गुरुवार, 27 अगस्त 2020

तलवार का नाप

तलवार का नाप 
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आप के घर में क्या तलवार है, क्या आपको पता है कि उस तलवार का नाप क्या है, और वह आपके जीवन और घर को कितना प्रभावित कर रही है। जी हां, यह जानकारी आप को निचे दोहे और छंद के माध्यम से दी जा रही है आप कि सुविधा के लिए में इसका भावार्थ में
पहले कर देता हूँ। अगर आप के घर में तलवार है, और अगर नहीं है और खरीदने का मन बना लिया है तो आप
अपने हाथ से तलवार की मूंठ से लेकर निचे अणी तक
अपनी अंगुलियों से नाप कर लिजिए। अब जो नाप आता है उसमे तेरह की संख्या और मिला दिजिये अब उक्त संख्या में सात का भाग दिजिये शेष जो बचेगा उसी के अनुसार तलवार का नाम और उसका प्रभाव निचे छंद के रूप में दिया गया है आप सभी विद्वजनो के लिए....

निज अंगुल से नापिये, तेरह और मिलाय।
भाग सात को दिजिये, खड्ग नाप लखाय।।

पेहली निज मालिनी नेत कहै, लख दूण प्रमाण प्रभाव लहै।
द्वितिय जुतकी कही नेत तलै, कर राखत ताही को त्रुंग मीलै।
त्रितिय लख चण्डी नेत तकी, कभी होत न छांह पिशाचन की।
चवथी निज शंखनी कोप करै, धन भोमि कुटुंब ने आद हरै।
पंचमी पद्मिनी नाम गहै निज हाथ रहे तहां प्राण लहै।
अति नून कहावत तेग छठी, कछु काज सरै न घटे न बधी
सत अंगुल भेद कहै वरणी, जय होय सदा अरि को हरणी
यह छंद विधान कहै जग से, वसुधा कुलरीत रहै खग सै। 

।नाप लेने के बाद तेरह मिला कर सात का भाग देवै। अब शेष जो बचे उसी के अनुसार फलादेश है मान लिजिए एक बचा तो इस को पहली तलवार और नाम है इसका मालिनी यह घर में रहने से गृह स्वामी का प्रभाव दुगुना हो जाता है। इसी प्रकार दूसरी तलवार का नाम जुतकी है जिस के पास रहती है उसे घौड़ा मिलता है आज के हीशाब से सवारी मोटरसाइकिल हो सकती है। तीसरी चंडी और काम भूत पिशाच से रक्षा।और चौथी नाम शंखनी काम, धन भुमि कुटुंब का नाश करती है पांचवीं नाम पद्मिनी और काम जिस के हाथ में रहती है उसी के प्राणों का हरण करती है।
छठी नाम अति नून इस से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता है न घटता है न बढता है। जिस में बराबर भाग चला जाए शेष नहीं बचे उसका नाम वरणी है काम युद्ध मैं जीत और शत्रु का विनाश निश्चित है।

गुरुवार, 9 जुलाई 2020

बल्लू चाम्पावत


                बल्लू चाम्पावत 
बल्लू चाम्पावत केवल एक नाम नहीं है वह प्रतीक है, प्रचण्ड साहस का, नैतिक सामर्थ्य का, उज्ज्वल चरित्र का, तेजस्विता का, निष्ठा का, स्वामिभक्ति का, वचन-बद्धता और मानवीय गरिमा का | बल्लू चांपावत का जन्म भारत में उस समय हुआ जब मुगल सत्ता जम चुकी थी |मेवाड़ और दूसरे छिटपुट प्रतिरोधों को छोड़ दिया जाय तो सारे राजपूत मुगल-सत्ता से जुड़ चुके थे |
बल्लूजी का जन्म मारवाड़ के हरसोलाव में राव गोपालदास के यहाँ हुआ | माता महाकंवर भटियाणी राव गोविन्ददास मानसिंहोत बीकमपुर की पुत्री थी | (बीकमपुर केल्हणोतों का ठिकाना था|) वे राजा गजसिंह के साथ दक्षिण में गए थे तब उनको  हरसोलाव मिला था | बाद में वे राव अमरसिंह के साथ भी रहे | राव अमरसिंह से उनका एक संवाद हुआ और उन्होंने नागौर छोड़ दिया |
लोक में प्रचलित है कि राव अमरसिंह ने उन्हें पशु चराने का एक दिन का काम सौंपा | बल्लूजी ने कहा कि यह काम मेरा नहीं गड़रियों का है | तब राव अमरसिंह ने नाराजगी भरे आवेशित से स्वर में कहा कि ‘तब तो आप बादशाही घड़ (सेना) ही मोड़ेंगे |’ स्वाभिमानी बल्लूजी फिर नागौर एक क्षण भी नहीं रुके |
इसी तरह बीकानेर में उनके सामने ‘मतीरौ’ (तरबूज) जैसे शब्द का उच्चारण से ही उन्होंने बीकानेर छोड़ दिया था | राजस्थानी में ‘मतीरौ’ शब्द का अर्थ ‘ठहरना नहीं है’ होता है | ऐसे ध्वन्यार्थ समझने वाले तेजस्विता के प्रतीक बल्लूजी ने जयपुर, बूंदी और मेवाड़ में भी सेवाएं दी थी| शाहजहाँ ने उन्हें 500 का मनसब और जागीर दी थी| बादशाही के समय उनकी जागीर में 127 गाँव थे | राणा जगत सिंह ने बल्लूजी को ‘नीलधवल’ घोड़ा भेंट किया था, आख्यानों के अनुसार इसी ‘नीलधवल’ पर सवार होकर वे राव अमरसिंह की देही लेकर आये थे | 
बल्लूजी के आख्यान और शौर्य से इतिहास भरा पड़ा है| सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कामू ने इतिहास पर टिप्पणी करते कहा है कि ‘कुछ लोग इतिहास जीते हैं|’ बल्लूजी ऐसे ही इतिहास जीने वाले लोगों में थे | वे राव चाम्पाजी के वीर पुत्र राव भैरवदास के वंशज थे| बल्लूजी इतिहास में इसलिए अमर हैं क्योंकि उन्होंने एक उलाहने को सत्य साबित करने के लिए अपने प्राण न्यौछावर किये थे | राव अमरसिंह राठौड़ की कथा सब जानते हैं | उनकी लाश को चील-कौवों को खिलाने के लिए अपमानजनक तरीके से आगरे के किले की दीवार पर डाल दी गई थी, तब की कहानी है यह बल्लूजी की |
राव अमरसिंह की मृत्यु के बाद बादशाह शाहजहाँ  ने राजपूतों को चेतावनी भिजवाई थी, जिसमें बल्लूजी भी शामिल थे | बादशाह का कहना था कि जिसने जुर्म कर लिया था, उसने सजा पा ली | अब आप लोग उस जुर्म में शामिल होकर अपने पतन की राह क्यों बना रहे हो ? 26 जुलाई 1644 की घटना है यह | आगरा में उस समय कोई बलवा न हो यही बादशाह की मंशा थी | इतिहासकारों ने इस घटना पर भिन्न भिन्न प्रकार से लिखा है किन्तु वास्तविकता के नजदीक तथ्य इस प्रकार है कि बल्लूजी ने यहाँ तरकीब से काम लिया था | उन्होंने सन्देशवाहक से कहा कि ‘हमें स्वामी के दर्शन करने की इजाजत दी जाय|’ बादशाह ने इसे मंजूर कर लिया| इसके पीछे दो कारण थे| बादशाह राजपूतों को शांत करना चाहता था ताकि व्यर्थ के खूनखराबे से बचा जाए | दूसरा यह कि शेर खुद पिंजड़े में आ रहा था, इसलिए अगर कोई अनहोनी भी घटती तो किले में उस पर काबू आसानी से पाया जा सकता था | 
     किले के कपाट खोल दिए गए और घुड़सवार बल्लूजी जब अंदर आये तो कपाट बंद कर दिए गए | बल्लूजी सावधान थे और उन्होंने अपने मस्तिष्क में योजना बना रखी थी | बादशाह खुद अंतिम दरवाजे पर सामने आया | बल्लूजी ने उचित अवसर जानकर कहा –
   ‘हुजूर जो होना था हो चुका, ऊपरवाले को यही मंजूर था | मुझे कोई गलतफहमी नहीं है | मैं मेरे वतन लौटना चाहता हूँ पर लौटने से पहले अपने पहले वाले स्वामी को अंतिम प्रणाम करना चाहता हूँ |’ बल्लूजी का कथन जायज था, बादशाह को वह उचित लगा और उन्होंने सैनिकों को राव अमरसिंह की लाश बल्लूजी के सामने लाने का हुकम दिया, ताकि वे उन्हें अंतिम प्रणाम कर सकें | चारों तरफ सैनिकों का घेरा था | बालूजी जानते थे कि किले के कपाट बंद हो चुके हैं | शेर वाकई पिजरे में आ चुका था | उनके सामने अमरसिंह की देह पड़ी थी | वे घोड़े से उतरे | प्रणाम की मुद्रा में अमरसिंह की देह तक पहुंचे और पलक झपकते ही देह को कंधे पर लेकर घोड़े पर चढ़े और तीर की तरह घोड़ा दौड़ाया| घोड़ा हवा में उछला, किले की दीवार की तरफ लपका और दीवार पर चढ़ गया | बल्लूजी ने अपने सम्पूर्ण सामर्थ्य से घोड़े को किले की दीवार से नीचे कुदवा दिया | ‘नीलधवल’ बल्लूजी और राव अमरसिंह की देह के साथ धरती पर था| इस चमत्कारिक कृत्य पर बादशाह के सैनिक हक्के-बक्के रह गए और चिल्लाए – ‘ यह आदमी है कि फ़रिश्ता ?’ 
किले की खाई के बाहर भावसिंह कुम्पावत आठ सौ राजपूतों के साथ खड़े थे | बल्लूजी दूसरे घोड़े पर सवार हुए और मुगल सेना से भिड़ गए | एक जबरदस्त युद्ध बोखारा दरवाजे के बाहर हुआ|  राव अमरसिंह की देह को यमुना किनारे चित्ता-स्थल पहुँचाया, उनका वहाँ रानियाँ इंतजार कर रही थी | रानी हाडीजी और गौड़जी ने अंतिम समय में बल्लूजी को आशीष दी | 
  लोक आख्यानों के अनुसार बल्लूजी जूंझार हुए | शिर कटने के बाद भी लड़ने वाले को राजस्थान में जून्झार कहते हैं | कवियों ने बल्लूजी के शब्दों  में कहा –
      बलू कहे गोपाळ रो, सतियाँ हाथ संदेश |
      पतसाही घड़ मोड़ नै, आवां छां अमरेश || 
(गोपालदास का पुत्र बल्लू सतियों के हाथ सन्देश भेजता हुआ कहता है कि हे अमरसिंहजी ! मैं बादशाही घड़ मोड़कर कुछ समय पश्चात आपके पास आ रहा हूँ |)
राव अमरसिंह के उलाहने कि ‘आप क्या बादशाही घड़ (सेना) मोडेंगे ?’ को उनके मरने के बाद बल्लूजी ने पूरा किया, जबकि कहने वाला रहा ही नहीं था | यह राजस्थान के लोगों की वह चारित्रिक निष्ठा है जिस पर सम्पूर्ण मनुष्य जाति मुग्ध है | उनकी स्मृति में बनी छतरी ‘राठौड़ की छतरी’ के नाम से विख्यात रही जो वर्तमान में खंडहर बनी आगरा के किले के पास यमुना किनारे स्थित है | ‘नील धवल’ घोड़े की तेजस्विता से बादशाह शाहजहाँ इतना प्रभावित हुआ था कि उसने लाल पत्थर की घोड़े की मुखाकृति उस स्थान पर स्थापित की जहां घोड़ा छलांग लगाकर गिरा था | सन 1961 तक यह मूर्ति-शिल्प देखा गया था |
बोखारा गेट का नाम इस घटना के बाद अमरसिंह गेट पड़ गया | इस घटना के बाद यह दरवाजा शताब्दियों तक राजसी आदेश से बंद ही रहा | सन 1644 के बाद यह दरवाजा सन 1809 में केप्टन जिओ स्टील ने फिर से खोला और इस का जीर्णोद्धार करवाया | लोग कहते हैं कि दरवाजे के गिरने पर एक लम्बा भयानक काला सांप निकला था जिससे केप्टन स्टील भाग्य से बच गया |    आजकल अमरसिंह गेट से ही पर्यटक आगरा का किला देखने प्रवेश करते हैं |

शुक्रवार, 12 जून 2020

भाटी राजपूत गेट--पाकिस्तान

भाटी राजपूत गेट--पाकिस्तान 

लाहौर(पंजाब, पाकिस्तान) की उन हरी दीवारों के मध्य केसरिया (राजपूती आन बान शान) और भाटी राजवंश के स्वर्णिम इतिहास को बयां करता यह भाटी दरवाजा|
लाहौर शहर में स्थित यह राजपूत भाटी गेट, मुल्तान पर राज्य स्थापित करने की याद में भाटी शासक द्वारा बनवाया गया। 
यह गेट आज भी लाहौर में राजपूत भाटी गैट नाम से जाना  जाता है |
 भाटी गेट लाहौर के ऐतिहासिक तेरह फाटकों में से एक है।
राजपूत भाटी गेट पुराने शहर की पश्चिमी दीवार पर स्थित है। राजपूत भाटी गेट को ऐतिहासिक रूप से ओल्ड लाहौर में कला और साहित्य के केंद्र के रूप में जाना जाता है। गेट लाहौर के हकीमन बाजार के लिए शुरुआती बिंदु के रूप में कार्य करता है |भाटी गेट लाहौर जिले की तहसील रवि में केंद्रीय परिषद 29 के रूप में भी कार्य करता है।
 श्री कृष्ण की 90 वी पीढ़ी में जन्मे राजा भाटी लाहौर की राजगद्दी पर विराजे| भाटी का अधिकार गजनी और ह सार तक रहा फिर भटनेर (वर्तमान हनुमानगढ़) नगर बसाया और भटनेर को अपनी राजधानी बनाया| भाटी जी ने 14 युद्धों में विजय प्राप्त की | इसके पश्चात राजा_भाटी के पुत्र राजा भूपत लाहौर की राजगद्दी पर विराजे और भटनेर के किले का निर्माण करवाया| भटनेर के किले के बारे में तैमूर लंग ने अपनी आत्मकथा "तुजुक-ए-तैमूरी" में कहा है कि मैंने इतना मजबूत और इससे सुरक्षित किला पूरे हिंदुस्तान में कहीं नहीं देखा |
इसके समय जब खुरासानी सेना मुल्तान तक पहुंची तो भूपत ने उस पर धावा बोला 3 दिन के घमासान युद्ध में खुरासानी सेना हार गई | भूपत ने यवनों की ऐसी कमर थोड़ी थी कि डेढ़ सौ वर्ष तक भारत की भूमि पर कोई आक्रमण नहीं किया|

सोमवार, 8 जून 2020

Bhakri Fort

भकरि गढ़  मेड़तिया राठौडौ़ का ठिकाना जो औरंगज़ेब और जयपुर की सैना दोनों से अजेय रहा


मेडतिया रघुनाथ रे मुख पर बांकी मुछ भागे हाथी शाह रा करके ऊँची पुंछ
मेडतिया रघुनाथ रासो, लड़कर राखयो मान, जीवत जी गैंग पहुंचा, दियो बावन तोला हाड ,
हु खप जातो खग तले, कट जातो उण ठोड ! बोटी-बोटी बिखरती, रेतो रण राठोड !!
मरण नै मेडतिया अर राज करण नै जौधा "
"मरण नै दुदा अर जान(बारात) में उदा "
उपरोक्त कहावतों में मेडतिया राठोडों को आत्मोत्सर्ग में अग्रगण्य तथा युद्ध कौशल में प्रवीण मानते हुए मृत्यु को वरण करने के लिए आतुर कहा गया है मेडतिया राठोडों ने शौर्य और बलिदान के एक से एक कीर्तिमान स्थापित किए है ईसका जीता जागता उदाहरण भकरि गाँव कि छोटी सी पहाड़ी पर अपना गर्वीला मस्तक उठाकर खड़े इस छोटे से किले का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है| इस किले के राठौड़ों की मेड़तिया शाखा से है। यहाँ के वीर शासकों ने अपने से बड़ी बड़ी सेनाओं को चुनौतियाँ दी है, जिन्हें पढ़कर लगता है कि उन्हें मरने का कहीं कोई खौफ ही नहीं था, उनके लिए जीवन से ज्यादा अपना स्वाभिमान व जातीय आन थी जिसकी रक्षा के लिए वे बड़े से बड़ा खतरा उठाने के लिए मौत के मुंह में हाथ डालने से भी नहीं हिचकते थे| इस किले व यहाँ के वीर शासकों से ऐसी ही कुछ घटनाएँ आज हम आपके साथ साझा कर रहे है-

जोधपुर के महाराजा अभयसिंह जी ने अपने भाई बखतसिंह द्वारा भड़काए जाने पर बीकानेर पर दो बार हमले किये| दूसरे हमले के वक्त बीकानेर के महाराजा जोरावरसिंह जी जोधपुर की सेना का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं थे अत: उन्होंने जयपुर के राजा जयसिंह जी द्वितीय को मदद के लिए पत्र लिखा| जोधपुर महाराजा अभयसिंहजी महाराजा सवाई जयसिंह जी के दामाद थे अत: जयपुर के सामंत अपने दामाद के खिलाफ बीकानेर को सहायता देने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन सीकर के राव शिवसिंहजी की राय थी कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो जोधपुर की शक्ति बढ़ जाएगी जो राजस्थान के अन्य राज्यों के लिए खतरा हो सकती है अत: शक्ति संतुलन के लिए बीकानेर की सहायता करनी चाहिए|
राव शिवसिंह की राय को मानते हुए आखिर सवाई जयसिंहजी ने बीकानेर की सहायता का निर्णय लिया व अपने दामाद जोधपुर नरेश अभयसिंह को पत्र लिखकर बीकानेर से हटने का आग्रह किया| लेकिन अभयसिंह ने उनका आग्रह यह कहते हुए ठुकरा दिया कि- राठौड़ों के आपसी झगड़े में उन्हें टांग अड़ाने की जरुरत नहीं है|   इस जबाब से क्रुद्ध होकर सवाई जयसिंहजी ने 20 हजारी सेना जोधपुर पर आक्रमण के लिए भेज दी| इसकी खबर मिलते ही अभयसिंहजी को समझ आया कि अब सैनिक टकराव उनके हित में नहीं है अत: वे बीकानेर से घेरा उठाकर जोधपुर आये अपने ससुर महाराजा सवाई जयसिंह जी से अगस्त 1740 ई. में एक संधि की| इस संधि की कई शर्तें राठौड़ों के लिए अपमानजनक थी, जिसे जोधपुर के कई सामंतों ने कछवाहों द्वारा राठौड़ों की नाक काटने की संज्ञा दी|

