेही बनती है लेकिन इसके बावजूद आजादी के बाद लिखे गए प्रोपेगेंडा लिटरेचर में इन अधिकारियों को दोषी ठहराना तो दूर इनका नाम तक नहीं लिया जाता जिससे यह लगे मानो सारा प्रशासन दरअसल एक ऑटोक्रेटिक राजपूत रेजीम था जिसमे दूसरे वर्गों की हिस्सेदारी ना के बराबर थी और तानाशाही अपने चरम पर थी।

देखने योग्य यह भी बात है की जिन अधिकारियों का ऊपर वर्णन किया गया है उन्ही की जाति के लोगों ने बढ़ चढ़कर प्रजामंडल आंदोलन का नेतृत्व भी किया, चाहे जयनारायण व्यास (ब्राह्मण) हो या जमनालाल बजाज (बनिया) । बड़ी आयरोनीकल बात है जहां एक समूह सत्तापक्ष की मलाई खा रहा था वहीं उसी जाति का दूसरा समूह आज़ादी के बाद अपनी कम्युनिटी का प्रभुत्व बनाए रखने के लिए लोकतंत्र, समानता, उदारता इत्यादि झूठे तर्क वितर्क इस्तेमाल कर क्षत्रिय हुकूमत की नीव खोदने में लगा था।

सवाल सीधा है, जब तथाकथित अत्याचारों की बात आती है तब इस नॉन राजपूत सवर्ण वर्ग के कारनामों को क्यों नजरंदाज कर दिया जाता है?
उस काल में एक आम राजपूत की स्थिति बेहद दयनीय हुआ करती थी और अगर कुछ बड़े ठिकानेदारों को छोड़ दिया जाए तो उसकी हालत एक सामान्य किसान से कुछ थोड़ी ही ठीक थी। बावजूद इसके आज उसी आम राजपूत को सामंतवाद के झूठे और संगीन आरोप झेलने पड़ते हैं जबकि अगर हल्का भी गहन अध्यन किया जाए तो 99% राजपूतों का इसमें कोई रोल नहीं था।

मंगलवार, 1 अगस्त 2023

जोरजी चांपावत

जोरजी चापावत 189वी जयंती 
31 जुलाई 2023 
साहस, वीरता, निर्भीकता गरीबों के मसीहा, जिनको फाल्गुन माह में होली के अवसर पर राजस्थान के प्रत्येक गांव में विभिन्न लोक गीतों के माध्यम से याद किया जाता है जोर जी चंपावत की छतरी कसारी गांव में हैं जोर जी चंपावत 8 फीट से भी लंबे थे उनकी मूछें आंखों की भोहो तक थी घुटनों तक लंबे हाथ 4 अंगुल जितना ललाट और हाथी जैसा मदमस्त शरीर तथा  चीते जैसी फुर्ती जो जोर जी चंपावत की शक्ति तथा सुंदरता को दर्शाता था जोर जी चंपावत की इन्हीं शारीरिक बनावट से शत्रु सेना भय खाती थी
बात है 19वीं शताब्दी की जब जोधपुर रियासत में महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय का शासन था जोधपुर रियासत के उत्तर पश्चिम  के नागौर में कसारी चंपावत राजपूतों का ठिकाना था जो जोधपुर रियासत के अंतर्गत आता था कसारी के ठिकानेदार जोर जी चंपावत थे जोर जी चंपावत कद काठी में हष्ट पुष्ट तथा बलशाली प्रतीत दिखाई देते थे जोधपुर रियासत से मिले आदेश के अनुसार सभी ठिकानों के ठिकानेदार जोधपुर रियासत की तरह जा रहे थे जोर जी चंपावत भी अपनी राजपूती वेशभूषा में घोड़े पर स्वार होकर जोधपुर रियासत की तरह तेजी से आगे बढ़ रहे थे
जोधपुर के मेहरानगढ़ दुर्ग में पहुंचते ही जोर जी चंपावत ने अपने स्थान पर जाकर बैठ गये सभी राजपूत सरदार अपने अपने स्थान पर बैठे थे तभी ढोल नगाड़ों की आवाज गूंजी सभी मंत्री तथा ठिकानेदार अपने स्थान पर खड़े हो गए और तभी एक व्यक्ति ने तेजी से आवाज लगाई की महाराजा जसवंत सिंह पधार रहे हैं महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय के आते ही सभी ने उनका सिर झुका कर स्वागत किया और सभी राजपूत सरदारों तथा मंत्रियों ने उनको हाथ जोड़कर अभिवादन किया महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय अपने आसन की तरफ आगे बढ़े और अपना आसन ग्रहण किया महाराजा जसवंत सिंह के आदेश अनुसार सभी राजपूत सरदार तथा मंत्री अपने अपने स्थान पर बैठ गए 
तभी एक चाकर सभा में आता है और कहता है कि हुकुम जो आपने ब्रिटेन से बंदूक मंगवाई थी वह व्यापारी लेकर आ चुके हैं तभी कुछ समय बाद व्यापारी बंदूक को लेकर महाराजा जसवंत सिंह को सौंप देते हैं सभी राजपूत सरदारों तथा मंत्रियों की नजरें उस बंदूक पर टिकी हुई थी जो महाराजा जसवंत सिंह के हाथ में थी कुछ ही समय के बाद महाराजा जसवंत सिंह भरी हुई सभा में बोलते हैं जोर जी ! क्षण भर में ही जोर जी चंपावत हुकुम बोलते हुए अपने स्थान से खड़े हो जाते हैं और महाराजा के समक्ष चले जाते हैं महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय कहते हैं कि जोर जी आप जानते हैं अगर इस बंदूक से एक ही गोली हाथी पर दागी जाए तो हाथी मर जाएगा तभी जोर जी चंपावत कहते हैं कि हुकुम हाथी तो घास खाता है वह तो मर ही जाएगा 
ऐसी प्रतिक्रिया से महाराजा जसवंत सिंह कहते हैं कि अगर इस बंदूक से शेर पर एक ही गोली दागी जाए तो शेर भी वहीं ढेर हो जाएगा तभी जोर जी चंपावत कहते हैं कि हुकुम शेर तो जानवर है वह तो मर ही जाएगा दोनों ही प्रतिक्रिया महाराजा जसवंत सिंह के विपरीत जोर जी चंपावत ने कही तभी महाराजा जसवंत सिंह जोर जी चंपावत से कहते हैं कि अगर आपको अपनी वीरता पर इतना ही विश्वास है तो उसे साबित करें तभी सम्मान पूर्वक जोर जी चंपावत कहते हैं कि हुकुम आप अगर मुझे एक मेरी पसंद का घोड़ा और हथियार दे तो मैं इस जोधपुर रियासत की सेना तथा अन्य रियासतों की सेनाओं की पकड़ में कभी नहीं आऊंगा 
तभी महाराजा अपनी पसंद की ब्रिटेन से मंगाई हुई बंदूक दे देते हैं और कहते हैं कि आप हमारे घोड़ों  के अस्तबल में जाकर कोई भी अपनी पसंद का घोड़ा ले सकते हैं जोर जी चंपावत बंदूक तथा अपने पसंद के घोड़े पर सवार होकर जोधपुर रियासत से दूर कसारी ठिकाने की तरफ आगे बढ़ते हैं कुछ ही दिन बीतते हैं की जोर जी चंपावत धनी सेठ तथा साहूकारों और व्यापारियों से धन को लूट कर गरीबों को बांट देते हैं ऐसी घटनाएं दिनोंदिन महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय के कानों में पहुंचने लगी तभी महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय ने अपनी सेना को आदेश दिया कि तुरंत प्रभाव से जोर जी चंपावत को पकड़कर लाओ परंतु जोधपुर रियासत कि सेना ने अथक प्रयास किए परंतु जोर जी चंपावत को पकड़ना संभव ना हो सका 
तभी जोधपुर रियासत के महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय ने अपनी रियासत से लगती रियासत के राजाओं से वार्ता कर जोर जी चंपावत को पकड़ने का प्रयास किया परंतु इसमें भी महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय असफल रहे जोर जी चंपावत की युद्ध क्षमता तथा रण कौशल से महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय पहले ही परिचित थे क्योंकि महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय ने अनेक युद्धों में जोर जी चंपावत को भेजा था जिनमें जोर जी चंपावत ने महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय तथा जोधपुर रियासत की सेना को अपने रण कौशल से प्रसन्न कर रखा था
जोर जी चंपावत दिनोंदिन अमीरों को लूट कर उस धन को गरीबों में बांट देते थे इससे जोर जी चंपावत जोधपुर रियासत में प्रसिद्ध हो गए धनी सेठ साहूकार जोर जी चंपावत से तंग आ गए और जोधपुर रियासत के महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय को शिकायत करते रहे अंत में जोधपुर रियासत महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय ने घोषणा की कि अगर कोई भी व्यक्ति जोर जी चंपावत हो पकड़ कर लेकर आएगा तो उसको 10,000 सोने के सिक्के तथा विभिन्न उपहारों से सम्मानित किया जाएगा जब पूरे रियासत में यह खबर फैल गई कि महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय ने जोर जी चंपावत को पकड़कर लाने पर इनाम तरह उपहार दिए जाएंगे 
उपहारों तथा इनाम के लालच में जोर जी चंपावत के मौसी के बेटे भाई जो खेरवा ठिकाने के ठाकुर थे उन्होंने जोर जी चंपावत के आगमन पर रात के समय में पेयजल में बेहोशी की दवा मिला दी जिससे जोर जी चंपावत गहरी नींद में सो गए तभी खेरवा के ठाकुर ने उनके घोड़े को महल की चारदीवारी से बाहर ले जाकर बांध दिया घोड़े को अपने स्वामी की चिंता सताने लगी और तभी घोड़ा जोर-जोर से हिनहिनाने लगा और अपने आगे वाले दोनों पैरों को चारदीवारी पर जोर-जोर से मारने लगा तभी जोर जी चंपावत गहरी नींद से जाग गए और अपनी बंदूक की तरफ देखा तो बंदूक वहां पर नहीं थी जोर जी चंपावत को अनहोनी का एहसास होने लगा
उन्होंने अपने कमर से कटार निकाली और महल से बाहर की तरफ जाने लगे महल के बाहर खेरवा ठिकाने के सैनिक अपनी तलवारों के साथ खड़े थे और जैसे ही जोर जी चंपावत बाहर निकले तो सभी सैनिकों की तरफ तलवार लेकर हमला कर दिया जोर जी चंपावत अपनी कटार से एक एक सैनिक को मार गिरा रहे थे परंतु महल के झरोखे में बैठे खेरवा ठाकुर ने अपनी बंदूक से जोर जी चंपावत की पीठ पर गोली मार दी जोर जी बुरी तरीके से घायल हो चुके थे फिर भी वे सैनिकों को मार कर महल के झरोखे की तरफ आगे बढ़े और खेरवा ठाकुर को अपनी कटार से मार गिराया इसके बाद जोर  जी चंपावत ने अपने खून से अपना पिंड दान किया  तदुपरांत  जोर जी चंपावत वीरगति को प्राप्त हो गए जब जोर जी चंपावत की मृत्युु के समाचार  महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय को पहुंचे तो वे बहुत दुखी हुए थे इस तरह एक अप्रीतम योद्धा जिन्होंने अपनी वीरता के बल पर लोग मानस में अपना स्थान कायम किया आज वर्षों वर्ष बाद में भी उनको गीतों के अंदर गाया जाता है धन्य है ऐसी वीर प्रसूता.

सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

पोकरण ठाकुर सालमसिंह रे खिलाफ १८७९ वि° मे जमर

पोकरण ठाकुर सालमसिंह रे खिलाफ १८७९ वि° मे जमर

तूं किणी गढ नै टिल्लो दीजै!!
माड़वो(पोकरण)आपरी सांस्कृतिक विरासत रै पाण चावो गांम रैयो है। इणी गांम में महाशक्ति देवल रो जनम होयो। इणी धरा नै बूट बलाल बैचरा जैड़ी महाशक्तियां रो नानाणो होवण रो गौरव प्राप्त है। इणी धरा री मा चंदू माड़वा गांव री रक्षार्थ अखेसर री पावन पाल़ माथै पोकरण ठाकुर सालमसिंह रे खिलाफ १८७९ वि° मे जमर कियो।
चंदू मा सूं पैला इणां री मा अणंदूबाई, गुड्डी रै पोकरणां रै खिलाफ जमर कियो।
जद इण गांम री ऐ गर्विली गाथावां सुणां तो लागै कै शायद इण माटी में ईज ऐड़ो आपाण भर्योड़ो हो कै अठै रो वासी आपरै माण नै मुचण नीं देता। अन्याय रै खिलाफ खड़ो होवणो रो जको किरको अठै रै वासींदां में हो बो दूजी जागा कम ई सुणण में आवै।
बात उगणीसवें सईकै रै उतरार्द्ध री है। जागीर अर जागीरदारां रो समय है। जागीरदार नै रैयत चाहीजती। बिनां रैयत जागीरदार कांई कांम रो। बीजी रैयत होवो भलांई मत होवो पण कारू (काम करने वाली जात) यथा दर्जी, नाई, सुथार आद होवणा जरूरी हा। ऐ उण दिनां हर गांम में नीं होयर ठावकै गांम में ईज लाधता अर माड़वो एक ठावको गांम हो।
माड़वै रै पाखती ई पोकरणां रो गांम है गुड्डी। गुड्डी मे नाई नी हा सो पोकरणा चढिया अर माड़वै आय एक नाई नै आपरै उठै हालण रो कैयो। नाईयां कैयो कै–“म्है चारणां रा नाई हां अर चारण म्हांनै रैयत ज्यूं नीं बल्कि भाईयां ज्यूं राखै। सो आप पैला उणांनै पूछलो।”
पोकरणां चारणां नै पूछियो कै – “थांरो नाई थोड़ै दिनां खातर म्हांनै देवो, म्हे थोड़ै दिनां पछै पाछो मेल देवांला।”
चारणां कैयो कै – “थे ठैर्या राजपूत ! थांरो कोई भरोसो नीं। डाकण बेटा देवै कै लेवै। थां सूं पार नीं पड़ै सो थे रैवण दो।”
जणै पोकरणां कैयो कै–
“म्हे मलीनाथजी री आण ले कैवां कै थांरो नाई, म्हांरो काम काढ पाछो पूगतो कर दां ला।”
जणै चारणां आपरो एक नाई इणां रै साथै मेल दियो।
दिन बीता चारण गुड्डी गया अर आपरो नाई मांगियो पण पोकरणां आंख काढी। चारणां घणो ई ऊजर कियो पण पोकरणां कीं काढर नीं दियो।
चारण पाछा आयग्या। आ बात जद ऊदोजी दलावत री जोड़ायत अणंदूबाई मिकसाणी नै ठाह पड़ी तो उणांनै रीस आयगी। वां कैयो कै आपां ई चारण हां! इयां नाई कीकर छोडांला। आज ऐ ले गया काल दूजा ले जावैला पछै आपांरो काम कीकर पार पड़सी? आ कैय वे गुड्डी गया अर आपरो नाई मांगियो।
आ सुण पोकरणां कैयो कै – “कैड़ो नाई ? थांनै ई गांम म्हांरै दियोड़ो सो थांरो ऐड़ो नाईयां माथै कांई ऊजर? चारण हो सो माण थांरै हाथ में है। घणो तामस मत करो।”
आ सुणतां ई अणंदूबाई नै रीस आयगी। वां कैयो – “जावो रै सींतगियां ! थांरो कांई घसको है ? जको म्हारो नाई राखो। हूं कोई कारू-कमीण नीं हूं जको थे धसल़ां करो। हूं चारणी हूं अर चारणी आपरै स्वाभिमान सारू ई शरीर नै तुच्छ समझै। का तो म्हारो नाई दिरावो नींतर हूं थांरै माथै जमर करसूं।”
आ सुणर किणी पोकरणै डोल़ा (आंख) काढिया अर कैयो कै- “जमर कोई बातां सूं नीं होवै? किण रोकी है तनै जमर करण सूं?”
आ सुणतां ई उणां जमर री त्यारी करी अर उण पोकरणै नै कैयो कै थारो ओ डोल़ो तो हणै ई बारै आवैला अर नाई थारै कै थारी ऐल़ रै कीं काम नीं आवैला!! आज पछै थारै नाई सूं काम नीं पड़ै। थारी गल़त (निर्वंश) जासी अर इण पछै जको ई गुड्डी रो बोलतो-पुरस (जोगो मिनख) होसी उणरो अचाणक सभा में डोल़ो निकल़सी।”
जितै लारै माड़वै सूं दो-चार चारण अर इणां री बेटी चंदूबाई आयगी।
चंदूबाई मा रो ओ विकराल़ रूप देख कैयो कै – “मा तूं रैवण दे, हूं जमर सझूं।” आ सुण अणंदूबाई कैयो – “नी, बेटी तूं कोई गढ नै टिल्लो देई। इण घरघेटियां नै तो हूं ई घणी। इतरो छोटो काम थारो नीं बल्कि म्हारो है।”
आ कैय अणंदू माऊ गुड्डी रै पोकरणां माथै जमर कियो।
इण सब बातां नै समाहित कर एक गीत अणंदू माऊ नै समर्पित कियो-
।।गीत अणंदू माऊ माड़वो रो।।
पोकरणा गुड्डी रा चढ्या हुय पतित मन,
सदल़ बल़ पापिया खाग सारै।
उतरिया माड़वै पवित्र इल़ा पर,
धीठ मद छाकिया नको धारै।।1
मांगियो ठगी बल़ ख्वास इक माड़वै,
चार दिन गांम री कढै चांटी।
राखियो जिकै नै डकर सूं रोड़नै,
आपरी धरा में देय आंटी।।2
चारणां मांगियो जाय दिन चार सूं,
रैयत आ मांहरी मति राखो।
कारू पण माहरो दिरावो कोड सूं,
आपनै सरावै जगत आखो।।3
मनी ना कार लिग्गार मरजाद री,
हेर निज जात री करी हेठी।
उथापी आण मलिनाथ री अवन पर,
रसा पर सांसणां माम रेटी।।4
छतो वो सनातन मेटियो छाकटां,
नाकटा नटै गया देख नाई।
रैयत तो गमी गी सांपरत रेणवां,
ऐहड़ी खबर जद गांम आई।।5
सांभल़ी बात अणंदू वा साबल़ी,
धाबल़ी धारणी वा’र धाई।
नावड़ी कुछत्र्यां लार जा निडरपण,
नेह धर मांगियो निजूं नाई।।6
बोल वै कावल़ा कुछत्री बोलिया,
डाकियां जेम वै काढ डोल़ा।
उणी वर कड़क नै ईसरी आखियो,
मूरखां आविया दीह मोल़ा।।7
ध्यान वो दिनंकर जोगणी धारियो,
साधियो जोग जद आप साची।
परमजोत मे मिल़ी गी जदै सह पेखतां,
विमल़ कथ समर संसार बाची।।8
पोकरणा शापिया तैंज परमेसरी,
मही पर वचन ना अजूं मोल़ो।
आपरै कोप सूं गुडी मे अजूं लग,
दूठ रो सभा मे पड़ै डोल़ो।।9
ऊपनी चंदू तो पवित्र उदर मे,
ढाल बण ताकवां सलो ढायो।
उकत आ आप दी मूझ नै ईसरी,
ठाठ सूं गीधियै गीत ठायो।।10
~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”

शनिवार, 17 सितंबर 2022

तलवार के विभिन्न हिस्सों के नाम

तलवार के विभिन्न हिस्सों के नाम



तलवार के विभिन्न हिस्सों के नामों की जानकारी आम तौर पर कोई नहीं जानते हैं. पर यह बहुत ही रोचक है. तलवारों का प्रयोग आम तौर पर आजकल शादियों या सजावट के तौर पर होता रहा है.

उपरोक्त चित्र में इसके बारे बताया है. जिसे सभी प्रयोगकर्ताओं को जानना चाहिए.

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

योद्धा पत्ता परमार


योद्धा पत्ता परमार

बात उन दिनों की है जब चितलवाना पर राव आन्नदसिंह चौहान का शासन था जो सांचौरा चौहानो की #बल्लूओत् शाखा से थे।
एक दिन चितलवाना के कोट में सरदारो की बैठक थी।
 चौहान सरदार आपस में अफीम-पान कर रहे थे और हुक्के से तम्बाकू का कश खींच रहे थे वैसे ठाकुर के साथ हुक्का-पान करने का अधिकार साधारण सरदारों को नही था, फिर भी #पत्ता_परमार ने जो साधारण राजपूत सरदार था हुक्का-पान करने के लिए अपना हाथ हुक्के की ओर बढ़ाया! 
इस पर वहां उपस्थित चौहान सरदारों ने उसका हाथ पकड़ लिया।
पत्ता परमार ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोध में आकर हुक्का फोड़ दिया और अपने घर आ गए।
कुछ समय बाद मुसलमान सरायां ने चितलवाना की गाये घेर ली उस समय पत्ता परमार नारु (बाला)रोग से ग्रसित थे और चारपाई पर लेटे हुए थे।
पत्ता की मां ने अपने पूत्र से कहा की जिसका तूने हुक्का फोड़ा था उस पर सरायें चढ़ आए हैं और गांव की गाये घेर ली है। हुक्का फोड़ कर तूने कोई वीरता का कार्य नहीं किया है!
 अब इस विकट घड़ी में हाथ चलाए तो तेरा यश रहेगा!
मां के वाक्य सुनकर पत्ता परमार को जोश आ गया।
वह अश्वारुढ़_होकर बड़े वेग से क्षत्रुओ पर टूट पड़े। उनके वार से सेनाध्यक्ष घोड़े से नीचे गिर गया उसने नीचे पड़े ही पत्ता के तीर मारा जिससे पत्ता भी घोड़े से नीचे गिर गये लेकिन उन्होंने पुनः सम्भल कर अपनी तलवार से सेनाध्यक्ष पर वार किया जिससे उसके #प्राण_पखेरु उड़ गये।
बाद में घायल पत्ता परमार ने हुक्का-पान करने की इच्छा प्रकट की। इस पर चौहान सरदारों ने पत्ता को बड़े सम्मान के साथ हुक्का-पान कराया और हुक्का-पान करने के कुछ ही क्षण पश्चात पत्ता परमार #वीरगति को प्राप्त हुए।
इस प्रकार पत्ता परमार ने स्वामीभक्ति का परिचय देकर आखिर मरते समय चौहान सरदारों के साथ हुक्का-पान करने का सम्मान पा ही लिया।
#परमार_एक_सुप्रसिद्ध_राजवंश_है जिसमें भोज परमार जैसे शूरवीर व दानी योद्धा हुए। मारवाड़ में परमारो की #काबा,#भायल, #सोढ़ा,#सांखला, #वाल्हा,#महपावत् आदी उपशाखाओ के ठिकाने व गांव रहे हैं जो वर्तमान में भी इन ठिकानों तथा गांवों में आबाद है।
परमार_व_पवांर_एक_ही_राजवंश_है।

पवांर राजवंश का ये #दोहा प्रसिद्ध है--
                        
"जंह पवांर तंह धार है, जहां धार वहां पवांर।
धार बिना पवांर नहि,नहि पवांर बिन धार।।"

स्रोत

सोनगरा व सांचौरा चौहानों का इतिहास
(डॉ.हुकमसिंह भाटी)

वीर पत्ता जी का जन्म जालोर जिले के #सांथू गांव में हुआ था। लुटेरो से गांव की रक्षा करते हुए इन्होंने प्राण उत्सर्ग कर दिए। सांथू गांव,जालोर में इनका विशाल मन्दिर है जहां भाद्रपद शुक्ला नवमी को मेला भरता है।

(स्रोत- राजस्थान का इतिहास,कला, संस्कृति, साहित्य,परम्परा एवं विरासत)

बुधवार, 6 जुलाई 2022

आमेर के राजा मानसिंह और अफगान


 आमेर के राजा मानसिंह और अफगान
अफगान/पश्तून एक गज़ब की उपद्रवी योद्धा जनजाति रही है जिसे काबू में करने में अच्छे अच्छे साम्राज्यों के पसीने निकल गए। ब्रिटिश एम्पायर जिसके बारे में कहा जाता है की उस राज में सूर्य अस्त नहीं होता था उन अंग्रेजों को पठानों ने दौड़ा दौड़ा कर मारा, इतनी किरकिरी हुई की अपमानित होकर ब्रिटिश फोर्स को पीछे हटना पड़ा।

शीत युद्ध के पीक पर सोवियत रूस ने अफगानिस्तान को कम्युनिस्ट स्फीयर में लाने के लिए अपने पूरे रिसोर्सेस के साथ उस देश पर धावा बोला। सालों तक युद्ध चला पर आखिरकार थक हार कर रूसियों को वापस अपने देश जाना पड़ा।

यही हाल अपनी तकनीकी कौशल और मिलिट्री श्रेष्ठता पर घमंड खाए अमेरिका का हुआ। 
अफगानिस्तान को ग्रेवयार्ड ऑफ एंपायर्स यूं ही नही कहा जाता। अच्छे अच्छे नामचीन वहां जाकर पसर गए।
सिवाय एक के। राजा मानसिंह और उनकी कच्छवाहा सेना एकमात्र ऐसी हमलावर फौज़ थी जिनके बारे में कहा जा सकता है की उन्होंने पठानों को वाकई में नानी याद दिला दी।
मानसिंह की बहादुरी और युद्ध कौशल से प्रभावित होकर खुद पश्तूनों ने उनकी तारीफ की। अबुल फ़ज़ल लिखता है की अकबर को मानसिंह को काबुल की सूबेदारी से हटाना पड़ा क्योंकि पठानों को बेइज्जती महसूस होती थी की हिंदू उनपर राज कर रहे हैं। अफगान इतिहास में उन्होंने इतना तिरस्कार कभी नहीं झेला  जितना उन्होंने मानसिंह के नीचे रहते हुए महसूस किया।


रविवार, 5 जून 2022

बेला और कल्याणी

बेला और कल्याणी


  

 भारत की दो वीरांगना बेटियाँ बेला और कल्याणी कौन थी ....?
नई पीढ़ी को इनके नाम भी शायद 
नहीं मालूम ? तो सुनो -

..

बेला तो पृथ्वीराज चौहान की बेटी थी और कल्याणी जयचंद की पौत्री।

*मुहम्मद गोरी* हमारे देश को लूटकर जब अपने वतन गया तो *गजनी के सर्वोच्च काजी व गोरी के गुरु निजामुल्क* ने मोहम्मद गौरी का अपने महल में स्वागत करते हुए कहा। "आओ गौरी आओ! हमें तुम पर नाज है कि तुमने हिन्दुस्तान पर फतह करके इस्लाम का नाम रोशन किया है। कहो सोने की चिड़िया हिन्दुस्तान के कितने पर कतर कर लाए हो।’’ 
‘‘काजी साहब ! 
मैं हिन्दुस्तान से सत्तर करोड़ दिरहम मूल्य के सोने के सिक्के, चार सौ मन सोना और चांदी, इसके अतिरिक्त मूल्यवान आभूषणों, मोतियों, हीरा, पन्ना, जरीदार वस्त्रों और ढाके की मल-मल की लूट-खसोट कर भारत से गजनी की सेवा में लाया हूं।’’
‘‘बहुत अच्छा ! लेकिन वहां के लोगों को कुछ दीन-ईमान का पाठ पढ़ाया कि नहीं"?
‘‘बहुत से लोग इस्लाम में दीक्षित हो गए हैं’’!
"और बंदियों का क्या किया"?
"बंदियों को गुलाम बनाकर गजनी लाया गया है। अब तो गजनी में बंदियों की सरेआम बिक्री की जा रही है। एक-एक गुलाम दो-दो या तीन-तीन दिरहम में बिक रहा है"।
‘‘हिन्दुस्तान के काफिरो के मंदिरों का क्या किया’’?
‘‘मंदिरों को लूटकर 17 हजार सोने और चांदी की मूर्तियां लायी गयी हैं, दो हजार से अधिक कीमती पत्थरों की मूर्तियां और शिवलिंग भी लाए गये हैं और बहुत से पूजा स्थलों को नष्ट भृष्ट कर आग से जलाकर जमीदोज कर दिया गया है।

फिर थोड़ा रुककर काजी ने कहा, *‘‘लेकिन हमारे लिए भी कोई खास तोहफा लाए हो या नहीं"?’
‘‘लाया हूं ना काजी साहब जीती जागती गजल लाया हूं !’’

‘‘क्या"...?

‘‘जन्नत की हूरों से भी सुंदर जयचंद की पौत्री कल्याणी और पृथ्वीराज चौहान की पुत्री बेला’’

"तो फिर देर किस बात की है"?
"बस आपके इशारेभर की".!!

काजी की इजाजत पाते ही शाहबुद्दीन गौरी ने "कल्याणी और बेला" को काजी के हरम में पहुंचा दिया।* कल्याणी और बेला की अद्भुत सुंदरता को देखकर काजी अचम्भे में आ गया। उसे लगा कि स्वर्ग से अप्सराएं आ गयी हैं। उसने दोनों राजकुमारियों से विवाह का प्रस्ताव रखा तो बेला बोली- *‘‘काजी साहब! आपकी बेगमें बनना तो हमारी खुशकिस्मती होगी, लेकिन हमारी दो शर्तें हैं’’??

‘‘कहो..कहो.. क्या शर्तें हैं तुम्हारी! तुम जैसी हूरों के लिए तो मैं कोई भी शर्त मानने के लिए तैयार हूं"।

‘‘पहली शर्त तो यह है कि शादी होने तक हमें अपवित्र न किया जाए? क्या आपको मंजूर है?