इस तरह जयपुर की सेना ने बिना युद्ध किये जोधपुर से प्रस्थान किया| मार्ग में जयपुर की सेना ने परबतसर से लगभग 35 किलोमीटर दूर भकरी गांव Bhakri Fort के पास डेरा डाला| उस वक्त भकरी पर ठाकुर केसरीसिंह मेड़तिया राठौड़ का शासन था, ठाकुर केसरीसिंह जातीय स्वाभिमान से ओतप्रोत बड़े गर्वीले वीर थे और उनके किले में स्थित शीतला देवी का उन्हें आशीर्वाद प्राप्त था| इतिहासकारों के अनुसार जब जयपुर की सेना का भकरी के पास पड़ाव था तब नींदड के राव जोरावरसिंघ ने झुंझलाकर कहा कि – “लगता है राठौड़ों का राम निकल गया, सो कछवाहों की तोपें भी खाली ना करवा सके, लगता है मारवाड़ में अब रजपूती नहीं रही|”

यह बात वहां उपस्थित भकरी के किसी व्यक्ति ने सुन ली और उसने जाकर ठाकुर केसरीसिंह को बताया, भकरी Bhakri Fort के इतिहास के अनुसार खुद केसरीसिंह जी उस वक्त उधर से गुजर रहे थे और उन्होंने जोरावरसिंघ की कही बात सुन ली| बस फिर क्या था अपने जातीय स्वाभिमान व आन की रक्षा के लिए ठाकुर केसरीसिंह जी ने अपने कुछ सैनिकों के बल पर ही जयपुर की सेना को युद्ध का निमंत्रण भेज दिया और दूसरे दिन अपने छोटे से किले से जयपुर की सेना पर तोपों से गोले बरसाए| जबाबी कार्यवाही में भकरी किले को काफी नुकसान पहुंचा पर चार दिन तक चले युद्ध व कई सैनिकों के बलिदान के बाद भी जयपुर की विशाल सेना भकरी किले पर कब्ज़ा नहीं कर पाई|

Bhakri Fort भकरी के इतिहास के अनुसार जब जयपुर नरेश को पता चला कि किले में स्थित शीतला माता के आशीर्वाद के कारण किले को जीता नहीं जा सकता तब दैवीय चमत्कार को मानकर जयपुर नरेश ने युद्ध बंद किया और देवी के चरणों में आकर भूल स्वीकार की और एक सोने का छत्र देवी के चरणों में चढ़ाया| इस तरह भकरी के ठाकुर केसरीसिंह जी ने राठौड़ों का जातीय स्वाभिमान व आन बरकरार रखी और नींदड के राव जोरावरसिंघ की बात का जबाब कछवाह सेना की तोपें खाली करवाकर दिया और साबित किया कि मारवाड़ कभी वीरों से खाली नहीं रह सकती | ठाकर केसरीसिंघजी जयपुर की तोपें खाली नहीं करवाते तो मारवाड़ पर सदा के लिए यह कलंक रह जाता। जयपुर सेना का गर्व भंग पर ठाकुर केसरीसिंह जी ने मारवाड़ की नाक बचाली और यश कमाया, उनके यश को कवियों ने इस तरह शब्द दिए-

केहरिया करनाळ, जे नह जुड़तौ जयसाह सूं।

आ मोटी अवगाळ, रहती सिर मारू धरा।।

Bhakri Fort भकरी इतिहास के अनुसार वि.स. 1687 में औरंगजेब गुजरात विजय से लौट रहा था, तब भकरी के ठाकुर दाणीदास जी ने उसे भी युद्ध का निमंत्रण देकर रोका. तब दोनों के मध्य पांच दिन युद्ध चला. आखिर पांच दिन चले युद्ध में कई सैनिकों को खोने के बाद औरंगजेब को पता चला कि किले में स्थित शीतला माता के चमत्कार के कारण वह इस छोटे से किले को अधिकार में नहीं कर पाया. तब औरंगजेब ने देवी के चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम किया और एक स्वर्ण छत्र मातेश्वरी की सेवा में अर्पण किया| अपने से कई बड़ी बड़ी सेनाओं से लोहा लेने वाले भकरी किले पर आज भी आक्रान्ताओं की तोपों के निशान देखे जा सकते है आक्रान्ता आये और चले गए पर भकरी किला आज भी अपना गर्वीला मस्तक ऊपर उठाये शान से खड़ा है |

राठौड़ वंश की खापें

राठौड़ वंश की खापें

1. इडरिया राठौड़ 
2. हटुण्डिया राठौड़ 
3. बाढेल (बाढेर) राठौड़ 
4. बाजी राठौड़ 
5. खेड़ेचा राठौड़ 
6. धुहडि़या राठौड़ 
7. धांधल राठौड़ 
8. चाचक राठौड़ 
9. हरखावत राठौड़ 
10. जोलू राठौड़ 
11. सिंघल राठौड़ 
12. उहड़ राठौड़ 
13. मूलू राठौड़ 
14. बरजोर राठौड़ 
15. जोरावत राठौड़ 
16. रैकवार राठौड़ 
17. बागडि़या राठौड़ 
18. छप्पनिया राठौड़ 
19. आसल राठौड़ 
20. खोपसा राठौड़ 
21. सिरवी राठौड़ 
22. पीथड़ राठौड़ 
23. कोटेचा राठौड़ 
24. बहड़ राठौड़ 
25. ऊनड़ राठौड़ 
26. फिटक राठौड़ 
27. सुण्डा राठौड़ 
28. महीपालोत राठौड़ 
29. शिवराजोत राठौड़ 
30. डांगी राठौड़ 
31. मोहणोत राठौड़ 
32. मापावत राठौड़ 
33. लूका राठौड़ 
34. राजक राठौड़ 
35. विक्रमायत राठौड़ 
36. भोवोत राठौड़ 
37. बांदर राठौड़ 
38. ऊडा राठौड़ 
39. खोखर राठौड़ 
40. सिंहमकलोत राठौड़ 
41. बीठवासा राठौड़ 
42. सलखावत राठौड़ 
43. जैतमालोत राठौड़ 
44. जुजाणिया राठौड़ 
45. राड़धड़ा राठौड़ 
46. महेचा राठौड़ (महेचा राठौड़ की चार उप शाखाएँ है।) 
47. पोकरण राठौड़ 
48. बाडमेरा राठौड़ 
49. कोटडि़या राठौड़ 
50. खाबडिया राठौड़ 
51. गोगादेव राठौड़ 
52. देवराजोत राठौड़ 
53. चाड़ देवोत राठौड़ 
54. जैसिंधवे राठौड़ 
55. सातावत राठौड़ 
56. भीमावत राठौड़ 
57. अरड़कमलोत राठौड़ 
58. रणधीरोत राठौड़ 
59. अर्जुनोत राठौड़ 
60. कानावत राठौड़ 
61. पूनावत राठौड़ 
62. जैतावत राठौड़ (जैतावत राठौड़ की तीन उप शाखाएँ है।) 
63. कालावत राठौड़ 
64. भादावत राठौड़ 
65. कूँपावत राठौड़ (कूँपावत राठौड़ की 7 उप शाखाएँ है।)

66. बीदावत राठौड़ ( बीदावत राठौड़ की 22 उप शाखाएँ है।)

67. उदावत राठौड़ 
68. बनीरोत राठौड़ (बनीरोत राठौड़ की 11 उप शाखाएँ है।)

69. कांधल राठौड़ ( कांधल राठौड़ की चार उप शाखाएँ है।) 
70. चांपावत राठौड़ (चांपावत राठौड़ की 15 उप शाखाएँ है।)

71. मण्डलावत राठौड़ (मण्डलावत राठौड़ की 13 उप शाखाएँ है।) 
72. मेड़तिया राठौड़ (मेड़तिया राठौड़ की 26 उप शाखाएँ है।) 
73. जौधा राठौड़ (जौधा राठौड़ की 45 उप शाखाएँ है।) 
74. बीका राठौड़ (बीका राठौड़ की 26 उप शाखाएँ है।) 

महेचा राठौड़ की चार उप शाखाएँ 

1. पातावत महेचा 
2. कालावत महेचा 
3. दूदावत महेचा 
4. उगा महेचा 

जैतावत राठौड़ की तीन उप शाखाएँ 

1. पिरथी राजोत जैतावत 
2. आसकरनोत जैतावत 
3. भोपतोत जैतावत 

कूँपावत राठौड़ की 7 उप शाखाएँ

1. महेशदासोत कूंपावत 
2. ईश्वरदासोत कूंपावत 
3. माणण्डणोत कूंपावत 
4. जोध सिंगोत कूंपावत 
5. महासिंगोत कूंपावत 
6. उदयसिंगोत कूंपावत 
7. तिलोक सिंगोत कूंपावत 

बीदावत राठौड़ की 22 उप शाखाएँ

1. केशवदासोत बीदावत 
2. सावलदासोत बीदावत 
3. धनावत बीदावत 
4. सीहावत बीदावत 
5. दयालदासोत बीदावत 
6. घेनावत बीदावत 
7. मदनावत बीदावत 
8. खंगारोत बीदावत 
9. हरावत बीदावत 
10. भीवराजोत बीदावत 
11. बैरसलोत बीदावत 
12. डँूगरसिंगोत बीदावत 
13. भोजराज बीदावत 
14. रासावत बीदावत 
15. उदयकरणोत बीदावत 
16. जालपदासोत बीदावत 
17. किशनावत बीदावत 
18. रामदासोत बीदावत 
19. गोपाल दासोत 
20. पृथ्वीराजोत बीदावत 
21. मनोहरदासोत बीदावत 
22. तेजसिंहोत बीदावत 

बनीरोत राठौड़ की 11 उप शाखाएँ

1. मेघराजोत बनीरोत 
2. मेकरणोत बनीरोत 
3. अचलदासोत बनीरोत 
4. सूरजसिंहोत बनीरोत 
5. जयमलोत बनीरोत 
6. प्रतापसिंहोत बनीरोत 
7. भोजरोत बनीरोत 
8. चत्र सालोत बनीरोत 
9. नथमलोत बनीरोत 
10. धीरसिंगोत बनीरोत 
11. हरिसिंगोत बनीरोत 

कांधल राठौड़ की चार उप शाखाएँ 

1. रावरोत कांधल 
2. सांइदासोत कांधल 
3. पूर्णमलोत कांधल 
4. परवतोत कांधल 

चांपावत राठौड़ की 15 उप शाखाएँ 

1. संगतसिंहोत चांपावत 
2. रामसिंहोत चांपावत 
3. जगमलोत चांपावत 
4. गोयन्द दासोत चांपावत 
5. केसोदासोत चांपावत 
6. रायसिंहोत चांपावत 
7. रायमलोत चांपावत 
8. विठलदासोत चांपावत 
9. बलोत चांपावत 
10. हरभाणोत चांपावत 
11. भोपतोत चांपावत 
12. खेत सिंहोत चांपावत 
13. हरिदासोत चांपावत 
14. आईदानोत चांपावत 
15. किणाल दासोत चांपावत 

मण्डलावत राठौड़ की 13 उप शाखाएँ

1. भाखरोत बाला राठौड़ 
2. पाताजी राठौड़ 
3. रूपावत राठौड़ 
4. करणोत राठौड़ 
5. माण्डणोत राठौड़ 
6. नाथोत राठौड़ 
7. सांडावत राठौड़ 
8. बेरावत राठौड़ 
9. अड़वाल राठौड़ 
10. खेतसिंहोत राठौड़ 
11. लाखावत राठौड़ 
12. डूंगरोत राठौड़ 
13. भोजराजोत राठौड़ 

मेड़तिया राठौड़ की 26 उप शाखाएँ

1. जयमलोत मेड़तिया 
2. सुरतानोत मेड़तिया 
3. केशव दासोत मेड़तिया 
4. अखैसिंहोत मेड़तिया 
5. अमरसिंहोत मेड़तिया 
6. गोयन्ददासोत मेड़तिया 
7. रघुनाथ सिंहोत मेड़तिया 
8. श्यामसिंहोत मेड़तिया 
9. माधोसिंहोत मेड़तिया 
10. कल्याण दासोत मेड़तिया 
11. बिशन दासोत मेड़तिया 
12. रामदासोत मेड़तिया 
13. बिठलदासोत मेड़तिया 
14. मुकन्द दासोत मेड़तिया 
15. नारायण दासोत मेड़तिया 
16. द्वारकादासोत मेड़तिया 
17. हरिदासोत मेड़तिया 
18. शार्दूलोत मेड़तिया 
19. अनोतसिंहोत मेड़तिया 
20. ईशर दासोत मेड़तिया 
21. जगमलोत मेड़तिया 
22. चांदावत मेड़तिया 
23. प्रतापसिंहोत मेड़तिया 
24. गोपीनाथोत मेड़तिया 
25. मांडणोत मेड़तिया 
26. रायसालोत मेड़तिया 

जौधा राठौड़ की 45 उप शाखाएँ

1. बरसिंगोत जौधा 
2. रामावत जौधा 
3. भारमलोत जौधा 
4. शिवराजोत जौधा 
5. रायपालोत जौधा 
6. करमसोत जौधा 
7. बणीवीरोत जौधा 
8. खंगारोत जौधा 
9. नरावत जौधा 
10. सांगावत जौधा 
11. प्रतापदासोत जौधा 
12. देवीदासोत जौधा 
13. सिखावत जौधा 
14. नापावत जौधा 
15. बाघावत जौधा 
16. प्रताप सिंहोत जौधा 
17. गंगावत जौधा 
18. किशनावत जौधा 
19. रामोत जौधा 
20. के सादोसोत जौधा 
21. चन्द्रसेणोत जौधा 
22. रत्नसिंहोत जौधा 
23. महेश दासोत जौधा 
24. भोजराजोत जौधा 
25. अभैराजोत जौधा 
26. केसरी सिंहोत जौधा 
27. बिहारी दासोत जौधा 
28. कमरसेनोत जौधा 
29. भानोत जौधा 
30. डंूगरोत जौधा 
31. गोयन्द दासोत जौधा 
32. जयत सिंहोत जौधा 
33. माधो दासोत जौधा 
34. सकत सिंहोत जौधा 
35. किशन सिंहोत जौधा 
36. नरहर दासोत जौधा 
37. गोपाल दासोत जौधा 
38. जगनाथोत जौधा 
39. रत्न सिंगोत जौधा 
40. कल्याणदासोत जौधा 
41. फतेहसिंगोत जौधा 
42. जैतसिंहोत जौधा 
43. रतनोत जौधा 
44. अमरसिंहोत जौधा 
45. आन्नदसिगोत जौधा 

बीका राठौड़ की 26 उप शाखाएँ

1. घुड़सिगोत बीका 
2. राजसिंगोत बीका 
3. मेघराजोत बीका 
4. केलण बीका 
5. अमरावत बीका 
6. बीकस बीका 
7. रतनसिंहोत बीका 
8. प्रतापसिंहोत बीका 
9. नारणोत बीका 
10. बलभद्रोत नारणोत बीका 
11. भोपतोत बीका 
12. जैमलोत बीका 
13. तेजसिंहोत बीका 
14. सूरजमलोत बीका 
15. करमसिंहोत बीका 
16. नीबावत बीका 
17. भीमराजोत बीका 
18. बाघावत बीका 
19. माधोदासोत बीका 
20. मालदेवोत बीका 
21. श्रृगोंत बीका 
22. गोपालदासोत बीका 
23. पृथ्वीराजोत बीका 
24. किशनहोत बीका 
25. अमरसिंहोत बीका 
26. राजवी बीका

गुरुवार, 21 मई 2020

बेला और कल्याणी

बेला और कल्याणी

"बेला" पृथ्वीराज चौहान की पुत्री थी और "कल्याणी" जयचंद की पौत्री. जैसा कि हम सभी जानते ही है कि - अजमेर के राजा प्रथ्वीराज चौहान और कन्नौज के राजा जयचन्द आपस में रिश्तेदार (मौसेरे भाई) थे. उनके नाना दिल्ली के राजा अनंगपाल ने दिल्ली का राज प्रथ्वीराज को सौंप दिया था इस बजह से जयचंद प्रथ्वीराज से ईर्ष्या करता था.

इसके अलावा जयचन्द की पत्नी की भतीजी संयोगिता (जिसे जयचन्द अपनी बेटी की तरह स्नेह करता था) का प्रथ्वीराज से प्रेम हो जाने और प्रथ्वीराज द्वारा संयोगिता का हरण कर ले जाने के कारण यह ईर्ष्या दुश्मनी में बदल गई थी. इन कारणों से जयचन्द किसी भी तरह से प्रथ्वीराज चौहान को समाप्त करना चाहता था.

उन दिनों में अफगान लुटेरा मोहम्मद शहाबुद्दीन गौरी ने भारत पर आक्रमण किया था जिसमे प्रथ्वीराज चौहान की सेना के साथ सभी भारतीय हिन्दू राजाओं ने साथ दिया था. इस लड़ाई में मोहम्मद गौरी को बंदी बना लिया गया था तब वह कुरआन की कसम खाकर माफी मांग कर अपनी जान बचाकर वापस गया था.

गौरी का एक आदमी (मोइनुद्दीन चिश्ती) जो तंत्र मन्त्र में माहिर था वह अजमेर में रह कर संत की तरह एक मंदिर के बाहर बैठकर जासूसी का काम करेने लगा. जब उसको प्रथ्वीराज और जयचंद की दुश्मनी का पता चला तो उसने जयचन्द को समझाया कि - अगर तुम गौरी का साथ दो तो तुमको दिल्ली की सत्ता मिल सकती है.

जयचन्द उसकी बातों में आ गया क्योंकि तब तक जितने भी इस्लामी हम्लाबर भारत में आये थे वे केवल लूटमार करके वापस चले गए थे कोई भी भारत में राज करने के लिए नहीं रुका था. गौरी के फिर भारत पर हमले के समय जयचन्द ने न केवल गौरी का साथ दिया बल्कि अपने मित्र राजाओं को भी प्रथ्वीराज का साथ देने से रोका.

उस लड़ाई में प्रथ्वीराज की हार हुई और गौरी प्रथ्वीराज को बंदी बनाकर अपने साथ अफगानिस्तान ले गया. जयचंद को लगता था कि उसे अब दिल्ली का राजा बनाया जाएगा उस जयचंद के मोहम्मद गौरी से जीत का ईनाम मांगने पर उसकी यह कहकर गरदन काट दी गई कि - जो अपनों का नहीं हुआ वह हमारा क्या होगा.