"हमें मंजूर है! दूसरी शर्त का बखान करो।’’

‘‘हमारे यहां प्रथा है कि विवाह के कपड़े लड़की के यहां से आते हैं। अतः दूल्हे का जोड़ा और अपने जोड़े की रकम हम भारत भूमि से मंगवाना चाहती हैं।’’*

"मुझे तुम्हारी दोनों शर्तें मंजूर हैं"।

और फिर? बेला और कल्याणी ने कवि चंद के नाम एक रहस्यमयी खत लिखकर भारत भूमि से शादी का जोड़ा मंगवा लिया। काजी के साथ उनके निकाह का दिन निश्चित हो गया। रहमत झील के किनारे बनाये गए नए महल में विवाह की तैयारी शुरू हुई। कवि चंद द्वारा भेजे गये कपड़े पहनकर काजी साहब विवाह मंडप में आए। कल्याणी और बेला ने भी काजी द्वारा दिये गये कपड़े पहन रखे थे। शादी को देखने के लिए बाहर जनता की भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। 

तभी बेला ने काजी से कहा- *‘‘हम कलमा और निकाह पढ़ने से पहले जनता को झरोखे से दर्शन देना चाहती हैं। क्योंकि? विवाह से पहले जनता को दर्शन देने की हमारे यहां प्रथा है और फिर गजनी वालों को भी तो पता चले कि आप बुढ़ापे में जन्नत की सबसे सुंदर हूरों से शादी रचा रहे हैं। शादी के बाद तो हमें जीवन भर बुरका पहनना ही है। तब हमारी सुंदरता का होना न के बराबर ही होगा। नकाब में छिपी हुई सुंदरता भला तब किस काम की.? 

‘‘हां..हां..क्यों नहीं।’’

काजी ने उत्तर दिया और कल्याणी और बेला के साथ राजमहल के कंगूरे पर गया, लेकिन वहां तक पहुंचते-पहुंचते ही काजी के दाहिने कंधे से आग की लपटें निकलने लगी, क्योंकि कविचंद ने बेला और कल्याणी का रहस्यमयी पत्र समझकर बड़े तीक्ष्ण विष में सने हुए कपड़े भेजे थे। काजी साहब विष की ज्वाला से पागलों की तरह इधर-उधर भागने लगा, तब बेला ने उससे कहा- *‘‘तुमने ही गौरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए उकसाया था ना? हमने तुझे मार कर अपने देश को लूटने का बदला ले लिया है। हम हिन्दू कुमारियां हैं समझे, किसमें इतना साहस है जो जीते जी हमारे शरीर को छू भी सकें"।

इतना कहकर उन दोनों बालिकाओं ने महल की छत के बिल्कुल किनारे खड़ी होकर एक-दूसरी की छाती में विष बुझी कटार भोंक दी और उनकी प्राणहीन देह उस उंची छत से नीचे लुढ़क गई। 
पागलों की तरह इधर-उधर भागता हुआ काजी भी जल कर तड़प-तड़प कर भस्म हो गया।

भारत की इन दोनों बहादुर बेटियों ने विदेशी धरती पर, पराधीन रहते हुए भी बलिदान की जिस गाथा का निर्माण किया, वह गर्व करने योग्य है।



गुरुवार, 19 मई 2022

पंजवन देव जी कच्छावा

सम्राट पृथ्वीराज चहुआण के मंत्रिमंडल में 100 सामंत थे अर्थात यूं कहें कि उनकी सेना में 100 सेनापति थे जिनके बल पर पृथ्वीराज की हर युद्ध में विजय होती थी उनके सेना के एक सेनापति पजवन राय के बारे में उक्त आलेख है

 नरेश पंजवन देव जी कच्छावा : एक महान धनुर्धर एवम पराक्रमी योद्धा 

पंजवन देव जी सम्राट पृथ्वीराज के अहम सहयोगी थे। इनका विवाह पृथ्वीराज चौहान के काका कान्ह की पुत्री पदारथ दे के साथ हुआ।

पजवन देव जी ने स्वयं के नेतृत्व में  कुल 64 युद्ध जीते थे । 

प्रारंभिक रूप से भोले  राव पर विजय प्राप्त की , (राजा भीम सोलंकी गुजरात का राजा था इसे भोला भीम का जाता था) ।

पृथ्वीराज चौहान ने इन्हें  बाद में नागौर भेजा।

पृथ्वीराज और गोरी के बीच लड़े गए अधिकतर युद्धों में नेतृत्व इन्होंने ही किया।

जब गोरी से प्रथम बार सामना हुए तब  मुस्लिम सेना की संख्या 3 लाख के करीब थी।

परंतु पजवन जी के पास केवल 5000 सैनिकों की फौज थी। इसलिए पंजवन जी के लोगो ने अरज किया कि-

"अपने पास सेना बहुत कम है और गौरी के पास बहुत अधिक है इसलिए युद्ध मत करो, वापिस चलो।"

तब पंजवन जी कछवाहा ने कहा कि-

 " पृथ्वीराज को जाकर क्या कहेंगे। फिर भी जिसको घर प्यारा है वो युद्धक्षेत्र से जाओ अर्थात जिसे अपने प्राण प्यारे है वो अपने घर चले जाओ मैं तो युद्ध करूंगा। 

तुम सब मुह पर मूंछ रखते हो या घास बढ़ा रखी है। तुम सब हिम्मत हार गए हो इसलिए अपने घर जाओ।" 

इतना सुनते ही सभी सरदार बोले-

" महाराज आपके बिना हम कहा जाए हम आपके साथ ही रहकर युद्ध करेंगे। 

तभी गौरी से युद्ध प्रारम्भ हुए और मात्र 5000 की फौज के साथ उसकी 300000 की सेना को परास्त किया। 

गौरी को कैद कर के नागौर के किले में ले गए उसके बाद उसे दिल्ली ले जाकर दंडित कर के छोड़ दिया।

गहैत गौरी शाह कै, भाजी सेना ओर।
आयो वाह लिया तब, फिर कुरम नागौर ।।

अर्थात :- आमेर नरेश पंजवन जी कछवाहा द्वारा गौरी को कैद करने पर मुस्लिम सेना युद्ध क्षेत्र से भाग गई। युद्ध मे विजय होकर कुरम ( पंजवन जी कछवाहा ) नागौर आये तब उनकी चारो और वाह वाह हो रही थी।
   

गौरी को कैद करके पंजवन देव जी कछवाहा जब दिल्ली गए तो पृथ्वीराज चौहान स्वयं सामने से आकर उनको सम्मान के साथ दरबार मे लेकर गए और वहां उनका बहुत बड़ा सम्मान किया। 

बाद में काबुल की तरफ पठानो ने माथा उठाया अर्थात पृथ्वीराज चौहान के सीमांत क्षेत्र में उपद्रव करने लगे तब आमेर नरेश पंजवन देव जी कछवाहा को काबुल भेजा। वहां पठानो ने खैबर घाटी रोक दी।
आमेर नरेश पंजवन देव जी कच्छावा ने  पठानो पर हमला किया और वहां अधिकार जमाया। वही गौरी से दूसरा युद्ध हुवा एवं उसमें विजय प्राप्त की।
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आई समर सकेत मैं, पीड़ करि पज्जोन।
गोरी सम-गोरी अनी, गई लजत भजि भोन ।।
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अर्थात :- सेनाएं समर भूमि में आकर आमने सामने हुई। तब पंजवन राय जी ऐसा पराक्रम दिखाया कि गोरी शाह को सेना का नाश कर दिया। गोरी स्त्री के समान लज्जित हुवा एवं उसकी सेना भी भाग गई।
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बाद में पृथ्वीराज चौहान ने बुलाया और कन्नौज ओर चढ़ाई की। सयोंगीता ने पृथ्वीराज चौहान का वरण किया था एवं पृथ्वीराज चौहान ने फिर कन्नौज की ओर चढ़ाई कर के उसका अपहरण किया। तब आमेर नरेश पंजवन देव जी कच्छावा भी पृथ्वीराज चौहान  के साथ थे।
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कन्नौज में जयचंद के साथ युद्ध हुआ। जयचंद की तरफ से अजमत खा पठान युद्ध करने आया था।

 उसके पास 60000 अश्वरोही सेना थी।  पठान अजमत ख़ाँ हाथी पर सवार था , आमेर नरेश पंजवन देव जी कच्छावा ने हाथी को पकड़  उसके  दांत उखाड़ डाले। 
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उसकी सारी फ़ौज को रणखेत किया।  लेकिन आमेर नरेश पंजवन देव जी कच्छावा भी कन्नौज के पास इस युद्ध मे वीरगति को प्राप्त हुए। 
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जब इनकी वीरगति की खबर दिल्ली में पृथ्वीराज चौहान के पास पहुंची तो पृथ्वीराज चौहान ने इनके सम्मान में कुछ यूं कहा :- 
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आजे भिधाता ढिलडी आज ढूँढाड़ अनथ ।
आज अदिन प्रथिराज आज सावंत बिन मथ।।
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आज पुहप बिन वास आज मरजाद अलंघिय।
आज असुर दल परक आज निज दल तजि संघिय।।

   हिंदवाण ढाल भाग्यो भरम, अपछरा आय उचकियो।
 पंजवन सुरग जीतै थकां, चंग चंग घरत कियो।
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अर्थात :- पंजवन राव की मृत्यु पर आज दिल्ली विधवा की सी उदासी धारण किये हुए दिखने लगी है। मानो वह विधवा हो गई है। ढूंढाड़ प्रदेश उनकी मृत्यु से अनाथ हो गया है। सम्राट पृथ्वीराज के आज बुरे दिन का उदय हुआ है। सामन्तों का मस्तक शिरोमणि पंजवन आज नही रहा। पंजवन की मृत्यु से दूसरे सामन्त अपने आपको मस्तक विहीन मानने लगे है। आज पुष्प बिना सुगन्ध का हो गया है। आज मर्यादा ( न्याय -व्यवस्था ) भंग हो चुकी है। आज से शत्रु सेना में उत्साह और निज सेना में निराशा व्याप्त हो गयी है। तुर्को के दल के प्रवाह को रोकने वाला अब कोई नही रहा। हिन्दू धर्म की ढाल अब समाप्त हो गयी है। अब दुश्मनों का भृम दूर हो गया है। अप्सराएं युद्ध भूमि में उचक उचक कर देख रही है। वे पंजवन देव का वरण करना चाहती है। पंजवन के जीते जी मैने जगह जगह कितनी ही लड़ाइयां लड़ी है जीती है।
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राजपूतों के युद्ध नियम

राजपूतों के युद्ध नियम :- राजपूतों के इतिहास की बात आते ही आंखों के सामने आ जाते हैं उनके नियम, उसूल। कई बार इन्हीं उसूलों के कारण उन्हें समस्याओं का सामना करना पड़ा, परन्तु फिर भी उन्होंने अपने इन उसूलों को महान आदर्शों का दर्जा देकर इनका अस्तित्व बनाए रखा।
हालांकि ऐसा नहीं है कि इन नियमों का कभी उल्लंघन न हुआ हो। अपवाद सर्वत्र हैं, परन्तु फिर भी राजपूतों ने जहां तक सम्भव हो सका इन नियमों की पालना की। बाद में 16वीं-17वीं सदी से इन उसूलों में कमी देखी गई। 

राजपूत युद्ध में विषैले व आंकड़ेदार तीरों का प्रयोग नहीं करते थे। रथी से रथी, हाथी से हाथी, घुड़सवार से घुड़सवार व पैदल से पैदल लड़ते थे। हालांकि यदि कोई घुड़सवार आगे होकर हाथी से लड़ना चाहे, तो वह लड़ सकता था।
सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद युद्ध नहीं होते थे। तराइन के दूसरे युद्ध में सम्राट पृथ्वीराज चौहान की सेना की पराजय का मुख्य कारण यही था। 

जब सम्राट की बहुत सी सेना को नींद से जागे हुए कुछ ही समय हुआ था कि तभी मोहम्मद गौरी ने सूर्योदय से पहले ही अचानक आक्रमण कर दिया। वह शुरुआती आक्रमण था, इसलिए राजपूत बाहरी आक्रांताओं की इन चालों से अनभिज्ञ थे। 

राजपूत कभी भी भयभीत, पराजित व भागने वाले शत्रु पर वार नहीं करते थे। यह नियम खुले में लड़ने वाले युद्धों के लिए था, छापामार युद्धों में इन नियमों का प्रयोग नहीं किया जाता था। 

शत्रु का शस्त्र टूट जाए, धनुष की प्रत्यंचा टूट जाए, कवच निकल पड़े या उसका वाहन नष्ट हो जाए, तो उस पर वार नहीं किया जाता था। इसी तरह सोते हुए, थके हुए, प्यासे, भोजन या जलपान करते हुए शत्रु पर वार नहीं किया जाता था। 

युद्धों के समय राजपूत शासक प्रजा की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखते थे। लेकिन जब शत्रु भारी संख्या में किले की घेराबंदी के लिए आते थे, तब राजपूतों के पास प्रजा को बचाने का एक ही तरीका होता था कि उन्हें दुर्ग में शरण दी जाए। 

यदि शरण ना दी जाए, तो प्रजा निश्चित रूप से मारी जाती और शरण दी जाए, तो तभी मारी जाती जब बाहरी आक्रांता गढ़ जीत लेता। लेकिन फिर भी हज़ारों की संख्या में लोगों को गढ़ में शरण देना, उन्हें रसद उपलब्ध करवाना मामूली बात नहीं होती थी। 

प्रजा को शरण देने से घेराबंदी कम समय तक चलती थी, क्योंकि किले में रसद सामग्री शीघ्र समाप्त हो जाती थी। फिर भी राजपूत इस बात की परवाह नहीं करते थे और जब रसद समाप्त हो जाती, तो खुद ही किले के द्वार खोलकर लड़ाई लड़ते थे। 

युद्ध में जो शत्रु घायलावस्था में कैद किए जाते, उनका इलाज करवाकर उन्हें छोड़ दिया जाता था। जैसे महाराणा सांगा ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी के ज़ख्मी बेटे व मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय को कैद करके मरहम पट्टी करवाकर छोड़ दिया था। 

शरणागत रक्षा को निभाने के लिए राजपूत अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते थे। रणथंभौर के वीर हम्मीर देव चौहान ने अलाउद्दीन खिलजी से बग़ावत करके भागे हुए 2 बागियों को शरण दी थी, जिनके बदले में उन्होंने रणथंभौर के सभी राजपूतों समेत प्राणों का बलिदान दिया व राजपूतानियों को जौहर करना पड़ा। 

जब भी दो राजपूत शासकों के बीच युद्ध हुए, तब पराजित पक्ष की स्त्रियों को जौहर जैसी परिस्थिति से नहीं गुज़रना पड़ा, क्योंकि राजपूत पराजित पक्ष की स्त्रियों का भी सम्मान करते थे। उदाहरण के तौर पर सिरोही के राव सुरताण देवड़ा ने कल्ला को पराजित करके उनकी स्त्रियों को सम्मान सहित उन तक भिजवा दिया।
महाराणा प्रताप ने तो शत्रु पक्ष के सेनापति अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना की बेगमों को सम्मान सहित रहीम तक भिजवा दिया था। जबकि अकबर के आक्रमण के कारण चित्तौड़गढ़ में जौहर हुआ था। 

हल्दीघाटी युद्ध से पहले राजा मानसिंह कछवाहा शिकार पर निकले थे और महाराणा प्रताप के शिविर के काफी नजदीक आ गए थे, जिसकी सूचना महाराणा के गुप्तचर ने उन तक पहुंचाई।
उस समय राजा मानसिंह के साथ केवल एक हज़ार घुड़सवार थे। लेकिन राजा मानसिंह पर आक्रमण नहीं किया गया। 

राजपूतों में केसरिया का विशेष महत्व रहा है। यदि किसी युद्ध में राजपूत वीर केसरिया धारण कर लेते, तो उसका अर्थ होता था “विजय या वीरगति”। अर्थात पराजित होकर नहीं लौट सकते थे।

अक्सर केसरिया उन युद्धों में किया जाता था, जिनमें जीतने की संभावना बहुत कम हो, जैसे बड़ी सेना द्वारा किसी किले की घेराबंदी कर दी जाए, तो ऐसी परिस्थिति में राजपूतों का लक्ष्य शत्रु का अधिक से अधिक नुकसान करने का रहता था। 

राजपूत अपने वचन के पक्के होते थे। कई बार तो ऐसे अवसर भी आए हैं जब किसी एक राजपूत के वचन ने परंपरा का रूप ले लिया हो। कई बार राजपूत किसी विशेष शत्रु से प्रतिशोध लेने के लिए पगड़ी की जगह फैंटा बांध लिया करते थे और प्रण लेते थे कि जब तक शत्रु को न मार दूं, तब तक पगड़ी धारण नहीं करूंगा। 

कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है कि “यदि स्त्री के प्रति पुरुष की भक्ति और उसके सम्मान को कसौटी माना जाए, तो एक राजपूत का स्थान सबसे श्रेष्ठ माना जाएगा। वह स्त्री के प्रति किए गए असम्मान को कभी सहन नहीं कर सकता और यदि इस प्रकार का संयोग उपस्थित हो जाए, तो वह अपने प्राणों का बलिदान देना अपना कर्तव्य समझता है। जिन उदाहरणों से इस प्रकार का निर्णय करना पड़ता है, उससे राजपूतों का सम्पूर्ण इतिहास ओतप्रोत है।” 

लेनपूल लिखता है कि “राजपूतों की शूरवीरता और प्रतिष्ठा के स्वभाव, उन्हें साहस और बलिदान के लिए इतना उत्तेजित करते थे कि जिनका बाबर के अर्ध-सभ्य सिपाहियों की समझ में आना भी कठिन था” 

फ़ारसी तवारीख बादशाहनामा में लिखा है कि “बड़ी-बड़ी लड़ाइयों में जहां अच्छे-अच्छे बहादुरों के चेहरे का रंग फ़ीका पड़ जाता था, वहां राजपूत हरावल में रहकर लड़ाई का रंग जमा देते थे।”

मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

बाईसा किरण देवी


अकबर प्रतिवर्ष दिल्ली में नौ रोज़ का मेला आयोजित करवाता था....! इसमें पुरुषों का प्रवेश निषेध था....! अकबर इस मेले में महिला की वेष-भूषा में जाता था और जो महिला उसे मंत्र मुग्ध कर देती....उसे उसकी दासियाँ छल कपट से अकबर के सम्मुख ले जाती थी....!
एक दिन नौ रोज़ के मेले में महाराणा प्रताप सिंह की भतीजी, छोटे भाई महाराज शक्तिसिंह की पुत्री मेले की सजावट देखने के लिये आई....! जिनका नाम बाईसा किरण देवी था...!
जिनका विवाह बीकानेर के पृथ्वीराज जी से हुआ था!
बाईसा किरण देवी की सुंदरता को देखकर अकबर अपने आप पर क़ाबू नहीं रख पाया....और उसने बिना सोचे समझे ही दासियों के माध्यम से धोखे से ज़नाना महल में बुला लिया....!
जैसे ही अकबर ने बाईसा किरण देवी को स्पर्श करने की कोशिश की....किरण देवी ने कमर से कटार निकाली और अकबर को ऩीचे पटक कर उसकी छाती पर पैर रखकर कटार गर्दन पर लगा दी....!
और कहा नीच....नराधम, तुझे पता नहीं मैं उन महाराणा प्रताप की भतीजी हूँ....जिनके नाम से तेरी नींद उड़ जाती है....! बोल तेरी आख़िरी इच्छा क्या है....? अकबर का ख़ून सूख गया....! कभी सोचा नहीं होगा कि सम्राट अकबर आज एक राजपूत बाईसा के चरणों में होगा....!
अकबर बोला: मुझसे पहचानने में भूल हो गई....मुझे माफ़ कर दो देवी....!
इस पर किरण देवी ने कहा: आज के बाद दिल्ली में नौ रोज़ का मेला नहीं लगेगा....!
और किसी भी नारी को परेशान नहीं करेगा....!
अकबर ने हाथ जोड़कर कहा आज के बाद कभी मेला नहीं लगेगा....!
उस दिन के बाद कभी मेला नहीं लगा....!
इस घटना का वर्णन गिरधर आसिया द्वारा रचित सगत रासो में 632 पृष्ठ संख्या पर दिया गया है।
बीकानेर संग्रहालय में लगी एक पेटिंग में भी इस घटना को एक दोहे के माध्यम से बताया गया है!
"किरण सिंहणी सी चढ़ी, उर पर खींच कटार..!
भीख मांगता प्राण की, अकबर हाथ पसार....!!"
अकबर की छाती पर पैर रखकर खड़ी वीर बाला किरन का चित्र आज भी जयपुर के संग्रहालय में सुरक्षित है।
इस तरह की‌ पोस्ट को शेअर जरूर करें और अपने महान धर्म की गौरवशाली वीरांगना ओं की कहानी को हर एक भारतीय को  जरूर सुनायें!!

शनिवार, 1 जनवरी 2022

जैसलमेर पर पाकिस्तानी घुसपैठियों (कबायलीयों) का आक्रमण

जैसलमेर पर पाकिस्तानी घुसपैठियों (कबायलीयों) का आक्रमण : दिनांक 24 फरवरी 1948 की अर्धरात्रि , जोधपुर महाराजा के निजी सचिव श्री ओंकार सिंह ( बाबरा ) को  जैसलमेर के महाराज कुमार श्री गिरधारी सिंह का तार मिला, वे अपने शयनकक्ष से बाहर आए उन्होंने तार खोल कर पढ़ा . तार में अंकित था – “ पाँच सौ से अधिक पठान आक्रमणकारियों का एक दल भावलपुर कि ओर से बढ़ता हुआ यहाँ से चौबीस मील देवा तक पहुँचने के समाचार मिले हैं, इन के पीछे हजारों आक्रमणकारी आ रहे हैं जो गाँवों को जलाते हुए और लोगों को अंधाधुंध मारते हुए जैसलमेर कि ओर बढ़ रहे हैं, निवेदन है कि वायुयानों, कारों  ट्रकों आदि साधनों से शीघ्र सहायता भेजिए ...
स्थिति अत्यन्त भयावह है, अतः तुरन्त सहायता से ही बचाव हो सकता है “ ....
तार को पढ़ते ही उन्होंने राजमहल के ए.डी.सी कक्ष को टेलीफोन किया और महाराजा श्री हनुवंतसिंह को तत्काल जगाने के निर्देश दिए और स्वयं महाराजा साहब से मिलने तत्काल उम्मेद भवन के लिए निकल पड़े, कश्मीर में भी पाकिस्तान द्वारा इसी प्रकार की घुसपैठ की जा चुकी थी अतः खलबली मचना स्वाभाविक था । श्री ओंकारसिंह के महल पहुँचने से पहले ही महाराजा साहब और उन के ए.डी.सी. जग चुके थे, महाराजा ने पूछा – “ ओंकारसिंह जी क्या आफ़त लाए हो ? “ ओंकारसिंह जी ने लिफाफे से तार निकाल कर महाराजा के हाथ में रख दिया, महाराजा के चेहरे पर घबराहट का कोई निशान नहीं उभरा और तत्काल जोधपुर राज्य के प्रधानमंत्री,  मुख्य सेनापति, महानिरीक्षक पुलिस को बुलाने तथा भारत के रक्षा मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को ट्रंक काल करने का निर्देश दिया .... 
कुछ ही समय में जोधपुर राज्य की सेना के मुख्य सेनापति ब्रिगेडियर जबरसिंह महाराजा के ऑफिस में उपस्थित हो गए उन्होंने तार को पढ़ा और तत्काल विभिन्न सेना कमांडेंटों को फोन द्वारा सतर्कता बरतने का आदेश दिया इसी समय पुलिस महानिरीक्षक तथा प्रधानमंत्री महाराजा अजीतसिंह भी पहुँच गए, महाराजा की अध्यक्षता में उच्च स्तरीय बैठक हुई जिस में तात्कालिक कार्यवाही के लिए निम्न निर्णय लिए गए –
1. जोधपुर लांसर्स को तुरन्त सैनिक ट्रकों द्वारा जैसलमेर रवाना कर दिया जाए और साथ में वायरलैस इत्यादि संचार साधन रखे जाएँ ....
2. ब्रिगेडियर जबरसिंह कमांडेंटों को निर्देश प्रदान कर सेना को तत्काल निर्दिष्ट स्थानों के लिए रवाना करें ....
3. प्रधानमंत्री राज्य में आपातकाल की घोषणा करे और इसे सवेरे तक असाधारण राजपत्र में प्रकाशित कर दें ....
4. राज्य की पुलिस निजी ट्रकों , कारों तथा जीपों को अपने कब्जे में ले लें और निजी वाहनों के लिए पेट्रोल का वितरण तुरन्त बन्द कर दिया जाए .....
5. महाराजा के अश्वारोही बॉडीगार्ड ‘ दुर्गाहॉर्स ‘ के कमांडेंट मोहनसिंह भाटी स्वयं एक वायुयान ले जा कर जैसलमेर राज परिवार को तुरन्त जोधपुर ले आएँ,
दूसरा वायुयान भेज कर पता लगाएं कि कितने हमलावर हैं, वे कहाँ तक पहुँच गए और उन के पास क्या क्या अस्त्र शस्त्र हैं ?
महाराजा ने टेलीफोन वार्ता कर रक्षामंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को जैसलमेर महाराज कुमार का तार पढ़ कर सुनाया और जोधपुर स्टेट द्वारा की जाने वाली कार्यवाहियों का विवरण भी बता दिया । 
रात्रि में जोधपुर से जैसलमेर विमान ले कर गए कर्नल मोहनसिंह भाटी ने महारावल से उन के महल में मुलाक़ात की तथा मूल्यवान वस्तुएँ तथा जेवर साथ ले कर महारावल को जोधपुर चलने का आग्रह किया किन्तु महारावल में जैसलमेर छोड़ने से स्पष्ट इंकार कर दिया उन्होंने कहा कि वे अपनी प्रजा के साथ ही जिएंगे और उन्हीं के साथ मरेंगे, विपत्तिकाल में प्रजा को असहाय छोड़ कर जाना कायरता की निशानी होगी जिस का कलंक वे अपने वंश पर नहीं लगाएंगे हम जैसलमेर छोड़ने के बजाय लड़ते हुए मर जाना उचित समझेंगे ...
कर्नल मोहनसिंह जी भाटी साहब (जो पूर्व विदेश रक्षा मंत्री जसवंत सिंह जी के ससुर थे) ने बहुत आग्रह किया किन्तु महारावल अपने निर्णय से टस से मस नहीं हुए आखिर हार कर कर्नल मोहनसिंह सैनिक सहायता सुनिश्चित करने के लिए जोधपुर लौट गए ..
जोधपुर लौटने से पहले उन्होंने अपने विमान से देवा और पाकिस्तान की सीमा की ओर उड़ान भर कर आक्रमणकारियों की संख्या और स्थिति का जायजा लिया, उन्होंने पाया कि वास्तव में तीन से चार सौ घुसपैठिए शस्त्रों से लैस ऊँट घोड़ों पर सवार थे, वे गायों और ऊंटों के टोलों को घेर रहे थे और जस रास्ते से आ रहे थे उस पर पड़ने वाले गाँवों को जलाया भी था। एक पुलिस टुकड़ी के मुकाबला करने पर उस एक थानेदार और दो सिपाहियों को भी मार डाला था ।
घुसपैठियों ने जब ऊपर वायुयान को मंडराते देखा तो उन के होश फ़ाख्ता हो गए वे उलटे पाँव पाकिस्तान की तरफ़ भागने लगे .... 
महाराजा हनुवंतसिंह और उन के अधिकारीयों द्वारा तत्काल लिए गए निर्णय से जोधपुर लांसर्स, जोधपुर स्टेट की सेना,  जोधपुर स्टेट पुलिस और वायुसेना के संयुक्त अभियान के फलस्वरूप न केवल जैसलमेर राजपरिवार सुरक्षित रहा अपितु भारत एक और घुसपैठ से राजस्थान के दूसरा कश्मीर बनने से बच गया .... 
लोकतंत्र के नाम पर बने नव शासकों नें बड़ी लकीर को मिटा कर अपने को बड़ा साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, एकतरफा इतिहास पढ़ा कर जनता को भ्रमित करना इन नव शासकों के रक्त में है .......
आलेख का स्रोत -- एक महाराजा की अंतर्कथा - लेखक श्री ओंकारसिंह ( बाबरा ) पूर्व IAS

गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

राव कुंपा


राव कुंपा

जल ड्योढी थल माय,कुंपा री कीरत करां।
शीप समंदा मांय, मोती बख्सया मेहराजवत ।।



वीर योद्धा, दानी राव कुंपाजी ने अपने 41 वर्ष के जीवन काल में 52 युद्ध लड़े व सभी में विजयी रहे।
राव कुंपा जी राठौड़ का नाम  दक्ष सेनापति, वीरता, साहस, पराक्रम और देश भक्ति के लिए मारवाड़ के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा है। राव कुंपा जी, जोधपुर के राजा राव जोधा के भाई, राव अखैराज के पौत्र व मेहराज जी के पुत्र थे।
इनका जन्म वि.सं. 1559 शुक्ल द्वादशी मार्गशीर्ष माह को राडावास धनेरी (सोजत) गांव में मेहराज जी की रानी करमेति भटियाणी जी के गर्भ से हुआ था।
राव जेता जी, मेहराज जी के भाई, पंचायण जी के पुत्र थे। अपने पिता के निधन के समय राव कुंपा जी की आयु एक वर्ष थी,बड़े होने पर ये जोधपुर के शासक मालदेव की सेवा में चले गए। मालदेव अपने समय के राजस्थान के शक्तिशाली शासक थे, राव कुंपा व जैता जी जैसे वीर उसके सेनापति थे, राव कुंपाजी व राव जैता जी ने राव मालदेव की ओर से कई युद्धों में भाग लेकर विजय प्राप्त की और अंत में वि.सं. 1600 चेत्र कृष्ण पंचमी को गिरी सुमेल युद्ध में दिल्ली के बादशाह शेरशाह सूरी की सेना के साथ लड़ते हुए वीर गति प्राप्त की। इस युद्ध में बादशाह की अस्सी हजार सेना के सामने राव कुंपा व जेता दस हजार सैनिकों के साथ थे। भयंकर युद्ध में बादशाह की सेना के चालीस हजार सैनिक काट डालकर राव कुंपा व जेता ने अपने दस हजार सैनिकों के साथ वीरगति प्राप्त की। मातृभूमि की रक्षार्थ युद्ध में अपने प्राण न्यौछावर करने वाले मरते नहीं वे तो इतिहास में अमर हो जाते है-