जिस संयोगिता के हरण को जयचन्द ने अपनी इज्ज़त का प्रश्न बनाया था उस संयोगिता को चिश्ती के कहने पर पूर्ण नग्न करके सैनिको के सामने फेंक दिया गया था. गौरी ने भारत की सत्ता अपने गुलाम कुतुबुद्दीन और बख्तियार खिलजी को सौंप दी और प्रथ्वीराज को बंदी बनाकर अफगानिस्तान ले गया. साथ में भरत की हजारों महिलाओं को भी ले गया.

उन स्त्रीयों में प्रथ्वीराज की चचेरी बहन  "बेला" और जयचन्द की पौत्री "कल्याणी" भी थी. मोहम्मद गौरी ने अपनी जीत के तोहफे के रूप में बेला और कल्याणी को गजनी के सर्वोच्च काजी निजामुल्क को देने का ऐलान कर दिया. इस घटना पर बने एक नाटक में बोले गए गौरी और काजी निजामुल्क के संवाद को भी यहाँ लिखना प्रासंगिक समझता हूँ.

गौरी ने काजी निजामुल्क से कहा - ‘‘काजी साहब! मैं हिन्दुस्तान से सत्तर करोड़ दिरहम मूल्य के सोने के सिक्के, पचास लाख चार सौ मन सोना और चांदी, इसके अतिरिक्त मूल्यवान आभूषणों, मोतियों, हीरा, पन्ना, जरीदार वस्त्रा और ढाके की मल-मल की लूट-खसोट कर भारत से गजनी की सेवा में लाया हूं’’

इस पर गौरी की तारीफ करते हुए काजी ने पूछा - ‘‘बहुत अच्छा! लेकिन वहां के लोगों को कुछ दीन-ईमान का पाठ पढ़ाया कि नहीं?’’

गौरी ने कहा - ‘‘बहुत से लोग इस्लाम में दीक्षित हो गए हैं’’ कुतुबुद्दीन, बख्तियार और चिश्ती वहीँ है और वे बुतपरस्ती को ख़त्म करने और इस्लाम का प्रचार करने में लगे हुए हैं

‘‘और वहां से लाये गए दासों और दासियों का क्या किया?’’

दासों को गुलाम बनाकर गजनी लाया गया है. अब तो गजनी में बंदियों की सार्वजनिक बिक्री की जा रही है. रौननाहर, इराक, खुरासान आदि देशों के व्यापारी गजनी से गुलामों को खरीदकर ले जा रहे हैं. एक-एक गुलाम दो-दो या तीन-तीन दिरहम में बिक रहा है.’’

‘‘हिन्दुस्तान के मंदिरों का क्या किया?’’

‘‘मंदिरों को लूटकर 17000 हजार सोने और चांदी की मूर्तियां लायी गयी हैं, दो हजार से अधिक कीमती पत्थरों की मूर्तियां और शिवलिंग भी लाए गये हैं और बहुत से पूजा स्थलों को नेप्था और आग से जलाकर जमीदोज कर दिया गया है।’’

‘‘वाह! अल्हा मेहरबान तो गौरी पहलवान’’ फिर मंद-मंद मुस्कान के साथ बड़बड़ाए, ‘‘गौरे और काले, धनी और निर्धन गुलाम बनने के प्रसंग में सभी भारतीय एक हो गये हैं जो भारत में प्रतिष्ठित समझे जाते थे, आज वे गजनी में मामूली दुकानदारों के गुलाम बने हुए हैं’’ फिर थोड़ा रुककर कहा, ‘‘लेकिन हमारे लिए कोई खास तोहफा लाए हो या नहीं?’’

‘‘लाया हूं ना काजी साहब!’’

‘‘क्या?’’

‘‘जन्नत की हूरों से भी सुंदर जयचंद की पौत्री कल्याणी और पृथ्वीराज चौहान की पुत्री बेला’’

‘‘तो फिर देर किस बात की है।’’

‘‘बस आपके इशारे भर की’’

और काजी की इजाजत पाते ही शाहबुद्दीन गौरी ने कल्याणी और बेला को काजी के हरम में पहुंचा दिया. कल्याणी और बेला की अद्भुत सुंदरता को देखकर काजी अचम्भे में आ गया, उसे लगा कि स्वर्ग से अप्सराएं आ गयी हैं. उसने दोनों राजकुमारियों (बेला और कल्याणी) से इस्लाम कबूलने और उससे निकाह करने का प्रस्ताव रखा.

बेला और कल्याणी भी समझ चुकी थी कि - अब बचना असंभव है इसलिए उन्होंने एक खतरनाक चाल चली. बेला ने काजी से कहा -‘‘काजी साहब! आपकी बेगमें बनना तो हमारी खुशकिस्मती होगी, लेकिन हमारी दो शर्तें हैं’’

‘‘कहो..कहो.. क्या शर्तें हैं तुम्हारी! तुम जैसी हूरों के लिए तो मैं कोई भी शर्त मानने के लिए तैयार हूं।

‘‘पहली शर्त से तो यह है कि शादी होने तक हमें अपवित्र न किया जाए और दुसरी शर्त है कि - हमारी परम्परा के अनुसार दूल्हा और दुल्हन का जोड़ा हमारी पसंद का और भारत से मंगबाया जाए. इस पर काजी ने खुश होकर कहा - ‘‘मुझे तुम्हारी दोनों शर्तें मंजूर हैं’’

फिर बेला और कल्याणी ने कविचंद के नाम एक रहस्यमयी खत लिखकर भारत भूमि से शादी का जोड़ा मंगवा लिया. काजी के साथ उनके निकाह का दिन निश्चित हो गया. रहमत झील के किनारे बनाये गए नए महल में विवाह की तैयारी शुरू हुई कवि चंद द्वारा भेजे गये कपड़े पहनकर काजी साहब विवाह मंडप में आए.

कल्याणी, बेला और काजी ने भी भारत से आये हुए कपड़े पहन रखे थे. शादी को देखने के लिए बाहर जनता की भीड़ इकट्ठी हो गयी थी. तभी बेला ने काजी साहब से कहा-‘‘हमारे होने वाले सरताज! हम कलमा और निकाह पढ़ने से पहले जनता को झरोखे से दर्शन देना चाहती हैं, क्योंकि विवाह से पहले जनता को दर्शन देने की हमारे यहां प्रथा है

और फिर गजनी वालों को भी तो पता चले कि आप बुढ़ापे में जन्नत की सबसे सुंदर हूरों से शादी रचा रहे हैं. शादी के बाद तो हमें जीवनभर बुरका पहनना ही है, तब हमारी सुंदरता का होना न के बराबर ही होगा. नकाब में छिपी हुई सुंदरता भला तब किस काम की।’’

‘‘हां..हां..क्यों नहीं’’ काजी ने उत्तर दिया और कल्याणी और बेला के साथ राजमहल के कंगूरे पर गया, लेकिन वहां पहुंचते-पहुंचते ही काजी साहब के दाहिने कंधे से आग की लपटें निकलने लगी, क्योंकि क्योंकि कविचंद ने बेला और कल्याणी का रहस्यमयी पत्र समझकर बड़े तीक्ष्ण विष में सने हुए कपड़े भेजे थे.

काजी साहब विष की ज्वाला से पागलों की तरह इधर-उधर भागने लगा, तब बेला ने उससे कहा-‘‘तुमने ही गौरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए उकसाया था ना, हमने तुझे मारने का षड्यंत्र रचकर अपने देश को लूटने का बदला ले लिया है. हम हिन्दू कुमारियां हैं समझे, किसमें इतना साहस है जो जीते जी हमारे शरीर को हाथ भी लगा दे’’

कल्याणी ने कहा, ‘‘नालायक! बहुत मजहबी बनते हो, अपने धर्म को शांतिप्रिय धर्म बताते हो और करते हो क्या? जेहाद का ढोल पीटने के नाम पर लोगों को लूटते हो और शांति से रहने वाले लोगों पर जुल्म ढाहते हो, थू! धिक्कार है तुम पर.’’

इतना कहकर दोनों राजकुमारियों ने महल की छत के किनारे खड़ी होकर एक-दूसरी की छाती में विष बुझी कटार जोर से भोंक दी और उनके प्राणहीन देह उस उंची छत से नीचे लुढ़क गये. पागलों की तरह इधर-उधर भागता हुआ काजी भी तड़प-तड़प कर मर गया.

भारत की इन दोनों बहादुर बेटियों ने विदेशी धरती पर पराधीन रहते हुए भी बलिदान की जिस गाथा का निर्माण किया, वह सराहने योग्य है आज सारा भारत इन बेटियों के बलिदान को श्रद्धा के साथ याद करता है. यह कहानी स्कूली इतिहास की किताबों में नहीं मिलेगी लेकिन यह बहुत मशहूर लोककथा है जिसपर मेलों में अक्सर नाटक खेला जाता है.

मंगलवार, 19 मई 2020

सपूत कै सो पीढ़ी

सपूत कै सो पीढ़ी  -
एक पैंतालिसा का भोजराजजिका शेखावत ठाकुर अपने ऊंट पर चढ़ा खेतड़ी के पास से गुजर रहा था सो सोचा चलो राजाजी से मिलते हुए निकल जाते हैं। इस समय अजित सिंह जी खेतड़ी के राजा  थे अपने जमाने के वे बहुत ही ख्यातिनामा राजा हुए हैं। खेतड़ी ,नवलगढ़ ,मंडावा ,बिसाऊ ,अलसीसर ,मुकन्दगढ़ ये सभी भी भोजराजजिके शेखावत ही हैं। शार्दुल सिंघजी के झुंझुनू लेने से इनकी जागीर बड़ी हो गयी। किन्तु पग में छोटे  होने से ये सभी पैंतालिसा वाले ठाकुरों को दादाजी कहते थे। 
सो इन ठाकुर साहब  ने गढ़ में जाकर ऊंट तो बाँध दिया व वहां खड़े चोकीदार को कहा की राजा जी को अर्ज कर कि आपके दादाजी मिलने आये हैं। राजा जी शायद दादाजी शब्द से थोड़ी चिड गये थे  सो चोकीदार को बोले की उन से पूछ की "भोजराज जी से कुण सी पीढ़ी में लागो हो " -उस ज़माने के लोग बात बिना लाग लपेट के व सीधी करते थे। सो इन ठाकुर साहेब ने उतर भिजवाया की " सपूत कै तो सो पीढ़ी लागां अर कपूत कै एक ही पीढ़ी कोनी लागां  _ " कहते हैं राजा जी ने उन को उपर बुलाने की जगह खुद ही  मिलने को नीचे आगये।

मदनसिंह शेखावत झांझड की पोस्ट

शुक्रवार, 15 मई 2020

राजवंशों की कुलदेवियाँ

 तँवर / तोमर वंश   

तोमर गोत्र का ही अपभ्रश तंवर है इतिहासकारों ने दिल्ली के तोमर राजाओ के लिए कही पर तोमर तो कही पर तंवर शब्द का उपयोग किया है तोमरो का दिल्ली पर शासन था उनकी शान में यह कहावत प्रचलित थी की जद कद दिल्ली तंवरा तोमरा तोमर जाट गोत्र उत्तर प्रदेश ,हरियाणा , पंजाब , राजस्थान , मध्य प्रदेश दिल्लीमें निवास करते है ।

 ✈️तँवर वंश - कुलदेवी - 

चिलाय माता की तंवर वंश
कुलदेवी के रूप में पूजा आराधना करता है। इतिहास में तंवरों की कुलदेवी के अनेक नाम मिलते हैं जैसे चिलाय माता, जोग माया (योग माया), योगेश्वरी (जोगेश्वरी), सरूण्ड माता, मनसादेवी आदि।

दिल्ली के इतिहास में तंवरो की कुलदेवी का नाम योगमाया मिलता है। तंवरों के पुर्वज पांडवों ने भगवान कृष्ण की बहन को कुलदेवी मानकर इन्द्रप्रस्थ में कुलदेवी का मंदिर बनवाया और उसी स्थान पर दिल्ली के संस्थापक राजा अनंगपाल प्रथम ने पुनः योगमाया के मंदिर का निर्माण करवाया। इसी मंदिर के कारण तंवरों की राजधानी को योगिनीपुर भी कहा गया, जो महरौली के पास स्थित है। यह इतिहास ग्रंथो व भारतीय पुरातत्व विभाग से पुष्ट है। तोमरों की अन्य शाखा और ग्वालियर के इतिहास में तंवरो की कुलदेवी का नाम योगेश्वरी ओर जोगेश्वरी भी मिलता है। ऐसा माना जाता है कि योगमाया (जोग माया) को ही बाद में योगेश्वरी, जोगेश्वरी के नाम से पुकारा जाने लगा।

राजस्थान में तोरावाटी -  (तंवरावाटी) के नाम से नव स्थापित तंवर राज्य के तंवर कुलदेवी के रूप में सरूण्ड माता को पुजते है। पाटन के इतिहास मे पाटन के राजा राव भोपाजी तंवर द्वारा कोटपुतली के पास कुलदेवी का मंदिर बनवाने का विवरण मिलता है। जहाँ पहले अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने योगमाया का मंदिर बनाया था। यह मंदिर अरावली श्रंखला की पहाड़ी पर स्थित है। मंदिर परिसर में उपलब्ध शिलालेख के आधार पर 650 फुट ऊँचा मंदिर एक छत्री (चबूतरा) में स्थित है। इस छत्री के चार दरवाजे हैं उसके अन्दर माता की प्रतिमा विराजमान है। छत्री के बाद का मंदिर 7 भवनों वाला है। मंदिर का मुख्य मार्ग दक्षिण में व माता के निज मंदिर का द्वार पश्चिम में है। इस मंदिर में माता की 8 भुजावाला आदमकद स्वरुप प्रतिमा स्थित है। स्तम्भों व दिवारो पर वाम मार्गियों व तांत्रिकों की मूर्तियाँ की मौजुदगी इनका प्रभाव दर्शाती है। मंदिर में माता को पांडवो द्वारा स्थापित करने के साक्ष्य रूप में छत्री स्थित हैं। मंदिर की परिक्रमा में चामुंडा की मूर्ति है जो आज भी सुरापान करती है। मंदिर की छत्री, जो लाल पत्थर की है का वजन लगभग 5 टन का है। मंदिर पीली मिट्टी से बना हुआ है इसके बावजूद बारिश में इसमें कहीं भी पानी नहीं टपकता। मंदिर तक पहुँचने के लिए 282 सीढियाँ है। इनके मध्य में माता की पवन चरण के निशान हैं! यहाँ 52 भैरव व 64 योग्नियां है ! सरुंड देवी की पहाड़ी से सोता नदी बहती है जिसके पास एशिया प्रसिद्ध बावड़ी है जो बिना सीमेन्ट, चूने आदि के बनी हुई है। इसे द्वापर युग में पाण्डवांे द्वारा 2500 चट्टानों से बनाई गई माना जाता है। योगमाया का मंदिर सरूण्ड गांव में स्थित होने से इसे सरूण्ड माता भी बोलते हैं।

तंवरो के बडवा के अनुसार तंवरो
की कुलदेवी चिलाय माता है। जाटू तंवरों ओर बड़वां की बही के अनुसार तंवरो की कुलदेवी ने चिल पक्षी का रूप धारण कर राव धोतजी के पुत्र जयरथ के पुत्र जाटू सिंह की बाल अवस्था में रक्षा की थी जिसके कारण माँ जोगमाया को चिलाय माता कहा जाने लगा और कालांतर में जोगमाया माता को चिलाय माता पुकारा जाने लगा। इतिहासकारांे के अनुसार कुलदेवी का वाहन चिल पक्षी के होने कारण यह चिलाय माता कहलाई। राजस्थान के तंवर चिलाय माता को ही कुलदेवी मानते हैं। लेकिन चिलाय माता के नाम से कोई भी पुराना मंदिर नहीं मिलता। जिससे जाहिर होता है कि जोगमाया का नाम चिलाय माता सिर्फ तंवरावाटी में ही प्रचलित हुआ। चिलाय माता के दो मंदिरों का विवरण मिलता है। जाटू तंवर और पाटन के इतिहास के अनुसार 12 वीं शताब्दी में जाटू तंवरो ने खुडाना में चिलाय माता का मंदिर बनाया था और माता द्वारा मनसा (मनोकामना) पूर्ण करने के कारण उसे मनसादेवी के नाम से पुकारा जाने लगा। एक और चिलाय माता मंदिर का विवरण मिलता है जो पाटन के राजाओं ने गुडगाँव में 14 वीं शताब्दी में बनवाया और ब्राह्मणों को माता की सेवा के लिए नियुक्त किया। लेकिन 17 वीं शताब्दी के बाद पाटन के राजा द्वारा माता के लिए सेवा जानी बन्द हो गयी थी। आज स्थानीय लोग चिलाय माता को शीतला माता समझ कर शीतला माता के रूप में पुजते है।

विभिन्न स्त्रोतों और पांडवो या तंवरो द्वारा बनवाये गये मंदिर से यही प्रतीत होता है कि तोमर (तंवर) की कुलदेवी माँ योगमाया है, जो बाद में योगेश्वरी कहलाई। और योगमाया को ही बाद में विभिन्न कारणों से स्थानीय रूप में योगेश्वरी, जोगमाया, चिलाय माता, सरुंड माता, मनसा माता, शीतला माता आदि के नाम से पुकारा जाने लगा और आराधना की जाने लगी।

तंवर (तोमर) वंश के गोत्र-प्रवरादि - 

वंश                –     चंद्रवंशी
कुल देवी         -        चिल्लाय माता
शाखा             –       मधुनेक,वाजस्नेयी
गोत्र                –        अत्रि, व्यागर, गागर्य
प्रवर                –  गागर्य,कौस्तुभ,माडषय
शिखा              –           दाहिनी
भेरू                –         गौरा
शस्त्र                –         खड़ग
ध्वज                           पंचरगा
पुरोहित                        भिवाल
बारहठ              –        आपत केदार वंशी
ढोली                –      रोहतान जात का
स्थान                –  पाटा मानस सरोवर
कुल वॄक्ष            –         गुल्लर
प्रणाम               –          जयगोपाल
निशान -        कपि(चील),चन्द्रमा
ढोल                 –             भंवर
नगारा             – रणजीत/जय, विजय, अजय
घोड़ा              –                श्वते
निकास          -          हस्तिनापुर
प्रमुख गदी       - इन्द्रप्रस्थ,दिल्ली
रंग                 –          हरा
नाई                –          क़ाला
चमार              –        भारीवाल
शंख                –         पिचारक
नदी               - सरस्वति,तुंगभद्रा
वेद                 –           यजुर्वेद
सवारी             –             रथ
देवता               –            शिव
गुरु                  –             सूर्य
उपाधि             – जावला नरेश.दिल्लीपति