अमर लोक बसियों अडर,रण चढ़ कुंपो राव।
सोले सो बद पक्ष में चेत पंचमी चाव।

उपरोक्त युद्ध में चालीस हजार सैनिक खोने के बाद शेरशाह सूरी आगे जोधपुर पर आक्रमण की हिम्मत नहीं कर सका व विचलित होकर शेरशाह ने कहा :-

बोल्यो सूरी बैन यूँ , गिरी घाट घमसाण।
मुठ्ठी खातर बाजरी,खो देतो हिंदवाण।।

अर्थात -“मुट्ठी भर बाजरे कि खातिर मैं दिल्ली कि सल्तनत खो बैठता।” और इसके बाद शेरशाह सूरी ने कभी राजपूताना में आक्रमण करने कि गलती नहीं की।
राव कुंपा जी राठौड़ के वंशज वर्तमान समय में कुंपावत राठौड़ कहलाते हैं।

ऊँठाळे का युद्ध – 1600 ई



“ऊँठाळे का युद्ध” – 1600 ई. :- उदयपुर जिले की वल्लभनगर तहसील में स्थित इस दुर्ग पर मुगलों का कब्जा था। ये युद्ध 1605 ई. में जहांगीर के समय होना बताया जाता है, लेकिन कविराज श्यामलदास समेत कुछ विद्वानों द्वारा ये युद्ध 1600 ई. में अकबर के समय होना बताया जाता है। 1600 ई. वाली तारीख ज्यादा सही लगती है।मुगल सिपहसालार कायम खां ऊँठाळे दुर्ग में तैनात था। इस युद्ध को मेवाड़ के इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। इसका सबसे अहम कारण था चुण्डावतों व शक्तावतों में हरावल में रहने की होड़। मेवाड़ की हरावल अर्थात सेना की अग्रिम पंक्ति में रहकर लड़ने का अधिकार चुण्डावतों को प्राप्त था।
जब महाराणा अमरसिंह ने ऊँठाळे दुर्ग पर आक्रमण करने की बात दरबार में की, तब वहां मौजूद महाराज शक्तिसिंह के पुत्र बल्लू सिंह शक्तावत ने महाराणा से अर्ज किया कि “हुज़ूर, मेवाड़ की हरावल में रहने का अधिकार केवल चुंडावतों को ही क्यों है, क्या हम शक्तावत किसी मामले में पीछे हैं ?”

तभी दरबार में मौजूद रावत कृष्णदास चुंडावत के पुत्र रावत जैतसिंह चुंडावत ने कहा कि “मेवाड़ की हरावल में रहकर लड़ने का अधिकार चुंडावतों के पास पीढ़ियों से है।” महाराणा अमरसिंह के सामने दुविधा खड़ी हो गई, क्योंकि वे दोनों को ही नाराज नहीं कर सकते थे। सोच विचारकर महाराणा अमरसिंह ने इस समस्या का एक हल निकाला।

महाराणा अमरसिंह ने कहा कि “आप दोनों शक्तावतों और चुंडावतों की एक-एक सैनिक टुकड़ी का नेतृत्व करो और अलग-अलग रास्तों से ऊँठाळे दुर्ग में जाने का प्रयास करो। दोनों में से जो भी ऊँठाळे दुर्ग में सबसे पहले प्रवेश करेगा, वही हरावल में रहने का अधिकारी होगा और उसके बाद इस बात को लेकर कोई तर्क वितर्क ना किया जावे।”

महाराणा अमरसिंह ने खुद इस महायुद्ध का नेतृत्व किया। महाराणा के नेतृत्व में 10,000 मेवाड़ी वीरों ने ऊँठाळे गांव में प्रवेश किया, जहां मुगलों से लड़ाई हुई। इस लड़ाई में सैंकड़ों मुगल मारे गए। मुगल सेना ने भागकर ऊँठाळे दुर्ग में प्रवेश किया। मेवाड़ी सेना ने ऊँठाळे दुर्ग को घेर लिया।

दुर्ग में प्रवेश करने के लिए बल्लू जी शक्तावत दुर्ग के द्वार के सामने आए और अपने हाथी को आदेश दिया कि द्वार को टक्कर मारे पर लोहे की कीलें होने से हाथी ने द्वार को टक्कर नहीं मारी। ऊपर से हाथी मकुना अर्थात बिना दांत वाला था।

बल्लू जी द्वार की कीलों को पकड़ कर खड़े हो गए और महावत से कहा कि हाथी को मेरे शरीर पर हूल दे। हाथी ने बल्लू जी के टक्कर मारी, जिससे बल्लू जी नुकीली कीलों से टकराकर वीरगति को प्राप्त हुए। द्वार टूट गया और द्वार के साथ-साथ बल्लू जी भी किले के भीतर गिर पड़े।

बल्लू जी के इस बलिदान के बावजूद वे हरावल का अधिकार नहीं ले सके। रावत जैतसिंह चुण्डावत सीढियों के सहारे ऊपर चढ रहे थे। ऊपर पहुंचते ही मुगलों की बन्दूक से निकली एक गोली रावत जैतसिंह की छाती में लगी, जिससे वे सीढ़ी से गिरने लगे, तभी उन्होंने अपने साथियों से कहा कि मेरा सिर काटकर दुर्ग के अन्दर फेंक दो। साथियों ने ठीक वैसा ही किया।

इस तरह किले में पहले प्रवेश करने के कारण हरावल का नेतृत्व चुण्डावतों के अधिकार में ही रहा। “हाथी से टक्कर दिलवाकर, दुर्ग द्वार तुड़वाया था। सिर अपना फेंका कटवाकर, हरावल में नाम जुड़वाया था।।”

मुगल सेनानायक कायम खां शतरंज का बड़ा शौकीन था। इस भीषण युद्ध के बीच वह दुर्ग में शतरंज खेल रहा था, कि तभी स्वयं महाराणा अमरसिंह वहां पहुंचे। कायम खां ने महाराणा से विनती की कि मुझे ये खेल पूरा करने दिया जावे। खेल पूरा होते ही महाराणा अमरसिंह ने अपने हाथों से कायम खां को मारा और मेवाड़ी वीरों ने ऊँठाळे दुर्ग पर ऐतिहासिक विजय प्राप्त की। इस युद्ध में कई मुगल मारे गए व महाराणा अमरसिंह ने बचे खुचे मुगलों को कैद किया।

ऊँठाळे के युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने वाले योद्धा :- सलूम्बर के रावत जैतसिंह चुंडावत, बल्लू जी शक्तावत, वाधा जी, वाधा जी के पुत्र अमरा जी, खान देवड़ा, आहीर दामोदर, बैरीशाल, रावत तेजसिंह खंगारोत आदि योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए। सलूम्बर रावत जैतसिंह चुण्डावत के बलिदान के बाद मानसिंह चुण्डावत सलूम्बर के अगले रावत बने।

महाराज शक्तिसिंह जी के पुत्र, जो ऊँठाळे के युद्ध में काम आए :- कुंवर सुल्तान शक्‍तावत, कुंवर मंडन शक्‍तावत, कुंवर जगन्नाथ शक्‍तावत, महाराज भाण शक्‍तावत। महाराज भाण शक्‍तावत को महाराणा प्रताप ने भीण्डर की जागीर प्रदान की थी।

मोहनदास राठौड़ :- ये नीमडी के चन्दन सिंह राठौड़ के पुत्र थे। ऊँठाळे के युद्ध में मोहनदास राठौड़ के वीरगति पाने के बाद उनके पुत्र अमरसिंह राठौड़ को महाराणा अमरसिंह ने भैंसरोडगढ़ की जागीर दी।

ऊँठाळे के युद्ध में जीवित रहने वाले प्रमुख योद्धा :- देवगढ़ के रावत दूदा चुण्डावत, रामसिंह, महाराणा अमरसिंह के मामा राव शुभकर्ण पंवार। इस लड़ाई में महाराज शक्तिसिंह जी के पुत्र रावत अचलदास शक्तावत, कुँवर मालदेव शक्तावत, कुँवर दलपत शक्तावत व कुँवर भूपत शक्तावत ने बड़ी बहादुरी दिखाई। विशेष रूप से महाराज शक्तिसिंह के पुत्र कुँवर दलपत व कुँवर भूपत की बहादुरी के चर्चे तो मुगल दरबार तक होने लगे।

रविवार, 12 दिसंबर 2021

शेखावतों की विभिन्न शाखाए

शेखावतों की विभिन्न शाखाए
राजा रायसल दरबारी खंडेला के 12 पुत्रों को जागीर में अलग अलग ठिकाने मिले| और यही से शेखावतों की विभिन्न शाखाओं का जन्म हुआ|इन्ही के पुत्रों में से एक ठाकुर भोजराज जी को उदयपुरवाटी जागीर के रूप में मिली| इन्ही के वंशज 'भोजराज जी के शेखावत" कहलाते है|

भोजराज जी के पश्चात उनके पुत्र टोडरमल उदयपुर (शेखावाटी)के स्वामी बने,टोडरमल जी दानशीलता के लिए इतिहास विख्यात है,टोडरमलजी के पुत्रों में से एक झुंझार सिंह थे,झुंझार सिंह सबसे वीर प्रतापी निडर कुशल योद्धा थे, तत्कालीन समय "केड" गाँव पर नवाब का शासन था,नवाब की बढती ताकत से टोडरमल जी चिंतित हुए|

परन्तु वो काफी वृद्ध हो चुके थे|इसलिए केड पर अधिकार नहीं कर पाए|कहते है टोडरमल जी मृत्यु शय्या पर थे लेकिन मन्न में एक बैचेनी उन्हें हर समय खटकती थी,इसके चलते उनके पैर सीधे नहीं हो रहे थे| वीर पुत्र झुंझार सिंह ने अपने पिता से इसका कारण पुछा|

टोडरमल जी ने कहा "बेटा पैर सीधे कैसे करू,इनके केड अड़ रही है"(अर्थात केड पर अधिकार किये बिना मुझे शांति नहीं मिलेगी)| पिता की अंतिम इच्छा सुनकर वीर क्षत्रिये पुत्र भला चुप कैसे बैठ सकता था? 

झुंझार सिंह अपने नाम के अनुरूप वीर योद्धा,पित्रभक्त थे !उन्होंने तुरंत केड पर आक्रमण कर दिया| इस युद्ध में उन्होंने केड को बुरी तरह तहस नहस कर दिया| जलते हुए केड की लपटों के उठते धुएं को देखकर टोडरमल जी को परमशांति का अनुभव हुआ,और उन्होंने स्वर्गलोक का रुख किया|

इन्ही झुंझार सिंह ने अपनी प्रिय ठकुरानी गौड़जी के नाम पर "गुढ़ा गौड़जी का" बसाया| तत्कालीन समय में इस क्षेत्र में चोरों का आतंक था, झुंझार सिंह ने चोरों के आतंक से इस क्षेत्र को मुक्त कराया| किसी कवि का ये दोहा आज भी उस वीर पुरुष की यशोगाथा को बखूबी बयां कर रहा है-

डूंगर बांको है गुडहो,रन बांको झुंझार, 
एक अली के कारण, मारया पञ्च हजार!!

शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

बीकानेर राज्य के ताजीमी ठिकाने

बीकानेर राज्य के ताजीमी ठिकाने
ताजीमी ठिकाने
.        (संकलन- घनश्यामसिंह राजवी चंगोई)

बीकानेर रियासत में चार प्रकार के ताजीमी ठिकाने थे, जिनको उनकी श्रेणी के अनुसार सम्मान प्राप्त था …

 १. सिरायत
इन्हें आम बोलचाल की भाषा में (बड़े होने के कारण) अधराजिया भी कहते थे। इन ठिकानों के ठिकानेदार जब महाराजा से भेंट करने जाते तब महाराजा खड़े होकर उनका स्वागत करते व भेंट के उपरांत खड़े होकर विदा करते थे। इनको दोलड़ी ताजीम के अलावा हाथ के कुरब का सम्मान प्राप्त था। इनके पदनाम अलग-2 थे। इनकी संख्या मात्र 4 थी …

1. रावतसर (रावतोत कांधल)- बीकानेर राज्य के संस्थापक राव बीकाजी के चाचा रावत कांधलजी के पुत्र राजसिंह को सन 1500 में यह ठिकाना दिया गया था। इनकी पदवी रावत थी।

2. बीदासर (बीदावत केशोदासोत)- राव बीकाजी के छोटे भाई बीदाजी के प्रपोत्र केशवदास को यह ठिकाना दिया गया था। इनकी पदवी राजा थी।

3.  महाजन (रतनसिंहोत बीका)- बीकानेर के 3रे राजा राव लूणकरण जी के पुत्र रतनसिंह को सन 1505 में यह ठिकाना दिया गया था। इनकी पदवी राजा थी।

4. भूकरका (श्रृंगोत बीका)- बीकानेर के 3रे राजा राव जैतसी के पुत्र श्रृंग के पुत्र भगवानदास को यह ठिकाना दिया गया था। इनकी पदवी राव थी।

२.दोलड़ी ताजीम वाले ठिकाने
इन ठिकानों के ठिकानेदार भी जब महाराजा से भेंट करने जाते तब महाराजा खड़े होकर उनका स्वागत करते व भेंट के उपरांत खड़े होकर विदा करते थे। राज्य में इनकी संख्या 29 थी  …

1.पूगल (केलणोत भाटी : उपाधी राव)- जैसलमेर के रावळ केहर के पुत्र केलण द्वारा बाकानेर की स्थापना से पूर्व स्थापित।

2. चूरू (बणीरोत कांधल)- रावत कांधलजी के पुत्र बाघसिंह के पुत्र  बणीर को तत्कालीन महाराजा द्वारा यह ठिकाना दिया गया था।

3. सांखू (किशनसिंहोत बीका) – बीकानेर के राजा सूरसिंह के छोटे भाई किशनसिंह को सन 1618 में यह ठिकाना दिया गया था।

4. नीमा (किशनसिंहोत बीका) – उपरोक्त किशनसिंह के पुुत्र जगतसिंह को 1630 में यह ठिकाना दिया गया था।

5. सिद्धमुख (श्रृंगोत बीका)- भूकरका के राव श्रृंग के प्रपोत्र  किशनसिंह को 1616 में यह ठिकाना दिया गया था।

6. ददरेवा (पृथ्वीराजोत बीका)- बीकानेर के 6ठे राजा रायसिंह के भाई पृथ्वीराजजी के पुत्र सुंदरसिंह को 1617 में यह ठिकाना दिया गया।

7. बांय (श्रृंगोत बीका)- भूकरका के राव श्रृंग के छठवें वंंशज दौलतसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।

8. राजपुरा (भीमराजोत बीका)- बीकानेर के 4थे राजा राव जैतसी के पुत्र भीमराज के 8वेंं वंशज हिम्मतसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।

9. जसाणा (श्रृंगोत बीका)- भूकरका के राव श्रृंग के पांचवें वंशज अमरसिंह को 1694 में यह ठिकाना दिया गया था।

10. कुंभाणा (रत्नसिंहोत बीका)- बीकानेर के राजा लूणकरण जी के पुत्र रत्नसिंह के वंंशज केेशरीसिंह को यह ठिकाना मिला था।

11. हरदेसर (अमरसिंहोत बीका)- बीकानेर के 5वेे राजा कल्याण मल के पुत्र अमरसिंह को सन 1594 में यह ठिकाना मिला था।

12. मगरासर (नारणोत बीका)- बीकानेर के राजा लूणकरण जी के पोत्र नारण के पुत्र भोपतसिंह को यह ठिकाना मिला था।

13. भादरा (सांईदासोत कांधल)- रावत कांधलजी के पुत्र अरड़कमल पहले साहवा के मालिक हुए। बाद में अरड़कमल के पोत्र सांईदास के वंशज लालसिंह को भादरा का ठिकाना मिला।

14. जैतपुर (रावतोत कांधल)- रावत कांधलजी के पुत्र राजसिंह के वंशज चद्रसेन को सन 1601 में यह ठिकाना मिला था।

15. झारिया (बणीरोत कांधल)- ठाकुर कुशलसिंह चूरू के पुत्र धीरतसिंह को 1764 में यह ठिकाना मिला था।

16. गोपालपुरा (बीदावत तेजसिंहोत)-  बीदाजी के प्रपौत्र द्रोणपुर के राव गोपालदास के पुत्र जसवंतसिंह ने यह ठिकाना कायम किया था।

17. चाड़वास (बीदावत तेजसिंहोत)-  बीदाजी के प्रपौत्र द्रोणपुर के राव गोपालदास ने पुत्र तेजसिंह को यह ठिकाना दिया था।

18. सांडवा (बीदावत मनोहरदासोत)- उपरोक्त द्रोणपुर के राव गोपालदास के पोत्र मनोहरदास के पुत्र रूपसिंह को यह ठिकाना मिला था।

19. मलसीसर (बीदावत तेजसिंहोत)- चाड़वास ठिकाने के  रामचंद्र के वंशज बख्तसिंह को यह ठिकाना मिला था।

20. लोहा (बीदावत खंगारोत)- राव बीदाजी के प्रपौत्र खंगारसिंह के पुत्र लाखणसिंह को 1632 में यह ठिकाना मिला था।

21. खुड़ी (बीदावत खंगारोत)- राव बीदाजी के प्रपौत्र खंगारसिंह के पुत्र किशनसिंह को 1638 में यह ठिकाना मिला था।

22. कनवारी (बीदावत खंगारोत)- राव बीदाजी के प्रपौत्र खंगारसिंह के वंशज बख्तसिंह लोहा के पुत्र दीपसिंह को यह ठिकाना मिला था।

23. सोभासर (बीदावत मदनावत)- राव बीदाजी के पुुत्र संसारचन्द्र के वंशज मदनसिंह के पौत्र उदयभान को यह ठिकाना मिला था।

24. हरासर (बीदावत पृथ्वीराजोत)- द्रोणपुर के राव गोपालदास के पोत्र पृथ्वीराज के पुत्र थानसिंह को यह ठिकाना मिला था।

25. नोखा (करमसोत जोधा)- राव जोधाजी के पुत्र करमसी के वंशज खींवसर ठाकुर जोरावरसिंह के पुत्र चांदसिंह को 1760 में यह ठिकाना मिला था।

26. सारूंडा (मंडलावत जोधा)- राव जोधाजी के भाई मंडलाजी के पुत्र द्वारा सन 1494 में स्थापित।

27. गड़ियाला (रावलोत भाटी- देरावरिया)- देरावर के रावल रघुनाथसिंह के पुत्र जालिमसिंह को 1784 में यह ठिकाना मिला था।

28. जेतसीसर (पंवार)- श्रीनगर (अजमेर) के ठाकुर जेतसिंह पंवार को यह ठिकाना मिला था।

29. राणासर (पंवार)- महाराजा सूरतसिंह के साले के पुत्र भोमसिंह को 1831 में यह ठिकाना मिला था।

 

३.इकोलड़ी ताजीम वाले ठिकाने
इन ठिकानों के ठिकानेदार जब महाराजा से भेंट करने जाते तब महाराजा खड़े होकर उनका स्वागत करते लेकिन भेंट के उपरांत खड़े नहीं होते बल्कि अपने स्थान पर बैठे-2 ही विदा करते थे। राज्य में इनकी संख्या  27 थी  …

चंगोई (तारासिंहोत राजवी)- बीकानेर के 14वें राजा गजसिंह जी द्वारा अपने बड़े भाई तारासिंहजी के पुत्र भवानीसिंह को सन 1787 में चंगोई की जागीर दी गई।
फोगां (अमरसिंहोत राजवी)- बीकानेर के 14वें राजा गजसिंह जी द्वारा अपने बड़े भाई अमरसिंहजी के पुत्र सरदारसिंह को सन 1759 में फोगां की जागीर दी गई।
मेहरी (गूदड़सिंहोत राजवी)- बीकानेर के 14वें राजा गजसिंह जी द्वारा अपने बड़े भाई गूदड़सिंहजी के पुत्र जगतसिंह को मेहरी की जागीर दी गई।
अजीतपुरा (श्रृंगोत बीका)- बीकानेर के 4थे राजा जैतसीजी के पुत्र श्रृंग के पौत्र मनोहरदास को सन 1594 में अजीतपुरा की जागीर दी गई।
बिरकाली (श्रृंगोत बीका)- उपरोक्त श्रृंग के वंशज कुशलसिंह भूकरका के पुत्र सुल्तानसिंह को सन 1750 में बिरकाली की जागीर दी गई।
शिमला (श्रृंगोत बीका)- उपरोक्त श्रृंग के 9वें वंशज मदनसिंह भूकरका के पुत्र ज्ञानसिंह को सन 1790 में शिमला की जागीर दी गई।
थिराणा (श्रृंगोत बीका)- उपरोक्त श्रृंग के 10वें वंशज जैतसिंह भूकरका के पुत्र ज्हठीसिंह को सन 1854 में थिराणा की जागीर दी गई।
रसलाणा (श्रृंगोत बीका)- उपरोक्त श्रृंग के 9वें वंशज रणजीतसिंह बांय के पुत्र हुकमसिंह को सन 1861 में रसलाणा की जागीर दी गई।
घड़सीसर (घड़सियोत बीका)- राव बीकाजी ने अपने पुत्र घडीसीजी को सन 1505 में घड़सीसर की जागीर दी।
गारबदेसर (घड़सियोत बीका)- उपरोक्त घडीसीजी के पुत्र देवीसिंह को गारबदेसर की जागीर दी गई।
मेघाणा (बाघावत बीका)- राव जैतसी के पुत्र बाघसिंह के पुत्र रघुनाथसिंह को 1580 में मेघाणा की जागीर दी गई।
पड़िहारा (मनोहरदासोत बीदावत)- राव गोपालदास के वंशज रघुनाथसिंह को यह जागीर दी गई।
चरला (केशोदासोत बीदावत)- राव गोपालदास के पुत्र केशोदास के सातवें वंशज जालिमसिंह बीदासर को यह जागीर दी गई।
काणुता (तेजसिंहोत बीदावत)- राव गोपालदास के पुत्र तेजसिंह के वंशज बख्तसिंह को 1808 में यहां की जागीर दी गई।
घंटियाल (तेजसिंहोत बीदावत)- राव गोपालदास के पुत्र तेजसिंह के वंशज संग्रामसिंह चाड़वास के पुत्र बख्तावरसिंह को यहां की जागीर दी गई।
सात्यू (बणीरोत कांधल)- राव बीकाजी ने रावत कांधल के पुत्र बाघसिंह (बणीरजी के पिता) को सन 1489 में (बीकानेर की स्थपना के एक वर्ष बाद ही) सात्यू का ठिकानेदार बनाया था। उनके वंशज विजयसिंह को महाराजा गजसिंह द्वारा सन 1755 में ताजीम का सम्मान दिया गया।
ल्होसणा (बणीरोत कांधल)- चूरू के ठाकुर बलभद्रसिंह के वंशज अर्जुनसिंह को 1790 में यहां की जागीर दी गई।
देपालसर (बणीरोत कांधल)- चूरू के ठाकुर भीमसिंह के पुत्र छत्रसाल को 1733 में यहां की जागीर दी गई।
बिसरासर (रावतोत कांधल)- रावतसर के रावत चतरसिंह के पुत्र आनंदसिंह को सन 1759 में यहां की जागीर दी गई।
सूँई (रावतोत कांधल)- रावतसर के रावत नाहरसिंह के पुत्र जैतसिंह को सन 1864 में यहां की जागीर दी गई।
बगसेऊ (करमसोत जोधा)- रोड़ा के ठाकुर अनाड़सिंह के पुत्र शार्दूलसिंह को 1902 में यहां की जागीर दी गई।
सत्तासर (हरावत भाटी)- पूगल के राव अभयसिंह के पुत्र अनूपसिंह को 1810 में यहां की जागीर दी गई।
जयमलसर (खिंया भाटी)- पूगल के राव शेखा के पुत्र खींवा के छठे वंशज चांदसिंह को 1618 में यहां की जागीर दी गई।
कूदसू (भाटी)- महाराजा गंगासिंह के साले बीकमकोर (जोधपुर) के ठाकुर प्रतापसिंह को 1909 में यहां की जागीर दी गई।
लखासर (तंवर)- बीकानेर के 9वें राजा कर्णसिंह द्वारा अपने ससुर (ग्वालियर के तंवर राजा मानसिंह के वंशज) केशोदास को 1713 में यहां की जागीर दी गई।
सांवतसर (तंवर)- महाराजा गंगासिंहजी ने अपने ससुर सुल्तानसिंह (उपरोक्त्त केशोदास के वंशज) को 1899 में यहां की जागीर दी गई। जोधासर (चंद्रावत सिसोदिया)- महाराजा गंगासिंह जी के नाना बख्तावरसिंह को 1852 में यहां की जागीर दी गई।
जोधासर (चंद्रावत सिसोदिया)- महाराजा गंगासिंह जी के नाना बख्तावरसिंह को 1852 में यहां की जागीर दी गई।
 

४.सादी ताजीम वाले ठिकाने
इन ठिकानों के ठिकानेदार जब महाराजा से भेंट करने जाते तब महाराजा अपने स्थान पर बैठे-2 ही उनका स्वागत करते तथा भेंट के उपरांत भी खड़े नहीं होते बल्कि अपने स्थान पर बैठे-2 ही विदा करते थे। राज्य में इनकी संख्या  60 थी  …