 तंवरों की खांपें

1 जावला तंवर
2 रूणेचा तंवर
3 असिल जी (आसल जी ) के तंवर बत्तीस के आसल जी की खांपें     (3 उपशाखाएँ)
4 परसाराम जी के तंवर
5 किलोड़ जी के तंवर
6 कर्णे जी के तंवर
7 चैबीसी के तंवर जाटू के तंवर ग्वालेरा तंवर      (7 उपशाखाएँ)
8 सोमवाल तंवर
9 सलेरिया या सुणियार तंवर
10 ढमढेरिया या ढढमेर तंवर
11 पन्ना तंवर
12 तुनिहान तंवर
13 राघव तंवर
14 बेवत या भैपा तंवर
15 सापला (सीपल) तंवर
16 सुलेनिया तंवर
17 कलिया तंवर
18 राठौडि़या तंवर
19 जरावता तंवर
20 इन्दोलिया तंवर
21 इन्दा तंवर

चैबीसी के तंवर जाटू के तंवर ग्वालेरा तंवर  7 उपशाखाएँ
1 मोरी तंवर
2 मोटन तंवर
3 जंधारा तंवर
4 सतरावला तंवर
5 कौढ़याणा तंवर
6 बौडाणा तंवर
7 निहाल तंवर

असिल जी (आसल जी ) के तंवर बत्तीस के आसल जी की खांपें  3 उपशाखाएँ -
1 आसल जी के तंवर
2 उदो जी के तंवर
3 किलोर जी के तंवर बाईसा के तंवर

✈️ चन्द्रवंशी तंवर(तोमर)राजपूतो का इतिहास - 

तोमर या तंवर उत्तर-पश्चिम भारत का एक राजपूत वंश है। तोमर राजपूत क्षत्रियो में चन्द्रवंश की एक शाखा है और इन्हें पाण्डु पुत्र अर्जुन का वंशज माना जाता है.इनका गोत्र अत्री एवं व्याघ्रपद अथवा गार्गेय्य होता है। क्षत्रिय वंश भास्कर,पृथ्वीराज
रासो,बीकानेर वंशावली में भी यह वंश चन्द्रवंशी लिखा हुआ है,यही नहीं कर्नल जेम्स टॉड जैसे विदेशी इतिहासकार भी तंवर वंश को पांडव वंश ही मानते हैं. उत्तर मध्य काल में ये वंश बहुत ताकतवर वंश था और उत्तर पश्चिमी भारत के बड़े हिस्से पर इनका शाशन था। देहली जिसका प्राचीन नाम ढिल्लिका था, इस वंश की राजधानी थी और उसकी स्थापना का श्रेय इसी वंश को जाता है।तंवर अथवा तोमर वंश के नामकरण की कई मान्यताएं प्रचलित हैं,कुछ विद्वानों का मानना है कि राजा तुंगपाल के नाम पर तंवर वंश का नाम पड़ा,पर सर्वाधिक उपयुक्त मान्यता ये प्रतीत होती है "पांडव वंशी अर्जुन ने नागवंशी क्षत्रियो को अपना दुश्मन बना लिया था,नागवंशी क्षत्रियो ने पांड्वो को मारने का प्रण ले लिया था,पर पांडवो के राजवैध धन्वन्तरी के होते हुए वे पांड्वो का कुछ न बिगाड़ पाए !अतः उन्होंने धन्वन्तरी को मार डाला !इसके बाद अभिमन्यु पुत्र परीक्षित को मार डाला !परीक्षित के बाद उसका पुत्र जन्मेजय राजा बना !अपने पिता का बदला लेने के लिए जन्मेजय ने नागवंश के नो कुल समाप्त कर दिए !नागवंश को समाप्त होता देख उनके गुरु आस्तिक जो की जत्कारू के पुत्र थे,जन्मेजय के दरबार मैं गए व् सुझाव दिया की किसी वंश को समूल नष्ट नहीं किया जाना चाहिए व सुझाव दिया की इस हेतु आप यज्ञ करे !महाराज जन्मेजय के पुरोहित कवष के पुत्र तुर इस यज्ञ के अध्यक्ष बने !इस यग्य में जन्मेजय के पुत्र,पोत्र अदि दीक्षित हुए !क्योकि इन सभी को तुर ने दीक्षित किया था इस कारण ये पांडव तुर,तोंर या बाद तांवर तंवर या तोमर कहलाने लगे !ऋषि तुर द्वारा इस यज्ञ का वर्णन पुराणों में भी मिलता है.।

 महाभारत काल के बाद तंवर वंश का वर्णन -  महाभारत काल के बाद पांडव वंश का वर्णन पहले तो 1000 ईसा पूर्व के ग्रंथो में आता है जब हस्तिनापुर राज्य को युधिष्ठर वंश बताया गया,पर इसके बाद से लेकर
बौद्धकाल,मौर्य युग से लेकर गुप्तकाल तक इस वंश के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती । समुद्रगुप्त के शिलालेख से पता चलता है कि उन्होंने मध्य और पश्चिम भारत की यौधेय और अर्जुनायन क्षत्रियों को अपने अधीन किया था। यौधेय वंश युधिष्ठर का वंश माना जा सकता है और इसके वंशज आज भी चन्द्रवंशी जोहिया राजपूत कहलाते हैं जो अब अधिकतर मुसलमान हो गए हैं,इन्ही के आसपास रहने वाले अर्जुनायन को अर्जुन का वंशज माना जा सकता है और ये उसी क्षेत्रो में पाए जाते थे जहाँ आज भी तंवरावाटी और तंवरघार है,यानि पांडव वंश ही उस समय तक अर्जुनायन के नाम से जाना जाता था और कुछ समय बाद वही वंश अपने पुरोहित ऋषि तुर द्वारा यज्ञ में दीक्षित होने पर तुंवर, तंवर,तूर,या तोमर के नाम से जाना गया.(इतिहासकार महेन्द्र सिंह तंवर खेतासर भी अर्जुनायन को ही तंवर वंश मानते हैं) ।

तंवर वंश और दिल्ली की स्थापना -  ईश्वर का चमत्कार देखिये कि हजारो साल बाद पांडव वंश को पुन इन्द्रप्रस्थ को बसाने का मौका मिला,और ये श्रेय मिला अनंगपाल तोमर प्रथम को. दिल्ली के तोमर शासको के अधीन दिल्ली के अलावा पंजाब ,हरियाणा,पश्चिमी उत्तर प्रदेश भी था,इनके छोटे राज्य पिहोवा,सूरजकुंड,हांसी,थानेश्वर में होने के भी अभिलेखों में उल्लेख मिलते हैं।इस वंश ने बड़ी वीरता के साथ तुर्कों का सामना किया और कई सदी तक उन्हें अपने क्षेत्र में अतिक्रमण करने नहीं दिया दिल्ली के तंवर(तोमर) शासक (736-1193 ई) तक हुये ।
 1.अनगपाल तोमर प्रथम (736-754 ई)-दिल्ली के संस्थापक राजा थे जिनके अनेक नाम मिलते हैं जैसे बीलनदेव, जाऊल इत्यादि। 
2.राजा वासुदेव (754-773) 3.राजा गंगदेव (773-794) 4.राजा पृथ्वीमल (794-814)-बंगाल के राजा धर्म पाल के साथ युद्ध 
5.जयदेव (814-834) 
6.राजा नरपाल (834-849) 7.राजा उदयपाल (849-875) 8.राजा आपृच्छदेव (875-897) 9.राजा पीपलराजदेव (897-919) 
10.राज रघुपाल (919-940) 11.राजा तिल्हणपाल (940-961) 
12.राजा गोपाल देव (961-979)-इनके समय साम्भर के राजा सिहराज और लवणखेडा के तोमर सामंत सलवण के मध्य युद्ध हुआ जिसमें सलवण मारा गया तथा उसके पश्चात दिल्ली के राजा गोपाल देव ने सिंहराज पर आक्रमण करके उन्हें युद्ध में मारा 13.सुलक्षणपाल तोमर (979-1005)-महमूद गजनवी के साथ युद्ध किया 
14..जयपालदेव (1005-1021)-महमूद गजनवी के साथ युद्ध किया, महमूद ने थानेश्वसर ओर मथुरा को लूटा 15.कुमारपाल (1021-1051) 1021-1051)-मसूद के साथ युद्ध किया और 1038 में हाँसी के गढ का पतन हुआ, पाच वर्ष बाद कुमारपाल ने हासी, थानेश्वसर के साथ साथ कांगडा भी जीत लिया 
16.अनगपाल द्वितीय (1051-1081)-लालकोट का निर्माण करवाया और लोह स्तंभ की स्थापना की, अनंगपाल द्वितीय ने 27 महल और मन्दिर बनवाये थे।दिल्ली सम्राट अनगपाल द्वितीय ने तुर्क इबराहीम को पराजित किया 17.तेजपाल -प्रथम(1081-1105) 18.महिपाल(1105-1130)-महिलापुर बसाया और शिव मंदिर का निर्माण करवाया 19.विजयपाल (1130-1151)-मथुरा में केशवदेव का मंदिर 20.मदनपाल(1151-1167)- मदनपाल अथवा अनंगपाल तृतीय ,मदनपाल ने बीसलदेव के साथ मिलकर तुर्कों के हमलो के विरुद्ध युद्ध किया और उन्हें मार भगाया,मदलपाल तोमर ने विग्रहराज चौहान उर्फ़ बीसलदेव के शोर्य से प्रभावित होकर उससे अनंगपाल ने अपनी दो पुत्रियों की शादी एक कन्नौज के जयचंद के पिता विजयपाल के साथ और दूसरी कमला देवी का विवाह पृथ्वीराज के पिता सोमेशवर चौहान के साथ की,जिससे पृथ्वीराज चौहान का जन्म हुआ,जबकि सबसे और पृथ्वीराज चौहान तो अनंगपाल तोमर का धेवता था, विजयपाल उसका मौसा 
21.पृथ्वीराज तोमर(1167-1189)-अजमेर के राजा सोमेश्वर और पृथ्वीराज चव्हाण इनके समकालीन थे ।

 22.चाहाडपाल/गोविंदराज (1189-1192)-पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर गोरी के साथ युद्ध किया,तराईन दुसरे युद्ध मे मारा गया।पृथ्वीराज रासो के अनुसार तराईन के पहले युद्ध में मौहम्मद गौरी और गोविन्दराज तोमर का आमना सामना हुआ था,जिसमे दोनों घायल हुए थे और गौरी भाग रहा था। भागते हुए गौरी को धीरसिंह पुंडीर ने पकडकर बंदी बना लिया था। जिसे उदारता दिखाते हुए पृथ्वीराज चौहान ने छोड़ दिया। हालाँकि गौरी के मुस्लिम इतिहासकार इस घटना को छिपाते हैं। 
23.तेजपाल द्वितीय (1192-1193 ई)-दिल्ली का अन्तिम तोमर राजा , जिन्होंने स्वतन्त्र 15 दिन तक शासन किया, और कुतुबुद्दीन ने दिल्ली पर आक्रमण कर हमेशा के लिए दिल्ली पर कब्जा कर लिया।

ग्वालियर,चम्बल,ऐसाह गढ़ी का तोमर वंश - दिल्ली छूटने के बाद वीर सिंह तंवर ने चम्बल घाटी के ऐसाह गढ़ी में अपना राज स्थापित किया जो इससे पहले भी अर्जुनायन तंवर वंश के समय से उनके अधिकार में था,बाद में इस वंश ने ग्वालियर पर भी अधिकार कर मध्य भारत में एक बड़े राज्य की स्थापना की ।यह शाखा ग्वालियर स्थापना के कारण ग्वेलेरा कहलाती है ।माना जाता है कि ग्वालियर का विश्वप्रसिद्ध किला भी तोमर शासको ने बनवाया था.यह क्षेत्र आज भी तंवरघार कहा जाता है और इस क्षेत्र में तोमर राजपूतो के 1400 गाँव कहे जाते हैं। वीर सिंह के बाद उद्दरण,वीरम,गणपति,डूंगर सिंह,कीर्तिसिंह,कल्याणमल,और राजा मानसिंह हुए ।राजा मानसिंह तोमर बड़े प्रतापी शासक हुए,उनके दिल्ली के सुल्तानों से निरंतर युद्ध हुए,उनकी नो रानियाँ राजपूत थी । मानसिंह के बाद विक्रमादित्य राजा हुए ।उन्होंने पानीपत की लड़ाई में अपना बलिदान दिया,उनके बाद रामशाह तोमर राजा हुए,उनका राज्य 1567 ईस्वी में अकबर ने जीत लिया।इसके बाद राजा रामशाह तोमर ने मुगलों से कोई संधि नहीं की और अपने परिवार के साथ महाराणा उदयसिंह मेवाड़ के पास आ गए।हल्दीघाटी के युद्ध में राजा रामशाह तोमर ने अपने पुत्र शालिवाहन तोमर के साथ वीरता का असाधारण प्रदर्शन कर अपने परिवारजनों समेत महान बलिदान दिया।उनके बलिदान को आज भी मेवाड़ राजपरिवार द्वारा आदरपूर्वक याद किया जाता है। मालवा में रायसेन में भी तंवर राजपूतो का शासन था ।यहाँ के शासक सिलहदी उर्फ़ शिलादित्य तंवर राणा सांगा के दामाद थे और खानवा के युद्ध में राणा सांगा की और से लडे थे।कुछ इतिहासकार इन पर राणा सांगा से धोखे का भी आरोप लगाते हैं ,पर इसके प्रमाण पुष्ट नही हैं,सिल्ह्दी पर गुजरात के बादशाह बहादुर शाह ने 1532 इसवी में हमला किया।इस हमले में सिलहदी तंवर की पत्नी जो राणा सांगा की पुत्री थी उन्होंने 700 राजपूतानियो और अपने दो छोटे बच्चों के साथ जौहर किया और सिल्हदी तंवर अपने भाई के साथ वीरगति को प्राप्त हुए ।बाद में रायसेन को पूरनमल को दे दिया गया।कुछ वर्षो बाद 1543 इसवी में रायसेन के मुल्लाओ की शिकायत पर शेरशाह सूरी ने इसके राज्य पर हमला किया और पूरणमल की रानियों ने जौहर कर लिया और पूरणमल मारे गये इस प्रकार इस राज्य की समाप्ति हुई ।
 तंवरावाटी और तंवर ठिकाने -  देहली में तोमरो के पतन के बाद तोमर राजपूत विभिन्न दिशाओ में फ़ैल गए। एक शाखा ने उत्तरी राजस्थान के पाटन में जाकर अपना राज स्थापित किया जो की जयपुर राज्य का एक भाग था। ये अब 'तँवरवाटी'(तोरावाटी) कहलाता है और वहाँ तँवरों के ठिकाने हैं। मुख्य ठिकाना पाटण का ही है।एक ठिकाना खेतासर भी है।इनके अलावा पोखरण में भी तंवर राजपूतो के ठिकाने हैं। ।बाबा रामदेव तंवर वंश से ही थे जो बहुत बड़े संत माने जाते हैं।आज भी वो पीर के रूप में पूजे जाते हैं ।मेवाड़ के सलुम्बर में भी तंवर राजपूतो के कई ठिकाने हैं जिनमे बोरज तंवरान एक ठिकाना है ।इसके अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश में बेजा ठिकाना और कोटि जेलदारी,बीकानेर में दाउदसर ठिकाना, मांधोली जागीर,भी तंवर राजपूतो के ठिकाने हैं ।धौलपुर की स्थापना भी तंवर राजपूत धोलनदेव ने की थी। 18 वी सदी के आसपास अंग्रेजो ने जाटों को धौलपुर दे दिया। ये जाट गोहद से सिंधिया द्वारा विस्थापित किये गए थे और पूर्व में इनके पूर्वज राजा मानसिंह तोमर की सेवा में थे और उनके द्वारा ही इन्हें गोहद में बसाया गया था।अब भी धौलपुर में कायस्थपाड़ा तंवर राजपूतो का ठिकाना है।

 तंवरवंश की शाखाएँ  -  तंवर वंश की प्रमुख शाखाएँ - रुनेचा,ग्वेलेरा,बेरुआर,बिल्दारिया,खाति,इन्दोरिया,जाटू,जंघहारा,सोमवाल हैं,इसके अतिरिक्त पठानिया वंश भी पांडव वंश ही माना जाता है,इसका प्रसिद्ध राज्य नूरपुर है,इसमें वजीर राम सिंह पठानिया बहुत प्रसिद्ध यौद्धा हुए हैं.जिन्होंने अंग्रेजो को नाको चने चबवा दिए थे. इन शाखाओं में रूनेचा राजस्थान में,ग्वेलेरा चम्बल क्षेत्र में,बेरुआर यूपी बिहार सीमा पर,बिलदारिया कानपूर उन्नाव के पास,इन्दोरिया मथुरा, बुलन्दशहर,आगरा में मिलते हैं ।मेरठ मुजफरनगर के सोमाल वंश भी पांडव वंश माना जाता है,जाटू तंवर राजपूतो की भिवानी हरियाणा में 1440 गाँव की रियासत थी।इस शाखा के तंवर राजपूत हरियाणा में मिलते हैं।जंघारा राजपूत यूपी के अलीगढ,बदायूं,बरेली शाहजहांपुर आदि जिलो में मिलते हैं,ये बहुत वीर यौद्धा माने जाते हैं इन्होने रुहेले पठानों को कभी चैन से नहीं बैठने दिया,और अहिरो को भगाकर अपना राज स्थापित किया ।

पूर्वी उत्तर प्रदेश का जनवार राजपूत वंश भी पांडववंशी जन्मेजय का वंशज माना जाता है। इस वंश की बलरामपुर समेत कई बड़ी स्टेट पूर्वी यूपी में हैं।

 इनके अतिरिक्त पाकिस्तान में मुस्लिम जंजुआ राजपूत भी पांडव वंशी कहे जाते हैं जंजुआ वंश ही शाही वंश था जिसमे जयपाल,आनंदपाल,जैसे वीर हुए जिन्होंने तुर्क महमूद गजनवी का मुकाबला बड़ी वीरता से किया था ।जंजुआ राजपूत बड़े वीर होते हैं और पाकिस्तान की सेना में इनकी बडी संख्या में भर्ती होती है.इसके अलावा वहां का जर्राल वंश भी खुद को पांडव वंशी मानता है।

 मराठो में भी एक वंश तंवरवंशी है जो तावरे या तावडे कहलाता है ।महादजी सिंधिया का एक सेनापति फाल्किया खुद को बड़े गर्व से तंवर वंशी मानता था ।