आसपालसर (राजवी अमरसिंहोत)- बीकानेर के 14वें राजा गजसिंह जी द्वारा अपने बड़े भाई अमरसिंहजी के पुत्र दल थंभनसिंह को सन 1786 में आसपालसर की जागीर दी गई।
रावतसर कुंजला (किशनसिंहोत बीका)- सांखू के ठाकुर किशनसिंह के वंशज भूरसिंह को सन 1933
कानासर (श्रृंगोत बीका)- भूकरका के राव श्रृंग के वंशज पेमसिंह बांय के पुत्र सालिमसिंह को 1808 में यह ठिकाना दिया गया था।
रणसिसर (श्रृंगोत बीका)- कुशलसिंह भूकरका के पोत्र शेरसिंह को 1813 में यह ठिकाना दिया गया था।
जबरासर (श्रृंगोत बीका)- भूकरका के राव श्रृंग के वंशज लालसिंह जसाणा के पुत्र शिवदानसिंह को 1862 में यह ठिकाना दिया गया था।
तेहनदेसर (नारणोत बीका)- लूणकरण के पोत्र नारण के पांचवें वंशज आइदानसिंह को 1678 में यह ठिकाना दिया गया था।
कातर (नारणोत बीका)- लूणकरण के पोत्र नारण के पांचवें वंशज गोरखदानसिंह को 1668 में यह ठिकाना दिया गया था।
मेणसर (नारणोत बीका)- लूणकरण के पोत्र नारण के पुत्र बलभद्रसिंह को 1678 में यह ठिकाना दिया गया था। 
बीनादेसर (मनोहरदासोत बीदावत)- सांडवा के ठाकुर दानसिंह के वंशज दूल्हसिंह को 1879 में यह ठिकाना दिया गया था। 
कक्कू (मनोहरदासोत बीदावत)- सांडवा के ठाकुर भोमसिंह के पुत्र जवानीसिंह को 1808 में यह ठिकाना दिया गया था।
पातलीसर (मनोहरदासोत बीदावत)- सांडवा के ठाकुर दानसिंह के प्रपोत्र रत्नसिंह को 1848 में यह ठिकाना दिया गया था।
सारोठिया (पृथ्वीराजोत बीदावत)- महाराजा सरदारसिंह ने हरासर के ठाकुर देवीसिंह के छोटे पुत्र हरीसिंह के वंशजों को यह ठिकाना दिया गया था।
हामूसर (खंगारोत बीदावत)- लोहा के ठाकुर बख्तसिंह के वंशज शिवनाथ सिंह को 1902 में यह ठिकाना दिया गया था।
जोगलिया (तेजसिंहोत बीदावत)- चाड़वास के ठाकुर बहादुरसिंह के पुत्र गूदड़सिंह को 1836 में यह ठिकाना दिया गया था।
बड़ाबर (तेजसिंहोत बीदावत)- मलसीसर के ठाकुर बख्तसिंह के पोत्र अगरसिंह को 1829 में यह ठिकाना दिया गया था।
मालासर (तेजसिंहोत बीदावत)- महाराजा गंगासिंहजी द्वारा अपने ADC गोपसिंह को 1902 में यह ठिकाना दिया गया था।
नोसरिया (मानसिंहोत बीदावत)- चाड़वास के ठाकुर संग्रामसिंह के पुत्र पन्नेसिंह को 1861 में यह ठिकाना दिया गया था।
गौरीसर (मानसिंहोत बीदावत)- महाराजा सरदारसिंह द्वारा उपरोक्त पन्नेसिंह के वंशजों को यह ठिकाना दिया गया था।
दूधवा मीठा (बणीरोत कांधल)- ठाकुर बलभद्रसिंह चूरू के वंशज भोजराज को 1733 में यह ठिकाना दिया गया था।
पिरथिसर (बणीरोत कांधल)- झारिया के ठाकुर धीरतसिंह के वंशज बींजराजसिंह को 1877 में यह ठिकाना दिया गया था।
पिथरासर (सांईदासोत कांधल)- महाराजा गंगासिंहजी द्वारा अपने खास ओहदेदार ठाकुर किशोरसिंह को 1910 मे यह ठिकाना दिया गया था।
मेहलिया (रावतोत कांधल)- रावत नाहरसिंह रावतसर के पुत्र शिवदानसिंह को 1864 में यह ठिकाना दिया गया था।
कल्लासर (रावतोत कांधल)- महाराजा गजसिंह द्वारा रावत कांधल के प्रपोत्र जसवंतसिंह के वंशज भोपालसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।
धांधूसर (रावतोत कांधल)- रावत लखधीरसिंह रावतसर के पुत्र जोरावरसिंह को यह ठिकाना दिया गया था। 
रायसर (करमसोत जोधा)- करमसिंह के सातवें वंशज सामंतसिंह को 1835 में यह ठिकाना दिया गया था।
सुरनाणा (करमसोत जोधा)- महाराजा गंगासिंहजी द्वारा अपने खास ओहदेदार भूरसिंह को 1912 में यह ठिकाना दिया गया था।
देसलसर (करमसोत जोधा)- महाराजा गंगासिंहजी द्वारा अपने खास ओहदेदार मोतीसिंह को 1921 में यह ठिकाना दिया गया था।
भादला (रूपावत राठौड़)- राव बीकाजी के चाचा रूपाजी के पुत्र भोजराज को राव जेतसीजी द्वारा सन 1534 में यह ठिकाना दिया गया था।
सिंजगुरु (रूपावत राठौड़)- राव बीकाजी के चाचा रूपाजी के वंशज लक्ष्मणसिंह को 1827 में यह ठिकाना दिया गया था।
परावा (रत्नोत राठौड़)- जोधपुर के राव सूजा के वंशज रतनसिंह के वंशज सुखसिंह को 1784 में यह ठिकाना दिया गया था।
खारी (मेड़तिया राठौड़)- मेड़ता के राव दूदाजी के पौत्र जयमल के वंशज चांदसिंह को 1877 में यह ठिकाना दिया गया था।
रोजड़ी (केलणोत भाटी)- पूगल के राव अमरसिंह के वंशज गुमानसिंह को 1881 में यह ठिकाना दिया गया था।
केलां (केलणोत भाटी)- पूगल के राव शेखा के पुत्र हरा के वंशज केशरीसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।
खियेरां (केलणोत भाटी)- पूगल के राव शेखा के वंशजों को यह ठिकाना दिया गया था।
बीठनोक (खिंया धनराजोत भाटी)- पूगल के राव शेखा के पौत्र धनराज के वंशजों को यह ठिकाना दिया गया था।
खिंदासर (खिंया धनराजोत भाटी)- पूगल के राव शेखा के पौत्र धनराज के वंशज ठाकुर बलवंतसिंह को महाराजा गंगासिंहजी द्वारा 1910 में यह ठिकाना दिया गया था।
जांगलू (खिंया धनराजोत भाटी)- पूगल के राव शेखा के पौत्र धनराज के वंशज ठाकुर हुकमसिंह को महाराजा सरदारसिंहजी द्वारा 1871 में यह ठिकाना दिया गया था।
खारबारा (किशनावत भाटी)- पूगल के राव शेखा के पौत्र किशनदास को सन 1506 में यह ठिकाना दिया गया था।
राणेर (किशनावत भाटी)- पूगल के राव शेखा के पौत्र किशनदास के पुत्र रामसिंह को राव जेतसीजी ने सन 1531 में यह ठिकाना दिया गया था।
हाडलां बडी पांती (रावलोत भाटी- देरावरिया)- देरावल के रावल रघुनाथसिंह के पुत्र गाड़ियाला के रावल जालिमसिंह के पुत्र बाघसिंह को 1814 में यह ठिकाना दिया गया था।
हाडलां छोटी पांती (रावलोत भाटी- देरावरिया)- देरावल के रावल रघुनाथसिंह के पुत्र गाड़ियाला के रावल जालिमसिंह के पुत्र सुरजमालसिंह को 1814 में यह ठिकाना दिया गया था।
टोकलां (रावलोत भाटी- देरावरिया)- देरावल के रावल रघुनाथसिंह के पुत्र गाड़ियाला के रावल जालिमसिंह के पुत्र भोमसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।
छनेरी (रावलोत भाटी- देरावरिया)- उपरोक्त भोमसिंह के पुत्र भभूतसिंह को 1875 में यह ठिकाना दिया गया था।
सिंदू (रावलोत भाटी)- महाराजा सूरतसिंहजी द्वारा ठाकुर हरीसिंह को 1797 में यह ठिकाना दिया गया था।
परेवड़ा (रावलोत भाटी)- महाराजा सूरतसिंहजी द्वारा ठाकुर जसवंतसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।
नांदड़ा (रावलोत भाटी)- ठाकुर लखेसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।
झझू (रावलोत भाटी)- महाराजा गंगासिंहजी द्वारा ठाकुर प्रभुसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।
भीमसरिया (रावलोत भाटी)- महाराजा डूंगरसिंहजी द्वारा 1882 में यह ठिकाना दिया गया था।
राजासर (पंवार)- जेतसीसर के ठाकुर जेतसिंह के पौत्र कान्हसिंह को 1836 में यह ठिकाना दिया गया था।
सोनपालसर (पंवार)- जेतसीसर के ठाकुर जेतसिंह के पौत्र शिवदानसिंह को 1837 में यह ठिकाना दिया गया था।
नाहरसरा (पंवार)- जेतसीसर के ठाकुर जेतसिंह के वंशज सरदारसिंह को 1794 में यह ठिकाना दिया गया था।
लूणासर (पंवार)- उपरोक्त सरदारसिंह नाहरसरा के वंशज शिवसिंह को 1878 में यह ठिकाना दिया गया था।
रामपुरा (पंवार)- महाराजा गंगासिंहजी द्वारा अपने ADC आसूसिंह को 1929 में यह ठिकाना दिया गया था। 
भालेरी (कच्छवाहा राजावत- कुम्भावत)- महाराजा गजसिंह ने शिवजीसिंह के पुत्र मदनसिंह को 1751 में यह ठिकाना दिया गया था।
नैयांसर (कच्छवाहा राजावत- कुम्भावत)- भालेरी के ठाकुर गुलाबसिंह के पुत्र हुकमसिंह को यह ठिकाना दिया गया था।
गजरूपदेसर (कच्छवाहा राजावत)- महाराजा सूरतसिंह द्वारा ठाकुर सुरजनसिंह को 1809 में यह ठिकाना दिया गया था।
दुलरासर (शेखावत रावजीका)- महाराजा डूंगरसिंह जी द्वारा कच्छवाहा नाथूसिंह को 1876 में यह ठिकाना दिया गया था।
आसलसर (शेखावत गिरधरजीका)- महाराजा सूरतसिंह जी द्वारा 1794 में यह ठिकाना दिया गया था।
पुंदलसर (शेखावत गिरधरजीका)- महाराजा गजसिंह जी द्वारा कच्छवाहा सामंतसिंह को 1778 में यह ठिकाना दिया गया था।
इंद्रपुरा (शेखावत गिरधरजीका)- महाराजा रतनसिंह द्वारा यह ठिकाना दिया गया था।
दाऊदसर (तंवर)- महाराजा गंगासिंहजी द्वारा अपने ADC पृथ्वीसिंह को 1901 में यह ठिकाना दिया गया था।
ऊँचाएडा (तंवर)- महाराजा सरदारसिंह द्वारा देवीसिंह को 1861 में यह ठिकाना दिया गया था।
गजसुखदेसर (सिसोदिया राणावत)- महाराजा सूरतसिंह द्वारा मेवाड़ के बनेड़ा ठिकाने के वंशज आनंदसिंह को 1810 में यह ठिकाना दिया गया था।
पाण्डुसर (सिसोदिया राणावत)- महाराजा सरदारसिंह द्वारा उपरोक्त गजसुखदेसर के वंशज को 1863 में यह ठिकाना दिया गया था।
समंदसर (पड़िहार)- महाराजा गंगासिंहजी द्वारा अपने खास ओहदेदार ठाकुर बख्तावरसिंह को 1902 मे यह ठिकाना दिया गया था। ये बीकाजी के मामा ‘बेला पड़िहार’ वंशज हैं।
धीरासर (हाड़ा चौहान)- महाराजा द्वारा ठाकुर नाथूसिंह चौहान को यह ठिकाना दिया गया था। 
 

राजवी
बीकानेर महाराजा के निकटवर्ती भाईबंद राजवी कहलाते थे व अन्य ठिकानेदारों को भी ताजीम का सम्मान प्राप्त होता था। रियासतकाल में पांव में सोने का कड़ा या अन्य गहना पहनने का अधिकार सिर्फ ताजीमी सरदारों को ही होता था, जबकि सभी राजवीयों को यह सम्मान प्राप्त था। बीकानेर के 14वें शासक महाराज गजसिंह व उनके तीनों भाईयों अमरसिंह, गूदड़सिंह, व तारासिंह के वंशज राजवी कहलाते हैं। हालांकि इनमें भी अलग-2 श्रेणियां हैं।

ड्योढी वाले राजवी

1. अनूपगढ़ (पूर्व में छतरगढ़)- बीकानेर के 14वें महाराजा गजसिंह के पुत्र छत्रसिंह के पुत्र दलेलसिंह को 1800 में छतरगढ़ ठिकाना दिया गया व 1914 में उनके वंशज को अनूपगढ़ दिया गया। महाराजा गंगासिंह जी के पिता लालसिंह छतरगढ़ के मालिक थे। बाद में गंगासिंह जी के पुत्र बिजेसिंह जी अनूपगढ़ के मालिक हुए। इनकी उपाधि महाराजा ……… जी बहादुर ऑफ अनूपगढ़ थी।

2. खारड़ा– उपरोक्त दलेलसिंह के पुत्र मदनसिंह के पुत्र खेतसिंह को 1848 में यह ठिकाना दिया गया। इनकी उपाधि महाराजा ……… जी बहादुर थी।

3. रिड़ी– उपरोक्त दलेलसिंह के पुत्र खंगसिंह के पोत्र जगमालसिंह को यह ठिकाना दिया गया। इनकी उपाधि महाराजा …….. जी साहिब थी।

हवेली वाले राजवी ..
बणीसर
नाभासर
आलसर
साईंसर
सलुंडिया
कुरजड़ी
बिलनियासर
धरणोक
ये सभी महाराजा गजसिंह के वंशज थे। इनकी उपाधि ‘राजवी श्री ………. हवेली वाला’ थी।

अन्य राजवी

इनके अलावा महाराज गजसिंह के तीनों भाईयों अमरसिंह, गूदड़सिंह व तारासिंह के वंशज के क्रमशः  फोगां, मेहरी व चंगोई ताजीमी ठिकाने थे। इनकी उपाधि भी राजवी थी।

सोमवार, 22 नवंबर 2021

ऐडो़ हो मजबूत

 महेंद्र सिंह राठौड़ जाखली मधु हाल जयपुर कृत

(मायड़ भाषा राजस्थानी में)

(1)
कट  बढ़  कर  ही  झूजतो,  ऐडो़  हो  मजबूत
पाछे   कोनी   देख   तो,  रण   खेतां   रजपूत

(2)
जद  कद  आई  आफताँ,  बणियौ  नाही   बूत
खड़काँ   सूं   ऐ  बाढ़ताँ,  रण   खेतां   रजपूत

(3)
बेरी    सेना    राँभती,   बाँके    पड़ता     जूत 
क्षत्रियता   ऐ   राखता,  रण    खेतां    रजपूत

(4)
आन    बान   ने   राखियाँ,  रज पूताँ रा  पूत
दोरी   राखी   आबरू,    रण    खेतां   रजपूत

(5)
शमशीर  जबर   चालती,  निकाल   देता  भूत
साफ   करा   हा  सूंपड़ो,  रण   खेतां  रजपूत

(6)
सिर कट कर गिर जावतो,कमधज लडे़  सपूत
लड़  लड़  कर  ही जीतता, रण  खेतां  रजपूत

(7)
राज   पाठ   ने  राखणो,  ही  खांडा  री   धार
क्षत्रिय  तो  मजबूत  हो, जणा  पड़ी   ही  पार

(8)
मरूधरा   रा    राजवी,   उतारता    हा    भार
दुसमण   ऊबो   कांपतो,  बाढ़ह    देता   मार

(9)
एक   नजर   सूं   देखतो,   सेना   लेता    कूंत
खड़गा   जद  खड़गावता, रण  खेतां   रजपूत

(10)
जावो   योद्धा  साहिबा, अरि  ने  काटो   आज
आन  बान  ओ  शान की, राखो  जावो   लाज

(11)
मरूधरा  री   आबरू,  सिर   पर   लागे   ताज
ऊंची   राखो  साहिबा,  मां   धरती  की   लाज

(12)
पेली सब  ने  काट  ज्यों,कर  कर  जोरां  गाज
एक  एक  ने  बाढ़ ज्यों, मोटो  कर  ज्यों काज

(13)
तिलक  है  रंग  लाल सूं, म्हानै  थां   पर   नाज
केसरिया  पग  सोवणी, सिर  पर  सोणो   ताज

शनिवार, 25 सितंबर 2021

राई रा भाव राते बीत ग्या


राई रा भाव राते बीत ग्या

ये बात है सन 1305 ई.की...  आज आधी रात तक मुँह मांग्या दाम है सा...
घुड़सवार नगाड़े पीटते हुए #जालोर के बाजार की गलियों में घूम रहे थे, लोग अचंभित थे लेकिन राई के मुँह मांगे दाम मिल रहे थे, इसलिए किसी ने इस बात पर गौर करना उचित नही समझा कि आखिर एका एक राई के मुँह मांगे दाम मिल क्यों रहे हैं ।

शाम होते होते लगभग शहर के हर घर में पड़ी राई घुड़सवारों ने खरीद ली थी । 

अगली सुबह सूरज की पहली किरण के साथ ही दुर्ग से अग्नि-ज्वाला की लपटें उठती देख लोगों को अंदेशा हो गया था कि आज का दिन जालोर के इतिहास के पन्नों में जरूर सुनहरे अक्षरों में लिखा जाने वाला है या जालोर की प्रजा के लिए काला दिवस साबित होने वाला है ।

प्रातः दासी ने थाली में गेंहू पीसने से पहले साफ करने के लिए थाली में लिए ही थे कि अचानक थाली में पड़े गेँहू में हलचल हुई। फर्श पर पड़ी गेंहू से भरी थाली में कम्पन्न होने लगी, दासी को किसी भारी अनिष्ट की शंका हुई, दासी दौड़ती हुई राजा कान्हड़देव जी के पास गई और थाली में कम्पन्न वाली बात बताई । 

कान्हड़देव जी को अहसास हो गया कि हो न हो किसी भेदी ने दुर्ग की दीवार के कमजोर हिस्से की जानकारी दुश्मन को दे दी हैं, ओर दुश्मन किले में प्रवेश कर चुका है ।

क्योंकि दुर्ग का निर्माण करते समय दीवार का एक कोना शेष रह गया था, तभी संदेश मिल गया था कि अलाउद्दीन की सेना दिल्ली से जालोर पर कब्जा करने कुच कर चुकी है अतः आनन फानन में उस शेष बचे हिस्से को मिट्टी और गोबर से लीप कर बना दिया था, यह जानकारी मात्र गिने चुने विश्वासपात्र लोगों को ही थी । 

आभ फटे,धर उलटे, #कटे बगत रा कोर
शीश कटे धड़ तड़फड़े, #तब छुटे जालोर 

यह लड़ाई थी स्वाभिमान की, यह लड़ाई थी क्षत्रित्व की, अल्लाउद्दीन की बेटी फिरोजा विरमदेव जी से विवाह करना चाहती थी, लेकिन विरमदेव एक तुर्कणी से विवाह करना नही चाहते थे, इसी कारण अल्लाउद्दीन ने जालौर पर सेना भेजी थी, वैसे इसके पहले भी अल्लाउद्दीन जालौर पर दो बार आक्रमण कर चुका था, लेकिन दोनों ही बार कान्हड़देव जी से उसे पराजित होना पड़ा था ।

मामो लाजे भाटिया #कुऴ लाजे चव्हाण
 हुं जद परणु तुरकणी #उल्टो उगे भाण..!