 तोमर/तंवर राजपूतो की वर्तमान आबादी -  तोमर राजपूत वंश और इसकी सभी शाखाएँ न सिर्फ भारत बल्कि पाकिस्तान में भी बड़ी संख्या में मिलती है,चम्बल क्षेत्र में ही तोमर राजपूतो के 1400 गाँव हैं,इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पिलखुआ के पास तोमरो के 84 गाँव हैं,भिवानी में 84 गाँव जिनमे बापोड़ा प्रमुख है ।मेरठ में गढ़ रोड पर 12 गाँव जिनमे सिसोली और बढ्ला बड़े गाँव हैं, कुरुक्षेत्र में 12 गाँव,गढ़मुक्तेश्वर में 42 गाँव हैं जिनमे भदस्याना और भैना प्रसिद्ध हैं. बुलन्दशहर में 24 गाँव,खुर्जा के पास 5 गाँव तोमर राजपूतो के हैं,हरियाणा में मेवात के नूह के पास 24 गाँव हैं जिनमे बिघवाली प्रमुख है. ये सिर्फ वेस्ट यूपी और हरियाणा का थोडा सा ही विवरण दिया गया है,इनकी जनसँख्या का,अगर इनकी सभी प्रदेशो और पाकिस्तान में हर शाखाओ की संख्या जोड़ दी जाये तो इनके कुल गाँव की संख्या कम से कम 6000 होगी,चौहान राजपूतो के अलावा राजपूतो में शायद ही कोई वंश होगा जिसकी इतनी बड़ी संख्या हो ।

 जंजुआ राजपूतों की उत्पत्ति व नाम अर्जुन के वंशज राजा जनमेजय से मानी जाती है जिनके ऊपर इनके वंश का नाम पड़ा। जंजुआ वंश तंवर वंश के भाई के रूप में देखा जाता है। जंजुआ राजपूतों के राज्य पूर्वी पाकिस्तान के इलाके में रहे है।

✈️ तँवर  वंश - प्रमुख  शासक , संक्षिप्त इतिहास - 

दक्षिण के राष्ट्रकूट और चालुक्य शासको ने भी अरबो के विरुद्ध संघर्ष में सहायता की,कुछ समय पश्चात् सिंध पुन: सुमरा और सम्मा राजपूतो के नेत्रत्व में स्वाधीन हो गया और अरबों का राज बहुत थोड़े से क्षेत्र पर रह गया ।किसी मुस्लिम इतिहासकार ने लिखा भी है कि “इस्लाम की जोशीली धारा जो हिन्द को डुबाने आई थी वो सिंध के छोटे से इलाके में एक नाले के रूप में बहने लगी,अरबों की सिंध विजय के कई सौ वर्ष बाद भी न तो यहाँ किसी भारतीय ने इस्लाम धर्म अपनाया है न ही यहाँ कोई अरबी भाषा जानता है”अरब तो भारत में सफल नहीं हुए पर मध्य एशिया से तुर्क नामक एक नई शक्ति आई जिसने कुछ समय पूर्व ही बौद्ध धर्म छोडकर इस्लाम धर्म ग्रहण किया था,अल्पतगीन नाम के तुर्क सरदार ने गजनी में राज्य स्थापित किया,फिर उसके दामाद सुबुक्तगीन ने काबुल और जाबुल के हिन्दू शाही जंजुआ राजपूत राजा जयपाल पर हमला किया,
जंजुआ राजपूत वंश भी तोमर वंश की शाखा है और अब अधिकतर पाकिस्तान के पंजाब में मिलते हैं और अब मुस्लिम हैं कुछ थोड़े से हिन्दू जंजुआ राजपूत भारतीय पंजाब में भी मिलते हैं ।उस समय अधिकांश अफगानिस्तान(उपगणस्तान),और समूचे पंजाब पर जंजुआ शाही राजपूतो का शासन था सुबुक्तगीन के बाद उसके पुत्र महमूद गजनवी ने इस्लाम के प्रचार और धन लूटने के उद्देश्य से भारत पर सन 1000 ईस्वी से लेकर 1026 ईस्वी तक कुल 17 हमले किये,जिनमे पंजाब का शाही जंजुआ राजपूत राज्य पूरी तरह समाप्त हो गया और उसने सोमनाथ मन्दिर गुजरात, कन्नौज, मथुरा,कालिंजर,नगरकोट(कटोच),थानेश्वर तक हमले किये और लाखो हिन्दुओं की हत्याएं,बलात धर्मपरिवर्तन,लूटपाट हुई,

ऐसे में दिल्ली के तंवर/तोमर राजपूत वंश ने अन्य राजपूतो के साथ मिलकर इसका सामना करने का निश्चय किया,

दिल्लीपति राजा जयपालदेव तोमर(1005-1021) - गज़नवी वंश के आरंभिक आक्रमणों के समय दिल्ली-थानेश्वर का तोमर वंश पर्याप्त समुन्नत अवस्था में था।महमूद गजनवी ने जब सुना कि थानेश्वर में बहुत से हिन्दू मंदिर हैं और उनमे खूब सारा सोना है तो उन्हें लूटने की लालसा लिए उसने थानेश्वर की और कूच किया ।थानेश्वर के मंदिरों की रक्षा के लिए दिल्ली के राजा जयपालदेव तोमर ने उससे कड़ा संघर्ष किया,किन्तु दुश्मन की अधिक संख्या होने के कारण उसकी हार हुई,तोमरराज ने थानेश्वर को महमूद से बचाने का प्रयत्न भी किया, यद्यपि उसे सफलता न मिली।और महमूद ने थानेश्वर में जमकर रक्तपात और लूटपाट की. ।

दिल्लीपति राजा कुमार देव तोमर(1021-1051) - सन् 1038 ईo (संo १०९५) महमूद के भानजे मसूद ने हांसी पर अधिकार कर लिया। और थानेश्वर को हस्तगत किया। दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी होने लगी। ऐसा प्रतीत होता था कि मुसलमान दिल्ली राज्य की समाप्ति किए बिना चैन न लेंगे।किंतु तोमरों ने साहस से काम लिया।गजनी के सुल्तान को मार भगाने वाले कुमारपाल तोमर ने दुसरे राजपूत राजाओं के साथ मिलकर हांसी और आसपास से मुसलमानों को मार भगाया ।
अब भारत के वीरो ने आगे बढकर पहाड़ो में स्थित कांगड़ा का किला जा घेरा जो तुर्कों के कब्जे में चला गया था,चार माह के घेरे के बाद
नगरकोट(कांगड़ा)का किला जिसे भीमनगर भी कहा जाता है को राजपूत वीरो ने तुर्कों से मुक्त करा लिया और वहां पुन:मंदिरों की स्थापना की ।

लाहौर का घेरा - 

इसके बाद कुमारपाल देव तोमर की सेना ने लाहौर का घेरा डाल दिया,वो भारत से तुर्कों को पूरी तरह बाहर निकालने के लिए कटिबद्ध था.इतिहासकार गांगुली का अनुमान है कि इस अभियान में राजा भोज परमार,कर्ण कलचुरी,राजा अनहिल चौहान ने भी कुमारपाल तोमर की सहायता की थी.किन्तु गजनी से अतिरिक्त सेना आ जाने के कारण यह घेरा सफल नहीं रहा।

नगरकोट कांगड़ा का द्वितीय घेरा(1051 ईस्वी) - गजनी के सुल्तान अब्दुलरशीद ने पंजाब के सूबेदार हाजिब को कांगड़ा का किला दोबारा जीतने का निर्देश दिया,मुसलमानों ने दुर्ग का घेरा डाला और छठे दिन दुर्ग की दीवार टूटी,विकट युद्ध हुआ और इतिहासकार हरिहर दिवेदी के अनुसार कुमारपाल देव तोमर बहादुरी से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ.अब रावी नदी गजनी और भारत के मध्य की सीमा बन गई. ।मुस्लिम इतिहासकार बैहाकी के अनुसार “राजपूतो ने इस युद्ध में प्राणप्रण से युद्ध किया,यह युद्ध उनकी वीरता के अनुरूप था,अंत में पांच सुरंग लगाकर किले की दीवारों को गिराया गया,जिसके बाद हुए युद्ध में तुर्कों की जीत हुई और उनका किले पर अधिकार हो गया ।इस प्रकार हम देखते हैं कि दिल्लीपति कुमारपाल देव तोमर एक महान नायक था उसकी सेना ने न केवल हांसी और थानेश्वर के दुर्ग ही हस्तगत न किए; उसकी वीर वाहिनी ने काँगड़े पर भी अपनी विजयध्वजा कुछ समय के लिये फहरा दी। लाहौर भी तँवरों के हाथों से भाग्यवशात् ही बच गया।

दिल्लीपती राजाअनंगपाल-II ( 1051-1081 ) - उनके समय तुर्क इबराहीम ने हमला किया जिसमें अनगपाल द्वितीय खुद युद्ध लड़ने गये,,,, युद्ध में एक समय आया कि तुर्क इबराहीम ओर अनगपाल कि आमना सामना हो गया। अनंगपाल ने अपनी तलवार से इबराहीम की गर्दन ऊडा दि थी। एक राजा द्वारा किसी तुर्क बादशाह की युद्ध में गर्दन उडाना भी एक महान उपलब्धि है तभी तो अनंगपाल की तलवार पर कई कहावत प्रचलित भी है।तुर्क हमलावर मौहम्मद गौरी के विरुद्ध तराइन के युद्ध में तोमर राजपूतो की वीरता हुई ।

दिल्लीपति राजा चाहाडपाल/गोविंदराज तोमर(1189-1192 ) - गोविन्दराज तोमर पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर तराइन के दोनों युद्धों में लड़ें,पृथ्वीराज रासो के अनुसार तराईन के पहले युद्ध में मौहम्मद गौरी और गोविन्दराज तोमर का आमना सामना हुआ था,जिसमे दोनों घायल हुए थे और गौरी हारकर भाग रहा था। भागते हुए गौरी को धीरसिंह पुंडीर ने पकडकर बंदी बना लिया था। जिसे उदारता दिखाते हुए पृथ्वीराज चौहान ने छोड़ दिया। हालाँकि गौरी के मुस्लिम इतिहासकार इस घटना को छिपाते हैं।पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर गोरी के साथ युद्ध किया,तराईन दुसरे युद्ध मे मारे गए।

तेजपाल द्वितीय (1192-1193 ई) - दिल्ली का अन्तिम तोमर राजा,जिन्होंने स्वतन्त्र 15 दिन तक शासन किया,इन्ही के पास पृथ्वीराज चौहान की रानी(पुंडीर राजा चन्द्र पुंडीर की पुत्री) से उत्पन्न पुत्र रैणसी उर्फ़ रणजीत सिंह था,तेजपाल ने बची हुई सेना की मदद से गौरी का सामना करने की गोपनीय रणनीति बनाई,युद्ध से बची हुई कुछ सेना भी उसके पास आ गई थी।मगर तुर्कों को इसका पता चल गया और कुतुबुद्दीन ने दिल्ली पर आक्रमण कर हमेशा के लिए दिल्ली पर कब्जा कर लिया।इस हमले में रैणसी मारे गए।

इसके बाद भी हांसी में और हरियाणा में अचल ब्रह्म के नेत्रत्व में तुर्कों से युद्ध किया गया,इस युद्ध में मुस्लिम इतिहासकार हसन निजामी किसी जाटवान नाम के व्यक्ति का उल्लेख करता है जिसे आजकल हरियाणा के जाट बताते हैं जबकि वो राजपूत थे और संभवत इस क्षेत्र में आज भी पाए जाने वाले तंवर/तोमर राजपूतो की जाटू शाखा से थे,

इस प्रकार हम देखते हैं कि दिल्ली के तोमर राजवंश ने तुर्कों के विरुद्ध बार बार युद्ध करके महान बलिदान दिए किन्तु खेद का विषय है कि संभवत: कोई तोमर राजपूत भी दिल्लीपति कुमारपाल देव तोमर जैसे वीर नायक के बारे में नहीं जानता होगा जिसने राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए अपने राज्य से आगे बढकर
कांगड़ा,लाहौर तक जाकर तुर्कों को मार लगाई और अपना जीवन धर्मरक्षा के लिए न्योछावर कर दिया ।दिल्ली के तोमर राजवंश की वीरता को समग्र राष्ट्र की और से शत शत नमन।

शिव सिह भुरटिया

बुधवार, 13 मई 2020

कर किरपा किनियाण

कर किरपा किनियाण

कर किरपा किनियाण, अबखी टाळण अवस ही।
देवी मढ़ देसाण,बेगी आजै बिसहथी।।

कर किरपा किनियाण, कोरोना सूं करनला।
होवण दयो न हाण, भारत भू पर भगवती।।

कर किरपा किनियाण, अबखी ने सबखी करो।
तुरंत मेटजे ताण, कोरोना रो करनला।।

कर किरपा किनियाण,आफत मेटो ईसरी।
आई थारी आण,बेगी रखजे बिसहथी।।

कर किरपा किनियाण, अजय करत आराधना।
धरजे माजी ध्यान,निज भगतां पर करनला।।

@अजयसिंह राठौड़ सिकरोड़ी कृत।।

सोमवार, 11 मई 2020

ठाकुर साहब vs चारण

ठा.साब ने चारण साब अर्ज़ कियो .........
"  काचो जीमो प्याजियों 
     पीवो ठंडी राब ।
      लूंवा चांले मौकली
         आपै लैसी ढाब ।।

        ठा. साब रो जवाब आयो
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म्है जीमू खरगोशियो 
   ऊपरां पीवूं जिन्न ।
     आप अरोगो राबड़ी
         दोरां काटो दिन .....
            

बुधवार, 6 मई 2020

ऊभी आई हूं अर आडी निकल़ूंली

ऊभी आई हूं अर आडी निकल़ूंली-

नांणो बैड़ा ठिकांणै रो एक गांम हो। बैड़ा मारवाड़ में राणावत सिसोदियां रो ठिकाणो हो। उठै रा तत्कालीन ठाकुर रो आपरी छोटी ठुकराणी माथै लाड घणो हो। उण ठकुराणी रो ठाकुर थूक ई नीं उलांघता। जोग सूं ठाकुर बीमार पड़्या तो ठकुराणी नै चिंता हुई कै ठाकुर तो पाटवी बेटो बणसी अर उवो मोटोड़ी रो है। जणै उण ठकुराणी ठाकुर रै मांचै री ईस कनै बैठ निसासो न्हाखियो।

ठकुराणी नै निसासो न्हाखतां देख ठाकुरां कह्यो कै-- "आयो है सो तो जावसी। कोई बेगो तो कोई मोड़ो, जावणो ई है। इणमें निसासो न्हाखण री कांई जरूरत?"
जणै ठकुराणी कह्यो कै- "हुकम! आपरै सौ वरस कर्यां, हूं अर म्हारो जायो लोगां रा मातेत हुय जासां। उणां री इच्छा माथै जीवणो दुभर हुय जासी। सो म्हारै छोरै सारू ई, कठै न्यारी पगरखी खोलण री जागा आपरै रैतां-रैतां हुय जावै तो म्हारै नहचो हुवै।"

बात ठाकुरां रै हियै बैठगी। उणां आपरै मोटै कुंवर नै बुलाय कह्यो -
"बेटा! आपांरै कुळ मं अर जात मं ऐड़ा-ऐड़ा नर हुयग्या जिकां बाप री इच्छा रै सनमान सारू राज, देस तक छोड दिया। सो म्हारी इच्छा है, कै तूं म्हारी बात मान।"
बेटो सपूत हो। उण कह्यो आपरी इच्छा है, तो हूं म्हारो हक छोड दूं लो।"
जणै ठाकुरां कह्यो कै--
"नीं, हूं बैड़ा सूं आधो ठिकाणो तनै अर नाणा सूं आधो ठिकाणो लोहड़ियै नै देवूं।तूं इण बात नै मानै तो हूं मर्यो मुखातर पाऊं।" बडै बेटै बात मानली अर बैड़ा ठिकाण रा दो बंट हुयग्या।

पण जिकी बात लिख रह्यो हूं, उण दिनां बैड़ा रो ठाकुर पृथ्वीसिंह अर नाणा रा ठाकुर चिमनसिंह, पदमसिंह रो हा। चिमनसिंह घुड़सवारी रो शौकीन। चिमनसिंह बड़बोलो ई हो। अर जिका मुटबोला हुवै उणां सूं रणांगण में कृपाण रो तेज झलै नीं। आ ई नीं, चिमनसिंह लांग रो काचो ई हो।

इणी चिमनसिंह रै कुंवर रो नाम हो लालसिंह। लालसिंह रो ब्याव निबैड़ै रै उदावत सिमरथसिंह री बेटी अगरां साथै हुयो। अगरां वीर, साहसी, चरित्रवान अर दूरदर्शी महिला ही। आ ई नीं उवा शिकार री पण शौकीन ही, सो उण कनै आबू, अजमेर आद जागा सूं अंग्रेज मीमड़ियां आवती रैवती। अर आ उणां नै आपरै इलाकै में शिकार रमावती, सोरी राखती सो मीमड़ियां इण सूं घणी राजी। 

अठीनै बैड़ा ठाकुर पृथ्वीसिंह रो ब्याव मारवाड़ रै मुसाहिब ए-आला अर ईडर नरेश सर प्रताप री बेटी सागै हुयो। सर प्रताप नै लोगां कह्यो कै "हुकम! आप ईडर रा नरेश अर मारवाड़ धणी रा भाई हो पछै आप एक गांम धणी नै आपरा बाईसा परणाय कोई गीरबैजोग काम नीं कियो! कठै राजा रो रजवाड़ो अर कठै इंदर  रो अखाड़ो?" सर प्रताप नै सलाहकारां सलाह दीन्हीं कै कम सूं कम आप 'नाणा' नै पाछो 'बैड़ा' भेळो रळाय दो।
आ सलाह सर प्रताप रै जचगी अर उणां एक दळ मेल्यो, अर नाणा ठाकुर चिमनसिंह नै आदेश दियो कै "नाणो पाछो बैड़ै में मिला दियो सो ओ गढ छोड दियो जावै, नीतर राज आपरै दल़-बल़ सूं गढ छोडावैला। बेइज्जती कराय'र बैवोला तो इणसूं आछो है कै सदियै-सदियै निकळ जावो।"

चिमनसिंह थोड़ो घणो उजर कियो जणै सर प्रताप रो आदेश आयो कै -"तपड़ बारै फैंक दिया जावै अर हुकम अदूली में ठाकुर अर कुंवर नै पकड़ लियो जावै।"
राज रै किणी संदेशवाहक पाछो जाय  ठाकुर नै सारी हकीकत कैयी तो ठाकुर रै बळ जवाब दे दियो। वो जनाना गाभा पैर आपरै कुंवर सागै लारलै बगैरणै सूं आपरै ठिकाणै रै एक गांम चांमडरी जावतो रुक्यो।
सर प्रताप रै दल़- मुखिया देख्यो कै कोट नै  अजै ई चिमनसिंह खाली नीं कियो तो उण रीस में धमकी दी कै 
-"या तो गढ छोड दियो जावै या जीवित पकड़ीजण सारू संभ जावै।"

आ बात सुण'र कोट रै मांयां सूं कुंवराणी कैवायो कै-
" गढ में ठाकुर नीं है, सो कोट खाली नीं कर सकां। उवां आयां ई खाली हुसी, म्हैं एकलै जनाना कठै जावा?"
ऐ समाचार जोधपुर पूगाया तो सर प्रताप कैवायो कै कुंवराणी नै कैवाय देवो कै -आप मरदाना डोढी सूं जनाना डोढी में जावो परा ताकि म्हे बैड़ा ठाकुर साहब रै नाम रो अमल गळाय दुहाई फेरावां।"

आ सुण कुंवराणी कह्यो कै--
"अठै कोई मरद है नीं, जणै मरदाना ड्योढी भळे कैड़ी? अठै सगळी जनाना ई इज है, सो आज तो जनाना ड्योढी इज है। अतः कोट खाली नीं कियो जा सकै।"
ऐ समाचार भल़ै जोधपुर पूगा तो सर प्रताप पाछो आदेश दियो, कै लुगायां है, गिदड़-भभक्यां करो। डर जावैला सो एकर कूड़ी बंदूकां ताणो।"

सैन्यदळ भळे पग पटक्या अर बंदूकां ताणी तो मांयां सूं कुंवराणी ई बंदूकां ताणली। उणां समाचार कराया कै -
"म्हांनै नाणो सर प्रताप रै दियोड़ो नीं है, सो इयां डर'र छोड दूं! कोट मं म्हैं मोड़ वडो कियो है। *अठै म्हैं ऊभी आई हूं, अर आडी जावूंला।* हमैं कोट कानी पग उवो इज करैला जिणरै दो माथा हुवै, या जिणरै बटीड़ लाग लोही री जागा दूध निकल़तो हुवै। जैड़ो कुतको थां कनै है, उड़ो खीलो म्हारै कनै ई है।" आ कैय कुंवराणी आपरी बंदूंक ताण भुरज में मोरचो लियो। 

सर प्रताप रै मेल्यै मिनखां हकीकत सूं पाछा सर नै अवगत कराया। आ सुण सर प्रताप गतागम मं फसग्या। आगै कुवो अर लारै खाई वाळी बात हुयगी। उवां दल़ नै समाचार करायो कै चार-पांच दिन उठै जमिया रैवो। आगलै आदेश नै उडीको।

अठीनै जोग ऐड़ो बण्यो कै अंग्रेज मीमड़ियां आबू सूं सिकार रै मिस घूमती-घूमती नाणा ढूकी। कोट मं आई तो आगै कोट में सोपो पड़्योड़ो। मिनख रो बोलाल़ो ई नीं। उवै इचरज में पड़गी। घोड़ां सूं उतर खड़ां-खड़ां कोट में गी। आगै कुंवराणी बंदूक ताण्यां उणांरै स्वागत में मिली।

मीमड़ियां हकीकत पूछी जणै कुंवराणी सारी बात अर नाणा रो इतियास ई बतायो। आपरी गाय रो घी सौ कोसै आडो आवै। इणीगत मीमड़ियां कुंवराणी री आवभगत सूं घणी राजी ही। सो उवै अजेज पाछी चढी, अर आबू जाय अंग्रेज सरकार सूं सर प्रताप रै आदेश माथै स्टे दिरा दियो। तीजै-चौथै दिन मारवाड़ रै राजाजी रै दळ री कार्रवाई माथै स्टे आयग्यो, अर पछै नाणो मुकदमो ई जीत ग्यो। 

 इण पूरी घटना उत्तर मध्यकालीन एक कटु साच नै आपांरै साम्ही अड़ीखंभ ऊभो कर दियो।

राणा रा वंशज जिकै कदै ई आपरी वीरता अर धीरता रै कारण चावा हा, उणी राणा रो एक वंशज चिमनसिंह आपरै विरुद्ध तणती तोपां नै देख'र छूटण सूं पैला ई गढ छोड पड़ छूटो। पण उणरी बहुआरी *अगरां* आपरी कुळ परंपरा रै विरद 'रणबंका राठौड़' नै अखी बणायो राख्यो।

अगरां रै चरित्र नै देखां तो लागै कै महाकवि सूर्यमल्लजी मीसण वीर सतसई में एक कायर पति सारू लिख्यो-
कंत घरै किम आविया,
तेगां रो घण त्रास।
लहंगै मूझ लुकीजिए,
वैरी रो न विसास।।
चिमनसिंह अर लालसिंह उण सूं ई एक पाऊंडो आगला निकल़्या। क्यूंकै दूजा कायर पति दुश्मणां सूं डरता घर आय आपरै धण रै गाघरै में लुकता जदकै ऐ तो घर छोड न्हाठा।

लक्ष्मीदानजी रै ऐ दूहा इण बात रा साखीधर है, कै चारण कायरां रा कटु निंदक अर वीरां नै वंदन वाळा हा। चिमनसिंह नै फटकारतां कवि लिखै--
कर कर केसरियाह,
बातां घणी बणावतो।
फौजां दळ फिरियाह,
छांनै पड़ भागो चिमन।।
(आडै दिन तो केसरिया कर करनै घणी ई बातां बगारतो पण जद फौजां आय फिरी तो कणै गढ छोड न्हाठो पतो ई नीं पड़ण दियो।)

कुल़ री छोडै कांण,
छतै पांण गढ छोडियो.
रजवट रो वट रांण,
छांटो नह रहियो चिमन।।
(चिमनसिंह आपरै घराणै री मरजादा छोड गाढ थकां गढ छोड न्हाठो। इण सूं क्षत्रियत्व में जिको मरट हुवै उणरो छांटो लारै नीं बच्यो)

लूंबै खळ लागाह,
दल़ फिरिया गढ दोल़िया।
भागल पड़ भागाह,
चिड़ियां ढळ पड़िया चिमन।।
(दल़ आय गढ घेरियो तो चिमनसिंह मनभागल हुय न्हाठो जाणै ढूलो चिड़्यां में पड़्यां चिड़्यां उडै)

लखणां हीणा लाल,
ओल़जहीणा आपही।
गढ में सेरी घाल,
चेरी बण भागो चिमन।।
(उणरै कुंवर लालसिंह में ई कीं लखण नीं हा अर ओ तो खुद ओल़झहीण हो ई सो दासी रै रूप में गढ री भींत में बारी घाल पड़ छूटो)

क्यां थे इतो कियोह,
विरथा वाद हिमत बिनां।
गढ छिटकाय गयोह,
चमक झमक करतो चिमन।।
(कवि कैवै कै थैं में गाढ नीं हो तो पैला वाद चढ्यो क्यूं? हमैं पगां में पायल़ बजावतो निकल़्यो नीं!)

वै सो बाल़क,
उणरै हाथ न ऊतरै।
नांणा गढ रो नेह,
चित सूं किम छूटो चिमन।।
(अरे गैला छोटै टाबर रै हाथ में कोई नाणो (रुपिया) झलादे तो सोरै सास बो ई पाछो नीं दे सो तूं अधबूढ नाणै रो नेह त्याग इयां कीकर निकल़ग्यो?)

लाडी हूंता लाल,
कंवरांणी हूती कमंध।
झिलम टोप खग झाल,
नांणो गढ छोडत नहीं।।
(जे थारो कुंवर लाडी हुवतो अर इणरी जागा  जागा इणरी जोड़ायत कुंवर हुवती तो बखतर पैर लड़ती, इयां गढ छोडती नीं।)

अगरां नै कवि दिल खोल कवि दाद देतां लिखै--
कियो चिमन लालै कंवर,
नैड़ो उदियानेर।
अगरां सिंघण एकली,
आंगमियो आसेर।।1
*फौजां नै देख चिमनसिंह अर लालसिंह तो डरतां गढ छोड उदयपुर नेड़ो कियो पण अगरां गढ नै अंगेज हेज साथै मरण संभी)

फौजां झंडा फरहरै,
भभकी तोपां भाळ।
चित ओचकियो चिमन रो,
भैचकियो भुरजाळ।।2
(जद फौजां आय आपरा झंडा तांण्या अर तोपां घुराई तो चिमनसिंह रो चित्त जागा छोड दी।चिमनसिंह नै  चैताचूक दीठो तो विचारो कोट ई डरग्यो कै हमैं म्हारो धणी कुण?)

धणियांणी धीरोपियो,
कंवरांणी क्रोधाळ।
म्हूं लड़सूं सधरै मतै,
भैचक मत भुरजाळ।।3
(ऐड़ै में गढ री धणियाप करतां धणियाणी खार खाय  गढ रो जीव जमावतां कह्यो कै हे गढ! डर मत। थारै कारण हूं गंभीरता सूं लड़ूंली।)

मन द्रढ रख डरपै मती,
त्रह त्रहत्रहिया त्रंबाळ।
सिर धड़ ऊपर साबतो,
भिल़ण न दूं भुरजाळ।।4
(हे गढ! तूं चल़विचल़ मत होय। तूं मन में द्रढ रैय। ऐ जुद्ध -नगारा भलांई बाजो। जितै तक म्हारी धड़ माथै माथो साबतो है, उतै तक म्हैं तनै भिळण नीं दूं अर्थात वैर्यां रो मांयां आंगळी टिकाव ई नीं हुवण दूं।)

फौजां लड़ करसूं फतै,
तेगां झड़ रणताल़।
आंच थनै न आंणदूं,
जांण न दूं भुरजाल़।।5
(म्हैं खुद तरवार झाल रणांगण में फौजां कर'र लड़ूंली। तनै ई धकल ई नीं आण दूं अर नीं तनै वैर्यां रै हाथां जावण दूं।)

समर छोड खामंध ससुर 
कायर भागो कंत।
हूं भाग जावूं हमैं,
धरती सिर धुणंत।।6
(थारो डरणो सही है क्यूंकै म्हारो कायर सुसरो अर डरपोक पति दोनूं समर छोड न्हाठग्या पण तूं निरभै रैय जे आंरै दांई म्हैं ई न्हाठगी तो धरती लाजां मरती माथो धूणैली)

समर छोड खामंध ससुर,
भागा दुरंग भळाय।
किलो छोड परठूं कदम,
(म्हारी)जात रसातल़ जाय।।7
(हे गढ! तूं आ मानलै कै उवै थोनूं गढ म्हनै भोळाय ग्या ऐड़ै में जे हूं थारो साथ छोड दूंली, तो म्हारी जात री गरिमा खतम हुय जावैला अर्थात रसातलळ में बुई जावैली।)

तात मात मौसाल़ तक,
सूरां साख संसार।
पल़टूं गढ ऊभां पगां,
(म्हारो)लाजै पीहर लार।।8
(हां थारो डरणो सही है कै म्हारा च्यारूं पख ऊजल़ा नीं है पण तूं आ तो जाणै कै म्हारा दो पख अर्थात पीहर अर नानाणो तो वीरता रै मारग ऊजल़ा है। इण बात री साख संसार भरै सो म्हैं ई थारै सूं बदल़गी तो म्हारो पीहर लाज सूं मर जावैला)

कंवरांणी सजियो किल्लो,
बिलकुल मरण विचार।
किलो रहियां रहसी कलम,
(म्हारी)लाज किला री लार।।9
(अतः कंवरांणी किल्लै नै रुखाल़ण सारू मरण तेवड़ियो क्यूंकै उवां जाणती कै किल्लो रह्यां म्हारी जीतब है। म्हारी लाज रो ढाकण ओ किल्लो इज है सो ओ रह्यां लाज रहसी।)

साभार- अजयसिंह राठौड़ सिकरोड़ी 

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

किले का विवाह

किले का विवाह

"बधाई ! बधाई ! तुर्क सेना हार कर जा रही है गढ का घेरा उठाया जा रहा है" प्रधान बीकमसी(विक्रमसिह) ने प्रसन्नातापूर्वक जाकर यह सूचना रावल मूलराज को दे दी

"घेरा क्यो उठाया जा रहा है?" रावल ने विस्मयपूर्वक कहा

कल के धावे ने शाही सेना को हताश कर दिया है मलिक, केशर और शिराजुद्दीन जैसे योग्य सेनापति तो कल ही मारे गए अब कपूर मरहठा और कमालदीन मे बनती नही है कल के धावे मे शाही सेना का जितना नाश हुआ उतना शायस पिछले एक वर्ष के सब धावो मे नही हुआ होगा अब उनकी संख्या भी कम हो गई है जिससे उनका भय हो गया है कि कही तलहटी मे पङी फौज पर ही आक्रमण न कर दे 
प्रधान बीकमसी ने कहा

"तलहटी मे कुल शाही फौज कितनी होगी"
"लगभग पच्चीस हजार"
"हमारे पास तो कुल तीन हजार रही है"
"फिर भी उनको भय हो गया है"

रावल मूलराज ने एक गहरी नि:श्वास छोङी और उसका मुँह उतर गया उसने छोटे भाई रतनसी की ओर देखा वह भी उदास हो गया था बीकमसी और दूसरे दरबारी लोग बङे असमंजस मे पङे जहाँ चेहरे पर प्रसन्नाता छा जानी चाहिए थी वहाँ उदासी क्यो? वर्षो के प्रयत्न के उपरान्त विजय मिली थी हजारो राजपूतो ने प्राण गंवाये थे

तब कही जाकर शाही सेना हताश होकर लौट जाने को विवश हुई थी बीकमसी ने समझा शायद मेरे आशय को रावजी ठिक नही समझे है इसलिए उसने फिर कहा-
"कितनी कठिनाई से अपने को जीत मिली है अब तो लौटती हुई फौज पर दिल्ली तक धावे करने का अवसर मिल गया है हारी हुई फौज मे लङऩे का साहस नही होता इसलिए खुब लूट का माल मिल सकता है"
रावल मूलराज ने बीकमसी की बात पर कोई ध्यान नही दिया और वह और भी उदास होकर बैठ गया सारे दरबार मे सन्नाटा छा गया रावलजी के इस व्यवहार को रतनसी के अतिरिक्त और कोई नही समझ रहा था बहुत देर से छा रही नि:स्तब्धता को भंग करते हुए अन्त मे एक और गहरी नि:श्वास छोङ कर रावल मूलराज ने कहा-

"बङे रावलजी(रावल जैतसी) के समय से ही हमने जो प्रयत्न करना शुरु किया था वह आज जाकर विफल हुआ है शेखजादा को मारा और लुटा सुल्तान फिरोज का इतना बिगाङ किया उसके इलाके को तबाह किया और हजारो राजपूतो को मरवाया पर फिरौज की फौज हार कर जा रही है तब दूसरा तो और कौन है जो हमारे उद्देश्य को पुरा कर सके"
इस प्रकार शाही फौज हार कर जाना बहुत बुरा है क्योकि इस आक्रमण मे सुल्ताऩ को जन धन की इतनी हानि उठानि पङी है

वह भविष्य मे यहाँ आक्रमण करने की स्वपन मे भी नही सोचेगा"रतनसी ने रावल मूलराज की बात का समर्थन करते आगे कहा-
"शाही फौज के हताश लौटने का एक कारण अपना किला भी है यह इतना सुदृढ और अजेय है कि शत्रु इसे देखते ही निराश हो जाते है वास्तव मे अति बलवार वीर व दुर्ग दोनो ही कुँआरे(अविवाहित) ही रहते है मेरे तो एक बात ध्यान मे आती है क्यो नही किले की एक दीवार तुङवा दी जाये जिससे हताश होकर जा रही शत्रु सेना धावा करने के लिए ठहर जाए।" रावल मूलराज ने प्रश्नभरी मुद्रा से सबकी और देखते हुए कहा-
"मुझे एक उपाय सूझा है यदि आज्ञा  हो तो कहुँ। " रतनसी ने अपने भाई की ओर देखते हुए कहा।
"हाँ हाँ जरुर कहो।"
कमालदीऩ आपका पगङी बदल भाई है । उसको किसी के साथ कहलाया जाए कि हम गढ के किवाङ खोलने के लिए तैयार है तुम धावा करो वह आपका आग्रह अवश्व मान लेगा । उसको आपकी प्रतिज्ञा भी बतला दी जाए और विश्वास दिलाया जाए कि किसी भी प्रकार का धोखा नही है।"
"वह नही माना तो।"
"जरुर मान जाएगा । एक तो आपका मित्र है इसलिए आप पर विश्वास भी कर लेगा और दूसरा हार कर लौटने मे उसको कौनसी लाज नही आ रही है । वह सुल्तान के पास किस मुँह से जाएगा।

इसलिए विजय का लोभ भी उसे लौटने से रोक देगा"
"उसे विश्वास कैसे दिलाया जा कि यहाँ धोखा नही होगा"
"किले पर लगे हुए झाँगर यंत्रो और किंवाङो को पहले से तोङ दिया जाय"
रावल मूलराज के रतनसिह की बताई हुई युक्ति जँच गई उसके मुँह पर प्रसन्नता दौङती हुई दिखाई दी 
उसी क्षण जैसलमेर दुर्ग पर लगे हुए झाँगर यंत्रो के तोङने की ध्वनि लोगो ने सुनी लोगो ने देखा कि किले के किवाङ खोल दिये गए थे और दूसरे ही क्षण उन्होने देखा कि वे तोङ जा रहे थे फिर उन्होने देखा एक घूङसवार जैसलमेर दुर्ग से निकला और तलहटी मे पङाव डाले हुए पङी शाही फौज की ओर जाने लगा वह दूत वेश मे नि:शस्त्र था उसके बाँये हाथ मे घोङे की लगाम और दाये हाथ मे एक पत्र था लोग इन सब घटनाओ को देखकर आश्चर्यचकित हो रहे थे झाँगर यंत्रो का और किवाङो को तोङा जाना और असमय मे दूत का शत्रु सेना की ओर जाना विस्मयोत्पादक घटऩाएँ थी जिनको समझने का प्रयास सब कर रहे थे पर समझ कोई नही रहा था
कमालदीन ने दूत के हाथ से पत्र लिया । वह अपने डेरे मे गया और उसे पढने लगा-
"भाई कमालदीन को भाटी मूलराज की जुहार मालूम हो। अप्रंच यहा के समाचार भले है । राज के सदा भले चाहिए ।