अलाउद्दीन की सेना कई महीनों से जालोर दुर्ग को घेर कर बैठी रही, लेकिन दुर्ग की दीवार को भेदना असंभव था, सेना इसी आस में बैठी थी कि आखिर जब किले में राशन पानी खत्म हो जाएगा तब राजपूत शाका जरूर करेंगे, लेकिन न राशन पानी खत्म हुआ और ना ही सेना किले को भेद सकी आखिर में थक हारकर सेना दिल्ली के लिए कुच करने लगी, तभी विका दहिया नामक व्यक्ति ने जा कर सेनापति को उस दीवार के कच्चे भाग की जानकारी दे दी, ( क्योकि विका दहिया और कान्हड़देव जी मे किसी बात को लेकर मतभेद हो गया था )  विका दहिया को यह तो पता था कि किले की दीवार का एक हिस्सा कच्चा है लेकिन कौनसा यह पता नही था  

उधर वीका दहिया की पत्नी हीरादे को यह बात मालूम पड़ी की उसके पति ने विश्वास घात किया है, विका दहिया के घर जाने पर उनकी पत्नी हीरादे ने कटार से विका दहिया का सिर धड़ से अलग कर दिया था ।

तुर्की सेनापति ने कयास लगाया, क्यों न पूरी दीवार पर पानी छिड़क कर राई डाल दी जाये ताकि सुबह तक जो भाग कच्ची मिट्टी और गोबर से बना होगा वहां #राई अंकुरित हो जाएगी और हमे पता चल जाएगा कि कौनसा हिस्सा कमजोर है । 

उधर कान्हड़देव जी ने दरबार लगाया, क्षत्राणियों को भी संदेश पहुंचाया गया कि आज मर्यादा की बलिवेदी प्राणों की आहुति मांग रही है । 

चेत मानखा दिन आया  #रणभेरी आज बजावाला आया
उठो आज पसवाडो फेरो, #सुता सिंह जगावाला आया..!

रानीमहल में जौहर की तैयारियां शुरू हुई, इधर क्षत्राणियां सोलह श्रृंगार कर सज-धज कर अपनी मर्यादा की बलिवेदी पर अग्निकुंड में स्नान हेतु तैयार थी, उधर रणबांकुरे केसरिया पहन शाके के लिए तैयार खड़े थे । 

दिन चढ़ने तक पूरा दुर्ग जय भवानी के नारों से गूंज रहा था, इधर क्षत्राणियां एक एक कर अग्निस्नान हेतु जौहर कुंड में कूद रही थी उधर रणबांकुरे तुर्को पर टूट पड़े और गाजर मूली की तरह काटने लगे, नरमुंड इस तरह कट कर गिर रहे थे जैसे सब्जियां काटी जा रही हो । 

#जोहर री जागी आग अठै, #रळ मिलग्या राग विराग अठै
#तलवार उगी रण खेतां में, इतिहास मंडयोड़ा रेता में..!

मुट्ठीभर रणबांकुरे हजारों की सेना  के आगे कब तक टिक पाते, रणभूमि में लड़ते लड़ते कान्हड़देव जी और उनके बहुत से साथी वीरगति को प्राप्त हो हुए ।

उसी समय विरमदेव जी का राजतिलक किया गया, विरमदेव जी चामुण्डा माता की आराधना करने गए, ओर बोले, हे माँ रणभूमि में मेरा साथ देना, माँ चामुण्डा ने वचन दिया, जा लड़ में तेरे साथ हूँ, पर एक बात का ध्यान रखना, पीछे मुड़कर मत देखना, माता का आशीर्वाद लेकर कूद पड़े रन भूमि में, विरमदेव ऐसे लड़ रहे थे, जैसे साक्षात चामुण्डा रणभूमि में तांडव कर रही हो, दुश्मनों को गाजर मूली की तरह काटने लगे, काटते काटने सेना का अंत ही नही आ रहा था, तभी विरमदेव ने सोचा कि अभी और कितनी सेना बची है, ऐसा सोचकर पीछे देखा, तभी माँ चामुण्डा बोली तेरा मेरा वचन पूरा हुआ, उसके बाद भी वीरमदेव जी लड़ते रहे, तभी अचानक दुश्मन ने पीठ पीछे से वार कर विरमदेव का सिर धड़ से अलग कर दिया । 

युद्ध मे साथ आई मुगल दासी ने विरमदेव का सिर थाली में लिया और ससम्मान दिल्ली के लिए रवाना हो गई ताकि अलाउद्दीन की पुत्री फिरोजा को दिए वचन को पूरा कर सके, सोनगरा का सिर दासी की गोद मे और धड़ रणभूमि में कोहराम मचा रहा था । 

दिन ढलते ढलते सभी क्षत्रिय रणबांकुरे मातृभूमि के काम आ चुके थे, लेकिन विरमदेव का धड़ अभी भी कोहराम मचा रहा था ।

 तभी किसी ने कहा धड़ को अशुद्ध करो, सेनापति ने सोनगरा के धड़ पर अशुद्ध जल के छींटे डाले और धड़ शांत हो गया।

तुर्को ने दुर्ग तो विजय कर लिया था लेकिन चारों तरफ लाशों और नरमुण्डों के ढेर पड़े थे, दुर्ग की नालियों में पानी की जगह खून बह रहा था, वीरान दुर्ग सोनगरा के बलिदान पर आज भी गर्व से सीना तान खड़ा हैं । 

शाम के सन्नाटे में एक लालची सेठ अपनी #राई बेचने निकला "राई ले ल्यो रे राई"

पास से गुजरते सिपाही को पूछा "भाई आज राई नही खरीदोगे"

सिपाही ने जवाब दिया
                           "राई रा भाव राते ई बीत ग्या भाया"

उधर विरमदेव का सिर लिए दासी दिल्ली स्थित फिरोजा के महल पहुँची और शहजादी के समक्ष थाली में सजा सोनगरा का सिर रखा, फिरोजा ने जैसे ही थाल में सजे सोनगरा के सिर से औछार (थाल ढकने का वस्त्र) हटाया, सोनगरा का स्वाभिमानी सिर उल्टा घूम गया, फिरोजा ने अंतिम निवेदन करते हुए कहा
#तज तुरकाणी चाल #हिन्दुआणि हुई हमें,
#भो-भो रा भरतार, #शीश न धुण सोनगरा !

#जग जाणी रे शूरमा  #मुछा तणी आवत,
#रमणी रमता रम रमी #झुकिया नही चौहान

वीर विरमदेव जी सोनगरा का धड़ जहाँ गिरा था, वहाँ पर उनका मन्दिर बना हुआ है, सोनगरा मोमाजी के नाम से पूजे जाते है, तथा जालौर के हर गाँव मे सोनगरा मोमाजी के मन्दिर बने हुए है, हर घर मे उनकी पूजा की जाती है, दीन दुखियों को ठीक करते है, वाजियो को पुत्र देते है, तथा उनसे मांगी हुई हर मनोकामना पूर्ण करते है ।

जय सोनगरा वीर
जालौर दुर्ग का इतिहास 

शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

पन्नाधाय

माता पन्नाधाय

महाबलिदानी माता पन्नाधाय का जन्म चित्तौड़गढ़ के निकट माताजी की पांडोली नामक गांव में हुआ। इनके पिता का नाम हरचंद सांखला था।* पन्नाधाय का विवाह आमेट के निकट स्थित कमेरी गांव में रहने वाले
 सूरजमल चौहान से हुआ।

1527 ई. में खानवा के युद्ध के बाद 1528 ई. में महाराणा सांगा का स्वर्गवास हो गया। 1531 ई. तक महाराणा सांगा के पुत्र महाराणा रतनसिंह मेवाड़ के शासक रहे। फिर महाराणा विक्रमादित्य मेवाड़ की गद्दी पर बैठे, जो कि एक कमजोर शासक थे।

1534 ई. में जब गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण किया, तब राजमाता कर्णावती ने शासन की बागडोर अपने हाथों में ली। पन्नाधाय इन्हीं राजमाता कर्णावती की सेवा में नियुक्त थीं।

राजमाता कर्णावती ने पन्नाधाय को बुलाया और कहा कि “मेरे दोनों पुत्र विक्रमादित्य और उदयसिंह को अब मैं तुम्हें सौंपती हूँ, इनको इनके ननिहाल बूंदी लेकर जाना और जब चित्तौड़ से शत्रु खदेड़ दिए जावे, तभी इनको वापिस लाना”

राजमाता कर्णावती ने हज़ारों राजपूतानियों के साथ जौहर किया। बहादुरशाह ने चित्तौड़गढ़ जीत लिया। फिर मेवाड़ के सामन्तों के जोर-शोर से फिर से चित्तौड़गढ़ पर मेवाड़ का अधिकार हो गया।

महाराणा सांगा के बड़े भाई उड़न पृथ्वीराज की दासी पूतलदे से उनका एक बेटा हुआ, जिसका नाम बनवीर था। महाराणा सांगा ने बनवीर को बदचलनी के सबब से मेवाड़ से निकाल दिया था। मौका देखकर ये फिर मेवाड़ आया।

1535 ई. में बनवीर ने चित्तौड़ के कई खास सर्दारों को अपनी तरफ मिलाया और तलवार से महाराणा विक्रमादित्य की हत्या कर दी। फिर बनवीर ने कुंवर उदयसिंह को मारने के लिए उनके कक्ष में प्रवेश किया।

पन्नाधाय ने कुंवर उदयसिंह के वस्त्र अपने पुत्र चन्दन को पहनाकर उसको कुंवर उदयसिंह के स्थान पर लिटा दिया। राजगद्दी के नशे में चूर बनवीर कुँवर उदयसिंह को ढूंढते हुए महलों में आया और पन्नाधाय से पूछा कि “उदयसिंह कहाँ है पन्ना, आज मेवाड़ की राजगद्दी और मेरे बीच आने वाले उस आख़िरी कांटे को भी निकाल फेंकने आया हूँ”

पन्नाधाय ने जान बूझकर बनवीर को रोकने का प्रयास किया, ताकि बनवीर को शक ना हो। बनवीर ने पन्नाधाय को हटाया और चन्दन को ही कुंवर उदयसिंह समझकर पन्नाधाय की आँखों के सामने तलवार से चन्दन के दो टुकड़े कर दिये।

अपने पुत्र के दो टुकड़े होते देख भी पन्नाधाय उफ़ तक न कर सकीं, उनका हृदय जैसे थम सा गया। बनवीर खुशी के मारे राजगद्दी की तरफ गया। पन्नाधाय कीरत बारी (वाल्मीकि) के सेवक के ज़रिए बड़े टोकरे में पत्तलों से ढंककर कुंवर उदयसिंह को छुपाकर निकलीं।

बहुत से लोग अज्ञानवश इस समय कुँवर उदयसिंह को एक दुधमुंहा बालक बताते हैं, जबकि वास्तविकता में कुँवर की आयु इस समय 13-14 वर्ष थी।

पन्नाधाय नदी किनारे पहुंची और यहीं अपने पुत्र चंदन का अंतिम संस्कार किया। एक माँ को इस समय आत्मग्लानि में डूबकर पश्चाताप करना चाहिए था, परन्तु प्रश्न मातृभूमि का था। पन्नाधाय यहां नहीं रुकीं, क्योंकि अभी कुँवर उदयसिंह के प्राणों का संकट टला नहीं था।

पुत्र की चिता की राख अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि पन्नाधाय अपने पति सूरजमल के साथ कुंवर उदयसिंह को लेकर देवलिया पहुंची। देवलिया के रावत रायसिंह सिसोदिया ने इनकी बड़ी खातिरदारी की, पर जब पन्नाधाय ने कुंवर उदयसिंह को देवलिया में शरण देने की बात कही, तो रावत रायसिंह ने बनवीर के खौफ से ये काम न किया।

रावत रायसिंह ने पन्नाधाय को एक घोड़ा देकर विदा किया। पन्नाधाय कुंवर उदयसिंह को लेकर डूंगरपुर पहुंची। डूंगरपुर के रावल आसकरण ने भी बनवीर के डर से उन्हें शरण नहीं दी। रावल आसकरण ने उन्हें खर्च व सवारी देकर विदा किया।

आखिरकार पन्नाधाय कुम्भलगढ़ पहुंची, जहाँ उन्हें शरण मिली। कुम्भलगढ़ के किलेदार आशा देवपुरा ने अपनी माँ से इजाजत लेने के बाद कुंवर उदयसिंह को अपने यहाँ रखना स्वीकार किया।

भला एक माँ द्वारा दिया गया ऐसा अद्वितीय बलिदान व्यर्थ कैसे जाता। धीरे-धीरे यह ख़बर फैलती गई कि महाराणा उदयसिंह जीवित हैं, सामन्तों ने महाराणा उदयसिंह का राज्याभिषेक कर दिया। 1540 ई. में महाराणा उदयसिंह ने महाराणा विक्रमादित्य व चन्दन के हत्यारे बनवीर को चित्तौड़गढ़ के युद्ध में परास्त करके उसका अस्तित्व ही नष्ट कर दिया।

महाराणा उदयसिंह ने पन्नाधाय को चित्तौड़गढ़ में बुलवाया, लेकिन पन्नाधाय वहां फिर कभी न आई। महाराणा उदयसिंह जानते थे कि पन्नाधाय के बलिदान के सामने उनके लिए कुछ भी कर पाना सूरज को रोशनी दिखाने के बराबर है, लेकिन फिर भी वे पन्नाधाय के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करना चाहते थे।

इसलिए 1564 ई. में चांदरास गाँव में महाराणा उदयसिंह ने साह आसकर्ण देवपुरा (आशा देवपुरा) को धाय माता पन्नाधाय की सुरक्षा के लिए 451 बीघा भूमि का ताम्रपत्र प्रदान किया। मेवाड़ में इतने बड़े भूभाग के अनुदान का यही एक मात्र लेख है। इस ताम्रपत्र पर “संवत् 1621 आसोज सुदी नवमी” अंकित है।