आगे का समाचार मालूम हो-

जैसलमेर का इतना बङा और दृढ किला होने पर भी अभी तक यह किला कुँआरा ही बना हुआ है मेरे पुरखा बङे बलवान और बहादुर थे पर उन्होने भी किल का कौमार्य नही उतारा जब तक किला कुँआरा(अविवाहित) रहेगा तब तक भाटियो की गौरवगाथा अमर नही बनेगी और हमारी सन्तानो को गौरव का ज्ञान नही होगा इसलिए मैं लम्बे समय से सुल्तान फिरोजशाह से शत्रुता करता आ रहा हुँ उसी शत्रुता के कारण उन्होने बङी फौज जैसलमेर भेजी है पर मुझे बङा दु:ख है कि वह फौज आज हार कर जाने लगी है इस फौज के चले जाने के उपरान्त मुझे तो भारत मे और कोई इतना बलवान दिखाई नही पङता जो जैसलमेर दुर्ग पर धावा करके इसमे जौहर और शाका करवाये जब तक पाँच राजपुतानियाँ की जौहर की भस्म और पाँच केसरिया वस्त्रधारी राजपूतो का रक्त इसमे नही लगेगा तब तक यह कुआँरा ही रहेगा तुम मेर पगङी बदल भाई और मित्र हो यह समय है अपने छौटे भाई की प्रतिज्ञा रखने और उसे सहायता पहुँचाने का इसलिए मेरा निवेदन है कि तुम अपनी फौज को लौटाओ मत और कल सवेरे ही किले पर आक्रमण कर दौ ताकि जौहर और शाका करके स्वर्गधाम पहुँचने का अमूल्य अवसर मिलै और किले का भी विवाह हो जाए*किले का विवाह

मै तुम्हे वचन देता हूँ कि यहाँ किसी प्रकार का धोखा नही हो हमने किले के झाँगर यन्त्र और किवाङ तुङवा दिये है सो तुम अपना दूत भेज कर मालूम र सकते हो
कमालदीन ने पत्र को दूसरी बार पढा उसके चेहरे पर प्रसन्नता छा गई धीरे धीरे वह गम्भीरता और उदासी के रुप मे बदल गई एक घङी तक वह अपने स्थान पर बैठा सोचता रहा कई प्रकार के संकल्प विकल्प उसके मस्तिष्क मे उठे। अन्त मे उसने दुत से पूछा-

किले में कुल कितने सैनिक है।

;पच्चीस हजार।

पच्चीस हजार
तब तो रावलजी से जाकर कहना कि मैं मजबूर हूँ । मेरे साथी लङने के लिए तैयार नही है । 
संख्या के विषय मे मुझे मालूम नही । आप अपना दूत मेरे साथ भेज कर मालूम कर सकते है । दूत ने बात बदल कर कहा ।

एक दूत घूङसवार के साथ की ओर चल पङा । थोङी देर पश्चात ऊँटों और बैलगाङियो पर लदा हुआ सामान उतारा जाने लगा । उखङा हुआ पङाव फिर कायम होने लगा । शाही फौज के उखङे हुए पैर फिर जमने लगे ।

दशमी की रात्री का चन्द्रमा अस्त हुआ । अन्धकार अपने टिम - टिम टिमटिमाते हुए तारा रुपी दाँतो को निकाल कर हँस पङा । उसकी हँसी को चुनौती देते हूए एक गढ के कंगूरे औरउऩमे लगे हुए पत्थर तक दूर से दिखाई पङने लगे । एक प्रचण्ड अग्नि की ज्वाला ऊपर उठी जिसके साथ हजारो ललनाओं का रक्त आकाश मे चढ गया समस्त आकाश रक्त-रंजित शून्याकार मे बदल गया उन ललनाओ का यश भी आकाश की भाँति फैल कर विस्तृत और #चिरस्थायी हो गया ।

सूर्यौदय होते ही तीन हजार #केसरिया वस्त्रधारी राजपूतो ने कमालदीन की पच्चीस हजार सेना पर आक्रमण कर दिया ।
घङी भर घोर घमासान युद्ध हुआ । 
जैसलमेर दुर्ग की भुमि और दीवारे रक्त से सन गई । 
जल की प्यासी भूमि ने #रक्तपान करके अपनी तृष्णा को शान्त किया अब ।

पुरा शाका भी पुरा हुआ ।

आज कोई ऩही कह सकता कि #जैसलमेर का #दुर्ग #कुँआरा है, कोई नही कह सकता कि #भाटियो ने कोई #जौहर #शाका नही किया , कोई नही कह सकता कि वहा की #जलहीन भूमि #बलिदानहीन है और कोई नही कह सकता कि उस #पवित्र भूमि की अति #पावन #रज के स्पर्श से #अपवित्र भी #पवित्र नही हो जाते । #जैसलमेर का #दुर्ग आज भी #स्वाभिमान से अपना #मस्तक ऊपर किए हुए संदेश कह रहा है । यदि किसी #सामर्थ्य में हो सुन लो और समझ लो वहाँ जाकर ।

लेफ्टिनेंट जनरल हनुत सिंह

लेफ्टिनेंट जनरल हनुत सिंह


1986 में भारत और पाकिस्तान के नक़्शे बदल देते?
1971 की लड़ाई में लेफ्टिनेंट जनरल हनुत सिंह को महावीर चक्र मिला था और उनके जूनियर ऑफिसर अरुण खेत्रपाल को परमवीर चक्र
राजस्थान में बाड़मेर जाते वक़्त जोधपुर से लगभग 80 किलोमीटर के फ़ासले पर एक शहर है-बालोतरा. और इससे कुछ मील दूर है जसोल. विशुद्ध राजस्थानी संस्कृति वाले जसोल में आप अगर किसी बच्चे से भी पूछें कि स्वर्गवासी हुकम हनुत सिंह की ड्योढ़ी कहां है तो वह हाथ पकड़ आपको वहां छोड़ आएगा.
कौन हनुत सिंह? यह पूछने वाले यकीनन भारतीय सेना के सबसे गौरवशाली अफ़सरों में से एक लेफ्टिनेंट जनरल ‘हंटी’ उर्फ़ हनुत सिंह से परिचित नहीं हैं. वे भारतीय सेना के उस ‘भीष्म पितामह’ से वाबस्ता नहीं हैं जिसने सेना में अपना सर्वस्व झोंकने के लिए विवाह नहीं किया. वे उस अधिकारी बारे में नहीं जानते जिसे भारतीय सेना का सबसे कुशल रणनीतिकार कहा जाता है, और वे उस हनुत सिंह को नहीं जानते जो गौरवशाली टैंक रेजिमेंट 17 पूना हॉर्स के कमांडिंग ऑफ़िसर (सीओ) थे. जो नहीं जानते वे अब याद रखें कि सन 1971 की लड़ाई के बाद पाकिस्तान की सेना ने 17 पूना हॉर्स को ‘फ़क्र-ए-हिन्द’ का ख़िताब दिया था. हैरत की बात नहीं, जनता ही नहीं सरकारें भी अब हनुत सिंह को भूल चुकी हैं.

भारतीय सेना के 12 सबसे चर्चित अफ़सरों की जीवनी ‘लीडरशिप इन द आर्मी’ के लेखक रिटायर्ड मेजर जनरल वीके सिंह लिखते हैं, ‘अगरचे कोई एक लफ्ज़ है जो हनुत सिंह के बारे में समझा सके तो वह है- सैनिक’. वे आगे लिखते हैं कि हनुत सेनाध्यक्ष तो नहीं बन पाए पर लेफ्टिनेंट कर्नल रहते हुए भी वे एक किंवदंति बन गए थे.

ऐसा 1971 में हुआ था जब हनुत सिंह 17 पूना हॉर्स के सीओ थे. बैटल ऑफ़ बसंतर की उस मशहूर लड़ाई में दुश्मन से घिर जाने के बावजूद अपने हर जूनियर ऑफ़िसर को एक इंच भी पीछे हटने के लिए मना कर दिया था. इसी लड़ाई में सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल को अद्मय साहस का परिचय देने पर मरणोपरांत परमवीर चक्र मिला था. इसी जंग में शानदार नेतृत्व के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल हंटी को महावीर चक्र मिला था.

पर यहां ज़िक्र 1971 का नहीं, बल्कि 1986 का है जब भारतीय सेना इतिहास में सबसे बड़े युद्धाभ्यास ‘ऑपरेशन ब्रासटैक्स’ के चलते पाकिस्तान पर लगभग हमला करने से कुछ कदम ही पीछे रह गई थी और इसमें हंटी की अहम भूमिका थी.
ऑपरेशन ब्रासटैक्स

एक फ़रवरी 1986 को जनरल के सुंदरजी ने भारतीय सेना की कमान संभाली और राजस्थान से लगी हुई पाकिस्तानी सीमा पर तीनों सेनाओं का संयुक्त युद्धाभ्यास कराने की योजना बनाई. सुंदरजी बदलते दौर की युद्ध शैलियों, एयरफोर्स की एयर असाल्ट डिविज़न और रीऑर्गनाइस्ड असाल्ट प्लेन्स इन्फेंट्री डिविज़न को आज़माना चाहते थे. इस संयुक्त युद्धाभ्यास की कमांड लेफ्टिनेंट जनरल हनुत सिंह के हाथों में सौंपी गई. इससे पहले एक उच्च स्तरीय मीटिंग में हनुत सुंदरजी से किसी बात पर दो-दो हाथ कर चुके थे. तब फ़ौज में यह बात उड़ गई कि हनुत अब रिटायरमेंट ले लेंगे पर सुंदरजी नियाहत ही पेशेवर अफ़सर थे, उन्होंने हनुत का सुझाव ही नहीं माना, उन्हें प्रमोट भी किया था.

तयशुदा प्लान के तहत 29 अप्रैल, 1986 को हनुत ने भारतीय सेना की सुप्रतिष्ठित हमलावर 2 कोर की कमान संभाली और इसे लेकर राजस्थान की सीमा पर आ डटे. एक आंकड़े के मुताबिक़ लगभग डेढ़ लाख भारतीय सैनिक सीमा पर जमा हुए थे. हनुत ने अब तक जो भी सीखा था, उसे इस युद्धाभ्यास में इस्तेमाल किया. रोज़ नए अभ्यास कराये जाते, नक़्शे, सैंड-मॉडल बनाकर हमले की प्लानिंग की जाती और जवानों को गहन ट्रेनिंग दी जाती.

ब्रास टैक्स के कई चरण थे. जब यह युद्धाभ्यास चौथे चरण में पहुंचा तो उनकी कोर को उस प्रशिक्षण से गुज़रना पड़ा जो अब तक नहीं हुआ था. भारत के तीखे तेवर देखकर पाकिस्तान में हडकंप मच गया. पाकिस्तानी सेना हनुत सिंह का युद्ध कौशल 1971 में देख चुकी थी जब बसंतर की लड़ाई में हनुत ने उनके 60 टैंक मार गिराए थे. इस युद्धाभ्यास को सीधे तौर पर संभावित भारतीय हमला समझा गया जिसकी वजह से पाकिस्तानी सरकार के पसीने छूट गए थे. कहते हैं कि पाकिस्तानी संसद में विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री रोज़ाना बयान देकर देश को भारतीय सैन्य ऑपरेशन की जानकारी देते थे.

इस ऑपरेशन ने अमेरिका तक की नींद उड़ा दी थी. पश्चिम के डिप्लोमेट्स भारत की पारंपरिक युद्ध की ताक़त से हैरान रह गए थे. उनके मुताबिक़ यह युद्धाभ्यास नाटो फ़ोर्सेस के अभ्यासों से किसी भी प्रकार कमतर नहीं था. बल्कि, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दक्षिण एशिया में यह तब तक का सबसे बड़ा युद्धाभ्यास था. पाकिस्तान ने ट्रैक 2 डिप्लोमेसी का इस्तेमाल किया और बड़ी मुश्किल से इस युद्धाभ्यास को रुकवाया.

सुंदरजी इसे सिर्फ़ एक अभ्यास की संज्ञा दे रहे थे पर जानकारों के मुताबिक़ इस युद्धाभ्यास का असल मकसद कुछ और ही था. इसके रुकने पर हनुत और उनके अफ़सर बड़े मायूस हुए. वीके सिंह लिखते हैं कि हनुत का पिछला रिकॉर्ड देखते हुए यकीन से कहा जा सकता है कि अगर हनुत को इजाज़त मिल जाती तो वे दोनों मुल्कों का नक्शा बदल देते.
सिक्किम में वीआईपी कल्चर बंद कर दिया

यह क़िस्सा 1982 का है जब हनुत सिंह मेजर जनरल बने और सिक्किम में तैनात 17 माउंटेन डिविज़न की कमान उनके हाथों में आई. सिक्किम के तत्कालीन गवर्नर होमी तल्यारखान की इंदिरा गांधी के साथ नज़दीकी के चलते सेना के उच्चाधिकारी उनकी हाज़िरी में खड़े रहते. उन दिनों जो भी सरकारी अधिकारी सिक्किम घूमने आते, वे सेना की मेहमाननवाज़ी का लुत्फ़ उठाते. हनुत ने यह सब बंद करवा दिया. बल्कि उन्होंने आने वाले सरकारी सैलानियों से सरकारी शुल्क वसूलना शुरू कर दिया.
सिक्किम में फॉरवर्ड पोस्टों पर सेना का हाल ख़राब था. न रहने के लिए मुकम्मल इंतज़ाम था न बिजली की व्यवस्था थी. हनुत सिंह ने सेना के उच्चाधिकारियों को पत्र लिखकर हालात सुधारने की बात कही तो उनके रिपोर्टिंग ऑफ़िसर ने मना कर दिया. हारकर, जब उन्हें कहीं से भी कोई सहायता नहीं मिली तो उन्होंने लकड़ियों से सैनिकों के लिए बैरक और शौचालय बनवाए. वहां पर जनरेटर लगवाए.
कुछ साल बाद जब उनका तबादला कहीं और हो गया तो विदाई के समय सैनिकों ने उन्हें एक मेमेंटो दिया जिस पर लिखा हुआ था, ‘जितना सैनिकों के लिए बाक़ी अफ़सरों ने 20 साल में किया है, आपने एक साल में कर दिखाया’. उनका मानना था कि एक सैनिक जितना अपने अफ़सर के लिए कुर्बानी देता है, उतना अफ़सर उसके लिए नहीं करते.

जूनियर अफ़सरों के मां-बाप हंटी से परेशान थे

हनुत सिंह का मानना था कि सैनिक अगर शादी कर लेता है तो परिवार सेवा देश सेवा के आड़े आती है. लिहाज़ा, वे आजीवन कुंवारे रहे. वे अपने जूनियर अफ़सरों को भी ऐसी ही सलाह देते. एक समय ऐसा भी आया कि उनकी यूनिट में काफ़ी सारे जवान और अफ़सर उनके इस फ़लसफ़े से प्रभावित होकर कुंवारे ही रहे. इस बात से जूनियर अफ़सरों के मां-बाप हनुत सिंह से परेशान रहते. कइयों ने शिकायत भी की पर उनकी सेहत पर इस तरह की शिकायतों का असर नहीं होता था.
बेबाकी

1971 की लड़ाई के बाद जब उन्होंने अपनी रिपोर्ट पेश की तो उसमें लिख दिया कि सेना के बड़े अफसर जंग ख़त्म होने से कुछ ही घंटे पहले बॉर्डर पर आये थे. इस बात से उनके उनके कई वरिष्ठ अफ़सर उसे नाराज़ हो गए पर हनुत को अपनी काबलियत का बख़ूबी अंदाज़ा था जिसके चलते वे किसी की परवाह नहीं करते. कई बार तो बात यहां तक बढ़ जाती कि उनके अफ़सर अपनी फ़जीहत रुकवाने के लिए बैठकें ख़त्म कर देते थे.
1971 में उनके कमांडिंग ऑफ़िसर अरुण श्रीधर वैद्य (बाद में सेनाध्यक्ष) ने एक बार जंग के दौरान उनसे हालचाल मालूम करने की कोशिश की तो हनुत ने कहलवा दिया कि वे ‘पूजा’ कर रहे हैं और अभी बात नहीं कर सकते!’ दरअसल, जंग के दौरान वे किसी भी प्रकार का दख़ल बर्दाश्त नहीं करते थे. हनुत सिंह की काबिलियत का अंदाज़ा से बात से भी लगाया जा सकता है कि भारत में टैंकों की लड़ाई पर उनके लिखे दस्तावेज़ आज भी इंडियन मिलिट्री अकादमी में पढ़ाये जाते हैं.

इतनी काबिलियत के बावजूद हनुत सिंह सेनाध्यक्ष नहीं बनाए गए. कहते हैं कि जब उन्हें यह बात मालूम हुई तो वे बड़े ही धीर स्वर में बोले, ‘यह मेरा नहीं देश का नुकसान है कि उन्होंने काबिलियत के बजाए किसी और चीज को प्राथमिकता दी है.’ यह तय है कि हर क़ाबिल अफ़सर सेनाध्यक्ष नहीं बनता और हर सेनाध्यक्ष क़ाबिल नहीं होता.

लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह राठौड़

लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह राठौड़ जिन्होंने भरी सभा मे पंडित जवाहरलाल नेहरू की चुटकी ले ली । 

     लेफ्टिनेंट जनरल नाथूसिंह राठौड़ , एक ऐसी शख्सियत जिन्हें हम सभी को अवश्य जानना चाहिए  ।  कौन हैं नाथू सिंह राठौड़ ,
 तो फिर आइये जानते हैं इनके महान व्यक्तित्व को । 

   लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह राठौर सन् 1902 में पैदा हुए थे. वो ठाकुर हामिर सिंह जी के इकलौते बेटे थे और अपने माता-पिता को बचपन में ही खो देने के बाद उन्हें #डुंगरपुर के महारावल विजय सिंह ने पाला था. उन्हें उनके दोस्त बागी कहकर पुकारते थे. एक बेहतर आर्मी अफसर बनने की तैयारी के लिए वे इंग्लैंड के प्रतिष्ठित Sandhurst मिलिट्री कॉलेज भी गए थे. वह एक उत्कृष्ट अफसर तो बने ही, लेकिन उनको इतिहास में एक ईमानदार और बेबाक सैन्‍य अफसर के रूप में याद किया जाता है. जिसने सेना की एक बेहद महत्‍वपूर्ण नीति को दिशा दी। 
  
   #ब्रिटिश अधिकारियों और उनकी मेस का अपमान -  नाथूसिंह राठौड़ जी चुकी शाही परिवार से सम्बंध रखते थे  , इसलिए वो मेस में अंग्रेजों अफसरों  के साथ भोजन ग्रहण करने से मना कर दिए थे 
इस बात पर बहुत बवाल मचा था क्योंकि अंग्रेज भारतीयों को तुच्छ समझते थे और  पहली बार किसी भारतीय ने अंग्रेजों को यह महसूस करवाया की उनकी औकात एक राजपूत रजवाड़े के सामने क्या हैं। 

    नेहरू vs नाथू सिंह राठौड़ :- 

  भारत की स्वतंत्रता के बाद पंडित जवाहर लाल नहरू ने एक मीटिंग बुलाई थी जिसमें डिफेंस फोर्स के उच्च अधिकारी और कांग्रेस पार्टी के सभी बड़े नेता मौजूद थे. उस मीटिंग का मकसद था कि भारतीय #आर्मी #चीफ के पद पर किसी अच्छे सिपाही को रखा जाए। 
  
  नेहरू ने उस मीटिंग में कहा था कि मुझे लगता है कि 'किसी ब्रिटिश ऑफिसर को भारतीय आर्मी का जनरल बना देना चाहिए. हमारे पास संबंधित विषय के लिए ज्यादा अनुभव नहीं है. ऐसे में भारतीय आर्मी को लीड कैसे कर पाएंगे।

     उस मीटिंग में मौजूद अधिकतर लोग इस बात के लिए मान गए, लेकिन लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह राठौर नहीं माने. उन्होंने भरी सभा में नेहरू को जवाब दिया ।

  पर सर, हमारे पास देश को चलाने के लिए भी कोई अनुभव नहीं है. तो क्या हमें किसी ब्रिटिश को भारत का पहला #प्रधानमंत्री नहीं चुन लेना चाहिए?' 

    नेहरू शर्मिंदा हुए और उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ ,  फिर  राठौड़ साहब को आर्मी चीफ के पद पर नियुक्ति के लिए प्रस्ताव रखा गया किन्तु उन्होंने अपने सीनियर   #के. एम. करिअप्पा का नाम आगे बढ़ा दिया । और इसी प्रकार भारत के पहले आर्मी चीफ  के. एम. करिअप्पा हुए । 

     अगर राठौड़ साहब ने दिलेरी न दिखाई होती तो , आजादी की मांग करने वाले हम भारतीयों के मुह पर यह एक करारा तमाचा साबित होता , क्योंकि हम वैश्विक पटल पर यह एक बार फिर साबित कर रहे थे कि हम भारतीय अपने देश को चलाने योग्य नहीं हैं , और हमे ब्रिटेन से  भाड़े पर अंग्रेज अधिकारी चाहिए । 

सोमवार, 6 अप्रैल 2020

मरणो एकण बार

मरणो एकण बार 
राजस्थान री मध्यकालीन वीर मिनखां अर मनस्विनी महिलावां री बातां सुणां तो मन मोद ,श्रद्धा अर संवेदनावां सूं सराबोर हुयां बिनां नीं रैय सकै।
ऐड़ी ई एक कथा  है कोडमदे अर सादै(शार्दूल) भाटी री।
कोडमदे छापर-द्रोणपुर रै राणै माणकराव मोहिल री बेटी ही।

ओ द्रोणपुर उवो इज है जिणनै पांडवां-कौरवां रा गुरु द्रोणाचार्य आपरै नाम सूं बसायो।

मोहिल चहुवांण राजपूतां री चौबीस  शाखावां मांय सूं एक शाखा रो नाम जिका आपरै पूर्वज 'मोहिल' रै नाम माथै हाली।

इणी शाखा में माणकराव मोहिल हुयो।जिणरै घरै कोडमदे रो जलम हुयो।कोडमदे रूप, लावण्य अर शील रो त्रिवेणी संगम ही।मतलब अनद्य सुंदरी।
राजकुमारी ही सो हाथ रै छालै ज्यूं पल़ी अर मोटी हुई।

राजकुमारी कोडमदे मोटी हुई जणै उणरै माईतां नै इणरै जोड़ वर जोवण री चिंता हुई।उण दिनां राजपूतां में फूठरै वर नै इती वरीयता नीं दिरीजती जिती  एक वीर पुरुष नै दिरीजती।इणी कारण उणरी सगाई मंडोवर रै राजकुमार अड़कमल चूंडावत सागै करी दी गई।

कोडमदे जितरी रूप री लंझा ही अडकमल उतरो इज कठरूप।एक'र चौमासै रो बगत हो।बादल़ चहुंवल़ा गैंघूंबियोड़ा हा,बीजल़ी पल़ाका करै ही ,झिरमिर मेह वरसै हो।ऐड़ै में जोग सूं एकदिन अड़कमल सूअर री शिकार रमतो छापर रै गोरवैं पूगग्यो।उठै ई जोग सूं कोडमदे आपरी साथण्यां सागै झूलरै में हींड हींडै ही।हींड लंफणां पूगी कै उणरी नजर सूअर लारै घोड़ै चढिये डारण देहधारी बजरागिये अड़कमल माथै पूगी।नजर रै सागै ई उणरो सास ऊंचो चढग्यो अर उवां थांथल़ीजगी।थांथरणै रै साथै ई धैंकीज'र पड़गी।पड़तां ई उणरो सास ऊंचो चढग्यो।रंग में भंग पड़ग्यो।साथण्यां ई सैतरै-बैतरै हुयगी। उणनै ऊंचाय'र महल में लेयगी अर झड़फा-झड़फी करण  सूं उणरो सास पाछो बावड़्यो।ज्यूं सास बावड़्यो जणै साथण्यां पूछ्यो कै-
"बाईसा! इयां एकएक भंवल़ कियां आयगी?ओ तो आखड़िया जैड़ा पड़िया नीं नीतर आज जुलम हुय जावतो।म्हे मूंडो ई कठै काढती?"

जणै कोडमदे कह्यो कै-
"अरै गैलक्यां भंवल़ नीं आई।म्हैं तो उण ठालैभूलै ठिठकारिये घोड़ै सवार नै देखर धैलीजगी।"

आ सुणतां ई उणां मांय सूं एक बोली -
"अरे बाईसा!उवै घोड़ै सवार नै देख'र ई धैलीजग्या जणै पछै उण सागै रंगरल़ी कीकर करोला?उणरै सागै तो थांरो हथल़ोवो जुड़ण वाल़ो है!"

"हैं!उण सागै म्हारो हथल़ेवो!तूं आ कांई काली बात करै?अर जे आ बात सही है अर ओ इज अड़कमल है तो सुणलो इण सागै हथल़ोवो जोड़ूं तो म्हारै बाप सागै जोड़ूं।"कोडमदे रै कैतां ई आ बात उणरै माईतां तक पूगी।
कोडमदे रै मा-बाप दोनां ई कह्यो -
"बेटी !तूं आ बात जाणै नीं है कै थारो हुवण वाल़ो वींद कितरो जोरावर अर आंटीलो है।उणरै हाथ रो वार एक'र तो भलां-भलां सूं नीं झलै।पछै तूं ई बात नै  जाणै है कै नीं कै सिहां अर सल़खाणियां सूं वैर कुण मोल लेवै?आ सगाई छोड दां ला तो थारो हाथ झालण नै, ई जमराज सूं डरतो कोई त्यार नीं हुवैला।"
आ सुणतां ई कोडमदे कह्यो-
"अंकनकुंवारी रैय सकूं पण अड़कमल सूं गंठजोड़ नीं जोड़ूं।"

माणकराव मोहिल आपरी बेटी रो नारेल़ दे मिनखां नै वल़ोवल़ी मेल्या पण अड़कमल रै डर सूं किणी कान ई ऊंचो नीं कियो।
सेवट आदमी पूगल रै राव राणकदे भाटी रै बेटे सादै(शार्दूल)नै कोडमदे रै जोग वर मान टीको लेयग्या। पण राणकदेव सफा नटग्यो।उण राठौड़ां सूं भल़ै वैर बधावणो ठीक नीं समझ्यो।
मोहिलां रा आदमी मूंडो पलकार'र पाछा टुरग्या।उवै पूगल़़ सूं कोस दो-तीनेक आगीनै आया हुसी कै पूगल़ रो कुंवर सादो उणांनै आपरी घोड़ी चढ्यो मिल्यो।
असैंधा आदमी देख'र सादै पूछ्यो तो उणां पूरी बात धुरामूल़ सूं मांड'र बताई।
जद सादै नै इण बात रो ठाह लागो तो उणरो रजपूतपणो जागग्यो,मूंछां रा बाल़ ऊभा हुयग्या।भंवारा तणग्या।उण मोहिलां रै आदम्यां नै कह्यो-
 "हालो पाछा पूगल़।टीको म्हारै सारू लाया हो तो नारेल़ हूं झालसूं!
सादै आवतां रावजी नै कह्यो कै-
"हुकम!ठंठेरां री मिनड़ी जे खड़कां सूं डरै तो उणरै पार कीकर पड़ै?जूंवां रै खाधां कोई गाभा थोड़ा ई न्हाखीजै?राजपूत अर मोत रै तो चोल़ी-दामण रो साथ है।जे टीको नीं झाल्यो तो निकल़ंक भाटी कुल़ रै.जिको कल़ंक लागसी उवो जुगां तक नीं धुपैलो।आप तो जाणो कै गिरां अर नरां  रो उतर्योड़ो नीर पाछो नीं चढै--
धन गयां फिर आ मिले,
त्रिया ही मिल जाय।
भोम गई फिर से मिले,
गी पत कबुहन आय।।
आ कैय सादै, मोहिलां री कुंवरी कोडमदे रो नारेल़ झाल लियो पण एक शर्त राखी कै -
"म्हारी कांकड़ में बड़ूं जितै म्हनै राठौड़ां रो चड़ी रो ढोल नीं सुणीजणो चाहीजै तो साथै ई उणांरै रै घोड़ां रै पोड़ां री खेह ई नीं दीसणी चाहीजै।
ऐ दोनूं बातां हुयां म्है उठै सूं एक पाऊंडो ई आगै नीं दे सकूं।क्यूंकै--
झालर बाज्यां भगतजन,
बंब बज्यां रजपूत।
ऐतां बाज्यां ना उठै,
(पछै)आठूं गांठ कपूत।।
मोहिलां वचन दियो अर सावो थिर कियो।
आ बात जद अड़कमल नै ठाह लागी तो उणरै रूं-रूं में लाय लागगी।उण आपरै साथ नै कह्यो- कै -
"मांग तो मर्यां नीं जावै। हूं तो जीवतो हूं।सादै अर मोहिलां अजै म्हारी खाग रो पाणी चाख्यो नीं है।हुवो त्यार।मोहिलवाटी सूं निकल़तां ई सादै नै सुरग रो वटाऊ नीं बणा दियो तो म्हनै असल राजपूत मत मानजो।"
अठीनै सादो जान ले चढ्यो अर उठीनै अड़कमल आपरा जोधार लेय खार खाय चढ्यो।
माणकराव आपरी लाडकंवर रो घणै लाडै -कोडै ब्याव कियो अर आपरै सात बेटां नै हुकम दियो कै-
"बाई नै पूगल़ पूगायर आवो।आपां सादै नै वचन दियो है पछै भलांई स्वारथ हुवै कै कुस्वारथ बात सूं पाछो नीं हटणो।
आगै मोहिल अर लारै आपरी परणेतण कोडमदे सागै सादो।
मोहिलवाटी सूं निकल़तां ई अड़कमल रो मोहिलां सूं सामनो हुयो।ठालाभूलां नै मरण मतै देख एक'र तो राठौड़ काचा पड़्या पण पछै सवाल मूंछ रो हो सो राटक बजाई।बारी -बारी सूं मोहिल आपरी बैन री बात सारू कटता रैया पण पाछा नीं हट्या।जसरासर,साधासर,कुचौर,नापासर,आद जागा मोहिल वीर राठौड़ां सूं मुकाबलो करतां कटता रैया।छठो भाई बीकानेर अर नाल़ रै बिचाल़ै कट्यो तो सातमो मेघराज मोहिल आपरी बात सारूं कोडमदेसर में वीरगत वरग्यो।ऐ सातूं भाई आज ई इण भांयखै में भोमियां रै रूप में लोक री श्रद्धा रा पूरसल पात्र है।
हालांकि उण दिनां ओ कोडमदेसर नीं हो पण आ छेहली लड़ाई इणी जागा हुई। अठै इज भाटी सादै अर अड़कमल री आंख्यां च्यार हुई।उठै आदम्यां सादै नै कह्यो -
"हुकम!आप ठंभो मती।आप पूगल़ दिसा आगै बढो।"
जणै सादै कह्यो कै-
"हमैं कांकड़ म्हारी है!म्हैं अठै सूं न्हाठ'र कठै जाऊंलो?मोत तो एक'र ई  आवै ,रोजीनै नीं-
कंथा पराए गोरमे,
नह भाजिये गंवार।
लांछण लागै दोहुं कुल़ां,
मरणो एकण बार।।
 जोरदार संग्राम हुयो सेवट अड़कमल रै हाथां सादो भाटी ई वीरता बताय'र आपरी आन-बान रै सारू स्वर्गारोहण करग्यो पण धरती माथै नाम अमर करग्यो।
आपरै पति नै वीरता सागै लड़'र वीरगत वरण माथै कोडमदे नै ई अंजस हुयो।उण आपरी तरवार काढ आपरो जीवणो हाथ बाढ्यो अर  उठै ऊभै एक आदमी नै झलावतां कह्यो-
"लो !ओ म्हारो  हाथ पूगल ले जाय म्हारी सासू रै पगै लगावजो अर कैजो कै थांरै बेटे थांरो दूध नीं लजायो तो थांरी बहुआरी थांरो नाम नीं लजायो तो ओ दूजै हाथ रो गैणो है इणसूं म्हारै सुसरैजी नै कैजो कै इण तालर में तिसियां खातर एक तल़ाव खणावजो।"
इतो कैय  उण जुग री रीत मुजब कोडमदे रथी बणाय आपरै पति महावीर सादै रै साथै सुरग पूगी-
आ धर खेती ऊजल़ी,
रजपूतां कुल़ राह।
चढणो धव लारै चिता,
बढणो धारां वाह!!
उठै राव राणकदे कोडमदे री स्मृति में कोडमदेसर तल़ाब खोदायो जिको इण बात रो आज ई साखीधर है कै मरतां-मरतां ई आपरी बात री धणियाणी मनस्विनी कोडमदे किणगत लोककल्याणकारी भावनावां रो सुभग संदेश जगत नै देयगी।
गिरधरदान रतनू दासोड़ी

गुरुवार, 15 अगस्त 2019

कीरत कज कुरबान किया

कीरत कज कुरबान
किया--
        
आदू कुल़ रीत रही आ अनुपम,
भू जिणरी भल साख भरै।
महि मेवाड़ मरट रा मंडण,
सौदा भूषण जात सिरै।।1

दिल सूं हार द्वारका दिसिया,
वाट हमीरै राण वरी।
माता वचन बारू मन मोटै,
केलपुरै री मदत करी।।2

चढियो ले पमंग पांचसौ चारण,
सीर सनातन भीर सही।
वीरत पाण राखिया बारू,
मेदपाट रा थाट मही।।3

दिल सनमान सिसोदै दीधो,
दूथी निजपण थाप दियो।
हाटक गयँद साथ में हैवर,
कूरब कव रो अथग कियो।।4

अड़सी सुतन आंतरी अरपी,
साथै ग्यारा गांम सही।
बारू नीत ऊजल़ी वीदग,
राजावां  सम रीत रही।।5

हेतव वरत भांजवा हाडै,
कुबुद्धि लालै वाद कियो।
व्रतधारी बारू उण वेल़ा,
दूथी निज सिर काट दियो।।6

बारू तणै वंश में बेखो,
जैसो केसव मरद जयो।
पातल रै जुपिया पख जाहर,
अंजस सुणियां सरब अयो।।7

हल़दीघाट हींसिया हैवर,
रजवट पातल उठै रखी।
कट पड़िया जैसो नै केसव,
ईहग वीरत रखण अखी।।8

ज्यांरो जस जाणै सह जगती,
कवियण वरणै बात कसी।
सँभल़ी जिकां गरब सूं सांप्रत,
चित आजादी जोत चसी।।9

बारू तणी ऐल़ में बेखो,
हेक भल़ै नरपाल़ हुवो।
जुपियो पखै मरद जगदीसर,
वीरत वाल़ी वाट बुवो।।10

ओरँग चढ आयो उदियापुर,
राजड़ सूं रण रचण रसा।
हलचल़ हुई सिसोदां हिरदै,
कव वरणै वरणाव कसा।।11

राणो जदन सुरक्षित राजड़,
गढ तजनै वन भोम गयो।
अणडर वीर पोल़ रै आडो,
अनड़ लड़ण नरपाल़ अयो।।12

कट पड़ियो कुटका हुय कवियण,
निडर पोल़ सूं हट्यो नहीं।
मातभोम मानी सम माता,
मंडी नरपत मरण मही।।13

पसर्यो सुजस जैण रो पुहमी,
सकवि हरस्या सँभल़ सको।
हुइयो नाय दूसरो हेतव,
नरिये रै समरूप नको।।14

किसनो हुवो ऐण कुल़ कवियण,
मुर- सुत जिणरै शेर मनो।
केसर किशो जोरसी कहिये,
धर नित लाटण धिनो धिनो।।15

केसर हुवो केसरी समवड़,
दाकल गूंजी दिसो दसां।
धुरपण मर्द धीरत रो धारी,
कीरत पसरी कितै किसां।।16

अड़ियो नर आजादी कारण,
सँकिया गोरा जदै सको।
दूठां जद दारूण दुख दीधो,
पात हुवो दुख पाय पको।।18

त्यागी पुरस त्यागियो तन-सुख,
दिल-सुख फेरूं त्याग दियो।
त्याग दियो परिवार तिकै दिन,
कटण देश कज मतो कियो।।19

तन- मन- धन परिवार तीखपण,
दुख जन हरवा छोड दिया।
केहरिया किसनेस- तणा कव, 
कीरत कज कुरबान किया।। 20

वतन हितैषी भमियो बेखो,
भाखर थल़ियां किती भल़ै।
थिरता रखी अंकै नीं थाको,
गरल़ भूतपत जेम गल़ै।।21

जेल़ा़ं  भुगत कष्ट सह झूल्यो,
भूल्यो नाहीं गुमर भलां।
वतनपरस्ती पाल़ वडै नर,
गाढ धार इल़ थपी गलां।।22

हिवड़ै लेस लायो न हीणप
रेणव तण-तण ऊंच रखी।
पच थाका गोरा बल़ पूरै,
दाव दीनता नाय दखी।।23

मोटो मिनख हिंद रो मोभी,
निमख इये में झूठ नहीं।
किसना-तणा ताहरी कीरत,
कवियण प्रणमे गीध कही।।24
गिरधरदान रतनू दासोड़ी